हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 8 ☆ सबसे सुंदर मेरा गाँव ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी  एक भावप्रवण रचना  “सबसे सुंदर मेरा गाँव ।”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़ सकेंगे . ) 

 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 8 ☆

☆  सबसे सुंदर मेरा गाँव ☆

 

सबसे सुंदर मेरा गाँव ।

जहां न कोई किलकिल-काँव।।

सबसे सुंदर मेरा गाँव।

 

खेरे खूँटे बैठी माई ।

करती जो सबकी सुनवाई ।।

जहां न चलते खोटे दाँव।

सबसे सुंदर मेरा गाँव ।।

 

भैरव बाबा  करते रक्षा ।

गांव-गली की रोज सुरक्षा ।।

सबका उनसे बड़ा लगाव ।

सबसे सुंदर मेरा गाँव ।।

 

मेहनत की सब रोटी खाते।

भाईचारा खूब निभाते।।

रखते मन में निश्छल भाव ।

सबसे सुंदर मेरा गाँव ।।

 

सादा जीवन प्रीति निराली ।

सच्चाई की पीते प्याली ।।

रहता सदा यहाँ सदभाव ।

सबसे सुंदर मेरा गाँव ।।

 

ताल-तलाई हमें लुभाते

मंदिर भजन-कीरतन गाते

चौपालों में धरम-पड़ाव ।

सबसे सुंदर मेरा गाँव ।।

 

सबके मन “संतोष” सरलता

संबंधों में बड़ी सहजता ।।

रखते नहीं द्वेष-दुर्भाव ।

सबसे सुंदर मेरा गाँव ।।

 

कहते जिसको आदेगाँव ।

जहाँ प्यार की शीतल छाँव।।

सबसे सुंदर मेरा गाँव ।

जहाँ न कोई किलकिल-काँव।।

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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मराठी साहित्य – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प एकवीस # 21 ☆ सागर सरीता मिलन – क्षण मिलनाचे ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं ।  इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से वे किसी न किसी सामाजिक  अव्यवस्था के बारे में चर्चा करते हैं एवं हमें उसके निदान के लिए भी प्रेरित करते हैं।  आज प्रस्तुत है श्री विजय जी की एक भावप्रवण कविता  “सागर सरीता मिलन – क्षण मिलनाचे ”।  आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  )

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ –समाज पारावरून – पुष्प एकवीस # 21 ☆

 

☆ सागर सरीता मिलन – क्षण मिलनाचे ☆

सरीता ही

संजीवनी

सागराची

ओढ मनी. . . !

 

खाडी मुख

उधाणले

मिलनास

आतुरले.. . !

 

देत आली

जीवनास

समर्पण

सागरास. . . . !

 

सरीतेचे

गोड पाणी

सागराची

गाजे वाणी. . . . !

 

लाटातून

झेपावतो

सरीतेला

स्वीकारतो. . . . !

 

मिलनाची

दैवी रीत

सरीतेची

न्यारी प्रीत.. . . !

 

मिलनाची

ओढ  अशी

अवगुण

पडे फशी.. . !

 

जीवतृष्णा

भागवीते

सागरात

मिसळीते.. . . !

 

प्रेम प्रिती

समतोल

मिलनाचे

जाणे मोल. . . . !

 

वरूणाचे

पाणिबंध

मिलनाचा

स्मृती गंध.. . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 4 ☆ मसीहा कौन ? ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी ऐसी ही प्रेरणास्पद एवं अनुकरणीय लघुकथा “मसीहा कौन ?”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 4 ☆

 

☆ लघुकथा – मसीहा कौन ? ☆ 

 

“उतरती है कि नहीं ? नीचे उतर, तमाशा करवा रही है सबके सामने” ।

“मैं नहीं उतरूंगी’, वह सोलह – सत्रह वर्षीय नवविवाहिता रोती हुई बोली।

“घर चल तेरे को कोई कुछ नहीं बोलेगा” आवाज में नरमी लाकर बस की खिड़की के पास नीचे खड़ी औरत बोली। “बस चलनेवाली है जल्दी कर…… उतर……. उतर नीचे, सुन रही है कि नहीं?” उस औरत के आवाज में फिर से तेजी आने लगी थी।

“चलने दे बस को, मैं नहीं उतरूंगी, वह लड़की दृढ़ता से बोली। इतना कहकर उसने बस की खिड़की का शीशा तेजी से बंद कर दिया।” नीचे खड़ी औरत ने फोन मिलाया और थोड़ी देर में ही एक पुरुष वहाँ आ गया।

औरत बोली – “ये तो बस से नीचे उतर ही नहीं रही। सरेआम फजीहत करवा रही है।”

“उतरेगी कैसे नहीं हरामखोर। इसका तो बाप भी उतरेगा।” उस आदमी ने खिड़की का शीशा जोर से भड़भड़ाकर अपनी भाषा में उसे धमकाना शुरू किया।

“बाप शब्द सुनते ही लड़की ने खिड़की खोलकर काँपते स्वर में कहा – बाप को बीच में क्यों लाते हो ? कुछ भी कर लो मैं वापस नहीं चलूंगी।”

इतना सुनते ही वह आदमी भड़क गया – “साली, तेरा यार बैठा है वहाँ जो खसम को छोड़कर जा रही है। उतर जा, नहीं तो हड्डी – पसली एक कर दूँगा।” लड़की बस से उतरने को कतई तैयार नहीं थी। बस के चलने का समय हो रहा था। नीचे खड़ा आदमी तनाव में था। ऐसा लग रहा था कि वह उस लड़की को हाथ से निकलने देना ही नहीं चाहता था। साथ खड़ी औरत से चिल्लाकर बोला – “जा बस में से इसका सामान उतार ला, फिर देखें कैसे जाती है।” औरत तेजी से बस में चढ़कर सामान उतारने लगी। उसने लड़की का भी हाथ पकड़कर खींचना चाहा। लड़की की ढीठता और अन्य यात्रियों को देखकर वह जबर्दस्ती ना कर सभी और सामान लेकर तेजी से बस से उतर गई। लड़की सीट पर लगी रॉड को कसकर पकड़े थी। मानो वही उसका सहारा हो। वह रोती रही पर अपनी जगह से टस से मस न हुई।

कंडक्टर आ गया। और उसने बस चलने का संकेत देने के लिए घंटी बजाना शुरू कर दिया। उस आदमी का पारा चढ़ गया। बंदूक की गोलियों सी दनादन गलियाँ उसके मुँह से निकलने लगी – “साली, आना मत लौटकर इस घर में। वापस आई तो टुकडे – टुकडे कर दूंगा। धंधा करने जा रही हैं हरामजादी।”

बस खचाखच भरी थी। हिलने – डुलने की गुंजाईश भी नहीं थी। कंडक्टर ने अंतिम बार घंटी बजाई और बस चल पड़ी। बस चलते ही यात्रियों ने चैन की साँस ली। हर किसी को ऐसा लग रहा था कि अगर आज ये लड़की डरकर या दबाव में आकर चली गई तो इसकी खैर नहीं। शायद लड़की भी यह जानती थी। बस के चलते ही उसके पपडाए होठों पर राहत नजर आई। वह आँखें बंदकर सिर सीर से टिका कर बैठ गई। चेहरे पर चोट के निशान साफ दिख रहे थे। उसकी आँखे बंद थीं पर चेहरा सब कुछ बयां कर रहा था। भयानक तूफान को झेलकर वह निकली थी।

खे बंदकर वह आगे आनेवाले तूफान से लड़नेकी ताकत अपने भीतर जुटा रही थी। लड़ाई उसने जीत ली थी, ना मालूम कितनी लड़ाईयाँ जीवन में उसे अभी लड़नी बाकी हैं ? सच है स्त्री अपनी मसीहा स्वयं ही है।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा,

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #21 ☆ मजबूरी ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “मजबूरी”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #21 ☆

 

☆ मजबूरी ☆

 

सिपाही के हाथ् देते ही गौरव की चिंता बढ़ गई. जेब में ज्यादा रूपए नहीं थे, “क्या हुआ साहब?” उस ने सिपाही को साहब कह दिया. ताकि वह खुश हो कर उसे छोड़ दे.

“गाड़ी के कांच पर काली पट्टी क्यों नहीं है?” सिपाही बोला,  “चलिए! साहब के पास” उस ने दूर खड़ी साहब की गाड़ी की ओर इशारा किया.

“साहब जी! अब लगवा लूंगा.”

“लाओ 3500 रूपए. चालान बनेगा.” सिपाही ने कहा.

“साहब! मेरे पास इतने रूपए नहीं है” गौरव बड़ी दीनता से बोला .

“अच्छा!” वह नरम पड़ गया, “2500 रूपए और गाड़ी के कागज तो होंगे?”

गौरव खुश हुआ, “हाँ साहब कागज तो है, मगर रूपए नहीं है” कहते हुए उस ने सभी कागज सिपाही को दे दिए.

सिपाही ने कागजात देख कर कहा “अरे ! ड्राइवरी लाइसेंस तो एक्सपायर हो गया.”

“जी साहब! नवीनीकरण के लिए दे रखा है.” कहते हुए गौरव ने अपना दूसरा लाइसेंस सिपाही को पकड़ा दिया. उसे देख सिपाही मुस्करा दिया.

“जेब में कितने रूपए है?”

गौरव ने जेब में हाथ डाला, “साहबजी ! 200 रूपए है.”

सिपाही ने रूपए ले कर चालान काट दिया. फिर बोला, “क्या करें साहब,  हमारी भी मजबूरी है. हमें एक निश्चित राशि एकत्र करने का लक्ष्य दिया जाता है, उसे एकत्र करना होता है. इसलिए” कहते हुए सिपाही मुस्करा दिया.

गौरव ने चालान देखा, “अरे ! यह तो मोटरसाइकल का चालान है” कह कर वह मुस्कराया. फिर चुपाचप चल​ दिया.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 21 – बालपण…! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है बाल्यपन  पर आधारित एक अतिसुन्दर कविता बालपण…! )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #21☆ 

 

☆  बालपण…! ☆ 

 

मी गात असताना

लेकराची

हार्मोनियम वर सफाईदारपणे

फिरणारी

बोटं पाहिली की

ओठांवर येणारे

शब्द शहारतात

थरथरतात…

ऐकत रहावसे वाटतात

फक्त त्याच्या

इवल्या इवल्या बोटांमधून

ऐकू येणारे सूर

डोळ्यांच्या पाणवठ्यावर

येऊन मी उभा राहतो

साठवून घेतो…

त्याची प्रत्येक हरकत,नजाकत

त्याचा प्रसंन्न चेहरा

आणि बरंच काही

माझ्या ओठांमधून येणा-या

बोथड शब्दांना तो

तो देत असतो जगण्याची

सुंदर लय….

आणि मी मात्र त्यांच्यामध्ये

शोधत राहतो माझ

प्रौढ होत गेलेलं बालपण…!

 

© सुजित कदम, पुणे

7276282626

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 2 – हिन्द स्वराज से ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि  पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से”.)

☆ गांधी चर्चा # 2  – हिन्द स्वराज से  ☆ 

 

गांधी जयन्ती 02 अक्टूबर 2019, को महात्मा गांधी पूरे 150 वर्ष के हो गए। उनके विचारों की झांकी हमें ‘हिन्द स्वराज’ से मिलती है। अपने सार्वजनिक जीवन में आगे चलकर गांधीजी  इन्ही विचारों पर अडिग रहे और समय समय पर उसकी व्याख्या करते रहे। यह पुस्तक उन्होंने कैसे लिखी इसकी कहानी सुनिए ;

गांधीजी और सावरकर 1906 में पहली बार लन्दन में मिले, उसके बाद दुबारा 1909 में फिर मिले जब गांधीजी दूसरी बार दक्षिण अफ्रीका से इंग्लॅण्ड आये। 24 अक्टूबर 1909 को दशहरे के अवसर पर इंडिया हाउस में हुए एक कार्यक्रम में गान्धीजी  व सावरकर ने मंच साझा किया। गांधीजी ने रामायण को ऐसा ग्रन्थ बताया जो सच्चाई के लिए कष्ट सहने की सीख देता है। गांधीजी ने कहा कि सच्चाई के लिए इस तरह का त्याग और तपस्या ही भारत को स्वतन्त्रता दिला सकती है। इस मंच से सावरकर ने रामायण को दमन और अन्याय के प्रतीक रावण के वध से जोड़ा। गांधीजी के आग्रह के अनुरूप दोनों ने विवादस्पद राजनीति की चर्चा न करते हुए अपने अपने मत व नीतियों की चर्चा इस मंच से की। चूँकि हिंसा प्रेमी क्रांतिकारियों के विचारों से गान्धीजी दुखी थे, दूसरे बहुत से विवादास्पद राजनीतिक विषयों पर चर्चा इस मंच पर न करने का उनका आग्रह था अत: उन्होंने ऐसे सभी विषयों के प्रश्नों का उत्तर ‘हिन्द स्वराज’ में दिया है।

गांधीजी ने हिन्द स्वराज लन्दन से लौटते वक्त लिखी थी। 13 नवम्बर 1909 को गांधीजी इंग्लॅण्ड का अपना मिशन पूरा कर पानी के जहाज से जब दक्षिण अफ्रीका लौट रहे थे, तो लन्दन में रहकर भारत की आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे भारतीय नौजवानों की मानसिकता उनके मन में हिंसा की अनिवार्यता और अनेक क्रांतिकारी हिंसक विचारों के समर्थक नेतृत्व, जिनमे वीर सावरकर भी शामिल थे, से मिल रहा दिशा निर्देश, सबका गहरा बोझ उनके मन पर था। वे बेहद व्यथित थे। ऐसी ही मनोदशा में, एस एस किन्दोनन कासल नामक समुद्री  जहाज पर बैठकर दस दिनों के सतत लेखन से उन्होंने यह ऐतिहासिक किताब लिखी। इसे लिखते हुए उनके मन में विचारों का बदल उमड़ रहा था। वे जैसे किसी जूनून के साथ लिखते जा रहे थे। जब दाहिना हाथ थक जाता तो वे बाए हाथ से लिखने लगते थे और जब बायाँ हाथ थकता तो वे हाथ बदल लेते थे। हिन्द स्वराज अहिंसा के रास्ते आज़ादी पाने का गांधीजी का मौलिक घोषणा पत्र था। स्वराज का मतलब उनके लिए पश्चिमी सभ्यता से आज़ादी थी, जिसे वे ‘हिन्द स्वराज’ में शैतानी सभ्यता कहते हैं। और उनका निष्कंप निष्कर्ष यह बना कि ऐसी आज़ादी अहिंसा के रास्ते ही संभव है।

‘हिंद स्वराज’, में जगह जगह बिखरे मोतियों मे से कुछ मोती मैं लिखता हूँ, जो हमें यह बताने पर्याप्त हैं कि इस महामानव के विचार आज से 110 वर्ष पूर्व कैसे थे।

“ मेरे विचार सब लोग तुरंत मान लें ऐसी आशा मैं नहीं रखता। मेरा फर्ज इतना ही है कि आपके जैसे लोग जो मेरे विचारों को जानना चाहते हैं, उनके सामने अपने विचार रख दूं। यह विचार उन्हें पसंद आयेंगे या नहीं आयेंगे, यह तो समय बीतने पर ही मालूम होगा।“

“हिन्दुस्तान की सभ्यता का झुकाव नीति को मजबूत करने की ओर है; पश्चिमी सभ्यता का झुकाव अनीति को मजबूत करने की ओर है, इसलिए मैंने उसे हानिकारक कहा। पश्चिम की सभ्यता निरीश्वरवादी है, हिन्दुस्तान की सभ्यता ईश्वर में मानने वाली है।“

“ अंग्रेज जैसे डरपोक प्रजा हैं वैसे बहादुर भी हैं। गोला बारूद का असर उनपर तुरंत होता है, ऐसा मैं मानता हूँ। संभव है, लार्ड मार्ले ने हमें जो कुछ दिया वह डर से दिया हो। लेकिन डर से मिली हुई चीज जबतक डर बना रहता है तभी तक टिक सकती है।“

“ अच्छे नतीजे लाने के लिए अच्छे ही साधन चाहिए। और नहीं तो ज्यादातर मामलों में हथियार बल से दयाबल ज्यादा ताकतवर साबित होता है। हथियार में हानि है, दया में कभी नहीं।“

“अर्जी के पीछे के बल को चाहे दयाबल कहें, चाहे आत्मबल कहें, या सत्याग्रह कहें। यह बल अविनाशी है और इस बल का उपयोग करने वाला अपनी हालत को बराबर समझता है। इसका समावेश हमारे बुजुर्गों ने ‘एक नहीं सब रोगों की दवा में किया है। यह बल जिसमे है उसका हथियार बल कुछ नहीं बिगाड़ सकता।“

“ हिंदुस्तान को असली रास्ते पर लाने के लिए हमें ही असली रास्ते पर आना होगा। बाकी करोड़ों लोग तो असली रास्ते पर ही हैं। उसमे सुधार बिगाड़, उन्नति, अवनति समय के अनुसार होते रहेंगे। पश्चिम की सभ्यता को निकाल बाहर करने की हमें कोशिश करनी चाहिए। दूसरा सब अपने आप ठीक हो जाएगा”

“ अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, राग, जुल्म वगैरा बढे हैं। अंग्रेजी शिक्षा पाए हुए लोगों ने प्रजा को ठगने में उसे परेशान करने में कुछ भी उठा नहीं रखा है।“

“अब ऊँची शिक्षा को लें। मैंने  भूगोल-विद्या सीखा,खगोल-विद्या सीखा, बीज गणित  भी मुझे आ गया, रेखागणित का ज्ञान भी मैंने हासिल किया भूगर्भ-विद्या को मैं पी गया। लेकिन उससे क्या? उससे मैंने अपना कौन सा भला किया? अपने आसपास के लोगों का क्या भला किया? किस मकसद से वह भला किया? किस मकसद से वह ज्ञान हासिल किया? उससे मुझे क्या फ़ायदा हुआ?”

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 21 – जिद्द ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी एक कविता  “जिद्द.  इस कविता को मैंने कई बार पढ़ा और जब भी पढ़ा तो  एक नए  सन्दर्भ में।  मुझे मेरी कविता “मैं मंच का नहीं मन का कवि  हूँ ” की बरबस याद आ गई।  यदि आप पुनः मेरी कविता के शीर्षक को पढ़ें तो कहने की आवश्यकता नहीं,  यह शीर्षक ही एक कविता है।  मैं कुछ कहूं इसके पूर्व यह कहना आवश्यक होगा कि अहंकार एवं स्वाभिमान में एक बारीक धागे सा अंतर होता है।  सुश्री प्रभा जी की कविता  “जिद्द” में मुझे दो तथ्यों ने प्रभावित किया। कविता में उन्होंने  जीवन की लड़ाई में सदैव सकारात्मक तथ्यों को स्वीकार किया है और नकारात्मक तथ्यों  को नकार दिया है। सदैव वही किया है, जो  हृदय ने  स्वाभिमान से स्वीकार किया है । अहंकार का उनके जीवन में कोई महत्व नहीं है।  सुश्री प्रभा जी की कवितायें इतनी हृदयस्पर्शी होती हैं कि- कलम उनकी सम्माननीय रचनाओं पर या तो लिखे बिना बढ़ नहीं पाती अथवा निःशब्द हो जाती हैं। सुश्री प्रभा जी की कलम को पुनः नमन।

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 21 ☆

☆ जिद्द 

 

ही जिद्दच तर होती,

जीवनाची प्रत्येक लढाई

जिंकण्याची!

हवे ते मिळविण्याची !

किती मिळाले, किती निसटले

आठवत नाही ….

पण आठवते,

अथांगतेचा तळ गाठल्याचे,

आकाशात मुक्त विहरल्याचेही !

 

कोण काय बोलले,

कोण काय म्हणाले, आठवत नाही….

पण किती तरी क्षण

कुणी कुणी—

डोक्यावर ताज ठेवल्याचे,

आठवतात, आठवत रहातात!

 

ती जिद्दच तर होती—

उंबरठ्याच्या बाहेर पडण्याची,

नको ते नाकारण्याची,

 

हातातली कांकणे,पायातली पैंजणे,

किणकिणत राहिली, छुमछुमत राहिली…

पण ही जिद्दच होती

‘माणूसपण’ जपण्याची,

‘स्व’त्व टिकवण्याची…

सारे पसारे मांडून,

सम्राज्ञी सारखं जगण्याची!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य # 19 – बेटियाँ…..☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  बेटियों पर आधारित एक भावपूर्ण रचना   “बेटियाँ…..। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 19☆

 

☆ बेटियाँ….. ☆  

 

है अनन्त आकाश बेटियां

उज्ज्वल प्रखर प्रकाश बेटियां

और धरा सी जीवनदायी

जीवन का मधुमास बेटियां।

 

बिटिया से घर-आंगन महके

बिटिया गौरैया सी चहके

सबको सुख पहुंचाती बिटिया

स्वयं वेदनाओं को सह के।

 

बिटिया दर्दों का मरहम है

सृष्टि की कृति सुंदरतम है

निश्छलता करुणा की मूरत

मोहक मीठी सी सरगम है।

 

बिटिया है पावन गीता सी

सहनशील है माँ सीता सी

नवदुर्गा का रूप बेटियाँ

निर्मल मन पावन सरिता सी।

 

बिटिया घर की फुलवारी है

बिटिया केशर की क्यारी है

चंदन की सुगंध है बिटिया

बिटिया शिशु की किलकारी है।

 

बिटिया है आँखों का पानी

कोयल की मोहक मृदु वाणी

बिटिया पहली किरण भोर की

गोधूलि बेला, सांझ सुहानी।

 

संस्कारों की खान बेटियां

दोनों कुल का मान बेटियां

जड़-चेतन सम्पूर्ण जगत का

ज्ञान ध्यान विज्ञान बेटियां।

 

बिटिया चिड़ियों का कलरव है

बिटिया जीवन का अनुभव है

माँ की ममता प्यार पिता का

बिटिया में सब कुछ सम्भव है।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ काव्य कुञ्ज – # 9 – फुलवारी की पुकार ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। अब आप प्रत्येक बुधवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज पढ़ सकेंगे । आज प्रस्तुत है उनकी नवसृजित कविता फुलवारी की पुकार

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज – # 9 ☆

☆  फुलवारी की पुकार

(विधा:मुक्तक कविता)

 

काश ! यह स्कूल उपवन होता,

बनते हम इसकी फुलवारी,

एक ही अर्ज है,

सुनो मन की बात अब हमारी।

 

बालवर्ग मिले दोस्त प्यारे,

ना थी कोई आपसी तकरार,

खेलते-कूदते बीत रहा था समय,

थी एक समय की गुहार,

चल आगे बढ़ प्यारे,

बहुत मिलेगा प्यार और कई फ़नकार

मुडकर ना देख पीछे,

देख आगे और जी ले दुनिया दुलारी,

सुन गुहार समय की,

बढ़ने को आगे हमने की तैयारी।

 

ककहरा से हुई शुरुआत,

फिर आई गणित की बारी,

रटना, याद करना, फिर पाठ पढ़ना,

लगने लगा भारी,

बस्ते के बोझ से,

बचपने की भूल रही है हँसी सारी, क्या करें

ना पढ़ना और ना ही हँसाना,

हुई अनचाही ऐसी लाचारी,

सिसकने-मुरझाने लगी है गुरूजी,

बचपने की आज यह फुलवारी।

 

आज हमें बचपन जीने दो,

मन आप विचारों से उड़ने दो,

कमल से बनती हैं तितलियाँ,

आप ही आप में,

सीखना, खेलना और गाना चाहती है

आप ही आप में,

बनाना चाहती हैं तितलियाँ जैसा

चाहे आप ही आप में,

हाल बहुत बुरा हैं गुरूजी,

दिमाग अब बंद, नहीं मिलती हलकारी।

 

बोझ बने जब पढाई,

फिर कैसे न होगी मन ही मन लड़ाई,

कहते हैं बच्चे फूल होते हैं,

पर क्या हुआ आज यह बेहाल,

बचपन छीना गया हमसे,

कैसे उभरे हम समय के ताल,

फिर से बचपन जीना चाहते है,

सुनाती है यह सारी फुलवारी,

गुरूजी, उजड़ने से पहले फिर एक बार,

खिलना चाहती है बचपन यह फुलवारी।

 

© मच्छिंद्र बापू भिसे

भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)

मोबाईल नं.:9730491952 / 9545840063

ई-मेल[email protected] , [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 14 ☆ पहचान ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “पहचान”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 14 ☆

☆ पहचान  

कभी महकती हूँ,

कभी चहकती हूँ;

एक दुनिया खोयी है,

एक दुनिया पायी है!

 

अँधेरे पीछे छूट रहे हैं,

खुशियों के झरने फूट रहे हैं;

कभी तन्हाई थी,

अभी रौशनाई है!

 

अमावस्या ढल रही है,

धूप निकल रही है;

आँखें बनी हैं महताब,

चाल में हैं कई आफताब!

 

ए साईं! तू ही है रखवाला!

ए मौला! इस  रूप में तू ने ही ढाला!

मेरी जब से खुद से पहचान हुई,

दुनिया लग रही है नई नई!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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