हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – भारतीय ज्योतिष  क्या है? ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  जनसामान्य  के  ज्ञानवर्धन के लिए भारतीय ज्योतिष विषय पर एक शोधपरक आलेख  भारतीय ज्योतिष  क्या है?

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य –  भारतीय ज्योतिष  क्या है? ☆

भारतीय ज्योतिष शास्त्र विद्या को वेद का एक अंग माना गया है, इस विधा के द्वारा  मानव जीवन पर ग्रह-नक्षत्रों की छाया उच्च निम्न तथा वक्रीय दृष्टि के प्रभाव का अध्ययन किया जाता है, जिसके द्वारा जातक के जीवन में भूत, भविष्य और वर्तमान का अध्ययन कर भविष्य वाणी की जाती है।

जब कोई जातक जन्म लेता है तो उस समय खगोलीय अनंत अंतरिक्ष के परिक्रमा पथ में भ्रमण कर रहे ग्रहों नक्षत्रों के स्वभाव तथा प्रभाव का अदृश्य किंतु स्थायी प्रभाव जातक के जीवन में अंकित हो जाता है, जो आजीवन काल क्रम के रूप में जातक को प्रभावित करता रहता है, इसका अध्ययन हमारे मनीषियों के शोध-पत्र के रूप में सामने आता है। इन प्रभावों के चलते ही मानव की आर्थिक स्थिति, स्वास्थ्य, बुद्धिमत्ता, दारिद्र, दुःख आदि का सटीक वर्णन संभव हो पाता है, जैसे गणना के आधार पर हमारा पंचांग, सूर्य के उदय अस्त तथा सूर्य ग्रहण चंद्रग्रहण की सालों पूर्व की सटीक जानकारी देता है। जिस प्रकार ज्ञान चक्षु से अंधेरे अथवा प्रकाश का ज्ञान हो पाता है, उसी प्रकार ज्योतिष विद्या भी गणितीय ज्ञानचक्षु है, जो मानव के भूत भविष्य वर्तमान का ज्ञान प्राप्त कर, भविष्य वाणी करने में सक्षम है, वैसे तो भारतीय ज्योतिष शास्त्र की महिमा अगम अपार है, लेकिन वर्तमान समय में हमारे देश में  जो मुख्य विधायें प्रचलित है, उसमें गणित ज्योतिष, तथा फलित ज्योतिष मूलस्तंभ के रूप में स्थापित हैं।

गणित ज्योतिष शास्त्र जहां सूक्ष्म गणितीय गणना पर आधारित है, इनके द्वारा ही किसी जातक की जन्म कुंडली का निर्माण किया जाता है। इसका मूल आधार भारतीय ज्योतिष गणना की सबसे छोटी इकाई निमिष, पल, विपल, प्रतिपल, पलापल  आदि से निर्धारित की जाती है।  जन्मकुंडली के निर्माण के मूल आधार के लिए हमें भारतीय पंचांग का सहारा लेना पड़ता है।

जिनमें पांच ज्योतिष काल खंड की गणनाएं है जिन्हें क्रम से तिथि, वार, नक्षत्र, तथा योग और करण के रूप में जाना जाता है। पंचांग ही यह तय करता है कि आज की  तिथि वार नक्षत्र योग में कौन सी राशि का अनंत अंतरिक्ष में संचरण काल है। अन्य ग्रहो की युति किस राशि में किस रूप में कितने समय के लिए है, वहीं स्थिति जन्मकुंडली का आधार पुष्टि करती भूत भविष्य वर्तमान की आधारशिला रखती है, परंतु इस विषय में इस समय विषय  के विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है।

हमारे मनीषियों ने भारतीय ज्योतिष पद्धति की कालखंड की गणना विधा का रूपांतरण पाश्चात्य कालखंड की गणना से किया है, इसीलिए निमिष पल विपल प्रतिपल को घंटों मिनटों में परिभाषित किया जा सका है। उनके अनुसार चौबीस मिनटों की एक घंटी, ढ़ाई घंटी का एक घंटा, तथा एक दिन, यानी चौबीस घंटे में साठ घटियां होती है।

फलित ज्योतिष क्या है? 

जब गणित ज्योतिष के आधार पर जातक के ग्रह, नक्षत्र, तिथि आदि का ठीक ठीक ज्ञान हो जाता है, तब उसे ही आधार मानकर जातकों के जीवन काल के परिणाम पर विचार किया जा सकता है, जो नवग्रहों के सर्वभाव तथा प्रभाव से पूरी तरह प्रभावित होते हैं। जैसे सूर्य की गर्मी तथा चंद्रमा की शीतलता लाखों करोड़ों मील दूर से मानव जीवन तथा मन को प्रभावित करती है, उसी प्रकार अन्य ग्रहों की युति परिस्थिति भी मानव जीवन को प्रभावित करती है। ऐसी ज्योतिष शास्त्रियों की मान्यता है, जो जटिल गणितीय संरचना पर आधारित है। एक कुशल गणितीय समझ वाला ही ज्योतिष विद्या का सही उपयोग कर सटीक भविष्यवाणी कर सकता है। जो पूर्वानुमान पर आधारित है, जिससे जीवन के भावों प्रभावों राशि फल, सफल, वर्षफल, के अलावा भावेश फल ग्रह युति मेलापक, मुहुर्त विचार आदि के द्वारा भविष्य वाणी संभव है।

भारतीय ज्योतिष का अंतरिक्ष तथा भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार मानव जीवन से संबंध तथा प्रभाव का अध्ययन

हमारे मनीषियों ने, अपनी भौगोलिक स्थितियों का स्थापन सीमा विस्तार अक्षांस , देशांतर तथा कर्क मकर जैसी रेखाओं के द्वारा रेखांकित कर क्षेत्रों का विभाजन किया हैं।  वहीं पर खगोलीय अनंत अंतरिक्ष को भी तीन सौ साठ अंश की वृत्तीय सीमा रेखा खींच कर अनंत को भी सीमा रेखा में बांध दिया है, जिसमें सौरमंडल, तारा मंडल आकाशगंगाओं, ग्रहों नक्षत्रों आदि का अध्ययन समाहित है, जिसका ज्योतिष शास्त्र से सीधा संबंध है।  हमारे ज्योतिषविद् सूर्योदय सूर्यास्त का सटीक मान  ऋतु परिवर्तन, तिथि परिवर्तन त्योहारों पर्वों का ज्ञान होता है, जो इस विधा की सटीकता का केंद्र ‌बिंदु है।

इसे कपोल-कल्पित अथवा गल्पविद्या कतई नहीं समझा जाना चाहिए। यह भारतीय शास्त्रों का एक अंग है।  पौराणिक, ज्योतिषीय, तथा बैज्ञानिक आधार पर भी सूर्य को अक्षय उर्जा स्रोत शक्ति तथा तेज का प्रतीक, तथा देवताओं में भी प्रमुख स्थान प्राप्त है।  पौराणिक कथाओं के अनुसार सूर्य का जन्म माघ मास की शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि माना जाता है, पौराणिक श्रुति के अनुसार इन्हें हनुमान जी के गुरु तथा शनि के पिता के रूप में माना जाता है, खगोलीय भौगोलिक गणना सिद्धांत के अनुसार भारतीय ज्योतिष शास्त्र के मूलभूत केन्द्र में सूर्य ही है। हमारी ज्योतिष विधा में जातकों के भूत भविष्य वर्तमान में चलने वाला घटना क्रम ग्रहों नक्षत्रों तथा राशियों के प्रभाव से प्रभावित माना जाता है। जो सूर्य चंद्रमा तथा पृथ्वी की गति पर आधारित है। जातक के जन्म समय में खगोल अंतरिक्ष में स्थित ग्रह नक्षत्रों की स्थिति पर निर्भर है, करोड़ों मील दूर स्थित सूर्य किस प्रकार पृथ्वी पर प्रकृति तथा जीव-जगत को प्रभावित करता है, वह साक्षात् दीखता है। हमारे ग्रहों का मुखिया भी सूर्य ही है सारे ग्रह नक्षत्र सूर्य के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं। अनंत अंतरिक्ष में ना जाने कितने सौरमंडल है जिसका ज्ञान विधाता के अलावा किसी को भी नहीं है।

गहन अध्ययन के आधार पर ज्योतिष मान्यता के ये मुख्य बिंदु नजर आते हैं

1–पौरणिक मान्यताओं का आधार।

2–गणितिय सिद्धांतों का आधार।

3–खगोलिय ग्रहों नक्षत्रों की गति विधियों का आधार तथा प्रभाव।

4–भौगोलिक परिस्थितियों का आधार।

 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 

विशेष – प्रस्तुत आलेख  के तथ्यात्मक आधार ज्योतिष शास्त्र की पुस्तकों पंचागों के तथ्य आधारित है भाषा शैली शब्द प्रवाह तथा विचार लेखक के अपने है, तथ्यो तथा शब्दों की त्रुटि संभव है, लेखक किसी भी प्रकार का दावा प्रतिदावा स्वीकार नहीं करता। पाठक स्वविवेक से इस विषय के समर्थन अथवा विरोध के लिए स्वतंत्र हैं, जो उनकी अपनी मान्यताओं तथा समझ पर निर्भर है।

 

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या # 18 ☆ सांगावे कुणा. ? ☆ श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या को प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न  कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों /सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय-समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है।  इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। इस साप्ताहिक स्तम्भ का शीर्षक इस काव्य संग्रह  “स्वप्नपाकळ्या” से प्रेरित है ।आज प्रस्तुत है  उनका एक बालगीत  “सांगावे कुणा. ?“.) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – स्वप्नपाकळ्या # 18 ☆

☆ सांगावे कुणा. ?

 

हसत हसत आला उन्हाळा

हसत हसत गेला हिवाळा

रडत म्हणे पावसाळा

येईन मी पुन्हा.!!

 

थंडीमधे सकाळची काळ वाटे शाळा

टिचर म्हणे प्रार्थनेची रोज वेळ पाळा

आम्हा मुलांचे कुणीच नाही

सांगावे कुणा. ?  !!हूंऽऽहूंऽऽ

 

पावसात रिमझिम त्या थंडगार धारा

आई म्हणे ,भिजू नका,खाऊ नका गारा

आम्हा मुलांचे कुणीच नाही

सांगावे कुणा. ? !!हूंऽऽ हूंऽऽ

 

उन्हाळ्यात शाळेला सुट्टी किती मजा

पप्पा म्हणे उन्हामधे खेळू नको राजा

आम्हा मुलांचे कुणीच नाही

सांगावे कुणा. ? !!हूंऽऽहूंऽऽ

 

©  प्रभाकर महादेवराव धोपटे

मंगलप्रभू,समाधी वार्ड, चंद्रपूर,  पिन कोड 442402 ( महाराष्ट्र ) मो +919822721981

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ कविता ☆ ज्यों-ज्यों अगस्त्य हुए ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला  स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध। आज प्रस्तुत है डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी  की एक भावप्रवण एवं सार्थक कविता  ”ज्यों-ज्यों अगस्त्य हुए“।डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी  के इस सार्थक एवं  संत कबीर जी के विभिन्न पक्षों पर विमर्श के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन।  ) 

 ☆ ज्यों-ज्यों अगस्त्य हुए ☆

 

चंदा ने

शीतलता दी

चाँदनी दी बिन माँगे

कि रह सकें हम शीतल

पाख भर ही सही

सता न सकें हमें चोर ,चकार

सूरज ने

खुद तपकर रोशनी दी

पहले जग उजियार किया

तब जगाया हमें

नदी ने पानी दिया

कि बुझ सके प्यास हम सबकी

समुद्र ने अपनी लहरों पर

बिठाकर घुमाया

दिखाया सारा जगत

कि खुश रहें हम सब

इन्होंने मछलियाँ भी दीं

धरती ने, पेड़ों ने दिए

कंद-मूल,असंख्य और अनंत

फल-फूल और शस्यान्न

क्या-क्या नहीं दिए

भरने के लिए हमारा पेट

ज्यों-ज्यों हम अगस्त्य हुए

ये होते गए निर्जल,बाँझ और उजाड़।

 

©  डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

सूरत, गुजरात

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 1 ☆ सार्थक दोहे ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( हम गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  के  हृदय से आभारी हैं जिन्होंने  ई- अभिव्यक्ति के लिए साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य धारा के लिए हमारे आग्रह को स्वीकारा।  अब हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपके  सार्थक दोहे  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 1 ☆ दोहे ☆ ☆

 

कोई समझता कब कहां किसी के मन के भाव

रहे पनपते इसी से झूठे द्वेष दुराव

 

मन की पावन शांति हित आवश्यक सद्भाव

हो यदि निर्मल भावना कभी न हो टकराव

 

ममता कर लेती स्वतः सुख के सकल प्रबंध

इससे रखने चाहिए सबसे शुभ संबंध

 

प्रेम और सद्भाव से बड़ा न कोई भाव

नहीं पनपती मित्रता इनका जहां अभाव

 

मन के सारे भाव में ममता है सरताज

सदियों से इसका ही दुनिया में है राज

 

दुख देती मित्र दूरियां आती प्रिय की याद

करता रहता विकल मन एकाकी संवाद

 

होते सबके भिन्न हैं प्रायः रीति रिवाज

पर सबको भाती सदा ममता की आवाज

 

बातें व्यवहारिक अधिक करता है संसार

किंतु समझता है हृदय किस के मन में प्यार

 

मूढ़ बना लेते स्वतःगलत बोल सन्ताप

मिलती सबको खुशी ही पाकर प्रेम प्रसाद

 

बात एक पर भी सदा सबके अलग विचार

मत होता हर एक का उसकी मति अनुसार

 

प्रेम सरल सीधा सहज सब पर रख विश्वास

खुद को भी खुशियां मिले कोई न होय निराश

 

तीक्ष्ण बुद्धि इंसान को ईश्वर का वरदान

कर सकती परिणाम का जो पहले अनुमान

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 11 – केदार शर्मा ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : केदार शर्मा पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 11 ☆ 

☆ केदार शर्मा ☆

 

केदार शर्मा उर्फ़ केदार नाथ शर्मा (12 अप्रैल 1910 – 29 अप्रैल 1999), एक भारतीय फिल्म निर्देशक, निर्माता, पटकथा लेखक और हिंदी फिल्मों के गीतकार थे। उन्हें नील कमल (1947), बावरे नैन (1950) और जोगन (1950) जैसी फिल्मों के निर्देशक के रूप में बड़ी सफलता मिली, उन्हें अक्सर बॉलीवुड के महान कलाकारों गीता बाली, मधुबाला, राज कपूर, माला सिन्हा, भारत भूषण और तनुजा के अभिनय करियर की शुरुआत के लिए याद किया जाता है।

केदार शर्मा का जन्म नारोवाल पंजाब में हुआ था।  दो भाइयों, रघुनाथ और विश्वनाथ की अल्पायु मृत्यु और उनकी बहन तारो का कम उम्र में तपेदिक से निधन हो गया, एक छोटी बहन गुरू एक छोटे भाई हिम्मत राय शर्मा बचे, जो बाद में सफल उर्दू कवि के रूप में स्थापित हुए। केदार ने अमृतसर के बैज नाथ हाई स्कूल में पढ़ाई की जहाँ वे दर्शन, कविता, पेंटिंग और फोटोग्राफी में रुचि लेने लगे। हाई स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद सिनेमा में अपना करियर बनाने के लिए घर से भाग कर मुंबई पहुँचे  लेकिन रोजगार हासिल करने में असफल रहे तो अमृतसर लौट आए और हिंदू सभा कॉलेज में पढ़ाई हेतु प्रवेश लिया, जहाँ उन्होंने एक कॉलेज ड्रामेटिक सोसाइटी की स्थापना की।

एक स्थानीय सुधारवादी आंदोलन के प्रमुख ने केदार के नाटकों में से एक में हिस्सा लिया और शराब की बुराइयों को दर्शाती एक मूक फिल्म का निर्माण करने के लिए उसे काम मिला। इस परियोजना से अर्जित धन का उपयोग करते हुए, उन्होंने खालसा कॉलेज, अमृतसर में एक स्थानीय थिएटर समूह में शामिल होने से पहले अंग्रेजी में अपनी मास्टर डिग्री प्राप्त की। 1932 में उनकी शादी हुई तब उन्होंने कमाई के बारे में गम्भीरता से सोचना शुरू किया। फिल्म निर्देशक देवकी बोस की शुरुआती बोलती फिल्म पूरन भगत (1933) को देखकर वह न्यू थियेटर्स स्टूडियो में भाग्य आज़माने की उम्मीद में कलकत्ता के लिए रवाना हुए। कई महीनों की बेरोजगारी के बाद वह न्यू थियेटर्स के एक तत्कालीन अभिनेता, पृथ्वीराज कपूर (जहाँ वह पहली बार, पृथ्वीराज के आठ वर्षीय बेटे, राज कपूर से मिले) से मिलने में कामयाब रहे। पृथ्वीराज कपूर ने केदार को अपने पड़ोसी, तत्कालीन कुंदन लाल सहगल से मिलवाया, जिन्होंने एक परिचित के माध्यम से केदार को देवकी बोस से मिलने की व्यवस्था कर दी। देबकी बोस ने केदार को फिल्म सीता (1934) के लिए मूवी स्टिल्स फोटोग्राफर के काम पर रखा था, लेकिन बैकग्राउंड स्क्रीन पेंटर और फिल्म इंकलाब (1935) के लिए पोस्टर चित्रकार के रूप में केदार को फिल्म के निर्माण में काम मिला।  उन्होंने छप्पन (1935) और पुजारिन (1936) जैसी फिल्मों पर न्यू थियेटर्स के साथ काम करना जारी रखा, और  1936 में देवदास में उनके दोस्त कुंदन लाल सहगल द्वारा अभिनीत संवाद और गीत लिखने के लिए कहा गया तो एक बड़ा ब्रेक मिला। देवदास न केवल एक हिट थी, बल्कि “बलम आयी बसो मोरे मन में” और “सुख के अब दिन बीतत नाही” जैसे गाने देश भर में लोकप्रिय हो गए। केदार ने बाद में कहा, “बिमल रॉय और मुझे, देवदास में हमारा पहला बड़ा ब्रेक मिला था,  उन्हें कैमरामैन के रूप में और मुझे लेखक के रूप में।”

केदार को 1940 में जीत, औलाद और दिल ही तो है के लिए अपनी पटकथा लिखने का मौका दिया गया, कुछ सफलता मिली। इसके बाद उन्हें चित्रलेखा (1941) का निर्देशन करने के लिए कहा गया, जो एक हिट फिल्म बन गई और केदार एक निर्देशक के रूप स्थापित हो गए। उन्होंने अपनी पहली फिल्म नील कमल में राज कपूर और मधुबाला को लेकर अपनी फिल्मों का निर्माण शुरू किया। उन्होंने गीता बाली को अपनी पहली फिल्म, सोहाग रात (1948) में कास्ट किया और बाद में उन्हें राजकपूर के साथ फिल्म बावरे नैन (1950) के लिए टीम में शामिल किया। उसी वर्ष उन्होंने नर्गिस और दिलीप कुमार अभिनीत जोगन का निर्देशन किया। 1950 के दशक के उत्तरार्ध में जवाहरलाल नेहरू ने शर्मा के गीतों को सुना था, उन्हें बुलाया और उन्हें चिल्ड्रन्स फिल्म सोसाइटी का प्रमुख निदेशक बनने के लिए कहा। केदार शर्मा ने बाल फिल्म सोसाइटी के लिए कई फिल्मों पर काम किया, जिसमें फिल्म जलदीप भी शामिल है, जिसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसा प्राप्त हुई।  उन्होंने 1958 में शॉ ब्रदर्स स्टूडियो के लिए सिंगापुर में एक वर्ष फिल्मों का निर्देशन किया।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 50 – मोह भंग ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं  ज्ञानवर्धक आलेख  “मोह भंग । )

Amazon Link – Purn Vinashak

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 49 ☆

☆ मोह भंग

 

बुद्ध के प्रारंभिक उपदेश, आगम सूत्रों में से एक में, इस कथन के पीछे एक बहुत ही रोचक कहानी है। यह कहानी कुछ इस तरह से है :

एक बार एक आदमी था जिसकी चार पत्नियाँ थीं। प्राचीन भारत की सामाजिक प्रणाली और परिस्थितियों के अनुसार, एक आदमी के लिए कई पत्नियाँ हो सकती थीं। इसके अतिरिक्त, लगभग एक हजार साल पहले जापान में हेनियन काल के दौरान, एक स्त्री के लिए कई पति होना भी असामान्य नहीं था। एक बार वह व्यक्ति बीमार हो गया और मरने वाला था। अपने जीवन के अंत में, वह बहुत अकेला अनुभव कर रहा था और इसलिए उसने अपनी पहली पत्नी को अपने साथ दूसरी दुनिया में जाने के लिए कहा। उसने कहा, ‘मेरी प्रिय पत्नी,’ मैंने आपको दिन और रात्रि प्रेम किया, मैंने पूरे जीवन में तुम्हारा ख्याल रखा। अब मैं मरने वाला हूँ, क्या आप मेरी मृत्यु के बाद मेरे साथ चलेंगी? ”

उसे अपनी पत्नी द्वारा हाँ कहने की उम्मीद थी। लेकिन उसने उत्तर दिया, “मेरे प्यारे पति, मुझे पता है कि आप हमेशा से मुझसे प्यार करते हो। और अब आप मरने जा रहे हैं। अब मेरा आपसे अलग होने का समय है। अलविदा मेरे प्रिय”

उसने अपनी दूसरी पत्नी को अपने अंतिम समय में अपने पास बुलाया और उसे मृत्यु में उसके पीछे आने के लिए आग्रह किया। उसने कहा, ‘मेरी प्यारी दूसरी पत्नी, आप जानती हो कि मैं तुमसे कितना प्रेम करता हूँ कभी-कभी मुझे डर लगा कि तुम मुझे छोड़ सकती हो, लेकिन मैं दृढ़ता से आपके पास रहा। मेरे प्रिय, कृपया मेरे साथ आओ”

दूसरी पत्नी ने शाँत रूप से व्यक्त किया और कहा, “प्रिय पति, आपकी पहली पत्नी ने आपकी मृत्यु के बाद आपसे जुड़ने से इनकार कर दिया। मैं आपका अनुसरण कैसे कर सकती हूँ? अपने तो मुझे केवल अपने स्वार्थ की खातिर ही प्रेम किया है”

अपनी मृत्यु के समय झूठ बोलते हुए, उसने अपनी तीसरी पत्नी को बुलाया, और उससे पूछा कि क्या वह उसका अनुसरण करेगी? तीसरी पत्नी ने उसकी आँखों में आँसू के साथ उत्तर  दिया, “मेरे प्यारे, मुझे आपके ऊपर दया आ रही है और मैं आपके लिए उदास अनुभव कर रही हूँ। इसलिए मैं आपके साथ शमशान तक जाऊंगी। यह आपके लिए मेरा आखिरी कर्तव्य है” इस प्रकार तीसरी पत्नी ने भी अपने पति की मृत्यु के साथ जाने से इनकार कर दिया।

उसकी तीन पत्नियों के इनकार करने के बाद अब उसने याद किया कि उसकी एक और चौथी पत्नी भी है, जिसके लिए उसने कभी भी बहुत ज्यादा परवाह नहीं की थी। उसने हमेशा उसके साथ दासी की तरह व्यवहार किया था और हमेशा उससे बहुत नाराज रहता था। उसने अब सोचा कि अगर उसने उसे मृत्यु के लिए उसका पालन करने के लिए कहा, तो वह निश्चित रूप से मना ही कर देगी। लेकिन उस व्यक्ति का अकेलापन और भय इतने गंभीर थे कि उसने अपनी उस चौथी पत्नी को भी मृत्यु के बाद अन्य दुनिया में अपने साथ जाने के लिए कहा। चौथी पत्नी ने खुशी से अपने पति के अनुरोध को स्वीकार कर लिया।

उसने कहा, ‘मेरे प्रिय पति,’ मैं आपके साथ अवश्य जाऊंगी। जो कुछ भी होगा मैं हमेशा आपके साथ रहने के लिए दृढ़ संकल्पित हूँ। मैं आपसे अलग नहीं हो सकती हूँ। तो यह एक आदमी और उसकी चार पत्नियों की कहानी है।

ये पत्नियाँ क्या संकेत करती है?

गौतम बुद्ध ने इस कहानी का निम्नानुसार निष्कर्ष निकाला: प्रत्येक पुरुष और स्त्री  की चार पत्नियां या पति हैं। ये पत्नियाँ कौन है?

पहली ‘पत्नी’ हमारा शरीर है। हम दिन और रात्रि हमारे शरीर से प्यार करते हैं। सुबह में, हम अपने चेहरे को धोते हैं, अच्छे कपड़े और जूते पहनते हैं।

हम अपने शरीर को भोजन देते हैं। हम इस कहानी में पहली पत्नी की तरह हमारे शरीर का ख्याल रखते हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश, हमारे जीवन के अंत में, शरीर या हमारी पहली ‘पत्नी’ अगली दुनिया में हमारा अनुसरण नहीं करती है।

जैसा कि एक टिप्पणी में कहा गया है, ‘जब आखिरी साँस हमारे शरीर को छोड़ देती है तो हमारे चेहरे का रंग बदल जाता है और हम चमकदार जीवन की उपस्थिति खो देते हैं हमारे प्रियजन चारों ओर इकट्ठा हो जाते हैं और विलाप करते हैं, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं होता है। जब ऐसी कोई घटना होती है, तो शरीर को खुले मैदान में जला दिया जाता है और हमारा शरीर केवल श्वेत राख बनकर रह जाता है। यह ही हमारे शरीर का गंतव्य है।

दूसरी पत्नी का क्या अर्थ है? दूसरी ‘पत्नी’ हमारे भाग्य, हमारी भौतिक चीजें, धन, संपत्ति, प्रसिद्धि, स्थिति और नौकरी है जिसे हमने हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत की है। हम इन भौतिक संपत्तियों से जुड़े हुए हैं। हम इन भौतिक चीजों को खोने से डरते हैं और अधिक होने की इच्छा रखते हैं। हमारी इच्छाओं की कोई सीमा नहीं है। हमारे जीवन के अंत में ये चीजें हमारी मृत्यु के साथ हमारे साथ नहीं जा सकती हैं। जो भी हमने कमाया है, हमें उसे छोड़ना होगा। हम खाली हाथ इस दुनिया में आये थे। इस दुनिया में हमारे जीवन के दौरान, हमें भ्रम है कि हमने एक भाग्य प्राप्त किया है। मृत्यु पर, हमारे हाथ खाली होते हैं। हम अपनी मृत्यु के बाद अपना भाग्य नहीं पकड़ सकते, जैसे कि दूसरी पत्नी ने अपने पति से कहा: ‘तुमने मुझे अहंकार केंद्रित स्वार्थीता के साथ पकड़ रखा था। अब अलविदा कहने का समय है’

तीसरी पत्नी का क्या अर्थ है? हर किसी की तीसरी ‘पत्नी’ होती है। यह हमारे माता-पिता, बहन और भाई, सभी रिश्तेदारों, दोस्तों और समाज का रिश्ता है। वे शमशान तक उनकी आँखों में आँसू के साथ हमारे मृत शरीर के साथ चलते हैं वहाँ तक वे सहानुभूतिपूर्ण और दुखी रहते हैं।

इस प्रकार, हम अपने भौतिक शरीर, हमारे भाग्य और हमारे समाज पर निर्भर नहीं हो सकते हैं। हम अकेले पैदा हुए हैं और हम अकेले मर जाते हैं। हमारी मृत्यु के बाद कोई भी हमारे साथ नहीं होगा। बुद्ध ने चौथी पत्नी का उल्लेख किया है, जो मृत्यु के बाद अपने पति के साथ जाती है। इसका क्या अर्थ है? चौथी ‘पत्नी’ हमारा मस्तिष्क है। जब हम गहराई से निरीक्षण करते हैं और पहचानते हैं कि हमारे मस्तिष्क क्रोध, लालच और असंतोष से भरे हुए हैं, अगर हम अपने जीवन पर नज़र डाले तो देखेंगे की क्रोध, लालच, और असंतोष ही हमारे कर्मों को सर्वाधिक प्रभावित करते हैं। हम अपने कर्म से अलग नहीं हो सकते हैं। चौथी पत्नी ने अपने मरने वाले पति से कहा, ‘जहाँ भी तुम जाओगे मैं तुम्हारा पीछा करूंगी”

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 54 ☆ मोहे चिन्ता न होय ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय एवं प्रेरक आलेख मोहे चिन्ता न होय।  दुखों को सहर्ष स्वीकारना एवं  उस पर विजय पाना ही जीवन की सार्थकता है। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 54 ☆

☆ मोहे चिन्ता न होय

 उम्र भर ग़ालिब, यही भूल करता रहा/ धूल चेहरे पर थी, आईना साफ करता रहा’– ‘इंसान घर बदलता है,  लिबास बदलता है, रिश्ते बदलता है, दोस्त बदलता है– फिर भी परेशान रहता है, क्योंकि वह खुद को नहीं बदलता।’ यही है ज़िंदगी का सत्य व हमारे दु:खों का मूल कारण, जहां तक पहुंचने का इंसान प्रयास ही नहीं करता। वह सदैव इसी भ्रम में रहता है कि वह जो भी सोचता व करता है, केवल वही ठीक है और उसके अतिरिक्त सब गलत है और वे लोग भी दोषी हैं, अपराधी हैं, जो आत्मकेंद्रितता के कारण अपने से इतर कुछ देख ही नहीं पाते। वह चेहरे पर लगी धूल को तो साफ करना चाहता है, परंतु आईने पर दिखाई पड़ती धूल को साफ करने में व्यस्त रहता है… ग़ालिब का यह शेयर हमें हक़ीक़त से रूबरू कराता है। जब तक हम आत्मावलोकन कर, अपनी गलती को स्वीकार नहीं करते, हमारी भटकन पर विराम नहीं लगता। वास्तव में हम ऐसा करना ही नहीं चाहते। हमारा अहम् हम पर अंकुश लगाता है, जिसके कारण हमारी सोच पर ज़ंग लग जाता है। हम कूपमंडूक बनकर रह जाते हैं और अपने जीवन में अपनी इच्छाओं की पूर्ति तो करना चाहते हैं, परंतु उचित राह का ज्ञान न होने के कारण अपनी मंज़िल पर नहीं पहुंच पाते। हम चेहरे की धूल को आईना साफ करके मिटाना चाहते हैं। सो! हम आजीवन आशंकाओं से घिरे रहते हैं और उसी चक्रव्यूह में फंसे, चीखते-चिल्लाते रहते हैं, क्योंकि हममें आत्मविश्वास का अभाव होता है। सत्य ही है कि जिन्हें खुद पर भरोसा होता है, वे शांत रहते हैं तथा उनके हृदय में संदेह, शक़ व दुविधा का स्थान नहीं होता। वे अंतर्मन की शक्तियों को पहचान कर निरंतर आगे बढ़ते रहते हैं, कभी पीछे मुड़कर नहीं देखते। वास्तव में उनका व्यवहार युद्धक्षेत्र में तैनात सैनिक के समान होता है, जो सीने पर गोली खाकर शहीद होने में विश्वास रखता है और आधे रास्ते से लौट आने में भी उसकी आस्था नहीं होती।

परंतु संदेहग्रस्त इंसान सदैव उधेड़बुन में खोया रहता है, सपनों के महल तोड़ता व बनाता रहता है। वह गलत दिशा में तीर चलाता रहता है। इसके निमित्त वह घर को वास्तु की दृष्टि से शुभ न मानकर, उस घर को बदलता है; नये-नये लोगों से संपर्क साधता है; रिश्तों व परिवारजनों को  नकार देता है,; मित्रों से दूरी बना लेता है… परंतु उसकी समस्याओं का अंत नहीं होता। वास्तव में हमारी समस्याओं का समाधान दूसरों के पास नहीं, हमारे ही पास होता है। दूसरा व्यक्ति आपकी परेशानियों को समझ तो सकता है; आपकी मन:स्थिति को अनुभव कर सकता है, परंतु उस द्वारा उचित व सही मार्गदर्शन करना कैसे करना व समस्याओं का समाधान करना कैसे संभव होगा?

रिश्ते, दोस्त, घर आदि बदलने से आपके व्यवहार व दृष्टिकोण में परिवर्तन नहीं आता; न ही लिबास बदलने से आपकी चाल-ढाल व व्यक्तित्व में परिवर्तन होता है। सो! आवश्यकता है, सोच बदलने की; नकारात्मकता को त्याग सकारात्मकता अपनाने की;  हक़ीक़त से रू-ब-रू होने की; सत्य को स्वीकारने की। जब तक हम इन्हें दिल से स्वीकार नहीं करते; हमारे कार्य-व्यवहार व जीवन-शैली में लेशमात्र भी परिवर्तन नहीं आता।

‘कुछ हंसकर बोल दो/ कुछ हंस कर टाल दो/ परेशानियां बहुत हैं/  कुछ वक्त पर डाल दो’ में सुंदर व उपयोगी संदेश निहित है। जीवन में सुख-दु:ख आते-जाते रहते हैं। सो! निराशा का दामन थाम कर बैठने से उनका समाधान नहीं हो सकता। इस प्रकार वे समय के अनुसार विलुप्त तो हो सकते हैं, परंतु समाप्त नहीं हो सकते। इस संदर्भ में महात्मा बुद्ध के विचार बहुत सार्थक प्रतीत होते हैं। जीवन में सामंजस्य स्थापित करने के लिए आवश्यक है कि हम सब से हंस कर बात करें और अपनी परेशानियों को हंस कर टाल दें, क्योंकि समय निरंतर परिवर्तन- शील है। समय आने पर दिन-रात व ऋतु- परिवर्तन अवश्यंभावी है। कबीरदास जी के अनुसार ‘ऋतु आय फल होय’ अर्थात् समय आने पर ही फल की प्राप्ति होती है। लगातार भूमि में सौ घड़े जल उंडेलने का कोई लाभ नहीं होता, क्योंकि समय से पहले व भाग्य से अधिक किसी को संसार में कुछ नहीं प्राप्त होता। इसी संदरभ में मुझे याद आ रही हैं स्वरचित मुक्तक संग्रह ‘अहसास चंद लम्हों का’ की पंक्तियां ‘दिन रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ-साथ/ फूल और पात बदलते हैं।’ इसी के साथ मैं कहना चाहूंगी, ‘ग़र साथ हो सुरों का/ नग़मात बदलते हैं।’ अर्थात् समय व स्थान परिवर्तन से मन:स्थिति व मनोभाव भी बदल जाते हैं; जीवन में नई उमंग-तरंग का पदार्पण हो जाता है और ज़िंदगी से उसी रफ़्तार से पुन: दौड़ने लगती है।

चेहरा मन का आईना है, दर्पण है। जब हमारा मन प्रसन्न होता है, तो ओस की बूंदे भी हमें मोतियों सम भासती हैं और मन रूपी अश्व तीव्र गति से भागने लगते हैं। वैसे भी चंचल मन तो पल भर में तीन लोगों की यात्रा कर लौट आता है। परंतु इससे विपरीत स्थिति में हमें प्रकृति आंसू बहाते प्रतीत होती है; समुद्र की लहरें चीत्कार करने लगती हैं और मंदिर की घंटियों के अनहद स्वर के स्थान पर चिंघाड़ें सुनाई पड़ती हैं। इतना ही नहीं, गुलाब की महक के स्थान पर कांटो का ख्याल मन में आता है और अंतर्मन में सदैव यही प्रश्न उठता है, ‘यह सब कुछ मेरे हिस्से में क्यों? क्या है मेरा कसूर और मैंने तो कभी बुरे कर्म किए ही नहीं।’ परंतु बावरा मन भूल जाता है  कि इंसान को पूर्व-जन्मों के कर्मों का फल भी भुगतना पड़ता है। आखिर कौन बच पाया है…कालचक्र की गति से? भगवान राम व कृष्ण को आजीवन आपदाओं का सामना करना पड़ा। कृष्ण का जन्म जेल में हुआ, पालन ब्रज में हुआ और वे बचपन से ही जीवन-भर मुसीबतों का सामना करते रहे। राम को देखिए, विवाह के पश्चात् चौदह वर्ष का वनवास; सीता-हरण; रावण को मारने के पश्चात् अयोध्या में राम का राजतिलक, धोबी के आक्षेप करने पर सीता का त्याग; विश्वामित्र के आश्रम में आश्रय ग्रहण,; अपने बेटों को अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा पकड़ने पर सत्य से अवगत कराना; राम की सीता से मुलाकात; अग्नि-परीक्षा और अयोध्या में पुनरागमन। पुनः अग्नि परीक्षा हेतु अनुरोध करने पर सीता का धरती में समा जाना’ क्या उन्होंने कभी अपने भाग्य को कोसा? क्या वे आजीवन आंसू बहाते रहे? नहीं, वे तो आपदाओं को खुशी से गले से लगाते रहे। यदि आप भी खुशी से कठिनाइयों का सामना करते हो, तो ज़िंदगी कैसे गुज़र जाती है, पता ही नहीं चलता, अन्यथा हर पल जानलेवा हो जाता है।

इन विषम परिस्थितियों में दूसरों के दु:ख को सदैव महसूसना चाहिए, क्योंकि यह इंसान होने का प्रमाण है। अपने दर्द का अनुभव तो हर इंसान करता है और वह जीवित कहलाता है। आइए! समस्त ऊर्जा को दु:ख निवारण में लगाएं। खुद भी हंसें और संसार के प्राणी-मात्र के प्रति संवेदनशील बनें; आत्मावलोकन कर अपने दोषों को स्वीकारें। समस्याओं में उलझें नहीं, समाधान निकालें। अहम् का त्याग कर अपनी दुष्प्रवृत्तियों को सद्प्रवृत्तियों में परिवर्तित करने की चेष्टा करें। गलत लोगों की संगति से बचें। केवल दु:ख में ही सिमरन न करें, सुख में भी उस सृष्टि- नियंता को भूलें नहीं… यही है दु:खों से मुक्ति पाने का मार्ग, जहां मानव अनहद-नाद में अपनी सुधबुध खोकर, अलौकिक आनंद में अवगाहन कर राग-द्वेष से ऊपर उठ जाता है। इस स्थिति में वह प्राणी-मात्र में परमात्मा-सत्ता की झलक पाता है और बड़ी से बड़ी मुसीबत में परेशानियां उसका बाल भी बांका नहीं कर पातीं। अंत में कबीरदास जी की पंक्तियों को उद्धृत कर अपनी लेखनी को विराम देना चाहूंगी, ‘कबिरा चिंता क्या करे, चिंता से क्या होय/ मेरी चिंता हरि करे, मोहे चिंता ना होय।’ चिंता किसी रोग का निदान नहीं है। इसलिए चिंता करना व्यर्थ है। परमात्मा हमारे हित के बारे में हम से अधिक जानता है, तो हम चिंता क्यों करें? सो! हमें उस पर अटूट विश्वास करना चाहिए, क्योंकि वह हमारे हित में हमसे बेहतर निर्णय लेगा।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 7 ☆ पर्यावरण और हमारे दायित्व ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

`डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक समसामयिक एवं सकारात्मक आलेख  पर्यावरण और हमारे दायित्व।)

☆ किसलय की कलम से # 7 ☆

☆ पर्यावरण और हमारे दायित्व ☆

(जैव विविधता के हानि-लाभ)

पर्यावरण अर्थात वह आवरण अथवा घेरा जो हमारे चारों ओर विद्यमान हो, जिसके आँचल में रहकर हम जीवन जी रहे हैं। इसके असंतुलन से जीवजगत संकटग्रस्त होता जा रहा है। मानव जीवन का पर्यावरण से सबसे निकट का संबंध है। इसके विकास, संवर्धन व संरक्षण की महती आवश्यकता है। पर्यावरण के प्रति जनजागृति व इसके क्षरण को रोकने संबंधी प्रयासों को मूर्तरूप देना पर्यावरण दिवस का प्रमुख उद्देश्य है। आज का जीवन पृथ्वी पर लगभग चार अरब साल के जैव विविधता का परिणाम है। लगभग दस करोड़ साल पूर्व से जीवन की विकास यात्रा कुछ तेज हुई लेकिन अब मनुष्यों के कारण पर्यावरण का इतना अधिक क्षरण हो रहा है कि अगले सौ वर्ष के भीतर इस पृथ्वी ग्रह की प्रजातियाँ सबसे अधिक संख्या में विलुप्त हो जाएँगी।

पर्यावरण के अंतर्गत जल, वायु, भूमि एवं इनसे संबंधित चीजें, जीव-जंतु, सूक्ष्म जीव व पेड़-पौधे आते हैं। मनुष्य एवं पर्यावरण के बीच पारस्परिक संबंधों के अध्ययन से जीव परस्पर तथा पर्यावरण के साथ किस तरह व्यवहार करते हैं। वह सब कुछ ज्ञात करने हेतु जीव विज्ञान की पारिस्थितिकी (इकोलॉजी) शाखा का सहारा लिया जाता है।

पर्यावरण में असंतुलन का सीधा प्रभाव मानव जीवन पर पड़ता है। इसमें प्रकृति तथा मानव दोनों ही उत्तरदायी होते हैं। मानव द्वारा धरा पर किए जा रहे सतत निर्माणों से वनस्पतियों पर प्रभाव पड़ रहा है, जिनसे लाभकारी वनस्पतियों की कमी हो रही है। वहीं हमने यह भी पाया है कि हम जिन वनस्पतियों को पूर्णरूपेण अनुपयोगी मानकर छोड़ देते हैं, वे वनस्पतियाँ या पौधे लगातार अपना फैलाव करते रहते हैं। यही बात जीव-जंतुओं के फैलाव अथवा कमी आने पर भी होती है। यह वृद्धि अथवा ह्रास मानव के हितकारी वह हानिकारक दोनों हो सकते हैं। मानव की अनेक गतिविधियों से विषाक्त औद्योगिक कचरा नदियों को प्रदूषित करता है। जंगलों के कटने से वन्य प्राणियों के रहने के स्थान कम हो रहे हैं। जल, हवा व अनेक खाद्य पदार्थों की कमी होने लगी है। हम सभी जानते हैं कि हमें प्रकृति से भोजन, औद्योगिक कच्चा माल, औषधियाँ, प्रकाश संश्लेषण द्वारा उत्पन्न ऑक्सीजन, जल संरक्षण, मृदा संरक्षण आदि का लाभ पूर्व से ही मिल रहा है। प्राकृतिक आवासों के नष्ट होने से पशु-पक्षी और जंगली जीवों का पलायन होता है अथवा वे मर जाते हैं। अनेक घातक जानवर आवासीय क्षेत्रों में जन-धन की हानि पहुँचाते हैं। गाजर घास की अधिकता फसलों को नुकसान पहुँचाती है। खरगोश, चूहे, टिड्डी, दीमक, मच्छर आदि की बेपनाह वृद्धि भी हमें प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से हानि पहुँचाती है।

बढ़ती जनसंख्या, ध्वनि प्रदूषण, जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण आदि का भी वनस्पतियों और जीवों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। पशु-पक्षियों में रुचि रखने वाले लोग, जैव विविधता से प्रेरित गीत, संगीत, चित्रकारी, लेखन सांस्कृतिक दृश्य, बागवानी जैसे कार्य भी पर्यावरण संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर सकते हैं। पिछली शताब्दी से हो रहे जैव विविधता के दुष्परिणामों को देखते हुए हम कह सकते हैं कि मानव पर्यावरण क्षरण हेतु स्वयं उत्तरदायी है। राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बतलाई जा रहीं जानकारियाँ, लाभ-हानि व जागरूकता हेतु किए  जा रहे प्रयासों को अधिकांश लोग बिल्कुल भी अहमियत नहीं देते, न ही अपना उत्तरदायित्व समझते। हमें यह भी दिखाई दे रहा है कि हम उनसे उत्पन्न कठिनाईयों का सामना भी करने लगे हैं, परंतु अपेक्षानुरूप पर्यावरण संरक्षण के वे सारे कार्य अभी भी नजर नहीं आते जो वर्तमान में किये जाना चाहिए।

आज हमें आवश्यकता है वृक्षारोपण की। खास तौर पर शहरी क्षेत्रों में आवासीय मकानों के मध्य खाली स्थानों में वृक्षारोपण की। होना तो यह चाहिए कि दोनों आवासों के बीच कम से कम 10 से 20% स्थानों में वृक्षारोपण के शासकीय निर्देश हों। नदियों व जलाशयों में प्रदूषण फैलाना पूर्णतः वर्जित हो। औद्योगिक विषैले अपशिष्ट तथा जहरीले धुएँ से बचने के पुख्ता इंतजाम हों। प्रकृति की वनस्पतियों व जीवों में आदर्श संतुलन हेतु अंतरराष्ट्रीय प्रयासों का अनुकरण किया जाए। मानव को प्रकृति के निकट रहने के बहुआयामी स्रोत ढूँढे व बनाये जाएँ। बिना रासायनिक व कृत्रिमता वाले खाद्य पदार्थों को बढ़ावा दिया जाए।

यदि हम उपरोक्त कार्यों से स्वस्फूर्त भाव से आगे आएँगे तो निश्चित रूप से हम पारिस्थितिकी तथा पर्यावरण संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर सकेंगे। यही आज इक्कीसवीं सदी की चुनौती है, जो बिना संकल्प के संभव नहीं है। इसीलिए आईये, आज से ही हम संकल्पित होकर पर्यावरण संरक्षण की दिशा में प्रयास करना शुरू कर दें।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 53 ☆ संकल्प ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  एक विचारणीय कविता  “संकल्प । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 53 – साहित्य निकुंज ☆

☆ संकल्प  ☆

दोहा – 

कोरोना के काल में, बढ़ी पेट की आग।

कोई नहीं है सुन रहा, भूखों का यह राग।।

 

संकल्प –

 

करो दृढ़ संकल्प

नहीं दूसरा विकल्प

मिलजुलकर सब साथ रहो

एक दूसरे से कुछ न कहो।

कोरोना  का छाया आतंक

करना होगा मिलजुलकर अंत

जैसे

देश की रक्षा के लिए

वीरों ने उठाई तलवार

सहे अनेकों वार

राष्ट्र की अनेकता में एकता

रखी बरकरार।

देश पर आए अनेकों संकट

उखाड़ फेंके अनेकों कंटक

हमें अब नहीं है डरना

कोरोना को पड़ेगा हारना

मिलकर हम सबको उसे मारना।।

यह महामारी

नहीं होगी हम पर भारी।

इरादे रखो मजबूत

करते रहो

प्रभु का स्मरण

करो न उन्हें विस्मरण

हमें

घर से करना सामना

पैर घर में  ही थामना।।

करना है संकल्प

नहीं दूसरा कोई विकल्प।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 44 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है शब्द आधारित  “संतोष के दोहे”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 44 ☆

☆ “संतोष के दोहे ☆

 

आँचल

माँ का आँचल जगत में,देता शीतल छाँव

माँ देवी अवतार हैं, जन्नत माँ के पाँव

 

अभिसार

ऋतु बसंत में गा रहे,भंवरे भी मल्हार

कलियों का रस पान कर,चाह रहे अभिसार

 

अनुप्रास

प्रेम जगत में भावना, हुई छंद अनुप्रास

ह्रदय हिलोरे ले रहा,लगा प्रेम की आस

 

अजेय

चीन अहम से समझता,खुद को बड़ा अजेय

आये ऊँट पहाड़ तल,भारत का यह ध्येय

 

अनिकेत

सुना राम का वन गमन,दशरथ हुए अचेत

व्याकुल नगरी चल पड़ी,बहुत हुए अनिकेत

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

Please share your Post !

Shares