हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 108 ☆ सपने वे होते हैं ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख सपने वे होते हैंयह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 108 ☆

☆ सपने वे होते हैं ☆

सपने वे नहीं होते, जो आपको रात में सोते  समय नींद में आते हैं। सपने तो वे होते हैं, जो आपको सोने नहीं देते– अब्दुल कलाम जी की यह सोच अत्यंत सार्थक है कि जीवन में उन सपनों का कोई महत्व नहीं होता, जो हम नींद में देखते हैं। वे तो माया का रूप होते हैं और वे आंख खुलते गायब हो जाते हैं; उनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है, क्योंकि सपनों को साकार करने के लिए मानव को कठिन परिश्रम करना पड़ता है; अपनी सुख-सुविधाओं को तिलांजलि देनी पड़ती है। उस परिस्थिति में मानव की रातों की नींद और दिन का सुक़ून समाप्त हो जाता है। मानव को केवल अर्जुन की भांति अपना लक्ष्य दिखाई पड़ता है, जो उन सपनों की मानिंद होता है, जो आपको सोने नहीं देते। सो! खुली आंखों से सपने देखना कारग़र होता है। इसलिए हमारा लक्ष्य सार्थक होना चाहिए और हमें उसकी पूर्ति हेतु स्वयं को झोंक देना चाहिए। वैसे काम तो दीमक भी दिन-रात करती है, परंतु वह निर्माण नहीं; विनाश करती है। इसलिए अपनी सोच को सकारात्मक रखिए, दृढ़-प्रतिज्ञ रहिए व कठिन परिस्थितियों में भी धैर्य बनाए रखिए… यही सफलता का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।

सो! हमें खास समय की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए, बल्कि अपने हर समय को खास बनाना चाहिए, क्योंकि आपको भी दिन में उतना ही समय मिलता है; जितना महान् लोगों को मिलता है। इसलिए समय की कद्र कीजिए। समय अनमोल है, परिवर्तनशील है, कभी किसी के लिए ठहरता नहीं है। यह आप पर निर्भर करता है कि आप समय को कितना महत्व देते हैं। इसके साथ ही मानव को यह बात अपने ज़हन में रखनी चाहिए कि कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता। हमें पूर्ण निष्ठा व तल्लीनता से उस कर्म को उस रूप में अंजाम देना चाहिए कि आप से अच्छा कार्य कोई कर ही ना पाए। सो! दक्षता अभ्यास से आती है। कबीर जी का यह दोहा ‘करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान’ इसी भाव को परिलक्षित करता है। यदि आप में जज़्बा है, तो आप हर स्थिति में स्वयं को सबसे सर्वश्रेष्ठ साबित कर सकते हैं। गुज़रा हुआ समय कभी लौट कर नहीं आता। इसलिए हर पल को अंतिम पल मान कर हमें निरंतर कर्मरत रहना चाहिए।

‘दुनिया का उसूल है/ जब तक काम है/ तेरा नाम है/ वरना दूर से ही सलाम है’–जी हां! यही दस्तूर-ए-दुनिया है। मोमबत्ती को भी इंसान अंधेरे में याद करता है। इसलिए इसका बुरा नहीं मानना चाहिए। इंसान भी अपने स्वार्थ हेतू दूसरे को स्मरण करता है; उसके पास जाता है और यदि उसकी समस्या का हल नहीं निकलता, तो  वह उससे किनारा कर लेता है। इसलिए किसी से अपेक्षा मत करें, क्योंकि उम्मीद स्वयं से करने में मानव का हित है और यह जीवन जीने की सर्वोत्तम कला है। इस तथ्य से तो आप परिचित ही होंगे– इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती है जो वह दूसरों से करता है।

यदि सपने सच न हों, तो रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं। पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं; जड़ें नहीं। हर समस्या के केवल दो समाधान ही नहीं होते, इसलिए मानव को तीसरा विकल्प अपनाने की सलाह दी गई है, क्योंकि मंज़िल तक पहुंचने के लिए तीसरे मार्ग को अपनाना श्रेयस्कर है। ‘आजकल लोग समझते कम, समझाते अधिक हैं; तभी तो मामले सुलझते कम, उलझते ज़्यादा हैं।’ आजकल हर व्यक्ति स्वयं सर्वाधिक बुद्धिमान समझता है। वह संवाद में नहीं, विवाद में अधिक विश्वास रखता है। इसलिए वह आजीवन स्व-पर व राग-द्वेष के भंवर से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। सो! जिसने संसार को बदलने की कोशिश की, वह हार गया और जिसने ख़ुद को बदल लिया; वह जीत गया, क्योंकि आप स्वयं को तो बदल सकते हैं, दूसरों को नहीं। इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो मानव दूसरों से करता है।

‘जीवन में लंबे समय तक शांत रहने का उपाय है– जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकारिए।’ स्वामी विवेकानंद जी की यह सीख अत्यंत सार्थक है। दूसरों को प्रसन्न रखने के लिए मूल्यों से समझौता मत करिए, आत्म-सम्मान बनाए रखिए और चले आइए।’ ख़ुद से जीतने की ज़िद्द है मुझे/ ख़ुद को ही हराना है/ मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है। जी हां! यही है सफलता पाने का सर्वश्रेष्ठ मार्ग। ‘एकला चलो रे’ के द्वारा मानव हर आपदा का सामना कर सकता है। यदि मानव दृढ़-निश्चय कर लेता है कि मुझे स्वयं पर विजय प्राप्त करनी है, तो वह नये मील के पत्थर स्थापित कर, जग में नये कीर्तिमान स्थापित कर सकता है। ‘सो! कोशिश करो और नाकाम हो जाओ, तो भी नाकामी से घबराओ नहीं। कोशिश करो, क्योंकि नाकामी सबके हिस्से में नहीं आती’– सेम्युअल बेकेट की इस सोच अनुकरणीय है, जो मानव को किसी भी परिस्थिति में पराजय स्वीकारने का संदेश देती, क्योंकि अच्छी नाकामी चंद लोगों के हिस्से में आती है। इस तथ्य को स्वीकारते हुए स्वाममी रामानुजम संदेश देते हैं कि ‘अपने गुणों की मदद से अपना हुनर निखारते चलो। एक दिन हर कोई तुम्हारे गुणों व काबिलियत पर बात करेगा।’ दूसरे शब्दों में वे अपने भीतर दक्षता को बढ़ाने पर बल देते हैं। दुनिया में सफल होने का सबसे अच्छा तरीका है–उस सलाह पर काम करना, जो आप दूसरों को देते हैं। महात्मा बुद्ध भी यही कहते हैं कि इस संसार में जो आप करते हैं, वह सब लौट कर आपके पास आता है। इसलिए दूसरों से ऐसा व्यवहार करें, जिसकी अपेक्षा आप दूसरों से करते हैं। इसके साथ ही यह भी कहा जाता है कि ‘उतना विनम्र बनो, जितना ज़रूरी हो। बेवजह की विनम्रता दूसरों के अहम् को बढ़ावा देती है, क्योंकि आदमी साधन से नहीं, साधना से श्रेष्ठ बनता है। आदमी उच्चारण से नहीं, उच्च आचरण से श्रेष्ठ बनता है। सो! तप कीजिए, साधना कीजिए, क्योंकि मानव के अच्छे आचरण की हर जगह सराहना होती है। व्यक्ति का सौंदर्य महत्व नहीं रखता, उसके गुणों की समाज में सराहना होती है और वह अनुकरणीय बन जाता है। शायद इसलिए मानव को ऐसी सीख दी गई है कि सलाह हारे हुए की, तुज़ुर्बा जीते हुए का और दिमाग़ ख़ुद का– इंसान को ज़िंदगी में कभी हारने नहीं देता। मानव को अपने मस्तिष्क से काम लेना चाहिए, व्यर्थ दूसरों के पीछे नहीं भागना चाहिए। वैसे दूसरों के  अनुभव से लाभ उठाने वाले बुद्धिमान कहलाते तथा सफलता प्राप्त करते हैं।

‘पांव हौले से रख/ कश्ती में उतरने वाले/ ज़मीं अक्सर किनारों से/  खिसका करती है’ के माध्यम से मानव को जीवन में समन्वय व सामंजस्य रखने का संदेश दिया गया है। यदि मानव शांत भाव से अपना कार्य करता है, धैर्य बनाए रखता है, तो उसे असफलता का मुख कभी नहीं देखना पड़ता। यदि वह तल्लीनता से कार्य नहीं करता और तुरंत प्रतिक्रिया देता है, तो वह परेशानियों से घिर जाता है। इसलिए मानव को विषम परिस्थितियों में भी अपना आपा नहीं खोना चाहिए। इसके साथ ही आप जो भी स्वप्न देखें, उसकी पूर्ति में स्वयं को झोंक दें; अनवरत कर्मरत रहें और तब तक चैन से न बैठें, जब तक आप अपनी मंज़िल तक न पहुंच जाएं। वास्तव मेंं मानव को ऐसे सपने देखने चाहिएं, जो हमें सही दिशा-निर्देश दें, हमारा पथ-प्रशस्त करें और हमारे अंतर्मन में उन्हें साकार करने का जुनून पैदा कर दें। आप शांत होकर तभी बैठें, जब हम अपनी मंज़िल को प्राप्त करे लें। ‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’ इस तथ्य से तो आप सब अवगत होंगे कि असावधानी ही दुर्घटना का कारण होती है। इसलिए हमें सदैव सचेत, सजग व सावधान रहना चाहिए, क्योंकि लोग हमारे पथ में असंख्य बाधाएं उत्पन्न करेंगे, विभिन्न प्रलोभन देंगे, अनेक मायावी स्वप्न दिखाएंगे, ताकि हम अपने लक्ष्य की प्राप्ति न कर सकें। परंतु हमें सपनों को साकार करने को दृढ़ निश्चय रखना है और दिन-रात स्वयं को परिश्रम रूपी भट्टी में झोंक देना है। सो! स्वप्न देखना मानव के लिए उपयोगी है, कारग़र है, सार्थक है और साधना का सोपान है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आलेख – साँस मत लेना ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

सामयिकी के अंतर्गत –

? संजय दृष्टि – आलेख – साँस मत लेना ??

दिल्ली में प्रदूषण के स्तर पर हाहाकार मचा हुआ है। पिछले कुछ वर्षों से सामान्यत: अक्टूबर-नवम्बर माह में दिल्ली में प्रदूषण के स्तर पर बवाल उठना, न्यायालय द्वारा कड़े निर्देश देना और राजनीति व नौकरशाही द्वारा लीपापोती कर विषय को अगले साल के लिए ढकेल देना एक प्रथा बनता जा रहा है।

यह खतरनाक प्रथा, विषय के प्रति हमारी अनास्था और लापरवाही का द्योतक है। वर्ष 2018 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ) द्वारा दुनिया के 100 देशों के 4000 शहरों का वायु प्रदूषण की दृष्टि से अध्ययन किया गया था। इसके आधार पर दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित 15 शहरों की सूची जारी की गई। यह सूची हम भारतीयों को लज्जित करती है। इसमें एक से चौदह तक भारतीय शहर हैं। कानपुर विश्व का सर्वाधिक प्रदूषित शहर है। तत्पश्चात क्रमश: फरीदाबाद, वाराणसी, गया, पटना, दिल्ली, लखनऊ, आगरा, मुजफ्फरनगर, श्रीनगर, गुड़गाँव, जयपुर, पटियाला और जोधपुर का नाम है। अंतिम क्रमांक पर कुवैत का अल-सलेम शहर है।

देश के इन शहरों में (और लगभग इसी मुहाने पर बैठे अन्य शहरों में भी) साँस लेना भी साँसत में डाल रहा है। यह रपट आसन्न खतरे के प्रति सबसे बड़ी चेतावनी है। साथ ही यह भारतीय शासन व्यवस्था, राजनीति, नौकरशाही, पत्रकारिता और नागरिक की स्वार्थपरकता को भी रेखांकित करती है। स्वार्थपरकता भी ऐसी आत्मघाती कि अपनी ही साँसें उखड़ने लग जाएँ।

वस्तुत: श्वास लेना मनुष्य के दैहिक रूप से जीवित होने का मूलभूत लक्षण है। जन्म लेते ही जीव श्वास लेना आरंभ करता है। अंतिम श्वास के बाद उसे मृत या ‘साँसें पूरी हुई’ घोषित किया जाता है। श्वास का महत्व ऐसा कि आदमी ने येन केन प्रकारेण साँसे बनाये, टिकाये रखने के तमाम कृत्रिम वैज्ञानिक साधन बनाये, जुटाये। गंभीर रूप से बीमार को वेंटिलेटर पर लेना आजकल सामान्य प्रक्रिया है। विडंबना है कि वामन कृत्रिम साधन जुटानेवाला मनुष्य अनन्य विराट प्राकृतिक साधनों की शुचिता बनाये रखना भूल गया।

शुद्ध वायु में नाइट्रोजन 78% और ऑक्सीजन 21% होती है। शेष 1% में अन्य घटक गैसों का समावेश होता है। वायु के घटकों का नैसर्गिक संतुलन बिगड़ना (‘बिगाड़ना’ अधिक तार्किक होगा) ही वायु प्रदूषण है। कार्बन डाई-ऑक्साइड, कार्बन मोनो-ऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, हाइड्रोकार्बन, धूल के कण प्रदूषण बढ़ाने के मुख्य कारक हैं।

वायु प्रदूषण की भयावहता का अनुमान से बात से लगाया जा सकता है कि अकेले दिल्ली में पीएम 10 का औसत 292 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर है जो राष्ट्रीय मानक से साढ़े चार गुना अधिक है। इसी तरह पीएम 2.5 का वार्षिक औसत 143 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर भी राष्ट्रीय मानक से तिगुना है।

बिरला ही होगा जो इस आपदा का कारण और निमित्त मनुष्य को न माने। अधिक और अधिक पैदावार की चाहत ने खेतों में रसायन छिड़कवाए। खाद में केमिकल्स के रूप में एक तरह का स्टेरॉइडल ज़हर घोलकर धरती की कोख में उतारा गया। समष्टि की कीमत पर अपने लाभ की संकीर्णता ने उद्योगों का अपशिष्ट सीधे नदी में बहाया। प्रोसेसिंग से निकलनेवाले धुएँ को कम ऊँचाई की चिमनियों से सीधे शहर की नाक में छोड़ दिया।
ओजोन परत को तार-तार कर मानो प्रकृति के संरक्षक आँचल को फाड़ा गया। सेंट्रल एसी में बैठकर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर चर्चा की गई। माटी की परत-दर-परत उघाड़कर खनन किया गया।

पिछले दो दशकों में देश में दुपहिया और चौपहिया वाहनों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। इस वृद्धि और वायु प्रदूषण में प्रत्यक्ष अनुपात का संबंध है। जितनी वाहनों की संख्या अधिक, उतनी प्रदूषण की मात्रा अधिक। ग्लोबलाइजेशन के अंधे मोह ने देश को विकसित देशों के ऑब्सेलेट याने अप्रचलित हो चुके उत्पादों और तकनीक की हाट बना दिया। सारा कुछ ग्लोबल न हो सकता था, न हुआ उल्टे लोकल भी निगला जाने लगा। कुल जमा परिस्थिति घातक हो चली। नागासाकी और हिरोशिमा का परिणाम पीढ़ी-दर-पीढ़ी देखने और भोपाल का यूनियन कारबाइड भोगने के बाद भी सुरक्षा की तुलना में व्यापार और विस्तार के लिए दुनिया को परमाणु बम और सक्रिय रेडियोेधर्मिता की पूतना-सी गोद में बिठा दिया गया।

कहा जाता है कि प्रकृति में जो नि:शुल्क है, वही अमूल्य है। वायु की इसी सहज उपलब्धता ने मनुष्य को बौरा दिया। प्रकृति की व्यवस्था में कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित कर उसके बदले ऑक्सीजन देने का संजीवनी साधन हैं वृक्ष। यह एक तरह से मृत्यु के अभिशाप को हर कर जीवन का वरदान देने का मृत्युंजयी रूप हैं वृक्ष। ऑक्सीजन को यूँ ही प्राणवायु नहीं कहा गया है। पंचवट का महत्व भी यूँ ही प्रतिपादित नहीं किया गया। बरगद से वट-सावित्री की पूजा को जोड़ना, पीपल को देववृक्ष मानना विचारपूर्वक लिये गये निर्णय थे। वृक्ष को मन्नत के धागे बाँधने का मखौल उड़ानेवाले उन धागों के बल पर वृक्ष के अक्षय रहनेे की मन्नत पूरी होती देख नहीं पाये।

फलत: जंगल को काँक्रीट के जंगल में बदलने की प्रक्रिया में वृक्षों पर ऑटोमेटेड हथियारों से हमला कर दिया गया। औद्योगीकरण हो, सौंदर्यीकरण या सड़क का चौड़ीकरण, वृक्षों की बलि को सर्वमान्य विधान बना दिया गया। वृक्ष इको-सिस्टिम का एक स्तंभ होता है। अनगिनत कीट उसकी शाखाओं पर, कुछ कीड़े-मकोड़े-सरीसृप-पाखी कोटर में और कुछ जीव जड़ों में निवास करते हैं। सह-अस्तित्व का पर्यायवाची हैं छाया, आश्रय, फल देनेवाले वृक्ष। इन वृक्षों के विनाश ने प्रकृतिचक्र को तो बाधित किया ही, दिन में बीस हजार श्वास लेनेवाला मनुष्य भी श्वास के लिए संघर्ष करने लगा।

बचपन में हम सबने शेखचिल्ली की कहानी सुनी थी। वह उसी डाल को काट रहा था, जिस पर बैठा था। अब तो आलम यह है कि पूरी आबादी के हाथ में कुल्हाड़ी है। मरना कोई नहीं चाहता पर जीवन के स्रोतों पर हर कोई कुल्हाड़ी चला रहा है। डालें कट रही हैं, डालें कट चुकी। मनुष्य औंधे मुँह गिर रहे हैं, मनुष्य गिर चुका।

इस कुल्हाड़ी के फलस्वरूप विशेषकर शहरों में सीपीओडी या श्वसन विकार बड़ी समस्या बन गया है। सिरदर्द एक बड़ा कारण प्रदूषण भी है। इसके चलते शहर की आबादी का एक हिस्सा आँखों में जलन की शिकायत करने लगा है। स्वस्थ व्यक्ति भी अनेक बार दम घुटता-सा अनुभव करता है।

यह कहना झूठ होगा कि देर नहीं हुई है। देर हो चुकी है। मशीनों से विनाश का चक्र तो गति से घुमाया जा सकता है पर सृजन के समय में परिवर्तन नहीं लाया जा सकता। बीस मिनट में पेड़ को धराशायी करनेवाला आधुनिक तंत्रज्ञान, एक स्वस्थ विशाल पेड़ के धरा पर खड़े होने की बीस वर्ष की कालावधि में कोई परिवर्तन नहीं कर पाता। यह अंतर एक पीढ़ी के बराबर हो चुका है। इसे पाटने के त्वरित उपायों से हानि की मात्रा बढ़ने से रोकी जा सकती है।

हर नागरिक को तुरंत सार्थक वृक्षारोपण आज और अभी करना होगा। यही नहीं उसका संवर्धन भी उतना ही महत्वपूर्ण है। सार्थक इसलिए कि भारतीय धरती के अनुकूल, दीर्घजीवी, विशाल वृक्षों के पौधे लगाने होंगे। इससे ऑक्सीजन की मात्रा तो बढ़ेगी ही, पर्यावरण चक्र को संतुलित रखने में भी सहायता मिलेगी।

सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को तत्काल प्रभाव से दुरुस्त करना होगा। सरकारी महकमे की बसों के एकाधिकार वाले क्षेत्रों में निजी कंपनियों को प्रवेश देना होगा। सरकारी बसों में सुधार की आशा अधिकांश शहरों में ‘न नौ मन तेल होगा, ना राधा नाचेगी’ सिद्ध हो चुकी है।

उद्योगों को अनिवार्य रूप से आवासीय क्षेत्रों से बाहर ले जाना होगा। वहाँ भी चिमनियों को 250 फीट से ऊपर रखना होगा। इसके लिए निश्चित नीति बना कर ही कुछ किया जा सकता है। सबसे पहले तो लाभ की राजनीति का ऐसे मसलों पर प्रवेश निषिद्ध रखना होगा। उत्खनन भी पर्यावरण-स्नेही नीति की प्रतीक्षा में है।

हर बार, हर विषय पर सरकार को कोसने से कुछ नहीं होगा। लोकतंत्र में नागरिक शासन की इकाई है। नागरिकता का अर्थ केवल अधिकारों का उपभोग नहीं हो सकता। अधिकार के सिक्के का दूसरा पहलू है कर्तव्य। साधनों के प्रदूषण में जनसंख्या विस्फोट की बड़ी भूमिका है। जनसंख्या नियंत्रण तोे नागरिक को ही करना होगा।

आजकल घर-घर में आर.ओ. से शुद्ध जल पीया जा रहा है। घर से बाहर खेलने जाते बच्चे से माँ कहती है, ‘बाहर का पानी बहुत गंदा है, मत पीना।’ समय आ सकता है कि घर-घर में ऑक्सीजन किट लगा हो और और अपने बच्चे को शुद्ध ऑक्सीजन की खुराक देकर खेलने बाहर भेजती माँ आगाह करे, ‘साँस मत लेना।’

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 59 ☆ मोहल्ले, पड़ोस से दूरियाँ बनाते लोग ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “मोहल्ले, पड़ोस से दूरियाँ बनाते लोग।)

☆ किसलय की कलम से # 59 ☆

☆ मोहल्ले, पड़ोस से दूरियाँ बनाते लोग ☆

एक समय था जब गाँव या मोहल्ले के एक छोर की गतिविधियाँ अथवा सुख-दुख की बातें दो चार-पलों में ही सबको पता चल जाती थीं। लोग बिना किसी आग्रह के मानवीय दायित्वों का निर्वहन किया करते थे। तीज-त्यौहारों, भले-बुरे समय, पारिवारिक, सामाजिक और धार्मिक आयोजनों में एक परिवार की तरह एक साथ खड़े हो जाते थे।

आज हम पड़ोसियों के नाम व जाति-पाँति तक जानने का प्रयास नहीं करते। मुस्कुराहट के साथ अभिवादन करना तथा हाल-चाल पूछने के बजाय हम नज़रें फेरकर या सिर झुकाये निकल जाते हैं, फिर मोहल्ले वालों की बात तो बहुत दूर की है। उपयोगी व आवश्यक कार्यवश ही लोगों से बातें होती हैं। हम पैसे कमाते हैं और उन्हें पति-पत्नी व बच्चों पर खर्च करते हैं, अर्थात पैसे कमाना और अपने एकल परिवार पर खर्च करना आज की नियति बन गई है। रास्ते में किसका एक्सीडेंट हो गया है। पड़ोसी खुशियाँ मना रहा है अथवा उसके घर पर दुख का माहौल है, आज लोग उनके पास जाने की छोड़िए संबंधित जानकारी लेने तक की आवश्यकता नहीं समझते। आज मात्र यह मानसिकता सबके जेहन में बैठ गई है कि जब पैसे से सब कुछ संभव है तो किसी के सहयोग की उम्मीद से संबंध क्यों बनाये जाएँ। पैसों से हर तरह के कार्यक्रमों की समग्र व्यवस्थाएँ हो जाती हैं। बस आप कार्यक्रम स्थल पर पहुँच जाईये और कार्यक्रम संपन्न कर वापस घर आ जाईये। जिसने हमें बुलाया था, जिनसे हमें काम लेना है, बस उन्हें प्राथमिकता देना है। इन सब में परिवार, पड़ोस और मोहल्ले सबसे पिछले क्रम में होते हैं। जितना हो सके, इन सब से दूरी बनाये रखने का सिद्धांत अपनाया जाता है।

आज हम सभी देखते हैं कि जब कार्ड हमारे घर पर पहुँचते हैं, तब जाकर पता चलता है कि उनके घर पर कोई कार्यक्रम है। यहाँ तक कि जब भीड़ एकत्र होना शुरू होती है तब पता चलता है कि आस-पड़ोस के अमुक घर में किसी सदस्य का देहावसान हो गया है। आज लोग शादी में दूल्हे-दुल्हन को, बर्थडे में बर्थडे-बेबी को महत्त्व न देकर डिनर को ही प्राथमिकता देते हैं।  मृत्यु वाले घर से मुक्तिधाम तक शवयात्रा में शामिल लोग व्यक्तिगत, राजनीतिक वार्तालाप, यहाँ तक कि हँसी-मजाक में भी मशगूल देखे जा सकते हैं, उन्हें ऐसे दुखभरे माहौल से भी कोई फर्क नहीं पड़ता। आजकल अधिकांशतः लोग त्योहारों में घरों से बाहर निकलना पसंद नहीं करते। होली, दीपावली जैसे खुशी-भाईचारा बढ़ाने वाले पर्वों तक से लोग दूरियाँ बनाने लगे हैं।

आज बुजुर्ग पीढ़ी यह सब देखकर हैरान और परेशान हो जाती है। उन्हें अपने पुराने दिन सहज ही याद आ जाते हैं। उन दिनों लोग कितनी आत्मीयता, त्याग और समर्पण के भाव रखते थे। बड़ों के प्रति श्रद्धा और छोटों के प्रति स्नेह देखते ही बनता था। बच्चों को तो अपनों और परायों के बीच बड़े होने पर ही अंतर समझ में आता था। पड़ोसी और मोहल्ले वाले हर सुख-दुख में सहभागी बनते थे। यह बात एकदम प्रत्यक्ष दिखाई देती थी पड़ोसी कि पहले पहुँचते थे और रिश्तेदार बाद में। कहने का तात्पर्य यह है कि आपका पड़ोसी आपके हर सुख-दुख में सबसे पहले आपके पास मदद हेतु खड़ा होता था।

वाकई ये बहुत गंभीर मसले हैं। ये सब अचानक ही नहीं हुआ। इस वातावरण तक पहुँचने का भी एक लंबा इतिहास है। बदलते समय और बदलती जीवन शैली के साथ शनैः शनैः  हम अपने बच्चों और पति-पत्नी के हितार्थ ही सब करने के अभ्यस्त होते जा रहे हैं। संयुक्त परिवार और खून के रिश्तों की अहमियत धीरे-धीरे कम होती जा रही है। लोग संयुक्त परिवार के स्थान पर एकल परिवार में अपने हिसाब से रहना चाहते हैं। ज्यादा कमाने वाला सदस्य अपनी पूरी कमाई संयुक्त परिवार में न लगाकर अपने एकल परिवार की प्रगति व सुख सुविधाओं में लगाता है। अपनी संतान का सर्वश्रेष्ठ भविष्य बनाना चाहता है। संयुक्त परिवार के सुख-दुख में भी हिसाब लगाकर बराबर हिस्सा ही खर्च करता है। इन सब के पीछे हमारे भोग-विलास और उत्कृष्ट जीवनशैली की बलवती अभिलाषा ही होती है। हम इसे ही अपना उद्देश्य मान बैठे हैं, जबकि मानव जीवन और दुनिया में इससे भी बड़ी चीज है दूसरों के लिए जीना। दूसरों की खुशी में अपनी खुशी ढूँढ़ना।

यह भी अहम बात है कि हमने जब किसी की सहायता नहीं की, हमने जब अपने खाने में से किसी भूखे को खाना नहीं खिलाया। हमने जब किसी गरीब की मदद ही नहीं की। और तो और जब इन कार्यो से प्राप्त खुशी को अनुभूत ही नहीं किया तब हम कैसे जानेंगे कि परोपकार से हमें कैसी खुशी और कैसी संतुष्टि प्राप्त होती है। यह भी सच है कि आज जब हम अपने परिजनों के लिए कुछ नहीं करते तब परोपकार से प्राप्त खुशी कैसे जानेंगे। एक बार यह बात बिना मन में लाए कि अगला आदमी सुपात्र है अथवा नहीं, आप  नेक इंसान की तरह अपना कर्त्तव्य निभाते हुए किसी भूखे को खाना खिलाएँ। किसी गरीब की लड़की के विवाह में सहभागी बनें। किसी पैदल चलने वाले को अपने वाहन पर बैठाकर उसके गंतव्य तक छोड़ें। किसी विपत्ति में फँसे व्यक्ति को उसकी परेशानी से उबारिये। बिना आग्रह के किसी जरूरतमंद की सहायता करके देखिए। किसी बीमार को अस्पताल पहुँचाईये। सच में आपको जो खुशी, संतोष और शांति मिलेगी वह आपको पैसे खर्च करने से भी प्राप्त नहीं होगी।

आज विश्व में भौतिकवाद की जड़ें इतनी मजबूत होती जा रही हैं कि हमें उनके पीछे बेतहाशा भागने की लत लग गई है। हम अपने शरीर को थोड़ा भी कष्ट नहीं देना चाहते और यह भूल जाते हैं कि हमारा यही ऐशो-आराम बीमारियों का सबसे बड़ा कारक है। ये बीमारियाँ जब इंसान को घेर लेती हैं तब आपका पैसा पानी की तरह बहता रहता है और बहकर बेकार ही चला जाता है। आप पुनः नीरोग जिंदगी नहीं जी पाते। आप स्वयं ही देखें कि समाज में दो-चार प्रतिशत लोग ही ऐसे होंगे जो पैसों के बल पर नीरोग और चिंता मुक्त होंगे।

हमारी वृद्धावस्था का यही वह समय होता है जब हमारे ही बच्चे, हमारा ही परिवार हमारी उपेक्षा करता है। हमने जिनके लिए अपना सर्वस्व अर्थात ईमान, धर्म और श्रम खपाया वही हमसे दूरी बनाने लगते हैं। यहाँ तक कि हमें जब इनकी सबसे अधिक आवश्यकता होती है वे हमें वृद्धाश्रम में छोड़ आते हैं।

अब आप ही चिंतन-मनन करें कि यदि आपने अपने विगत जीवन में अपनों से नेह किया होता। पड़ोसियों से मित्रता की होती। कुछ परोपकार किया होता तो इन्हीं में से अधिकांश लोग आपके दुख-दर्द में निश्चित रूप से सहभागी बनते। आपकी कुशल-क्षेम पूछने आते। आपकी परेशानियों में आपका संबल बढ़ाते रहते, जिससे आपका ये शेष जीवन संतुष्टि और शांति के साथ गुजरता।

समय बदलता है। जरूरतें बदलती हैं। बदलाव प्रकृति का नियम है।आपकी नेकी, आपकी भलाई, आपकी निश्छलता की सुखद अनुभूति लोग नहीं भूलते। लोग यथायोग्य आपकी कृतज्ञता ज्ञापित अवश्य करते। आपके पास आकर आपका हौसला और संबल जरूर बढ़ाते।

हम मानते हैं कि आज का युग भागमभाग, अर्थ और स्वार्थ के वशीभूत है। ऐसे में किसी से सकारात्मक रवैया की अपेक्षा करना व्यर्थ ही है। इसलिए क्यों न हम ही आगे बढ़कर भाईचारे और सहृदयता की पहल करें। फिर आप ही देखेंगे कि उनमें  भी कुछ हद तक बदलाव अवश्य आएगा और यदि इस पहल की निरन्तरता बनी रही तो निश्चित रूप से मोहल्ले, पड़ोस से दूरियाँ बनाते लोग दिखाई नही देंगे साथ ही हम पड़ोसियों और मोहल्ले वालों से जुड़कर प्रेम और सद्भावना का वातावरण निर्मित करने में निश्चित रूप से सफल होंगे।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 107 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 107 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

समय चक्र जो घूम रहा, उसने थामी डोर।

सुमिरन बस करते रहो, कब हो जाए भोर।।

 

पल पल की है जिंदगी, पल पल का है राग।

जीवन के इस सफर में, करो सिर्फ अनुराग।।

 

माटी तो  है अनमोल, सब माटी बन जाय

सुंदर काया तन-मन की, माटी में मिल जाय।।

 

पुस्तक देती है हमें, जीवन का हर ज्ञान।

पुस्तक से ही मिल रहा, लेखक को सम्मान।।

 

पीड़ा मन की रच रहा, रचता रचनाकार।

युगों युगों तक हो रहा, पाठक पर उपकार।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 96 ☆ वो आभास हूँ मैं…. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण रचना  “वो आभास हूँ मैं….। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 96 ☆

☆ वो आभास हूँ मैं …. ☆

प्यार का अहसास जगाए वो आस हूँ मैं

प्यास प्यासे की बुझाए वो आभास हूँ मैं

 

डूब गए हैं  जो  निराशाओं  के  कूप में

आस जीवन  की बढ़ाये  वो सांस हूँ मैं

 

बुलंद  रखता हूँ अपना   हौसला मैं  सदा

आत्म-शक्ति जो बढ़ाये, वो अहसास हूँ मैं

 

देख सकता नहीं मुसीबत में, मैं किसी  को

दीप आशा के जलाए, वो प्रकाश हूँ मैं

 

खेला था राधा के साथ  कभी श्याम ने

जो  प्रेम  छलकाता  जाए वो रास हूँ मैं

 

मुझसे मिलने से हो एहसास संतोष का

गले सबको जो लगाए, वो खास हूँ मैं

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 7 (61-65)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #7 (61-65) ॥ ☆

 

रघुपुत्र अज ने कि जो था सतत दक्ष, औं काम सम कांत व रूपवाला

गंधर्व प्रियवंद से प्राप्त प्रस्वापन शस्त्र अरि पर प्रहार हेतु तुरंत निकाला ॥ 61॥

 

गांधर्व ताडि़त समस्त अरि सैन्य निद्रा वशीभूत निश्चेष्ट होकर

ध्वज स्तंभ से टिक पड़ी हुई थी, लुड़के शिरस्त्राण की भान खोकर ॥ 62॥

 

समस्त सेना जब सोई तब शंख प्रिया विचुम्बित अधर पै रखकर

बजाया जलजन्य को वीरवर ने, स्व उपार्जित यश को ज्यों मानो पीकर ॥ 63॥

 

पहचान के शंख ध्वनि लौट आये योद्धाओं ने शत्रुसुपुत्र अज को

मुरझाये कमलों के बीच पाया जैसे चमका निरभ्रशशि हो ॥ 64॥

 

‘‘ राजाओं ! रघुपुत्र ने हरण कर यश, छोड़ा तुम्हें सबको जीवित दयावश”

यह रक्तरंजित श्शरों से सेना ने लिखा उनके ध्वज पर बढ़ा यश ॥ 65॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १९ नोव्हेंबर – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? १९ नोव्हेंबर  –  संपादकीय  ?

कॅ. गोपाळ गंगाधर लिमये (२५सप्टेंबर१८८१  ते १९ नोहेंबर १९७१ ) हे कथाकार आणि विनोदी लेखक होते. ते व्यवसायाने डॉक्टर. वैद्यकीय परीक्षेत त्यांना सुवर्ण पदक मिळाले होते. ’इंडियन मेडिकल सर्व्हिस’ साठी त्यांची १९१८ साली कॅप्टन म्हणून निवड करण्यात आली. ३वर्षे त्यांनी सैन्यात काम केले. १९२२ पासून ते मुंबई महानगर पालिकेत आरोग्याधिकारी होते.

१९१२ मध्ये त्यांची पहिली कथा मासिक मनोरंजन मध्ये प्रकाशित झाली. कथेचा नाव होतं ‘प्रेमाचा खेळ.’ ’बापूंची प्रतिज्ञा’ ही विनोदी दीर्घ कथा पुस्तक रूपात प्रकाशित झाली. वनज्योत्स्ना हेही त्यांच्या दीर्घ कथेचे पुस्तक. तिच्याकरिता, हेलकावे हे त्यांचे कथा संग्रह. कॅ. गो. गं. लिमये यांच्या निवडक कथा हे पुस्तक राम कोलारकर यांनी संपादित करून प्रसिद्ध. केले.

कथेइतकेच मोलाचे कार्य त्यांनी विनोदाच्या क्षेत्रात केले. विनोद सागर, जुना बाजार, गोपाळकाला, तुमच्याकरता विनोदबकावली, इ. त्यांची पुस्तके प्रसिद्ध आहेत. त्यांचे विनोदी लेखन लोकप्रिय झाले कारण त्यांचे सूक्ष्म अवलोकन. साध्या साध्या घटनातून त्यांनी विनोद निर्मिती केली. त्यांच्या विनोदात कधीही बोचरा उपहास नसे.

‘सैन्यातील आठवणी’ हे त्यांचे आत्मनिवेदनात्मक पुस्तक. याशिवाय त्यांनी वैद्यक, सुश्रुषा यावरही पुस्तके लिहिली आहेत.

या महान लेखकाला त्यांच्या स्मृतिदिनी विनम्र अभिवादन. ?

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई – अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : १.शिक्षण मंडळ कर्‍हाड: शताब्दी दैनंदिनी  २.इंटरनेट    

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆- मोगरा – ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? कवितेचा उत्सव ?

☆ मोगरा ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

मोग-याची चार फुले

तुला देण्यासाठी आलो

धुंद तुझ्या सहवासे

सारे काही विसरलो

 

फुले तशीच खिशात

जरी गेली कोमेजून

तुझ्या कालच्या भेटीत

गंधारले माझे मन.

© श्री सुहास रघुनाथ पंडित

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मुक्तिसूक्त.. ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ मुक्तिसूक्त.. ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆ 

(वृत्त : पादाकुलक)

घमघमले हे कुठून अत्तर

कुठून आला गंध चंदनी

सडा अंगणी स्फटिकशुभ्रसा

शिंपित आली कोण चांदणी ?

 

दूर राउळी घणघण घंटा

नाद निनादे चराचरातुन

पार दिशांच्या आर्त प्रार्थना

भिजवी मजला कवेत घेवुन !

कशा अचानक पेटुन उठल्या

मिणमिण पणत्या नक्षत्रांसम

रुजले कंठी अभाळगाणे

दिव्य सुरांची रिमझिम रिमझिम !

 

अगम्य भवती धुके दाटले

धरा कोणती,कुठले अंबर ?

शोधित होतो ज्या सत्याला

स्वप्नाहुन ते दिसले सुंदर !

खळखळ तुटल्या कशा शृंखला

मुक्तिसूक्त ये अवचित कंठी

पल्याड माझ्या मीच पोचलो

सात सागरा माझ्या भरती !

 

© श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 101 – वचन…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? साप्ताहिक स्तम्भ # 101 – विजय साहित्य ?

☆ वचन…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

प्रेम प्रितीचे बंध रेशमी नवे

नाते अक्षय फुलवायाला हवे.

 

विश्वासाचे वचन मागतो आता

हात मदतीचा देतो येता जाता .

 

संसाराच्या पानांवरती वचने

सहजीवनाची गाथा प्रवचने.

 

शब्द वचनी करार होतो जेव्हा

जातो होऊन परस्परांचे तेव्हा .

 

रामायण घडले वचनांसाठी

वनवास ते भोगले आप्तांपोटी

 

माया ममता ही विश्वासाची लेणी

हळवेली ही अंतरातली देणी.

 

जगण्याचा आधार ठरे कविता

वचनात प्रीतीच्या माझी वनिता.

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते 

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  9371319798.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे

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