हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 47 ☆ ये दिल रोशन है…. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है प्रेरक एवं देशभक्ति से सराबोर भावप्रवण रचना  “ये दिल रोशन है….”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 47 ☆

☆ ये दिल रोशन है….  ☆

अब तो तेल भी न बचा चराग़ में

ये दिल रोशन है वफ़ा की आग में

 

यूँ देख कर न हमसे नज़र घुमाइये

हम भी माली थे कभी इस बाग में

 

देते हैं दिल को वो तसल्ली जरूर

पर यकीं कैसे करें उनके इस राग में

 

खेला खूब दिल से दिखाये सपने कई

अब आता नहीं कोई उनके सब्जबाग में

 

काँटों से उलझते रहे हम तमाम उम्र

जख्म फूलों के दिखे दिल के दाग में

 

काँटों के ख़ौफ़ से अब बाहर निकलिये

खिलने लगे हैं फूल मुहब्बत के बाग में

 

है वफ़ा की ज़ुस्तज़ु “संतोष”हमे

ज्यूँ भँवरे की नज़र होती है पराग में

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

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हिन्दी/मराठी साहित्य – लघुकथा ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – जीवन रंग #5 ☆ सुश्री वसुधा गाडगिल की हिन्दी लघुकथा ‘स्नेहरस’ एवं मराठी भावानुवाद ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक 60 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें बाल वाङ्गमय -30 से अधिक, कथा संग्रह – 4, कविता संग्रह-2, संकीर्ण -2 ( मराठी )।  इनके अतिरिक्त  हिंदी से अनुवादित कथा संग्रह – 16, उपन्यास – 6,  लघुकथा संग्रह – 6, तत्वज्ञान पर – 6 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  

आज प्रस्तुत है  सर्वप्रथम सुश्री वसुधा गाडगिल जी की  मूल हिंदी लघुकथा  ‘स्नेहरस ’ एवं  तत्पश्चात श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  द्वारा मराठी भावानुवाद  ‘स्नेहरस

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – जीवन रंग #5 ☆ 

सुश्री वसुधा गाडगिल

(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री वसुधा गाडगिल जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है । पूर्व प्राध्यापक (हिन्दी साहित्य), महर्षि वेद विज्ञान कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, जबलपुर, मध्य प्रदेश. कविता, कहानी, लघुकथा, आलेख, यात्रा – वृत्तांत, संस्मरण, जीवनी, हिन्दी- मराठी भाषानुवाद । सामाजिक, पारिवारिक, राजनैतिक, भाषा तथा पर्यावरण पर रचना कर्म। विदेशों में हिन्दी भाषा के प्रचार – प्रसार के लिये एकल स्तर पर प्रयत्नशील। अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलनों में सहभागिता, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं ,आकाशवाणी , दैनिक समाचार पत्रों में रचनाएं प्रकाशित। हिन्दी एकल लघुकथा संग्रह ” साझामन ” प्रकाशित। पंचतत्वों में जलतत्व पर “धारा”, साझा संग्रह प्रकाशित। प्रमुख साझा संकलन “कृति-आकृति” तथा “शिखर पर बैठकर” में लघुकथाएं प्रकाशित , “भाषा सखी”.उपक्रम में हिन्दी से मराठी अनुवाद में सहभागिता। मनुमुक्त मानव मेमोरियल ट्रस्ट, नारनौल (हरियाणा ) द्वारा “डॉ. मनुमुक्त मानव लघुकथा गौरव सम्मान”, लघुकथा शोध केन्द्र , भोपाल द्वारा  दिल्ली अधिवेशन में “लघुकथा श्री” सम्मान । वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। )

☆ स्नेहरस 

कॉलोनी की दूसरी गली में बड़े से प्लॉट पर बहुमंज़िला इमारत बन रही थी। प्लॉट के एक ओर ईंटों की चारदीवारी बनाकर चौकीदार ने पत्नी के साथ छोटी – सी गृहस्थी बसाई थी। चारदीवारी में कुल जमा चार बर्तनों की रसोई भी थी। वहीं बगल से मिश्रा चाची शाम की सैर से लौट रही थीं। उनकी वक्र दृष्टि दीवार पर ठहर गई ! ईंटों के बीच स्वमेव बने  छेदों से धुंआँ निकल रहा था। धुंआँ देख मिश्रा चाची टाट के फटे पर्दे को खींचकर तनतनायीं

“कैसा खाना बनाती है ! पार्किंग में धुँआँ फैल जाता है  तड़के की गंध फैलती है सो अलग ! हें…”

पति की थाली में कटोरी में दाल परोसती चौकीदार की पत्नी के हाथ एक पल के लिये रूक गये फिर कटोरी में दाल परोसकर थाली लेकर मिश्रा चाची के करीब आकर वह प्रेमभाव से बोली

“आओ ना मैडमजी, चख कर तो देखो !”

गुस्से से लाल – पीली हुई मिश्रा चाची ने  चौकीदारीन को तरेरकर देखा । दड़बेनुमा कमरे में फैली महक से अचानक मिश्राचाची की नासिका फूलने लगी और रसना  ललचा उठी !उन्होंने थाली में रखी कटोरी मुँह को लगा ली। दाल चखते हुए बोलीं

“सुन , मेरे घर खाना बनाएगी ?”

चौकीदारीन के मन का स्नेह आँखों और हाथों के रास्ते  मिश्रा चाची के दिल तक पहुँच चुका था!

 

– डॉ. वसुधा गाडगीळ , इंदौर.© वसुधा गाडगिल

संपर्क –  डॉ. वसुधा गाडगिल  , वैभव अपार्टमेंट जी – १ , उत्कर्ष बगीचे के पास , ६९ , लोकमान्य नगर , इंदौर – ४५२००९. मध्य प्रदेश.

❃❃❃❃❃❃

☆ स्नेहरस 

(मूल कथा – स्नेहरस मूल लेखिका – डॉ. वसुधा गाडगीळ अनुवाद – उज्ज्वला केळकर)

कॉलनीच्या दुसर्‍या गल्लीत मोठ्या प्लॉटवर एक बहुमजली इमारत होत होती. प्लॉटच्या एका बाजूला विटांच्या चार भिंती  बनवून चौकीदाराने आपल्या पत्नीसमवेत छोटासा संसार मांडला होता. चार भिंतीत एकूण चार भांडी असलेलं स्वैपाकघरही होतं. मिश्रा आंटी आपलं संध्याकाळचं फिरणं संपवून त्याच्या शेजारून चालली होती. विटांच्यामध्ये आपोआप पडलेल्या भेगातून धूर बाहेर येत होता. मिश्रा आंटी आपलं संध्याकाळचं फिरणं संपवून त्याच्या शेजारून चालली होती. धूर बघून मिश्रा आंटीनं तरटाचा फाटका पडदा खेचला आणि तणतणत म्हणाली,

‘कसा स्वैपाक करतेयस ग! पार्किंगमध्ये सगळा धूरच धूर झालाय. फोडणीचा वास पसरलाय, ते वेगळच. पतीच्या थाळीतील वाटीत डाळ वाढता वाढता तिचा हात एकदम थबकला. मग वाटीत डाळ घालून ती थाळीत ठेवत ती मिश्रा काकीच्या जवळ आली आणि प्रेमाने म्हणाली, ‘या ना मॅडम, जरा चाखून तर बघा.

रागाने लाल – पिवळी झालेली मिश्रा काकी तिच्याकडे टवकारून बघू लागली. त्या डबकेवजा खोलीत पसरलेल्या डाळीच्या सुगंधाने अचानक मिश्रा काकीच्या नाकपुड्या फुलू लागल्या. जिभेला पाणी सुटलं. तिने थाळीतली वाटी तोंडाला लावली. डाळीचा स्वाद घेत ती म्हणाली,

‘काय ग, उद्यापासून माझ्या घरी स्वैपाकाला येशील?

चौकीदारणीच्या मनाचा स्नेह, डोळे आणि हातांच्या रस्त्याने मिश्रा काकीच्या हृदयापर्यंत पोचला होता.

 

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेखर साहित्य # 1 – साक्षीदार ☆ श्री शेखर किसनराव पालखे

श्री शेखर किसनराव पालखे

( मराठी साहित्यकार श्री शेखर किसनराव पालखे जी  लगातार स्वान्तः सुखाय सकारात्मक साहित्य की रचना कर रहे हैं । आपकी रचनाएँ ह्रदय की गहराइयों से लेखनी के माध्यम से कागज़ पर उतरती प्रतीत होती हैं। हमारे प्रबुद्ध पाठकों का उन्हें प्रतिसाद अवश्य मिलेगा इस अपेक्षा के साथ हम आपकी  रचनाओं को हमारे प्रबुद्ध पाठकों तक आपके साप्ताहिक स्तम्भ – शेखर साहित्य शीर्षक से प्रत्येक शुक्रवार पहुँचाने का प्रयास करेंगे । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता  “साक्षीदार”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेखर साहित्य # 1 ☆

☆ कविता – साक्षीदार ☆

 

एका रमणीय भूतकाळाचा

वारसा असलेलो आपण

एका उध्वस्त होऊ घातलेल्या

वर्तमानाचे साक्षीदार होऊन

नक्की कुठे चाललो आहोत?…

एका भयावह विनाशाकडे

की त्याच्याही शेवटाकडे?…

का उभे आहोत आणखी एका

नवीन सृजनाच्या उंबरठ्यावर…

याच अस्वस्थ जाणिवेच्या विवंचनेत

घुटमळतोय माझा आत्मा…

येऊ नये त्याच्याही आत्म्याच्या मनावर

भूतकाळातील पापांचे ओझे…

लाभो त्याला सदगती-

हीच एकमेव सदिच्छा!!!

तेवढंच करणं माझ्या हाती…

 

© शेखर किसनराव पालखे 

पुणे

12-04-20

 

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य – श्रावण येतो  आहे ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है  श्रवण माह पर विशेष कविता  “श्रावण येतो  आहे )

☆ विजय साहित्य – श्रावण येतो  आहे ☆

 

पर्णफुलांचे ध्वज उंचावीत , श्रावण येतो  आहे.

फुलवित हिरवी स्वप्ने आपली,श्रावण येतो आहे. ||धृ.||

 

घनगर्भित नभ गर्द सावळे, इंद्रधनुची अवखळ बाळे

तनामनावर लाडे लाडे, कोण उचलूनी घेतो आहे?

पर्णफुलांचे ध्वज उंचावीत , श्रावण येतो  आहे.

फुलवित हिरवी स्वप्ने आपली,श्रावण येतो आहे. ||1||

 

भिजली झाडे,भिजली माती,सुगंध मिश्रीतअत्तरदाणी

अन् चंदेरी गुलाबपाणी,  कोण धरेवर शिंपीत आहे?

पर्णफुलांचे ध्वज उंचावीत , श्रावण येतो  आहे.

फुलवित हिरवी स्वप्ने  आपली, श्रावण येतो  आहे. ||2||

 

श्रावण मासी,हर्ष मानसी,मनात हिरव्या ऊन सावली.

रविकिरणांची लपाछपी ती,कोण चोरूनी बघतो आहे ?

पर्णफुलांचे ध्वज उंचावीत , श्रावण येतो  आहे.

फुलवित हिरवी स्वप्ने आपली, श्रावण येतो  आहे. ||3||

 

किलबिल डोळे तरूवेलींवर,चिमणपाखरे गिरिशिखरांवर

ओल्या चोची,ओला चारा, कोण कुणाला भरवत आहे?

पर्णफुलांचे ध्वज उंचावीत , श्रावण येतो  आहे.

फुलवित हिरवी स्वप्ने  आपली, श्रावण येतो  आहे. ||4||

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 39 ☆ लघुकथा – माँ दूसरी तो बाप तीसरा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री पर विमर्श करती लघुकथा माँ दूसरी तो बाप तीसरा ।  यह अक्सर देखा गया है कि प्रथम पत्नी के बाद बच्चों के देखभाल के नाम से दूसरी पत्नी ब्याह लाता है। इस कटु सत्य को बेहद संजीदगी से डॉ ऋचा जी ने शब्दों में उतार दिया है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी  को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 39 ☆

☆  लघुकथा – माँ दूसरी तो बाप तीसरा 

कभी कुछ बातें खौलती हैं भीतर ही भीतर, इतना तर्क – वितर्क दिल दिमाग में कि आग विचारों का तूफान- सा ला देती है। ऐसे ही एक पल में पति के यह कहने पर कि करती क्या हो तुम दिन भर घर में ? वह कह गई  – हाँ ठीक कह रहे हो तुम, औरतें कुछ नहीं करतीं घर में, बिना उनके किए ही होते हैं पति और बच्चों के सब काम घर में। लेकिन जब असमय मर जाती हैं तब तुरंत ही लाई जाती है एक नई नवेली दुल्हन फिर से, घर में कुछ ना करने को ?

एक बार नहीं बहुत बार यह वाक्य उसके कानों में गर्म तेल के छींटों – सा पड़ा था, जब दिन भर घर के कामों में खटती माँ या दादी को घर के पुरुषों से कहते सुना था – करती क्या हो घर में सारा दिन ? वे नहीं दे पातीं थीं हिसाब घर के उन छोटे – मोटे हजार कामों का जिनमें दिन कब निकल जाता है, पता ही नहीं चलता। नहीं कह पाती थीं वे बेचारी कि हम ही घर की पूरी व्यवस्था संभाले हैं खाने से लेकर कपडों तक और बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक की। जिसका कोई मोल नहीं, कहीं गिनती नहीं। हाँ,शरीर लेखा जोखा रखता उनके दिन भर के कामों का, पिंडलियों में दर्द बना ही रहता और कमर दोहरी हो जाती थी काम करते करते उनकी।

सोचते – सोचते कड़वाहट- सी घुल गई मन में, आँखें पनीली हो आई। उभरी कई तस्वीरें, गड्ड – मड्ड होते थके, कुम्हलाए चेहरे माँ, दादी और – सच ही तो है, एक विधवा स्त्री अपने बच्चों के पालन पोषण के लिए  माता- पिता  बन संघर्ष करती पूरा जीवन बिता देती है। लेकिन पुरुष घर और बच्चों की देखभाल के नाम पर कभी – कभी साल भर के अंदर ही दूसरी पत्नी ले आता है। पहली पत्नी इतने वर्ष घर को संभालने में खटती रही, वह सब दूसरी शादी के मंडप तले होम हो जाता है। बच्चों की देखभाल के लिए की गई दूसरी शादी के बारे में दादी से सुना था कि माँ दूसरी तो बाप तीसरा हो जाता है ?

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 58 – गुरुदक्षिणा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “गुरुदक्षिणा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 58 ☆

☆ लघुकथा – गुरुदक्षिणा ☆

” आज समझ लो कि उपथानेदार साहब तो गए काम से ,” एक सिपाही ने कहा तो दूसरा बोला,” ये रामसिंह है ही ऐसा आदमी. हर किसी को लताड़ देता है. इसे तो सस्पैंड होना ही चाहिए.”

” देख लो इस नए एसपी को, कितनी कमियां बता रहा है,” पहले सिपाही ने कहा तो दूसरा बोला,” इस एसपी को पता है कि कहां क्या क्या कमियां है,” दूसरे ने विजयभाव से हंस कर कहा.

तभी दलबल के साथ एसपी साहब थानेदार के कमरे में गए. रामसिंह ने अपनी स्थिति में तैयार हुए. झट से अपने अधिकारी के साथ एसपी साहब को सैल्यूट जड़ दिया.

जवाब में सैल्यूट देते हुए एसपी साहब उपथानेदार के चरण स्पर्श करने को झूके. तब उन्हों ने झट से कहा, ” अरे साहब ! यह क्या करते हैं ? मैं तो आप का मातहत हूं.” उन के मुंह से भय और आश्चर्य से शब्द निकल नहीं पा रहे थे .

” जी गुरूजी !” एसपी साहब ने कहा, ” मैं सिपाही था तब यदि आप ने इतना भयंकर तरीके से मुझे न लताड़ा होता तो उस वक्त मेरे तनमन में आग नहीं लगतीऔर मैं आज एसपी नहीं होता. इस मायने में आप मेरे गुरू हुए,” कहने के साथ एसपी साहब तेजी से अपने दलबल के साथ चल दिए, ” सभी सुन लों. मैं ने जो जो कमियां बताई हैं उसे पंद्रह दिन में ठीक कर ​लीजिएगा अन्यथा….”

तेजी से आती हुई इस आवाज़ को उपथानेदार साहब अन्य सिपाहियों के साथ जड़वत खड़े सब सुनते रहे. उन्हें समझ में नहीं आया कि यह सब क्या हो रहा है ?

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

२७/१२/२०१९

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 66 ☆ गुड गोबर न होय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक समसामयिक व्यंग्य  गुड गोबर न होय। इस अत्यंत सार्थक  व्यंग्य के लिए श्री विवेक जी का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 66 ☆

☆ व्यंग्य – गुड गोबर न होय ☆

कहावत है कि लकड़ी की काठी बार-बार चूल्हे पर नहीं चढ़ती पर वह नेता ही क्या जो कहावतों का कहा मान ले। मेहनत  से क्या नहीं हो सकता? लीक के फकीर तो सभी होते हैं ।पर वास्तविक नेतृत्व वही देता है, जो स्वयं अपनी राह बनाए।

बिहार में लालू जी ने पशुओं के लिए बड़ी मात्रा में चारा खरीदा था, पशु चराने जाने वाले बच्चों के लिए चारागाह में ही विद्यालय खुले थे,  कितने बच्चे क्या पढ़े यह तो नहीं पता लेकिन अपने इन अभिनव बिल्कुल नए प्रयोगों से लालू जी चर्चा में आए थे। और इतनी चर्चा में आए थे कि हावर्ड बिजनेस स्कूल ने उन्हें भाषण देने के लिए आमंत्रित किया गया ।

अब जब कोई सरकारी योजना आएगी तो उसे अकेले नेता जी तो क्रियान्वित करेंगे नही।योजना तो होती ही सहभागिता के लिए है।भांति भांति के लोगों के भांति भांति व्यवहार से योजना में घोटाले होते ही हैं।सच तो यह है कि योजना बनते ही उसके लूप होल्स ढूंढ लिए जाते हैं।  चारा घोटाला आज भी सुर्खी में है और बेचारे लालू जी जेल में।

कुछ नया, कुछ इनोवेटिव करने की कोशिश में अब छत्तीसगढ़  ने वर्मी कंपोस्ट खाद बनाने के लिए गोबर की खरीदी का जोर शोर से उद्घाटन किया है। उद्घाटन चल ही रहा है, और विपक्ष टाइप के लोगो को सम्भावित गोबर घोटाले की बू आने लगी है।  जिले जिले के कलेक्टर का अमला गोबर का हिसाब रखने के लिए साफ्टवेयर बनाने में जुट रहा है।न भूतो न भविष्यति, आई ए एस बनने वालों ने कभी सोचा भी न रहा होगा कि कभी उन्हें गोबर का भी गूढ़, गुड़ गोबर करना पड़ेगा ।

जब गोबर की सरकारी खरीद होगी तो पशुपालकों के साथ साथ उससे जुड़े कर्मचारियों से शुरू होकर अधिकारियों और नेताओं तक भी गोबर की गंध पहुंचेगी ही।कही गोबर गैस बनकर रोशनी होगी ।जनसंपर्क विभाग उस  रोशनी को अखबारों में परोस देगा।शायद नेता जी को व्याख्यान के लिए, पुरस्कार के लिए कोई अंतरराष्ट्रीय आमंत्रण मिल जाये।गोबर में बिना हड्डी के बड़े छोटे केचुए पनपेंगे  जो मजे में अफसरों और नेता जी के बटुए में समा जाएंगे।वर्मी कम्पोजड खाद होती ही सोना है।सो गोबर से सोना बनेगा।

जहां केचुए एडजस्ट नही हो पाएंगे वही गोबर से घोटाले की दुर्गंध आएगी यह तय समझिये।

हम तो यही कामना कर सकते हैं कि योजना का गुड़ गोबर न होने पाए।पशुपालन को सच्ची मुच्ची बढ़ावा मिल सके, खेती को ऑर्गेनिक खाद मिले, और योजना सफल हो।यद्यपि पुराने रिकार्ड कहते हैं कि जँह जँह पाँव पड़े नेतन के तँह तँह बंटाधार।चारा घोटाला पुरानी बात हुई पर अब गोबर धन पर काली नजर न लगे।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 28 ☆ सफलता सिर चढ़कर बोलती ही नहीं चलती भी है ….. ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं विचारणीय रचना “सफलता सिर चढ़कर बोलती ही नहीं चलती भी है …..। वास्तव में दलबदल का कोई प्रावधान ही नहीं होना चाहिए। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 28☆

☆ सफलता सिर चढ़कर बोलती ही नहीं चलती भी है …..

कहते हैं कि सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता। जितने बार असफल हो उतनी बार उठो और फिर से प्रयास शुरू कर दो। जब परिश्रम का श्रम सिर चढ़कर बोलने लगता है, तो ईश्वर भी आपकी मदद करने हेतु हाजिर हो जाते हैं। ये बात केवल साधारण मनुष्यों तक लागू नहीं होती है। इसी विचारधारा को अपनी प्रेरणा मानते हुए जनप्रतिनिधि भी लगातार श्रेष्ठ आचरण करते हुए दिख रहे हैं। वे सफल होने के लिए दलबदल से भी नहीं हिचकते। चुनाव भले ही किसी भी दल से जीता हो लेकिन वफ़ादारी कुर्सी के प्रति ही रखते हैं। आख़िर कुर्सी भी तो कोई चीज होती है। सोचिए यदि जनता की सेवा करनी है, तो खड़े- खड़े कब तक केवल विपक्ष की तरह अपनी आवाज उठाते रहेंगे। सो अपना शक्ति प्रदर्शन दिखाते हुए अपने समर्थकों को लेकर स्वतंत्र होने की घोषणा कर ही देते हैं।

इधर दूसरी ओर लोग भी इस ताक में बैठे रहते हैं कि कोई स्वतंत्र पंछी दिखे तो उसे पिंजरे में कैद करें। मानवता के पुजारी दिनभर इसी जुगत में अपना समय पास करते- रहते हैं। पहले तो बहुमत प्राप्त दल  सरकार बनाता तो दूसरा आसानी से स्वयं विपक्षी का फर्ज निभाने लगता था। अब समय बदल रहा है,  पाँच साल तक सब्र रखना कठिन होता जा रहा है, सो सफलता के तत्वों से प्रेरणा ले विपक्षी दल भी सत्तापक्ष पर सेंध लगा ही देता है। पहली बार में असफलता ही हाथ लगती है, फिर दुबारा गलतियाँ कहाँ रह गयीं, किसने गद्दारी की ये सब देख कर पुनः योजना बनाई जाती है। इस बार विश्वास पात्रों को ही इसमें शामिल करते हैं, फिर भी शत प्रतिशत सफलता नहीं मिल पाती। अब तो पार्टी के केंद्रीय मुखिया को जोर लगाना पड़ता है तथा सारा कार्य अपने हाथों में लेते हुए परीक्षा का परिणाम 100 % कर देते हैं और फिर राज्य के विपक्षी प्रमुख को बुला कर उसे कुर्सी सौंप सत्ता पक्ष का ताज पहना कर ही अपनी जीत का जश्न मनाते हैं।

अरे भाई जनता का कार्य केवल वोट देना है, कुर्सी पर कौन कितनी देर तक टिकेगा इससे न उन्हें मतलब है न होना चाहिए। ये तय है कि चुनाव 5 साल में ही एक बार होगा, क्योंकि खर्च बहुत लगता है, और ये सब जनता का ही तो है ; सो मूक रहकर सब तमाशा देखती रहती है। किसी भी दल को बहुमत से जिता कर भले ही भेज दो पर कुर्सी में वही टिकेगा जो सारे विधयकों या सांसदों को संतुष्ट करने का मंत्र जानता हो।

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 37 ☆ प्यार होना चाहिए ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण कविता  “प्यार होना चाहिए.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 37 ☆

☆ प्यार होना चाहिए ☆ 

 

आदमी को उम्रभर गमख़्वार होना चाहिए।

और दिल में सिर्फ ,उसके प्यार होना चाहिए।

 

जिसकी मिट्टी में फले-फूले सदा खाया रिजक।

नाज उस पर हर किसी को यार होना चाहिए।।

 

मजहबों और जातियों के भेदभावों से अलग।

भाईचारे का नया संसार होना चाहिए।।

 

सुख में तो साथी बहुत मिलते ही रहते हैं मगर।

मुश्किलों की हर घड़ी में यार होना चाहिए।।

 

हर कोई मशगूल है, अपनी भलाई में मगर।

वास्ते औरों के भी उपकार होना चाहिए।।

 

बात जो परदे में हो,अच्छी वो परदे ही में हो।

राज को यों राज ही दरकार होना चाहिए।।

 

चक्र की आवाज पहुँची आप सबके बीच में।

प्यार की वर्षा से यारो प्यार होना चाहिए।।

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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मराठी साहित्य – कविता ☆ सुजित साहित्य – घुसमट…. ☆ सुजित शिवाजी कदम

सुजित शिवाजी कदम

(सुजित शिवाजी कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजित जी की कलम का जादू ही तो है! आज प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता  “घुसमट*….”। आप प्रत्येक गुरुवार को श्री सुजित कदम जी की रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं। ) 

☆  सुजित साहित्य  –  घुसमट….☆ 

 

दिवसभर टपरीवर

काम करून घरी गेल्यावर

पोराला कुशीत घ्यायचं असुनही…

कुशीत घेता येत नाही

कारण…

कपड्यांना येणाऱ्या तंबाखूच्या वासानं

पोरगं क्षणभरही

माझ्या कुशीत थांबत नाही

तेव्हा वाटतं..

खरडून काढावा हा तंबाखूचा वास

अगदी शरीराच्या कातड्यासकट

जोपर्यंत दिवसभर पानाला कात लावून

रंगलेले हात..

रक्ताने लाल होत नाही तोपर्यंत

कारण..

दिवसभर ज्याच्या साठी मी

जीवाच रान करून झटत असतो

तेच पोरग जेव्हा माझ्याकडे पाठ करून

आईच्या कुशीत शिरत

तेव्हा काळजातल्या वेदनांना अंतच

उरत नाही…

आणि काही केल्या

अंगाला येणारा तंबाखूचा वास काही जात नाही

तेव्हा कुठेतरी आपण करत

असलेल्या कामाचं वाईट वाटतं

वाटतं…!

सोडून द्यावं सारं काही

आणि

लेकराला बरं वाटेल

अंस एखादं काम बघावं

मग कळतं की

आपण करत असलेल हे

काम त्याच्या साठीच आहे

समज आल्यावर,

त्याला आपसूक सारं कळेल

आणि…

बापाच्या कुशीतला तंबाखूचा

वासही मग त्याला

अत्तरा सारखा वाटेल

शेवटी फक्त एवढच वाटतं

आपण करत असलेल काम

आपल्या पोरांन करू नये

त्याच्या लेकरांन तरी त्याच्याकडे

पाठ करून

आईच्या कुशीत झोपु नये…

 

© सुजित शिवाजी कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो. 7276282626

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