हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 56 ☆ मानवता की सेवा ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख  “मानवता की सेवा”.)

☆ किसलय की कलम से # 56 ☆

☆ मानवता की सेवा ☆

इंसान जन्म लेता है, जिंदगी गुजारता है और एक दिन इस दुनिया से कूच कर जाता है। क्या, मात्र जीवन जीना और मरना मानव की नियति मानी जाए। नहीं। बचपन और बुढ़ापा छोड़ दिया जाए तो मुश्किल से तीस-चालीस वर्ष ही मानव के अपने हिस्से में आते हैं, जिसमें आधा समय रात्रि का होता है। बाद के शेष समय में भी दैनिक कार्य शामिल होते हैं। अब बचता ही कितना समय है, जिसे हम मानव सेवा हेतु निकालें।

वैसे अन्य जीव भी एक पूरा जीवन जी लेते हैं, परन्तु उनके मरने के बाद उन्हें किन बातों के लिए याद किया जाता है? किंतु इंसान को उसके मरणोपरांत उसे याद न किया जाए तो उसका इस संसार में जन्म लेने का औचित्य ही क्या होगा। इस तरह उस इंसान और अन्य जीवों के जीवन जीने में अंतर ही क्या होगा।

संसार में मानव ही एक ऐसा जीव है जिसे बुद्धि और विवेक की दृष्टि से श्रेष्ठ माना गया है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव के कर्त्तव्यों में भी व्यापकता होती है। उसे अपने साथ-साथ अपने परिवार और समाज के लिए भी जीना होता है। दुनिया में बिना किसी उपलब्धि, परोपकारिता, मिलनसारिता और निःस्वार्थता के जीना निरर्थक माना जाता है। हमारी शिक्षा, संस्कृति, संस्कार एवं परंपराएँ इतनी सुदृढ़ हैं कि उनका अनुकरण करने वाला सदैव विशिष्ट बन ही जाता है।

ईश्वर जन्म देता है लेकिन विवेक पर आपका अपना अधिकार होता है, जो आपके भले बुरे के लिए सदैव जवाबदेह होता है। आपके विवेक का निर्णय ही आपके रास्ते चुनता है। फर्क बस इतना होता है कि आपके संस्कार व आप की संलिप्तता आपके विवेक को प्रभावित करती है, जिस अच्छे या बुरे विचार का पलड़ा भारी होता है, आप उसी दिशा में आगे बढ़ जाते हैं। अर्थात परिणति का रास्ता आपके द्वारा पूर्व में ही चुन लिया जाता है।

यह सभी भलीभाँति जानते हैं कि मरने के बाद अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के इंसानों की चर्चा होती है, लेकिन अच्छे इंसानों का याद किया जाना ही समाज में मायने रखता है। देखा गया है कि समाज में लोग जब तक दूसरों के काम नहीं आते, दूसरों के लिए नहीं जीते, तब तक उनकी कोई खास पूछ परख नहीं होती। आपकी आर्थिक, बौद्धिक, पदेन उपलब्धियाँ आपकी अपनी होती हैं, जो मात्र आपके सेवा काल तक ही सीमित होती हैं, लेकिन परोपकारिता, जरूरतमंदों की सेवा, आपकी सहयोगी प्रवृत्ति तथा मिलनसारिता आपकी ऐसी उपलब्धियाँ होती हैं जो आपको चिरस्मरणीय तथा विशिष्ट सम्मान दिलाती हैं।

विगत पचास-साठ साल से मानवीय मूल्यों का निरंतर ह्रास हो रहा है। बड़ी अजीब बात यह है कि एक ओर तो हम शिक्षा और प्रगति के नए सोपानों पर चढ़ रहे हैं वहीं इसके ठीक विपरीत परोपकारिता व  सद्भावना के क्षेत्र में हम पिछड़ते जा रहे हैं।आज अर्थ व स्वार्थ की जकड़न इतनी मजबूत होती जा रही है कि हमारे अपनों के लिए भी कोई स्थान नहीं बच पाता।

आज ऐसी परिस्थितियों व परिवेश में यह आवश्यकता महसूस की जाने लगी है कि उक्त बातों को गंभीरता से लिया जाए। यदि यह क्रम जारी रहा तो हमारे मानवीय रिश्तों का कोई औचित्य ही नहीं रह जाएगा। क्या भाई-भाई की अहमियत रह जाएगी। क्या पड़ोसी का औचित्य रह जाएगा। तब कोई निस्वार्थ भाव से किसी की  मदद कर सकेगा? अपने और पराए को जब तराजू के एक ही पलड़े में तौला जाएगा तब सारे सामाजिक रिश्ते गड्डमड्ड नहीं हो जाएँगे? स्वजनों और परिजनों में अंतर ही क्या रह जाएगा? यह सब सोचकर ही जब हम असहज हो जाते हैं तब वास्तविकता में क्या हाल होगा।

आज पुनः अपनी संतानों में ऐसे संस्कार और विचारों के रोपण की आवश्यकता प्रतीत होने लगी है, जिससे उन्हें उस कल्पित भयावह परिस्थितियों का सामना न करना पड़े। वर्तमान में हमें भी परोपकारिता और समाज के जरूरतमंदों की मदद करने हेतु आगे आना होगा। सद्भावना को बढ़ावा देना होगा, जिससे हमारी आगे आने वाली पीढ़ी भी इन सबका अनुकरण कर सके, साथ ही उनका महत्व भी समझे। वैसे भी किसी की मदद व परोपकार के पश्चात मिली खुशी का अपना स्थान होता है। मन की शांति और प्रसन्नता आपके जीवन को भी प्रभावित करती है, जो आपके सफल जीवन का एक अहम कारक भी कहा जा सकता है।

आईए हम आज से ही कुछ ऐसे कार्य प्रारम्भ करें जो समाजहित, मानवहित और स्वहित के लिए जरूरी हैं। आपके द्वारा किए गए कार्यों से अगर कुछ लोग भी लाभान्वित हो पाए तो निश्चित रूप से यह आपके जीवन की सार्थकता होगी। साथ ही ये कार्य समाज में मानव सेवा हेतु प्रेरणा के स्रोत भी बनेंगे।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 104 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 104 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

पाती तुमको लिख रही,

लिखती  हूं  अविराम।

शब्द शब्द में है रचा,

बस तेरा ही नाम।।

 

नेह निमंत्रण दे रहे,

इसे करो स्वीकार।

आपस के संबंध में,

नहीं जीत या हार।।

 

पीड़ित मन से पूछ लो,

अंतर्मन की आग।

कैसे समझेंगे भला,

फूटे जिनके भाग।।

 

झरने झील पहाड़ की ,

करो न कोई बात।

याद मुझे आने लगी ,

वही सुहानी रात।।

 

मृगनयनी सा रुप है,

तू जंगल की हीर।

दिखता तुझको लक्ष्य है,

साधे बैठी तीर।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 93 ☆ प्रभु जी जानत हौ गति जन की ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण कविता “प्रभु जी जानत हौ गति जन की । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 93 ☆

☆ प्रभु जी जानत हौ गति जन की ☆

 

हम अज्ञानी साँच ना जाने, करते हैं बस मन की

मूल स्वरूप भूल कर प्राणी, फिकर करे बस तन की ।।

 

माया बस लालच में लिपटे, यतन करें बस धन की

सिर पर चढ़ कर अहं बोलता, रखें याद निजपन की।।

 

नेकी की हम राह न जाने, राह थाम अवगुन की

माया से “संतोष” उबारो, बेला हुई गमन की ।।

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 6 (41 -45)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #6 (41-45) ॥ ☆

 

उसी के कुल में प्रतीपनामक है नृप ये गुणियों का मान कर्ता

दिया है झुठला कि लक्ष्मी चंचल है, बनके उसका समर्थ भर्ता ॥ 41॥

 

प्रतीप जो अग्नि से पाके वरदान निडर हो अरि से कभी नहारा

कमल सी कोमल है जिस को दिखती परशुराम के परशु की धारा ॥ 42॥

 

इस दीर्घ बाहू की बनत लक्ष्मी यदि राजमहलों की जालियों से

माहिष्मती की जलोर्मि रसना सी लखने रेवा जो कामना है ॥ 43॥

 

निरभ्र नभ का श्शारदा श्शशि भी ज्यों कमलिनी को नहीं सुहाया

तथैव वह नृप परम सुदर्शन भी इन्दुमति को लुभा न पाया ॥ 44॥

 

बोली सुनंदा, सुषेण शूरसेन नृपति को लख तब – सुनो कुमारी

सदाचरण से सुख्यात में जग में ये है स्वकुलदीप प्रकाशकारी ॥ 45॥

 

ये नीपवंशी सुषेण नृप हैं आ जिनके आश्रय सभी गुणों ने

भुला दिया बैर है जैसे सिद्धाश्रमों में जा हिस्रजों ने ॥ 46॥

 

सुखद मधुर चंद्र सी कांति जिसकी तो शोभती है स्वयं सदन में

पर तेज से पीडि़त शत्रु है सब हैं घास ऊगे घर उन नगर में ॥ 47॥

 

विहार में घुल उरोज चंदन कालिन्दी में मिल यों भास होता

ज्यों यमुना का मथुरा में ही गंगा से शायद सहसा मिलाप होता ॥ 48॥

 

गले में इनके गरूड़ प्रताडि़त है कालियादत्त मणि की माला

श्री कृष्ण का कौस्तुभ मणि भी जिसके समक्ष है फीकी कांति वाला ॥ 49॥

 

स्वीकार इसको मृदुकिरूलयों युक्त सुपुष्प शैया से वृन्दावन में

जों चैत्ररथ सें नहीं कोई कम, हे सुन्दरी रम सहज सघन में ॥ 50॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ २९ ऑक्टोबर – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? २९ ऑक्टोबर –  संपादकीय  ?

प्रभाकर तामणे (२९ ऑक्टोबर १९३१)

प्रभाकर तामणे हे गरवारे कॉलेजमध्ये प्राध्यापक होते. विनोदी कथाकार म्हणून ते लोकप्रिय होते. त्यांनी अनेक कथा- कादंबर्‍या लिहिल्या.

‘अशीच एक रात्र येते’ हे त्यांनी फ्लॅश बॅक तंत्राने लिहिलेले नाटक खूप गाजले. या नाटकाचे पुढे हिन्दी, गुजराती, पंजाबी, कोकणी इ. भाषात अनुवाद झाले. एक धागा सुखाचा, मधुचंद्र, रात्र वादळाची इ. त्यांनी लिहीलेल्या कथांवरील चित्रपट गाजले. त्यांच्या एका कथेवर , राजकपूरने हिन्दी भाषेत काढलेला ‘बीवी ओ बीवी’ हा चित्रपटही गाजला.

अनामिक नाते, छक्केपंजे, एक काली उमळताना. हिमफुलांच्या देशात इ. त्यांची पुस्तके  प्रसिद्ध आहेत.  

रा.ना. चव्हाण – (१९१३-१९९३ )

रा.ना. चव्हाण हे दलित चळवळ आणि सत्यशोधक चळवळ यातील खंदे कार्यकर्ते. त्यांनी  वैचारिक लेखन केले. त्यांचे ८०० च्या वर वैचारिक लेख आहेत. त्यांचे ८ ग्रंथ आहेत.  प्रत्यक्ष रा. नांवरही, रानांच्या आठवणी . निवडक लेख, त्यांचे धर्मचिंतनपर लेख इ. पुस्तके लिहिली गेली आहेत. अक्षरवेध ( साहित्य समीक्षा) , ग्रामीण भागातील शिक्षण परंपरा, जनजागरण, परिवर्तनाची क्षितिजे, भारतीय संस्कृती व तिची वाटचाल इ. रा. नां॰ची पुस्तके प्रसिद्ध आहेत.

रा.ना. चव्हाण यांना महाराष्ट्र शासनाचा ‘दलित मित्र’ हा पुरस्कार १९८३ साली मिळाला.

 महाराष्ट्र साहित्य संस्कृती मंडळाची गौरववृत्ती आणि मानपत्र १९८९ साली मिळाले. सातारा येथे झालेल्या, मराठी साहित्य संमेलनात त्यांचा जाहीर सत्कार करण्यात आला.

वसंत पळशीकर – (१८ फेब्रुवारी १९३६ – २९ ऑक्टोबर २०१६ )

वसंत पळशीकर हे मूलगामी आणि सर्वंकष लेखनासाठी प्रसिद्ध आसलेले विचारवंत होते. सामाजिक आणि राजकीय प्रश्न, चालवली, धर्म, विज्ञान, पर्यावरण इ. क्षेत्रातील विषयांवर त्यांनी लेखन केले. ‘नवभारत’ आणि ‘समाज प्रबोधन पत्रिका’ यांचे ते संपादक होते. ज्ञात महितीचा खजिना म्हणून त्यांच्याकडे बघितले जाई. त्यांनी विविध नियतकालिकातून केलेले लेखन १००० पृष्ठांपेक्षा जास्त आहे. त्यांच्या कार्याची माहिती देणारा लघुपटही आहे. चौकटीबाहेरचे चिंतन , परिवर्तन चिंतन आणि चिकित्सा , परांपरिक आणि आधुनिक शेती इ. त्यांची पुस्तके आहेत.

त्यांना अनंत भालेराव स्मृती पुरस्कार देण्यात आला होता. आज त्यांच्या स्मृतिदिनानिमित्त त्यांना भावपूर्ण श्रद्धांजली.   

मीना वांगीकर (१९५०- २०१५ )

मीना वांगीकर या अनुवादिका म्हणून प्रसिद्ध होत्या. त्यांनी उत्तम कन्नड पुस्तकांचा मराठीत व मराठी पुस्तकांचा कन्नडमध्ये अनुवाद केला आहे.  ‘ययाती’ (वि. स. खांडेकर}) आणि ‘मी जेनी’ (आनंत कुलकर्णी) या पुस्तकांचा मराठीतून कन्नडमध्ये अनुवाद केला आहे तर मुक्क्ज्जी, धूम्रकेतू, प्र प्रवासाचा आणि फ फजितीचा, ब्रम्हांड इ. कन्नड कादंबर्‍यांचा अनुवाद मराठीत केला आहे.

त्यांना महाराष्ट्र साहित्य परिषदेचा स. ह. मोडक पुरस्कार मिळाला आहे. आज त्यांनाही स्मृतिदिनानिमित्त भावपूर्ण श्रद्धांजली.

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई – अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : – १) कऱ्हाड शिक्षण मंडळ “ साहित्य-साधना दैनंदिनी. २) माहितीस्रोत — इंटरनेट 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव  ☆ भासमय ☆ सौ राधिका भांडारकर

सौ राधिका भांडारकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ भासमय ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

वाळवंटी हरीण

तहानलेलं धावतं

भासतो जलाशय

परी ना कधी पोहचतं…..

 

तद्वत धाव धावतो

टाकीत धापा जीवनी

नसुन जे भासते

वेध त्याचा मनोमनी……

 

मनी  नसे संतुष्ट

असुनही वाटे नसे

आटापीटा  किती

धाव आभासी असे…..

 

आपुले आपल्यापाशी

परी नजर पल्याडी

उन पाण्याचाच खेळ

वाट खोटी वाकडी….,…

 

जाती घरंगळुनि

कण वाळुचे ते

मृगजळामागे धावलो

नंतर जाणवते….

 

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 94 – आली दिवाळी…… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? साप्ताहिक स्तम्भ # 94 – विजय साहित्य ?

☆ आली दिवाळी…… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

घरोघरी दरवळे

फराळाचा  मिश्र वास

कडू गोड आठवांची

शोभे दिवाळी  आरास.  १

 

येता दिवाळी दारात

ज्योत स्नेहाची जागवू.

स्वार्थ सारा मनातला

वातीसम जीवे जाळू.  २

 

मनी तोरण मानाचे

दान विचारांचे देऊ.

वासनेच्या  असुराला

नरकाची वाट दावू.  ३

 

मनातल्या  आनंदाचे

रंग रांगोळीत घेऊ

आदराची मांदियाळी

स्वागताला  ओठी ठेवू.  ४

 

दीपज्योती स्नेहमैत्री

काय वर्णू त्याचे मोल

स्नेहमैत्री जागवूया

घ्यावा संदेश अमोल.  ‌५

 

अशी दिवाळी आरास

तन मन प्रक्षाळते

पाडव्याला औक्षणात

नेत्रज्योत तेजाळते.  ६

 

सण भाऊबीज खास

माया ममतेची बोली

ओवाळते भाऊराया

भगिनीची ह्रद्य झोळी. ७

 

आली दिवाळी दिवाळी

स्नेहज्योत तेजाळली

जाळू स्वभावाचे दोष

गळाभेट गंधाळली. ‌ ‌८

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते 

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  9371319798.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ खीर बाई खीर…भाग 1 ☆ डॉ मेधा फणसळकर

डॉ मेधा फणसळकर

?  विविधा  ?

☆ खीर बाई खीर…भाग 1 ☆ डॉ मेधा फणसळकर ☆ 

माझ्या माहेरी कराडला चैत्रात कृष्णाबाईचा मोठा उत्सव असतो. देवीची पालखी, जत्रा, सांस्कृतिक कार्यक्रम याची तीन दिवस रेलचेल असते. पण मला कायम उत्सवाचा शेवटचा दिवस आवडत असे. याचे महत्त्वाचे कारण म्हणजे शेवटच्या दिवशी प्रसाद म्हणून ‛गव्हाची खीर’ असायची. आणि घरोघरी गहू गोळा करुन तयार केलेल्या या खिरीला एक प्रकारची अवीट गोडी असायची.  सोहळयातल्या या खिरीला जसा वेगळा स्वाद असायचा तसाच ही खीर आमच्या घरी करायचा पण एक सोहळाच असायचा.

पाचवीत असताना आम्हाला शाळेत एक कविता होती. त्यात एका स्त्रीचे वर्णन करताना म्हटले  होते, “ गोधूम वर्ण तिचा!” आता हा गोधूम वर्ण म्हणजे कसला? असा त्या वयात आम्हाला प्रश्न पडला. पण बाईंनी लगेचच स्पष्टीकरण केले,“मुलींनो, गोधूम म्हणजे गव्हासारखा बरं का!” तेव्हा तो गव्हाळ वर्ण डोक्यात अगदी पक्का बसला. तर अशा या गव्हाची एक गंमत आहे बर का! बिचाऱ्याला पाकशाळेत गेल्यावर  कोणत्याही पाककृतीच्या नाटकात काम करायचे असेल तर अनेकदा ‛स्त्रीपार्ट च’ करायला लागतो. उदा. पुरणपोळी,सांज्याची पोळी, चपाती,गूळपापडी, कुरडई, खीर इ. इ.! क्वचित पुरुषपार्ट पण मिळतो जसे पराठा, लाडू वैगेरे वैगेरे ! पण ते हाताच्या बोटावर मोजण्याइतकेच. असो.

तर आमच्या घरी  ‘गव्हाची खीर’ करायची तर जय्यत तयारी असे. नाटकात काम करणारे अनेक कसलेले नट असले तरी कोणत्या भूमिकेसाठी कोणता नट योग्य आहे हे जसे दिग्दर्शकाला माहीत असते. तसे आमच्या घरातील आई आणि जवळच राहणारी मामी, या दोन दिग्गज दिग्दर्शकांना खिरीच्या नाटकासाठी ‛खपली गहूच’ लागत. ते दुकानात मिळाले की मामीला लगेच निरोप जात असे. मग दुपारी घरची जेवणे आटोपली की मामी जय्यत तयारीनिशी आमच्या घरी हजर होत असे. कारण नाटक बसवायचे असे ना! मग या दोन दिग्दर्शकांच्या अंगात खीर चढलेली असे.   स्त्रीपार्ट करायचा म्हणजे या गव्हाला भरपूर पूर्वतयारी करावी लागत असे. नाटकात फिट होण्यासाठी सूप आणि चाळणीच्या मार्गदर्शनानंतर ते उखळबाईंच्या  ताब्यात दिले जात. मामीच्या अनुभवी नजरेतून सूप आणि चाळणी या गव्हाचे ग्रुमिंग करत असतानाच बरेच दिवस दुर्लक्ष झाल्यामुळे रागावून बसलेल्या उखळ आणि मुसळीला लाडाने  अंजारून- गोंजारून, थोडे पाणी पाजून आईने त्यांच्या कृष्णकांतीला लकाकी आणली असे. मग हे थोडेसे तांबूस वर्णाकडे झुकणारे खपली गहू उखळात प्रवेश करत. इथे आपले पुरुषी दिसणे कमी करण्यासाठी आपल्याला दिव्यातून जावे लागणार हे माहीत असूनही ते निमूटपणे मुसळीचे घाव सोसण्यासाठी सज्ज होत. मग आई आणि मामी या दोन दिग्दर्शिका मुसळीला वरखाली नाचवत त्यांना हवा तसा मेकओव्हर तिच्याकडून करवून घेत. यावेळी गव्हाचे वॉक्सिंग होत असे. ते करताना कातडी सोलवटली जात असे. म्हणून मध्ये मध्ये त्यावर थंड पाण्याचा शिडकावा करावा लागे. तरीही एखादा चुकार दाणा पटकन बाहेर पडे. पण दोघी दिग्दर्शिका बारीक लक्ष ठेवून असत. त्या लगेच त्यांचे बखोटे पकडून त्यांना पुन्हा उखळीत घालत. बघता बघता गव्हाचे रुप पालटू लागे. बाह्य आवरण बाजूला पडून हे गहू आता नाटकाच्या रंगात रंगायला लागलेले असत. मग याना पुन्हा सुपात नाच करावा लागे आणि उरले सुरले त्यांचे बाह्य आवरण गळून पडे व गव्हाला अधिक गोरा रंग प्राप्त होत असे. आता मात्र या दोघी दिग्दर्शिका त्यांच्या रुपावर खुश होत त्यांना थंड पाण्याच्या बाथटबमध्ये किमान तासभर तरी डुंबायला सोडत. मग त्याला त्याच पाण्यात चांगले चोळून घेऊन गरम पाण्यात, कुकरमध्ये अग्नी सरांच्या साथीने स्टीम बाथ घ्यायला लावत. मग आपल्यातील पुरुषी ताठा टाकून हे गहूराजे स्त्रीभूमिकेसाठी अगदी मऊ मुलायम बनत. आपल्यात झालेला हा बदल बघून गहूराजे स्वतःवरच खुश होत. त्यामुळे त्यांच्या शरीरावर मूठभर पाणी चढून ते टम्म फुगत. अशी ही नाटकासाठी योग्य, अंगाने भरलेली नायिका बघून दिग्दर्शकाना आपल्या नाटकाच्या यशाची खात्री पटे.

© डॉ. मेधा फणसळकर

मो 9423019961

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ लाखातील एक सून..भाग 2…अनामिक☆ संग्राहक – सौ. मेधा सहस्रबुद्धे

? जीवनरंग ❤️

☆ लाखातील एक सून..भाग 2…अनामिक☆ संग्राहक – सौ. मेधा सहस्रबुद्धे ☆ 

मग तुलाही असं एकटं ठेवायचे का रे तुझे आई बाबा ? नाही ना ?  इथून पुढे —-

लहानपणापासून तर अगदी आता आता पर्यंत कितीतरी वेळा तुला त्यांनी सावरलं असेल.  जन्मदाता बाप, तुला वाढवताना ज्याने रक्ताचं पाणी केलं, प्रेमाने मंतरलेला चिऊ काऊचा घास तुला भरवला. वेळ पडली तेव्हा तुझं गच्च भरलेलं नाक स्वतःच्या हाताने स्वच्छ केलं. तू दिलेला शी – सू चा आहेरही कौतुकाचा क्षण समजून सेलिब्रेट केला, तुला फ्रिडम दिलं,  उच्च शिक्षण, उत्तम करियर, परफेक्ट लाईफ दिली आणि तू मात्र ?… असो तुला हवं तसं वागायला फ्री आहेस तू. पण माझंही जरा स ऐकून घे.  

मी ह्या घरात आल्यानंतर पदोपदी ज्यांची मला साथ लाभली ते म्हणजे नाना. नविन नविन खूप रडायला यायचं. आईची आठवण त्रस्त करायची.

तू कामात बिझी असायचा, अश्या वेळी माझ्या डोळ्यातलं पाणी टिपून डोक्यावरून मायेचा हात फिरवायचे ते नाना. एखाद्या वेळी आईंचा ओरडा खाल्ल्यावर घाबरलेल्या मला प्रेमाने पाठीशी घालून धीर द्यायचे ते नानाच. कधीतरी उदास वाटलं तर जिवलग मित्र बनून ओठांवर हसू फुलवायचे ते माझे नाना.

आई गेल्या तसे थोडे खचले आणि वर्षभरात तर वयोमानानुसार आणि तब्येतीच्या तक्रारींमुळे मुळे बरेच थकले, गांगरून गेले. अश्या अवस्थेत त्यांना मी दूर लोटायचं ? 

हे मुळीच शक्य नाही अमित. त्यांचा अपमान मी मुळीच खपवून घेणार नाही. उभं आयुष्य मुलांसाठी वाट्टेल तश्या खस्ता खाऊनही आई वडिलांचा जीव अगदी शेवटच्या श्वासापर्यंत देखील आपल्या पिल्लांमध्येच अडकलेला असतो. 

पण त्यांच्याही आयुष्यात शेवटचं असं एक नाजूक वळण येतं, जेव्हा त्यांनाही आधाराची गरज भासते. मग अश्या वेळी  काही काळ मुलांनी त्यांची जागा घेऊन त्यांना जरासं सावरलं तर कुठे बिघडलं ?    

अमितचे डोळे भरून आले. तो नखशिखांत गहिवरला. त्याला त्याची चूक उमगली तसा तो म्हणाला, “मुग्धा, अगं मी काय नानांचा शत्रू आहे का ? पण त्यांच्या अश्या अवस्थेत कुणी त्यांना नावं ठेवलेले किंवा त्यांची टिंगल केलेली मला नाही सहन होणार. बस ह्याच एका कारणामुळे मी डिस्टर्ब झालो आणि निष्कारण ओरडलो त्यांच्यावर.”

“अरे का म्हणून कुणी टिंगल करेल त्यांची ? आपणच जर आपल्या व्यक्तीचा मान ठेवला तर आपसूकच सगळे तिचा मान ठेवतात आणि आपलाही मान वाढतो अशाने, 

आणि आपणच जर का आपल्या व्यक्तीचा अपमान केला तर इतरांनाही फावतं तसं करायला आणि आपलीही पत कमीच होते अमित.”

अमितला मुग्धाच म्हणणं तंतोतंत पटलं. अनावधानाने का असेना पण त्याचं चुकलंच होतं. नानांना भेटण्यासाठी व्याकुळ झालेला अमित धडपडतच उठला आणि नानांच्या रूम मध्ये शिरला.

नाना अजूनही जागेच होते. अमितची चाहूल लागताच ते उठून बसले. “अरे अमित तू ? ये बाळा, झोपला नाहीस का अजून ? अरे आताशा हात जरा थरथरतात रे माझे म्हणून मघाशी बासुंदी सांडली अंगावर पण आता नाही हं येणार बाळा तुमच्या मित्रमंडळीत मी.”

नानांनी असं म्हणताच अमितचं अवसानच संपलं आणि नानांना मिठीत घेऊन तो लहान लेकराप्रमाणे रडू लागला. 

“नाही नाना, असं नका म्हणू. मी चुकलो. उलट यापुढे मी तुम्हाला कधीच एकटं पडू देणार नाही. आतापर्यंत जाणते अजाणतेपणी खूप त्रास दिला मी तुम्हाला पण यापुढे फक्त जीवच लाविन नाना तुम्हाला मी.”

लेकाच्या प्रेमात पुरत्या वाहून गेलेल्या नानांना जणू आभाळच ठेंगणं झालं आणि त्यांच्याही नकळत त्यांच्या डोळ्यातले दोन टपोरे तेजस्वी मोती त्यांच्या मिठीत विसावलेल्या त्यांच्या लेकाच्या खांद्यावर खळकन निखळले. 

केव्हापासून बापलेकाच्या उदात्त प्रेमाचा सोहळा हृदयात साठवत दारात उभ्या असलेल्या मुग्धानेही गालात हसत समाधानाने डोळे पुसले आणि.. चिमुकले घरही मग आनंदाने हसले….

समाप्त 

ले.: अनामिक

सौ. मेधा सहस्रबुद्धे

पुणे

मो  9420861468

[email protected]

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ फ्रीझ इन्स्पेक्शन…प्रकाश तांबे ☆ प्रस्तुती – डॉ. ज्योती गोडबोले

डॉ. ज्योती गोडबोले 

? मनमंजुषेतून ?

☆ फ्रीझ इन्स्पेक्शन…प्रकाश तांबे ☆ प्रस्तुती – डॉ. ज्योती गोडबोले ☆ 

अत्यंत साशंक नजरेने, पत्नी घरात नसताना, मी आमच्या Fridgeची पहिल्यांदा आणि शेवटची झडती घेतली होती.

Fridge उघडताच आंब्याच्या पेटीत जसे वरवर चांगले आंबे रचतात आणि खाली गाळ भरतात तसेच वरच्या कप्यात पॕकबंद दुधाच्या पिशव्या, पातेल्यातले वापरातले दूध, लोणी, पनीर, प्लास्टिक कंटेनरमधे चिरून ठेवलेल्या दोन भाज्या व तत्सम ताजे पदार्थ पाहिल्यावर मी सुखावलो. 

परंतु गाफिल न रहाता खालच्या कप्प्यांकडे जरा आधिक बारकाईने बघायचं ठरवलं. वरून अलगद झाकणाने  बंद केलेल्या पण ओसंडून वहाणा-या  विविध आकाराच्या बऱ्याच  वाट्या आणि दोन तीन पातेल्यांनी माझे दाटी वाटीत का होईना, पण सर्व प्रथम, जोरदार स्वागत केले. तेलाची तीन चार लसणीच्या पाकळ्या शिल्लक असलेली तळाला गेलेली फोडणी, मळलेल्या कणकेचा गोळा, एक दोन दिवसापूर्वी केलेल्या पावभाजीसाठीचा कांदा व लिंबाच्या फोडी व विरजणासाठी संभाळून ठेवलेले दही वगैरे कॉमन पदार्थ आढळले. यात दडलेल्या मालाला काळाचे बंधन नसते कारण expiry date चे बंधन तो जुमानत नाही. कंझमशन रेटही खूप हाय असतो.

परंतु त्याच बरोबर, एक दोन दिवसापूर्वीच्या उरलेल्या तयार भाज्याही झाकणीखाली आपला केंव्हा नंबर लागेल या विवंचनेत पडून राहिलेल्या आढळल्या आणि हळूहळू मला आमच्या घरी वारंवार होणाऱ्या  पराठे वा सँडविचेसचे कोडे उलगडत गेले. ओलसर भाज्या पराठ्यासाठी आणि कोरड्या भाज्या सँडविचेस साठी असे त्यांचे ढोबळ वर्गीकरण असते. 

दुपारचे टाइमपास कुकरी शो बघणे हा केवळ वरवरचा दिखावा असून शेवटी आईकडून परंपरेने शिकलेले पराठेच कामी येतात हेच खरे. शिवाय हेच पराठे न लाटता पोळपाटावर थापून मधे भोक पाडून तूप लोणी सोडले की थालीपीट म्हणून तुमच्या पानात अवतरू शकतात. आहे की नाही मल्टी पर्पज युटिलिटी? 

कुकरच्या एका गोलसर भांड्यात शिजवून ठेवलेले दाट वरणही या गर्दीत होते. बहुदा पहिल्या कप्यातील पळीची फोडणी देऊन डाल तडका या नावाखाली येत्या एक दोन दिवसात ते माझ्या पानात अवतरणार होते.

अजून एक उभा गंज होता. हात लागताच त्यातले ताक जागे झाले आणि ढवळताच वर वर दिसणा-या पाण्याशी एकरुप झाले. शेजारीच पसरट पातेल्यात साईचे दही होते. खूप विचार केला पण कोणत्याही प्रयत्नाने ‘हि’च्या नकळत साय लाटणे अशक्य होते म्हणून नाद सोडला.

दारा मागच्या साईडच्या कप्यात विविध मसाल्यांची तयार पाकिटे त्यांच्या वापराच्या frequency प्रमाणे लावली होती. दुसर्-यात सर्व टाईपच्या सॉसच्या बाटल्या होत्या. काहींवर माझ्या हलगर्जीपणामुळे आलेले ओघळ दिसले ते पटकन ओल्या फडक्याने पुसून घेतले.

भाजीच्या कप्यात objectionable काहीच आढळलं नाही. गाजर, काकडी, टोमॕटो एकमेकांच्या साथीत ” मरेंगे तो साथमे ” असे म्हणत एकमेकांना कंपनी देत होते. डीप Fridgeमधेही एकदम सामसूम होती. सगळेच लांबच्या रेसचे घोडे air packed अवस्थेत उभे होते. Icecream container sealed होता. मी हताश झालो. तेवढ्यात एक काजू दिसला तो तोंडात टाकला Inspection fee समजून.

एवढ्यात ही आली आणि मी Fridgeचा दरवाजा पटकन बंद केला. तिच्या लक्षात आले आणि मी ‘त्यातला’ नसून सुध्दा तिने विचारले सोडा शोधताय का? मी माझे निर्दोशत्व सिध्द केलंच पण त्याच बरोबर एकही पदार्थ वाया न घालवता संसाराचा गाडा अविरत चालवणा-या तिचे व तिच्यासारख्या तुम्हा असंख्य गृहिणींचे मनोमन आभार मानले. 

ले. प्रकाश तांबे

8600478883

(Repost)

संग्राहक : डॉ. ज्योती गोडबोले

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares