मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ “आईची लेक…” ☆ प्रस्तुती – सौ. राधा पै. ☆

? वाचताना वेचलेले ?

☆ “आईची लेक…” ☆ प्रस्तुती – सौ. राधा पै. ☆

मुलीची आई असणं किती भाग्याचं!

 

आई ग्ग.. चटका लागून जीव कळवळला..

इवलीशी पावलं स्टूल वर चढून बर्नोल घेऊन आली..

आई भाजलं ना तुला..

फुंकर घालत क्रीम लावलं ..

कधी मोठी झाली कळलंच नाही..

 

आई ,आई, थांब ती पिशवी दे माझ्याकडे..

तू पिल्लूला घेतलंय ना..

ओझं होईल तुला..

छोटासा का होईना पण भार हलका करून पळाली..

कधी मोठी झाली कळलंच नाही..

 

पिल्लू रडू नको ना..

आई येते आत्ता… अले अले..

गप बश..गप बश..

माझ्या माघारी ती आई झाली..

कधी मोठी झाली कळलंच नाही..

 

चप्पल नाही घातलीस आई तू?

राहू दे.. मी जाईन स्कूल बस पर्यंत..

वजनदार दप्तर इवल्या खांद्यांवर चढवून तुरुतुरु गेली..

कधी मोठी झाली कळलंच नाही..

 

‘बाबा, आई चा बर्थडे आहे उद्या..

तिला मायक्रोव्हेव हवा आहे..

बुक करून ठेवा हां..

आणि साडी .. पिकॉक ग्रीन कलरची.. तिला हवी होती कधीची..’

आईची आवड तिला कळाली..

कधी मोठी झाली कळलंच नाही..

 

आई ग, लग्नाला जायचंय ना तुला, साड्या प्रेस करून ठेवते आणि उद्या बॅग भरून देते..

शाळेच्या अभ्यासातही आई ची लगबग तिच्या लक्षात आली..

कधी मोठी झाली कळलंच नाही..

 

मामी, आईला ना सतरंजी नाही चालणार, गादी लागते, नाहीतर पाठ धरते तिची..

लेक्चर्स प्रॅक्टिकल, सबमिशनच्या धामधुमीत

आईची गरज तिने ओळखली..

कधी मोठी झाली कळलंच नाही..

 

दादा, तू फराळाचं समान न्यायला हवं होतं.. किती आनंदाने केलं होतं तिने..

तेवढ्याचं ओझं झालं तुला. पण आई किती हिरमुसली!

आईची माया तिला उमजली..

कधी मोठी झाली कळलंच नाही..

 

दुपारच्या निवांत क्षणी टीव्ही पाहताना अलगद डोळा लागला,

 ऑफिसच्या लंच ब्रेक मध्ये आलेली ती, मला पाहून पाय न वाजवता अंगावर पांघरूण घालून गेली,

शाल नव्हे, लेकीने मायची मायाच पांघरली,

कधी मोठी झाली कळलंच नाही..

 

लग्न, संसार, मूलबाळ, जबाबदाऱ्या, करिअर, सारं सारं सांभाळून  गोळ्या घेतल्यास का, बरी आहेस का, डॉक्टरांकडे जाऊन आलीस का, दगदग करू नकोस, मी किराणा ऑर्डर केलाय..घरी येऊन जाईल, प्रवासाची दमलीयेस स्वयंपाक करू नको.. डबा पाठवतेय दोघांचाही, अजुन काय काय अन् काय काय..

लेक होती ती माझी फक्त काही दिवस..त्यानंतर तिच्यात उमटली आईच माझी..

मीच नाही, आम्हा दोघांचीही आईच ती..

लोक म्हणतात, देव सोबत राहू शकत नाही म्हणून आई देतो,

आई तर देतोच हो, पण आईला जन्मभर माय मिळावी म्हणून आईची माया लावणारी लेक देतो..

मुलगा हा दिवा असतो वंशाचा; पण मुलगी दिवा तर असतेच, सोबतच उन्हातली सावली, पावसातली छत्री, आणि थंडीत शाल असते आईची.. किंबहुना साऱ्या घराची…

हे शब्द तर नेहमीच वाचतो आपण, पण जाणीव तेव्हा होते जेव्हा आपलंच पिल्लू कोषातून बाहेर पडून पंख पसरू बघतं आपल्याला ऊब देण्यासाठी,

परी माझी इवलीशी खरंच कधी मोठी झाली कळलंच नाही…

संग्राहिका :सौ. राधा पै

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ प्रति बिंब स्वत:च्या… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल 

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ ? प्रति बिंब स्वत:च्या… ? ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल

दंड थोपटूनी असे का आज

वृक्ष वृक्षापुढे उभे ठाकले

दंडच त्यांना ठोकला पाहिजे

का माणसासम वागू लागले॥

डोळे उघडून पहावे जरा

हे हात हातात घेत आहेत

डोळेझाक तू करू नकोस रे

तुला छान धडा देत आहेत॥

छत्र तुझ्या घरावरचे डोले

सावली करण्या उन्हेही झेले

छत्र जणू वडिलधार्‍ंयांचे हे

डोई हात फिरवत राहिले॥

कर  निश्चय झाडे लावण्याचा

प्राणवायू प्रमाण जपण्याचा

कर चैतन्याचे फिरती पाठी

घ्यावा मंत्र निरोगी आयुष्याचा॥

प्रति आयुष्याच्या व्हावे कृतज्ञ

सांजेस अंतरंगी डोकवावे

प्रति बिंब स्वत:च्या सत्कर्माचे

त्यात स्वच्छ नी सुंदर दिसावे॥

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #187 – 73 – “ख़याल ज़माने से छुपा कर ख़ुश हूँ…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “ख़याल ज़माने से छुपा कर ख़ुश हूँ…”)

? ग़ज़ल # 73 – “ख़याल ज़माने से छुपा कर ख़ुश हूँ…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

इश्क़ की शम्मा जला कर ख़ुश हूँ,

मैं दिल में दर्द बसा कर ख़ुश हूँ।

 दिल जो धड़कता ज़िंदगी के लिए,

महबूब से दिल लगा कर ख़ुश हूँ।

जिस नाम से भर आती थी आँख,

अब उससे नज़रें बचा कर ख़ुश हूँ।

गीत ग़ज़ल में झूमता फिरता जो,

ख़याल ज़माने से छुपा कर ख़ुश हूँ।

तोड़ नहीं पाया रिवायत की जंजीरें,

पिंजरा खोल परिंदा उड़ा कर ख़ुश हूँ।

मिट्टी महकती अगर उसे सींचो तो,

मुहब्बत में आंसू बहा कर ख़ुश हूँ।

तुम भी देखते रहो आतिश छुप कर,

मैं भी मासूम को हंसा कर ख़ुश हूँ।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ “सफारी” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है आपकी एक लघुकथा – “सफारी”.)

☆ लघुकथा ☆ “सफारी” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

जंगल में सफारी का मजा कुछ और ही होता है। एक खौफ लिए कंपकपाते, डरते हुए रोमांचित होने का मजा।

गेस्टहाऊस से सुबह ही 15-20 जिप्सियां पर्यटककों को लिए वहीं के गाइड व ड्राइवरों के साथ जहां शेर दिखने की अधिकतम संंभावना हो, उन रास्तों पर निकल पड़ते हैं। शेर की झलक भर पाने घंटों जंगलों में भटकते रहते हैं। उन्हें न तो हजारों पेड़ों का मौन निमंत्रण दिखाई देता है, न ही परिंदों का चहचहाहट भरा बोलता हुआ निमंत्रण सुनाई पड़ता है। उन्हें तो बस शेर या उस जैसा कोई भयानक जंगली जानवर देखना होता है। जिसे याद करते ही वह कांपने लगे। शाम को डरे-डरे , रोमांचित हो लौटना ही सफारी की सफलता है।

शाम को सब जिप्सियां गेस्टहाऊस वापिस लौट आई। सब अपना अनुभव सुना रहे थे। ” मैंने दो शेरों को एक साथ देखा, लगा कभी इधर आ गये तो… ” वह अब तक डरा हुआ कांप रहा था। ” “हमारी जिप्सी के थोड़े ही आगे बीस जंगली भैंसों का झुण्ड हमारी ओर लाल-लाल आँखों से घूर रहा था। हम तो डर गए। और जब गाइड ने बताया कि एक भैंसें में इतनी ताकत होती है कि वह एक झटके में पूरी जिप्सी उलट सकता है, तब हम और ज्यादा डर गए। ”

‘असली कोबरा का एक जोड़ा बिल्कुल हमारी गाड़ी के एक फुट दूरी से गुजर गया। और था भी बीस फुट इतना लम्बा।” अपना तीन फुट का हाथ लम्बा्ते हुए बोला।, वह अब तक सिहर रहा था।

सबने देखा एक जिप्सी का एक आदमी सबसे ज्यादा मारे डर के अब तक कांप रहा था। उससे पूछा ” तुमने कितने शेर देखे ? ”

” एक भी नहीं। “

” तो फिर भालू, सियार, भैंसें, या इसके जैसे कोई साँपों का जोड़ा देखा?

” नहीं मैंने ऐसा कुछ नहीं देखा। “

” तो फिर डर के मारे अब तक इतना क्यूँ काँप रहे हो ? “

” मैने जंगल में दो आदिवासियों को हँसते हुए बात करते देखा है। “

” मगर इसमें डरने जैसा क्या ? आदिवासी तो बड़े सीधे होते हैं, वे हमेशा हँसकर ही बात करते हैं। “

” हाँ, मगर उनकी हँसी झूठी थी। और वे बातें भी दिल्ली की कर रहे थे। ”

अब सभी एक साथ और ज्यादा डरने लगे।

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विदेह ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – विदेह ??

जगत में रहकर

जगत से निर्लिप्त रहने की

वृत्ति पर मुस्कराती रही,

विदेह होने के लिए

पहले देह होने का पाठ

प्रकृति पढ़ाती रही…!

© संजय भारद्वाज 

प्रात: 5:20 बजे, 21.10.2019

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक।

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ समाधि… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “समाधि”।)  

? अभी अभी ⇒ समाधि? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

संत कबीर तो कह गए हैं, साधो, सहज समाधि भली !

काहे का ताना, काहे का बाना। ‌और महर्षि पतंजलि तो पूरा अष्टांग योग ही ले आए, के.जी. वन से कॉलेज की डिग्री तक। यम नियम, फिर आसन प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और अंत में जाकर समाधि। और इधर हमारे आज सबकी नाक पकड़कर प्राणायाम कराते हुए आयुर्वेदिक काढ़े पर काढ़े पिलाए जा रहे हैं। देशवासियों, सहज स्वदेशी बनो। स्वदेशी उत्पाद अपनाओ, स्वदेशी हो जाओ। समाधि से उपाधि भली।

कलयुग के एक विचारक ओशो के  समाधि के बारे में इतने क्रांतिकारी विचार थे कि एक समय पूरा बॉलीवुड उनके चरणों में गिर चुका था। विनोद खन्ना, गोल्डी आनंद, सुनील दत्त, नर्गिस, और परवीन बॉबी से लेकर खुशवंत सिंह तक समाधिस्थ होते होते बचे। ।

समाधि कोई हज अथवा तीर्थ तो है नहीं कि चारों धाम रिटर्न इंसान को फट से समाधि लग जाए। बहुत पापड़ बेलते थे कभी हमारे योगी सन्यासी, गुरुकुल से हिमालय तक का सफर तय करना पड़ता था समाधि लगाने के लिए लेकिन आज के अधिकांश संत महात्मा, योगी ब्रह्मचारी, महा मंडलेश्वर और शंकराचार्य कर्मयोगी बनना पसंद करते हैं। परम सत्ता का सुख ही समाधि है ईश्वर की इस सत्ता को नमन है।

एक भक्त और उसके आराध्य के बीच में जब भावनात्मक संबंध हो जाता है तो फिर उसे किसी कमीशन एजेंट की आवश्यकता नहीं होती। वह भक्ति भाव में ऐसा डूब जाता है कि उसकी सहज समाधि लग जाती है। ।

आखिर यह सहज समाधि है क्या ! जिसे पाना है उसकी याद में खोना ही भाव समाधि है। हमारे पास इतना समय नहीं कि हम जप, तप, पूजा अर्चना, हवन यज्ञ अनुष्ठान और स्वाध्याय ईश्वर प्राणिधान का मार्ग अपनाकर बाबा बन जाएं। केवल एकमात्र  भाव की गंगा ही ऐसी है जिसमें आप कभी भी, कहीं भी डुबकी लगाकर भाव समाधि में आकंठ समा सकते हो।

संगीत एक ऐसी विधा है जो आपके मन को तरंगित करती है। भले ही आप एक बाथरूम सिंगर हो, जब आप अकेले में  कुछ गाते, गनगुनाते हो, तो कुछ समय के लिए कहीं खो जाते हो। बस यही खोना ही भाव समाधि है। उपलब्धि में अहंकार होता है। कई असुरों ने वर्षों तप कर अपने इष्ट से ऐसे ऐसे वर मांग लिए जिससे यह दुनिया ही संकट में पड़ गई। समाधि में कुछ मांगा नहीं जाता। भाव समाधि में तो आप कुछ मांगने लायक स्थिति में रहते ही नहीं हो। ।

जो अज्ञात है, सर्वव्यापी है, अविनाशी ओंकार है, वह ज़र्रे ज़र्रे में समाया हुआ है। एक पक्षी, एक पेड़, बहती नदी, झरना और पहाड़, कोयल की कूक, मीरा के भजन, पंडित ओंकारनाथ ठाकुर हों, ता पंडित भीमसेन जोशी, पंडित जसराज और कुमार गंधर्व के निर्गुण के भजन, जो आपको उस भाव अवस्था में पहुंचा दे, बस वही भाव समाधि। तीन मिनिट की इस भाव समाधि में न तो  आपमें कर्ता पन का अहंकार शामिल है और न ही कोई सकाम चेष्टा। कोई मांग नहीं, मन्नत नहीं, कोई चढ़ावा नहीं, कोई मंदिर नहीं, कोई पुजारी नहीं। ऐकटा जीव, सदाशिव।

अपने आपको पाने का सबसे सरल रास्ता है, अपने आपमें खो जाना। जितनी भी ललित कलाएं हैं, वे हमें बाहर से अंदर को ओर ले जाती है। सुख, आनंद, समाधि कुछ भी नाम दें, अंतर्मुख होते ही घूंघट के पट खुल जाते हैं। ज़रा मन की किवड़िया खोल, सैंया तेरे द्वारे खड़े। ।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 65 ☆ ।।इसी जन्म में हर करनी का हिसाब होता है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।।इसी जन्म में हर करनी का हिसाब होता है।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 65 ☆

☆ मुक्तक  ☆ ।।इसी जन्म में हर करनी का हिसाब होता है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

हमेशा खुश रहो ख्वाबों  और ख्यालों में।

जिंदगी के हर  जवाब और सवालों में।।

हर हालात में मोड़  लीजिए जिंदगी ऐसे।

खुश ही रहो तर  और सूखे निवालों में।।

[2]

चार दिन की यह जिंदगी हंस कर निभाना है।

थोड़ा थोड़ा रोज़ खुद कोअच्छा  बनाना है।।

एक मूरत की तरह ही रोज़ गढो खुद को।

फिर पूरी तरह खुद को संवार कर लाना है।।

[3]

तन से सुंदर नहीं पर मन से भी सुंदर बनना है।

अपने को दूसरों लिए उपयोगी सिद्ध करना है।।

गर उड़ना तो क्या कद देखना आसमान का।

परों से नहीं हौसलों से ऊंची उड़ान भरना है।।

[4]

बबूल की तरह नहीं आम की तरह उगना है।

फल लगे पेड़ सा  औरों के लिए झुकना है।।

हर दिल के कोने में  जगह बनानी है अपनी।

हर परमार्थ कार्य के लिए जीवन में रुकना है।।

[5]

तेरी वाणीऔर काम से ही नामो खिताब होता है।

प्रभु पास खुला तेरा हर खाता किताब होता है।।

बस अच्छे कर्म अच्छी  यादें जायेंगी साथ तेरे।

इसी जन्म में हर करनी   का हिसाब होता है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 129 ☆ “श्रद्धायें-निष्ठायें टूटीं…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित ग़ज़ल – “श्रद्धायें-निष्ठायें टूटीं…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण   प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #129 ☆ ग़ज़ल – “श्रद्धायें-निष्ठायें टूटीं…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

परिवर्तन की आँधी आई, धुंध छाई अँधियार हो गया

जड़ से उखड़े मूल्य पुराने, तार-तार परिवार हो गया।

उड़ी मान मर्यादायें सब मिट गई सब लक्ष्मण रेखायें

कंचनमृग के आकर्षण में, सीता का संसार खो गया।

श्रद्धायें-निष्ठायें टूटीं, बढ़ीं होड की परम्परायें

भारतीय संस्कारों के घर पश्चिम का अधिकार हो गया।

पूजा और भक्ति की मालाओं के मनके बिखरे ऐसे

लेन-देन की व्याकुलता में जीवन बस बाजार हो गया।

गांवों-खेतों के परिवेशों में रहते संतोष बहुत था

दुखी बहुत मन, राजमहल का जब से जुनू संवार हो गया।

मन की तन की सब पावनता युगधारा में बरबस बह गई

अनाचार जब से इस नई संस्कृति का शिष्टाचार हो गया।

उथले सोच विचारों में फँस  मन मंदिर की शांति खो गई

प्रीति प्यार सब रहन रखा गये, जीना भी दुश्वार  हो गया।

रच एकल परिवार अलग सब भटक रहे है मारे-मारे

जब से सबसे मिल सकने को बंद घरों का द्वार हो गया।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “हनुमानजी पर दोहे” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

हनुमानजी पर दोहे☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

राम सिया के भक्त हैं, पवनपुत्र हनुमान।

 हैं बेहद ही दिव्य जो, सच में बहुत महान।।

 संकट को हरते सदा, रामदूत हनुमान।

राम काज करते सदा,  हैं बेहद बलवान।। ंंंं

सब अनिष्ट हों दूर नित, आये कभी न आंच।

हनुमत की ताक़त ‘शरद’, कौन सका है बांच।।

बजरंगी जीतें सदा, पराभूत हो पाप।

हनुमत की महती दया, दूर रहें संताप।।

रामभक्त हैं देव वे, फैलाते आलोक।

हर युग में हनुमान जी, परे करें हर शोक।।

बलवीरा हनुमान जी, व्यापक रखें विवेक।

मंगल करते नित्य ही, काम करें नित नेक।।

हनुमत दयानिधान हैं, कर लो उनका जाप।

जीवन हो सुखमय सदा, परे हटे हर शाप।।

कलियुग में है आसरा, परमवीर कपिराज।

करें दया तब ही बजे, अमन-चैन का साज़।।

पवनपुत्र की जय करो, जो हैं बल के धाम।

देवों के हैं देव जो, सदा सुपावन नाम।।

कलियुग में वरदान हैं, हनुमत दयानिधान।

 करते हैं जो भक्त की, सदा सुरक्षित आन।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचना/Information ☆ सम्पादकीय निवेदन – सुश्री राधिका भांडारकर – अभिनंदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

सुश्री राधिका भांडारकर

💐अ भि नं द न 💐

आपल्या समूहातील सुप्रसिद्ध लेखिका व कवयित्री सुश्री राधिका भांडारकर यांना, “आम्ही सिद्ध लेखिका“ या राज्यस्तरीय मंचातर्फे जागतिक महिला दिनानिमित्त आयोजित राज्यस्तरीय कथास्पर्धेत, उत्तरायण या त्यांच्या कथेसाठी द्वितीय क्रमांकाचे पारितोषिक मिळाले आहे.

आजच्या अंकात वाचूया ही पुरस्कारप्राप्त कथा. 

💐 या पुरस्काराबद्दल राधिकाताईंचे ई-अभिव्यक्ती संपादक मंडळातर्फे हार्दिक अभिनंदन आणि पुढील अशाच यशस्वी साहित्यिक वाटचालीसाठी हार्दिक शुभेच्छा💐

संपादक मंडळ

ई अभिव्यक्ती मराठी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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