हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 5 – सजल – सीमा पर प्रहरी खड़े… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य में आज प्रस्तुत है सजल “सीमा पर प्रहरी खड़े…”। अब आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 5 – सजल – सीमा पर प्रहरी खड़े … ☆ 

सजल

समांत-आल

पदांत-हैं

मात्राभार- 13

 

बजा रहे कुछ गाल हैं।

नेता मालामाल हैं ।।

 

नोंच रहे है भ्रष्टाचारी, 

नेकनियति की खाल हैं।

 

खड़े विरोधी हैं सभी ,

बिछा रहे कुछ जाल हैं।

 

सीमा पर प्रहरी खड़े,

माँ भारत के लाल हैं।

 

खेत और खलिहान में,

कृषक बने कंकाल हैं।

 

नेक राह कठिन लगतीं,

खड़े-बड़े जंजाल हैं।

 

देवदूत बन आ खड़े ,

दुखती रग के ढाल हैं। 

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

22 मई 2021

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ जलपत्नी – भाग – 1  ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं। हमें  प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी की अंग्रेजी एवं हिंदी भाषा की अप्रतिम रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय समय पर साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है दो भागों में आपकी एक संवेदनशील कथा  ‘जलपत्नी‘ जो महाराष्ट्र के उन हजारों  गांवों से सम्बंधित है, जहाँ पानी के लिए त्राहि त्राहि मची रहती है  ।)

 ☆ कथा-कहानी ☆ जलपत्नी – भाग – 1  ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

सौन्ती चल रही है या दौड़ रही है? सिर पर माटी की गगरी। आकाश से बरसती आग। धूप तो ऐसी जैसे वो त्रिलोचन के नैन हों। धरती पर सबकुछ स्वाहा करके रख देगी। सौन्ती को जल्द से जल्द एक गगरी पानी ले आना है। घर में एक बूँद पीने का पानी नहीं है। उधर भागी बिस्तर पर लेटे लेटे कराह रही है। उसका गला सूख रहा होगा। वह बुदबुदा कर कहती जा रही थी पानी…ओह!….प्यास…..पानी…!’

मगर उसकी ऐसी हालत में भी रामारती के मन को थोड़ी सी संवेदना भी छू नहीं गई। एक जगह बैठे बैठे वह बुढ़िया बक बक करती जा रही थी, अरे तुरंत पानी नहीं मिलेगा तो यह मर नहीं जायेगी। इतनी ही प्यास है, तो खुद जाकर कुएँ से पानी भर कर लाती क्यों नहीं ?

सौन्ती को उसकी बात बिलकुल अच्छी नहीं लगी। बात करने का उसका ठंग ही ऐसा है। खुद को गृहस्थी की पटरानी समझती है ? बिलकुल। रामारती, भागी और सौन्ती – तीनों सौतें हैं। महाराष्ट्र  के देनगानमल गांव के सखाराम भगत की बीवी हैं सब। इक्कीसवीं सदी के चौदह साल बीत जाने के बाद भी महाराष्ट्र के जिन उन्नीस हजार गाँवों में पानी के लिए त्राहि त्राहि मची रहती है, उनमें से थाने जिले के शाहपुर तालुके का देनगानमल भी एक है। राजधानी मुंबई से बस छियासी किमी दूर।

मुश्किल से सौ से अधिक परिवारों का यह गाँव देनगानमल का घर घर जल के एक अजीब श्राप से अभिशापित है।

उनदिनों आषाढ़ की हल्की बूँदाबाँदी हो चुकी थी। सारे शेतकरी (किसान) बादलों के लिए टकटकी बाँधें आसमान की ओर देख रहे थे। मगर पानी का कहीं नामो निशान भी नहीं था। बल्कि उमस से सारे जीव व्याकुल हो उठे थे। ऐसे में सदाशिव अमरापुरेकर के खेत में मजदूरी करके सखाराम घर लौटा था। घर के आँगन में पैर धरते ही पसीना पोंछते हुए उसने आवाज लगायी,‘अरी ओ रामारती, पहले एक लोटा पानी पिला दे तो।’

मगर उस तपती दोपहर में रामारती लेटी ही रही। न उठी, न पति के बुलाने पर उसने कुछ कहा। उसके बेटे को सुबह से बुखार चढ़ा था। इसलिए वह कुएँ से पानी भरने जा भी नहीं सकी थी। बच्चा रोये जा रहा था। उसका मन खीझ से भर उठा था। मन ही मन वह बारबार अपने बापू को कोसती,‘अण्णा, यह किस नरक में तुमने मेरा ब्याह कर दिया कि जहाँ आदमी एक बूँद पानी के लिए भी तरस जाए ?’

गाँव से करीब दो कोस की दूरी पर पहाड़ की चट्टानों के बीच दो कुएँ हैं। पानी पीना है तो जाओ – वहाँ तक पैदल, सिर पर तीन चार गगरियों को ढोते हुए। पथरीली राह पर चलकर वहाँ तक पहुँचो। अगर पहले से और कोई खड़ा है तो अपनी पारी का इंतजार करते रहो। फिर पानी भर कर उतना पैदल लौटो। पानी भरी हुई गगरिओं को सर पर उठाकर सँभालते हुए। तब तो तुम अपने बच्चों को पानी पिला सकती हो। अपने आदमी को पानी पिला सकती हो। खुद अपनी प्यास मिटा सकती हो।   

झुँझलाते हुए सखाराम ने दो एकबार और आवाज लगायी, अरे रामारती, कहाँ मर गई?’ बाहर की उमस और तपन उसके मन में भी आग लगा रक्खी थी। और यह किसको अच्छा लगेगा कि जिस गृहस्थी को खिलाने पिलाने के लिए वह दिन भर जाँगर रगड़ कर आया है, वहीं उसकी बीवी उसके लिए एक लोटा पानी भी नहीं ला सकती ?

उसकी प्यास ने उसके मन में अंधड़ मचा दिया। वह दौड़ कर कमरे के अंदर पहुँचा और एक हाथ से रामारती का झोंटा पकड़ लिया। फिर तो उसके मुँह से बिलकुल बवंडर की तरह गालियां चलने लगीं।

रामरती भी किसी कुरेदी गई नागिन की तरह फन उठाकर फुँफकारने लगी, मैं तेरी बीवी हूँ, बाँदी नहीं। मेरा बेटा बुखार से तड़प रहा है, तुझे उसका जरा भी ख्याल है? मेरे बच्चे के होंठ सूख रहे हैं। मैं माँ होकर उसे एक बूँद पानी पिला न सकी, तो तेरे अण्णा और आई के लिए कहाँ से पानी लाऊँ? बच्चे को किसके भरोसे छोड़ कर जाती मैं?’

हुक्के के दहकते अंगारे की तरह सखाराम गुमसुम बैठा रहा। साँझ ढलने पर भी रामारती न उठी, न चूल्हे की लकड़ी जलाई। वह बेटे को लेकर बैठी ही रही।

आखिर हारकर सखाराम की आई को ही उठना पड़ा, यह भी कैसा गुस्सा है? देवा हो देवा! हम भी तो बांझ नहीं थी। मेरे बेटे भी बीमार पड़े। तो क्या मैं ने चूल्हे में आग देना भी बन्द कर दिया ? पति, ससुर और सास के लिए पानी लाना ही बंद कर दिया था? हाय रे गनेशा! यह जमाना ही कैसा आ गया है! अब तू भी देखती जा मैं क्या करती हूँ। मैं सखा के लिए दूसरी जोरू ले आऊँगी।’

देनगानमल गांव के लिए यह कोई अनहोनी बात भी न थी। सिर्फ दूर के कुएँ से पानी लाने के लिए ही दूसरी या तीसरी शादी रचाना यहाँ कोई अनोखी बात नहीं है। समाज ने तो इसी रीति को स्वीकार ही कर लिया है। भले ही हिन्दू विवाह कानून कुछ और ही राग अलापे।

शाम को इसी बात को नीलू फूले ने भी दोहराया, अरे सोच क्या रहा है? रामचन्दर बन के इस गांव में तो रह नहीं सकता। एक सीता से तो पूरी गृहस्थी प्यासी रह जायेगी। तो रामचन्दर नहीं, बल्कि उसका बाप दशरथ बन जा रे। ले आ कौशल्या के बाद कैकेयी को।’

दोपहर की तपन खतम होते होते छाती की प्यास और दिमाग की आग दोनों को बुझाने सखाराम बाँटली के ठेके में  जा पहुँचा था। वहीं पर राम राम के बाद जब हालचाल पूछा जा रहा था, तो ये सारी बातें भी होने लगीं। और तभी नीलू ने दी नेक सलाह, और वहाँ बैठे कई भाई अपना सर हिलाते रहे, ‘कासी में जब जीना मरना, ठग या देवल बनकर रहना!’

बात जोर पकड़ती गई। अब यह कहना तो मुश्किल है कि लड़के ने लड़की को तलाश किया या कन्या ने बन्ने को। जैसे कढ़ाई में सब्जी तलते समय यह कहना नामुमकिन है कि तरकारी के किस टुकड़े का रंग सबसे पहले हरे या पीले से भूरा हो गया।

भागी सखाराम की ममेरी दीदी की ननद है। उसकी शादी तो एक अच्छे भले किसान के घर हुई थी। मगर उसके पति ने कपास की खेती के लिए महाजन से रुपये उधार क्या लिए, उस साल फसल बर्बाद हो गई, और साथ ही साथ किसान भी। आखिर हार कर भागी के पति ने रस्सी का ही सहारा ले लिया। मुआवजा की रकम जो मिली, उसे लेकर महाजन और भागी के जेठ और देवर में छीना झपटी मच गयी। इसी चक्कर में उस अभागिन ने पाया कि वह तो छिटक कर घर से बाहर सड़क पर जा गिरी है। तो आखिर उसे अपने मायके के दरवाजे ही खटखटाने पडे़। भाई ने तो मुँह बनाकर ही सही किवाड़ खोल दिया, मगर भाभी मन ही मन कुढ़  कर रह गयी। सोचने लगी – एक थाली भात, कहाँ से खाये आदमी सात?

अंततः इधर जब मौका मिला तो भागी की भाभी यानी सखाराम की ममेरी दीदी ने उसकी आई से कहा, बुआ, मेरी ननद को ही क्यों नहीं घर ले आ रही हो ?’

सखाराम की ताई खुद एक औरत थी। अपनी भतीजी के मन की बात वह भली भाँति ताड़ गई कि वह अपनी ननद से छुट्टी पाना चाहती है। फिर सोचने लगी – हर्ज ही क्या है? दूसरी तीसरी जलपत्नी के रूप में किसी विधवा, या कोई अभागन जो अपने एकाध बच्चे के साथ अकेली रहती है, उसे ब्याह कर लाना – यही तो रिवाज है।

सारा तमाशा होता रहा, रामारती चुपचाप देखती रही। कसाई बाड़े का हर मेमना जानता है कि आज या कल उसकी बारी आनेवाली है। देनगानमल की पत्नियां भी जानती हैं कि उनकी तकदीर में भी कोई और अनोखी बात लिखी नहीं है। खैर, उसके बेटे सचिनि का बुखार उतर चुका था। दरवाजे पर बाजा नगाड़ा बजने लगा। सचिनि भी माँ के गले लिपटकर उछलने लगा, आई, मैं भी अण्णा की बारात में चलूँगा।’

चल मुए!’ रामारती ने उसकी पीठ पर एक मुक्का जमा दिया, बाप जैसा सांड़। बेटा बने भाँड़!’

सचिनि की शहनाई बजने लगी- ‘एँ एँ – मैं भी चलूँगा।’ और आखिर वह भी गया।

बाप बेटे लौटे तो साथ में भागी भी थी। छाती तक घूँघट के नीचे, नाक में नई नथनी। पैरों में चाँदी के कड़े।

यहाँ तक पहुँचते पहुँचते सचिनि भी भागी के साथ घुल मिल गया था, ए नईकी आई, हमारे घर चलकर रहोगी तो अपनी आई, अपने भाई की याद नहीं आवेगी?’

इस सीधे साधे सवाल का जवाब क्या था भागी के पास? मुस्कुराकर रह गई। इसी तरह रास्ते भर और भी जाने कितने बकबक, मेरे दोस्त पंजारी का निशाना क्या गजब का है! एकबार एक ढेले से उसने दो दो आम एकसाथ गिरा दिये।’

क्रमशः …… 

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी 

संपर्क:  सी, 26/35-40. रामकटोरा, वाराणसी . 221001. मो. (0) 9455168359, (0) 9140214489 दूरभाष- (0542) 2204504.

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कवि ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – कवि ?

विशेषज्ञ हूँ,

तीन भुजाएँ खींचता हूँ,

तीन कोण बनाता हूँ,

तब त्रिभुज नाम दे पाता हूँ..,

तुम भला

करते क्या हो कविवर?

विशेष कुछ नहीं,

बस, त्रिभुज में

चौथा कोण देख पाता हूँ..!

©  संजय भारद्वाज

(1:15 दोपहर, 2.5.2020)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 101 – “जीवन वीणा” – सुश्री अनीता श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  सुश्री अनीता श्रीवास्तव जी के काव्य संग्रह  “जीवन वीणा” – की समीक्षा।

 पुस्तक चर्चा

पुस्तक : जीवन वीणा ( काव्य संग्रह)

कवियत्री : सुश्री अनीता श्रीवास्तव

प्रकाशक : अंजुमन प्रकाशन, प्रयागराज

मूल्य : १५० रु

पृष्ठ : १५०

आई एस बी एन ९७८.९३.८८५५६.१२.५

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 101 – “जीवन वीणा” – सुश्री अनीता श्रीवास्तव ☆   

जीवन सचमुच वीणा ही तो है. यह हम पर है कि हम उसे किस तरह जियें. वीणा के तार समुचित कसे हुये हों,  वादक में तारों को छेड़ने की योग्यता हो तो कर्णप्रिय मधुर संगीत परिवेश को सम्मोहित करता है. वहीं अच्छी से अच्छी वीणा भी यदि अयोग्य वादक के हाथ लग जावे तो न केवल कर्कश ध्वनि होती है,  तार भी टूट जाते हैं. अनीता श्रीवास्तव कलम और शब्दों से रोचक,  प्रेरक और मनहर जीवन वीणा बजाने में नई ऊर्जा से भरपूर सक्षम कवियत्री हैं.

उनकी सोच में नवीनता है… वे लिखती हैं

” घड़ी दिखाई देती है,  समय तू भी तो दिख “.

वे आत्मार्पण करते हुये लिखती हैं…

” लो मेरे गुण और अवगुण सब समर्पण,  ये तुम्हारी सृष्टि है मैं मात्र दर्पण, …. मैं उसी शबरी के आश्रम की हूं बेरी,  कि जिसके जूठे बेर भी तुमको ग्रहण “.

उनकी उपमाओ में नवोन्मेषी प्रयोग हैं. ” जीवन एक नदी है,  बीचों बीच बहती मैं…. जब भी किनारे की ओर हाथ बढ़ाया है,  उसने मुझे ऐसा धकियाया है,  जैसे वह स्त्री सुहागन और पर पुरुष मैं “.

गीत,  बाल कवितायें,  क्षणिकायें,  नई कवितायें अपनी पूरी डायरी ही उन्होने इस संग्रह में उड़ेल दी है. आकाशवाणी,  दूरदर्शन में उद्घोषणा और शिक्षण का उनका स्वयं का अनुभव उन्हें नये नये बिम्ब देता लगता है,  जो इन कविताओ में मुखरित है. वे स्वीकारती हैं कि वे कवि नहीं हैं,  किन्तु बड़ी कुशलता से लिखती हैं कि “कविता मेरी बेचैनी है,  मुझे तो अपनी बात कहनी है “.

कहन का उनका तरीका उन्मुक्त है,  शिष्ट है,  नवीनता लिये हुये है. उन्हें अपनी जीवन वीणा से सरगम,  राग और संगीत में निबद्ध नई धुन बना पाने में सफलता मिली है. यह उनकी कविताओ की पहली किताब है. ये कवितायें शायद उनका समय समय पर उपजा आत्म चिंतन हैं.

उनसे अभी साहित्य जगत को बहुत सी और भी परिपक्व,  समर्थ व अधिक व्यापक रचनाओ की अपेक्षा करनी चाहिये,  क्योंकि इस पहले संग्रह की कविताओ से सुश्री अनीता श्रीवास्तव जी की क्षमतायें स्पष्ट दिखाई देती हैं. जब वे उस आडिटोरियम के लिये अपनी कविता लिखेंगी,  अपनी जीवन वीणा को छेड़कर धुन बनायेंगी जिसकी छत आसमान है,  जिसका विस्तार सारी धरा ही नहीं सारी सृष्टि है,  जहां उनके सह संगीतकार के रूप में सागर की लहरों का कलरव और जंगल में हवाओ के झोंकें हैं,  तो वे कुछ बड़ा,  शाश्वत लिख दिखायेंगी तय है. मेरी यही कामना है.  

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ क्रिकेट जुनून पर एक सिक्सर ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक कविता  क्रिकेट जुनून पर एक सिक्सर । )

☆ कविता – क्रिकेट जुनून पर एक सिक्सर ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆ 

[1] 

नमाजें पढ़ी गई

दुआओं के लिए हाथ उठे,

भजन-कीर्तन-आरती

हवनों के लिए हाथ बढ़े।

इ‌धर ईश्वर हैरान हैं

उधर खुदा परेशान हैं

ये जो हिन्दुस्तान है

वो जो पाकिस्तान है

इन दोनों के लिए

दोनों एक समान है।

 

[2] 

मैच पाकिस्तान से था

इसीलिए कल भारत से

एक भी आत्मा यमलोक नहीं आयीं

बेचारे यमराज उदास होकर

आपना सिर धुन रहे थे,

क्योंकि प्राण लेने के लिए

भेजे गए यमदूतों में से

कुछ टीवी देख रहे थे

कुछ कमेन्ट्री सुन.रहे थे।

 

[3] 

हमें इस बात का ग़म नहीं

कि हमारा उत्पादन,

हमारी माँग की तुलना में

बहुत कम है,

गम है तो बस

इतना गम है,

कि हमारे रनों की संख्या

विरोधी टीम ये

क्य़ों कम है ?

 

[4] 

हमारा दिल

तब नहीं दहलता

जब दूध के अभाव में

एक मासूम अपना दम

तोड़ देता है,

हमारा दिल

तब दहलता है

जब एक मासूम-सा कैच

एक विराट-सा खिलाड़ी

छोड़ देता है।

 

[5] 

हमने देखी है

हर हाथों की बाॅलिंग- बैटिंग

इसको या उसको भी

शिकवों का इलजाम न दो,

क्रिकेट एक नशा है

रूह से मजा ले लो

खेल को खेल ही रहने दो

कोई नाम न दो ।

 

[6]

भूख-गरीबी- बेकारी

कोरोना- पेट्रोल जैसे

हमारे इर्द-गिर्द

कई राष्ट्रीय गम है,

इन सबके बावजूद

मुस्कराते, चिल्लाते -ताली बजाते

टीवी पर मैच देखते

हम हैं,

हम क्या किसी

” मैन ऑफ दि मैच ” से

कम हैं !

 

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 101 – लघुकथा – सोलह श्रृंगार ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा  “सोलह श्रृंगार । इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 101 ☆

? लघुकथा – सोलह श्रृंगार ?

आज करवा चौथ है। और शाम को बहुत ढेर सारे काम है। ब्यूटी पार्लर भी जाना हैं। रसोई में देखना है कि बाई आज क्या बना रही है।

श्रेया मेम साहब  सोचते – सोचते अपनी धुन पर बोले जा रही थीं। सुबह के नौ बज गए हैं महारानी (काम वाली बाई) अभी तक आई नहीं है। उसी समय दरवाजे की घंटी बजी।

जल्दी से दरवाजा खोल वह बाई को अंदर आने के लिए कहतीं हैं। मेम साहब नमस्ते ? किचन में जाते -जाते बाई कमला ने आवाज लगाई।

श्रेया मेम की नजर बाई पर पड़ी तो वह उसे देखते ही रह गई, कान में झुमके, पांव में पायल, हाथों में कांच की चुडिंयों के साथ सुंदर चमकते कंगन। वह दूसरे दिन से बहुत अलग और सुंदर लग रही थी।

वह आवाक हो बोल उठी… क्या बात है कमला आज तो… बीच में बात काटकर कमला बोली… मेरा आदमी सही बोल रहा था… हम गरीब हैं तो क्या हुआ आज तुम इन नकली गहनों में बहुत सुन्दर लग रही हो । बहुत प्यार करता है मुझे आज मेरे लिए व्रत भी रखा है।

हम गरीबों के पास एक दूसरे का साथ ही होता है। मेम साहब जीने के लिए। सच बताऊँ मेरे पति ने रोज की अपनी कमाई से महिने भर थोड़ा थोड़ा बचा कर चुपचाप आज मेरे लिए ठेले वाले से ये सब लिया है।

मै भी सोलह श्रंगार कर शाम को पूजन करुंगी। उसने मुझे सुबह से पहना दिया। बहुत खुश हो वह बोले जा रहीं थीं। श्रेया को लाखों के जेवर और ब्यूटी पार्लर जाकर भी इतनी खुशी नहीं मिलती, जितना आज कमला नकली जेवर पहन चहक रही है।

श्रेया मेम साहब की आंखों से आंसू बहनें लगे, पेपर से मुंह छिपाते दूसरे कमरे में जाकर फोन करने लगी।  शायद अपने पति देव को जिनसे महीनों से कोई बात नहीं हुई थी।

दोनों अपनी – अपनी सोसाइटी और दिखावे पर गृहस्थी  चला रहे थें। उन्हें कमला की बातें सुनाई दे रही थी.. मेरा पति मुझे बहुत प्यार करता है मेम साहब!!!!!!!

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 6 (26 -30)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #6 (26-30) ॥ ☆

यथा पवन प्रेरित लहर मानस की राजहंसी को नये कमल तक

तथा सुनंदा ने इंदुमति को बढ़ाया आगे नये नृपति तक ॥ 26॥

 

तथा बताया यह अंगनृप हैं सुराइनाओं की कामना जो

विशेष अपने गजों से जिसने है पाई धरती पै इंद्रता को ॥ 27॥

 

अरिपत्नियों को दिये हैं जिसने मुक्ताओं सम केवल अश्रु बिखरे

विशाल वक्षस्थलों का जैसे हो मुक्तमाला बिना ही पहरे ॥ 28॥

 

स्वभ्ज्ञावतः भिन्न निवास कत्री सरस्वती भी हैं साथ जिसके –

सौदर्य माधुर्य औं योग्यता से बनो तृतीया त्वमेव उसके ॥ 29॥

 

यह सुन हटा दृष्टि वहाँ से आगे बढ़ो कहा तब कुमारिका ने

वर काम्य था, कन्या पारखी थी पर भिन्नता होती चाहना में ॥ 30॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ २६ ऑक्टोबर – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? २६ ऑक्टोबर  –  संपादकीय  ?

नोबेल पुरस्कार : आल्फ्रेड बनार्ड नोबेल हे स्वीडिश  रसायन शास्रज्ञ होते. डायनामाईट या जगप्रसिद्ध विस्फोटकाचा शोध त्यांनी लावला. या शोधामुळे त्यांना अमाप संपत्ती मिळाली, परंतु आपल्या शोधाचा उपयोग युद्धातच जास्त प्रमाणात होत असल्याचे त्यांना दिसून आले. त्यामुळे अनेकांच्या मृत्यूला आपण करणीभूत झालो, ही गोष्ट त्यांना सलत होती. म्हणून त्यांनी आपल्या मृत्युपत्रामध्ये, स्वत: मिळवलेल्या या अमाप संपत्तीमधील मोठा वाटा  नोबेल पुरस्कार देण्यासाठी म्हणून वापरला जावा, अशी तरतूद केली. त्यांच्या या इच्छेनुसार आल्फ्रेड बनार्ड नोबेल यांच्या पाचव्या स्मृतिदिनापासून म्हणजेच १०डिसेंबर १९०१ पासून रसायनशास्त्र,  साहित्य, जागतिक शांतता, वैद्यकशास्त्र, किंवा जीवशास्त्र आणि अर्थशास्त्र या क्षेत्रामध्ये, संपूर्ण विश्वात अतुलनीय कामगिरी करणार्‍या संशोधक व शांतीदूताला पारितोषिक म्हणून हा पुरस्कार देण्यास सुरुवात केली.

रवींद्रनाथ टागोर – ( ७ मे १८६१- ७ ऑगस्ट १९४१)   भारतामध्ये हा पुरस्कार साहित्य क्षेत्रासाठी रवींद्रनाथ टागोर यांच्या गीतांजलीला सन १९१३ साली मिळाला. ते कवी, कथाकार, नाटककार, संगीतकार, चित्रकार, शिक्षणतज्ज्ञ, तत्वज्ञ   होते. रवींद्र संगीत म्हणून संगीताची नवी धारा त्यांनी प्रवाहीत केली. त्यांचे वैचारिक आणि ललित लेखनही आहे. घर और बाहर, कबुलीवला, द गार्डनर, स्ट्रे बर्ड्स, द गोल्डन बोट, द पोस्ट ऑफिस इ. त्यांची पुस्तके प्रसिद्ध आहेत. कबुलीवला, पोस्ट ऑफिस इ. त्यांच्या पुस्तकांवर चित्रपटही निघाले.

त्यांना १९१५ मध्ये किंग जॉर्ज पंचम यांनी नाईटहूड ही पदवी दिली होती. ती त्यांनी ‘जालियनवाला बाग’ हत्याकांडाच्या निषेधार्थ परत केली. 

सर विद्याधर सूरजप्रसाद नायपॉल –(१७ऑगस्ट – २०१८) व्ही. एस. नायपॉल म्हणून त्यांची विश्वात ओळख आहे. नोबेल परितोषिक मिळवणारे हे भारतीय वंशाचे पण लंडनमध्ये वास्तव्य करणारे साहित्यिक। त्यांना साहित्यासाठी २००१ मधे नोबेल पुरस्कार मिळाला. त्यांनी अनेक कादंबर्‍या लिहिल्या. त्यापैकी ‘ए हाऊस ऑफ मि.विश्वास’ ही कादंबरी विशेष गाजली. याशिवाय त्यांनी, ए बेंड इन द रिव्हर, इन ए फ्री स्ट्रीट, अ वे इन द वर्ल्ड, मॅजिक सीडस इ. कादंबर्‍या लिहिल्या. या व्यतिरिक्त अन्य अनेक विषयांवरची त्यांची पुस्तके आहेत. त्यांनी भारताचा इतिहास, सस्कृती, सभ्यता यावर ‘अ‍ॅन एरिया ऑफ डार्कनेस’ आणि ‘अ वुंडेड सिव्हीलयझेशन’ ही पुस्तके लिहिली.

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई-अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ :- १) कऱ्हाड शिक्षण मंडळ “ साहित्य-साधना दैनंदिनी “.  २) गूगल गुरुजी 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ नव्या वाटा…. ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ नव्या वाटा…. ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ 

 

गळूनी गेली सारी पाने

वृक्ष उभा ताठ

शिशीर संपूनी वसंत येईल

पुन्हा दिमाखात

 

बहर संपला

वादळ आले

तरूवर सारे

उन्मळूनी पडले

 

सोबतीला एकाकी जीवन

लेकुरवाळी मुले

इंद्रधनूचे सप्तरंग जणू

अंगण आनंदाने फुले

 

उदास स्वर ते माररव्याचे

परि वसंतात राग बहार

सुख दुःखाच्या झुल्यावरती

मिळे जगण्याला आधार

 

खेळ संपला जुना

चालणे नवीन वाटेवरी

अखेरच्या श्वासापर्यंत

जगायचे भूवरी

 

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ शब्द… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ शब्द… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

शब्द बंबाळ जग आहे हे,

  शब्दांचा बडिवार तो किती!

कधी गोड तर कधी कडू,

  सारी शब्दांचीच दिठी !

 

कधी शब्द माणिक मोती,

  कधी मुक्ताफळे उधळती !

ओथंबून   मायेपोटी ,

  नाटकी पणी ही कधी येती!

 

शब्द सखा बनून  येती,

  ओढ जीवाला लावती!

शब्द भाव भरून येती,

  काळजाला जाऊन भिडती!

 

कधी शब्द नि:शब्द बनून येती,

  अन्  अंतरात  घुसती !

खोल रुतून बाणा परी ,

  जखमी करून जाती!

© सौ. उज्वला सहस्रबुद्धे

वारजे, पुणे (महाराष्ट्र)

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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