(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है नववर्ष एवं नवरात्रि के अवसर पर एक समसामयिक “भावना के दोहे “।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री संतोष नेमा जी के “संतोष के समसामयिक दोहे ”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं . )
(समाज , संस्कृति, साहित्य में ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले कविराज विजय यशवंत सातपुते जी की सोशल मीडिया की टेगलाइन “माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक अत्यंत भावपूर्ण कविता “राजमाता जिजाऊ “।)
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक लघुकथा “आ अब लौट चलें”। यह लघुकथा हमें जीवन के उस कटु सत्य से रूबरू कराती है जिसे हम जीवन की आपाधापी में मशगूल होकर भूल जाते हैं। फिर महामारी के प्रकोप से बच कर जो दुनिया दिखाई देती है वह इतनी बेहद खूबसूरत क्यों दिखाई देती है ? वैसे तो इसका उत्तर भी हमारे ही पास है। बस पहल भी हमें ही करनी होगी। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस बेहद खूबसूरत रचना रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 23 ☆
☆ लघुकथा – आ अब लौट चलें ☆
वही धरती, वही आसमान, वही सूरज, वही चाँद, हवा वही, इधर- उडते पक्षी भी वही, फिर क्यों लग रहा है कि कुछ तो अलग है ? आसमान कुछ ज़्यादा ही साफ दिख रहा है, सूरज देखो कैसे धीरे- धीरे आसमान में उग रहा है, नन्हें अंकुर सा, पक्षियों की आवाज कितनी मीठी है ? अरे ! ये कहाँ थे अब तक ? अहा ! कहाँ से आ गईं इतनी रंग – बिरंगी प्यारी चिडियाँ ? वह मन ही मन हँस पडा.
उत्तर भी खुद से ही मिला – सब यहीं था, मैं ही शायद आज देख रहा हूँ ये सब ! प्रकृति हमसे दूर होती है भला कभी ? पेड – पौधों पर रंग- बिरंगे सुंदर फूल रोज खिलते हैं, हम ही इनसे दूर रहते हैं ? जीवन की भाग – दौड में हम जीवन का आनंद उठाते कहाँ हैं ? बस भागम -भाग में लगे रहते हैं,कभी पैसे कमाने और कभी किसी पद को पाने की दौड, जिसका कोई अंत नहीं ? रुककर क्यों नहीं देखते धरती पर बिखरी अनोखी सुंदरता को ? वह सोच रहा था —–
-अरे हाँ, खुद को ही तो समझाना है, हंसते हुए एक चपत खुद को लगाई और फिर मानों मन के सारे धागे सुलझ गये. कोरोना के कारण 21 दिन घर में रहना अब उसे समस्या नहीं समाधान लग रहा था. बहुत कुछ पा लिया जीवन में, अब मौका मिला है धरती की सुंदरता देखने का, उसे जीने का —–
अगली अलसुबह वह चाय की चुस्कियों के साथ छत पर खडा पक्षियों से घिरा उन्हें दाना खिला रहा था. सूरज लुकाछिपी कर आकाश में लालिमा बिखेरने लगा था. उसके चेहरे पर ऐसी मुस्कान पहले कभी ना आई थी.
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का विचारणीय समसामयिक व्यंग्य “ जिसकी चिंता है, वह जनता कहाँ है !”। यह वास्तव में लोकतंत्र के ठगे हुए ‘मतदाता ‘के पर्यायवाची ‘जनता ‘ पर व्यंग्य है। सुना है कोई दल बदल नाम का कानून भी होता है ! श्री विवेक रंजन जी को इस सार्थक एवं विचारणीय व्यंग्य के लिए बधाई। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 39 ☆
☆ जिसकी चिंता है, वह जनता कहां है ! ☆
विधायक दर दर भटक रहे हैं, इस प्रदेश से उस प्रदेश पांच सितारा रिसार्ट में, घर परिवार से दूर मारे मारे फिर रहे हैं. सब कुछ बस जनता की चिंता में है. मान मनौअल चल रहा है. कोई भी मानने को तैयार ही नही है, न राज्यपाल, न विधानसभा के अध्यक्ष, न मुख्यमंत्री, न ही विपक्ष. सब अड़े हुये हैं. सबको बस जनता की चिंता है. मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच रहा है. विशेष वायुयानों से मंत्री संत्री एड्वोकेटस भागमभाग में लगे हुये हैं. पत्रकार अलग परेशान हैं एक साथ कई कई जगहों से लाईव कवरेज करना पड़ता है जनता के लिये. कोई भी सहिष्णुता का वह पाठ सुनने को तैयार ही नही है, जिसकी बदौलत महात्मा गांधी ने सुभाष चंद्र बोस को थोड़ी आंख क्या दिखाई वे पंडित नेहरू के पक्ष में जीत कर भी अध्यक्षता छोड़ चुप लगा कर बैठ गये थे. या सरदार पटेल ने सबके उनके पक्ष में होते हुये भी महात्मा गांधी की बात मानकर प्रधान मंत्री पद से अपनी उम्मीदवारी ही वापस ले ली थी. हमारे माननीय तो जिन्हा और नेहरू की तरह अड़े खड़े हैं. किसी को भी मानता न देख, जनता के जनता के द्वारा जनता के लिए सरकार के मूलाधार वोटर रामभरोसे ने सोचा क्यों न उस जनता को ही मना लिया जाये जिसकी चिंता में सारी आफत आई हुई है.
जनता की खोज में सबसे पहले रामभरोसे सीधे राजधानी जा पहुंचा. उसने अपनी समस्या टी वी चैनल “जनता की आवाज” के एक खोजी संवाददाता को बताई. रामभरोसे ने पूछा, भाई साहब मैं हमेशा आपका चैनल देखता रहता हूं मुझे बतलायें जनता कहां है ? उसने रामभरोसे को ऊपर से नीचे तक घूरा,उसकी अनुभवी नजरो ने उसमें टी आर पी तलाश की, जब उसे ज्यादा टीआरपी नजर नही आई तो वह मुंह बिचका कर चलता बना. जनता मिल ही नहीं रही थी. ढ़ूंढ़ते भटकते हलाकान होते रामभरोसे को भूख लग आई थी, उसकी नजर सामने होटल पर पड़ी, देखा ऊपर बोर्ड लगा था “जनता होटल”. खुशी से वह गदगद हो गया, उसने सोचा चलो वहीं भोजन करेंगे और जनता से मिलकर उसे मना लेंगे. जनता जरूर एडजस्ट कर लेगी और माननीयो का मान रह जायेगा, खतरे में पड़ा संविधान भी बच जावेगा. रामभरोसे होटल के भीतर लपका, बाहर ही भट्टी थी, जिस पर पूरी पारदर्शिता से तंदूरी रोटी पकाई जा रही थी,सब्जी फ्राई हो रही थी, और दाल में तड़का लगाया जा रहा था. बाजू में जनता होटल का पहलवाननुमा मालिक अपने कैश बाक्स को संभाले जमा हुआ था. टेबल पर आसीन होते ही कंधे पर गमछा डाले छोटू पानी के गिलास लिये प्रगट हुआ. रामभरोसे ने तंदूरी रोटी और दाल फ्राई का आर्डर दिया.पेट पूजा कर बिल देते हुये, होटल के मालिक से अपनी व्यथा बतलाई और पूछा भाई साहब जनता है कहां, जिसकी चिंता में सरकार ही अस्थिर हो गई है. पहलवान ने दो सौ के नोट से भोजन का बिल काटा और बचे हुये बीस रुपये लौटाते हुये रामभरोसे को अजीबोगरीब तरीके से देखा, फिर पूछा मतलब ? अपनी बात दोहराते हुये उसने जनता को मनाने के लिये फिर से जनता का पता पूछा. पहलवान हंसा. तभी एक अखबार का पत्रकार वहां आ पहुंचा, जनता होटल के मालिक ने अपनी जान छुड़ाते हुये रामभरोसे को उस पत्रकार के हवाले किया और कहा कि ये “हर खबर जनता की ” दैनिक समाचार पत्र के संपादक हैं, आप इनसे जनता का पता पूछ लीजिये. रामभरोसे ने भगवान को धन्यवाद दिया कि अब जब हर खबर जनता की के संपादक ही मिल गये हैं तब तो निश्चित ही जनता मिल ही जावेगी. किंतु संपादक जी ने गोल मोल बातें की, चाय पी और ” शेष अगले अंक में ” की तरह उठकर चलते बने.
रामभरोसे जनता के न मिलने से परेशान हो गया. उसे एक टेंट में चल रहे प्रवचन सुनाई दिये, गुरू जी भजन करवा रहे थे और लोग भक्ति भाव से झूम रहे थे. रामभरोसे को लगा गुरू जी बहुत ज्ञानी हैं वे अवश्य ही जनता को जानते होंगे. अतः वह वहां जा पहुंचा. कीर्तन खत्म हुआ, गुरूजी अपनी भगवा कार में रवाना होने को ही थे कि रामभरोसे सामने आ पहुंचा, और उसने गुरू जी को अपनी समस्या बताई, गुरूजी ने कार में बैठते हुये जबाब दिया “बेटा तू ही तो जनता है”. गुरूजी तो निकल लिये पर रामभरोसे सोच में पड़ा हुआ है, यदि मैं जनता हूं तो मुझे तो संविधान से कोई शिकायत नही है, अरे मैं तो वह चौपाई गुनगुनाता ही रहता हूं ” कोई नृप होय हमें का हानि, चेरी छोड़ न होईहें रानी “, कर्ज माफी हो न हो, कौन थानेदार हो, कौन कलेक्टर हो, मुआवजा मिले न मिले, मैं तो सब कुछ एडजस्ट कर ही रहा हूं फिर मेरे नाम पर यह फसाद क्यों ? रामभरोसे ने एक फिल्म देखी थी जिसमें हीरो का डबल रोल था एक गरीब, सहनशील तो दूसरा मक्कार, धोखेबाज, फरेबी.रामभरोसे को कुछ कुछ समझ आ रहा है कि जरूर यह कोई और ही जनता है जिसके लिए सारे डबल रोल का खेल चल रहा है.
(श्री सुजित कदम जी की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजित जी की कलम का जादू ही तो है! आज प्रस्तुत है उनके द्वारा श्री अनिल पाटील जी के काव्य संग्रह “थँक्यू बाप्पा ” का निष्पक्ष पुस्तक परिक्षण (पुस्तक समीक्षा )। आप प्रत्येक गुरुवार को श्री सुजित कदम जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं। )
☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #39☆
☆ वाचन संस्कृती विकसित करणारा नाविन्य पूर्ण कथासंग्रह – थॅक्यू बाप्पा ☆
मी काही फार मोठा समिक्षक वैगरे नाही. पण बर्याच ठिकाणी परीक्षण केल्याने वाचनाचा आस्वाद शोधक नजरेने घेण्याची सवय लागली. लेखक अनिल पाटील यांचा थॅक्यू बाप्पा हा कथासंग्रह माझ्या सारख्या चोखंदळ रसिकांच्या अपेक्षा आणि जिज्ञासा पूर्ण करणारा आहे.
चपराक प्रकाशनाने प्रकाशित केलेला एकशेवीस पानांचा हा कथासंग्रह मुखपृष्ठासह अतिशय सुंदर सजला आहे. विषयाचे वैविध्य, नाविन्यता, चतुरस्र, परखड, रास्त आणि कणखर मते मनोगतात वाचायला मिळाली. कौटुंबिक जीवनातील बारकावे हळुवारपणे टिपून घेत अनेक वैशिष्ट्य जोपासत हा संग्रह सजवला आहे. मनापासून भावलेले शब्द साध्या सोप्या भाषेत पण प्रभावी पणे या कथांनी व्यक्त केले आहेत
किल्लारी येथे झालेल्या भुकंपाच्या पार्श्वभूमीवर बेतलेली ही कथा संग्रहाचे मुख्य आकर्षण ठरली आहे. सामाजिक भान जपणारी आणि प्रखर वास्तव टिपणारी ही कथा संवेदनशील लेखनशैलीने परीपूर्ण झाली आहे. *भूकंपाच्या काळ्या ढगाला लागलेली रूपेरी कड* , प्रांतिक भाषेतील विशिष्ट संवाद शैली, वैयक्तिक दुःख विसरून नेमून दिलेल्या कामात एकरूप झालेला रामसिंग, ढिगा-यातून बचावलेली मुलगी पाहून भावविवश झालेला पिता, वाचकांना खिळवून ठेवणारे सशक्त कथानक यांनी पहिलीच कथा गणेशाचा आशिर्वाद मिळवून देते. आणि प्रत्येक कथा ताकदीने व्यक्त करण्याचा श्रीगणेशा करते. रसिकांची पसंती या पहिल्याच कथेने जोरदारपणे घेतली आहे. भूमिकन्या गेली हा शब्द काळजात घर करून राहिला. *सुख के क्षण प्रदान करने वाला सुखकर्ता हे शब्द प्रयोग चपखल ठरले आहेत* एका मुलीला आणि पालकांना मिळालेला निवारा रामसिंगच्या परीवाराचे दुःख हरण करणारा आहे. त्यामुळे या कथेचे शिर्षक साहित्यात एका विशिष्ट उंचीवर ही कथा घेऊन जाते. अनेक जाणिवा, नेणिवा आणि भावना यांचे उत्कट दर्शन या कथेच्या शब्द चित्रणातून झाले आहे.
प्रसिद्ध साहित्यिक प्रा. व .बा. बोधे यांची मार्गदर्शन करणारी विस्तृत प्रस्तावना संग्रहाची लोकप्रियता अधिक वाढवते. योग्य समिक्षण आणि परीक्षण सरांनी केले आहेच. संग्रहाचे अचूक विश्लेषण त्यांनी केले आहे.
मराठवाड्यातील खेड्यातला भुकंपग्रस्त राजू फलाट नंबर दहा ते कारगिल व्हाया इराॅस हे नाविन्य पूर्ण नाव कथेची उत्सुकता वाढवते. कलाटणी देणा-या अनेक घटना एकाच कथेचे गुंफण्याची कला नाविन्य पूर्ण वाटली. राजूचे बदलत जाणारे व्यक्ती मत्व , परीवर्तन आणि त्याचा होणारा सत्कार हा सर्व प्रवास रमणीय ठरला आहे. या सर्व प्रसंग चित्रणात वाचकांना खिळवून ठेवण्याचे सामर्थ्य आहे. अनेक छटा असलेली ही कथा खूप वेगळी आणि दमदार वाटली. लेखकाने केलेली नायकाची कानउघाडणी आणि त्यातून झालेले त्याचे परीवर्तन, भावनिक आंदोलने या कथेत खूपच भारदस्त पणे व्यक्त झाली आहेत. माणूस माणसाला बदलवू शकतो हा संदेश देणारी ही कथा खूप आवडली.
*सबाह अल खेर* ही कथा परदेशातील संस्कृतीचे दर्शन घडविणारी सक्षम प्रेमकथा. इराक मधील मिस स्वाद आणि स्टेशन मास्तर अमित यांची प्रेमकथा एका वेगळ्याच विश्वात घेऊन जाते. युद्धानंतरची इराकची परीस्थिती, रान हिरवे डोळे, लालचुटुक पातळ ओठ, अरेबिक शब्दांची तोंड ओळख, भारतीय संस्कृतीचा गोडवा आणि स्वतः विवाहित असुनही रंगत जाणारी प्रेमकथा, खूपच नाविन्य पूर्ण पद्धतीने हाताळली आहे.
*रूपाताई तुस्सी ग्रेट हो* ही रूपा आणि प्रकाश यांची कथा महापालिकेच्या भ्रष्ट कारभार उघड करणारी आहे. ललवाणी संकुलातील ही कथा सामाजिक आणि राजकीय हितसंबंधावर मार्मिक भाष्य करते. एक आघात करण्याची क्षमता या कथेच्या आशयात आहे. आशयघनता आणि समाज प्रबोधन करण्यात ही कथा यशस्वी ठरली आहे. संघर्ष आणि लढा यांचे यथार्थ वर्णन या कथेत केले आहे.
पाऊलवाट चुकलेल्या मुलाची *पुंडलिक वरदे हारी विठ्ठल* ही कथा असाच मनाला चटका लावून जाते. समीर आणि शबाना यांची प्रेमकथा एका वेगळ्या पार्श्वभूमीवरून हाताळली आहे. दहशतवादाचा धोका, इसिस चे मायाजाल, मुंबई मिशन ब्लास्ट चा गुन्हेगारी तडका देत कल्पना आणि वास्तवता यांच्या मिश्रणात ही कथा धार्मिक, कौटुंबिक, आणि सामाजिक बांधिलकी जपत आपला स्वतःचा ठसा उमटवून जाते.
झुकझुक झुकझुक आगीनगाडी,कश्या साठी पोटासाठी? वचन पूर्ती, थॅक्यू बाप्पा या सर्व कथा नव नवीन पद्धतीने साकार झाल्या आहेत. रेल्वेतील कामकाज विभागाचे बारकावे, रेल्वे विश्वातील प्रवास, या श्रेत्रातील सांकेतिक शब्द, आणि वैशिष्ट्य पूर्ण विदेशी भाषा या संग्रहातून या विविध कथाद्वारे पुढे आली आहे.
लेखकाची व्यक्ती गत भावनिक ,कल्पनारम्य आणि वैचारिक गुंतवणूक या लेखसंग्रहाचे आगळेवेगळे वैशिष्ट्य ठरली आहे. गणपती बाप्पाला पत्र लिहिणारी छोटीशी आरोही संपूर्ण कुटुंबाला पुर्ण पणे कसे सावरते हे शब्द कौशल्य अजमावण्या साठी हा कथासंग्रह पुन्हा पुन्हा वाचावा असा ठरला आहे. कथेची शिर्षक नेहमीच्या पेक्षा वेगळी असली तरी प्रत्येक कथेला अनुरूप ठरली आहे. त्यामुळे हा संग्रह दर्जेदार आणि वैविध्य पूर्ण साहित्य निर्मिती करणारा ठरला आहे. कथेच्या सर्व बारीक सारीक गोष्टी नाविन्यता जोपासत अनिलजी आपण आपले श्रेष्ठत्व सिद्ध केले आहे. रसिकांना खिळवून ठेवणारी शब्द शैली आणि विचारांची नवी दिशा देणारे कथाबीज आपण या संग्रहात खूप सुंदर रूजवले आहे. अनेक ठिकाणी केलेले निरिक्षण, वाचन व्यासंग, आणि शब्द सामर्थ्य यांनी समृद्ध झालेला थॅक्यू बाप्पा हा लेखन संग्रह मनोरंजनातून विचारांची देवाणघेवाण करणारा एक चिंतन शील कथा संग्रह आहे. वाचन संस्कृती विकसित करणारा नाविन्य पूर्ण कथासंग्रह म्हणून या संग्रहाचा आवर्जून उल्लेख करावा लागेल. खूप खूप गोष्टी या कथेतून लेखक म्हणून आपण रसिकांना दिल्या आहेत. रसिकांच्या उत्तम साहित्य वाचनाच्या अपेक्षा या संग्रहाने समर्थ पणे पूर्ण केल्या आहेत. या सर्व प्रवासात घनश्याम पाटील आणि चपराक परीवाराचे योगदानही तितकेच महत्त्वाचे आहे.
आपल्या पुढील यशस्वी वाट चालीस हार्दिक शुभेच्छा. आणि अतिशय वेगळा आणि दर्जेदार कथासंग्रह रसिकांना दिल्या बद्दल एक साहित्य रसिक म्हणून मनापासून थॅक्यू
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है उनकी एक व्यावहारिक लघुकथा “उन्माद ”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 41 ☆
☆ लघुकथा- उन्माद ☆
“हे माँ ! तूने सही कहा था. ये एक लाख रुपए तेरी बेटी की शादी के लिए रखे हैं. इसे खर्च मत कर. मगर मैं नहीं माना, माँ. मैंने तुझ से कहा था, “माँ ! मैं इस एक लाख रुपए से ऑटोरिक्शा खरीदूंगा. फिर देखना माँ. मैं शहर में इसे चला कर खूब पैसे कमाऊंगा.”
“तब माँ तूने कहा था, “शहर में जिस रफतार से पैसा आता है उसी रफ्तार से चला जाता है. बेटा तू यही रह. इस पूंजी से खेत खरीद कर खेती कर. हम जल्दी ही अपनी बिटिया की शादी कर देंगे. तब तू शहर चला जाना.”
“मगर माँ , मैं पागल था. तेरी बात नहीं मानी. ये देख ! उसी का नतीजा है”, कह कर वह फूट-फूट कर रोने लगा. लोग उसे पागल समझ कर उस से दूर भागने लगे.
वह अपने जलते हुए ऑटोरिक्शा की और देख कर चिल्लाया, “देख माँ ! यह ऑटोरिक्शा, उस की डिक्की में रखा ‘बैंक-बैलेंस’ और शादी के अरमान, एक शराबी की गलती की वजह से खाक हो गए.”
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को उनके “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं एक समसामयिक रचना “चटपटी चाट की तरह”.)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 20 ☆
☆ चटपटी चाट की तरह ☆
नित नए आविष्कार
करते चमत्कार
आदमी की तेज रफ्तार
घटता प्यार
कहीं धन की शक्ति अपार
तो कहीं गरीबी से चीत्कार
सर्वत्र कोरोना से हाहाकार
तो कहीं बढ़ते
आतंकियों के प्रहार
आदमी से आदमी
खाता खार
वायु में जहर
धरती में जहर
नदियों में कहर दर कहर
अग्नि
जल
आकाश में
में भी घुल गया
जहर ही जहर
बढ़ते धरती पर
कंक्रीट के जंगल
देते अमंगल
डराता
आनेवाला कल
घटता बल
रसातल में पहुँचता जल
आदमी की बढ़ती मनमानी
अपने प्रति
प्रकृति के प्रति
गढ़ी जा रहीं हैं
हर दिन नई कहानी
बढ़ता पशु पक्षियों पर
अत्याचार
बढ़ता मांसाहार
ला रहा है तबाही
कब तक बचोगे
कोरोना से
नए-नए कोरोना
पैदा होते रहेंगे
कलयुगी आहार-विहार
आचार-व्यवहार
ढाएगा नए नए जुल्म
ये
भविष्यवाणी
मैं नहीं कर रहा
बल्कि ये आत्मा है
कर रही
वक्त है बहुत कम
सुधर जाना
नहीं भारी कीमत चुकाना
कंक्रीट का जंगल
हरा भरा होगा
बस खाने के लिए
और जल नहीं होगा
होगी प्रदूषित हवा
होंगे वायरस ही वायरस
जो फेंफड़ों को
चाट जाएंगे
चटपटी चाट की तरह
डॉ राकेश चक्र ( एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)
(अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ “तन्मय साहित्य ” में प्रस्तुत है अग्रज डॉ सुरेश कुशवाहा जी के काव्य संग्रह “शेष कुशल है ” से एक अतिसुन्दर कविता “आमंत्रण……” । )
(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ “कवितेच्या प्रदेशात” में एक समसामयिक भावपूर्ण आलेख एवं कविता “कोरोना व्हायरस चे थैमान“ । मैं सुश्री प्रभा जी के विचारों से सहमत हूँ एवं सम्पूर्ण विश्व में शान्ति एवं मानवता के लिए रचित प्रार्थना का सर्वजन हिताय एवं सर्वजन सुखाय के सिद्धांत हेतु उनकी प्रार्थना में उनके साथ एक प्रार्थी हूँ । इस भावप्रवण अप्रतिम रचना एवं प्रार्थना के लिए उनको साधुवाद एवं उनकी लेखनी को सादर नमन ।
मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते हैं।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 42☆
☆ कोरोना व्हायरस चे थैमान ☆
चीन मध्ये निर्माण झालेल्या कोरोना नावाच्या विषाणू ची सगळ्या जगात दहशत निर्माण झाली आहे. या विषाणू ची बाधा म्हणजे “महामारी” असे दृश्य दिसतेय, पूर्वी “करोना” नावाची एक शूज कंपनी होती, या कंपनीची चप्पल वापरल्याचेही मला स्मरते आहे..आज एक मजेशीर विचार मनात आला, हा “क्राऊन” च्या आकाराचा विषाणू विधात्या च्या पायताणाखाली चिरडला जावा.हीच प्रार्थना!
या आपत्तीमुळे संपूर्ण मानवजात हादरली आहे.योग्य काळजी तर आपण घेतच आहोत, घरात रहातोय, घरातली सर्व कामं स्वतः करतोय, कौटुंबिक सलोखा राखतोय, प्रत्येकाला ही जाणीव आहेच, “जान है तो जहां है।”
आज चैत्र प्रतिपदेला माझी ही प्रार्थना सा-या विश्वा साठी—–