हिन्दी साहित्य ☆ डॉ मुक्ता ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆ डॉ सविता उपाध्याय

डॉ.  मुक्ता

( ई- अभिव्यक्ति का यह एक अभिनव प्रयास है।  इस श्रंखला के माध्यम से  हम हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकारों को सादर नमन करते हैं।

हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार जो आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं और जिन्होंनेअपना सारा जीवन साहित्य सेवा में लगा दिया तथा हमें हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं, उनके हम सदैव ऋणी रहेंगे । यदि हम उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को अपनी पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ी के साथ  डिजिटल एवं सोशल मीडिया पर साझा कर सकें तो  निश्चित ही ई- अभिव्यक्ति के माध्यम से चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद लेने जैसा क्षण होगा। वे  हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत भी हैं। इस पीढ़ी के साहित्यकारों को डिजिटल माध्यम में ससम्मान आपसे साझा करने के लिए ई- अभिव्यक्ति कटिबद्ध है एवं यह हमारा कर्तव्य भी है। इस प्रयास में हमने कुछ समय पूर्व आचार्य भगवत दुबे जी, डॉ राजकुमार ‘सुमित्र’ जीप्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘ विदग्ध’ जी,  श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी,  डॉ. रामवल्लभ आचार्य जी एवं श्री दिलीप भाटिया जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आलेख आपके लिए प्रस्तुत किया था जिसे आप निम्न  लिंक पर पढ़ सकते हैं : –

इस यज्ञ में आपका सहयोग अपेक्षित हैं। आपसे अनुरोध है कि कृपया आपके शहर के वरिष्ठतम साहित्यकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से हमारी एवं आने वाली पीढ़ियों को अवगत कराने में हमारी सहायता करें। हम यह स्तम्भ प्रत्येक रविवार को प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं। हमारा प्रयास रहेगा  कि – प्रत्येक रविवार को एक ऐसे ही ख्यातिलब्ध  वरिष्ठ साहित्यकार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से आपको परिचित करा सकें।

आपसे अनुरोध है कि ऐसी वरिष्ठतम पीढ़ी के अग्रज एवं मातृ-पितृतुल्य पीढ़ी के व्यक्तित्व एवम कृतित्व को सबसे साझा करने में हमें सहायता प्रदान करें।

(आज ससम्मान प्रस्तुत है वरिष्ठ  हिन्दी साहित्यकार  डॉ. मुक्ता जी  के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विमर्श  डॉ सविता उपाध्याय  जी  की कलम से।  हम डॉ सविता उपाध्याय जी के ह्रदय से आभारी हैं। आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर कई साहित्य मनीषियों ने अपनी लेखनी से सम्मान प्रदान किया है जिनमे डॉ मुक्ता का रचना संसार  – डॉ सुभाष रस्तोगी जी  तथा रानी झांसी जैसी नारीवाद की सर्जक डॉ मुक्ता – सुश्री सिमर सदोष जी की कृतियां प्रमुख है , जिन पर हम भविष्य में  चर्चा करने का प्रयास करेंगे।  बिना किसी अभिमान एवं सहज – सरल स्वभाव की  बहुमुखी प्रतिभा की  धनी डॉ मुक्ता जी को मैंने सदैव स्त्री शक्ति विमर्श की प्रणेता के रूप में पाया है। आपके  स्त्री पात्र हों या पुरुष पात्र दोनों वास्तविक जीवन से लिए हुए हैं। आपकी  लेखनी से  स्त्री विमर्श में स्त्री के सन्दर्भ में कुछ भी छूट पाना असंभव है। आप प्रत्येक पीढ़ी के लिए एक आदर्श हैं। )

सारस्वत परिचय

शिक्षा : कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से1971मे हिंदी साहित्य में एम•ए• तथा1975 में पंजाब विश्व- विद्यालय चंडीगढ़ से पीएच•डी•की डिग्री प्राप्त की।

व्यवसाय :1971से 2003 तक उच्चतर शिक्षा विभाग हरियाणा में प्रवक्ता तथा 2009 में प्राचार्य पद से सेवा-निवृत्त।

निदेशक,हरियाणा साहित्य अकादमी  (2009 से 2011)

निदेशक, हरियाणा ग्रंथ अकादमी पंचकूला (2011- नवम्बर 2014 )

सदस्य,केन्द्रीय साहित्य अकादमी ,नई दिल्ली ( 2013 से 2017)

साहित्य साधना : बचपन से अध्ययन व लेखन में रुचि तथा 1971 में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में कहानी व निबंध लेखन प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त।

उपलब्धियां : विशिष्ट हिंदी सेवाओं के निमित्त माननीय श्री प्रणव मुखर्जी,राष्ट्रपति भारत सरकार के कर-कमलों द्वारा सुब्रमण्यम भारती पुरस्कार से सम्मानित★ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जयंती समारोह तथा अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर उत्कृष्ट साहित्यिक व सामाजिक सेवाओं के निमित्त माननीय राज्यपाल श्री जगन्नाथ पहाड़िया,हरियाणा द्वारा सम्मानित★ हरि याणा साहित्य अकादमी के राज्यस्तरीय श्रेष्ठ महिला रचनाकार सम्मान से मुख्यमंत्री महोदय द्वाराअलंकृत ★ बेस्ट सिटीज़न ऑफ इंडिया अवॉर्ड★ साहित्य शिरोमणि की मानद उपाधि से अलंकृत★ इंटर- नेशनल विमेंस डे अवॉर्ड★ उदन्त मार्त्तण्ड सम्मान★ प्रज्ञा साहित्य सम्मान★ विश्ववारा सम्मान★ राज्य- स्तरीय और विश्व शिक्षक सम्मान★ राजीव गांधी एक्सीलेंस अवार्ड★ हिंदी भाषा भूषण सम्मान ★ राष्ट्रभाषा गौरव सम्मान★ साहित्य कौस्तुभ सम्मान ★ शिक्षा रतन पुरस्कार★ उदयभानु हंस कविता पुरस्कार★ महाराज कृष्ण जैन स्मृति सम्मान ★ 2007,2008, 2009 में समाजसेवी महिला सम्मान ★ हेल्र्दी युनिवर्स फाउंडेशन द्वारा वीमेंस अचीवर्स अवार्ड★ मां दरशी शिखर सम्मान★महिला गौरव पुरस्कार★ रानी लक्ष्मीबाई जनसेवा सम्मान★ नारी गौरव सम्मान ★सावित्री बाई फुल्ले अवार्ड★ नारी शक्ति सम्मान★साहित्य कौस्तुभ, साहित्य वाचस्पति व अंतर्राष्ट्रीय साहित्य वाचस्पति की मानद उपाधि से विभूषित★ साहित्य गौरवश्री सम्मान★ मानव गौरव सम्मान★ लघुकथा रतन सम्मान★ हिंदी रतन सम्मान★ विश्वकवि संत कबीर दास रतन अवॉर्ड  ★ लघुकथा शिरोमणि सम्मान★ लघुकथा रतन सम्मान★ साहित्य गौरव सम्मान★ कलमवीर सम्मान★ सदाबहार वृक्षमित्र सम्मान★ नारी गौरव सम्मान★ लघुकथा सेवी सम्मान★ महिला गौरव सम्मान★ बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान सम्मान★दैनिक जागरण, संस्कार शाला द्वारा सम्मान★ काव्यशाला सम्मान★इन्द्रप्रस्थ लिट्रेचर फेस्टिवल एवं विजयानी फाउंडेशन द्वारा विशेष सम्मान★ इन्डोगमा फिल्म फेस्टिवल पर आई• एफ• एफ• 2019 विशेष सम्मान।

हरियाणा ग्रंथ अकादमी की पत्रिका कथासमय (मासिक) तथा सप्तसिंधु त्रैमासिक) का तीन वर्ष तथा हरियाणा साहित्य अकादमी की पत्रिका हरिगंधा (मासिक) का दो वर्ष तक कुशल संपादन 

★दस रचनाओं पर लघु शोध प्रबंध स्वीकृत★दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा चेन्नई द्वारा मुक्ता के साहित्य में स्त्री विमर्श शोध-प्रबंध स्वीकृत★ दो विद्यार्थियों द्वारा शोध-प्रबंध लेखनाधीन ★ राजा राममोहन राय फाउंडेशन तथा केन्द्रीय हिंदी संस्थान द्वारा दस  रचनाएं अनुमोदित ★ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, आकाशवाणी, दूरदर्शन, राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों, काव्यगोष्ठियों व विचार-मंचों में सक्रिय प्रतिभागिता।

प्रकाशित रचनाएं…28 : ◆शब्द नहीं मिलते ◆अस्मिता ◆लफ़्ज़ों ने ज़ुबां खोली ◆अहसास चंद लम्हों का ◆एक आंसू ◆चक्रव्यूह में औरत  ◆एक नदी संवेदना की  ◆लम्हों की सौगा़त  ◆अंतर्मन का अहसास  ◆द्वीप अपने-अपने  ◆संवेदना के वातायन  ◆सुक़ून कहाँ  ◆सांसों की सरगम (काव्य-संग्रह)  ◆मुखरित संवेदनाएं  ◆आखिर कब तक  ◆कैसे टूटे मौन  ◆अंजुरी भर धूप ◆उजास की तलाश  ◆रेत होते रिश्ते  ◆बँटा हुआ आदमी◆ हाशिये के उस पार◆टुकड़ा-टुकड़ा ज़िन्दगी (लघुकथा-संग्रह)  ◆खामोशियों का सफ़र ◆अब और नहीं  ◆सच अपना अपना  ◆इन गलियारों में (कहानी -संग्रह)  ◆चिन्ता नहीं चिन्तन ◆परिदृश्य चिन्तन के  ◆चिन्तन के आयाम ◆वाट्सएप तेरे नाम (निबन्ध-संग्रह)…. ◆क्षितिज चिन्तन के (प्रकाशनाधीन )◆आधुनिक कविता में प्रकृति (समालोचना)◆ अकादमी की कथायात्रा कृति का संपादन ●अस्मिता व ●चिन्ता नहीं चिन्तन का पंजाबी और अंग्रेजी में अनुवाद। ◆ डा•मुक्ता का रचना संसार…. डा•सुभाष रस्तोगी द्वारा संपादित।

संप्रति : पूर्व निदेशक हरियाणा साहित्य अकादमी, स्वतंत्र लेखन।

☆ हिन्दी साहित्य – डॉ मुक्ता ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆

(संकलनकर्ता  –  डॉ सविता उपाध्याय )

हिन्दी साहित्य जगत में डॉ मुक्ता एक बहुचर्चित विश्वविख्यात शक्ति संपन्न लेखिकाओं में से एक हैं। आपने हिन्दी साहित्य की लगभग सभी विधाओं कविता कहानी उपन्यास साक्षात्कार आदि में रचना की है।

इस संदर्भ में सुभाष रस्तोगी द्वारा संपादित ‘डॉ मुक्ता का रचना संसार’ कार्य अभिनंदनीय है वंदननीय है। आपने डॉ मुक्ता के साहित्यिक संसार को संपादित कर महती कार्य किया है। इस पुस्तक को पढ़कर लगा कि यह एक अथाह सागर है जिसमें इतने मोती हैं कि जिसकी गणना नहीं की जा सकती। रस्तोगी जी ने आपके रचना संसार को मोतियों की माला की तरह पिरोकर पाठकों को हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर सौंप दी है।

आपकी सृजन यात्रा 2007 में प्रकाशित ‘शब्द नहीं मिलते’ से  आज तक अनवरत चल रही है। हिंदी की सभी विधाओं पर अपना अधिकार रखने वाली डॉ मुक्ता को कौन नहीं जानता आपके पास कवि हृदय भी है जो हिंदी साहित्य में आपकी एक अलग ही पहचान बनाता है। आप चिंता नहीं चिंतन करती हैं और इसी के फलस्वरूप आपके आलेख चर्चा का विषय रहे हैं। आपने हरियाणा साहित्य अकादमी के निदेशक के पद पर रहते हुए अकादमी की साहित्यिक पत्रिका ‘हरिगंधा’ के सम्पादन में अद्भुत योगदान देकर अपनी एक अलग पहचान बनायी है। आपने लीक से अलग हटकर ‘हरिगंधा’ में नवीन विषयों को समाहित कर विशेषांक सम्पादित किए हैं जो ऐतिहासिक धरोहर बन गए हैं  जिनमें महिला विशेषांक, लघु कथा विशेषांक, दोहा विशेषांक आदि उल्लेखनीय हैं। इसी के साथ, कहानी पत्रिका ‘कथा समय’ तथा शोध पत्रिका ‘सप्तसिंधु’ दोनों ही संग्रहणीय हैं। अब तक आपके 6 कविता संग्रह शब्द नहीं मिलते. अस्मिता, लफ्जों ने जुबां खोली. एहसास चन्द लम्हों का, एक आंसू आदि प्रकाशित हो चुके हैं। आपकी कविताओं में स्त्री की यातना. उसके संघर्ष. उसकी चेतना को साहित्य का आधार बनाया गया है। आपकी कविताएं स्त्री मुक्ति के लिए ज़द्र्दोज़हद करती कविताएँ हैं जो पुरुष के अधिनायक वादी वर्चस्व को चुनौती देती हैं। डॉ मुक्ता का मानना है की स्त्री व् पुरुष दोनों समाज की धुरी हैं और स्त्री को उसके हिस्से की धुप और छांव, आधी ज़मीन व् आधा आसमां मिलना ही चाहिए।

स्त्री विमर्श के तहत नारी संघर्ष चेतना और समाज के पुरुष वर्ग को चुनौति देती स्त्री आपके रचना कर्म को अलग पहचान देती है। आपने अपने साहित्य में परिवार की संरचना में बदलाव संबंधों में बदलाव स्त्रियों की स्थिति में बदलाव स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन स्त्रियों पर होने वाले अत्याचार परिवार में शारीरिक लैंगिक व मनोवैज्ञानिक अत्याचार हिंसा दहेज से जुड़ी समस्याएँ स्त्रियों पर दोहरा अत्याचार कन्या भ्रूण हत्या परिवार में स्त्रियों की शिक्षा एवं स्वास्थ्य की उपेक्षा विधवाओं का शोषण अल्पायु में विवाह पर्दा और घूँघट प्रथा आदि इन तमाम कठिनाइयों समस्याओं के बीच संघर्ष करती हुई स्त्री को आपने अपने साहित्य में चित्रित किया है।

शब्द नहीं मिलते  अस्मिता  लफ्जों ने जुबां खोली  अहसास चंद लम्हों का  एक आंसू  चक्रव्यूह में औरत कविता संग्रह बहुचर्चित रहे हैं। इतनी अधिक कविताओं की रचना करने के बावजूद सभी कविताओें की पृष्ठभूमि में भिन्नता अलग रोचकता अलग शैली का होना ही आपके लोकप्रिय होने का प्रमुख कारण रहा है। ‘शब्द नहीं मिलते’ काव्य संग्रह में 92 कविताएँ हैं जिनमें आस्था विश्वास, गुरु के प्रति समर्पण भाव. सच्चा गुरु ही ईश्वर अराधना के मार्ग में सहायक होता है. गुरु के शरण में जाने से ही मुक्ति का मन्त्र मिलता है. गुरु की कृपा से ही कवयित्री ने सत्य से साक्षात्कार किया है कि प्रभु का बसेरा कहीं बाहर नहीं वह हृदय के भीतर ही विराजमान है।

शब्द नहीं मिलते काव्य संग्रह की कविताएँ स्वयं से साक्षात्कार है और जिसका स्वयं से साक्षात्कार हो जाता है वह भौतिक सुख–सुविधाओं से परे एक अलग ही जहान का प्राणी बन जाता है।भक्ति रस में सराबोर मुक्ता जी की कविताएँ अन्तर्मन को छूकर गहरे अध्यात्म से परिचय करवाती हैं। अस्मिता काव्य संग्रह में चौहत्तर 74 कविताएं हैं जिनका केन्द्र बिन्दु नारी रही है। अहिल्या, गांधारी के उदाहरण देकर कुछ ऐसे साक्ष्य प्रस्तुत किए हैं जो नारी की अंतस्चेतना को झकझोर कर रख देता है। द्रोपदी मंथरा उर्मिला सीता सभी का उदाहरण देकर बताया गया है कि आदिकाल से ही स्त्री को त्यागने का काम पुरुषों द्वारा किया गया है

एक स्थान पर सीता कहती हैं–

हे राम तुम कहीं भी जा सकते हो

तुम्हें अग्नि परीक्षा नहीं देनी होगी

न ही मैं

तुम्हारा त्याग करुंगी

वह अधिकार तो

मिला है पुरुष को

नारी तो बंदिनी है

चाहे वह राम के राजमहल में

चाहे रावण की

अशोकवाटिका में

वह तो है चिरबंदिनी।

 

कितनी मार्मिक पंक्तियां हैं। आपने न केवल पद्य में वरन गद्य में भी अपना अधिकार सिद्ध किया है। विविध विषयों को लेकर आपने जहां काव्य संसार रचा है वहीं कथा के क्षेत्र में भी आपने विभिन्न पृष्ठभूमि को लेकर कथा साहित्य की रचना की है।

एक कथाकार के तौर यदि हम डॉ मुक्ता के लेखन की बात करें तो आपका हिन्दी साहित्य को महत्त्वपूर्ण व सराहनीय योगदान रहा है। आपने नारी मन में गहरे उतरकर उसकी संवेदना, यातना, संघर्ष, स्त्री की समस्याओं और सवालों से जुड़े अनेक प्रश्नों व अधिकारों को अपने साहित्य में उठाया है। आपके  स्त्री पात्र हों या पुरुष पात्र दोनों वास्तविक जीवन से लिए हुए हैं। आपने  उन्हें कल्पना के माध्यम से मनोबल प्रदानकर संघर्ष करते हुए दिखलाया है। आपने उनका कथाक्रम के अनुसार पुनर्सृजन भी किया है।

आपके अब तक चार कहानी संग्रह खामोशियों का सफर, अब और नहीं, सच अपना अपना, इन गलियारों में प्रकाशित हो चुके हैं। आपकी कहानियाँ गहरे प्रतिकार्थ की व्यंजना करती हैं। डॉ मुक्ता  ने स्त्री जीवन के सभी मर्मांतक पीड़ाओं को अन्तर्मन तक महसूस किया है और कहानी का कथ्य बनाया है।

स्त्री जीवन तो सदियों से दुखों और पीड़ाओं से भरा हुआ है। उसकी यह पीड़ा आज की नहीं बल्कि सदियों पुरानी है। लगातार स्त्री दुखों आपदाओं और मुसीबतों का सामना करती रही है। प्रत्येक काल में स्त्री को ही अग्नि परीक्षा देनी पड़े अब यह स्त्री बर्दाश्त नहीं करेगी। वह सीता मैय्या ही थीं जो परीक्षा पर परीक्षा देती चली गईं वह भी एक धोबी के कहने पर। आज की सीता जहाँ परीक्षा देने को तैयार है वहीं उससे पहले परीक्षा लेना भी जानती है। केवल स्त्री ही परीक्षा क्यों दे? कितने अपमान इस नारी जाति को सहने होंगे? कितना लांक्षित होना होगा?  स्त्री को पाप की खान नरक का द्वार माया और ठगनी के रूप में चिह्नित कर पुरुष समाज ने बहुत मजाक उड़ाया है।

डॉ मुक्ता ने अपनी कहानियों काश इंसान समझ पाता, अपना घर, अग्निपरीक्षा, अधूरा इंसान, रिश्तों का अहसास,  करवट तथा अपना आशियाँ में स्त्री यातना के विभिन्न पक्षों को उठाया है। लेकिन खास बात यह है कि इसके माध्यम से आपने नारियों के स्वतंत्र व्यक्तित्व और आत्मनिर्भरता को प्रमाणित करने का भी प्रयास किया है। आपके नारी पात्र पुरुष समाज के सारे अत्याचार सहने के बावजूद टूटते नहीं हार नहीं मानते। आपकी कहानियों के नारी पात्र अपने बलबूते पर जीवनभर संघर्ष करते नज़र आते हैं जीवन की कठिनाइयाँ भी उन्हें हरा नहीं पातीं। आपकी आक्रोश कहानी नारी सशक्तिकरण की अद्भुत कहानी है।

ढलती सांझ का दुख धरोहर मसान की डगर पर समझोता शायद वह कभी लौट आए आदि कहानियों में स्त्री यातना के भले ही विभिन्न संदर्भ हों लेकिन यह कहानियाँ यह सवाल उठाती हैं कि स्त्री को ससुराल के नाम पर जो घर मिलता है वह एक छलावा है।

यहाँ यदि हम स्त्री–पुरुष संबंधों की बात करें तो दोनों के बिना ही सृष्टि की कल्पना असंभव है। फिर न जाने क्यों किस बात की लड़ाई बरसों से चली आ रही है। स्त्री–पुरुष संबंध में स्त्री ग्रहण करने वाली प्राप्त करने वाली आत्मसात करने वाली और आत्मसात एवं ग्रहण के परिणामस्वरूप वृद्धि और रचना करने वाली है। वस्तुत स्त्रियों की गुलामी का सबसे बड़ा कारण धार्मिक सामाजिक मान्यताएँ और प्रथाएँ ही रहा है। इनके खिलाफ अभियान छेड़े बिना स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन लाना असंभव था। इसके लिए ही “वीमेन राइट्स” की बात कही गई। स्त्री पहले से ज्यादा सजग व चेतन हो गई है। पूर्वकाल में वह पुरुष के पद्चिह्नों पर चलने वाली थी किन्तु अब वह कदम से कदम मिलाकर एक साथ चलना चाहती है।

इस समाज में यह भ्रम फैला हुआ है। स्त्री विमर्श होना पुरुष विरोधी होना है किन्तु स्त्री तो बस अपने अधिकारों की माँग करती है पुरुष के समान प्रत्येक क्षेत्र में अपना समान अधिकार माँगती है। नियति के अनुसार अपने अधिकारों के लिए लड़ना गुनाह नहीं है क्योंकि अत्याचार करने से अत्याचार सहने वाला ज़्यादा गुनेहगार होता है।

मुक्ता जी की कथाओं में स्त्री पात्र संघर्षशील हैं आपकी नायिकाएं पुरुष वर्चस्व के कारण स्वयं को इस्तेमाल होने देने से इन्कार करती है और संस्कारों का मान करते हुए भी रूढ़ नैतिकता का विरोध करती है। उसका विश्वास है कि हमारे संस्कार हमारी मान्यताएँ जीवन को सही शक्ल देने के लिए हैं। जीवन को जीने की आकांक्षा जिस प्रकार पुरुष में है उस प्रकार स्त्री में भी है। दाम्पत्य संबंधों का सम्मान करते हुए वह अपने दायित्वों का निर्वाह करती है और अपनी अस्मिता का हनन नहीं होने देती। लेखिका की कहानियों में लिव इन रिलेशनशिप का कोई स्थान नहीं है। सकारात्मकता व मानवीय मूल्यों के प्रति अटूट निष्ठा आपके लेखन को शीर्ष तक पहुँचाती है।

आपने तथाकथित संस्कारशील घरों में घुटते दांपत्य और अस्तित्वहीनता की यंत्रणा सहती स्त्री के अंतद्र्वन्द्व को ही नहीं दर्शाया है बल्कि रूढ़ नैतिकता और पुरुष अहं का परीक्षण करती स्त्री की सहज जीवन जीने की आकांक्षा को नए अर्थों में दिखाने का भी प्रयास किया है।

आपकी टुकड़ा टुकड़ा जिंदगी शत शत नमन किसके लिए पटरियों पर दौड़ती जिंदगी तथा शशांक जैसी कहानियों में जहाँ स्त्री के आँसू स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं वहीं ओजस्विता से भरी हुई प्रत्येक स्थिति में पहाड़ की अचलता दिखाई पड़ती है। भले ही सूरज छिपकर थोड़ी देर अंधेरा फैला दे किन्तु अंधेरे के बाद प्रकाश की उम्मीद ही स्त्री को जीवंत बनाती है।

आपके स्त्री पात्र पुरुष को कहीं भी अस्वीकार नहीं करते बस बराबर में एक सम्मानपूर्ण जगह चाहते हैं। वस्तुत यही तो है स्त्री विमर्श। पुरुष विरोधी होना स्त्री विमर्श नहीं बल्कि समान अधिकारों समान दायित्वों का निर्वाह ही स्त्री विमर्श है जोकि मुक्ताजी के साहित्य में स्पष्ट दिखाई पड़ता है।

आपकी  स्त्रियाँ दुख व यंत्रणा सहती अपनी अस्मिता को बचाए हुए सदैव संघर्षशील हैं। आपने स्त्रियों के दुख को एक बड़े फलक पर उतारकर दुख निवारण हेतु नई दिशा प्रदान की है।

निष्कर्षत कहा जा सकता है कि मुक्ता जी गंभीर कलात्मक साहित्यिक दृष्टि से अत्यंत उत्कृष्ट साहित्य की रचना करने वाली लेखिका हैं। आपकी कहानियों में यथार्थता सादगी विचारमयी मर्मबेधी वेदनाएँ हैं। आपके कथानकों के पात्र यथार्थ की भूमि से लिए हुए इतने सहज निश्छल पारदर्शी हैं कि पाठक की अंतरात्मा को झकझोर देने की अद्भुत क्षमता रखते हैं। पाठक का उनके साथ स्वत ही तारतम्य स्थापित होता चला जाता है।

आपके कथानकों की भाषा वातावरण के अनुरूप अत्यंत हृदयस्पर्शी, सरल, सहज, आंचलिकता को लिए हुए कथा व स्थिति के अनुरूप गढ़ी गई है। आपने स्त्री विमर्श का ढिंढोरा न पीटकर अपनी कथानकों में स्त्री विमर्श के मूल तत्वों को मार्मिकता के साथ रेखांकित किया है। स्त्री स्वातंत्र्य की बातें आपने बहुत स्पष्ट व दृढ़ता के साथ कही हैं। आपके स्त्री पात्र सामाजिकÊ राजनीतिक विसंगतियों की कसौटी पर खरे उतरते हैं। आपके पात्र स्त्री के मानसिक पटल को प्रस्तुत करने का अद्भुत सामथ्र्य तो रखते ही हैं साथ ही परंपरागत रूढ़ियों–बंधनों से मुक्त होकर स्वनियंत्रण में रहने की सीख देते हुए भी नज़र आते हैं।

मुक्ता जी एक प्रतिबद्ध लेखिका हैं। शोषण, अत्याचार व अनाचार सहती स्त्रियों की पीड़ा को मरहम देना व समाज की प्रगति ही आपके लेखन का लक्ष्य रहा है। आपने विभिन्न कहानियों के माध्यम से स्त्री मुक्ति के प्रश्नों को उठाया है। आपके स्त्री पात्र समाज के लिए नई दिशा व नया मार्ग प्रशस्त करने वाले हैं।

आपके स्त्री पात्र अपने स्त्रीत्व पर गर्व करने वाले, स्वाभिमानी, संघर्षशील व ऐसी अपराजिताऐं हैं जो अंत तक संघर्ष करती रहती हैं। आपने अपनी भावनाओं विचारों व संवेदनाओं में बेहद ईमानदारी व पारदर्शिता का परिचय दिया है। इस प्रकार मुक्ताजी अपने जीवन के अनुभवों व साहित्य के द्वारा स्त्री मुक्ति का आख्यान रचती हैं।

डॉ सविता उपाध्याय 

साहित्यकार व समीक्षक, बी 1146 ग्राउंड फ्लोर इफको कॉलोनी गुरुग्राम, 9871899939

 

डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #27 – निष्कर्ष ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 27 ☆

☆ निष्कर्ष ☆

 

दूसरे के जागने-सोने, खाने-पीने, उठने-बैठने, हँसने-बोलने, यहाँ तक की चुप रहने में भी मीन-मेख निकालना, आदमी को एक तरह का विकृत सुख देता है। तुलनात्मक रूप से एक भयंकर प्रयोग बता रहा हूँ, विचार करना।

रात को बिस्तर पर हो, आँखों में नींद गहराने लगे तो कल्पना करना कि इस लोक की यह अंतिम नींद है। सुबह नींद नहीं खुलने वाली। …यह विचार मत करना कि तुम्हारे कंधे क्या-क्या काम हैं। तुम नहीं उठोगे तो जगत का क्रियाकलाप कैसे बाधित होगा। जगत के दृश्य-अदृश्य असंख्य सजीवों में से एक हो तुम। तुम्हारा होना, तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण हो सकता है पर जगत में तुम्हारी हैसियत दही में न दिखाई देनेवाले बैक्टीरिया से अधिक नहीं है। तुम नहीं उठोगे तो तुम्हारे सिवा किसी पर कोई दीर्घकालिक असर नहीं पड़ेगा।

तुम तो यह विचार करना कि क्या तुम्हारे होने से तुम्हारे सगे-सम्बंधी, तुम्हारे परिजन-कुटुंबीय, मित्र-परिचित, लेनदार-देनदार आनंदी और संतुष्ट हैं या नहीं। बिस्तर पर आने तक के समय का मन-ही-मन हिसाब करना। अपने शब्दों से किसी का मन दुखाया क्या, आचरण में सम्यकता का पालन हुआ क्या, लोभवश दूसरे के अधिकार का अतिक्रमण हुआ क्या, अहंकारवश ऊँच-नीच का भाव पनपा क्या..?… आदि-आदि..। हाँ आत्मा के आगे मन और आचरण को अनावृत्त कर अपने प्रश्नों की सूची तुम स्वयं तैयार कर सकते हो।

प्रश्नों की सूची टास्क नहीं है। प्रश्न तुम्हारे, उत्तर भी तुम्हारे। असली टास्क तो निष्कर्ष है। अपने उत्तर अपने ढंग व अपनी सुविधा से प्राप्त कर क्या तुम मुदित भाव से शांत और गहरी नींद लेने के लिए प्रस्तुत हो?

यदि हाँ तो यकीन मानना कि तुम इहलोक को पार कर गए हो।

सच बताना उठकर बैठ गए हो या निद्रा माई के आँचल में बेखटके सो रहे हो?

निष्कर्ष से अपनी स्थिति की मीमांसा स्वयं ही करना।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 30 ☆ व्यंग्य – अफसर के घर सत्यनारायण ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं।  कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. आज का व्यंग्य  है अफसर के घर सत्यनारायण ।  प्रिय प्रबुद्ध पाठकों , आप कहेंगे  कि  सत्यनारायण जी की कथा तो सबके यहाँ होती है, फिर अफसर के घर की कथा अलग कैसे ?  डॉ परिहार जी की पैनी व्यंग्य दृष्टि  से भला वे  पात्र कैसे बच सकते हैं जिनके ध्यान  का केंद्र कथा वाचक से अधिक कथा आयोजक हों।  अब जब भी आप कही कथा में  जायेंगे तो अपने आप इनमें से कोई न  कोई पात्र जरूर ढूंढ लेंगे। हास्य का पुट लिए ऐसे  मनोरंजक एवं सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 30 ☆

☆ व्यंग्य – अफसर के घर सत्यनारायण ☆

 

सज्जनो! आप जो इस भवन के सामने कारों का हुजूम देख रहे हैं सो यहाँ न तो कोई ब्याह- शादी है, न किसी मंत्री का भाषण हो रहा है। यह तो आयकर अधिकारी श्री दामले के यहाँ सत्यनारायण की कथा हो रही है और ये कारें उन व्यापारियों की हैं जो श्री दामले के अधिकार-क्षेत्र में आते हैं।

श्री दामले के घर में भक्तों की भीड़ प्रति क्षण बढ़ती नदी की तरह बढ़ रही है। ये वे भक्तगण  हैं जिनको आपने कभी किसी मन्दिर में नहीं देखा होगा, लेकिन आज इनकी भक्ति देखने से ताल्लुक रखती है।

सारे अतिथि इस कोशिश में हैं कि श्री दामले उनका चेहरा देख लें और उनकी उपस्थिति दर्ज हो जाए। इसलिए लोग पच्चीस पच्चीस गज से दामले जी की ओर नमस्कार मार रहे हैं। जिनकी आवाज़ अभी तक दामले साहब के कानों तक नहीं पहुँची वे नर्वस हैं। क्या करें?

भक्तों की पत्नियाँ श्रीमती दामले को घेरकर ऐसे बैठी हैं जैसे चन्द्रमा को घेरकर तारे। जो महिलाएँ श्रीमती दामले तक नहीं पहुँच पायी हैं उनके मुख मलिन हैं। उधर पंडित जी कथा पढ़ रहे हैं और इधर महिलाएँ श्रीमती दामले के रूप, उनकी साड़ी और आभूषणों की भूरि-भूरि प्रशंसा करने में व्यस्त हैं।

एक भक्त दामले जी के छोटे पुत्र को गोद में उठाकर बाहर घुमाने ले गया है। दूसरा उनके बड़े पुत्र को किराने की दूकान से टॉफी दिलाने ले गया है। ये सारे कृत्य उस कथा के ही अंग हैं जिसके हेतु ये श्रद्धालु यहाँ इकट्ठे हुए हैं।

भक्तों की भीड़ अपेक्षा से अधिक होने के कारण प्रसाद कम पड़ने की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। दामले साहब एक कार वाले भक्त की तरफ कुछ नोट बढ़ाकर कहते हैं, ‘लो भई, ज़रा मीठा मंगा लो।’  भक्त हाथ जोड़कर दुहरा हो जाता है, कहता है, ‘लज्जित मत कीजिए साहब। इस पुण्यकार्य में थोड़ा सा योगदान मेरा भी सही।’

और एक चमचमाती हुई कार बाज़ार की ओर बढ़ जाती है।

आरती हो रही है। सब भक्त आरती में शामिल होने के लिए कमरे में घुस आये हैं। सब एक दूसरे से ज़्यादा ज़ोर से आरती गाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि दामले जी का ध्यान उनकी तरफ आकर्षित हो। यह भी उपस्थिति दर्ज कराने का ही एक तरीका है। जिन्होंने जीवन में कभी आरती नहीं गायी वे भी आज मजबूरी में आरती गा रहे हैं। कर्कश स्वर मीठे स्वरों पर हावी हो रहे हैं। जो नहीं गा सकते वे फिल्म अभिनेताओं की तरह आरती के शब्दों पर मुँह चला रहे हैं।

आरती के बाद आरती की थाली नीचे रखी जाती है और भक्त लोग इच्छानुसार उसमें द्रव्य डालकर प्रणाम कर रहे हैं। एक अमीर भक्त हाथ में पाँच सौ का नोट लिये बौखलाया सा इधर उधर देख रहा है और कह रहा है, ‘थाली कहाँ है भाई?’  दरअसल थाली तो ठीक उसकी नाक के सामने है लेकिन अभी दामले साहब की नज़र उसके नोट पर नहीं पड़ी है। दामले साहब घूमकर  उसके नोट को देखते हैं और वह तुरन्त नोट को थाली में छोड़कर भक्तिपूर्वक प्रणाम करता है।

अब प्रसाद लेने के लिए ठेलमठेल हो रही है। भक्तों ने सुन रखा है कि प्रसाद ग्रहण न करने के कारण कलावती कन्या के पति की नाव अन्तर्ध्यान हो गयी थी और उनका सारा धन लता-पत्र में बदल गया था। शायद इसीलिए लोग प्रसाद के लिए आतुर हो रहे हैं।

दरअसल इन भक्तजनों को दामले साहब में ही भगवान के दर्शन हो रहे हैं। उनका प्रसाद अगर ग्रहण न किया तो पता नहीं वे कब इन भक्तजनों की नैया को डुबा दें या बड़ी मेहनत से कमाये हुए इनके काले धन को धूल-पत्थर बना दें। इसी भय से, हे सज्जनो, भक्तों की यह भीड़ प्रसाद प्राप्त करने के लिए संघर्षरत है।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 15 – कल, आज और कल ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी एक  भावप्रवण रचना कल, आज और कल अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 15 – विशाखा की नज़र से

☆ कल, आज और कल  ☆

 

रखते हैं तानों भरा तरकश हम अपनी पीठ पर

देते हैं उलाहनों भरा ताना अपने अतीत को

जो, आ लगता है वर्तमान में,

हो जाते हैं हम लहूलुहान ..

 

भविष्य को तकते, रखते है

उम्मीदों की रंग- बिरंगी थाल दहलीज़ पर

निगरानी में खुली रखतें हैं आँखे,

पर रंगों की उड़ती किरचों से हो जाती है आँखें रक्तिम …

 

कल और कल के बीच क्षणिक से “आज” में

झूलते हैं  दोलक की तरह

बजते, टकराते है अपनी ही चार दिवारी में

और,

काल बदल जाता है

इसी अंतराल में ।

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 4 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 4 – खुशियों भरे दिन ☆

(आपने अब तक पढ़ा – आपने पढा़ किसान परिवार में जन्मी दमयन्ती को माँ बाप के प्यार ने पगली नाम दे दिया। बचपन बीता, जवानी के दहलीज पर कदम रखते विवाह हुआ, उसकी सुहागरात नशे के चलते दर्द और पीड़ा की अनकही कहानी बन कर रह गई। अब आगे पढ़ें ——–)

इन्ही परिस्थितियों में संघर्ष करते करते पगली ने काफी समय ससुराल में गुजार दिया, उसका बचपन परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए युवावस्था के साथ समय के अंतराल में कहीं खो गया।

सुहागरात के दिन दोस्तों के साथ लगा नशे का चस्का पगली के पति तथा पगली के लिए अभिशाप सिद्ध हुआ था। नशा तो अब उसकी आदत बन चुकी थी। पगली जितना ही नशे को छुड़ाना चाहती वह उतना ही दीवाना होता चला गया। पगली को ससुराल आये काफी अरसा गुजर गया। वह युवावस्था पार कर प्रौढा़वस्था की दहलीज पर खड़ी थी, लेकिन अब भी उसका आंगन बच्चों की किलकारियों के लिए तरस रहा था। उसकी ममता निराशा के गर्त मे डूबी जा रही थी। उसके जीवन में एक खालीपन उभर आया था। सास-ससुर पोते पोतियों का मुंह देखने और उनके साथ खेलने की लालसा दिल में लिए ही स्वर्ग सिधार गये थे।

अब उसका अपने पति से मोह भंग हो चुका था। क्योंकि उसका पति कामचोर, ऐयाश एवम्ं जुआरी हो गया था। नशा और जुआ ही उसके जीवन का उद्देश्य बन कर रह गया था।  उसका ब्यक्तित्व बिखर चुका था।

यद्यपि उसका पति जब होश में होता तो उसे अपने कुकर्मो पर पश्चाताप भी होता। वह पगली के पैरों पर गिर कर क्षमा भी मांग लेता।  फिर कभी शराब न छूने की कसमें भी खाता। हर बार भोली भाली पगली पति के बाहों मे सिमट जाती। यह सोच कर कि वह जैसा भी है, है तो आखिर उसका पति ही।  वह  पगली को दिलोजान से चाहता भी था। वह उसके रूप सौन्दर्य का पुजारी था। ऐसा लगता जैसे प्रेम के कुछ पलों में वह अपना सारा प्यार पगली पर लुटा देना चाह रहा हो। यही वो पल होते जब पगली सारे गिले शिकवे भूल पति के साथ प्रेम के सागर में डूब जाती।

लेकिन अपनी आदतों के कारण जब उसका पति शराब के ठेके पर जाता तो अपनी सारी कसमें वादे भुला कर शराब पीने लगता और इंसान से हैवान बन पगली से पेश आता। सौतन शराब की पीड़ा इतना दुख दे जाती कि पगली आंसू भरे नेत्रों से भगवान की मूर्ति के समक्ष फूट फूट कर रो पड़ती।

अब माता पिता की मृत्यु के बाद उसका पति और स्वछंद हो गया था। पहले घर के जानवर बिके फिर, तन के गहने उसके बाद जमीन गिरवी पड़ती जा रही थी। संपन्नता की जगह विपन्नता ने डेरा डाल दिया था।

इन्ही परिस्थितियों में रहते, अचानक एक दिन पगली पर भगवान गोविन्द कृपालु हुए थे। सहसा उसे महसूस हुआ कि उसकी जिन्दगी में बहार आने वाली है।  खुशियों के पुष्प खिलने वाले हैं। उसके घर कोई नया मेहमान आने वाला है।  घर आने वाले बचपन के क्षणों की कल्पना कर मुस्कुरा उठी थी वह। उसका सारा दर्द सारी पीडा़ छू मंतर हो गई, सारे अवसाद के क्षण भूल कर पगली खुशियों के सागर में डूबती चली गई थी। ऐसा लगा था जैसे बहारों ने उसके घर में डेरा डाल दिया हो। जैसे धूप मे जलते पथिक को झुरमुटों की छांव मिल गई हो। खुशी के इन्ही पलों के साथ उसका समय कटता जा रहा था।

अब पगली का प्रसवकाल समीप था उसका पति उस दिन भरपूर पैग चढा़ गिरता पड़ता घर आया था, तथा टूटी चारपाई पर नशे में लेटा, उनींदी आखों से घर का भीतरी दृश्य देख रहा था।

लेकिन नशे की अधिकता उसके हाथ-पांव पर भारी पड़ रही थी।  वह उठ नही पा रहा था।  गहन अंधेरी रात का कुछ पहर बीतते बीतते पगली प्रसव पीड़ा से छटपटा उठी। उसकी चीखें सुनकर पड़ोसिने अपना पड़ोसी धर्म निभा रही थी। कोई दाइ बुलाने दौड़ा था, कोई पानी गर्म कर रहा था, कुछ बड़ी बूढ़ी महिलाए उसे धैर्य दिलासा दे  हिम्मत बंधा रही थी। उसका असहाय पति निर्निमेष निगाहों से अपना आंगन तक रहा था, जहां दर्द पीड़ा से छटपटाती पत्नी बिलख रही थी।  खुदगर्जी का शिकार उसका पति मन ही मन अपनी विवशता पर रोये जा रहा था।  इसी बीच दर्द और पीड़ा की अधिकता से पगली चीख पडी थी तथा उसका घर आंगन नवजात शिशु के रूदन से गूंज उठा। उसके आंगन में खुशियां ही खुशियां बिखर गई।  उसकी जीवन की डूबती नौका  को जीने का सहारा मिल गया था।  उसने अपनी आँखों में एक बार फिर नये सपने सजाये थे। अपनी गृहस्थी के घरौंदे को फिर से संवारने मे  जुट गई थी पगली। उसके जीवन से रूठे पल वापस आ गये थे।  उसने अपने बच्चे का नाम गौतम यानि (शान्ति का मसीहा) रखा था।

उसकी जीवन नौका को एक नया सहारा मिला था। उसने एक बार फिर निराश आंखों में नये सपने सजाये थे।  एक बार फिर वह सपने सजाने में जुट गई थी। उसके जीवन से रुठे खुशियों के पल वापस लौट आये थे।

 – अगले अंक में पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – भाग -5 – गौतम 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य ☆ दीपिका साहित्य # 5 ☆ सहेली ☆ सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

( हम आभारीसुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  के जिन्होंने ई- अभिव्यक्ति में अपना” साप्ताहिक स्तम्भ – दीपिका साहित्य” प्रारम्भ करने का हमारा आगरा स्वीकार किया।  आप मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह  “Sahyadri Echoes” में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्तुत है आपकी  पुरानी स्मृतियों को संजोती अतिसुन्दर कविता  सहेली । आप प्रत्येक रविवार को सुश्री दीपिका जी का साहित्य पढ़ सकेंगे।

☆ दीपिका साहित्य #5 ☆ सहेली ☆ 

 

आज तुम सयानी हो गयी ,

सब की आंखों की प्यारी हो गयी ,

बचपन बिताया साथ हमनें ,

अब वो बीते जमाने की कहानी हो गयी ,

खेले कूदे संग गली गलियारों में ,

अब वो सब परायी हो गयी,

कूदा-फांदी मस्ती-झगड़े के किस्से अपने ,

अब समझदारी में तब्दील हो गयी ,

पकड़म-पकड़ाई आधी नींद की जम्हाई,

सब अब यादों के पिटारा हो गयी ,

नए दोस्त बना लेने पर रूठना मनाना ,

वो छोटी नादानियाँ हंसी का पात्र हो गयी ,

खुश हैं आज बीते सुनहरे किस्से सोच कर  ,

खुश रहों सदा यही हमारी जुबानी हो गयी ,

आज तुम सयानी हो गयी ,

सब की आंखों की प्यारी हो गयी .

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 21 ☆ तब पता चला ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की पर्यावरण और मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण कविता  “तब पता चला”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 21 ☆

☆ तब पता चला

 

बड़ी सम्हाल से रखे हैं

अजीब से रिश्तें,

रेत से जब छूटने लगे,

तब पता चला।

 

जख्म किसी ने न देखा

कितना गहरा था ।

मरहम लगाने चले,

तब पता चला ।

 

दास्ताँ किसी ने न सुनी,

कितनी दर्दभरी थी।

कहते रात बीती,

तब पता चला ।

 

वजूद ही खो गया,

तनहा रहते रहते।

खत उसका आया,

तब पता चला ।

 

मंज़र जो मैंने देखा,

वह किसी ने न देखा।

दिल में छेद पाया,

तब पता चला ।

 

हसरतें तब न सुनी,

गुजर गए राह से ।

लोगों में चर्चा हुई,

तब पता चला ।

 

आहों में रात काटी,

नमी कम न हुई ।

हस्ती डूब गई,

तब पता चला ।

 

हसीन ख़्वाब टूटे,

रुख़सत जब हुए।

फारकत जब मिली

तब पता चला ।

 

© सुजाता काळे

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

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मराठी साहित्य – कादंबरी ☆ मित….. (भाग-2) ☆ श्री कपिल साहेबराव इंदवे

श्री कपिल साहेबराव इंदवे 

(युवा एवं उत्कृष्ठ कथाकार, कवि, लेखक श्री कपिल साहेबराव इंदवे जी का एक अपना अलग स्थान है. आपका एक काव्य संग्रह प्रकाशनधीन है. एक युवा लेखक  के रुप  में आप विविध सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के अतिरिक्त समय समय पर सामाजिक समस्याओं पर भी अपने स्वतंत्र मत रखने से पीछे नहीं हटते. हमें यह प्रसन्नता है कि श्री कपिल जी ने हमारे आग्रह पर उन्होंने अपना नवीन उपन्यास मित……” हमारे पाठकों के साथ साझा करना स्वीकार किया है। यह उपन्यास वर्तमान इंटरनेट के युग में सोशल मीडिया पर किसी भी अज्ञात व्यक्ति ( स्त्री/पुरुष) से मित्रता के परिणाम को उजागर करती है। अब आप प्रत्येक शनिवार इस उपन्यास की अगली कड़ियाँ पढ़ सकेंगे।) 

इस उपन्यास के सन्दर्भ में श्री कपिल जी के ही शब्दों में – “आजच्या आधुनिक काळात इंटरनेट मुळे जग जवळ आले आहे. अनेक सोशल मिडिया अॅप द्वारे अनोळखी लोकांशी गप्पा करणे, एकमेकांच्या सवयी, संस्कृती आदी जाणून घेणे. यात बुडालेल्या तरूण तरूणींचे याच माध्यमातून प्रेमसंबंध जुळतात. पण कोणी अनोळखी व्यक्तीवर विश्वास ठेवून झालेल्या या प्रेमाला किती यश येते. कि दगाफटका होतो. हे सांगणारी ‘मित’ नावाच्या स्वप्नवेड्या मुलाची ही कथा. ‘रिमझिम लवर’ नावाचं ते अकाउंट हे त्याने इंस्टाग्रामवर फोटो पाहिलेल्या मुलीचंच आहे. हे खात्री तर त्याला झाली. पण तिचं खरं नाव काय? ती कुठली? काय करते? यांसारखे अनेक प्रश्न त्याच्या मनात आहेत. त्याची उत्तरं तो जाणून घेण्यासाठी किती उत्साही आहे. हे पुढील भागात……”

☆ मित……  (भाग 2)☆

(मन प्रीतीने भरते आणि प्रेमाचा खेळ सुरू होतो. मग कधीकाळी उजाड वाटणारं रानही मग हिरवे गार मनमोहक वाटायला लागते. एक फोटो पाहून त्यावर भाळलेला मितवर त्याचा काय बदल होतोय……..)

फोटो पाहता त्याला कधी झोप लागली ते त्याला कळलेच नाही. रात्री उशीरापर्यंत तो जागा होता. आणि थंडीचे दिवस होते. म्हणून मित सकाळी उशीरापर्यंत झोपून राहीला. पहाटेची गुलाबी थंडीत त्याला झोपणयाचा अधिक मोह चढत होता. सकाळी फोन वाजला तेव्हा त्याला जाग आली. त्याने उशाखालून मोबाईल घातला आणि न पाहताच फोन उचलला आणि तसाच अर्ध झोपेत बोलायला लागला. समोरचा कणखर आवाज ऐकून त्याची झोपच उडाली. मित ” हो पप्पा मी बसतो गाडीत. सायंकाळपर्यंत पोहोचेन घरी ” आणि फोन ठेवला.

बाबांनी बोलावून घेतलं म्हणून मित घरी आला. सहा सात महिन्यानंतर तो घरी परतला होता. बाबांनी त्याला दहा -पंधरा दिवसांसाठी बोलावले होते. तसा मनमिळाऊ स्वभाव तर त्याचा होताच. पण मोठ्या शहरात शिकतो आणि उत्तम लिखाण करून ब-याच ठीकाणी त्याने बक्षिसे मिळविल्या कारणाने गावातली लोक त्याला विषेश आदराने बघायचे. त्याचं बोलणं एखाद्याला मोटिवेट करण्यासारखं असायचं. म्हणून कधी फोनवर तर कधी प्रत्यक्ष भेटून त्याची मित्रमंडळी त्यांच्याकडून कधी सल्ला तर कधी मार्गदर्शन घ्यायचे. गावात आल्यापासून त्याच्या भोवती मित्रमंडळ  असायचे. त्याला तशी क्रिकेटची ही भारी आवड होती. मित आला म्हणून सुमितने त्याला क्रिकेट खेळायला शाळेच्या मैदानावर बोलावले. खेळून झाल्यावर सर्व आपापल्या घरी परतले पण मित मात्र अजूनही तेथेच होता. शाळेच्या आवारात लावलेल्या झाडांजवळ जाऊन तो बालपणातल्या शाळेतल्या आठवणी जागा करू लागला. आणि एकटाच स्वतःशी हसत तर कधी गंभीर मुद्रेत तया झाडाचं आणि शाळेचं  निरीक्षण करू लागला. शेवटी तो एका निलगीरीच्या झाडाजवळ येऊन त्या झाडाला टेकून उभा राहिला. आणि गाणे गायला सुरवात केली. ” ऐ दिल तेरी मर्जी है क्या बता भी दे, खो ना जाऊ जूल्फो मे कही, बचा भी ले ” सुरेल अशा आवाजात तो हे गाणे गात होता. त्याचं आवडतं गाणं होतं म्हणून त्याने ते त्याच्या आवाजात रेकॉर्डही केलं होतं. बाजूलाच रस्त्यावरून जात असलेले रामदास अहिरेंनी ते सुर एकले. आणि त्यांच्याही नकळत त्यांचे पाय मित कडे वळले.

गाणं संपल्यावर त्याने डोळे उघडले. समोरचा अंधूक नजारा आणि डोळयात झालेला गारवा अनूभवून मित प्रसन्न झाला. त्याच्या चेह-यावर हलके स्मित आपसूकच पसरले. त्याचे गाणे एकून जणू वातावरणच रोमँटीक झाले होते. त्याने आजूबाजूला नजर फिरवली. तेव्हा समोर रामदासभाऊ दिसले. त्याने स्मित हसून त्यांना नमस्कार वजा मान हलवली.   “सुरेल गातोस तू. मन अगदी प्रफुल्लित करतोस बघ” असं  म्हणून रामदास भाऊंनी त्याच्या पाठीवर कौतुकाची थाप मारली. “धन्यवाद. पण तुमच्या एवढे नाही” रामदासभाऊ गावातले गीत गायन पार्टीचे संस्थापक होते. कोणाचाही घरी काही खास कार्यक्रम असला की रामदासभाऊ आणि पार्टीला हमखास बोलावणे असायचं. आणि रामभाऊही कसलीही अपेक्षा न ठेवता निस्वार्थपणे सहभागी होत. ” तुझ्या बाबांनी एकदा म्हटलं होतं. पण अपेक्षेपेक्षा अधिक गोड आवाज आहे तुझा आज रात्री छगन आबांच्या घरी गीत गायनाचा कार्यक्रम आहे. ये सहभागी व्हायला ” रामभाऊंनी जास्त न घुमवत सरळ विचारले. त्यानेही स्मित हास्य करत होकारार्थी मान हलवली. ” ये मग रात्री साडेनऊला ” आणि ते तिथून निघून गेले.

 ( क्रमशः )

© कपिल साहेबराव इंदवे

मा. मोहीदा त श ता. शहादा, जि. नंदुरबार, मो  9168471113

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य – # 23 – कर्म और फल ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “कर्म और फल।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 23 ☆

☆ कर्म और फल 

क्या आपको लगता है कि भगवान हनुमान बाली को नहीं मार सकते थे? हाँ वो बिल्कुल मार सकते थे। बजरंगबली से ज्यादा शक्तिशाली कौन है? लेकिन अगर भगवान हुनमान बाली को मारते तो उन्हें भी वृक्ष के पीछे छुपकर उसे मारना पड़ता और इस कर्म का परिणाम उन्हें अपने आने वाले जीवन में भुगतान करना पड़ता। लेकिन भगवान हनुमान के लिए कर्म के नियम के कानून की एक अलग योजना थी।  क्योंकि उन्हें लोगों को भक्ति (भगवान राम की भक्ति) सिखाने में सहायता करने के लिए अमर रहना था।तो या तो भगवान राम को या भगवान हनुमान को बाली को मारने की ज़िम्मेदारी लेनी थी और भगवान राम ने यह कार्य आपने हाथों से किया जिसके लिए उन्हें वृक्ष के पीछे से बाली को मारना पड़ा। भगवान राम ने इससे पहले और बाद में कभी भी कोई नियम नहीं तोड़ा था। यह कर्मों के कानून द्वारा पूर्व-नियोजित किया गया था कि भगवान राम इस अधिनियम को करेंगे क्योंकि उन्हें अपने शरीर को छोड़ना था।  उनके त्रेता युग के उद्देश्य को पूर्ण करने के बाद, लेकिन भगवान हनुमान के जन्म का उद्देश्य अनंत काल तक लोगों को अज्ञानता से भक्ति के ज्ञान तक मार्गदर्शन करना है। तो भगवान हनुमान को कर्मों के कानून से दूर रखा जाने की योजना पहले से ही तैयार थी।

त्रेता युग हिंदू मान्यताओं के अनुसार चार युगों में से एक युग है। त्रेता युग मानवकाल के द्वितीय युग को कहते हैं। इस युग में विष्णु के पाँचवे, छठे तथा सातवें अवतार प्रकट हुए थे। यह अवतार वामन, परशुराम और राम थे। यह मान्यता है कि इस युग में ॠषभ रूपी धर्म तीन पैरों में खड़े हुए थे। इससे पहले सतयुग में वह चारों पैरों में खड़े थे। इसके बाद द्वापर युग में वह दो पैरों में और आज के अनैतिक युग में, जिसे कलियुग कहते हैं, सिर्फ़ एक पैर पर ही खड़े हैं। यह काल भगवान राम के देहान्त से समाप्त होता है। त्रेतायुग 12,96000 वर्ष का था। ब्रह्मा का एक दिवस 10,000 भागों में बंटा होता है, जिसे चरण कहते हैं:

चारों युग

4 चरण (1,728,000 सौर वर्ष)       सत युग

3 चरण (1,296,000 सौर वर्ष)       त्रेता युग

2 चरण (864,000 सौर वर्ष)          द्वापर युग

1 चरण (432,000 सौर वर्ष)          कलि युग

यह चक्र ऐसे दोहराता रहता है, कि ब्रह्मा के एक दिवस में 1000 महायुग हो जाते हैं।

जब द्वापर युग में गंधमादन पर्वत पर महाबली भीम हनुमान जी से मिले तो हनुमान जी से कहा कि “हे पवन कुमार आप तो युगों से पृथ्वी पर निवास कर रहे हो।  आप महाज्ञान के भण्डार हो, बल बुधि में प्रवीण हो, कृपया आप मेरे गुरु बनकर मुझे शिष्य रूप में स्वीकार कर के मुझे ज्ञान की भिक्षा दीजिये”। भगवान हनुमान जी ने कहा “हे भीम सबसे पहले सतयुग आया उसमे जो कार्य मन में आता था वो कृत (पूरी )हो जाती थी  इसलिए इसे क्रेता युग (सत युग)कहते थे।  इसमें धर्म की कभी हानि नहीं होती थी उसके बाद त्रेता युग आया इस युग में यज्ञ करने की प्रवृति बन गयी थी । इसलिए इसे त्रेता युग कहते थे।  त्रेता युग में लोग कर्म करके कर्म फल प्राप्त करते थे।  हे भीम फिर द्वापर युग आया । इस युग में विदों के 4 भाग हो गये और लोग सत भ्रष्ट हो गए । धर्म के मार्ग से भटकने लगे अधर्म बढ़ने लगा। परन्तु, हे भीम अब जो युग आयेगा, वो है कलियुग। इस युग में धर्म ख़त्म हो जायेगा। मनुष्य को उसकी इच्छा के अनुसार फल नहीं मिलेगा। चारों और अधर्म ही अधर्म का साम्राज्य ही दिखाई देगा।”

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 27 ☆ स्त्री ब्रेल लिपि नहीं ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “स्त्री ब्रेल लिपि नहीं”.  डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक लेख जहाँ एक ओर स्त्री शक्ति की असीम  शक्तिशाली कल्पनाओं पर विमर्श करता है वहीँ दूसरी ओर पुरुषों को सचेत करता है कि स्त्री ब्रेल लिपि नहीं, जिसे स्पर्श द्वारा समझा जा सकता है। डॉ मुक्ता जी ने इस तथ्य के प्रत्येक पहलुओं पर विस्तृत चर्चा की है।  डॉ मुक्त जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )    

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 27 ☆

☆ स्त्री ब्रेल लिपि नहीं

सृष्टि की सुंदर व सर्वश्रेष्ठ रचना स्त्री, जिसे परमात्मा ने पूरे मनोयोग से बनाया… उसे सृष्टि रचना का दायित्व सौंपा तथा शिशु की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति का माध्यम बनाया। भ्रूण रूप में नौ माह तक उसकी रक्षा व पालन-पोषण एक अजूबे से कम नहीं है। शिशु के जन्म के पश्चात् मां के अमृत समान दूध की संकल्पना भी किसी आश्चर्य से कम नहीं है। मां का शिशु की गतिविधियों को देखकर, उसकी आवश्यकता व सुख-दु:ख की अनुभूति करना,उसकी की सुख-सुविधा के निमित्त स्वयं गीले में सोना व   उसे सूखे में सुलाना…उसे बोलना, चलना, पढ़ना- लिखना सिखलाना व  सुसंस्कारित करना…वास्तव में श्लाघनीय है, प्रशंसनीय है, अद्वितीय है, बेमिसाल है, जिसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। हां! इसके एवज़ में उसे प्राप्त होता है मातृत्व सुख जो किसी दिव्य व अलौकिक आनंद से कम नहीं है।
जयशंकर प्रसाद जी की कामायनी में मनु व श्रद्धा को सृष्टि-रचयिता स्वीकारा गया है…इस संदर्भ में अनेक पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। प्रलय के पश्चात् मनु व श्रद्धा का मिलन, एक-दूसरे के प्रति आकर्षण, वियोगावस्था में मनु व इड़ा का प्रेम व मिलन मानव को जन्म देता है और वे दोनों संसार रूपी सागर में डूबते-उतराते रहते हैं। अंत में इड़ा का मानव को सम्पूर्ण मानव बनाने के लिए श्रद्धा के पास ले जाना और उसे तीनों लोकों निर्वेद, दर्शन, रहस्य की यात्रा करवा कर जीने का सही अंदाज़ सिखलाना अलौकिक आनंद की प्रतीति कराता है, जो वास्तव में श्लाघनीय है, मननीय है। जीवन में सामंस्यता प्राप्त करने के लिए, जिस कर्म को आप करने जा रहे हैं, उसके बारे में पूरी जानकारी होना आवश्यक है, अन्यथा आप द्वारा किये गये कार्य से आपकी इच्छा कभी पूर्ण नहीं हो पाएगी…आपकी भटकन कभी समाप्त नहीं होगी और जीवन में समरसता नहीं आ पाएगी। कामायनी का जीवन-दर्शन मानवतावादी है और समरसता…आनंदोपलब्धि का प्रतीक है।
मुझे स्मरण हो रहा है वह उद्धरण… जब मानव को परमात्मा ने सृष्टि में जाने का फरमॉन सुनाया, तो उसने प्रश्न किया कि वे उसे अपने से दूर क्यों कर हैं…वहां उसका ख्याल कौन रखेगा? वह किसके सहारे ज़िंदा रहेगा? इस पर प्रभु ने उसे  समझाया कि मैं…. मां अथवा जननी  के रूप में सदैव तुम्हारे साथ रहूंगा अर्थात् संसार में मां से बढ़कर दूसरा कोई हितैषी नहीं और वह तुम्हें स्वयं से बढ़ कर प्यार करेगी… तुम्हारी अच्छे ढंग से परवरिश करेगी…तुम्हें किसी प्रकार का अभाव अनुभव नहीं होने देगी। सो!  सृष्टि-नियंता ने स्त्री-पुरूष को एक-दूसरे का पूरक बनाया है… एक के बिना दूसरा अस्तित्वहीन है, अधूरा है। वे गाड़ी के दो पहियों के समान हैं और उनका चोली-दामन का साथ है। इसमें जीवन का सार छिपा है कि मानव को पति-पत्नी के रूप में एक-दूसरे के सुख-दु:ख में साथ देना चाहिए… इसके लिए उन्होंने विवाह की व्यवस्था निर्धारित की, ताकि मानव मर्यादा में रहकर, घर-परिवार व समाज में स्नेह व सौहार्द उत्पन्न करे तथा अपने दायित्वों का बखूबी वहन करें। वास्तव में एक के अधिकार दूसरे के कर्त्तव्य होते हैं और कर्त्तव्यों की अनुपालना से, दूसरे के अधिकारों की रक्षा संभव है। दूसरे शब्दों में इसमें छिपा है… त्याग व समर्पण का भाव, जो पारिवारिक व सामाजिक सौहार्द का मूल है।
 परंतु आधुनिक युग में प्रेम, सौहार्द, सहनशीलता, त्याग, सहानुभूति व समर्पण आदि दैवीय भाव गुज़रे ज़माने की बातें लगती हैं…इनका सर्वथा अभाव है। रिश्तों की अहमियत रही नहीं और कोई भी संबंध पावन नहीं रहा। चारों ओर आपाधापी का वातावरण है और विश्वास का भाव नदारद है। हर इंसान स्वार्थ- पूर्ति और अधिकाधिक धन कमाने के लिये दूसरे को रौंदने व किसी के प्राण लेने में तनिक भी संकोच नहीं करता। वह मर्यादा व समस्त निर्धारित सीमाओं का अतिक्रमण कर गुज़रता है। जहां तक स्त्री का संबंध है, वह तो हजारों वर्ष से दोयम दर्जे की प्राणी समझी जाती है…हाड़-मांस की प्रतिमा, जिसके साथ पुरूष मनचाहा व्यवहार करने को स्वतंत्र है। वर्षों पूर्व उसे पांव की जूती स्वीकारा जाता था,जिसका कारण  था….उसे मंदबुद्धि अथवा बुद्धिहीन स्वीकारना।आज भी कहां अहमियत दी जाती है उसे…आज भी हर उस अपराध के लिए भी वह ही दोषी ठहरायी जाती है, जो उसने किया ही नहीं।
सो! अहंनिष्ठ पुरुष उसे मात्र वस्तु समझ, उस पर कभी भी, कहीं भी निशाना साध सकता है। अपनी वासना-पूर्ति के लिए उसका अपहरण कर, उसका शील-हरण कर सकता है, उससे दरिंदगी कर सबूत मिटाने के लिए उसके चेहरे पर पत्थरों से प्रहार  कर, उसके टुकड़े-टुकड़े कर, दूरस्थ किसी नाले या गटर में फेंक सकता है। आजकल एकतरफ़ा प्यार में  तेज़ाब का प्रयोग, उसे ज़िंदा जलाने में अक्सर किया जाने लगा है। हर दिन ऐसे हादसे सामने आ रहे हैं। उदाहरणत: हैदराबाद की प्रियंका, उन्नाव की दुष्कर्म पीड़िता, जिस पर रायबरेली जाते समय ज्वलनशील पदार्थ उंडेल दिया गया। बक्सर में भी ऐसे ही हादसे को अंजाम दिया गया। चार दिन में तीन निर्दोष युवतियां  उन सिरफिरों के वहशीपन का शिकार हुयीं और तीनों  इस जहान से रुख़्सत हो गयीं…. परंतु वे अपने पीछे अनगिनत प्रश्न छोड़ गयीं। आखिर कब तक चलता रहेगा यह सिलसिला? ऐसे जघन्य अपराधी कब तक छूटते रहेंगे और ऐसे हादसों को पुन:अंजाम देते रहेंगे?
प्रश्न उठता है, जिस पर चिंतन-मनन करने की आवश्यकता है…’ स्त्री कोई ब्रेल लिपि  नहीं, जिसे समझने के लिए स्पर्श की ज़रूरत पड़े। स्त्री तो संकेतिक भाषा है, जिसे समझने के लिए संवेदनाओं की ज़रूरत है। वह स्वभाव से ही छुई-मुई व कोमल  है, समझने के लिए स्पर्श की आवश्यकता नहीं है। वह तो छूने-मात्र से संकोच का अनुभव करती है,पल भर मुरझा जाती है। वह दया, करूणा व ममता का अथाह सागर है… जीवन-संगिनी है, हमसफ़र है, त्याग की प्रतिमा है और सेवा व समर्पण उसके मुख्य गुण हैं। बचपन से वृद्धावस्था तक वह दूसरों के लिए जीती है तथा उनकी खुशियों में अपना संसार देखती है…बलिहारी जाती है। बचपन में भाई-बहनों पर स्नेह लुटाती, घर के कामों में माता का हाथ बंटाती, भाई व पिता के सुरक्षा-दायरे में कब बड़ी हो जाती… जिसके उपरांत पिता के घर से विदा कर दी जाती है, जहां उसे पति व परिवारजनों की खुशी व सबकी आकांक्षाओं पर खरा उतरने के लिए अपने अरमानों का गला घोंटना पड़ता है। वह ता-उम्र अपने बच्चों के लिए पल-पल जीती, पल-पल मरती है और पति के हाथों हर दिन तिरस्कृत प्रताड़ित होती अपना जीवन बसर करती है…वृद्धावस्था में सब की उपेक्षा के दंश झेलती एक दिन दुनिया को अलविदा कह रुख़्सत हो जाती है।
यह है औरत की कहानी… परंतु आजकल 85% बालिकाएं अपनों द्वारा छली जाती हैं और उनकी गलत आदतों का शिकार होती हैं। बड़े होने पर मनचलों द्वारा उन्हें बीच राह रोक कर फब्तियां कसना, बसों आदि में गलत इशारे करना,उनके शरीर का स्पर्श करना, बेहूदगी करना, व्यंग्य-बाण चलाना … उनके विरोध करने पर अंजाम भुगतने को तैयार रहने की धमकी देना, उन्हें बीच बाज़ार बेइज़्ज़त व बेआबरू करना, सरे-आम अपहरण कर निर्जन स्थान पर ले जाकर उससे दुष्कर्म करना आदि आजकल सामान्य सी बात हो गई है। इसके साथ उनके साथ होने वाले भीषण व जघन्य हादसों का चित्रण हम पहले ही कर चुके हैं।
काश! हम बच्चों को अच्छे संस्कार दे पाते… प्रारंभ से बेटी-बेटे में अंतर न करते हुए, बेटों को अहमियत न देते, उन्हें बहन-बेटी के सम्मान करने का संदेश देते, आपदाग्रस्त हर व्यक्ति की सहायता करने का मानवतावादी पाठ पढ़ाते, रिश्तों की अहमियत समझाते, तो वे सामान्य इंसान बनते, जिनमें लेशमात्र भी अहंनिष्ठता का भाव नहीं  होता। उनका गृहस्थ जीवन सुखी होता। तलाक अर्थात् अवसाद के किस्से आम नहीं होते। हर तीसरे घर में तलाकशुदा लड़की माता-पिता के घर में बैठी दिखलायी न पड़ती। आज कल तो युवा पीढ़ी विवाह रूपी बंधन को नकारने लगी है और समाज में ‘तू नहीं और सही’ का प्रचलन बढ़ने लगा है, जिसका मुख्य कारण है…अहंनिष्ठता व सर्वश्रेष्ठता का भाव होना,भारतीय संस्कृति की अवहेलना करना व मानव-मूल्यों को नकारना।
वास्तव में अहं ही संघर्ष का मूल है, जिसके कारण दोनों ही समझौता नहीं करना चाहते और परिवार टूटने के कग़ार पर पहुंच जाते हैं। जीवन रूपी गाड़ी को सुचारू रूप से चलाने के लिए समर्पण व त्याग की आवश्यकता है। शायद! इसीलिए स्त्री को सांकेतिक भाषा की संज्ञा से अभिहित किया गया है… जैसे वह  बच्चे के मनोभावों व संकेतों को समझ, उसकी प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति करती है, वैसे ही उसे भी अपेक्षा रहती है कि कोई उसे समझे, जीवन में अहमियत दे और उसके अहसासों व जज़्बातों को अनुभव करे। वह अपनत्व चाहती है तथा उसे दरक़ार रहती है कि कोई उसकी भावनाओं की कद्र करे। वह केवल स्नेह की अपेक्षा करती है, जिसे पाने के लिए वह सर्वस्व समर्पित करने को तत्पर रहती है। उस मासूम को तो पिता के घर में ही यह अहसास दिला दिया जाता है कि वह घर उसका नहीं, वह यहां पराई है तथा पति का घर ही उसका अपना घर होगा। परंतु वहां भी सी•सी• टी• वी• कैमरे लगे होते हैं, जिनमें उसकी हर गतिविधि कैद होती रहती है और वह सब की उपेक्षा-अवहेलना की शिकार होती है। अंत में उसे पुत्र व पुत्रवधू के संकेतों को समझ, उनके आदेशों की अनुपालना करनी पड़ती है और उसकी तलाश का अंत इस जहान को अलविदा कहने के पश्चात् ही होता है।
अंत में मैं यह कहना चाहूंगी कि रिश्ते तभी मज़बूत होते हैं, जब हम उन्हें महसूसते हैं अर्थात् जब हम संवेदनशील होते हैं, एक-दूसरे के सुख-दु:ख को अनुभव करते हैं, तभी रिश्तों में प्रगाढ़ता आती है। औरत को समझने के लिए संकेतों अथवा संवेदन- शीलता की आवश्यकता होती है। जिस दिन हम यह सोच लेंगे कि हर इंसान में कमियां होती हैं। उसे उनके साथ स्वीकारने से ही ज़िंदगी में सुक़ून प्राप्त हो सकता है और वह  सुख-शांति से गुज़र सकती है। समाज में सौहार्द, समन्वय व सामंजस्यता और अपराध-मुक्त साम्राज्य की स्थापना हो सकती है।
सो! स्त्री ब्रेल लिपि नहीं, जिसे स्पर्श द्वारा समझा जा सकता है। वह वस्तु नहीं है, जिसे समझने के लिए उलट-फेर व उसकी चीर-फाड़ करना आवश्यक है। वह तो मात्र चिंगारी है, जो जंगलों को को जलाकर राख कर सकती है…उसके हृदय का लावा किसी भी पल फूट सकता है तथा सब कुछ तहस-नहस कर सकता है। इसलिए उसके धैर्य की परीक्षा मत लेना। वह केवल नारायणी ही नहीं, उसमें दुर्गा व काली की शक्तियां भी निहित हैं, जिन्हें यथा समय संचित कर वह पल भर में रक्तबीज जैसे शत्रुओं का मर्दन कर सकती है। इसलिए उसे गुप्त अबला व प्रसाद की श्रद्धा समझने की भूल मत करना। वह असीम- अनन्त साहस व विश्वास से आप्लावित है, जिसके शब्दकोष में असंभव शब्द नदारद है। इसलिए उसे छूने का साहस मत करना… वह सारी क़ायनात को जलाकर राख कर देगी और सृष्टि में हाहाकार मच जायेगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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