हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 75 ☆ दुख में सुख ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा दुख में सुख । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील एवं विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 75 ☆

☆ लघुकथा – दुख में सुख ☆

माँ की पीठ अब पहले से भी अधिक झुक गयी थी। डॉक्टर का कहना है कि माँ को पीठ सीधी रखनी चाहिए वरना रीढ़ की हड्डी पर असर पड़ता है और याददाश्त  कमजोर हो जाती है। 

गर्मी की छुट्टियों में मायके गयी तो देखा कि माँ थोड़ी ही देर पहले कही बात भूल जाती है। आलमारी की चाभी और रुपए पैसे रखकर भूलना तो आम बात हो गयी थी। कई बार वह खुद ही झुंझलाकर कह उठती– पता नहीं क्या हो गया है ?  कुछ याद ही नहीं रहता- कहाँ- क्या रख दिया ? झुकी पीठ के साथ माँ दिन भर काम में लगी रहती। सुबह की एक चाय ही बस आराम से पीना चाहती। उसके बाद झाड़ू, बर्तन, खाना, कपड़े-धोने का जो सिलसिला शुरू होता वह रात ग्यारह बजे तक चलता रहता। रात में सोती तो बिस्तर पर लेटते ही झुकी पीठ में टीस उठती।

बेटियों के मायके आने पर माँ की झुकी पीठ कुछ तन जाती। सब कुछ  भूलकर वह और तेजी से काम में जुट जाती। उसे चिंता रहती कि मायके से अच्छी यादें लेकर ही  जाएं बेटियां। माहौल खुशनुमा बनाने के लिए वह हँसती-गुनगुनाती, नाती-नातिन के साथ खेलती, खिलखिलाती…….. ? 

गर्मी की रात, थकी-हारी माँ नाती पोतों से घिरी छत पर लेटी थी। इलाहाबाद की गर्मी, हवा का नाम नहीं।  वह बच्चों से जोर-जोर से बुलवा रही है-  चिडिया, कौआ, तोता  सब उड़ो, उड़ो, उड़ो, हवा चलो, चलो, चलो,  बच्चे चिल्ला- चिल्लाकर बोल रहे थे, उनके लिए अच्छा खेल था।

माँ मानों अपने-आप से बोलने लगी –  बेटी, बातों को भूलने की कोशिश किया करो। हम औरतों के लिए बहुत जरूरी है यह। जब से थोडा भूलने लगी हूँ , मन बड़ा शांत है। किसी की तीखी बात थोड़ी देर असर करती है फिर  किसने क्या कहा, क्या ताना मारा……. कुछ याद नहीं। ठंडी हवा  चलने लगी थी । माँ कब सो गयी पता ही नहीं चला। चाँदनी उसके चेहरे पर पसर गयी थी।

माँ ने दु:ख में भी सुख ढूंढ लिया था।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संतुलन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – संतुलन ?

लालसाओं का

अथाह सिंधु,

क्षमताओं का

किंचित-सा चुल्लू,

सिंधु और चुल्लू का

संतुलन तय करता है-

सिमटकर आदमी का

ययाति रह जाना

या विस्तार पाकर

अगस्त्य हो जाना!

(आगामी रविवार को ऑनलाइन लोकार्पित होनेवाले कवितासंग्रह क्रौंच से)

©  संजय भारद्वाज

(1:15 दोपहर, 2.5.2020)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 73 ☆ रिकॉर्डस की होड़ ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “रिकॉर्डस की होड़”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 73 – रिकॉर्डस की होड़

बड़े जोड़ तोड़ से सिक्का फिट किया कि अब की बार तो विश्व रिकार्ड बनाना ही है। इसके लिए गूगल महाराज के द्वारे जा खड़े हुए। सुनते हैं उनके दरबार से कोई खाली नहीं जाता है। सो कैसे विश्व रिकार्ड बने इसके लिए सर्च करना शुरू कर दिया।

सब कुछ अच्छा चल रहा था पर भाषा की दिक्कत आ गयी। अब अंतरराष्ट्रीय कार्य करेंगे तो भाषा अंग्रेजी होगी। गिटिर पिटर करना तो सरल है पर सही अर्थ समझते हुए फॉर्म भरना कठिन होता है। लोगों की टीम बनाकर इसको भी सहज बना लिया गया। लक्ष्य बड़ा था सो परिश्रम भी उसी अनुपात में किया जाना था। कुछ लोग थोड़ी दूर तक साथ चले फिर अलग हो गए, ऐसा आखिरी क्षणों तक चलता रहा। पर आने जाने से कुछ नहीं होता जब ठाना है तो कार्य करके ही रहेंगे। लोगों की जरूरत तो पड़ती ही सो खोजबीन चालू थी। बड़े- बड़े वादे किए गए। पोस्टरों की चकाचौंध ने सबको भरमाया, गीत, कहानी, गजलों से होते हुए एक से एक प्रस्तुतियाँ होने वाली थीं किन्तु वही कम में ज्यादा के आनंद ने सभी को लोभ पिपासू बना दिया था। मेरा नाम उसके नाम से कम हो रहा है, मेरी फोटो हाइलाइट नहीं हुई, मेरा संचालन श्रेष्ठ है उसके बाद भी मुझे कम महत्व मिला बस इसी जद्दोजहद में मूल उद्देश्य से सभी प्रतिभागी भटकने लगे। कोई किसी लय में, कोई किसी राग में सुर अलापे जा रहा था। बस सबमें एक ही बात एक थी वो अपने नाम की चाह और चाह।

इसी तरह जिसके हाथ माइक लगा उसने अपना बखान चालू कर दिया। कहते हैं कि माइक और बाइक तब तक इस्तेमाल न करें जब तक स्वयं पर पूरा नियंत्रण न हो। बस कार्यक्रम रूपी बाइक चल पड़ी अपने लक्ष्य की ओर, बीच में कहीं रास्ता भूलते तो कोई न कोई बता देता। थोड़ा देर सवेर अवश्य होती रही किन्तु सवार नहीं रुके चलते रहे। वैसे भी जिंदगी चलने का नाम है।

ये चाह भी चाहत से बढ़ते हुए कभी न खत्म वाले इंतजार की तरह बढ़ती ही जा रही है। लालसा का रोग जिसे हुआ समझो उसको भगवान भी नहीं बचा सकते हैं। मेरा तेरा ने सबको जोड़ा जरूर है बस लंबे समय तक वही लोग बंध पाए जो आपस में किसी न किसी कारण से निर्भर थे।

जब तक एक दूसरे के प्रति परस्पर निर्भरता नहीं  होगी तब तक अभिन्नता संभव नहीं। यहाँ मछली  और पानी के साथ को समझिए कि किस तरह पानी से दूर होते ही वो प्राण त्याग देती है। ये  त्याग नहीं मजबूरी है  चूँकि  उसकी साँस  जल में घुली हुई ऑक्सीजन से ही चल सकती है,  इस तरह से प्रकृति ने उसे जल पर निर्भर कर दिया है।

ईश्वर ने सभी के लिए कुछ न कुछ तय करके  रखा है जिसे स्वीकार करना हमारा नैतिक दायित्व है। अपनी क्षमता के अनुरूप कार्य करने पर ही उन्नति संभव है।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 82 ☆ गीत – बूढ़ी साइकिल और पिताजी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण गीत  “बूढ़ी साइकिल और पिताजी

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 82 ☆

☆ गीत – बूढ़ी साइकिल और पिताजी ☆ 

याद पिताजी

आते अक्सर

सपनों में

वो कच्चा घर

 

शिखर हिमालय से भी ऊँचा

था व्यक्तित्व महान

सबके हित का रहता उनको

हर पल ही था ध्यान

 

बूढ़ी साइकिल पर ही चलकर

उनकी हुई  बसर

 

श्रम के थे प्रतिमान पिताजी

साहस कभी न छोड़ा

मिली चुनौती कभी अगर तो

कभी नहीं मुख मोड़ा

 

बाधाओं से लड़ते – लड़ते

बीती  पूर्ण उमर

 

आँधी, तूफां सर पर झेले

पथ पर चले मगर

शंकर बनकर विष भी पीए

गंगा ली सिर पर

 

करते रहे प्रयास सतत वे

होकर सदा निडर

 

ब्रहममूर्त में जल्दी  जगकर

करते पूजा पाठ

भूल गए हम सब की खातिर

वे जीवन के ठाठ

 

रहा उद्यमी जीवन उनका

नहीं रहे डरकर

 

अनगिन अरमानों की सारे

झुलस गए सब फूल

सुखद भविष्य हमारा उनके

सम्मुख था बन मूल

 

कम खा, गम खा जिए हमेशा

सत की रही डगर

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 120 ☆ मस्तिष्कदृष्टि की क्षमता.. छठी इंद्रिय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा रचित एक विचारणीय  आलेख  ‘मस्तिष्कदृष्टि की क्षमता.. छठी इंद्रिय। इस विचारणीय कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 120 ☆

? आलेख  – मस्तिष्कदृष्टि की क्षमता.. छठी इंद्रिय ?

हमारी सबसे बड़ी योग्यता क्या है? जीवन के विहंगम दृश्य को देखने की हमारी दृष्टि? गीत और भाषा की ध्वनियाँ सुनने की शक्ति? भौतिक संसार का आनंद अनुभव करने की क्षमता? या शायद समृद्घ प्रकृति की मधुरता और सौंदर्य का स्वाद व गंध लेने की योग्यता? दार्शनिको व मनोवैज्ञानिको का मत है कि हमारी सबसे अधिक मूल्यवान अनुभूति है हमारी ‘‘मस्तिष्कदृष्टि’’ (mindsight). जिसे छठी इंद्रिय के रूप में भी विश्लेषित किया जाता है । यह एक दिव्यदृष्टि है. हमारे जीवन की कार्ययोजना भी यही तय करती है. यह एक सपना है और उस सपने को हक़ीक़त में बदलने की योग्यता भी । यही मस्तिष्क दृष्टि हमारी सोच निर्धारित करती है और सफल सोच से ही हमें व्यावहारिक राह सूझती है, मुश्किल समय में हमारी सोच ही हमें भावनात्मक संबल देती है। अपनी सोच के सहारे ही हम अपने अंदर छुपी शक्तिशाली कथित ‘‘छठी इंद्रिय’’ को सक्रिय कर सकते हैं और जीवन में उसका प्रभावी प्रयोग कर सकते हैं। हममें से बहुत कम लोग जानते हैं कि दरअसल हम अपने आप से चाहते क्या हैं? यह तय है कि जीवन लक्ष्य निर्धारित कर सही दिशा में चलने पर हमारा जीवन जितना रोमांचक, संतुष्टिदायक और सफल हो सकता है, निरुद्देश्य जीवन वैसा हो ही नहीं सकता। हम ख़ुद को ऐसी राह पर कैसे ले जायें, जिससे हमें स्थाई सुख और संतुष्टि मिले। सफलता व्यक्तिगत सुख की पर्यायवाची है। हम अपने बारे में, अपने काम के बारे में, अपने रिश्तों के बारे में और दुनिया के बारे में कैसा महसूस करते हैं, यही तथ्य हमारी व्यक्तिगत सफलता व संतुष्टि का निर्धारक होता है।

सच्चे सफल लोग हर नये दिन का स्वागत उत्साह, आत्मविश्वास और आशा के साथ करते हैं। उन्हें ख़ुद पर भरोसा होता है और उस जीवन शैली पर भी, जिसे जीने का विकल्प उन्होंने चुना है। वे जानते हैं कि जीवन में कुछ पाने के लिए उन्हें अपनी सारी शक्ति एकाग्र कर लगानी पड़ेगी । वे अपने काम से प्रेम करते हैं। वे लोग दूसरों को प्रेरित करने में कुशल होते हैं और दूसरों की उपलब्धियों पर ख़ुश होते हैं। वे दूसरों का ध्यान रखते हैं, उनके साथ अच्छा व्यवहार करते हैं स्वाभाविक रूप से प्रतिसाद में उन्हें भी अच्छा व्यवहार मिलता है। मस्तिष्कदृष्टि द्वारा हम जानते हैं, कि मेहनत, चुनौती और त्याग जीवन के हिस्से हैं। हम हर दिन को व्यक्तिगत विकास के अवसर में बदल सकते हैं। सफल व्यक्ति डर का सामना करके उसे जीत लेते हैं और दर्द को झेलकर उसे हरा देते हैं। उनमें अपने दैनिक जीवन में सुख पैदा करने की क्षमता होती है, जिससे उनके आसपास रहने वाले लोग भी सुखी हो जाते हैं। उनकी निश्छल मुस्कान, उनकी आंतरिक शक्ति और जीवन की सकारात्मक शैली का प्रमाण होती है।

क्या आप उतने सुखी हैं, जितने आप होना चाहते हैं? क्या आप अपने सपनों का जीवन जी रहे हैं या फिर आप उतने से ही संतुष्ट होने की कोशिश कर रहे हैं, जो आपके हिसाब से आपको मिल सका है? क्या आपको हर दिन सुंदर व संतुष्टिदायक अनुभवों से भरे अद्भुत अवसर की तरह दिखता है? अगर ऐसा नहीं है, तो सच मानिये कि व्यापक संभावनाये आपको निहार रही हैं. किसी को भी संपूर्ण, समृद्ध और सफलता से भरे जीवन से कम पर समझौता नहीं करना चाहिये। आप अपनी मनचाही ज़िंदगी जीने में सफल हो पायेंगे या नहीं, यह पूरी तरह आप पर ही निर्भर है.आप सब कुछ कर सकते हैं, बशर्तें आप ठान लें। अपने जीवन के मालिक बनें और अपने मस्तिष्क में निहित अद्भुत संभावनाओं को पहचानकर उनका दोहन करें। अगर मुश्किलें और समस्याएँ आप पर हावी हो रही हैं तथा आपका आत्मविश्वास डगमगा रहा है, तो जरूरत है कि आप समझें कि आप अपनी समस्या का सामना कर सकते हैं.आप स्वयं को प्रेरित कर, आत्मविश्वास अर्जित कर सकते हैं, आप अपने डर भूल सकते हैं,असफलता के विचारों से मुक्त हो सकते हैं, आप में नैसर्गिक क्षमता है कि आप चमत्कार कर सकते हैं, आप अपने प्रकृति प्रदत्त संसाधनों से लाभ उठा कर अपना जीवन बदल सकते हैं, आप शांति से और हास्य-बोध के साथ खुशहाल जीवन जी सकते हैं, शिखर पर पहुँचकर वहाँ स्थाई रूप से बने रह सकते हैं, और इस सबके लिये आपको अलग से कोई नये यत्न नही करने है केवल अपनी मस्तिष्कदृष्टि की क्षमता को एक दिशा देकर विकसित करते जाना है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 92 – लघुकथा – चोर ! ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “चोर !।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 92 ☆

☆ लघुकथा — चोर ! ☆ 

नए शिक्षक ने शाला प्रांगण में मोटरसाइकिल घुसाईं, तभी साथ चल रहे पुराने शिक्षक ने बाथरूम के ऊपर बैठे लड़के की ओर इशारा किया, “सरजी! यह रोज ही शाला भवन पर चढ़ जाता है।”

“आप उसे उतारते नहीं है?”

“इसे कुछ बोलो तो हमारे माथे आता है, यह शासकीय बिल्डिंग है आपकी नहीं।” कहते हुए वे बाथरूम के पास पहुंच गए।

“क्यों भाई, ऊपर चढ़ने का अभ्यास कर रहे हो?” नए शिक्षक ने मोटरसाइकिल रोकते हुए लड़के से कहा। जिसे सुनकर वह अचकचा गया,”क्या!” वह धीरे से इतना ही बोल पाया।

“यही कि दूसरों के भवन पर चढ़ने-उतरने का अभ्यास कर रहे हो। अच्छा है यह भविष्य में बहुत काम आएगा।”

यह सुन कर एकटक देखता रहा।

“बढ़िया है। अभ्यास करते रहो। कमाना-खाने नहीं जाना पड़ेगा।”

“क्या कहा सरजी?” वह सीधा बैठते हुए बोला।

“यही कि रात-बिरात दूसरों के घर में घुसने के लिए यह अभ्यास काम आएगा।”

यह सुनते ही लड़का नीचे उतर गया। सीधा मैदान के बाहर जाते हुए बोला, “सॉरी सर!”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

18-10-2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 6 (36 -40)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #6 (36-40) ॥ ☆

सुखाता जो पङक को चण्डता से, खिलाता पद्यों को निज विभा से

कुमुद इन्दुमति को न रवि संभाया वह नृप अवन्ति का निज प्रभा से ॥ 36॥

 

तब गौरवर्णा, सुदशना, गुणी इन्दुमति जो विधाता की अनुपम छटा थी

को अनुप नृप पास ले जा व्यवस्थित, सुनंदा ने धीरे से कहा कि – ॥ 37॥

 

संग्राम में वीर सहत्रबाहू ख् अठारह द्वीपों की जीतवाला

विद्वान योगी प्रजानुरंजक विशेष गुणवान था अनूप राजा ॥ 38॥

 

दुराचरण के विचार उठते ही दण्ड देकर उन्हें हटाने

तुरंत धनुर्धर प्रकट वहाँ हो, था यत्नरत नित सुख – शांति लाने ॥ 39॥

 

बँधी भुजायें कराहता सा, था जिसकी कारा में कैद रावण

जो इन्द्रजित था, पै छूट पाया तभी कि जब किया प्रसन्न आनन ॥ 40॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ २८ ऑक्टोबर – संपादकीय – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? २८ ऑक्टोबर  –  संपादकीय  ?

आज २८ ऑक्टोबर — सुप्रसिद्ध कवी गिरीश म्हणजे श्री. शंकर केशव कानेटकर, यांचा जन्मदिन. ( २८/१०/१८९३ – ४/१२/१९७३ ) 

१९२० च्या दशकात पुण्यातील काही समविचारी कवींनी ,कविता लोकांपर्यंत पोहोचविण्याच्या उद्देशाने स्थापन केलेल्या “ रविकिरण मंडळाचे “ कवी गिरीश हे अगदी स्थापनेपासूनच एक प्रमुख सदस्य होते. मुधोजी हायस्कुल, फलटण इथे प्राचार्य म्हणून कार्यरत असतांना, त्याच काळात त्यांनी अनेक कविता लिहिल्या. बालकवी आणि गोविंदाग्रज या त्यावेळच्या दोन प्रसिद्ध कवींकडून त्यांनी काव्यरचनेची स्फूर्ती घेतली असे जरी म्हटले जात असले, तरी कवी गिरीश यांची काव्यरचना स्वतंत्र होती. कवितेत विविध वृत्तांचा उपयोग, रेखीव काव्यरचना, वळणदार घोटीव अक्षर, ही त्यांच्या कवितेची लक्षणीय वैशिष्ट्ये होती. कांचनगंगा, चंद्रलेखा, फलभार, बालगीत, आणि, सोनेरी चांदणे, असे त्यांचे ५ काव्यसंग्रह प्रसिद्ध झालेले आहेत. याव्यतिरिक्त त्यांची समृद्ध काव्यसंपदा पुढीलप्रमाणे आहे—- चार स्वरचित खंडकाव्ये, प्रसिद्ध पाश्चात्य कवी टेनिसन यांच्या “इनॉक आर्डेन” या दीर्घकाव्याचा “ अनिकेत “ या नावाने काव्यानुवाद, कवी यशवंत आणि कवी गिरीश यांच्या एकत्रित कवितांचे “ वीणा झंकार,” आणि “ यशोगौरी “ हे दोन काव्यसंग्रह.

“मनोरंजन” या तेव्हाच्या प्रसिद्ध मासिकात क्रमशः प्रसिद्ध झालेले “ अभागी कमल “ हे  त्यांचे   सामाजिक विषयावरील खंडकाव्य तेव्हा वाचकांना खूपच आवडले होते. या खंडकाव्यापासूनच  सामाजिक खंडकाव्याची सुरुवात झाली असे यथार्थपणे म्हणता येईल. याबरोबरच त्यांनी “ कला “ हे एक खंडात्मक दीर्घकाव्य, आणि “ आंबराई “ हे ग्रामीण जीवनावरील खंडकाव्यही लिहिले.

“पोर खाटेवर मृत्यूच्याच दारा,

         कुणा गरीबाचा तळमळे बिचारा”

—-अशासारखी त्यांची हृदयाला भिडणारी कविता आम्ही शाळेत असतांना शिकलेली आहे. 

त्यांच्या अनेक स्फुट कविताही  प्रसिद्ध झालेल्या होत्या. 

कवी माधव ज्युलियन यांचे चरित्र, रेव्हरंड ना.वा. टिळक यांच्या “ ख्रिस्तायन ” या गाजलेल्या पुस्तकाचे पुन्हा संपादन, माधव ज्युलियन यांच्या “ स्वप्नलहरी “ पुस्तकाचे संपादन, अशा इतर कामांचे श्रेयही कवी गिरीश यांचेच आहे. 

फलटणप्रमाणेच पुणे आणि सांगली इथेही ते शिक्षक-प्राध्यापक म्हणून कार्यरत होते, आणि शिक्षणक्षेत्रातील त्यांच्या या बहुमोल योगदानाबद्दल १९५९ साली “राष्ट्रपती-पदक”  देऊन त्यांचा गौरव केला गेला होता, हे आवर्जून सांगायला हवे. 

आजचे सुप्रसिद्ध नाटककार श्री. वसंत कानेटकर, आणि गायक मधुसूदन कानेटकर हे कवी गिरीश यांचे सुपुत्रही त्यांच्यासारखेच सुकीर्त झालेले आहेत, हे रसिकांना ज्ञात असेलच. 

कविवर्य गिरीश यांना त्यांच्या जन्मदिनी विनम्र प्रणाम. 

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

ई – अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग.

संदर्भ : – १) कऱ्हाड शिक्षण मंडळ “ साहित्य-साधना दैनंदिनी. २) माहितीस्रोत — इंटरनेट 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ राही… ☆ प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर

प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ राही ….! ☆ प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर ☆

किती विश्वासाने

दिलास हाती हात ,

तू विचारलीस मग

हळूच मजला जात .

           का जात घेऊनी

           जन्मास आलो होतो ,

           ह्या जाती मधूनी

           मलाच शोधत होतो .

मी सांगितली तुज

माझी मानव जात ,

तू नकळत माझा

घट्ट केलास हात .

             तू शांत चंद्रमा आणि

             मी धगधगणारा सूर्य ,

             या नव क्रांतीसाठी

             दिलेस मजला धैर्य .

हे धैर्य घेऊनी

दारी आलीस जेव्हा ,

मग मानवतेची

ज्योत तेवली तेव्हा .

            मी कधीच माझी

            जात चोरली नाही,

            तू बिलगून मजला

            बनून गेलीस राही .

© प्रा.अरुण कांबळे बनपुरीकर..

‘काळजातला बाप ‘कार

बनपुरी ता.आटपाडी जि.सांगली

मो ९४२११२५३५७

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 84 – कॅनव्हास ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #84 ☆ 

☆ कॅनव्हास ☆ 

मी कॅनव्हास वर अनेक सुंदर

चित्र काढतो….

त्या चित्रात. . मला हवे तसे

सारेच रंग भरतो…

लाल,हिरवा,पिवळा, निळा

अगदी . . मोरपंखी नारंगी सुध्दा

तरीही

ती.. चित्र तिला नेहमीच अपूर्ण वाटतात…

मी तिला म्हणतो असं का..?

ती म्हणते…,

तू तुझ्या चित्रांमध्ये..

तुला आवडणारे रंग सोडून,

चित्रांना आवडणारे रंग

भरायला लागलास ना. .

की..,तुझी प्रत्येक चित्रं तुझ्याही

नकळत कँनव्हास वर

श्वास घ्यायला लागतील…

आणि तेव्हा . . .

तुझं कोणतही चित्र

अपूर्ण राहणार नाही…!

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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