मराठी साहित्य – मराठी कविता – * ओळख  * – सुश्री मीनाक्षी भालेराव

सुश्री मीनाक्षी भालेराव 

ओळख 

(सुश्री मीनाक्षी भालेराव जी की भारतीय परिवेश में स्त्री की पहचान उजागर करती हृदयस्पर्शी कविता।)

 

लाहान असतानी
जेव्हा  कुणी
घरी आल्यावर
आई बाबा मला
हाक मारून सांगायचे
बाला जा पटकन
चाह नाश्ता बनवून आण
अणी मी
अभ्यास वगैरा
सोड़ून
पदार्थ करून आणायचे
तेव्हा माझी ओळख होते
कित्ती  हुशार हो
लेक तुमची
सुरेख नाष्टा बनविले
मुलगा बघायला आला  तेव्हा ही
माझी ओळख
जेवण बनविल्यानी झाली
काय छाण जेवण
बनवल हो तुमची
लेक नी
आम्हाला आवडली
बर का
रिश्ता पक्का
तेव्हाही
मला कोणी विचारले नाही
तु अभ्यासात् कित्ती
हुशार आहे
इतर गोष्ठी तुला
अजून काय काय आवडते
सासरी पहिल्यांदा
रसोई बनविले
तेव्हाही माझी खुप
स्तुति झाली
अस वाटले मला
आज पण
समाजात काही
बदल झाला नाही
मुलगी कित्ती ही
शिकलेली असावी
कित्ती ही कमवून देणारी असावी
कित्ती ही गुणी असु दया
दिसायला सुरेख असू दया
पण तिची ओळख मात्र
छान स्वयंपाक बनवून देणारी
खाऊ घालणारी हिच राहते
स्त्री म्हणजे
स्वयंपाक घरातली
बन्धवा मजदूर ।
© मीनाक्षी भालेराव, पुणे 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (19) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(सांख्ययोग का विषय)

 

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्‌।

उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ।।19।।

जो इसको हन्ता या कि, मृत करते अनुमान

न मरती, न मारती, उनका है अज्ञान।।19।।

भावार्थ :   जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी द्वारा मारा जाता है।।19।।

 

He who takes the Self to be the slayer and he who thinks He is slain, neither of them knows; He slays not nor is He slain. ।।19।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-8 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद– 8 

टाइम्स ऑफ इंडिया (जबलपुर संस्कारण) के 19 मार्च 2019 के अंक में समाचार चैनलों की बेवजह/बेमानी बहसों के बीच एक सकारात्मक समाचार पढ़ कर लगा कि भाग दौड़ भरी इस दुनियाँ में अब भी इंसानियत जीवित है। क्यों ऐसे समाचार समुचित स्थान नहीं  पाते जो इंसान को इंसान से जोड़ते हों। संक्षिप्त में समाचार कुछ इस प्रकार है :

संयोगवश विश्व किडनी दिवस (14 मार्च 2019) के दिन मुंबई के एक अस्पताल में दो परिवारों के मध्य एक अनुकरणीय किडनी प्रत्यारोपण ऑपरेशन किया गया। ठाणे के एक मुस्लिम परिवार एवं बिहार के एक हिन्दू परिवार में उनके पतियों को किडनी की आवश्यकता थी। उन्होने सर्वप्रथम अपने अपने परिवारों में प्रयास किया किन्तु ब्लड ग्रुप मैच न होने के कारण यह संभव नहीं हो पाया।  संयोगवश दोनों परिवार की पत्नियों का ब्लड ग्रुप एवं किडनियाँ एक दूसरे के पतियों से मैच हो रही थी। अतः  दोनों परिवार की पत्नियों ने एक दूसरे के पतियों को अपनी किडनियाँ दान देकर न केवल इंसानियत की मिसाल पेश की अपितु एक दूसरे परिवार से आजीवन रक्त संबंध भी बना लिए।

इस अनुकरणीय उदाहरण को आप किस दृष्टि से देखेंगे। हो सकता है कोई साहित्यकार इस पर लघुकथा भी लिख दे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। आखिर हम अपने आस पास से अपनी रचनाओं के लिए ऐसे चरित्रों/पात्रों को ही तो तलाशते रहते हैं।

इस संदर्भ में मुझे अपने एक कलाम “जख्मी कलम की वसीयत” की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं जो आपसे साझा करना चाहूँगा:

 

मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना,

इसलिए यह अमन का पैगाम लिख रहा हूँ।

इंसानियत तो है ही नहीं मज़हबी सियासत

ये कलाम इंसानियत के नाम लिख रहा हूँ।

ये सियासती गिले शिकवे यहीं पर रह जाएंगे,

बेहद हसीन दुनियाँ तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।

आज बस इतना ही।

हेमन्त बावनकर

22 मार्च 2019

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मराठी साहित्य – कविता **पडघम** श्रीअशोक श्रीपाद भांबुरे

श्रीअशोक श्रीपाद भांबुरे
*पडघम*
(प्रस्तुत है श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी की शृंगार रस  पर आधारित  एक भावप्रवण कविता।)

 

तुझा हा रेशमी मुखडा, वाटतो चंद्रमा चमचम

तुझे हे पाय चंदेरी, हृदयभर छेडती सरगम

 

कधी ना माळला गजरा, लावली ना कधी लाली

तरी प्रेमात का वेडी, सूरमय शाम झालेली ?

गुलाबी पाकळ्या ओठी, लागला सूर हा पंचम

तुझे हे पाय चंदेरी, हृदयभर छेडती सरगम

 

अशी ही भरजरी वस्त्रे, अंगभर तू जरी ल्याली

नशा ही सांडते अवखळ, तप्त ओठात उरलेली

ऋतुंना ठाव लागेना, कोणता हा तुझा मोसम

तुझे हे पाय चंदेरी, हृदयभर छेडती सरगम

 

वयाला बंधने आली, जाणती आज तू झाली

तुझ्यावर रोखती नजरा, होय हा जीव वरखाली

मनाला शांतता कोठे?, अंतरी वाजती पडघम

तुझे हे पाय चंदेरी, हृदयभर छेडती सरगम

 

सुखाला अंत ना उरला, पाहिला स्वार घोड्यावर

सरसरे अंगभर काटा, स्तब्ध हा देहही पळभर

फुलवण्या बाग ही आता, हात हे आपुले सक्षम

तुझे हे पाय चंदेरी, हृदयभर छेडती सरगम

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे
धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.
मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (18) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(सांख्ययोग का विषय)

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।

अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ।।18।।

नाशवान है देह यह , आत्मा अमर अपार

इससे उठ औ”युद्धहित,अर्जुन हो तैयार।।18।।

      

भावार्थ :   इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गए हैं, इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर।।18।।

 

These bodies of the embodied Self, which is eternal, indestructible and immeasurable, are said to have an end. Therefore, fight, O Arjuna! ।।18।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल – Buddha: Quotes – Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

Video Link >>>>>>

 

 

The mind when developed and cultivated brings happiness….

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore

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ई-अभिव्यक्ति: संवाद-7 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद– 7 

आशा करता हूँ आपको e-abhivyakti के होली विशेषांक की रचनाएँ पसन्द आई होंगी जिन्हें मित्र एवं वरिष्ठ रचनाकारों ने बड़ी मेहनत से तैयार की थीं।

वास्तव में 21 मार्च को मात्र होली पर्व ही नहीं था अपितु और भी महत्वपूर्ण राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय दिवस भी थे। इनमें दो का उल्लेख करना चाहूँगा।पहला National Single Parent Day  – 21st March और दूसरा विश्व कविता दिवस – 21 मार्च। National Single Parent Day  – 21st March के उपलक्ष में सुश्री स्वपना अमृतकर की भावप्रवण मराठी रचना “माऊली” प्राप्त हुई। शेष रचनाएँ “विश्व कविता दिवस” से संबन्धित हैं।

जब कभी कविता की चर्चा होती है और मैं अपना आकलन करने की चेष्टा करता हूँ तो उन हस्तियों में हिन्दी के कुछ चर्चित नाम हैं डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”,  डॉ. विजय तिवारी “किसलय”, डॉ. सुरेश कुशवाहा “तन्मय” एवं सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा।

अभी हाल ही में मेरा परिचय मराठी के समकालीन वरिष्ठ कवि कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  से हुआ। इनके काव्य एवं साहित्य के प्रति समर्पण की भावना से मैं हतप्रभ हूँ। इसी संदर्भ में मराठी के सशक्त हस्ताक्षरों से परिचय हुआ। इनमें कुछ चर्चित नाम हैं  जैसे सुश्री प्रभा सोनवणे, सुश्री रंजना लसणे,  सुश्री स्वप्ना अमृतकर, सुश्री आरूशी दाते, श्री दीपक करंदीकर, श्री टीकम शेखावत, श्री सुजित कदम आदि। संयोगवश मैं इनमें से श्री दीपक जी के अतिरिक्त किसी से भी व्यक्तिगत नहीं मिल सका किन्तु, इनका साहित्य पढ़ते-पढ़ते इनकी छवि अवश्य कहीं न कहीं मस्तिष्क में अंकित हो गई है।

इन सबके काव्य संयोजन में एक बात जो मुझे इनसे जोड़ती है वह है इन सबका संवेदनशील हृदय, शब्दों का चयन, मनोभावनाओं का उत्कृष्ट शाब्दिक चित्रण और भाषा पर नियंत्रण।

इस संदर्भ में मैं अपनी कविता “Words ….. and Poetry” की निम्न पंक्तियाँ आपसे साझा करना चाहता हूँ।

My words

never sleep.

When you are sleeping

then

and

even when I sleep

then too.

 

These words are

my existence

my identity.

 

When the world sleeps

in their own sleep,

then these words

awake me

and

make me feel that

some words are innocent

unknown to each other

I try to associate them

in my vocabulary

in my brain

and

try to tell them –

It is only their identity.

These words

sometimes

correlate with each other

and

sometimes

slip from the hand

slip from the heart

and

slip away

far away …

None can

bind them,

one’s brain even

and

even boundaries of

the nations too.

 

Whenever,

I feel lonely

alone

in silence,

these words

try to tell me

songs of lakes

and

songs of springs.

 

Breeze over

green fields

and

green meadows.

 

Fearful stories

of hills

dark forests

and

history buried

in and under

the historical forts.

 

These words have

their own identity

in my heart

in my vocabulary.

 

My all words are

superb

extremely superb

to me.

 

Sometimes,

I get

some insensitive words

in the journey of life

they disturb me.

I had to keep them away

then only

I could create such poetry

from the remaining words.

 

आज बस इतना ही।

 

हेमन्त बावनकर

21 मार्च 2019

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हिन्दी साहित्य-कविता – जीवन-प्रवाह – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

 

जीवन-प्रवाह  

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की  विश्व कविता दिवस पर जीवन की कविता –जीवन –प्रवाह” )

 

सबसे बड़ी होती है आग,

और सबसे बड़ा होता है पानी,

तुम आग पानी से बच गए,

तो तुम्हारे काम की चीज़ है धरती,

धरती से पहचान कर लोगे,

तो हवा भी मिल सकती है,

धरती के आंचल से लिपट लोगे,

तो रोशनी में पहचान बन सकती है,

तुम चाहो तो धरती की गोद में,

पांव फैलाकर सो भी सकते हो,

धरती को नाखूनों से खोदकर,

अमूल्य रत्नों भी पा सकते हो,

या धरती में खड़े होकर,

अथाह समुद्र नाप भी सकते हो,

तुम मन भर जी भी सकते हो,

धरती पकडे यूं मर भी सकतेहो,

कोई फर्क नहीं पड़ता,

यदि जीवन खतम होने लगे,

असली बात तो ये है कि,

         धरती पर जीवन प्रवाह चलता रहे। 

 

© जय प्रकाश पाण्डेय, जबलपुर

(श्री जय प्रकाश पाण्डेय, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा हिन्दी व्यंग्य है। )

 

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मराठी साहित्य – मराठी कविता – *कविताच माझी* – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

*कविताच माझी*

(प्रस्तुत है  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  द्वारा “विश्व कविता दिवस – 21 मार्च” पर  वीणावादिनी देवी माँ सरस्वती को नमन करती हुई कवि-हृदय  के उद्गारों  से परिपूर्ण  कविता “कविताच माझी “। )

 

वृत्त  भुजंग प्रयात.

 

गणेशा प्रती रे सदा लीन राहू

मनी शारदेचे, चला गीत गाऊ.

पहा लेक माझी, तिचे गाव  पाहू

गुणी ही कवीता, नवे  विश्व साहू. . . . !

 

कवीता मनाची, तिचे विश्व मोठे

तिथे  अक्षरांचे, किती भव्य साठे

पहा वास्तवाने, मना गांजलेले

तरी कल्पनेने, तया जिंकलेले. . . . !

 

अशी ही कवीता तिचे हे पवाडे

खुली आज झाली, मनाची कवाडे.

जिथे काव्ययात्री, सदा होत गोळा

तिथे सोहळा हा, पहा रंगलेला. . . . !

 

असे ज्ञानदाते, असे ज्ञानदान

कवीता प्रभावी, करे योगदान

मनाचीच बोली, जिथे जन्म घेते

तिथे ही कवीता, करी काम मोठे. . . . . !

 

कुणा जाणिवांची, कुणा नेणिवांची

इथे जोड लाभे, मतीला गतीची

विचारी मनाला, हवी साथ जेथे

तिथे काव्ययात्री, करी काम साचे. . . . !

 

मिळे मेजवानी, मनाची मनाला

अहो भाग्य माझे, असे स्वागताला

इथे ना कुणाला, अपेक्षा धनाची

मिळे मान मोठा, कृपा शारदेची . . . !

 

कधी वेदनेच्या, उरी स्वार व्हावे

कधी भावनेच्या, जगी यार व्हावे

मनाने मनाला, असे पारखावे

जसे सावलीने, उन्हा खेळवावे. . . . !

 

अशी काव्य बोली, कवीता ठरावी

तिथे शब्द शैली, कमी ना पडावी.

कवीताच माझी, तिचा दूर डंका

नमस्कार माझा, तुम्हा ज्ञानवंता . . . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते, यशश्री पुणे. 

मोबाईल  9371319798

 

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मराठी साहित्य – मराठी आलेख – *कवीता माझी, मी कवितेचा. . . !* – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

*कवीता माझी, मी कवितेचा. . . !*

(प्रस्तुत है  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  का  “विश्व कविता दिवस – 21 मार्च” पर उनके कवि-हृदय की विवेचना करता यह आलेख। आप इस आलेख  के माध्यम से जान सकते हैं कि कविता उनके व्यक्तिगत जीवन से कितनी गहराई तक जुड़ी हुई है।)

*कवित्* हा मुळ शब्द. याचा अर्थ गुणगुणणे  असा  आहे.  आशयघन शब्द रचना गुणगुणत  असताना, काव्य गुण, शब्दालंकारांनी ती नटत जाते. मनात  आकारते,  कागदावर साकारते,  ह्रदयसुता म्हणून जन्माला येते. कविता स्वतः जगते, व्यक्त झालेल्या शब्दातून..  आणि जगायला शिकवते मिळालेल्या  अनुभुतीतून. म्हणूनच मी म्हणतो, ”कविता माझी. . . मी कवितेचा” !

कवितेमधून मनोरंजन व्हावे, यापेक्षा प्रत्यक्ष कविता जगताना, घेतलेल्या  अनुभवांच प्रगटीकरण कवितांद्वारे व्हावे  असे मला वाटते. कवितेमधून एक माणूस दुसर्‍याशी जोडला जावा. परस्परांमध्ये विश्वबंधुतेचं नात निर्माण व्हावं,  या  उद्देशाने  कवितेची संवाद साधत गेलो.  आणि या संवादातूनच माझी जडणघडण सुरू झाली.

 

*साहित्यिक म्हणजे मूर्तीमंत प्रतिभा* आणि *रसिक म्हणून मूर्तीमंत अक्षरे* असं मी मानतो.

या रसिकांनी (मूर्तीमंत अक्षरांनी) माझ्या प्रतिभा शक्तीला दिलेल वरदान म्हणजेच ही  *अक्षरलेणी*

 

या कवितेन मला मुलीच प्रेम दिले.  आता ही  ह्रदयसुता रसिक घरी सुखाने नांदते आहे.  एक  ओळख जेव्हा कला कलाकारांना मिळवून देते तेव्हा तो कलाकार सर्वस्वी त्या कलेचा  आणि त्या कलेवर प्रेम करणार्‍या तमाम रसिक मायबापांचा होऊन जातो.

कोरी पाटी जीवनाची. त्यावर कवितेचा श्रीगणेशा केला जातो. माझी कविता साधी सोपी आहे. त्यात  उथळ पणा  नाही. विद्रोहाचा टाळ्यांसाठी घेतलेला जातीवादी तडका नाही. ही कविता सौंदर्य वादी असली तरी  व्याकरण दृष्ट्या सालंकृत आहे.  माझ्या कवितेत स्वप्न रंजन  असले तरी वास्तवाचे भान  आहे.  आशा वादी  असली तरी मर्यादाशील आहे. कविता लाघवी आहे. माझ्या इतकाच रसिकांना ही तिने  लळा लावला आहे.

 

*लेक माझी सासुराला आज  आहे जायची

एक कविता द्यायची अन् एक कविता घ्यायची*

 

रसिकांनी दिलेली प्रतिक्रिया ही देखील एक कविता  असते हे जेव्हा जाणवलं तेव्हा  खर्‍या  अर्थाने कविता जगायला शिकलो. कविता कशी असावी हे कळण्याअगोदर कविता कशी नसावी हे कवितेनच मला शिकवल. अबोल कविता बरच काही सांगून जायची. म्हणून जमेल तेव्हा जमेल तितके तिला तिच व्यासपीठ मिळवून देतो. ते ही कुठलाही  अट्टाहास न करता. कविता  ऐकायला देखील तितकीच  आवडते जितकी सादर करायला  आवडते. माझ्या  इतकच रसिकांच्या मनात ही तीने घर निर्माण केले आहे.

 

”अक्षरांना अक्षरांची आस आहे लागली

काव्यप्रेमी रसिकांची इथेच वृत्ती दंगली.”

 

अशी भूमिका ठेवून, वाचन, लेखन, चिंतन, मनन कलाव्यासंग  जोपासत आहे.  अक्षर अक्षर नेणून निर्मिलेली ही कविता कधी छंद मुक्त तर कधी छंदोबद्ध होऊन समाजात सन्मानाने वावरते आहे.  माझी कविता चारचौघात वावरताना तिच्या नावापुढे माझं नाव लावते याहून दुसरे *सौभाग्य*  (शत जन्माचे भाग्य ) कोणते?

आज पूर्ण तीन दशके कविता माझी  आहे. ती माझी  आहे,  माझी राहिल. माझ्या नंतरही  आमचे नाते रसिक मनात जीवंत ठेवण्याइतकी कार्यप्रवण वाटचाल तिने केलेली आहे. म्हणूनच अभिमानाने सांगावेसे वाटते

 

*कविता म्हणजे पायसदान

कविता म्हणजे एक दुवा

माणूस माणूस जावा जोडत

जगण्यासाठी मंत्र नवा.! *

 

© विजय यशवंत सातपुते, यशश्री पुणे. 

मोबाईल  9371319798

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