सूचना/Information ☆ बालकहानी प्रतियोगिता के परिणाम घोषित – अलका प्रमोद लखनऊ को मिला प्रथम स्थान ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

?  श्रीमती सुशीलादेवी केशवराम क्षत्रिय स्मृति बाल प्रतियोगिता- 2022 परिणाम घोषित – अभिनंदन ? 

बालकहानी प्रतियोगिता के परिणाम घोषित – अलका प्रमोद लखनऊ को मिला प्रथम स्थान-

देशभर के बालकथाकारों से बालकहानियां प्रतियोगिता-श्रीमती सुशीलादेवी केशवराम क्षत्रिय स्मृति बाल प्रतियोगिता- 2022 के लिए आमंत्रित की गई थीं। जिसमें विभिन्न बालसाहित्यकारों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। इस कारण इस प्रतियोगिता में 55 से अधिक कहानियां प्रविष्ठियाँ के तौर पर प्राप्त हुई थीं। प्रतियोगिता के निम्नानुसार इन सभी कहानियों पर से रचनाकारों के नाम हटाकर कहानी के शीर्षक के साथ निर्णायक और प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ दिनेश कुमार पाठक ‘शशि’ को मूल्यांकन के लिए भेजा गया था।

निर्णायक महोदय ने कहानी का अध्ययन, मनन और चिंतन करके प्रथम स्थान- महंगी पड़ी शरारत, रचनाकार- अलका प्रमोद लखनऊ, द्वितीय स्थान- कहानी मिली की, रचनाकार- इंद्रजीत कौशिक बीकानेर, तृतीय स्थान- मछली जल की रानी, रचनाकार- नीलम राकेश लखनऊ की कहानी को प्रदान किया गया।

इसी तरह प्रथम 10 कहानियों में अपना स्थान बनाने वाली कहानी और रचनाकार का नाम इस प्रकार है- सब्जी लोक में टिंकू- अलका अग्रवाल जयपुर, लैपटॉप- मधुलिका श्रीवास्तव भोपाल, कौन जीता कौन हारा- मीनू त्रिपाठी नोएडा, इफ्तारी- डॉक्टर लता अग्रवाल भोपाल, मिंकु पिंकू- वंदना पुणतांबेकर इंदौर, अनुशासन का महत्व- विनीता राहुरिकर भोपाल, खेल खेल में- अंजली खेर भोपाल, मंगलवन में अमंगल ललित शौर्य पिथौरागढ़ , नन्ना गोलू- संध्या गोयल सुगम्या राजनगर गाजियाबाद को प्राप्त हुआ है।

इन सभी विजेताओं को पुरस्कार राशि व सम्मानपत्र श्रीमती सुशीलादेवी केशवराम क्षत्रिय स्मृति बाल प्रतियोगिता- 2022 के आयोजक प्रसिद्ध बालसाहित्यकार ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ द्वारा प्रदान किए जाएंगे।

ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

19-06-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड- 458226, मोबाइल नंबर 9424079675

? ई-अभिव्यक्ति की ओर से सभी पुरस्कृत / सम्मानित साहित्यकारों का अभिनंदन एवं हार्दिक बधाई ?

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ॥ मानस के मोती॥ -॥ मानस का रेखांङ्कित शाश्वत सत्य – प्रेम – भाग – 1 ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

मानस के मोती

☆ ॥ मानस का रेखांङ्कित शाश्वत सत्य – प्रेम – भाग – 1 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

मनुष्य का मन विचारों का उद्गम स्थल है। विचार उत्पन्न होने पर ही मनुष्य कोई कार्य करता है। बहुत से विचार तो उठकर विलुप्त हो जाते हैं परन्तु कुछ ऐसे होते हैं जो कार्य कराते हैं। औरों से बिना कहे व्यक्ति को चैन नहीं मिलती हैं। जन साधारण तो अपने विचार मौखिक ही एक दूसरे पर व्यक्त कर अपना सारा कार्य-व्यापार सम्पन्न करते हैं, किन्तु मनीषी कवि लेखक अपने मन के विचारों को लिखकर व्यक्त करते हैं। ऐसे विचार गंभीर होते हैं और जन-जन को दीर्घकाल तक चिन्तन मनन का मसाला सबों को देते हैं। उनसे समाज को मार्गदर्शन भी मिलता है। ये विचार व्यक्ति के व्यक्तित्व समाज की तत्कालीन स्थितियों से प्रभावित होते हैं। इसीलिये उन विद्वानों के द्वारा रचित पुस्तकें समाज को उनके विचारों की सुगंध देती हैं और समाज की समस्याओं को सुलझा सकने के लिए राह दर्शाती हैं। ऊंचे विचारों को दर्शाने वाली ऐसी पुस्तकें युग-युग के लिए अमर हो जाती हैं जैसे गीता या रामायण।

महात्मा तुलसीदास के मानस का अध्ययन करने पर हमें उनकी अवधारणा इच्छा और लेखन के उद्देश्य का ज्ञान होता है। उन्होंने रामचरितमानस की रचना क्यों की, उन्हीं के शब्दों में मानस के प्रारंभ में लिखा है-

नाना पुराण निगमागम सम्मतं यत् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोदपि

स्वान्तस्सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा भाषानिबद्धमतिमंजुलमातनोति।

वे कहते हैं कि विभिन्न वेद शास्त्रों में और बाल्मिकी रामायण में तथा कुछ अन्य गं्रथों में भी जो कुछ कहा गया है उसी को उन्होंने आत्मसुख की भावना से सुख के लिए सरल भाषा में अपनी तरह से लिखा है। इससे स्पष्ट है कि तुलसीदास जी ने नानापुराण निगम, बाल्मिकी रामायण और कुछ अन्य आध्यात्मिक गं्रथों का अध्ययन मनन कर जो सब संस्कृत भाषा में लिखे हुए हैं, उनके भावों को अपने विचारों के अनुसार प्रचलित लोकभाषा (जन-जन की बोलचाल की भाषा) में लिखा है। लोक भाषा में इसलिये लिखा कि जिससे जनसाधारण उसे पढ़ सकें और समझ सकें और उसमें निरूपित विचारों और भावों को लोक कल्याण के लिए व्यवहार में ला सकें।

महात्मा तुलसीदास भगवान राम के अनन्य भक्त थे। मानस में श्रीराम के जीवन का विशद वर्णन ही उनका प्रतिपाद्य विषय है परन्तु हर प्रसंग में उन्होंने जन साधारण के लिये सरल भाषा में लोकत्तियों और सूक्तियों तथा उदाहरणों और दृष्टान्तों के माध्यम से जनजीवन को सीखने और सुखी बनाने के लिए उपदेशात्मक प्रवचन भी लिखा है।

प्रत्येक काण्ड के प्रारंभ में उन्होंने ईश प्रार्थनायें की हैं जो संस्कृत में हैं। परन्तु सम्पूर्ण गाथा हिन्दी (अवधी लोकभाषा) में इसीलिये वर्णित की है, जिससे सामान्य ग्रामवासी भी पढक़र या सुनकर उस कथा प्रसंग से कुछ पा सकें, सीख सकें।  ”स्वान्तस्सुखाय” का अर्थ होता है आत्म सुख के लिये परन्तु विद्वानों का ”स्वान्तस्सुखाय” ”बहुजन हिताय” होता है। हर एक का सुख अलग होता है। परन्तु लेखक या कवि का सुख तो इसी में होता है कि उसकी रचना अधिक लोगों के द्वारा पढ़ी जाय और सराही जाय। जितने अधिक संख्या में लोग उसकी रचना का रसास्वादन करें और उससे उनके विचारों की शुद्धि हो यही कवि या लेखक की सबसे ज्यादा प्रसन्नता होती है। यही उसका आत्मसुख है। इस दृष्टि से देखें तो रामचरित मानस अद्भुत गं्रथ है। भारत में तो हर हिन्दू के घर में उसकी प्रति उपलब्ध है। पढ़ी जाती है और पूजी जाती है। अन्य धर्मावलंबियों द्वारा भी उसे पढ़ा और सराहा जाता है। रामचरितमानस का अनुवाद विश्व की विभिन्न भाषाओं में हो चुका है और दक्षिण-पूर्वी एशिया के मुस्लिम बाहुल्य देशों में भी उसका सम्मान है। तुलसीदास जी की मनोभावना के अनुरूप उनकी अपूर्व आध्यात्मिक रचना ‘मानसÓ को उद्देश्य प्राप्ति भी हुई है और वे प्रसिद्धि के साथ सफल भी हुए हैं। इसमें भगवान राम की जीवन की सम्पूर्ण गाथा है किन्तु उनके जीवन की घटनाओं को आदर्शरूप में प्रस्तुत किया गया है जो पाठक पर गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव छोड़ती है। घर-परिवार और समाज में घटित होने वाले छोटे से छोटे व्यवहारों को प्रस्तुत कर कवि ने वह सबकुछ समझा दिया है कि मनुष्य को जीवन में कैसे जीना चाहिये। उसको सब के साथ कैसा संबंध रखना चाहिये और कैसा व्यवहार करना चाहिये, जिससे जीवन में सबसे मधुर संबंध रख द्वेष और कलह से दूर रह प्रेम का व्यवहार कर सफल हो सकें। मानस में प्रेम के सशक्त धागे से मनुष्य मन के समस्त भावों को पुष्प की भांति गूंथकर, कवि ने प्रेम के माध्यम से ही समस्त कठिनाइयों को सुलझाने के मनोवैज्ञानिक सूत्र प्रस्तुत किये हैं। मानस में पारिवारिक हर रिश्ते में प्रेम, भ्रार्तृत्व, सहयोग, विश्वास, श्रद्धा, भक्ति, त्याग, निष्ठा, शौर्य, कर्तव्य का सच्चाई और ईमानदारी से निर्वाह, सदाचार का पालन, दुराचारियों का समाजहित में दमन, विचारों की दृढ़ता, निर्णय की अंडिगता तथा विनम्रता, समानता और सद्भाव के अनुपम आदर्श हैं। मनोविकारों पर विजय पाने से जीवन में सुख-शांति और सामाजिक समृद्धि संभव है तथा भौतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति के लिए दैनिक व्यवहारों में शुद्धता और पवित्रता का पालन किया जाना सुखदायी और परिणामप्रद होता है- इसी का संकेत है। रामकथा के माध्यम से समाज में नई चेतना फूंकना, अपने परम आराध्य राम का जनहितकारी मंगलकर्ता ईश्वरीय स्वरूप हर भक्त हृदय में स्थापित करना, तुलसी का लक्ष्य प्रतीत होता है। श्रीराम तो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। दीन-दुखियों के शरणदाता हैं। सबके स्वारथरहित सखा हैं। निर्बल के बल है। भक्तों के लिये भवसागर पार कराने वाले पूज्य परमात्मा हैं। उनके प्रति सहज श्रद्धा जागती है। मानस के प्रमुख पात्र (नायक) हैं, किन्तु उनके जीवन से संबंधित हर पात्र आदर्श आचरण वाला है। राम के भाई भरत और लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न, भातृप्रेम और त्याग की प्रतिमूर्ति हैं। मातायें कौशल्या, सुमित्रा तथा कैकेयी भी वात्सल्य की प्रतिमा हैं। आयोध्यावासी नागरिक नितान्त प्रेमल व सदाचारी और धार्मिक हैं। अन्य सभी सेवक सहायक जो वनवास की अवधि में उन्हें मिले- सुग्रीव, हनुमान, अंगद, विभीषण आदि आदर्श सेवक हैं। हर पात्र, जो भी मानस में हैं अपनी भूमिका में आदर्श पात्र हैं। ऐसा तो ग्रंथ विश्व साहित्य में कोई दूसरा नहीं मिलता। इसीलिये यह ग्रंथ बेजोड़ है, कालजयी है तथा मनमोहक है। इसमें राजनीति, धर्मनीति, लोकनीति तथा अध्यात्म की शिक्षायें हैं। दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में- कम्बोडिया, वियतनाम, जावा, सुमात्रा में रामकथा का बड़ा आदर और महत्व है। विभिन्न अवसरों पर वहां रामकथा का रंगमंच पर प्रदर्शन किया जाता है।

क्रमशः…

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पितृ दिना निमीत्त – तीर्थ… ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ पितृ दिना निमीत्त – तीर्थ… ☆ सौ राधिका भांडारकर

गेली ती गंगा

राहिलं ते तीर्थ

पपांचं हे वाक्य

जीवनी किती सार्थ!..

 

नाही झालात वृक्ष

तर व्हा लव्हाळी

मुळे त्यांची घट्ट

राहती वार्‍या वादळी…

 

कशास दु:ख हरल्याचे

का होशी निराश

पहा पुढे नको मागे

घेई कवेत तू आकाश..

 

ओझे तुझे तूच वहा

वाट बिकट चाल नेटाने

वाटेतल्या बोचर्‍या कंकरांना

लाथाळूनी दे धीराने..

 

संस्कार शिदोरी बापाने

बांधून दिली प्रेमाने

जगण्याच्या वाटेवर

चालले म्हणून मी मानाने….

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ जयहिंद आणि जय जवान… ☆ श्री भाऊसाहेब पाटणकर ☆

?  कवितेचा उत्सव ? 

☆ जयहिंद आणि जय जवान… ☆ श्री भाऊसाहेब पाटणकर ☆

(नामवंत गझलकार आणि शायर म्हणून लोकप्रिय असलेले श्री भाऊसाहेब पाटणकर यांनी शायरीच्याच ढंगात लिहिलेले एक देशभक्तिपर गीत —–)

ऐसे नव्हे की भारती या बुद्ध नुसता जन्मला

नुसताच नाही बुद्ध येथे आहे शिवाजी जन्मला—

 

वीरतेची भारती या ना कमी झाली कधी

आमचा इतिहास नुसता इतिहास ना झाला कधी

 

तीच आहे हौस आम्हा व्हावया समरी शहीद

बाजी प्रभूही आज आहे आज तो अब्दुल हमीद

 

बोलला इतुकेच अंती आगे बढो आगे बढो

देऊन गेला मंत्र जसा आगे बढो आगे बढो

 

धर्माहुनी श्रेष्ठ आपल्या देशास जो या समजला

मानू आम्ही त्यालाच आहे धर्म काही समजला

 

जन्मला जो जो इथे तो वीर आहे जन्मला

अध्यात्मही या भारताच्या युद्धात आहे जन्मला

 

कुठला अरे हा पाक याचे नावही नव्हते कुठे

कळणारही नाही म्हणावे होता कुठे गेला कुठे

 

हे म्हणे लढणार यांच्या दाढ्या मिश्या नुसत्या बघा

पाहिली नसतील जर का बुजगावणी यांना बघा

 

पाहण्याला सैन्य त्यांचे जेव्हा आम्ही गेलो तिथे

नव्हते कोणीच होते फ़क्त पैजामे तिथे

 

आहे ध्वजा नक्कीच आमुची पिंडीवरी लहरायची

फ़क्त आहे देर त्यांनी समरी पुन्हा उतरायची

 

हाच आहे ध्यास आता अन्य ना बोलू आम्ही

बोलू आम्ही जयहिंद आणि जयजवान बोलू आम्ही —–

 

© श्री भाऊसाहेब पाटणकर 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ वट पौर्णिमा… ☆ डॉ. स्वाती पाटील ☆

? कवितेचा उत्सव ?

☆ वट पौर्णिमा… ☆ डॉ. स्वाती पाटील

कशाला हवेत सात जन्म,

या जन्मात च उत्सव करू जगण्याचा

एकमेकांसाठी असण्याचा,……

रुजू आपण पारंबी पारंबी त

विस्तारु प्रेमात अन् मुळांच्या रुपात,

एकमेकांची स्वतंत्र आस्तित्व जाणीव

जपु एकमेकांच्या परिघात,

असू आपण सदैव एकमेकांचे

जिव्हाळ्याच्या हळव्या क्षणांसाठी

आणि ठेवूया भान सहजीवनाचे

जपून एकमेकांची मने,

कशाला हवेत सात जन्म,

या जन्मातच उत्सव करू जगण्याचा,

एकमेकांसाठी असण्याचा,

घे कधी  कवेत मला तुझ्या 

येते वेळ जेव्हा हरण्याची

मी ही देईन साथ आश्वासक

जागवू उर्मी पुन्हा जिंकण्याची,

येतील अवघड कोडयांच्या परीक्षा

हरवतील वाटा आणि  संपतील आशा

होवु  मूक दिलासा एकमेकांचा

मनाच्या संवेदनशील आर्त स्पंदनांचा,

कशाला हवेत सात जन्म,

या जन्मातच उत्सव करू जगण्याचा,

एकमेकांसाठी असण्याचा,

आताशा होतात दगडी मने

गोठते माया होई  काळीज मुके

आपल्यातला  निर्झर खळाळता

ठेवूया  शेवटापर्यंत वाहता,

येतील मोहाचे  बेधुंद क्षण

आणि कातरवेळा फसव्या

सावरू निसरडा तोल एकमेकांचा

आधारवड होवू आपण एकमेकांचा, h..

कशास हवेत सात जन्म

या जन्मातच उत्सव करू जगण्याचा,

एकमेकांसाठी असण्याचा

© डॉ.स्वाती पाटील

सांगली

मो.  9503628150

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे #85 ☆  अर्थ असेल काही जर तर… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 85 ? 

☆  अर्थ असेल काही जर तर… ☆

कसे सांगू सांगा तुम्ही, गोड महिमा भक्तीचा

भक्ती-विना होत नाही, मार्ग मोकळा मुक्तीचा…!!

 

 मार्ग मोकळा मुक्तीचा, करा धावा श्रीप्रभुचा

तोच आहे वाली आता, अन्य कोणी न कामाचा…!!

 

 अन्य कोणी न कामाचा, सर्व लोभी इथे नांदती

अर्थ असेल काही जर तर, मैत्री मग आग्रहे साधती…!!

 

 मैत्री मग, आग्रहे साधती, धर्म हा लोप पावला

अंध-वृत्ती वर आली,  सुज्ञ इथेच  वेडावला…!!

 

 सुज्ञ इथेच  वेडावला, पाश-मोह आवळला

जाण इतुकीही न आता,  ज्ञान-दीप मावळला…!!

 

 ज्ञान-दीप मावळला,  राज सहज बोलला

कृष्ण-भक्ती सोज्वळ, स्मरा श्रीगोविंदाला…!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग 22 – मठातली साधना ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग 22 – मठातली साधना ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

वराहनगर मठात श्री रामकृष्ण संघाचं काम सर्व शिष्य नरेंद्रनाथांच्या मार्गदर्शनाखाली करत होते. उत्तर भारतातले आखाड्यातले साधू बैरागी, वैष्णव पंथातले साधू समाजाला परिचित होते. पण शंकराचार्यांच्या परंपरेतल्या संन्याशांची फार माहिती नव्हती. त्यामुळे वराहनगर मठातल्या तरुण संन्याशांबद्दल समाजाची उपेक्षित वृत्ती होती. चांगले शिकले सवरलेले असून सुद्धा काही उद्योगधंदा न करता, संन्यास घेऊन हे तरुण लौकिक उन्नतीचा मार्ग दूर ठेवत आहेत, हे पाहून लोक खेद करत, उपेक्षा करत, कधी अपमान करत. तिरस्कार करत. कधी कधी कणव येई, तर कधी टिंगल होई.

पण प्रवाहाच्या विरुद्ध जाऊन काही करायचे म्हणजे असेच सर्व गोष्टींना सामोरे जावे लागते. समाजाने स्वीकारे पर्यन्त, बदल होण्याची वाट बघत हळूहळू पुढे जावे लागते. तसे सर्व शिष्यांमधे हा वाट पाहण्याचा संयम होता. दूरदर्शीपणा होता. कारण तसे ध्येय ठरवूनच त्यांनी घरादारचा त्याग केला होता आणि संन्यस्त वृत्ती स्वीकारली होती. हे तरुण यात्रिक अध्यात्म मार्गावरचे एकेक पाऊल पुढे टाकत चालले होते. भारताच्या आध्यात्मिक जीवनात संन्यस्त जीवनाचा सामूहिक प्रयोग नवा होता.

“आपल्याला सार्‍या मानवजातीला आध्यात्मिक प्रेरणा द्यायची आहे, तेंव्हा आपला भर तत्वांचा, मूल्यांचा,आणि विचारांचा प्रसार करण्यावर हवा. संन्यास घेतलेल्यांनी किरकोळ कर्मकांडात गुंतू  नये”. असे मत नरेंद्रनाथांचे होते. या मठातलं जीवन, साधनेला वाहिलेलं होतं.

शास्त्रीय ग्रंथांचा अभ्यास, संस्कृत ग्रंथ व धर्म आणि अध्यात्म संबंधित ग्रंथांचे वाचन होत असे. हिंदूधर्म याबरोबर ख्रिस्तधर्म आणि बुद्धधर्म यांचाही अभ्यास केला जात होता. या धर्मांचा तुलनात्मक अभ्यास व्हायचा. इथे धर्मभेदाला पहिल्यापासूनच थारा नव्हता असे दिसते. शंकराचार्य आणि कांट यांच्या तत्वज्ञानाचा तौलनिक अभ्यास पण इथे होत होता. हे सर्व अनुभवास आल्यानंतर जाणकारांची उपेक्षा जरा कमी झाली आणि जिज्ञासा वाढली.

कधी ख्रिस्त धर्माचे प्रचारक मिशनरी येत त्यांच्या बरोबर चर्चेत हिंदू धर्माच्या तुलनेत ख्रिस्त धर्म कसा उणा आहे ते चातुर्याने आणि प्रभावी युक्तिवादाने नरेंद्र पटवून देत असत. ख्रिस्ताचे खरे मोठेपण कशात आहे तेही समजाऊन सांगत. हे विवेचन ऐकून धर्मोपदेशक सुद्धा थक्क होऊन जात.

हिंदू धर्मातील इतर पंथांचाही इथे अभ्यास चाले. तत्वज्ञानाच्या आधुनिक विचारवंतांनाही इथे स्थान होते. जडवादी आणि निरीश्वरवादी विचारसरणीचा परिचय करून घेतला जात होता. फ्रेंच राज्यक्रांतीचं महत्व सुद्धा नरेंद्रनाथ समजाऊन सांगत असत. साधनेच्या जोडीला अभ्यास हे वराहनगरच्या मठाचं वैशिष्ठ्य होतं. श्री रामकृष्ण यांच्या गृहस्थाश्रमी शिष्यांना एकत्र यायला हा मठ एक स्थान झालं होत. हळूहळू लोकांच्या मनातील दुरावा कमी झाला होता.

तीर्थयात्रा ही आपली पूर्वापार चालत आलेली परंपरा आणि धार्मिक जीवनाचा एक भाग पण. शिवाय श्रीरामकृष्ण यांनीही एकदा संगितले होते, की, “संन्याशाने एका जागी स्थिर राहू नये. वाहते पाणी जसे स्वच्छ राहते, तसे फिरत राहणारा संन्यासी आध्यात्मिक दृष्ट्या स्थिर आणि निर्मळ राहतो”.

या मठातील गुरुबंधूंना तीर्थयात्रेची उर्मी येत असे. त्याप्रमाणे नरेंद्रनाथांना पण एका क्षणी वाटले की, आपणच नाही तर सर्व गुरुबंधूंनी पण परिभ्रमण करावे. अनुभव घ्यावेत, त्यातून शिकावे. त्यामुळे प्रत्येकाच्या आंतरिक शक्तींचा विकास होईल. वराहनगर मठ हा एक मध्यवर्ती केंद्र म्हणून असेल, कोणी कुठे ही गेलं तरी सर्वांनी या केंद्राशी संपर्कात राहावं. शशी यांनी हा मठ सांभाळण्याची जबाबदारी घेतली. दोन वर्षानी १८८८ मध्ये नरेंद्रने वराहनगर मठ अर्थात कलकत्ता सोडले आणि त्यांच्या परिव्राजक पर्वाचा प्रारंभ झाला.

सुरूवातीला ते वाराणशीला आले. प्रवासात ते आपली ओळख फक्त एक संन्यासी म्हणून देत. अंगावर भगवी वस्त्रे, हातात दंड व कमंडलू, खांद्यावरील झोळीत एकदोन वस्त्रे, एखादे पांघरुण एव्हढेच सामान घेऊन भ्रमण करत. शिवाय बरोबर ‘भगवद्गीता’ आणि ‘द इमिटेशन ऑफ ख्राईस्ट’ ही दोन पुस्तके असायची. रोख पैशांना स्पर्श करायचा नाही, कोणाकडे काही मागायचे नाही हे त्यांचे व्रत होते.

सर्व गुरुबंधुना पण ते प्रोत्साहित करू लागले की, भारत देश बघावा लागेल, समजावा लागेल. लक्षावधी माणसांच्या जीवनातील विभिन्न थरांमध्ये काय वेदना आहेत, त्यांच्या आकांक्षा पूर्ण न होण्याची कारणे काय आहेत ते शोधावे लागेल. हे ध्येय समोर ठेऊन ,भारतीय मनुष्याच्या कल्याणाचे व्रत घेऊन स्वामी विवेकानंद यांचे हिंदुस्थानात भ्रमण सुरू झाले.

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ॠणानुबंध….भाग 1 ☆ सुश्री स्वप्ना अभिजीत मुळे (मायी) ☆

? जीवनरंग ❤️

☆ ॠणानुबंध….भाग 1 ☆ सुश्री स्वप्ना अभिजीत मुळे (मायी) ☆ 

“थोडी भारी दाखवा ना दोन हजारच्या पुढे पण चालेल, आणि गडद चॉकलेटी रंग दाखवा प्लिज..” ह्या महेशच्या म्हणण्यावर “बरं” म्हणत पसरवलेल्या साड्या दोन्ही हातांनी उचलत तो दुकानातला नोकर निघून गेला तेंव्हा असावरीने न राहवून महेशला मांडीला चिमटा काढत खुणावलं आणि हातानेच ‘काय’ असं विचारलं,..

महेश म्हणाला, “बोलू या नंतर, साड्या बघ आधी..”

ती नाक मुरडत म्हणाली, “मला चॉकलेटी साडी नको.”

त्यावर महेश हसत म्हणाला, “तुला नाही गं..?”

आसावरीने परत डोळे मोठे करत “मग, दोन्ही ताईंना तर नाहीच आवडत हा रंग..”

त्यावर महेश म्हणाला, “त्यांना पण नाही.. देशमुख काकूच्या मुलीचं लग्न ठरलंय ना..” 

त्याच्या ह्या वाक्यावर आसावरी जोरात ओरडली, “काय ? देशमुख काकूंना दोन हजाराची साडी..?” तिचं ओरडणं एवढं जोरात होतं की काउंटरवरचा मालक आणि आजूबाजूचे गिऱ्हाईक सगळे वळून बघत होते हिच्याकडे, अगदी समोरच्या पिलरमध्ये आरसा होता मोठा, त्यातही बऱ्याच माना हिच्या दिशेने वळाल्या. तिला ते जाणवलं. ती जराशी चपापली आणि खर्ज्यात आवाज लावत म्हणाली, “अरे पोळ्यावाली आहे ती आपली.. तिला कशाला एवढी महाग साडी..? घरात आहेरात आलेल्या पन्नास साड्या आहेत, त्यातली देऊ..”

तिच्या बोलण्याकडे लक्ष न देता महेशला आठवणीत होती तशीच मोठया काठांची सोनेरी बुट्ट्या असलेली चॉकलेटी साडी या नवीन गठ्ठ्यात दिसली. त्याने ती साडी पटकन उचलली. किंमत तीन हजार सहाशे होती पण त्याने लगेच “ही साडी पॅक करा” असं सांगितलं आणि तो असावरीकडे न बघताच काऊंटर कडे चालू लागला.. 

आसावरी मनातून प्रचंड चिडली होती. तिथे न थांबता तणक्यात ती गाडीत येऊन बसली. महेशने साडीचं पार्सल मागे गाडीत टाकलं आणि सिट बेल्ट लावत म्हणाला, “छान आहे ना गं साडी.. अगदी मला हवी तशी मिळाली..”

आसावरीचा रागाचा भडकाच उडाला, “अरे, काय पायातली वाहाण छान म्हणून डोक्यावर नाही ठेवत आपण..”

महेश म्हणाला, “असावरी, तुला काही माहीत नाही. बोलू आपण निवांत..”

त्यावर चिडून आसावरी म्हणाली, “सगळं माहीत आहे मला, अण्णा बोलले होते मागे, ह्या देशमुखबाईचे फार उपकार आहेत आपल्यावर.. म्हणून काय एवढी महाग साडी..?”

महेशने कॉफी शॉप बघत गाडी थांबवली. आसावरी तणक्यानेच टेबलवर बसली. महेशने कॉफी ऑर्डर केली आणि आसावरीशी बोलू लागला, “माझे आई आणि बाबा पाठोपाठ वारले आणि आजोबांनी हिम्मत लावून मला या शहरात शिकायला ठेवलं. शेतीचं उत्पन्न कमी. आजोबा कसेबसे पैसे पुरवायचे मला, पण एकदा कळलं, गावातले देशमुख शहरात राहायला येणार. गावाकडे आजोबा त्यांच्या देवाची पूजा करायला जायचे, त्यामुळे रोजच्या उठण्या बसण्यातल्या ओळखी होत्या.

आजोबांनी शब्द टाकला, ‘पोराला एक वेळ जेवण मिळालं तर बरं होईल.. शिक्षणाचा खर्च पेलत नाही.. एक वेळ चहा नाष्टा धकवतो.. खरंतर रोज पूजेला आला असता, पण कॉलेजची वेळ सकाळची..”

आजोबांच्या बोलण्यावर देशमुख तयार झाले आणि माझं रात्रीचं जेवण पक्क झालं.. ही मायमाऊली तेव्हापासून माझी अन्नपूर्णा आहे.. मला छोटीमोठी काम़ त्या घरात सांगितली जायची.. कधी दळण आणायचं, कधी भाजी आणून द्यायची..

मला जेवू घालतात हे त्यांच्या घरातल्या सगळ्यांच्या डोळ्यात दिसायचं. मला ते खुपायचं पण माझ्याकडे इलाज नव्हता. आजोबांची महिन्याची चक्कर हुकली की पोटात गोळा यायचा, कसं होईल आपलं..? खोलीचे भाडे, चहा, नाश्ता बिल जीव घाबरून जायचा. त्यादिवशी हमखास जेवणात लक्ष लागायचं नाही, तेंव्हा देशमुख काकु डोक्यावरून हात फिरवून शेजारी बसून आग्रहाने वाढायच्या. म्हणायच्या, ‘येतील आजोबा, नको काळजी करुस..’

जेवतांना डोळ्यातून अश्रू गालावर येऊन घासात मिसळायचे.. आईचा स्पर्श आठवायचा..असे ते दिवस होते,..

एकदा मला घरातल्या काही कपड्यांना इस्त्री कर असं एकदम करड्या आवाजात सांगितल्या गेलं.. तश्या काकु बाहेर येऊन म्हणाल्या, “अहो असं रागावून का सांगता त्याला.. आणि त्याला सवय नसेल इस्त्री करण्याची..’ 

पण त्यादिवशी देशमुख काका रागातच होते.. त्यांचा माझ्यासोबत बारावीत शिकणारा मुलगा नापास झाला होता आणि त्यांच्या तुकड्यांवर जगणारा मी मात्र मेरिटमध्ये आलो होतो.. तो रागच होता.. उपकाराचा.. त्यादिवशी त्यांचा मुलगा.. ही आता लग्न ठरलेली चिमी तर आठच वर्षांची होती, ती सुद्धा वेगळ्याच तोऱ्यात होती. काकूंनी मात्र तोंडात बेसनाचा लाडू घातला आणि केसांवरून हात फिरवत माझी दृष्ट काढत म्हणाल्या..

“ खूप खूप मोठा हो..”

—क्रमशः..

© स्वप्ना अभिजीत मुळे (मायी)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ देवाचे लेकरू— ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले ☆

डॉ. ज्योती गोडबोले

 ? मनमंजुषेतून ?

☆ देवाचे लेकरू— ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले ☆ 

माझ्या हॉस्पिटलमध्ये अनेक  प्रकारच्या रुग्ण मी बघत असायची. काहीवेळा, श्रीमंत लोक अत्यंत  विचित्र वागताना मी बघितलेत. तर काहीवेळा,अत्यंत निम्न स्तरातले लोक फार मोठ्या मनाचे आढळून आलेलेही बघितले.

माझ्याकडे सरला बाळंतपणासाठी आली. त्याकाळी सोनोग्राफी भारतात आलेली नव्हती. तेव्हाची ही गोष्ट.

आधीच्या दोन मुलीच होत्या सरलाला. यावेळी मुलाच्या आशेने तिसरा चान्स घेतला होता खरा. 

पण मग मात्र operation नक्की करायचे ठरवले होते तिने. योग्य वेळी सरला प्रसूत झाली. मी  प्रसूती पार पाडून बाळाकडे वळले. मुलगी होती ती. पण दुर्दैवाची गोष्ट, मुलीला डावा हात कोपरापासून नव्हता.

कोपरालाच बोटासारखे दोन विचित्र कोंब होते. मला, आमच्या सर्व स्टाफला अतिशय वाईट वाटले.

सरलाने उत्सुकतेने विचारले, “ बाई काय झाले मला,सांगा ना “

मी म्हटले, “ सरला, सगळे उत्तम आहे. तू आता छान विश्रांती घे हं.उद्या बाळ देणारच आहोत तुझ्या जवळ. “ 

सरलाने निराशेने मान फिरवली.

दुसऱ्या दिवशी राऊंड घेत असताना सरलाच्या कॉटजवळ गेले तर ती धाय मोकलून रडत होती.

“ अहो डॉक्टर,आता मी काय करू. ही असली अपंग मुलगी कशी सांभाळू मी. देव तरी बघा कसा. देऊन द्यायची ती मुलगी,आणि वर असली अपंग.” 

मी तिची खूप समजूत काढली. “ सरला,देवाचीच इच्छा म्हणायचे ग. तू हिलाच आता नीट वाढवायला हवेस.

नशीब समज, ती बाकी ठीक आहे. आणखी कोणते व्यंग नाहीये नशिबाने. अग, फारसे नाही अडणार ग तिचे.

शिकव ना तू तिला सगळे. “ 

सरला गप्प बसली आणि पाचव्या दिवशी घरी निघून गेली. तिचा नवरा बिचारा खरच समजूतदार होता.

म्हणाला, “ बाई,देवाचे लेकरू म्हणून आम्ही  सांभाळू हिला.काय करणार.” 

सरलाने मुलीला खंबीरपणे वाढवायचे ठरवले. 

तिचे  ना कोणी बारसे केले, ना  कसला समारंभ. पहिल्या दोघी रुपाली दीपाली म्हणून ही वैशाली. हेही बहिणीच म्हणू लागल्याम्हणून पडले नाव. बहिणी  म्हणाल्या,” आई हिला आमच्या शाळेत नको हं घालू . सगळ्या चेष्टा करतील आमची.” 

सरलाने चौकशी केली आणि तिला मिशनच्या फुकट असलेल्या शाळेत घातले. निदान तिथे तरी तिला कोणी हसणार नाही, तिच्या व्यंगावर बोट ठेवणार नाही,अशी आशा वाटली सरलाला.

 मुलगी चांगली वाढत होती. बुद्धी सुद्धा छान होती तिची. मिशन स्कूलमध्ये उलट ती छान शिकत होती.

इंग्लिश माध्यम असल्याने तिला फायदाच होत होता. 

सरला घेऊन  यायची तिला माझ्याकडे–कधी औषधासाठी, कधी काही विचारायचे असेल तर–

एकदा मला म्हणाली,” बाई हिला कृत्रिम हात नाही का बसवता येणार हो ?”

 मी तिला आमच्या बालरोग तज्ञांकडे पाठवले. ते म्हणाले, “अजून ही खूप लहान आहे. जरा मोठी झाली की करूया आपण प्रयत्न.” 

दिवस भरभर पळत होते. मोठ्या बहिणी  डिग्री घेऊन लग्न करून गेल्या. त्यांचीही माया होतीच वैशालीवर. 

तिला कोणी हसू नये, कुचेष्टा करू नये म्हणून त्याही दक्ष असायच्या. वैशाली समजूतदार होती. आपल्यात काहीतरी कमी आहे, हे त्या लेकराला जणू जन्मापासून माहीत होते.

वैशालीचे त्या हातामुळे कुठेही अडत नव्हते. ती लाटणे हातात धरून छान पोळ्या करायची. त्या बोटासारख्या कोंबाचा उपयोग करून शिवणसुद्धा शिवायची. खरे तर मोठ्या बहिणींपेक्षा वैशाली दिसायलाही खरंच चांगली होती.

वैशाली 10 वी झाली, तेव्हा सरला म्हणाली,” आपण तुला कृत्रिम हात बसवूया का “. 

 वैशाली म्हणाली, “ नको आई. मी आहे ही अशी आहे। माझे काहीही अडत नाही ग. नको मला तो हात.” 

वैशाली बी.कॉम. झाली. सरकारच्या अनुकम्पा तत्वावर तिला सरकारी बँकेत नोकरीही लागली.  छान साडी  नेसून,डाव्या हातावर पदर घेतलेली वैशाली बघितली की मला कौतुक वाटे तिचे. लक्षात सुद्धा येत नसे की हिला डावा हात पुरा नाहीये. ती भराभर बँकेत काम करत असायची. 

नंतर  बँकेत कॉम्प्युटर आले. वैशालीला बँकेने training साठी पाठवले. हसतमुख वैशाली,सगळ्या बँकेची लाडकी झाली. क्लायंट पण ती नसली की विचारायचे,`आज वैशाली ताई दिसत नाहीत. मग उद्याच येतो,त्या आल्या की.`

सरलाने वैशालीचे नाव विवाह मंडळात घातले. वैशाली म्हणाली, “ आई मला निर्व्यंग मुलगा नको. व्यंग असलेलाच नवरा बघ, जो मला समजून घेईल, स्वतः जो या भोगातून गेलाय, त्याच्याशीच मी लग्न करीन. नाही मिळाला तर राहीन की अशीच. आई, तुला सांगितले नाही ग कधी, पण शाळेतही खूप भोगलय मी. डबा खायला मुले बोलवायची नाहीत

मला उजव्याच हाताने पाण्याचा ग्लास उचलावा लागतो म्हणून चेष्टा करायची मुले. खरकटे हात लावते मी म्हणून.

माझे पाठांतर किती छान आहे. पण टीचरने मला स्पर्धेत कधीही निवडले नाही. .म्हणूनच जो या सर्वातून गेलाय,असाच जोडीदार मला हवा। “ 

सरलाच्या डोळ्यातून अश्रू वाहू लागले. 

“ किती ग सोसलस माझ्या बाळा. पण मिळेल हो असा समजूतदार मुलगा तुला. देव असतो ग  वैशू.” 

वैशू खिन्न हसली. म्हणाली, “असता तर त्याला माझा  पूर्ण हात का नाही देता आला त्याला “. सरला निरुत्तर झाली.

बँकेत एक दिवस एक आजोबा आले. या मुलीला ते खूप दिवस बघत होते. तिला म्हणाले,” जरा बोलायचे आहे तुझ्याशी. येतेस का लंचअवर मध्ये ? हे बघ,मी तुला गेले खूप महिने बघतोय. तुला अवघड वाटणार नसेल तर

एक विचारू का? माझा नातू खूप हुशार आहे. इंजिनीअर आहे, छान नोकरी आहे त्याला. तो तुला  बँकेत येऊन बघून गेलाय. त्याला तू मनापासून आवडली आहेस. हे बघ, या गुणी मुलाला लहान असताना पोलिओ झाला दुर्दैवाने.

वेळीच उपचार केले म्हणून सावरला, पण तरीही, तो एका पायाने लंगडतो. त्याचे काहीही अडत नाही. कार चालवतो, चांगली नोकरीही आहे त्याला. आमची आर्थिक परिस्थिती उत्तम आहे. बघ भेट त्याला. तुमच्यावर कोणतीही बळजबरी नाही.” 

वैशालीने आईला हे सांगितले. सरलाला तर स्वर्ग ठेंगणा झाला. पुढच्या आठवड्यात आजोबा आणि नातू मनीष वैशालीच्या घरी आले. दोघे अनेक वेळा भेटले बोलले. सहा महिने एकमेकांना भेटल्यावर मगच त्यांनी लग्नाचा निर्णय घेतला. अगदी साधे, मोजक्या लोकांच्या उपस्थितीत वैशाली मनीषचे लग्न झाले.

आज वैशाली एका गोंडस मुलीची आई आहे. एकाच मुलीवर तिने ऑपरेशन करून घेतलंय.  मुलगी एकदम 

अव्यंग, हुशार आणि छान आहे.

आता सांगा,—

 देव लग्नगाठी स्वर्गात बांधतो , आणि एक दार बंद असेल तर तो दुसरे उघडतो हे किती खरे आहे न..

©️ डॉ. ज्योती गोडबोले

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 16 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 16 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

[२३]

माझ्या मित्रा! या वादळी रात्री,

दूर देशाच्या प्रेमाच्या प्रवासात तू आहेस ना?

 

आकाश निराश होऊन उच्छ्वास टाकते आहे

 

आज रात्रभर मला झोप नाही,

पुन्हा पुन्हा मी दार उघडतो,

अंधाराकडे पाहतो

 

मला तर काहीच दिसत नाही

 

कुठं बरं असेल तुझा रस्ता?

 

कुठल्या काळ्या नदीच्या

किनाऱ्यानं तू येत असशील?

 

भितीनं गोठवणाऱ्या रानाच्या आणि

भयचकित करणाऱ्या

कोणत्या दु:खमय दरीच्या

माझ्याकडं येणाऱ्या वाटेने तू येत असशील?

 

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

 

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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