हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 55 ☆ संदेह और विश्वास ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय एवं प्रेरक आलेख संदेह और विश्वास। संदेह अथवा शक का कोई इलाज़ नहीं है और विश्वास हमें जीवन में सकारात्मक दृष्टिकोण प्रदान करता है।  यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 55 ☆

☆ संदेह और विश्वास

संदेह मुसीबत के पहाड़ों का निर्माण करता है और विश्वास पहाड़ों से भी रास्तों का निर्माण करता है। मन का संकल्प व शरीर का पराक्रम, यदि किसी काम में पूरी तरह लगा दिया जाए, तो सफलता निश्चित रूप से प्राप्त होकर रहेगी। सो! मंज़िल तक पहुंचने के लिए दृढ़-निश्चय, शारीरिक साहस व तन्मयता की आवश्यकता होती है। वैसे भी कबीर दास जी की यह पंक्तियां ‘करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान ‘ बहुत सार्थक हैं। काव्यशास्त्र में भी तीन शक्तियां स्वीकारी जाती हैं…प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास। प्रतिभा जन्मजात होती है, व्युत्पत्ति का संबंध शास्त्रों के अध्ययन से है और सिद्धहस्तता प्राप्ति के लिए बार-बार उस कार्य को करना अभ्यास के अंतर्गत आता है। तीनों का परिणाम चामत्कारिक होता है। सो! आवश्यकता है–मन को एकाग्र कर अपनी शारीरिक शक्तियों को संचित कर, उसमें लिप्त करने की। इस स्थिति में कोई भी आपदा या बाधा आपके पथ की अवरोधक नहीं बन सकती। हां! संदेह अवश्य मुसीबतों के पर्वतों का निर्माण करता है अर्थात् मन को संशय की स्थिति में लाकर छोड़ देता है; जिसके जंजाल से निकलने की कोई राह नहीं दिखाई पड़ती। वास्तव मेंं यह संशय, भूल-भुलैया अथवा अनिर्णय की स्थिति होती है, जिसमें मानव की मानसिक शक्ति कुंद हो जाती है। इसलिए शक़ को दोस्ती का शत्रु स्वीकारा गया है। यह गुप्त ढंग से ह्रदय में दस्तक देती है और अपना आशियां बना कर बैठ जाती है। उस स्थिति में उससे मुक्ति पाने का कोई मार्ग नज़र नहीं आता।

दूसरी ओर विश्वास पहाड़ों में से भी रास्तों का निर्माण करता है। यहां हमारा संबंध आत्मविश्वास से है; जिसमें हर आपदा का सामना करने की क्षमता होती है, क्योंकि कोई भी समस्या इतनी बड़ी नहीं होती, जिसका समाधान न हो। चित्त की एकाग्रता इसकी प्राथमिक शर्त है और उस स्थिति में मन में संशय का प्रवेश निषिद्ध होना चाहिए। यदि किसी कारण संदेह हृदय में प्रवेश कर जाता है, कि ‘यदि ऐसा होता; तो वैसा होता… कहीं ऐसा-वैसा न हो जाए ‘ आदि अनेक आशंकाएं मन में अकारण जन्म लेती हैं और हमें पथ-विचलित करती हैं। सो! संदेह पर विश्वास द्वारा विजय प्राप्त की जा सकती है; जिसके लिए आवश्यकता है– चित्त की एकाग्रता व शारीरिक शक्तियों के एकाग्रता के अभ्यास की और यही अपनी मंज़िल तक पहुंचने का सबसे कारग़र उपाय व सर्वश्रेष्ठ साधन है। इसी संदर्भ में दिनकर जी का यह कथन बहुत सार्थक है–’ज़िंदगी के असली मज़े उनके लिए नहीं हैं, जो फूलों की छांह के नीचे खेलते व सोते हैं, बल्कि फूलों की छांह के नीचे यदि जीवन का स्वाद छिपा है, तो वह भी उन्हीं के लिए है जो दूर रेगिस्तान से आ रहे हैं, जिनका कंठ सूखा व ओंठ फटे और सारा शरीर पसीने से तर-ब-तर है। पानी में अमृत तत्व है; उसे वही जानता है, जो धूप में चलते-चलते सूख चुका है।’ इस उक्ति में शारीरिक पराक्रम की महत्ता को दर्शाते हुए कहा गया है कि यदि मानव परिश्रम करता है, तो पर्वतों में भी रास्ता बनाना भी कठिन नहीं। मुझे स्मरण हो रहा है दाना मांझी का प्रसंग, जो अपनी पत्नी के शव को कंधे पर लाद-कर पर्वतों के ऊबड़- खाबड़ रास्तों से अपने गांव तक ले गया। परंतु उसने दुर्गम पथ की कठिनाइयों को अनुभव करते हुए मीलों लंबी सड़क बनाकर एक मुक़ाम हासिल किया, जिसमें उसका स्वार्थ निहित नहीं था, बल्कि दूसरों के सुख-सुविधा के लिए पर्वतों को काट कर सपाट रास्ते का निर्माण करने की प्रबल इच्छा शक्ति थी। परंतु इस कार्य को सम्पन्न करने में उसे लंबे समय तक जूझना पड़ा।

सो! दिनकर जी भी श्रमिकों के साहस को सराहते हुए श्रम के महत्व को प्रतिपादित करते हैं कि जीवन के असली मज़े उन लोगों के लिए हैं, न कि उनके लिए जो फूलों की चाह में अपना जीवन सुख-पूर्वक गुज़ारते हैं। मानव को परिश्रम करने के पश्चात् जो सुक़ून की प्राप्ति होती है, वह अलौकिक आनंद प्रदान करती है।

‘बहुत आसान है/ ज़मीन पर मकां बना लेना/ दिल में जगह बनाने में/ उम्र गुज़र जाती है।’ सो! धरा पर बड़े-बड़े महल बना लेना तो आसान है, परंतु किसी के दिल में जगह बनाने में तमाम उम्र गुज़र जाती है। यह महल, चौबारे, मखमली बिस्तर, सुख-सुविधा के विविध उपादान दिल को सुक़ून प्रदान नहीं करते। मखमली बिस्तर पर लोगों को अक्सर करवटें बदलते देखा है और बड़े-बड़े आलीशान बंगलों में रहने वालों से हृदय से सुक़ून नदारद रहता है। एक छत के नीचे रहते हुए अजनबीपन का अहसास उनकी ज़िंदगी की हक़ीक़त बयां करने के लिए काफी है। वे नदी के द्वीप की भांति, अपने-अपने दायरे में कैद रहते हैं, जिसका मुख्य कारण है–संवादहीनता से उपजी संवेदनशून्यता और मिथ्या अहं की भावना, जो हमें  एक-दूसरे के क़रीब नहीं आने देती। इसका परिणाम हम तलाक़ की दिन-प्रतिदिन बढ़ती संख्या के रूप में देख सकते हैं। सिंगल पेरेंट के साथ एकांत की त्रासदी झेलते बच्चों को देख हृदय उद्वेलित हो उठता है। सो! इन असामान्य परिस्थितियों में उनका सर्वांगीण विकास कैसे संभव है?

‘पहाड़ियों की तरह/खामोश हैं/ आज के संबंध/ जब तक हम न पुकारें/ उधर से आवाज़ भी नहीं आती’–ऐसे परिवारों की मन:स्थिति को उजागर करता है, जहां स्नेह-सौहार्द के स्थान पर अविश्वास, संशय व संदेह ने अपना आशियां बना रखा है। आजकल अति-व्यस्तता के कारण अंतहीन मौन अथवा गहन सन्नाटा छाया रहता है। मुझे स्मरण हो रही हैं इरफ़ान राही सैदपुरी की यह पंक्तियां, ‘हमारी बात सुनने की/ फुर्सत कहां तुमको/ बस कहते रहते हो/ अभी मसरूफ़ बहुत हूं’ उजागर करता है आज के समाज की त्रासदी को, जहां हर अहंनिष्ठ इंसान समयाभाव की बात कहता है; दिखावा-मात्र है। वास्तव में हम जिससे स्नेह करते हैं, जिस कार्य को करने की हमारे हृदय में तमन्ना होती है; उसके लिए हमारे पास समयाभाव नहीं होता। सो! जिसने जहान में दूसरों की खुशी में खुशी देखने का हुनर सीख लिया…वह इंसान कभी भी दु:खी नहीं हो सकता। दु:ख का मूल कारण है, इच्छाओं की पूर्ति न होना। अतृप्त इच्छाओं के कारण क्रोध बढ़ता है और इच्छाएं पूरी होने पर लोभ बढ़ता है। इसलिए धैर्यपूर्वक संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता है। राह बड़ी सीधी है और मोड़ तो मन के हैं। अहं के कारण मन में ऊहापोह की स्थिति बनी रहती है और वह आजीवन इच्छाओं के मायाजाल से मुक्त नहीं हो पाता और उनकी पूर्ति-हित गलत राहों पर चल निकलता है, जिसका परिणाम भयंकर होता है। इसका दोष भी वह सृष्टि-नियंता के माथे मढ़ता है। ‘न जाने वह कैसे मुकद्दर की किताब लिख देता है/ सांसें गिनती की ख्वाहिशें बे-हिसाब लिख देता है।’ इसके लिए दोषी हम खुद हैं, क्योंकि हम सुरसा की भांति बढ़ती इच्छाओं पर अंकुश नहीं लगाते, बल्कि उनकी पूर्ति में अपना पूरा जीवन खपा देते हैं। परंतु इच्छाएं कहां पूर्ण होती हैं। प्रसाद जी का यह पद,’ ज्ञान दूर, कुछ क्रिया भिन्न है/ इच्छा क्यों पूरी हो मन की/ एक दूसरे से मिल न सके/ यह विडंबना है जीवन की।’ हमें आवश्यकता है इच्छा-पूर्ति के लिए ज्ञान की और उस राह पर चल कर कर्म करने की, ताकि जीवन में सामंजस्य स्थापित हो सके। इसलिए ‘ख्याल रखने वाले को ढूंढिए/ इस्तेमाल करने वाले तो तुम्हें/ स्वयं ही ढूंढ ही लेंगे।’ इसलिए उस प्रभु को ढूंढने की चेष्टा कीजिए और उसकी कृपादृष्टि पाने कि हर संभव प्रयास कीजिए। उसे बाहर ढूंढने की आवश्यकता नहीं है, वह तो तुम्हारे मन में बसता है। इसलिए कहा गया है कि ‘तलाश न कर मुझे ज़मीन और आसमान की गर्दिशों में/ अगर तेरे दिल में नहीं, तो कहीं भी नहीं मैं।’ परंतु बावरा मन उसे पाने के लिए दर-दर की खाक़ छानता है। मृग की भांति कस्तूरी की महक के पीछे-पीछे दौड़ता है, जबकि वह उसकी नाभि में निहित होती है। यही दशा तो सब मन की होती है। वह भी प्रभु को मंदिर, मस्जिद आदि में ढूंढता रहता है और कई जन्मों तक उसकी भटकन समाप्त नहीं हो पाती। इसलिए भरोसा रखो ख़ुदा पर, अपनी ख़ुदी पर…आप अनंत शक्तियों के स्वामी हैं। ज़रूरत है- उन्हें जानने की, स्वयं को पहचानने की। जिस दिन तुम पर खुद पर भरोसा करने लगोगे, खुदा को अपने बहुत क़रीब पाओगे, क्योंकि तुम में और उसमें कोई भेद नहीं है। वह आत्मा के रूप में आपके भीतर ही स्थित है। पंच तत्वों से निर्मित शरीर अंत में पंच-तत्वों में विलीन हो जाता है। सो! दुनिया में असंभव कुछ नहीं, दृढ़- निश्चय व प्रबल इच्छा-शक्ति की दरक़ार है। इसलिए लक्ष्य निर्धारित कर लग जाइए उसकी पूर्ति में, तल्लीनता से, पूरे जोशो-ख़रोश से। सो,! शक़ को अपने हृदय में घर न बनाने दें, मंज़िलें बाहें फैला कर आपका स्वागत करेंगी और समस्त दैवीय शक्तियां तुम्हारा अभिनंदन करने को आतुर दिखाई पड़ेंगी। अंत में मैं यही कहना चाहूंगी, ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। ‘इस संसार में आप जो चाहते हैं, आप पाने में समर्थ हैं।’

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 8 ☆ चतुर्मास के पर्व, स्वास्थ्य व सावधानियाँ ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

`डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक समसामयिक, सार्थक एवं अनुकरणीय आलेख  चतुर्मास के पर्व, स्वास्थ्य व सावधानियाँ।)

☆ किसलय की कलम से # 8 ☆

☆ चतुर्मास के पर्व, स्वास्थ्य व सावधानियाँ☆

वर्ष के जिस कालखंड में श्री हरि विष्णु शयन करते हैं, सनातन मतानुसार उस अवधि को चतुर्मास, चौमासा, पावस अथवा सामान्य रूप से वर्षाऋतु कहते है। हिन्दी पंचांग के अनुसार देवशयनी एकादशी से हरि प्रबोधिनी एकादशी तक के समय को चतुर्मास कहते हैं। मुख्यरूप से वर्ष में शीत, गर्मी व वर्षा नामक तीन ऋतुएँ होती हैं। प्रत्येक ऋतु चार-चार माह की होती है, उनमें से यह चार मास की वर्षाऋतु विभिन्न विशेषताओं के कारण सबसे महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। ग्रीष्म की तपन के पश्चात वर्षा का आगमन धरा को तृप्त करता है। प्रकृति को पेड़-पौधों व हरियाली से समृद्ध करता है। कृषकों के लिए वर्षा सबसे महत्त्वपूर्ण होती है, क्योंकि संपूर्ण कृषि होने वाली वर्षा पर ही निर्भर करती है। कहने का तात्पर्य यह है कि वर्षा का प्रभाव पूरी शीत ऋतु व गर्मी में पानी की उपलब्धता सुनिश्चित करती है।

ऋतु परिवर्तन का प्रभाव मनुष्यों के शरीर व मन-मस्तिष्क पर भी पड़ता है। हमारे पूर्वजों एवं ऋषि-मुनियों ने गहन साधना, विशद चिंतन-मनन व अध्ययन के उपरांत ऋतुसंगत पर्व, व्रत व उपवासों को नियत किया है, जिससे हमारे व प्रकृति के मध्य स्वस्थ सामंजस्य बना रहे। हम ऋतु के अनुरूप स्वयं को ढाल सकें और हमें किसी भी तरह का कष्ट अथवा बीमारियों का सामना न करना पड़े। वर्षाकाल अथवा पावस एक ऐसा कालखंड होता है जब भारतीय जनमानस खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्र के निवासियों का वर्ष के अन्य दिनों की अपेक्षा घर से निकलना बहुत कम हो जाता है। कृषि कार्य जहाँ बिल्कुल कम होते हैं, वहीं वर्षा के कारण घर के बाहर काम करना अथवा व्यवसाय भी कम हो जाता है।

ठंडे मौसम व वर्षा के कारण मनुष्यों की पाचन शक्ति (मेटाबॉलिज्म) तो कम होती ही है, पाचन में सहायक एंजाइम की कमी भी होने लगती है। डाइसटेस व पेप्सिन 37 सेंटीग्रेड से अधिक तापमान पर ही ज्यादा सक्रिय रहते हैं। हमारे यहाँ मौसम के विशद अध्ययन के पश्चात ही पर्व व पथ्य निर्धारित किए गए हैं। इनका अनुकरण करने से हम अनेक बीमारियों से बचने के साथ-साथ स्वयं को स्वस्थ भी रख सकते हैं। पर्वों तथा व्रतों में उपवास रखने तथा उपवास के दौरान ऋतु अनुसार निर्धारित पथ्य से हम हानिकारक खाद्य पदार्थों के सेवन से बच सकते हैं क्योंकि हमारे पूर्व-प्रबुद्धों द्वारा ऐसी भोजन सामग्री का ही चयन किया गया है जो हमारे शरीर की परिस्थितियों के अनुरूप जरूरतें पूरी करने में सक्षम होती हैं।

पावस में हरियाली तीज, नागपंचमी, हरतालिका, प्रकाश उत्सव, गणेश चतुर्थी, ऋषि पंचमी, संतान सप्तमी, कृष्ण जन्माष्टमी, श्रावण सोमवार जैसे पर्वों पर अलग-अलग दिनचर्या, भोजन वह फलाहार का विधान है। शहद, पपीता, गुड़, मसाले (सोंठ, कालीमिर्च, दालचीनी, तेजपत्र, जीरा, पिप्पली, धनियाँ, अजवाइन, राई, हींग), पंचगव्य, कंद, मेवे आदि के यथा निर्देशित उपयोग से हमारे शारीरिक विकार शरीर से बाहर होते हैं और पाचन शक्ति बढ़ती है। इनसे हमारी रोग प्रतिरोधक शक्ति में भी वृद्धि होती है। इस काल में कम भोजन करने व कभी-कभी उपवास रखने पर शरीर में ऑटोफागी नाम की सफाई प्रक्रिया शुरू हो जाती है, जिससे एक ओर शरीर की अनावश्यक कोशिकाएँ शरीर से बाहर होने लगती हैं वहीं दूसरी ओर नवीन कोशिकाओं के निर्माण में भी गति आती है। उपवास से शरीर के फैटी टिशुओं को विखंडित करने वाले हारमोन्स भी निकलते हैं, जिससे शरीर की चर्बी कम होती है अर्थात वजन कम होता है।

यह तो हम सभी जानते हैं कि व्रत उपवास व श्रम से पाचनशक्ति वर्धक जठराग्नि (डाइजेस्टिव फायर) भी बढ़ती है। हमारे पूर्वजों, वैद्यों, मौसम विज्ञानियों ने ऐसे अनेक प्रामाणिक ग्रंथ, सूक्तियाँ, दोहे, कविताएँ आदि लिखी हैं जो ऋतु परिवर्तन होने पर हमारे स्वास्थ्य व पथ्य हेतु अत्यंत उपयोगी हैं। हम घाघ कवि को ही ले लें, उन्होंने लिखा है:-

चैते गुड़, बैसाखे तेल,

जेठे पंथ, असाढ़े बेल।

सावन साग, भादों दही,

क्वाँर करेला, कातिक मही।

अगहन जीरा, पूसे धना,

माघे मिश्री, फागुन चना।

ई बारह जो देय बचाय

वहि घर वैद्य, कबौं न जाए

वर्षाऋतु में अधिकतर हरी एवं पत्तेदार सब्जियों में कीट व रोग बढ़ जाते हैं। कीटों की प्रजनन गति तेज हो जाती है। ये कीट प्रमुखतः पत्तियों पर ही ज्यादा पनपते हैं। कीट सब्जियों के अंदर जाकर उन्हें दूषित तथा हानिकारक भी बनाते हैं। कुछ सब्जियों में विषैलापन बढ़ जाता है। वर्षाऋतु में खासतौर पर गंदा पानी, कीचड़, सूर्य प्रकाश की कमी, सीलन, विभिन्न कीट पतंगे, साँप, बिच्छू भी हमें तरह-तरह से हानि पहुँचाते हैं। विषैले तथा गंदगी फैलाने वाले जीव-जन्तु भी घरों में व खाद्य पदार्थों में बढ़ने लगते हैं। जीवाणु व विषाणु भी श्वास तथा भोजन के माध्यम से हमें बीमार बनाते हैं। मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया, हैज़ा आदि मच्छरों व मक्खियों की वृद्धि का ही दुष्परिणाम होता है। चर्मरोग, अतिसार (डायरिया), पीलिया जैसे रोग भी दूषित पानी व दूषित भोजन से होते हैं। इस अवधि में घर तथा बाहर दोनों जगहों पर आवागमन के दौरान विशेष सावधानी व सुरक्षा का ध्यान रखना चाहिए। वर्षा ऋतु में गंदे कुएँ, तालाब, पोखर, नहरों, नदियों तथा इनके समीप कम गहरे हैंडपंप आदि का पानी पीने से बचना चाहिए। साथ ही बीमार व्यक्ति का मल-मूत्र उल्टी आदि खुले स्थानों अथवा इन जलाशयों में नहीं डालना चाहिए। भोजन सदैव ताजा, गर्म, स्वच्छ एवं पौष्टिक ही खाना चाहिए। इन दिनों हमें फिल्टर, आर.ओ. अथवा आवश्यक मिनरल युक्त जल ही पीना चाहिए। पहले से कटे फल-फूल नहीं खाना चाहिए। बिना हाथ धोए खाना नहीं खाना चाहिए। बच्चों को बोतल से दूध पिलाने व बासी भोजन खाने से बचना भी वर्षाकाल की बीमारियों से सावधानी बरतना ही कहलाएगा।

इस तरह यदि आप चतुर्मास में स्वयं को स्वस्थ, सुखी व प्रसन्न रखना चाहते हैं तब आपको चौमासे के पर्वों पर उपवास रखना होगा। पर्वों पर सुझाया गया फलाहार अथवा भोजन संतुलित मात्रा में करना होगा। खानपान के साथ-साथ घर की स्वच्छता पर भी विशेष ध्यान देना होगा। घर में अथवा घर के बाहर प्रदूषण, सीलन, भीगने व घर को शुष्क रखने का प्रयास करना भी जरूरी है। वक्त के साथ हमारी जीवन शैली में व्यापक परिवर्तन आए हैं, लेकिन नए-नए किस्म के प्रदूषण व संक्रमण भी बढ़े हैं। इसलिए हमें स्वविवेक व वैज्ञानिक तथ्यपरक दिशा-निर्देशों के अनुरूप सुरक्षा व सावधानी अपनानी होगी, तभी हम चतुर्मास में नीरोग तथा प्रसन्न रह पायेंगे।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 54 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना  के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 54 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना  के दोहे  ☆

चीन चले ही जा रहा,

कैसी कुचक्र  चाल।

जीवन में   लेगें नहीं,

कभी  चीन का माल।।

 

छल छंदों के रूप को,

देख लिया है खूब।

मंचों पर होने लगी,

उन्हें देखकर ऊब।।

 

छल छंदों ने रच लिया,

अब तो खूब प्रपंच।

उड़ा रहे खिल्ली सभी,

खेद नहीं है रंच।।

 

फूल अधर पर खिल उठे

बाकर मृदु मुस्कान।

तुझ बिन जीवन कुछ नहीं,

तू ही मेरी जान।।

 

तन मन उपवन हो रहा,

सौरभ है मन प्राण।

कली कली मन की खिली,

मिला पीर को त्राण।।

 

सूरज तेरी आस में,

देख रहे है राह।

अंधकार पसरा बहुत,

ओझल हुई पनाह।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 45 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है शब्द आधारित  “संतोष के दोहे”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 45 ☆

☆ “संतोष के दोहे ☆

 

नवगीत

उठते पुलकित ह्रदय से,जीवन में नवगीत

बजती मन में बाँसुरी,यही ह्रदय संगीत

 

पछुवा

लिए कुटिलता चल पड़ी,अधर कुटिल मुस्कान

पछुवा संग चलें सदा,ये आंधी तूफान

 

पनघट

ताल,तलैया बावड़ी,वो पनघट का प्यार

उजड़ गए अब वो सभी,उल्टी चले बयार

 

दिनमान 

अक्सर छोटे लोग ही,करते हैं अभिमान

जैसे जुगनू समझता,खुद को ही दिनमान

 

शिल्प

करे शिल्प हर छंद का,मन भावन शृंगार

रचनाएँ अनुपम लगें,शोभा बढ़े अपार

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

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हिन्दी/मराठी साहित्य – लघुकथा ☆ सुश्री मीरा जैन की हिन्दी लघुकथा ‘कर्तव्य’ एवं मराठी भावानुवाद ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक 60 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें बाल वाङ्गमय -30 से अधिक, कथा संग्रह – 4, कविता संग्रह-2, संकीर्ण -2 ( मराठी )।  इनके अतिरिक्त  हिंदी से अनुवादित कथा संग्रह – 16, उपन्यास – 6,  लघुकथा संग्रह – 6, तत्वज्ञान पर – 6 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। )

आज प्रस्तुत है  सर्वप्रथम सुश्री मीरा जैन जी  की  मूल हिंदी लघुकथा  ‘कर्तव्य ’ एवं  तत्पश्चात श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  द्वारा मराठी भावानुवाद कर्तव्य 

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सुश्री मीरा जैन 

(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री मीरा जैन जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है ।  अब तक 9 पुस्तकें प्रकाशित – चार लघुकथा संग्रह , तीन लेख संग्रह एक कविता संग्रह ,एक व्यंग्य संग्रह, १००० से अधिक रचनाएँ देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से व्यंग्य, लघुकथा व अन्य रचनाओं का प्रसारण। वर्ष २०११ में ‘मीरा जैन की सौ लघुकथाएं’  पुस्तक पर विक्रम विश्वविद्यालय (उज्जैन) द्वारा शोध कार्य करवाया जा चुका है।  अनेक भाषाओं में रचनाओं का अनुवाद प्रकाशित। कई अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय तथा राज्य स्तरीय पुरस्कारों से पुरस्कृत / अलंकृत । नई दुनिया व टाटा शक्ति द्वारा प्राइड स्टोरी अवार्ड २०१४, वरिष्ठ लघुकथाकार साहित्य सम्मान २०१३ तथा हिंदी सेवा सम्मान २०१५ से सम्मानित। २०१९ में भारत सरकार के विद्वानों की सूची में आपका नाम दर्ज । आपने प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट के पद पर पांच वर्ष तक बाल कल्याण समिति के सदस्य के रूप में अपनी सेवाएं उज्जैन जिले में प्रदान की है। बालिका-महिला सुरक्षा, उनका विकास, कन्या भ्रूण हत्या एवं बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ आदि कई सामाजिक अभियानों में भी सतत संलग्न । आपकी किताब 101लघुकथाएं एवं सम्यक लघुकथाएं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त मानव संसाधन विकास मंत्रालय व छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा आपकी किताबों का क्रय किया गया है.)

☆ कर्तव्य  

शंभू पुलिस वाले के सामने हाथ जोड़ विनती करने लगा- ‘साहब जी! मेरी ट्रक खराब हो गई थी इसलिए समय पर मैं अपने शहर नहीं पहुंच पाया। प्लीज जाने दीजिए साहब जी।’

पुलिस वाले की कड़कदार आवाज गूंजी- ‘साहब जी के बच्चे! एक बार कहने पर तुझे समझ में नहीं आ रहा कि आगे नहीं जा सकता। ‘कोरोना’ की वजह से सीमाएं सील कर दी गई है। कर्फ्यू की सी स्थिति है।  १ इंच भी गाड़ी आगे बढ़ाई तो एक घुमाकर दूंगा,समझे सब समझ आ जाएगा।’

पुलिसवाला तो फटकार लगाकर चला गया, किंतु शंभू की भूख से कुलबुलाती आँतें…सारे ढाबे व रेस्टोरेंट बंद…पुलिस का खौफ, रात को १० बजे अब वह जाए तो कहां जाए, साथ में क्लीनर वह भी भूखा। अब क्या होगा ? यही सोच आँखें नम होने लगी, तभी पुलिस वाले को बाइक पर अपनी ओर आता देख शंभू की घिग्गी बंध गई। फिर कोई नई मुसीबत…। शंभू की शंका सच निकली। बाइक उसके समीप आकर ही रुकी।  पुलिसवाला उतरा, डिक्की खोली और उसमें से अपना टिफिन निकाल शंभू की ओर यह कहते हुए बढ़ा दिया- ‘लो इसे खा लेना,मैं घर जाकर खा लूंगा।’

शंभू की आँखों से आँसूओं की अविरल धारा बह निकली। वह पुलिस वाले को नमन कर इतना ही कह पाया- ‘साहब जी! देशभक्त फरिश्ते हैं आप। ‘

इस पर पुलिस वाले ने कहा- ‘वह मेरा ऑफिशियल कर्त्तव्य था, और यह मेरा व्यक्तिगत कर्त्तव्य ही नहीं, सामाजिक दायित्व भी है.

© मीरा जैन

उज्जैन, मध्यप्रदेश

❃❃❃❃❃❃❃❃❃❃

☆ कर्तव्य 

(मूळ हिन्दी कथा –  कर्तव्य  मूळ लेखिका – मीरा जैन   अनुवाद – उज्ज्वला केळकर)

शंभू पोलीसवाल्यांना हात जोडून विनंती करत होता, ‘साहेब माझा ट्रक ना दुरूस्त झाला, म्हणून मी  वेळेत आपल्या शहरात जाऊ शकलो नाही. प्लीज जाऊ द्या ना साहेब!’

पोलिसांचा कडक आवाजा घुमला, ‘ए, साहेबजीच्या बच्चा, एकदा सांगितल्यावर तुला कळत नाही, तू पुढे जाऊ शकत नाहीस. ‘करोंना’ मुळे सीमा सील केल्या आहेत. कर्फ्यूच आहे. एक इंच जरी ट्रक पुढे सरकला तरीही लाठी फिरवेन. कळलं, मग सगळं ल्क्षात येईल.’

पोलीसवाला दरडावून निघून गेला पण भुकेने कळवळ कळवळणारं शंभूचं पोट … सगळे ढाबे, रेस्टोरंटस बंद. पालिसांची भीती. रात्री 10ची वेळ. आता त्याने जायचं म्हंटलं तरी कुठे जायचं? बरोबर क्लीनर . त्यालाही भूक लागलेली. आता कसं होणार.? विचाराने त्याच्या डोळ्यात पाणी जमलं.

एवढ्यात तो पोलिस पुन्हा बाईकवरून येताना दिसला. शंभूची तर जीभच टाळ्याला चिकटली. आता आणखी काय झालं? कसलं नवीन संकट?  शंभूला वाटलं, आपली शंका खरी आहे, कारण बाईक त्याच्याच दिशेने येत होती.

पोलीस बाईकवरून उतरला. डिककी उघडली. त्याने त्यातून टिफीन काढून शंभूच्या हातात दिला.

‘ हे घे खाऊन. मी घरी जाऊन जेवीन. ‘

शंभूच्या डोळ्यातून अविरत अश्रू धारा वाहू लागल्या. पोलिसाला प्रणाम करत तो म्हणाला, ‘ साहेब, आपण देवदूत आहात, पण मगाशी….’ यावर पोलीस म्हणाला, ‘ते माझं राष्ट्रीय कर्तव्य होतं आणि हे माझं व्यक्तिगत कर्तव्यच नाही, तर सामाजिक दायित्वदेखील आहे.

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य – वेदना दिगंत ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी  एक भावप्रवण रचना “वेदना दिगंत )

☆ विजय साहित्य – वेदना दिगंत ☆

 

पिकवतो मोती |माझा बळीराजा ||

ढळे घाम ताजा | वावरात |

 

राब राबूनीया | खंतावला राजा ||

वाजलाय बाजा | संसाराचा.  |

 

पोर दूरदेशी  |  शिकावया गेली||

सावकारे केली | लुटालूट   |

 

ऋण काढूनीया  |  करतोया सण ||

पावसात मन | गुंतलेले   |

 

काळी माय त्याला  | देते दोन घास  ||

जगण्याची  आस  | दुणावली  |

 

माझा  बळीराजा  | जोजवितो  आसू     ||

खेळवितो हासू | लटकेच   |

 

कविराजा मनी |  सतावते खंत  ||

वेदना दिगंत   | बळीराजा   |

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 37 ☆ लघुकथा – सदा सुहागिन ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री के मर्म पर विमर्श करती लघुकथा  सदा सुहागिन। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी  को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 37 ☆

☆  लघुकथा – सदा सुहागिन

लंबी छरहरी  काया,  रंग गोरा, तीखे नाक- नक्श, दाँत कुछ आगे निकले  हुए थे लेकिन उनकी मुस्कान के पीछे छिप जाते थे. वह सीधे पल्लेवाली साडी पहनती थीं, जिसके पल्लू से उनका सिर हमेशा ढका ही रहता. माथे पर लाल रंग की मध्यम आकार की बिंदी और मांग सिंदूर से  भरी  हुई.  पैरों में चाँदी की पतली – सी पायल, कभी- कभार  नाखूनों में लाल रंग की नेलपॉलिश भी लगी होती,   इन सबको  सँवारती थी उनकी मुस्कुराहट . मिलने पर वे अपनी चिर परिचित   मुस्कान के साथ कहती – कइसन बा बिटिया?  एक नजर पडने पर पंडिताईन भारतीय संस्कृति के अनुसार  सुहागिन  ही कहलायेंगी.

हर दिन की तरह वह सुबह भी थी, सब कुछ वैसा ही था लेकिन पंडिताईन के लिए मानों दुनिया ही पलट गई. पूरा घर छान मारा, खेतों पर भी दौडकर देख आई, आसपास पता किया पर पंडित का कहीं पता ना चला.वह समझ  ना पाई कि धरती निगल  गई कि आसमान खा गया. बार -बार खटिया पर हाथ फेरकर बोलती – यहीं तो सोय रहे हमरे पंडित, कहाँ चले गए. महीनों पागल की तरह उन्हें ढूंढती रही,  कभी गंगा किनारे, कभी मंदिरों में.बाबा,फकीर कोई नहीं छोडा. एक बार तो किसी ढोंगी बाबा के  कहने पर  पंडित का एक  कपडा  लेकर उसके पास  पहुँच गई. बाबा पंडित के बारे में तो क्या बताता पंडिताईन से पैसे लेकर  चंपत हो गया. उसके बाद से पंडिताईन ने  पंडित को ढूंढना छोड दिया. उन्होंने  मान लिया कि वह  सुहागिन हैं और अपने रख – रखाव से गांववालों को जता भी दिया.

पंडिताईन ने  अपने मन को समझा लिया, जरूरी भी था वरना छोटे – छोटे   बच्चों को  पालती कैसे ? खेत खलिहान कैसे संभालती. लेकिन गांववालों को चैन कहाँ. सबकी नजरें पंडिताईन के सिंदूर और बिछिया पर अटक जाती. एक दिन ऐसे ही किसी की बात कानों में पड गई – ‘ पति का पता नहीं और पंडिताईन जवानी में सिंगार करे मुस्काती घूमत हैं गाँव भर मां ‘. पंडिताईन  की आँखों में आँसू आ गए बोलीं- बिटिया! ई बतावा इनका का करे का है ? हमार मरजी हम सिंगार करी या ना करी ? हम सिंदूर लगाई, पाजेब पहनी कि  ना  पहनी ? जौन सात फेरे लिया रहा ऊ मालूम नहीं कहाँ  चला गवा हमका छोडकर,  तो ई अडोसी – पडोसी कौन हैं हमें बताए वाले.  मांग में लगे सिंदूर की ओर इशारा करके बोलीं –‘ जब  तलक हम जिंदा हैं तब तलक ई मांग में रही, हमरे साथ हमार सुहाग जाई.’

पंडिताईन सुहागिन हैं या नहीं, वह विधवा की तरह रहे या नहीं  ?  पंडिताईन ने किसी को यह तय करने का अधिकार दिया ही नहीं.

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 62 ☆ किसना / किसान ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक विचारणीय एवं भावप्रवण कविता  “किसना / किसान । श्री विवेक जी  ने इस कविता के माध्यम से सामान्य किसानों  की पीड़ा पर विमर्श ही नहीं किया अपितु  पीड़ितों को उचित मार्गदर्शन भी दिया है। इस अतिसुन्दर एवं सार्थक कविता  के लिए श्री विवेक जी  का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 62 ☆

☆ किसना / किसान ☆

किसना जो नामकरण संस्कार के अनुसार

मूल रूप से कृष्णा रहा होगा

किसान है,

पारंपरिक,पुश्तैनी किसान !

लाख रूपये एकड़ वाली धरती का मालिक

इस तरह किसना लखपति है !

मिट्टी सने हाथ,

फटी बंडी और पट्टे वाली चड्डी पहने हुये,

वह मुझे खेत पर मिला,

हरित क्रांति का सिपाही !

 

किसना ने मुझे बताया कि,

उसके पिता को,

इसी तरह खेत में काम करते हुये,

डंस लिया था एक साँप ने,

और वे बच नहीं पाये थे,

तब न सड़क थी और न ही मोटर साइकिल,

गाँव में !

 

इसी खेत में, पिता का दाह संस्कार किया था

मजबूर किसना ने, कम उम्र में,अपने काँपते हाथों से !

इसलिये खेत की मिट्टी से,

भावनात्मक रिश्ता है किसना का !

वह बाजू के खेत वाले गजोधर भैया की तरह,

अपनी ढ़ेर सी जमीन बेचकर,

शहर में छोटा सा फ्लैट खरीद कर,

कथित सुखमय जिंदगी नहीं जी सकता,

बिना इस मिट्टी की गंध के !

 

नियति को स्वीकार,वह

हल, बख्खर, से

चिलचिलाती धूप,कड़कड़ाती ठंडऔर भरी बरसात में

जिंदगी का हल निकालने में निरत है !

किसना के पूर्वजों को राजा के सैनिक लूटते थे,

छीन लेते थे फसल !

मालगुजार फैलाते थे आतंक,

हर गाँव आज तक बंटा है, माल और रैयत में !

 

समय के प्रवाह के साथ

शासन के नाम पर,

लगान वसूली जाने लगी थी किसान से

किसना के पिता के समय !

 

अब लोकतंत्र है,

किसना के वोट से चुन लिया गया है

नेता, बन गई है सरकार

नियम, उप नियम, उप नियमों की कँडिकायें

रच दी गई हैं !

 

अब  स्कूल है,

और बिजली भी,सड़क आ गई है गाँव में !

सड़क पर सरकारी जीप आती है

जीपों पर अफसर,अपने कारिंदों के साथ

बैंक वाले साहब को किसना की प्रगति के लिये

अपने लोन का टारगेट पूरा करना होता है!

 

फारेस्ट वाले साहेब,

किसना को उसके ही खेत में,उसके ही लगाये पेड़

काटने पर,नियमों,उपनियमों,कण्डिकाओं में घेर लेते हैं !

 

किसना को ये अफसर,

अजगर से कम नहीं लगते, जो लील लेना चाहते हैं, उसे

वैसे ही जैसे

डस लिया था साँप ने किसना के पिता को खेत में !

 

बिजली वालों का उड़नदस्ता भी आता है,

जीपों पर लाम बंद,

किसना अँगूठा लगाने को तैयार है, पंचनामें पर !

उड़नदस्ता खुश है कि एक और बिजली चोरी मिली !

 

किसना का बेटा आक्रोशित है,

वह कुछ पढ़ने लगा है

वह समझता है पंचनामें का मतलब है

दुगना बिल या जेल !

 

वह किंकर्तव्यविमूढ़ है, थोड़ा सा गुड़ बनाकर

उसे बेचकर ही तो जमा करना चाहता था वह

अस्थाई,बिजली कनेक्शन के रुपये !

पंप, गन्ना क्रशर, स्थाई, अस्थाई कनेक्शन के अलग अलग रेट,

स्थाई कनेक्शन वालों का ढ़ेर सा बिल माफ, यह कैसा इंसाफ !

किसना और उसका बेटा उलझा हुआ है !

उड़नदस्ता उसके आक्रोश के तेवर झेल रहा है,

संवेदना बौनी हो गई है

नियमों,उपनियमों,कण्डिकाओं में बँधा उड़नदस्ता

बना रहा है पंचनामें, बिल, परिवाद !

किसना किसान के बेटे

तुम हिम्मत मत हारना

तुम्हारे मुद्दों पर, राजनैतिक रोटियाँ सेंकी जायेंगी

पर तुम छोड़कर मत भागना खेत !

मत करना आत्महत्या,

आत्महत्या हल नहीं होता समस्या का !

तुम्हें सुशिक्षित होना ही होगा,

बनना पड़ेगा एक साथ ही

डाक्टर, इंजीनियर और वकील

अगर तुम्हें बचना है साँप से

और बचाना है भावना का रिश्ता अपने खेत से !

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 26 ☆ प्रचार का विचार ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “प्रचार का विचार।  वास्तव में श्रीमती छाया सक्सेना जी की प्रत्येक रचना कोई न कोई सीख अवश्य देती है। यदि प्रचारक में विपणन क्षमता है तो वह कुछ भी बेच सकता है ।  इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 26 ☆

☆ प्रचार का विचार

कहते हैं विचार में बहुत ताकत होती है। एक क्रांतिकारी विचार समाज में उथल-पुथल मचा सकता है। ऐसे ही एक नए- नए बने ; विचारक ने समाज सेवा का प्रस्ताव रख ही दिया। अब तो बिना प्रोडक्ट के ही चर्चा ने तूल पकड़ लिया। बहुत सारी सभाएँ हुयीं। प्रचार में खूब पैसा खर्च किया गया। पर कोई इन्वेस्टर आया ही नहीं। लोग फूल- माला लेकर बैठे रह गए। अब सबके चेहरों पर उदासी साफ देखी जा सकती थी।

तभी टीम के मैनेजर ने कहा देखो,फिर से जोर आजमाइश करो, प्रचार  का प्रसार होना ही चाहिए। सब लोग फिर ; पूरी ताकत से जुट गए। कर्म का रंग तो निखरना ही था। सो धीरे – धीरे लोग आने लगे कि चलो कम से कम यहाँ बैठ कर चाय नाश्ता ही करेंगे। जो आता उसका खूब स्वागत सत्कार होता। उसे सैम्पल के रूप में स्लोगन लिखा हुआ पोस्टर मिलता। पोस्टर के अंत में लिखा था कि जो जितने पोस्टर दीवार पर चिपकायेगा उसे उतना ही कमीशन मिलेगा, अब तो जो पढ़ता वो और लेने के चक्कर में जी हजूरी करता।

देखते ही देखते सारे पोस्टर बँट गए। अगली सुबह पूरे शहर की दीवारें भरी हुई थीं। लोगों को भी समझ में आया कि बंदे में दम है। देखो हम लोगों ने अपनी तरफ से खूब रोड़े अटकाए पर सब बेकार गए।

अब तो सबकी जुबान पर उसी के चर्चे थे। जब- जब किसी की चर्चा जोर पर होती है;  तब – तब पर्चा बिगड़ता ही, शायद नज़र लग जाती है। ये नज़र भी नज़र नहीं आती किंतु प्रभावशील अवश्य होती है। इसका तोड़ तो बस नज़र बट्टू काला टीका ही होता है। सो अगले दिन कुछ विघ्नसंतोषियों ने ये कार्य कर ही डाला। अब पुनः एक बार उदासी छा गयी।

पर मैनेजर तो गुणवान था सो उसने फिर से तोड़ निकाला अब कि बार प्रोडक्ट की झलक ही दिखा दी, सो हारी हुई बाजी फिर से जीत की ओर चल पड़ी। कहते हैं सफल व्यक्ति जितनी बार  गिरता है, उतनी बार पुनः नयी ऊर्जा से लबरेज होकर उठ जाता है। और नए उत्साह व साहस के साथ पुनः जुट जाता है अपने विचार के प्रचार में, सो ऐसा ही खेल चलता रहता है, लोग अपनी – अपनी डफली पर अपना – अपना राग अलापते रह जाते हैं जबकि कर्मशील इतिहास रच देते हैं।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 35 ☆ शस्य श्यामला माटी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण कविता  “शस्य श्यामला माटी.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 35 ☆

☆ शस्य श्यामला माटी ☆ 

 

अपनी संस्कृति को पहचानो

इसका मान करो।

शस्य श्यामला माटी पर

मित्रो अभिमान करो।।

 

गौरव से इतिहास भरा है भूल न जाना।

सबसे ही बेहतर है होता सरल बनाना।

करो समीक्षा जीवन की अनमोल रतन है,

जीवन का तो लक्ष्य नहीं भौतिक सुख पाना।

 

ग्राम-ग्राम का जनजीवन, हर्षित खलिहान करो।

शस्य श्यामला माटी पर मित्रो अभिमान करो।।

 

 

उठो आर्य सब आँखें खोलो वक़्त कह रहा।

झूठ मूठ का किला तुम्हारा स्वयं ढह रहा।

अनगिन आतताइयों ने ही जड़ें उखाड़ीं,

भेदभाव और ऊँच-नीच को राष्ट्र सह रहा।

 

उदयाचल की सविता देखो, उज्ज्वल गान करो।

शस्य श्यामला माटी पर मित्रो अभिमान करो।।

 

तकनीकी विज्ञान ,ज्ञान का मान बढ़ाओ।

सादा जीवन उच्च विचारों को अपनाओ।

दिनचर्या को बदलो तन-मन शुद्ध रहेगा,

पंचतत्व की करो हिफाजत उन्हें बचाओ।

 

भारत, भारत रहे इसे मत हिंदुस्तान करो।

शस्य श्यामला माटी पर मित्रो अभिमान करो।।

 

भोग-विलासों में मत अपना जीवन खोना।

आपाधापी वाले मत यूँ काँटे बोना।

करना प्यार प्रकृति से भी हँसना- मुस्काना,

याद सदा ईश्वर की रखना सुख से  सोना।

 

समझो खुद को तुम महान  श्वाशों में प्राण भरो।

शस्य श्यामला माटी पर मित्रो अभिमान करो।।

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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