मराठी साहित्य – कविता ☆ केल्याने होतं आहे रे # 32– शतकोत्तर वाढदिवसाच्या शुभेच्छा ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है। आज प्रस्तुत है श्रीमती उर्मिला जी की पड़ोस में रहने वाली हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी की सदस्य के  102 वे  जन्मदिवस पर  शुभकामनाएं देती एक कविता  “शतकोत्तर वाढदिवसाच्या शुभेच्छा”। अंकों में 102 वर्ष हमारी पीढ़ी की  कल्पना के परे है। उनके ही शब्दों में  “आमच्या शेजारी रहाणाऱ्या  ‘आठल्यांच्या मम्मी ‘  यांच्या शतकोत्तर म्हणजे १०२ व्या वाढदिवसाची भेंट स्वरूप कविता।” उनकी मनोभावनाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है।  ऐसे सामाजिक / धार्मिक /पारिवारिक साहित्य की रचना करने वाली श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को सादर नमन। )

☆ केल्याने होतं आहे रे # 32 ☆

☆ शतकोत्तर वाढदिवसाच्या शुभेच्छा ☆ 

 

गोरा गोरा रंग,

ठेंगणा ठुसका बांधा !

 

तरतरीत नाक, सुंदर नाजूक देखण्या !

आमच्या आठल्यांच्या मम्मी !!

 

पेठेत आमच्या आहेत सर्वांनाच त्या परिचित !

घरी येवो कुणी,

अथवा भेटो रस्त्यात !

मधाळ हसून स्वागत

त्या करणार !

आवर्जून घरी बोलावणार !

न चुकता गोडाची वाटी हातात देणार !

घरच्या साऱ्यांची विचारपूस करणार !

वाटीतला खाऊ संपल्याबिगर,

त्या कुणालाही जिना नाही उतरु देणार !!

 

मृदू बोलायचे षट्कार अन्

मधुर हास्याचे चौकार मारत

त्यांनी शतक अन् दोन केली पूर्ण !

अगदी गोड बोलायचे आणि नेहमी शांत रहायचे

त्यांच्याकडे आहे एक नामी चूर्ण !!

 

आम्हा सर्वांना ते खायची आहे मनापासून इच्छा !

अन् शतकोत्तर वाढदिवसाच्या

मम्मींना खूप सुंदर शुभेच्छा !!

खूप सुंदर शुभेच्छा !!!

 

©️®️ उर्मिला इंगळे

सातारा

दिनांक : २५-४-२०

भ्रमण:9028815585

 

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 43 ☆ आइसोलेशन….प्रमुख ऊर्जा-स्त्रोत ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक आलेख आइसोलेशन….प्रमुख ऊर्जा-स्त्रोत जिसे चारु चिंतन की श्रेणी में रखा जाना चाहिए।  यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 43 ☆

☆ आइसोलेशन….प्रमुख ऊर्जा-स्त्रोत

 

‘ज़िंदगी कितनी ही बड़ी क्यों न हो, समय की बर्बादी से छोटी बनायी जा सकती है’  जॉनसन का यह कथन आलसी लोगों के लिए रामबाण है, जो अपना समय ऊल-ज़लूल बातों में नष्ट कर देते हैं; आज का काम कल पर टाल देते हैं, जबकि कल कभी आता नहीं। ‘जो भी है, बस यही एक पल है/ कर ले पूरी आरज़ू’ वक्त की ये पंक्तियां भी आज अथवा इसी पल की सार्थकता पर प्रकाश डालते हुए, अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने अथवा जीने का संदेश देती हैं। कबीरदास जी का यह दोहा ‘काल करे सो आज कर, आज करे सो अब/ पल में परलय होयगी,मूरख करेगा कब ‘ आज अर्थात् वर्तमान की महिमा को दर्शाते हुए सचेत करते हैं कि ‘कल कभी आने वाला नहीं और कौन जानता है, कौन सा पल आखिरी पल बन जाए और सृष्टि में प्रलय आ जाए। चारवॉक दर्शन का संदेश ‘खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ’ आज की युवा-पीढ़ी के जीवन का लक्ष्य बन गया है। इसीलिए वे आज ही अपनी हर तमन्ना पूरी कर लेना चाहते हैं। कल अनिश्चित है और किसने देखा है? इसलिए वे भविष्य की चिंता नहीं करते; हर सुख को इसी पल भोग लेना चाहते हैं। वैसे तो ठीक से पता नहीं कि अगली सांस आए या नहीं। सो! कल के बारे में सोचना, कल की प्रतीक्षा करना और सपनों के महल बनाने का औचित्य नहीं है।

ऐसी विचारधारा के लोगों का आस्तिकता से कोसों दूर का नाता होता है। वे ईश्वर की सत्ता व अस्तित्व को नहीं स्वीकारते तथा अपनी ‘मैं’ अथवा अहं में मस्त रहते हैं। उनकी यही अहं अथवा सर्वश्रेष्ठता की भावना उन्हें सबसे दूर ले जाती है तथा आत्मकेंद्रित कर देती है। वास्तव में एकांतवास अथवा आइसोलेशन–कारण भले ही कोरोना ही क्यों न हो।

कोरोना वायरस ने भले ही पूरे विश्व में तहलक़ा मचा रखा है, परंतु उसने हमें अपने घर की चारदीवारी में, अपने प्रियजनों के सानिध्य में रहने और बच्चों के साथ मान-मनुहार करने का अवसर प्रदान किया …अक्सर लोगों को वह भी पसंद नहीं आया। मौन एकांत का जनक है, जो हमें आत्मावलोकन का अवसर प्रदान करता है और सृष्टि के विभिन्न रहस्यों को उजागर करता है। सो! एकांतवास की अवधि में हम आत्मचिंतन कर, ख़ुद से मुलाकात कर सकते हैं, जो जीवन में असफलता व तनाव से बचने के लिए ज़रूरी है। इतना ही नहीं, यह स्वर्णिम अवसर है; अपनों के साथ रहकर समय बिताने का, ग़िले- शिक़वे मिटाने का, ख़ुद में ख़ुद को तलाशने का, मन के भटकाव को मिटा कर, अंतर्मन में प्रभु के दर्शन पाने का। सो! एकांत वह सकारात्मक भाव है, जो हमारे अवचेतन मन को जाग्रत कर, सर्वश्रेष्ठ को बाहर लाने अथवा अभिव्यक्ति प्रदान करने में सहायक सिद्ध होता है। आपाधापी भरे आधुनिक युग में रिश्तों में खटास व अविश्वास से उपजा अजनबीपन का अहसास मानव को अलगाव की स्थिति तक पहुंचाने का एकमात्र कारक है और व्यक्ति उस मानसिक प्रदूषण अर्थात् चिंता, तनाव व अवसाद की ऊहापोह से बाहर आना चाहता है।

जब व्यक्ति एकांतवास में होता है, जीवन की विभिन्न घटनाएं मानस-पटल पर सिनेमा की रील की भांति आती-जाती रहती हैं और वह सुख-दु:ख की मन:स्थिति में डूबता-उतराता रहता है। इस मनोदशा से उबरने का साधन है एकांत, जिसका प्रमाण हैं– लेखक, गायक और प्रेरक वक्ता विली जोली, जो 1989 में न्यूज़ रूम कैफ़े में अपना कार्यक्रम पेश किया करते थे। उनकी लाजवाब प्रस्तुति के लिए उन्हें अनगिनत पुरस्कारों व सम्मानों से नवाज़ा गया था। परंतु मालिक के छंटनी के निर्णय ने उन्हें आकाश से धरा पर ला पटका और उन्होंने कुछ दिन एकांत अर्थात् आइसोलेशन में रहने का निर्णय कर लिया। एक सप्ताह तक आइसोलेशन की स्थिति में रहने के पश्चात् उनकी ऊर्जा, एकाग्रता व कार्य- क्षमता में विचित्र-सी वृद्धि हुई। सो! उन्होंने अपनी शक्तियों को संचित कर, स्कूलों में प्रेरक भाषण देने प्रारंभ कर दिए और वे बहुत प्रसिद्ध हो गये। एक दिन लुइस ब्राउन ने उन्हें अपने साथ कार्यक्रम आयोजित करने को आमंत्रित किया,जिसने उनकी ज़िंदगी को ही बदल कर रख दिया। इससे उन्हें एक नई पहचान मिली, जिसका श्रेय वे क्लब-मालिक के साथ-साथ आइसोलेशन को भी देते हैं। इस स्थिति में वे गंभीरता से अपने अवगुणों व कमियों को जानने के पश्चात्, तनाव से मुक्ति प्राप्त कर सके। सो! एकांतवास द्वारा हम अपने हृदय की पीड़ा व दर्द को…अपनी आत्मचेतना को जाग्रत करने के पश्चात्, अदम्य साहस व शक्ति से सितारों में बदल सकते हैं अर्थात् अपने सपनों को साकार कर सकते हैं।

ब्रूसली के मतानुसार ग़लतियां हमेशा क्षमा की जा सकती हैं; यदि आपके पास उन्हें स्वीकारने का साहस है। दूसरे शब्दों में यह ही प्रायश्चित है। परंतु अपनी भूल को स्वीकारना दुनिया में सबसे कठिन कार्य है, क्योंकि हमारा अहं इसकी अनुमति प्रदान नहीं करता; हमारी राह में पर्वत की भांति अड़कर खड़ा हो जाता है। अब्दुल कलाम जी के मतानुसार ‘इंसान को कठिनाइयों की भी आवश्यकता होती है। सफलता का आनंद उठाने के लिए यह ज़रूरी और अकाट्य सत्य भी है कि यदि जीवन में कठिनाइयां, बाधाएं व आपदाएं न आएं, तो आप अपनी क्षमता से अवगत नहीं हो सकते।’ कहां जान पाते हो आप कि ‘मैं यह कर सकता हूं?’ सो! कृष्ण की बुआ  कुंती ने का कृष्ण से यह वरदान मांगना इस तथ्य की पुष्टि करता है कि ‘उसके जीवन में कष्ट आते रहें, ताकि प्रभु की स्मृति बनी रहे।’ मानव का स्वभाव है कि वह सुख में उसे कभी याद नहीं करता, बल्कि स्वयं को ख़ुदा अर्थात् विधाता समझ बैठता है। ‘सुख में सुमिरन सब करें, दु:ख में करे न कोई /जो सुख में सुमिरन करे, तो दु:ख काहे को होय’ अर्थात् सुख- दु:ख में प्रभु की सुधि बनी रहे, यही सफल जीवन का राज़ है। मुझे याद आ रहा है वह प्रसंग–जब एक राजा ने भाव-विभोर होकर संत से अनुरोध किया कि वे प्रसन्नता से उनकी मुराद पूरी करना चाहते हैं। संत ने उन्हें कृतज्ञता-पूर्वक मनचाहा देने को कहा और राजा ने राज्य देने की पेशकश की, जिस पर उन्होंने कहा –राज्य तो जनता का है, तुम केवल उसके संरक्षक हो। महल व सवारी भेंट-स्वरूप देने के अनुरोध पर संत ने उन्हें भी राज-काज चलाने की मात्र सुविधाएं बताया। तीसरे विकल्प में राजा ने देह-दान की अनुमति मांगी। परंतु संत ने उसे भी पत्नी व बच्चों की अमानत कह कर ठुकरा दिया। अंत में संत ने राजा को अहं त्यागने को कहा,क्योंकि वह सबसे सख्त बंधन होता है। सो! राजा को अहं त्याग करने के पश्चात् असीम शांति व अलौकिक आनंद की अनुभूति हुई।

अंतर्मन की शुद्धता व नाम-स्मरण ही कलयुग में पाप-कर्मों से मुक्ति पाने का साधन है। अंतस शुद्ध होगा, तो केवल पुण्य कर्म होंगे और पापों से मुक्ति मिल जाएगी। विकृत मन से अधर्म व पाप होंगे। हृदय की शुद्धता, प्रेम, करुणा व ध्यान से प्राप्त होती है… उसे पूजा-पाठ, तीर्थ-यात्रा व धर्म-शास्त्र के अध्ययन से पाना संभव नहीं है। सो! जहां अहं नहीं, वहां स्नेह, प्रेम, सौहार्द, करुणा व एकाग्रता का निवास होता है। आशा, विश्वास व निष्ठा जीवन का संबल हैं। तुलसीदास जी का ‘एक भरोसो,एक बल, एक आस विश्वास/ एक राम,घनश्याम हित चातक  तुलसीदास।’ आशा ही जीवन है। डूबते को तिनके का सहारा…घोर संकट में आशा की किरण, भले ही जुगनू के रूप में हो; उसका पथ-प्रदर्शन करती है; धैर्य बंधाती है; हृदय में आस जगाती है। ‘नर हो ना निराश करो मन को/ कुछ काम करो, कुछ काम करो’ मानव को निरंतर कर्मशीलता के साथ आशा का दामन थामे रखने का संदेश देता है…यदि एक द्वार बंद हो जाता है, तो किस्मत उसके सम्मुख दस द्वार खोल देती है। सो! उम्मीद जिजीविषा की सबसे बड़ी ताकत है। राबर्ट ब्रॉउनिंग का यह कथन ‘आई ऑलवेज रिमेन ए फॉइटर/ सो वन, फॉइट नन/ बैस्ट एंड द लॉस्ट।’ सो! उम्मीद का दीपक सदैव जलाए रखें। विनाश ही सृजन का मूल है। भूख, प्यास, निद्रा –आशा व विश्वास के सम्मुख नहीं ठहर सकतीं; वे मूल्यहीन हैं।

सो! आइसोलेशन मन की वह सकारात्मक सोच है, जिसमें मानव समस्याओं को नकार कर, स्वस्थ मन से चिंतन-मनन करता है। चिंता मन को आकुल- व्याकुल व  हैरान-परेशान करती है और चिंतन सकारात्मकता प्रदान करता है। चिंतन से मानव सर्वश्रेष्ठ को पा लेता है। राबर्ट हिल्येर के शब्दों में ‘यदि आप अपना सर्वश्रेष्ठ दे रहे हैं, तो आपके पास असफलता की चिंता करने का समय ही नहीं रहेगा।’ असफलता हमें चिंतन के अथाह सागर में अवगाहन करने को विवश कर देती है, तो सफलता चिंतन करने को, ताकि वह सफलता की अंतिम सीढ़ी पर पहुंच सके। सो! एकांतवास वरदान है, अभिशाप नहीं; इसे भरपूर जीएं, क्योंकि यह विद्वतजनों की बपौती है, जो केवल भाग्यशाली लोगों के हिस्से में ही आती है। इस लिए आइसोलेशन के अनमोल समय को अपना भाग्य कोसने व दूसरों की निंदा करने में नष्ट मत करो। जीवन में जब जो, जैसा मिले, उसमें संतोष पाना सीख लें, आप दुनिया के सबसे महान् सम्राट् बन जाओगे। जीवन में चिंता नहीं, चिंतन करो…यही सर्वोत्तम मार्ग है; उस सृष्टि-नियंता को पाने का; आत्मावलोकन कर विषम परिस्थितियों का धैर्यपूर्वक सामना कर, सर्वश्रेष्ठ दिखाने का। सो! हर पल का आनंद लो, क्योंकि गुज़रा समय कभी लौट कर नहीं आता…जिसके लिए अपेक्षित है; अहम् का त्याग;  अथवा अपनी ‘मैं’  को मारना। जब ‘मैं’… ‘हम’ में परिवर्तित हो जाता है, तो तुम अदृश्य हो जाता है। यही है अलौकिक आनंद की स्थिति; राग-द्वेष व स्व-पर से ऊपर उठने की मनोदशा, जहां केवल ‘तू ही तू’ अर्थात् सृष्टि के कण-कण में प्रभु ही नज़र आता है। सो! आइसोलेशन अथवा एकांत एक बहुमूल्य तोहफ़ा है… इसे अनमोल धरोहर-सम स्वीकारिए व सहेजिए तथा जीवन को उत्सव समझ, आत्मोन्नति हेतु हर लम्हे का भरपूर सदुपयोग कर, अलौकिक आनंद प्राप्त कीजिए।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिव्यक्ति # 16 ☆ व्यंग्य – स्विच ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा।  आज प्रस्तुत है मेरी एक समसामयिक व्यंग्य  “स्विच ”।  कल रात्रि लिखी यह रचना आप अवश्य पढ़िएगा । आखिर वह स्विच कौन सा है ? अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दीजिये और पसंद आये तो मित्रों से शेयर भी कीजियेगा । अच्छा लगेगा ।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 16

☆ व्यंग्य – स्विच ☆

आज के अखबार की हेडलाइन्स ने चौंका दिया ….. देश के सभी धार्मिक स्थल के भक्त-निवासों को अस्पताल के वार्ड में तब्दील करने का निर्णय ……  तालों में बंद ईश्वर की मौन अनुमति  ….. सभी देवी देवताओं और नेताओं की बड़ी-बड़ी मूर्तियों के दानदाताओं द्वारा उतनी ही या उससे अधिक राशि अस्पताल और जनसेवाओं के लिए दान में देने का निर्णय ……

बड़ा अजीब माहौल है …… कोई मेरी ओर देख ही नहीं रहा …… सब अपने आप में मशगूल हैं। मैं सोसायटी गेट से बाहर निकल रहा हूँ …… गार्ड रोकना चाह रहा है…… किन्तु, मैं अपने में ही मशगूल हूँ …… बाहर निकल गया हूँ …… सब कुछ शांत …… पूरी सड़क सुनसान …… सिर्फ दूध और दवा की दुकान खुली है और दारू की बन्द है ….. मुझे चिंता होने लगी है कि सरकार के आय का बड़ा स्रोत बन्द है तो जनता पर व्यय कैसे होगा ? ….. शायद दान से….. वेतन में कटौती से…… महंगाई भत्ते पर रोक से …… पर पेंशनरों का तो सहारा ही यही है ….. कम से कम पेंशनरों को तो बख्श देते ….. बुढ़ापे में ….. पेंशनरों की वित्तीय समस्या का निर्णय वो लोग क्यों लेते हैं जो स्वयं का वेतन स्वयं निर्धारित करते हैं …… पेंशनरों की समस्या का हल करने की समिति में कोई पेंशनर ही नहीं है …… समस्या कटौती की नहीं है  …… समस्या भविष्य की योजना की है …… कहते हैं बीमा करा लो …… राष्ट्र का बीमा क्यों नहीं ? …… सभी का स्वास्थ्य बीमा क्यों नहीं ?…… राष्ट्र का स्वास्थ्य बीमा क्यों नहीं ? …… हमारा पेंशन फंड है ……  राष्ट्र का पेंशन फंड क्यों नहीं?  ……

मैं दुबारा देखता हूँ …… मैंने सही देखा है दारू की दुकान बन्द है ……  सड़क के किनारे फिल्मों के पोस्टर गायब हैं ….. सारे शहर में डॉक्टर, नर्सों, सफाई कर्मियों, पुलिसवालों के मुस्कराते चेहरों वाले पोस्टर लगे हैं। बड़े बड़े नेताओं के पोस्टर लगे हैं ….. सब में एक कॉमन बात दिखाई दे रही है, सब पोस्टर में बड़े अक्षरों में लिखा है COVID-19 और सबने मास्क पहन रखा है…….

सारी की सारी सड़क साफ हो गई है …….. कहीं कोई कचरा नहीं ….. कोई प्लास्टिक बैग / पन्नियाँ नहीं ….. गैर पालतू जानवर आराम से घूम रहे हैं …… जरा भूखे जरूर लग रहे हैं ……  किन्तु, काटने नहीं दौड़ रहे ….. आज तालाब के किनारे वॉकिंग ट्रैक पर कोई वाक नहीं कर रहा ….. तालाब का पानी शीशे की तरह साफ कैसे हो गया?  …… कहीं धूल नहीं ….. हवा में प्रदूषण नहीं ….. ये क्या तालाब के किनारे मंदिर में बहुत बड़ा ताला लगा है ….. पुजारी का अता-पता नहीं है ….. तो पूजा कौन करता है? आगे अस्पताल खुला है ….. सब मुझे शक की नज़र से देख रहे हैं ….. जैसे गेट पर मेरी प्रतीक्षा के लिए हाथ में लेजर से बुखार नापने का यंत्र  लिए नर्स खड़ी है और कुछ नर्सिंग स्टाफ ….. उन्हें लगा मैं अंदर जाऊंगा ….. उन्हें अनदेखा कर आगे बढ़ता हूँ ….. तिरछी नजर से देखता हूँ ….. शायद वे निराश हो गए …..

आगे मॉल में एक मल्टीप्लेक्स है ….. बाहर बहुत बड़ा पोस्टर लगा है ….. पूरे पोस्टर पर लिखा है COVID-19 ….  शायद साइंटिफिक फंतासी फिल्म हो ….. सोचता हूँ देख ही लूँ …… मॉल में इक्का दुक्का लोग घूम रहे हैं ….. दुकानें बन्द हैं ….. मल्टीप्लेक्स खुले हैं ….. सीधे सिनेमा हाल के गेट तक पहुँच जाता हूँ ….. कोई रोकता क्यों नहीं ? ….. सिनेमा हाल में चला जाता हूँ ….. शायद फिल्म शुरू हो गई है….. अंधेरे में खाली सीट टटोलते हुए एक किनारे की खाली सीट पर बैठ जाता हूँ ….. फिल्म शुरू हो चुकी है ….. विदेश का कोई शहर है ….. अफरा तफरी मची हुई है ….. शायद कोई महामारी फैल रही है….. बीच बीच में कोई वाइरस पूरे स्क्रीन पर उछल कूद मचाते रहता है ….. लोग एक दूसरे से हाथ मिला रहे हैं ….. गले लग रहे हैं ….. फ्लाइट पकड़ कर दूसरे देश जा रहे हैं ….. खुद भी बीमार हो रहे हैं ….. औरों को भी बीमार कर रहे हैं ….. अब तो मौतें भी हो रही हैं …..

अचानक स्क्रीन पर आंकड़े आने लग गए …..पहले विदेशों के ….. फिर अपने देश के ….. आंकड़े बढ़ते ही जा रहे हैं ….. अचानक जाना माना टी वी एंकर स्क्रीन पर आ गया ….. एक एक कर वक्ता आने लगे ….. बहस चालू हो गई ….. अरे! ये फिल्म में टी वी एंकर कैसे घुस गया ….. यहाँ भी टी आर पी ….. हाल में रोशनी बढ़ने लगी ….. सबने मास्क लगा रखा था ….. दस्ताने पहन रखे थे …..

एंकर चीख चीख कर कह रहा था ….. अपनी सुरक्षा स्वयं करें ….. सार्वजनिक स्थानों पर मत जाएँ ….. मास्क पहन कर रहें ….. घर से बाहर न निकलें ….. घबरा कर उठ खड़ा होता हूँ ….. और अपने आपको बीच सड़क पर पाता हूँ …..आवाज एंकर की नहीं थी ….. पुलिसवाले अपनी गाड़ी में माइक पर चीख चीख कर कह रहे थे ….. लॉक डाउन में घर से बाहर न निकलें ….. सरकारी नियमों का कड़ाई से पालन करें …..अचानक पुलिस मुझे घेर लेती है ….. मैं बेतहाशा भागने लगता हूँ ….. तेज …..और तेज …..इतना तेज कि जिंदगी में नहीं दौड़ा …..पुलिस के बूटों की आवाज कम होने लगती है ….. पलट कर देखता हूँ ….. कोई भी नहीं ….. चैन की सांस लेता हूँ जैसे ही पलटता हूँ ….. ये क्या? ….. एक इंस्पेक्टर खड़ा है और कुछ पुलिस वाले….. पुलिस वाले जैसे ही डंडा उठाते हैं…..इंस्पेक्टर रोक देता है….. उम्र का लिहाज कर रहा हूँ ….. दुबारा नहीं छोडूंगा ….. हाथ जोड़ माफी मांग कर घर लौट आता हूँ …..

घर पर कोई नहीं दिखते ….. बाबूजी बहुत याद आ रहे हैं ….. सीधे उनके कमरे में जाता हूँ ….. बाबूजी खिड़की के किनारे अपनी कुर्सी पर बैठकर अपनी डायरी लिख रहे हैं ….. वे मेरी ओर नाराजगी से देखते हैं ….. शायद उन्हें मेरा बाहर जाना अच्छा नहीं लगा ….. उनके कदमों में बैठ कर पाँव पकड़ कर माफी मांगने लगता हूँ …..अरे ये क्या? बाबूजी तो हैं ही नहीं….. बाबूजी तो वास्तव में हैं ही नहीं….. तो वो कौन थे …..उठ कर देखता हूँ बाबूजी की डायरी वैसे ही खुली पड़ी है ….. बाजू में उनका चश्मा ….. और डायरी में कलम ….. पढ़ने की कोशिश करता हूँ ….. अपनी आदत के अनुसार एक लाइन छोड़ कर सुंदर हस्तलिपि में एक एक पंक्तियाँ ….. पढ़ने की कोशिश करता हूँ ….. उनकी सर्वाधिक प्रिय पुराने फिल्मी गानों की एक-एक पंक्तियाँ ….. सब पंक्तियों के अंत में  आँसुओं की कुछ बूंदें …..

गांधीजी के जन्म के 150वें वर्ष पर ………..  

आज है दो अक्तूबर का दिन, आज का दिन है बड़ा महान…….

नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है ……

नन्हा मुन्ना राही हूँ देश का सिपाही हूँ …….

आओ बच्चो तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की  …….

सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा  …….

ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आँख में भर लो पानी …….

हम लाये हैं तूफान से कश्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के ……..

तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा ……

डायरी उठाने के लिए जैसे ही हाथ आगे बढ़ाता हूँ तो सब कुछ गायब …… डायरी …… चश्मा …… कलम ……  सब कुछ …… आँखें भर आती हैं …… गला रुँध जाता है ….. रोने की कोशिश करता हूँ …… गले से आवाज ही नहीं निकलती …… गले से सिसकियाँ निकलने लगती हैं ……

सुनिये …… सुनिये …… श्रीमति जी मुझे हिला कर नींद से उठा रही हैं …… पूछ रही हैं …… क्या हुआ? इतनी देर से क्यों रो रहे हैं? श्रीमति से लिपट कर रो पड़ता हूँ ……

सोच रहा हूँ …… आखिर यह स्वप्न है या दुःस्वप्न?  ईश्वर ने इस जटिल मस्तिष्क की रचना भी कितने जतन से की होगी। लोग कहते हैं कि सोचना बंद कर दो। अरे भाई! आपको सारे शरीर में कहीं कोई ऐसा स्विच दिख रहा है क्या कि- ऑफ कर दूँ और सोचना बंद हो जाए? यह तो मस्तिष्क में ही कहीं होगा तो होगा । यदि होगा तो जाते समय अपने आप ऑफ हो जाएगा….

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 43 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  “भावना के दोहे ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 43 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे 

 

हमने तो अब कर लिया, जीवन का अनुवाद।

पृष्ठ – पृष्ठ पर लिख दिया, दुख,पीड़ा, अवसाद।।

 

तेरा-मेरा हो गया, जन्मों का अनुबंध।

मिटा नहीं सकता कभी, कोई यह संबंध।।

 

रात चाँदनी कर रही, अपने प्रिय से बात।

अंधियारी रातें सदा, करतीं बज्राघात।।

 

दर्शन बिन व्याकुल नयन, खोलो चितवन-द्वार।

बाट पिया की देखती, विरहिन बारंबार।।

 

रात चाँद को देखकर, होता मगन चकोर।

नैन निहारे रात भर, निर्निमेष चितचोर।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य – अंतरराष्ट्रीय पुस्तक दिवस विशेष  – ग्रंथगुरू . . . !☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है  अंतरराष्ट्रीय पुस्तक दिवस के अवसर पर आपकी एक समसामयिक कविता  “ग्रंथगुरू . . . !” )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विजय साहित्य ☆

☆  अंतरराष्ट्रीय पुस्तक दिवस विशेष  – ग्रंथगुरू . . . ! ☆

 

पूजनीय ग्रंथगुरू

नित्य हवे देणे घेणे

शिकविते चराचर

ज्ञान सृजनाचे लेणे. . . . !

 

वंदनीय ग्रंथगुरू

जगण्याचा मार्ग देते.

कृपा प्रसादे करून

सन्मार्गाच्या पथी येते. . . . . !

 

गुरू ईश्वरी संकेत

संस्काराची जपमाळ

शिकविते जिंकायला

संकटांचा वेळ,  काळ. . . . . !

 

तेजोमयी ग्रूथगुरू

तेज चांदणीला येते

पौर्णिमेत आषाढीच्या

व्यास रूप साकारते.. . . !

 

ज्ञानदायी ग्रंथगुरू

घ्यावे जरा समजून

ऋण मानू त्या दात्यांचे

गुरू पुजन करून. . . . !

 

संस्कारीत ग्रंथगुरू

एक हात देणार्‍याचा

पिढ्या पिढ्या चालू आहे

एक हात घेणार्‍याचा.

 

असे ज्ञानाचे सृजन

ग्रथगुरू धडे देते

जीवनाच्या परीक्षेत

जगायला शिकविते. . . !

 

ज्ञानियांचा ज्ञानराजा

व्यासाचेच नाम घेई.

महाकाव्ये , वेद गाथा

ग्रंथगुरू ज्ञान देई. . . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 34 ☆ कोरोना वायरस !! ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी  की एक समसामयिक भावप्रवण कविता  “कोरोना वायरस !!”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 34 ☆

☆ कोरोना वायरस !! ☆

वो सब को

एक नजर से

देखता है..!

जाति-पांति

धर्म को नहीं

लेखता है.!!

 

उसकी नजर में

सब एक समान हैं.!

सब का ही करता

वो सम्मान है.!!

 

उसके शरण में

जो भी आता है.!!

वो भव सागर से

मुक्ति पा जाता है.!!

 

वो मान-अपमान

सुख-दुख,

लाभ-हानि से परे है.!

उसकी झोली में

बड़े-बड़े नत मस्तक

हाथ जोड़ खड़े हैं.!!

 

वो रिश्ते-नाते

दोस्ती-यारी

सभी पर भारी है.!

उसकी छवि

इस दुनिया से

बिल्कुल न्यारी है.!!

 

बड़ी बड़ी

शक्तियाँ

उसके आगे

महज एक

खिलौना हैं.!

 

उसकी

मर्जी से ही

यहाँ सब कुछ

होना है.!!

 

वो सर्व व्यापी

काल दृष्टा है.!

उससे पंगा

समझो

भिनिष्टा है..!!

 

वो मन्दिर, मस्ज़िद

चर्चों और गुरुद्वारों में.!

वो शहर शहर

हर देश,गाँव

गलियारों में.!!

 

उसकी महिमा

बड़ी निराली है.!

वो आम नही

बड़ा बलशाली है.!!

 

यह सुनते ही

सामने खड़ा

दोस्त बोला.!

सीधा क्यों नहीं

कहता ये

भगवन हैं भोला..!!

 

हमने ज्यूँ सुनी

दोस्त की वाणी.!

झट अपनी

भृकुटि तानी.!!

 

और कहा सुन.!

अपना माथा धुन.!!

ये भगवन नहीं

कोरोना वायरस है

ज्यूँ  होता लोहा सोना

छूता जब पारस है..!!

 

यूँ ही जब कोई

संक्रमित को

छूता है.!

फिर वो भी

बन जाता

अछूता है.!!

 

ये बड़ी वैश्विक

बीमारी है.!!

जिसने

सारी दुनिया की

हालत बिगाड़ी है..!!

 

इसलिए दोस्त

जरा दूर से बात

करना.!

और “संतोष” को

हाथ जोड़

नमस्कार करना..!!

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 27 ☆ लघुकथा – जिद ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक लघुकथा  “जिद ”। हमने  अपने जीवन  में यह देखा है कि यदि मनुष्य कोई बात मन में ठान ले और उसे पूरी करने पर उतर आये तो उसे सच होने में देर नहीं लगाती। हाँ समय जरूर लग सकता है, लोग जरूर उस पर हंस सकते हैं। किन्तु, अपनी जिद पूर्ण करने वाले मनुष्य भी बिरले ही होते हैं जिनका हम उदहारण बनाने के बजाय उदहारण देते नहीं थकते। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस कथानक को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 27 ☆

☆ लघुकथा – जिद

सबकी तरह उन दोनों के लिए भी लॉकडाउन में समय काटना कठिन हो रहा था. अब तक सारा दिन  मजूरी – हारी में निकल जाता था. हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने का तो कभी वक्त ही नहीं मिला. रात होते – होते थककर चूर हो जाते थे दोनों.  कभी- कभी  सोचता था वह, अच्छा हुआ  भगवान ने रात तो बनाई वरना—-कोल्हू का बैल . खुद पर हँस पडा,  खाली बैठे – बैठे कुछ भी आता है दिमाग में.  घर में भी क्या कम काम हैं ? पानी लाने के लिए कोसों दूर जाना पडता है, गाँव में कोई कुआँ नहीं है . कुआँ  ? अचानक उसके मन में विचार आया और  उसने पत्नी को बुलाया– अरे  मनिया सुन ना.

मनिया दौडी – दौडी आई – क्या हुआ ?

सुन मनिया! हमारे गाँव में एक भी कुआँ नहीं है, कितनी दूर जाना पडता है पानी लेने के लिए.अरे! तो ये कौन सी नई बात बता रहे हो, रोज तो  जाते हैं पानी लेने,  दो घंटा लग जाता है.  अगर हम दोनों मिलकर अपने घर में ही कुआँ खोद लें तो ? वह मुस्कुराया.

क्या ?? वह चिल्ला पडी  – कुआँ खोदना कोई गुडिया का खेल है का, कुआँ खोदने चले हैं.

मालूम है हमें इतना आसान काम नहीं है पर कोशिश तो कर सकते हैं ना ? सारा दिन बैठे बैठे क्या करते हैं ? ये सोचो अगर  कुआँ में पानी निकल आया तो पूरा जीवन आराम से कट जाएगा.  अपना ही नहीं, अपने बच्चों और गाँववालों का भी दुख हमेशा के लिए दूर हो जायेगा.

हाँ ये बात तो है,उसकी आँखों में चमक आ गई – उसके आँगन  में कुआँ ?  हो सकता है क्या ऐसा ?

सब सपना ही लग रहा था, पर वह भी मुस्कुरा दी.

फिर शुरु हुआ  एक अनोखा सफर, गाँव में जिसने सुना बोले – पागल हो गये हैं मियां- बीबी, दो आदमी कहीं कुआँ खोद सकते हैं उसमें से एक औरत जात ?

पर उन्होंने किसी की ना सुनी. एक ही धुन थी कि अपने गाँव में कुआँ होना ही चाहिए. गाँव वाले बोले- इतनी जल्दी पानी नहीं निकलता, मशीन मंगवानी पडती है.

अब तो अपने सपने को पूरा करने की जिद थी बस.  कुआँ खोदते हुए बीस दिन हो गये थे, लगभग बाईस फीट की गहराई तक खुदाई कर चुके थे, दोनों बच्चे माता पिता को ऊपर से ही देखते रहते थे, रात का समय था अचानक बच्चे खुशी से चिल्ला उठे – अम्माँ देखो कुएँ में तारे उतर आए.

कुएँ में पानी उनके पैरों को चूम रहा था. वे दोनों कुएँ की गहराई में खडे आकाश के तारों को  देख रहे थे, ये तारे उनके दिल में चमक रहे थे.

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #45 ☆ लॉकडाउन और मैं ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 45 – लॉकडाउन और मैं ☆

समाचारपत्रों में कभी-कभार पढ़ता था कि फलां विभाग में  पेनडाउन आंदोलन हुआ। लेखक होने के नाते  ‘पेनडाउन’ शब्द कभी नहीं भाया। फिर नॉकडाउन से परिचय हुआ। मुक्केबाजी से सम्बंधित समाचारों ने सबसे पहले नॉकआउट शब्द से परिचय कराया।कारोबार के समाचारों ने लॉकआउट का अर्थ समझाया। फिर आया लॉकडाउन। यह शब्द अपरिचित नहीं था पर पिछले लगभग एक माह ने इससे चिरपरिचित जैसा रिश्ता जोड़ दिया है।

जब आप किसी निर्णय को मन से स्वीकार करते हैं तो भाव उसके अनुपालन के अनुकूल होने लगता है। इस अनुकूलता का विज्ञान के अनुकूलन अर्थात परिस्थिति के अनुरूप ढलने के सिद्धांत से मैत्री संबंध है।

इस संबंध को मैंने भ्रमण या पैदल चलने के अभ्यास में अनुभव किया। सामान्यत: मैं सुबह 3 से 3.5 किलोमीटर भ्रमण करता हूँ। इस भ्रमण के अनियमित हो जाने पर पूर्ति करने या लंबी दूरी तय करने का मन होने पर अथवा प्राय: अन्यमनस्क होने पर देर शाम 8 से 10 किलोमीटर की पदयात्रा करता हूँ। चलने के आदी पैर लॉकडाउन के कारण अनमने रहने लगे तो परिस्थिति के अनुरूप मार्ग भी निकल आया। एक कमरे की बालकनी के एक सिरे से दूसरे कमरे की बालकनी के सिरे के बीच तैंतीस फीट के दायरे में पैरों ने तीन किलोमीटर रोजाना की यात्रा सीख ली।

पहले विचार किया था कि लेखन में बहुत कुछ छूटा हुआ है जो इस कालावधि में पूरा करूँगा। बहुत जल्दी यह समझ में आ गया कि नई  गतिविधि का अभाव मेरे लेखन की गति को प्रभावित कर रहा है।  यद्यपि दैनिक लेखन अबाधित है तथापि अपने भीतर जानता हूँ कि जैसे कुछ कार्यालयों में पच्चीस प्रतिशत कर्मचारियों के साथ ही काम हो रहा है, मेरी कलम भी एक चौथाई क्षमता से ही चल रही है। बकौल अपनी कविता,

घर पर ही हो,

कुछ नहीं घटता

कुछ करना भी नहीं पड़ता

इन दिनों..,

बस यही अवसर है

खूब लिखा करो,

क्या बताऊँ

लेखन का सूत्र

कैसे समझाऊँ,

साँस लेना ज़रूरी है

जीने के लिए..,

घटना और कुछ करना

अनिवार्य हैं लिखने के लिए!

अलबत्ता समय का सदुपयोग करने की दृष्टि से सृजनात्मक लेखन का मन न होने पर प्रकाशनार्थ पुस्तकों का प्रूफ देखना, पुस्तकों का अलाइनमेंट या सुसंगति निर्धारित करना जैसे काम चल रहे हैं। पुस्तकों की भूमिका लिखने का काम भी हो रहा है। निजी लेखन की फाइलें भी डेस्कटॉप पर अलग सेव करता जा रहा हूँ।

लॉकडाउन के इस समय में प्रकृति को निहारने का सुखद अनुभव हो रहा है। सूर्योदय के समय खगों की चहचहाट, सूर्यास्त का गरिमामय अवसान दर्शाता स्वर्णिम दृश्य, सामने के पेड़ पर रहनेवाले तोतों और चिड़िया के समूहों का शाम को घर लौटना, कौवों का अपने घोंसले की रक्षा करना, ततैया का पानी पीने आना, पानी पीते कबूतरों का भयभीत होकर भागने के बजाय शांत मन से तृप्त होने तक जल ग्रहण करना, सब साकार होने लगा है।

संभवत: साढ़े तीन दशक बाद कोई सीरियल देखने की आदत बनी। पिछले दिनों ‘रामायण’ का प्रसारण नियमित रूप से देखा। रावण ने अपने अहंकार के चलते सम्पूर्ण असुर जाति का अस्तित्व दांव पर लगा दिया था। लॉकडाउन में अनावश्यक रूप से बाहर घूमनेवाले अति आत्मविश्वास और लापरवाही के चलते मनुष्य जाति के लिए वही भूमिका दोहरा रहे हैं।

हर क्षण जीवन बीत रहा है। इसलिए अपने  समय का बेहतर उपयोग करने के लिए सर्वदा कुछ नया और सार्थक सीखना चाहिए। ख़ासतौर पर उन विषयों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, जिनसे  अबतक अनजान हों या जिनमें प्रवीणता नहीं है।

पाकशास्त्र में प्रवीणता दीर्घ कालावधि और सम्पूर्ण समर्पण से मिलती है। दोनों आवश्यकताएँ पूरी करने में अपनी असमर्थता का भलीभाँति ज्ञान होने के कारण रसोई बनाने के सामान्य ज्ञान पर ध्यान केंद्रित कर रहा हूँ। अपने काम के सिलसिले में घर से बाहर    काफी दिन रुकना पड़े तो होटल से मंगाने के बजाय अपना भोजन स्वयं सरलता से बना सकूँ, कम से कम इतना सीख लेना चाहता हूँ। मनुष्य को यों भी यथासंभव स्वावलंबी होना चाहिए।  लॉकडाउन इसका एक अवसर है।

लॉकडाउन की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका यह है कि यह रोग को फैलने से रोकने के लिए सामाजिक वैक्सिन है। मेडिकल वैक्सिन आने में लगभग आठ से दस माह की अवधि लग सकती है। ऐसे में लॉकडाउन और सामाजिक- भौतिक दूरी, रोग और वैक्सिन के बीच हमें सुरक्षित रख सकती है। अत: आप सबसे भी अनुरोध है कि घर में रहें, सुरक्षित रहें, स्वस्थ रहें।

 

©  संजय भारद्वाज

संध्या 7:50 बजे, 21.4.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 24 ☆ वाग्देवी माँ मुझे स्वीकार लो ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  आपकी एक अतिसुन्दर प्रार्थना  “वाग्देवी माँ मुझे स्वीकार लो.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 24 ☆

☆ वाग्देवी माँ मुझे स्वीकार लो ☆

 

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों -सा

सजा संसार दो

 

शब्द में भर दो मधुरता

अर्थ दो मुझको सुमति के

मैं न भटकूँ सत्य पथ से

माँ बचा लेना कुमति से

 

भारती माँ सब दुखों से

तार दो

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों -सा सजा

संसार दो

 

कोई छल से छल न पाए

शक्ति दो माँ तेज बल से

कामनाएँ हों नियंत्रित

सिद्धिदात्री कर्मफल से

 

बुद्धिदात्री ज्ञान का

भंडार दो

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों -सा सजा

संसार दो

 

भेद मन के सब मिटा दो

प्रेम की गंगा बहा दो

राग-द्वेषों को हटाकर

हर मनुज का सुख बढ़ा दो

 

शारदे माँ! दृष्टि को

आधार दो

वाग्देवी माँ मुझे

स्वीकार लो

भाव सुमनों-सा सजा

संसार दो

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 44 ☆ व्यंग्य – बे सिर पैर की ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक  व्यंग्य  बे सिर पैर की।  श्री विवेक जी ने  इस व्यंग्य का शीर्षक बे सिर पैर की  रखा है किन्तु, इसमें सर भी है और पैर भी है। हाँ , ढूंढना तो आपको ही पड़ेगा। श्री विवेक जी  की लेखनी को इस अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 44 ☆ 

☆ बे सिर पैर की

बे सिर पैर की बातें मतलब फिजूल बातें, बेमतलब की, निरर्थक बातें. बे सिर पैर की बातें करना भी कोई सरल कार्य नहीं होता. अक्सर शराब के नशे में धुत वे लोग जो दीन दुनियां, घर वार भूल जाते हैं, और जिन्हें केवल बार याद रह जाता है, कुछ पैग लगाकर, बड़े सलीके से  तार्किक बेसिर पैर की बातें करने में निपुण माने जाते हैं. उनके ग्रामोफोन की  सुई जहां अटक जाती है, मजाल है कि नशा उतरते तक कोई उनसे कोई तरीके की बात कर सके.  नेता जी लोगों में  भी बे सिर पैर की बाते करने का यह गुण थोड़ा बहुत पाया ही जाता है. अपनी बे सिर पैर की बातों में उलझाकर वे आपसे अपना मतलब सिद्ध करवा ही लेते हैं. यूं कई कहानीकार भी बे सिर पैर का कथानक बुनने के महारथी होते हैं. टी वी सीरियल्स में सास बहू की ज्यादातर स्क्रिप्ट विज्ञापनों और टी आर पी के बीच इस चकाचौंध और योग्यता से दिखाई जाती हैं कि उस बे सिर पैर की कहानी को एपीसोड दर एपीसोड जितना चाहो उतना बढ़ाया जा सकता है. बे सिर पैर का थाट लेकर ही इन दिनो लोकप्रिय हास्य रियल्टी शो ऐसा मशहूर हो रहा है कि लोग वीक एण्ड की और कपिल की सारे हफ्ते प्रतीक्षा करते हैं.

लेकिन इन दिनो जिस एक बे सिर पैर के वायरस ने सारी दुनियां को कारागार में बदल कर रख दिया है वह है करोना. दुनियां भर में हर कोई अपने घर पर लाकडाउन में रहने को मजबूर है. इस बे सिर पैर के, बेजान, प्रोटीन की खाल में लपटे डी एन ए से सुपर पावर्स तक डरी हुई हैं, पर जिनके दिमागो में धर्मांधता के नशे का खुमार हो वे चाहे मरकज में हो, पाकिस्तान में हों या दुनियां के किसी कोने में हों उन्हें इस करोना से कोई डर नही लग रहा. जिन्हें मानव जीवन के इस संघर्ष काल में भी इकानामी का ग्रोथ रेट दिखता हो, ऐसे सुपर पावर्स के बड़े बड़े हुक्मरान भी इस बेसिर पैर के करोना से  बिना डर इस समय को दुनियां में अपने प्रभुत्व जमाने के मौके के रूप में देख रहे हैं. मेरे जैसे  जो सिरे से, दिमाग से सोचते समझते हैं वे अपने ही बायें हाथ से दाहिने हाथ में सामान लेते हुये डर रहे हैं, और साबुन से हाथ धो रहे हैं. हर व्हाटसएप ऐसे पढ़ रहे हैं,मानो उसमें ही करोना के अंत का ज्ञान छिपा है. आप भी ऐसा ही एक व्हाट्सेपी मैसेज पढ़िये.

मार्च की आखिरी तारीख को एक तांत्रिक एक होटल में गया और  मैनेजर के पास जाकर बोला क्या रूम नंबर १३ खाली है?

मैनेजर ने उत्तर दिया हां, खाली है, आप वो रूम ले सकते हैं.तांत्रिक ने कमरा ले लिया और कमरे में जाते हुये मैनेजर से बोला  मुझे एक चाकू, एक काले  धागे की रील और एक पका हुआ संतरा कमरे में भिजवा दो. मैनेजर ने उत्तर दिया ठीक है, और कहा कि हां, मेरा कमरा आपके कमरे के ठीक सामने ही है,अगर आपको कोई दिक्कत हो तो आप मुझे आवाज दे सकते हैं. तांत्रिक बोला ठीक है,और वह कमरे में चला गया.आधी रात को तांत्रिक के कमरे से तेज चीखने चिल्लाने की और प्लेटो के टूटने की आवाज आने लगती है, इन आवाजों के कारण मैनेजर सो भी नही पाता और वो रात भर इस ख्याल से बैचेन रहता है कि आखिर उस कमरे में हो क्या रहा है? अगली सुबह जैसे ही मैनेजर तांत्रिक के कमरे में गया  उसे पता चला कि तांत्रिक होटल से चला गया है और कमरे में सब कुछ ठीक है, टेबल पर चाकू रखा हुआ है, मैनेजर ने सोचा कि जो उसने रात में सुना कहीं उसका मात्र वहम तो नही था. बात कहते एक साल बीत गया..एक साल बाद..मार्च की आखिरी तारीख को वही तांत्रिक फिर से उसी होटल में आया और रूम नंबर १३ के बारे में पूछा ? मैनेजर:- हां, रूम नम्बर १३ खाली है आप उसे ले सकते हैं,तांत्रिक :- ठीक है, मुझे एक चाकू, एक काले  धागे की रील और एक पका हुआ संतरा चाहिए होगा. मैनेजर:- जी, ठीक है.उस रात  मैनेजर सोया नही, वो जानना चाहता था कि आखिर रात में उस कमरे में होता क्या है? ज्यादा रात नही हुई थी तभी वही आवाजें फिर से आनी चालू हो गई और मैनेजर तेजी से तांत्रिक के कमरे के पास गया, चूंकि उसका और तांत्रिक का कमरा आमने-सामने था, इस लिए वहाँ पहुचने में उसे ज्यादा समय नही लगा. लेकिन दरवाजा लॉक था, यहाँ तक कि मैनेजर की वो मास्टर चाबी जिससे हर रूम खुल जाता था, वो भी उस रूम १३ में काम नही कर रही थी.

आवाजो से मैनेजर का सिर फटा जा रहा था, आखिर दरवाजा खुलने के इंतजार में वो दरवाजे के पास ही सो गया.अगली सुबह जब मैनेजर उठा तो उसने देखा कि कमरा खुला पड़ा है लेकिन तांत्रिक वहां नही है. वो जल्दी से मेन गेट की तरफ भागा, लेकिन दरबान ने बताया कि उसके आने से चंद मिनट पहले ही तांत्रिक जा चुका था. मैनेजर कसमसा कर रह गया, उसने निश्चय कर लिया कि  वो पता करके ही रहेगा कि आखिर ये तांत्रिक और रूम १३ का राज क्या है. मैनेजर हमेशा चौकस रहने लगा,जहां चाह वहां राह, आखिर एक दिन बाजार में मैनेजर को तांत्रिक दिख ही गया, वह भागता हुआ उसके पास पहुंचा. उसने तांत्रक से पूछा कि आखिर तुम रात को काले धागे, संतरे और चाकू से करते क्या हो?  चीखने की आवाजें कहां से आती हैं ? बताओ.?तांत्रिक ने कहा मैं तुम्हे ये राज बता दूंगा लेकिन अगले साल और शर्त यह है कि तुम ये राज किसी और को नही बताओगे. मैनेजर मान गया. पर इस साल लॉक डाउन के कारण तांत्रिक आ ही नही सका. अब मैनेजर को अगले मार्च की आखिरी तारीख का इंतजार है. लगता है तब तक इस बे सिर पैर की कहानी के राज  सुनने के लिए हम सबको सजग रहना होगा, सुरक्षित रहना होगा. परमात्मा करे कि हमारे वैज्ञानिक उससे बहुत पहले ही  बे सिर पैर के इस करोना वायरस का अंत कर दें वैक्सीन बनाकर.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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