हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 10 ☆ नाथ! चले आओ ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  उनका एक गीत  “नाथ! चले आओ”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 10 ☆

 

☆ नाथ! चले आओ ☆

 

जीवन संध्या होने को है, अब तो नाथ चले आओ

नैनो की ज्योति बोझिल, आके दरस दिखा जाओ

जीवन संध्या…

 

मन व्याकुल है, नेत्र विकल, अधरों पर उमड़ी है प्यास

स्नेह सुधा बरसाओ आकर, मेरे मन को हर्षा जाओ

जीवन संध्या…

 

सांसो की सरगम मध्यम हुई, जीवन से आशा बिछुड़ी बाधित हैं

स्वर मेरे उर के, आकर प्यास जगा जाओ

जीवन संध्या…

 

सहमे-सहमे अंधकार में, मार्ग बताने वाला कोई नहीं

ऐसे में बनकर  रहबर तुम,  सही कहा दिखला जाओ

जीवन संध्या…

 

जीवन नैया  डोल  रही,  मझधारों के बीच प्रभु

तुम तारणहार जगत् के, मुझको पार लगा जाओ

जीवन संध्या…

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆☆ जाकी रही भावना जैसी….☆☆ – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का नया व्यंग्य “जाकी रही भावना जैसी…. ”। मैं श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ। अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

 

☆☆ जाकी रही भावना जैसी…. ☆☆

 

कॉलोनी के मेन गेट पर नया सिक्युरिटी गार्ड आया है – महेश. उसके आने के तीन चार दिन बाद से ही गोयल साब ने मेन गेट से आना जाना कम कर दिया है. पीछेवाले गेट से जुड़ी सड़क ऊबड़ खाबड़ है. बाज़ दफा स्ट्रीट लाईट बंद रहती है. मेन रोड पर आने के लिए लंबा चक्कर लेना पड़ता है. परेशानियों के बाद भी यही गेट उनकी पहली पसंद बन गया है.

यूँ तो वे कहीं से भी आयें-जायें. किसी को क्या ? लेकिन, मन है कि कयास लगाता रहता है. टोटका हो सकता है. जाते समय काणा आदमी दिख जाये तो काम बिगड़ जाता है. लेकिन महेश की एक आँख बकरे की नहीं है. उस तरफ कुछ आवारा कुत्ते घूमते तो रहते हैं लेकिन महेश ने कभी उनको गोयल साब पर छूssss नहीं किया. वो इच्छाधारी साँप भी नहीं है कि व्हीकल के साईड मिरर में उनको उसका असली रूप नज़र आ गया हो. मामला स्टार प्लस के फेमिली सीरियल्स वाला भी लग नहीं रहा था कि उनकी मैरेज एनिवर्सरी की पार्टी में केक कटने से जस्ट तीस सेकंड पहले महेश की इंट्री हो और वो बताये कि वो उन्हीं का खून है. तब भी कुछ तो है !!!

क्या है ये धीरे धीरे मेरी समझ में आया. वे महेश की नमस्ते से बचने की यथासंभव कोशिश करते हैं. वे हर उस गार्ड से, सफाई कर्मी से, मेसन से, प्लंबर से बचते हुवे चलते हैं जो उनसे नमस्ते करता है. महेश तो झुककर नमस्ते करता है. अदब से, जितनी बार निकलो उतनी बार नमस्ते करता है. वे इसी से डरते हैं. एक दिन उन्होने मुझे महेश से बात करते हुवे देख लिया. एक तरफ ले जाकर धीरे से बोले – “शांतिबाबू बच कर रहना, ऐसे लोग बहुत शातिर होते हैं. नमस्ते नमस्ते कर के रिलेशन बढ़ाते हैं और एक दिन उधार मांग लेते हैं. देखना एक दिन वो आपसे सौ रूपये मांगेगा और लौटा देगा, फिर दो सौ, पाँच सौ, हज़ार सब वापस कर देगा. फिर पाँच हज़ार ले जायेगा. और एक दिन गायब हो जायेगा.”

“मुझे तो स्वाभिमानी और ईमानदार लगता है. रूपया नहीं माँगेगा.”

“उधार न सही, स्कूटर ही मांग ले या फ्रिज, टीवी, सोफा, टेबल कुछ भी कि साब आप नया ले लो, पुराना मेरे को दे दो. छोटे लोग हैं, मुफत सामान की जुगत लगे रहते हैं. हफ्ते-दस दिन नमस्ते की, आपने रिस्पांस दिया कि फंसे उनके ट्रेप में.“

“नहीं साब, गाँव से अभी अभी आया सीधा लड़का है, कोई बेहतर काम ढूंढकर चला जायेगा.“

“यस, अब सही पकड़ा है आपने. एक दिन वो जरूर कहेगा कि मेरी पक्की नौकरी लगवा दो. तब क्या ?”

“सब करते हेंगे गोयल साब, आपने भी तो मंत्रीजी को बोलके लड़के को प्राधिकरण में इंजीनियर फिट करवा दिया.“

“मेरे को ही लपेट रहे हो शांतिबाबू. मैं तो आपके भले की कह रहा था. बाय-द-वे हमारे घरेलू रिलेशन हैं मंत्रीजी से, पुराने.” – कह कर वे कट लिए.

तुलसी ने चार सौ बरस पहले लिखा था – “जाकी रही भावना जैसी….”. कौन जाने गोयल साब के लिये ही लिखा हो.

 

© श्री शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – वह-3 ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

(इस सप्ताह हम आपसे श्री संजय भारद्वाज जी की “वह” शीर्षक से अब तक प्राप्त कवितायें साझा कर रहे हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप इन कविताओं के एक एक शब्द और एक-एक पंक्ति आत्मसात करने का प्रयास करेंगे।)

 

☆ संजय दृष्टि  – वह – 3 

 

माँ सरस्वती की अनुकम्पा से  *वह* शीर्षक से थोड़े-थोड़े अंतराल में अनेक रचनाएँ जन्मीं। इन रचनाओं को आप सबसे साझा कर रहा हूँ। विश्वास है कि ये लघु कहन अपनी भूमिका का निर्वहन करने में आपकी आशाओं पर खरी उतरेंगी। – संजय भारद्वाज 

 

पन्द्रह 

 

वह जलाती है

चूल्हा..,

आग में तपकर

कुंदन होती है।

 

सोलह 

 

वह परिभाषित

नहीं करती यौवन को

यौवन उससे

परिभाषित होता है,

वह परिभाषा को

यौवन प्रदान करती है।

 

सत्रह 

 

वह जानती है

बोलते  ही ‘देह’

हर आँख में उभरता है

उसका ही आकार,

आकार को मनुष्य

बनाने के मिशन में

सदियों से जुटी है वह!

 

अठारह 

 

वह मांजती है बरतन

चमकाती है बरतन,

धरती को

महापुरुषों की चमक

उसी के बूते मिली है।

 

उन्नीस 

 

वह बुहारती है झाड़ू

सारा कचरा

घर से निकालती है,

मन की शुचिता के सूत्र

अध्यात्म को

उसी ने दिये हैं।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 8 ☆ फैसला ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  एक  सार्थक लघुकथा  “फैसला”।

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 8 साहित्य निकुंज ☆

 

☆ फैसला 

 

आज वर्षो बाद अजय का आना हुआ हमने कहा… “बेटा इतने सालों बाद शादी के बाद कहाँ गायब हो गए थे?”
“अंजलि इतनी भायी की तुम दुनिया जहान को भूल गये।”
अजय ने बताया। बस अंकल क्या कहूँ यूँ ही गृहस्थ संसार में उलझ गया।
हमने कहा… “अच्छा है पर ये उदासी कैसी? क्या बात है?”
अजय ने कहा …”क्या बताऊँ अंकल?”
हमने कहा…”नहीं बेटा कह ही डालो मन हल्का हो जायेगा।”
अजय ने बताना शुरू किया। शादी की रात को अंजलि ने कहा …”शादी के पहले हमने आपसे बहुत कुछ कहना चाहा लेकिन मुझे देखने के बाद आप कुछ सुनना ही नहीं चाहते थे। बस आप शादी का ही इंतजार कर रहे थे।”
“क्या हुआ …आज ये सब बातें…तुम किसी और से शादी करना चाहती थी क्या?”
अंजलि ने बताया…”हम हमारा परिवार शादी ही नहीं करना चाहते थे। लेकिन माँ की दोस्त आपका रिश्ता ले आई और दो दिन बाद आप लोगों को हम लोग कुछ कह सुन नहीं पाए. बहुत बार कोशिश की आपसे बात करने की पर आप टाल गये। हमने माँ से कहा जो ईश्वर को मंजूर होगा, वही होगा और आज वह दिन भी आ गया और हम आज बिना कहे नहीं रहेंगे …मैं न स्त्री हूँ न पुरुष …मेरा कोई अस्तित्व नहीं है।   मैं किन्नर जाति की हूँ।   पर मेरे माता पिता की अकेली संतान होने के कारण छुपा कर रखा और किसी को पता न चल जाये इसलिए आज तक बोला नहीं क्यों किन्नर लोग मुझे ले जायेंगे …लेकिन अब नहीं, मैं आपको इस कुएँ में नहीं धकेलना नहीं चाहती। आप सभी को मेरे विषय में कुछ भी कह दीजिये और मुझे छोड़ दीजिये।”
अंकल इतना सुनकर मुझे ऐसा लगा… “मेरे पैरों से जमीन खिसक गई है। थोड़ा सोचकर हमने कहा तुम लोग समाज के डर से चुप रहे। शायद ईश्वर को यही मंजूर था अब हम कुछ कहेंगे तो समाज परिवार का सामना कैसे करेंगे?  हमारा सम्बन्ध जन्म जन्मान्तर का है। हम तुम्हें अपनी पत्नी का दर्जा देंगे। उसके बाद हम लोग भोपाल गये वहाँ दो जुड़वाँ बच्चे गोद ले लिए किसी को नहीं बताया.  आज पहली बार आपको बताया। अंकल हमने सोचा हमारी किस्मत इसी के साथ जुडी है लाख कोशिश के बाद जो होना है वह होकर ही रहता है।”
हमने कहा …”। इतना बड़ा फैसला तुम्हें तो सेल्यूट करना चाहिए.” …
© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची

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हिन्दी साहित्य – बाल कविता – ☆ सम्बन्धों का मोल ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी की कवितायें हमें मानवीय संवेदनाओं का आभास कराती हैं। प्रत्येक कविता के नेपथ्य में कोई न कोई  कहानी होती है। मैं कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी का हृदय से आभारी हूँ जिन्होने इस कविता के सम्पादन में सहयोग दिया। आज प्रस्तुत है एक शिक्षाप्रद बाल-कविता “सम्बन्धों का मोल ”। श्री सूबेदार पाण्डेय जी ने अपनी कविता के माध्यम से सम्बन्धों के मोल को बड़े ही सहज शब्दों में समझाने की चेष्टा की है। यह कविता बच्चों के लिए जितनी महत्वपूर्ण है उतनी ही महत्वपूर्ण बड़ों के लिए भी है।  )

 

 ☆ बाल कविता – संबंधो का मोल ☆

 

एक समय में, किसी गाँव में,

रहते थे दो जुड़वाँ भाई

आपस मे न था तनिक प्रेम,

खूब दूरियाँ, दिल में खांई

 

अलगाव हुआ उन दोनों में,

आपस में किया बटवारा

सोने की एक अंगूठी बनी  कारण,

हुआ उनमें विवाद करारा

 

अपना झगड़ा लेके पहुंचे,

दोनों एक संत के पास

सुनी समस्या, रख अंगूठी

दिया दिलासा, ढेरों आस

 

बोले सन्त, अब घर जाओ,

कल सबेरे तुम सब आना

फिर यहाँ से, तुम मेरे से

अपनी अंगूठी ले जाना

 

उन के जाने पर संत ने,

तुरन्त एक सुनार बुलवाया

वैसी ही एक दूसरी अंगूठी,

उन्होंने जल्दी से बनवाया

 

क्यों मोल चुकाया अंगूठी का

भेद गूढ़ कोई समझ न पाया

जब आये सुबह दोनों भाई,

उनको अलग-अलग बुलवाया

 

अपनी अंगूठी पा कर,

दोनों खूब हुए खूब सन्तुष्ट

गिले-शिकवे दूर कर  अपने

दोनों भाई हुए प्रसन्न यथेष्ट

 

इक दिन बातों-बातों मे,

खुल गया रहस्य यूँही वैसे

अंगूठी तो एक ही  थी,

फिर मिली दोनो को  कैसे

 

करी भीषण माथापच्ची

पर सच का  हुआ न ज्ञान

पहुंचे  दोनों कुटिया में

किया संन्त का मान-सम्मान

 

बातें उनकी सुन मुस्कुराए,

तब बाबा ने उनको समझाया

संम्बधो  के मोल को समझो,

कभी न करो अपना पराया

 

सोना तो है तुक्ष चीज,

संम्बधों का, है नही मोल

भातृ-प्रेम है सोने से बढ़ कर,

याद रखो सदा ये वचन अनमोल

 

दी अंगूठियाँ तुमको मैंने,

बतलाने को जीवन-तत्व

सदा सर्वदा समझो अपने

संबंधों का सतत महत्व…

 

सुन बाबा से तत्व-ज्ञान

हुए दोनों अति तुष्ट

सदा सुखी रहने का मंत्र,

समझ गये दोनों हो संतुष्ट…

 

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

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मराठी साहित्य – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प दहावे # 10 ☆ व्यसनाच्या आहारी गेलेला तरूण वर्ग ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं । आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  आज इस लेखमाला की शृंखला में पढ़िये  तरुणों में व्याप्त व्यसन जैसी एक सामाजिक  समस्या पर विचारणीय आलेख “व्यसनाच्या आहारी गेलेला तरूण वर्ग”)

 

☆ समाज पारावरून – साप्ताहिक स्तंभ  – पुष्प  दहावे  # 10 ☆

 

☆ व्यसनाच्या आहारी गेलेला तरूण वर्ग ☆

 

माणसाला माणूस जोडण्याचे,  माणसात रहाण्याचे व्यसन असावे  असे संस्कार  आमच्या वर झाले. त्यामुळे व्यसनाधीनता हा विषय जिव्हाळ्याचा वाटला.  आजची तरुण पिढी मुबलक पैसा, कुतूहल,  अनुकरण  आणि सुखासीन  आयुष्य जगण्याची सवय यामुळे जास्तीत जास्त व्यसनाधीन होत आहे. समाज पारावरून हा विषय हाताळताना अनेक पैलू समोर येतात.  वर वर साधी वाटणारी ही समस्या  अतिशय गंभीर स्वरूप धारण करीत आहे.

मी माझ्या मुलाला काहीही कमी पडू देणार नाही ही पालकांची भूमिका पाल्याला व्यसनी बनवायला कारणीभूत ठरते आहे.  कुटुंबातील नात्यांमधे हरवत चाललेला संवाद हे ही प्रमुख कारण आहेच. एकटे रहाण्याची सवय व्यसनाला पोषक वातावरण तयार करते  आणि समवयस्क मुलांना असलेली व्यसने संगती दोषामुळे  आपोआप स्वतःला चिकटतात.  तारूण्यात असलेली बेफिकीर वृत्ती व्यसनाला कारणीभूत ठरते.  काही होत नाही कर ट्राय  ही चिथावणी  सार आयुष्य बरबाद करते.

घर दार, कुटुंब ,  म्हणजे काय हे समजून घ्यायच्या  आतच  आजचा तरूण व्यसनाधीन होतो  आहे.  अंगावर कौटुंबिक जबाबदाऱ्या नसल्याने खुशालचेंडू आयुष्य जगणारा युवक  स्वतःसाठी जास्त जगताना  आढळतो. हे स्वतःसाठी जगणे म्हणजे हवे तसे जगणे  असा अर्थ घेऊन तो जगतो आहे.  पैसा हे मूळ कारण यात कारणीभूत आहे.  पैसा कमवायची  सवय, गरज निर्माण होण्याआधी तो खर्च कसा करायचा याचा विचार करणारी तरूण पिढी व्यसनाच्या  इतकी आहारी जाते की ते व्यसन त्यांच्या जगण्याच्या  एक भाग होऊन बसते.

एखाद्या कुट॔बात वडिल धारे व्यसनी असतील तर मात्र तरूण पिढी  आपोआपच व्यसनाधीन होते.  समाजरूढी परंपरा यामुळे  घरची स्त्री अजूनही सजगतेने या व्यसनी व्यक्तीला सांभाळून घरदार सावरत आहे.  ताण तणाव दुंख निराशा या भावना स्त्रीयांनाही आहेत. पण जबाबदारी माणसाला माणूस बनवते आणि या मुळेच स्त्रीया कणखर पणे यातून मार्ग काढीत आहेत. नव्या पिढीच्या काही तरूणी व्यसनाधीन होत आहेत त्याला कौटुंबिक वातावरण जास्त जबाबदार आहे.

नशा, दारू हे व्यवसाय समाजान वाढवले आहेत.  आणि हा समाज  आपणच  आहोत तेव्हा वैयक्तिक पातळीवर  आपण व्यसनाधीनतेला आळा कसा घालता येईल यावर जास्त कठोर पणे  उपाययोजना करायला हवी. मुलगा वयात येताना  बापाने व्यसनाधीनतेचे प्रदर्शन टाळले आणि मुलाशी सुसंवाद साधला तरी मुलगा व्यसनापासून दूर राहू शकतो.  चांगले झाले तर मी केले  आणि वाईट झाले तर देवाने, नशीबाने, सरकारने केले ही विचारधारा जोपर्यंत आपण बदलत नाही तोपर्यंत हे सरकार देखील यात काही ठोस निर्णय घेऊ शकणार नाही  असे मला वाटते.

व्यसनाधीनता रोखणे  आपल्या हातात आहे पण व्यसनाधीनता थांवण्यासाठी सरकारला दोष देणे मला पटत नाही.  सर्व दोष व्यक्ती कडे  असताना परीस्थिती हाताबाहेर गेल्यावर सरकारकडून मदतयाचना करणे हा या समस्येवर तोडगा नाही.  आपण समजूत दार  आहोत.

आम्ही व्यसन मर्यादित ठेवले आहे  अशी फुशारकी मारणारे देखील कौटुंबिक संवादात  अपयशी ठरले आहेत. तेव्हा व्यसन ही समस्या गंभीर आहे ती सोडविण्यास जागरूकता महत्वाची आहे.  जबाबदारी पेलताना माणूस म्हणून वैचारिक संस्कार सुशिक्षित पिढीवर करण्याची वेळ आली आहे.  तंबाखू, दारू, सिगारेट नशा हे सर्व  आपण स्वीकारलेले विकार आहेत त्याचा विनाश करण्यासाठी त्यांचा त्याग करणे,  हा मोह टाळणे अतिशय योग्य आहे.

दुसऱ्याला  अमूक एक गोष्ट करू नको हे सांगण्यापेक्षा आपल्या माणसाला व स्वतःला  (जर व्यसन  असेल तर  )परावृत्त करणे जास्त सोपे आहे. तरूण आपणही होतो.  आपण केलेल्या चुका मुलांनी करू नये एवढी काळजी जरी प्रत्येकाने घेतली तरी तरूण पिढी यातून वाचू शकेल.

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – चतुर्थ अध्याय (38) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चतुर्थ अध्याय

( फलसहित पृथक-पृथक यज्ञों का कथन )

( ज्ञान की महिमा )

 

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।

तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ।।38।।

 

इस दुनियाँ में ज्ञान सरीखी कोई दूसरी वस्तु नहीं

उसी ज्ञान को आत्म योग से अपने अंदर खोल सही।।38।।

 

भावार्थ :  इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है।।38।।

 

Verily there is no purifier in this world like knowledge. He who is perfected in Yoga finds it in the Self in time. ।।38।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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Weekly column ☆ Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 2 – Dushyanta’s Regret ☆

Ms Neelam Saxena Chandra

 

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. We are extremely thankful to Ms. Neelam ji for permitting us to share her excellent poems with our readers. We will be sharing her poems on every Thursday Ms. Neelam Saxena Chandra ji is Executive Director (Systems) Mahametro, Pune. Her beloved genre is poetry. Today we present her poem “Dushyanta’s Regret”. This poem is from her book “Tales of Eon)

 

☆ Weekly column  Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 2

☆ Dushyanta’s Regret ☆

(Dushyanta speaks when he is told by Gods that Shakuntala is indeed his wife and Bharat is indeed his son)

  

O dearest Shakuntala,

How could I forget you-

O beautiful damsel?

Regret flows through my eyes

As I remember

I called you lowly, wicked and without virtues.

Shame envelopes me

As I recall the moments

When I  refused to accept Bharat,

Our lovely son!

 

O dearest Shakuntala

Holy was our union

Already sanctified by heavens above;

And Bharat, the most handsome son

Any man could have.

Proud I am having you as my wife

And possessing Bharat as my son

And I bow in front of Sage Kanwa

Who patronised you!

 

O dearest Shakuntala

Ready I am to repent and accept any penalty

That you may impart me.

Forgiveness I what I ask of thee,

Reprimand me or punish me,

But restore honour

To this mighty kingdom

And my soul

And accept to be

My wife.

 

Oh virtuous, chaste and beautiful lady,

See! even the heavens desire

That you be my wife, the queen!

 

© Ms. Neelam Saxena Chandra

(All rights reserved. No part of this document may be reproduced or transmitted in any form or by any means, or stored in any retrieval system of any nature without prior written permission of the author.)

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English Literature – Poetry – ☆ Life goes on…. ☆ – Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi ji  for sharing his literary and art works with e-abhivyakti.  An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national level projects. We present an emotional poem of Capt. Raghuvanshi ji “Life goes on….”.)

 

Life goes on….

 

No one ever leaves

before his time comes

When will that happen?

No one even knows…

 

There’s no bigger catastrophe than the

Heartache ceaselessly oozing out through eyes…

 

I sure’ve reaped gains by

my carefree senselessness,

As, now doesn’t even exist

a complaint with the life…

 

Though, the eternal quest

still on deep inside me

But never-ever bothered to

explore my fathomless heart

 

There used to live a

bounteous person inside

However hard I searched

but never found him again…

 

Life now is such an intense

perpetual concatenate maze

That doesn’t even have

foreseeable unpuzzled end!

 

But life goes on…

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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Poetry,
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पुस्तक समीक्षा/आत्मकथ्य – संवेदना के वातायन (काव्य संग्रह) – डॉ मुक्ता

संवेदना के वातायन  (काव्य संग्रह) – डॉ मुक्ता 

पुस्तक : संवेदना के वातायन 

लेखिका : डॉ मुक्ता

प्रकाशन प्रारूप :  ईबुक, अमेज़न किंडल 

प्रकाशक : वर्जिन साहित्यपीठ

Amazon Link – संवेदना के वातायन

Google Books Link – संवेदना के वातायन

 

लेखिका परिचय : 

  • माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत/सम्मानित
  • निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी (2009 से 2011 तक)
  • निदेशक, हरियाणा ग्रंथ अकादमी, पंचकुला (तत्पश्चात् 2014 तक)
  • सदस्य, केन्द्रीय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली (2013 से 2017 तक)
  • उच्चतर शिक्षा विभाग, हरियाणा में प्रवक्ता (1971 से 2003 तक) तथा 2009 में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त।

 

आत्मकथ्य  – संवेदना के वातायन 

 

संवेदना के वातायन मेरा 11वां काव्य- संग्रह है,जिसमें आप रू-ब-रू होंगे…मानवीय संवेदनाओं से,मन में उठती भाव-लहरियों से जो आपके हृदय को उल्लास,प्रसन्नता व आह्लाद से सराबोर कर देंगी तो अगले ही पल आप को सोचने पर विवश कर देंगी कि समाज में इतना वैषम्य, मूल्यों का अवमूल्यन व संवेदन-शून्यता क्यों?

मानव मन चंचल है। पलभर में पूरे ब्रह्मांड की यात्रा कर लौट आता है और प्रकृति की भांति हर क्षण रंग बदलता है। ऐसी स्थिति में वह चाह कर भी स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख सकता।

आधुनिक युग में दिन-प्रतिदिन बढ़ रही प्रतिस्पर्द्धात्मकता व अधिकाधिक धन-संग्रह की प्रवृत्ति पारस्परिक वैमनस्य व दूरियां बढ़ा रही है। वहआत्म-केंद्रित होता जा रहा है और संवेदनहीनता रूपी विष उसे निरंतर लील रहा है। परिवार-जन व बच्चे अपने-अपने द्वीपों में कैद होकर रह गए हैं। सामाजिक सरोकार अंतिम सांसें ले रहे हैं। ऐसे भयावह वातावरण में स्वयं को सामान्य रख पाना असंभव है, जिस का परिणाम टूटते एकल परिवारों के रूप में स्पष्ट भासता है। हर बाशिंदा अपने-अपने दायरे में सिमट कर रह गया है।

समाज में सुरसा की भांति पांव पसारता भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी व दुष्कर्म के हादसे समाज में अराजकता, विषमता व विश्रंखलता को बढ़ा रहे हैं। स्नेह और सौहार्द के भाव नदारद होने के कारण सहानुभूति, सहनशीलता व धैर्य का स्थान शत्रुता-प्रतिद्वंद्विता ने ग्रहण कर लिया है। आप ही सोचिए क्या,इन विषम परिस्थितियों में… जहां हर इंसान मुखौटा ओढ़े एक-दूसरे को छल रहा हो, संवेदनाएं मर रही हों,औरत की अस्मत कहीं भी सुरक्षित न हो…सहज व सामान्य रहना संभव है? शायद नहीं …..जहां अहम् की दीवारों में कैद पति-पत्नी एक-दूसरे को नीचा दिखाने में सुक़ून का अनुभव करते हों, स्वयं को सिकंदर-सम ख़ुदा मानते हों, उन्हें आजीवन एकांत की त्रासदी को झेलना स्वाभाविक है। बच्चों के मान-मनुहार और आत्मीयता के पल, जो उन्हें केवल अपने परिवारजनों के सानिध्य में प्राप्त हो सकते हैं,वे उस आनंद से वंचित रह जाते हैं।

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। ) 

यहीं से प्रारम्भ होती है…मानव के तनाव की अंतहीन यात्रा,जिससे वह चाह कर भी निज़ात नहीं पा सकता।तलाश में भटकता रहता है ,परन्तु शांति तो होती है उसके अंतर्मन में..जैसी सोच वैसी क़ायनात।

साहित्य और समाज का संबंध शाश्वत है, अटूट है और वह मानव के अहसासों व जज़्बातों का लेखा-जोखा है। परन्तु आज का मानव संवेदन-शून्य होता जा रहा है। वह केवल अधिकारों की परिभाषा जानता-समझता है, कर्त्तव्य-निष्ठता से अनजान, वह केवल अपने तथा अपने परिवार तक सिमट कर रह गया है,निपट स्वार्थी हो गया है।

सरहदों पर तैनात सैनिक न केवल देश की रक्षा करते हैं बल्कि हमें भी सुक़ून भरी ज़िन्दगी प्रदान करते हैं। परन्तु हमारे नुमाइंदे,बड़े-बड़े पदों पर आसीन रहते हुए उन सैनिकों के परिवारजनों के प्रति अपने दायित्व का वहन नहीं करते तथा सीमा पर तैनात प्रत्येक सैनिक को पेंशन का अधिकारी नहीं समझते हैं। क्या यह उनके परिवारों के प्रति अन्याय नहीं है? क्या उनके शवों के नाम पर अंग-प्रत्यंग इकट्ठे कर, उनके घर वालों को सौंप देने मात्र से उनके कर्त्तव्यों की इतिश्री हो जाती है?

हर दिन घटित होने वाली दुष्कर्म की घटनाओं को देख हम आंखें मूंदे रहते हैं? क्या हम अनुभव कर पाते हैं… उस मासूम की मानसिक यन्त्रणा,जो उसे आजीवन झेलनी पड़ती है? क्या बाल मज़दूरी करते बच्चों को देख हमारा मन पसीजता है? क्या सड़क पर पत्थर तोड़ती मज़दूरिन, धूप, आंधी, तूफान व बरसात में निरंतर कार्य-रत मज़दूरों-किसानों व गरीबों को झुग्गियों में जीवन बसर करते देख,हमारे नेत्रों से आंसुओं का  सैलाब बह निकलता है? क्या अमीर-गरीब में बढ़ गई खाई, हमें सोचने पर विवश नहीं करती कि हम दायित्व-विमुख ही नहीं,दायित्व विमुक्त हो गए है। हमारे लिए हमारा परिवार सर्वस्व हो गया है।

परन्तु आजकल एकल परिवार भी बिखर रहे हैं। लिव इन व सिंगल पेरेंट का चलन बढ़ रहा है और वे इस अवधारणा को स्वीकार, यह बतलाने में फ़ख़्र महसूस करते हैं कि उन्होंने सामाजिक व्यवस्था को नकार दिया है।

शायद इसका कारण है मीडिया से जुड़ाव, जिसने भौगोलिक दूरियों को तो समाप्त कर दिया है,परंतु दिलों की दूरियों को पाटना असंभव बना दिया है। सामान्यजन,विशेषत: बच्चों का अपराध जगत् में प्रवेश करना, इसका प्रत्यक्ष परिणाम है। जब तक हम इसके भयावह स्वरूप से अवगत होते हैं, लौटना असंभव हो जाता है। हम स्वयं को उस दलदल में फंसा असहाय, बेबस, विवश व मज़बूर पाते हैं। हमें प्रतिदिन नई समस्या से जूझना पड़ता है। सिमटना व बिखरना हमारी नियति बन जाती है और हम लाख चाहने पर भी इस चक्रव्यूह से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाते।

संवेदनाएं वे भाव-लहरिया हैं,जो हमारे मनोमस्तिष्क को हरपल उद्वेलित, आलोड़ित व आनंदित करती रहती हैं। कभी वे सब्ज़बाग  दिखलाती हैं, तो कभी सुनामी की गगनचुंबी लहरों में बीच भंवर छोड़ जाती हैं। हम इस सुख-दु:ख के जंजाल में सदैव उलझे रहते हैं। सुक़ून की तलाश में डूबते-उतराते अपने जीवन के चिरंतन लक्ष्य, उस सृष्टि-नियंता से मिलने को भुलाकर मायाजाल में उलझे, इस संसार से रुख़्सत हो जाते हैं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है।

‘संवेदना के वातायन’ आंख-मिचौली है, उमंगों- तरंगों व मन में निहित आह्लाद -उल्लास की,विरह-मिलन की, जय-पराजय की और सामाजिक विसंगतियों-विषमताओं से रू-ब–रू होने की,जो हमारे समाज की जड़ों को विषाक्त कर खोखला कर रही हैं। आशा है, इस संग्रह की कविताएं आपके जीवन में उजास भर कर आलोड़ित-आनंदित करेंगे तथा नव-चेतना से आप्लावित कर देंगे। इसी आशा और विश्वास के साथ….

शुभाशी

डॉ मुक्ता

 

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