हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/Memories – #6 – सरदार ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(यह एक संयोग ही है की आज के ही दिन श्री आशीष कुमार जी की पुस्तक ‘पूर्ण विनाशक’  का विमोचन है। श्री आशीष जी को उनकी इस नवीनतम कृति की सफलता के लिए हार्दिक शुभकामनायें।

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनकी लेखमाला  के अंश  “स्मृतियाँ/Memories”।  आज के  साप्ताहिक स्तम्भ  में प्रस्तुत है एक  अत्यन्त  भावुक एवं मार्मिक  संस्मरण सरदार।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/MEMORIES – #6 ☆

 

सरदार

 

मैंने अपनी अभियांत्रिकी सूचना प्रौद्योगिकी से सन 2000 से लेकर 2004 तक की थी । इस दौरान मैंने अपनी जिंदगी के 4 साल उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में व्यतीत किये और बहुत कुछ सिखने को मिला । मैं अभियांत्रिकी के सूचना प्रौद्योगिकी की बात नहीं कर रहा बल्कि जिंदगी ने बहुत कुछ सिखाया । अलग अलग तरह के लोगो से वास्ता पड़ा सबकी सोच को समझने की कोशिश की । उस दौरान ये भी समझ में आया की कैसे किसी की संस्कृति, रहन सहन, उसका क्षेत्र और उसके माता पिता, भाई बहन आदि का उसके विचारो, प्रकृति और चरित्र पर प्रभाव पड़ता है । अभियांत्रिकी में शुरू का 1 महीना तो जान पहचान आदि में ही बीत जाता है ।

धीरे धीरे मेरी भी मेरी शाखा सूचना प्रौद्योगिकी के बाक़ी साथियो से जान पहचान और कुछ से दोस्ती भी शुरू हो गयी एक लड़का जो की सरदार जी थे हमेशा कक्षा में देर से आता था कभी कभी तो आता भी नहीं था एक दिन हमारी व्यक्तित्व विकास (Personality Development) का व्याख्यान (lecture) था उसमे अध्यापिका ने बोला के आज आप सब लोग अपना परिचय (Introduction) दीजिये । तो सब साथी अपना परिचय ऐसे दे रहे थे ‘My Name is….’ और हमारी अध्यापिका सबको Ok Ok बोल रही थी । कुछ देर बाद सरदार जी का नंबर आया उन्होंने अपना परिचय My name is …….से शुरू नहीं किया बल्की ‘I am … ‘ से शुरू किया । अध्यापिका ने बोला वैरी गुड जब हमे कोई अपना परिचय देने को बोले तो हमे I am and name बताना चाहिए ना की शुरुवात ही my name is  से करनी चाहिए । क्योकि सामने वाला आपके बारे में पूछ रहा है ना कि केवल आपका नाम । उसके बाद कक्षा के सब छात्र अपना परिचय ‘I am …’ से ही देने लगे । सरदार जी ने जो अपना नाम बताया था वो मेरे दिमाग पर छप गया वो नाम था ‘राजविंदर सिंह रैना’

धीरे धीरे राजविंदर और मेरी अच्छी दोस्ती हो गयी । फिर अभियांत्रिकी के दूसरे साल में मैं और राजविंदर कमरा साथी (Roommate) बन गए । मैं राजविंदर को बोला करता था यार तुम्हे तो Modeling में जाना चाहिए था तो वो हमेशा बोलता ‘नहीं यार Modeling के लिए तो बहुत कम उम्र से तैयारी करनी पड़ती है और मैं तो बूढ़ा हो गया हूँ’ तो  जवाब में बोलता ‘तुम्हारा नाम है राजविंदर सिंह रैना मतलब तुम्हारे नाम में राजा भी है और शेर भी, और ना ही राजा कभी बूढ़ा होता है ना ही शेर’ इस बात पर राजविंदर बहुत हँसा करता था । राजविंदर में ये विशेषता थी की वो अपनी बातो से किसी रोते हुए को भी हँसा सकता था ।

इंजीनियरिंग में लड़के रात रात भर जागते है कुछ पढ़ाई करते है कुछ खुराफ़ात । हमारे कमरे से करीब 100 मीटर की दूरी पर एक चाय की टपरी थी जिसे एक बाप और दो बेटे चलाते थे । बाप और एक बेटा सुबह से रात तक चाय की टपरी संभालते थे और दूसरा बेटा रात से सुबह तक । ऐसे वो ‘गुप्ता जी’ की चाय की टपरी 24X7 खुली रहती थी । कॉलेज की परीक्षाओ के समय हम लोग रात को कभी भी गुप्ता जी की चाय की टपरी पर चाय पीने चले जाते थे कभी रात्रि में 11:30 कभी रात्रि में 2:00 कभी सुबह 5:00 आदि आदि । रात के समय गुप्ता जी की चाय की टपरी पर काफी रिक्शा वाले भी बैठे रहते थे क्योकि वो बेचारे अपना घर चलाने के लिए रात में भी रिक्शा चलाते थे क्योकि रात मे पैसे थोड़े ज्यादा मिल जाते थे धीरे धीरे मेरी और राजविंदर की उन रिक्शावालों से भी अच्छी पहचान हो गयी थी ।

अब अगर हम लोगो को अपने घर (Hometown) जाना हो तो हम लोग रात को गुप्ता जी की चाय की टपरी पर से ही रिक्शा लेते थे क्योकि ज्यादातर ट्रेन मेरे और राजविंदर के Hometown के लिए रात में ही चलती थी तो घर जाते समय हम लोग पहले गुप्ता जी के यहाँ चाय पीते फिर वही से रिक्शा में बैठ कर रेलवे स्टेशन चले जाते । सामान्य तौर पर हम लोग ट्रेन का टिकट कई दिन पहले ही बुक करा लेते थे पर कभी कभी अचानक भी जाना पड़ता था ऐसे ही एक बार राजविंदर को अचानक अपने घर जम्मू जाना था सर्दी का समय था उसकी  ट्रेन  करीब रात के 12:30 पर बरेली आती थी । हम लोग रात 10:00 बजे के करीब गुप्ता जी की चाय की टपरी पर पहुंचे हमने चाय पी, फिर मैंने राजविंदर से पूछा ‘यार तेरा ट्रेन में टिकट बुक नहीं हुआ है तो टिकट और रास्ते के लिए पैसे है या नहीं ?’ तो राजविंदर ने कहा ‘Don’t worry यार 500 रूपये है’ मैंने कहा ‘ठीक है’ फिर हमे गुप्ता जी की चाय की टपरी पर ही एक जानने वाला रिक्शावाला मिल गया राजविंदर उस रिक्शा में बैठ गया मैंने उसे विदा किया और वापस कमरे की तरफ चल दिया ।

मैं घर आ कर सो गया अगले दिन मुझे मेरे एक मित्र ने बताया की रात को करीब 3:00 बजे राजविंदर का फ़ोन आया था उस समय सन 2001 में मेरे पास मोबाइल फ़ोन नहीं हुआ करता था तो राजविंदर का फ़ोन उस दोस्त के पास आया था जिसके पास उस समय मोबाइल फ़ोन था मैंने उस दोस्त से घबरहाट और उत्सुकता से पूछा ‘क्या हुआ इतनी रात को उसने फ़ोन क्यों किया था ?’

उस दोस्त ने कहा ‘यार वो बिना टिकट यात्रा कर रहा था T.C. ने पकड़ लिया था तो किसी स्टेशन से फ़ोन कर के T.C. को ये confirm करा रहा था की वो स्टूडेंट है ताकि T.C. उसे छोड़ दे ‘ मैंने बोला ‘नहीं यार ऐसा कैसे हो सकता है जब वो गया था तो उसके पास 500 रूपये थे उतने में स्लीपर का टिकट आराम से आ जाता’ उस दोस्त ने कहा ‘पता नहीं यार’ । जब राजविंदर अपने घर से वापस आया तो सबसे पहले मैंने उससे यही पूछा ‘यार तेरे पास तो टिकट के लिए पैसे थे फिर बिना टिकट यात्रा क्यों कर रहे थे ?’ तो वो बोला ‘यार वो रामलाल चाचा वो जिनकी रिक्शा में बैठकर मैं स्टेशन तक गया था उनकी बच्ची बहुत बीमार थी और उनके पास डॉक्टर को दिखाने के पैसे नहीं थे इसलिए मैंने 500 रूपये उन्हें दे दिए थे’ मैं मन में सोच रहा था की जो किसी और की परेशानी मे अपने पास के सारे पैसे किसी जरूरतमंद को देदे और बिना टिकट यात्रा करता हुआ पकड़ा जाये शायद उसी को सरदार बोलते हैं। दिल से सलाम है राजविंदर को ।

रस : वीर

 

© आशीष कुमार  

 

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्ना अमृतकर यांची कविता अभिव्यक्ती # 3 ☆ साहित्य संसार ☆ सुश्री स्वप्ना अमृतकर

सुश्री स्वप्ना अमृतकर

(सुप्रसिद्ध युवा कवियित्रि सुश्री स्वप्ना अमृतकर जी का अपना काव्य संसार है । आपकी कई कवितायें विभिन्न मंचों पर पुरस्कृत हो चुकी हैं।  आप कविता की विभिन्न विधाओं में  दक्ष हैं और साथ ही हायकू शैली की सशक्त हस्ताक्षर हैं। हम आपका  “साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्ना की कवितायें ” शीर्षक से प्रारम्भ कर रहे हैं।  इस शृंखला की यह तीसरी कड़ी है। संभवतः ‘साहित्य संसार’ शीर्षक से  काव्यप्रकार : सुधाकरी अभंग (६,६,६,४) में रचित यह कविता उनके साहित्य संसार में से उत्कृष्ट रचनाओं में से एक होनी चाहिए। आज प्रस्तुत है सुश्री स्वप्ना जी की कविता “साहित्य संसार”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्ना अमृतकर यांची कविता अभिव्यक्ती # -3 ☆ 

☆ साहित्य संसार  ☆ 

काव्यप्रकार : सुधाकरी अभंग (६,६,६,४)

 

गीता सहवास

  ज्ञानेश्वरी ध्यास

     साहित्य प्रवास

                दादपुर्ण     ॥ १ ॥

 

परंपरा जुनी

शब्दांची च झोळी

          ओळींची लव्हाळी

                       परीपुर्ण     ॥ २॥

 

साहित्य संसार

महिमा अपार

विश्वाचा प्रचार

                        अर्थपुर्ण      ॥ ३ ॥

 

 

काव्या च्या रुपांत

   होई काव्य खेळ

 दिसे शब्द भेळ

                        कार्यपुर्ण      ॥ ४॥

 

भासते रचना

कधी हास्यमय

कधी तत्वमय

स्नेहपुर्ण      ॥ ५ ॥

 

साहित्य प्रगती

वंश चाले पुढे

साहित्तिक घडे

हो संपुर्ण     ॥ ६ ॥

 

© स्वप्ना अमृतकर , पुणे

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #5 ☆ औरत! ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता  “औरत! ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 5  ☆

 

☆ औरत! ☆

 

तुझे इन्सान किसी ने माना नहीं
तू जीती रही औरों के लिये
तूने आज तक स्वयं को पहचाना नहीं।

नारी!
तू नारायणी
भूल गयी,शक्ति तुझमें
दुर्गा और काली की
तु़झ में ही औदार्य और तेज
लक्ष्मी,सरस्वती-सा
तूने उसे पहचाना नहीं।

तुझमें असीम शक्ति
दुश्मनों का सामना करने की
पराजित कर उन्हें शांति का
साम्राज्य स्थापित करने की
तूने आज तक उसे जाना नहीं।

 

तुझमें ही है!
कुशाग्र बुद्धि
गार्गी और मैत्रेयी जैसी
निरूत्तर कर सकती है
अपने प्रश्नों से
जनक को भी
तूने आज तक यह जाना नहीं।

 

तुझमें गहराई सागर की
थाह पाने की
साहस लहरों से टकराने का
सामर्थ्य आकाश को भेदने की
क्षमता चांद पर पहुंचने की
तूने अपने अस्तित्व को पहचाना नहीं।

 

तू पुरूष सहभागिनी!
दासी बन जीती रही
कभी तंदूर,कभी अग्नि
कभी तेजाब की भेंट चढती रही
तुझमें सामर्थ्य संघर्ष करने का
तूने स्वयं को आज तक पहचाना नहीं।

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #3 – हृदय का नासूर… ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से अब आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  शिक्षाप्रद लघुकथा  “हृदय का नासूर…। ) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – #3  साहित्य निकुंज ☆

 

हृदय का नासूर…

 

‘ मां क्या हुआ? इतनी दुखी क्यों बैठी हो?”

 

“बेटा क्या बताये आजकल लोग कितनी जल्दी विश्वास कर लेते है। सब जानते है अपनों पर विश्वास बहुत देर में होता है फिर भला ये कैसे कर बैठी अनजान पर विश्वास।

 

“मां कौन?”

 

“प्रिया और कौन?”

 

“ओह्ह …प्रिया आंटी सोहन अंकल की बेटी!”

 

“हाँ हाँ वही …”

 

“क्या हुआ?”

 

“अभी-अभी फोन आया प्रिया का तो वह बोली …दीदी बहुत गजब हो गया मैं कहे बिना नहीं रह पा रही हूँ पर आप किसी से मत कहना मन बहुत घबरा रहा है।

 

“अरे तू बोलेगी अब कुछ या पहेलियां की बुझाती रहेगी।“

 

“हाँ हाँ बताती हूँ …”

 

“एक दिन बस स्टेण्ड पर एक अजनबी मिला बस आने में देर हो रही थी और मैं ऑटो करने लगी तभी एक लड़का आया और बहुत नम्रता से बोला मुझे भी कुछ दूरी तक जाना है प्लीज मुझे भी बिठा लीजिये मैं शेयर दे दूँगा। मैं न जाने क्यूँ उसके अनुरोध को न टाल पाई और ठीक है कह कर बिठा लिया। अब तो रोज की ही बात हो गई वह रोज उसी समय आने लगा और न जाने क्यों? मैं भी उसका इन्तजार करने लगी। हम रोज साथ आने लगे और एक अच्छे दोस्त बन गए। उसने कहा “एक दिन माँ से मिलवाना है।”

 

हमने कहा…”हम दोस्त बन गए है अच्छे पर मेरी शादी होने वाली है हम ज़्यादा कहीं आते जाते नहीं न ही किसी से बात करते है पता नहीं आपसे कैसे करने लगे?”

 

वह बोला “…कोई बात नहीं फिर कभी …”

 

कुछ दिन बीतने पर वह दिखाई नहीं दिया हमे चिंता हो गई तो हमने फोन किया तो उसकी मम्मी ने उठाया वह बोली …”पापाजी बहुत बीमार है ऑपरेशन करवाना है अभि पैसों के इंतजाम में लगा है बेटा आते ही बात करवाती हूं।”

 

थोड़ी देर बाद अभि का फोन आया वह बोला “क्या बताये? पापा को अचानक हॉर्ट में दर्द हुआ और भर्ती कर दिया। अब ऑपरेशन के लिए कुछ पैसों की ज़रूरत है 50 मेरे पास है 50 हजार की ज़रूरत है।

 

हमने कहा …”कोई बात नहीं हमसे ले लेना।”

 

वह बोला “नहीं … हमने कहा हम सोच रहे तुम्हारे पापा हमारे पापा।“ और अगले दिन उसे पैसा दे दिया। कुछ दिन बाद कुछ और पैसों से हमने मदद की। वह बोला…”हम तुम्हारी पाई-पाई लौटा देंगे। मुझे नौकरी मिल गई है हमें कंपनी की ओर से बाहर जाना है दो माह बाद आकर या तुम्हारे अकाउंट में डाल देंगे। कुछ दिन वह फोन करता रहा बातें होती रही एक दिन उसके फोन से किसी और दोस्त का फोन आया और वह बोला…

 

“मैं बाथरूम में फिसल गया पैर टूट गया है चलते नहीं बन रहा मैं जल्दी आकर तुम्हारा क़र्ज़ चुकाना चाहता हूँ।

 

हमने कहा “कोई बात नहीं …कुछ दिन बाद बैंक में डाल देना।“

 

बोला “ओके.”

 

दो चार दिन बाद हमने मैसेज किया “प्लीज पैसा भेजो।“

 

तब उसके दोस्त का फोन आता है “एक दुखद सूचना देनी है गलती से अभि की गाड़ी के नीचे कोई आ गया और एक्सिडेंट हो गया तो उसे पुलिस ले गई है। वह आपसे एस एम एस से ही बात करेगा आज मैं   यह फोन उसे दे दूँगा।“

 

हमने कहा…”हे भगवन ये क्या हो गया बेचारे की कितनी परीक्षा लोगे।”

 

कुछ समय बाद उसका मैसेज आया “मैं ठीक हूं जल्द ही बाहर आ जाऊंगा”।

 

तब हमने कहा …”आप अपने दोस्त से कहकर मेरा पैसा डलवा दो मेरी शादी है मुझे ज़रूरत है।”

 

वह बोला “ठीक है …”

 

फिर हमने कई बार मैसेज किया कोई जबाब नहीं आया।

 

तब मैं बहुत परेशान हो गई और सोचने लगी एक साथ उसके साथ जो घटा वह वास्तव में था या सिर्फ़ एक नाटक था।

 

तब मन में एक अविश्वास का बीज पनपा और हमने उसका नंबर ट्रेस किया तो वह नंबर भारत में ही दिखा रहा था। यह जानकर मन दहल गया और वह दिन याद आया जब वह बहुत अनुरोध कर रहा था होटल चलने की कुछ समय बिताने की लेकिन हमने कहा “नहीं हमें घर जाना है यह सही नहीं है तुम्हारे साथ मेरा दोस्त रुपी पवित्र रिश्ता है।“

 

दीदी बोली… “बेटा पैसा ही गया इज्जत तो है। बेटा अब पछताये होत क्या जब… ।”

 

“अब अपने आप को कोसने के सिवा कोई चारा नहीं है दीदी। यह तो अब हृदय का नासूर बन गया है।”

 

© डॉ भावना शुक्ल

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प पाचवे #5 – ☆ धावती भेट. . . . ! ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं  ।  अब आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  आज इस लेखमाला की शृंखला में पढ़िये “पुष्प पाचवे  – धावती भेट. . . . !” ।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – पुष्प पाचवे  #-5 ☆

 

धावती भेट. . . . !

 

किती बरं वाटतं  *धावती भेट* हा शब्द  ऐकल्यावर. खरच  आजच्या स्पर्धेच्या युगात ही धावती भेट  आवश्यक झाली आहे. भरधाव वेगाने जाणाऱ्या  अलिशान वातानुकुलित गाडीतून विहंगम दृश्यांची धावती भेट मनाला टवटवीत करून जाते.

ब-याच वर्षानी  महाविद्यालयीन जीवनातील  एखादा मित्र लोकलमध्ये, प्रवासात बसमध्ये  घाई  घाईत  आपला मोबाईल क्रमांक घेतो. अचानक पणे कधीतरी  आपला पत्ता शोधत आपल्या  ऑफिस वर, घरी येऊन धडकतो. त्याच अस  अवचित येण मनापासून  आवडत.  एकमेकांना कडकडून भेटताना दोघांच्या चेहर्‍यावरचा आनंद खूप काही देऊन जातात. हे समाधान मिळण्यासाठी योग यावा लागतो. हल्ली मित्रांच्या गाठी भेटी व्यावहारिक पातळीवर अस्तित्वात येतात. पार्टी साठी येणारा मित्र जेव्हा पार्ट टी वर खूष होतो ना तेव्हा ते समाधान काही औरच असते.

धावत्या भेटीत मिळालेली  आठवणींची वस्त्रे आपल्याला मनाने चिरतरुण ठेवतात. धावत्या भेटीत  वेळेचा हिशेब नसतो पण ही भेट संपू नये असे वाटत  असतानाच  एकमेकांचा निरोप घ्यावा लागतो.  धावती भेट घ्यायला कुठल्याही नियोजनाची गरज नसते.  एक विचार मनात येतो आणि परस्परांना भेटण्याची  ओढ ही धावती भेट घडवून  आणते.

कौटुंबिक जीवनातील ताणतणाव दूर करण्यासाठी  आपल्या  आवडत्या पर्यटन स्थळाला धावती भेट दिली तर मिळणारं समाधान नवी उमेद देत ही उर्मी,  उर्जा मनाला  उभारी देते. हल्ली या व्यवहारी जगात  एकमेकांच्या मनाचा फारसा विचार कुणी करत नाही. प्रत्येक जण आपापल्या परीने विचार करून मोकळा होतो. सहजीवनात याच गोष्टी वादाचे कारण बनतात.  एकमेकांशी मनमोकळा संवाद साधायचा असेल तर  अशा धावत्या भेटी व्हायला हव्यात.  आवडती वस्तू,  आवडत्या व्यक्तीला  आठवणीने देण्यात जे समाधान मिळते ते अनमोल आहे. त्यासाठी पैसा नाही थोडा समंजस पणा हवा.  आपले पणा हवा.

देवाचे दर्शन घेताना देवळाबाहेर उभे राहून चप्पल बूट न काढता केवळ बाहेरून हात जोडून देवदर्शन करता येते पण जरा थोडा वेळ काढून गाभाऱ्यात जाऊन देवदर्शन घेतल्यावर मनाला मिळणारे समाधान अवर्णनीय आहे. तेव्हा या  धकाधकीच्या जीवनात आपल  आयुष्य  अधिक  आनंदी करायचे  असेल लोकाभिमुख रहायचे असेल तर धावती भेट घ्यायलाच हवी.  संवाद साधताना मी देखील घेतोय धावती भेट. . . तुमच्यातल्या रसिकाची आणि माणसातल्या माणसाची. . . . !

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकारनगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #3 ☆ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतीक हमारी पत्नी ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतीक हमारी पत्नी”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #3 ☆ 

 

☆ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतीक हमारी पत्नी☆

 

उनकी सब सुनना पड़ती है अपनी सुना नही सकते, ये बात रेडियो और बीबी दोनो पर लागू होती है।रेडियो को तो बटन से बंद भी किया जा सकता है पर बीबी को तो बंद तक नही किया जा सकता।मेरी समझ में भारतीय पत्नी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सबसे बड़ा प्रतीक है।

क्रास ब्रीड का एक बुलडाग सड़क पर आ गया, उससे सड़क के  देशी कुत्तो ने पूछा, भाई आपके वहाँ बंगले में कोई कमी है जो आप यहाँ आ गये ? उसने कहा,  वहाँ का रहन सहन, वातावरण, खान पान, जीवन स्तर सब कुछ बढ़िया है, लेकिन बिना वजह भौकने की जैसी आजादी यहाँ है ऐसी वहाँ कहाँ ?  अभिव्यक्ति की आज़ादी जिंदाबाद।

अस्सी के दशक के पूर्वार्ध में,जब हम कुछ अभिव्यक्त करने लायक हुये, हाईस्कूल में थे।तब एक फिल्म आई थी “कसौटी” जिसका एक गाना बड़ा चल निकला था, गाना क्या था संवाद ही था।.. हम बोलेगा तो बोलोगे के बोलता है एक मेमसाब है, साथ में साब भी है मेमसाब सुन्दर-सुन्दर है, साब भी खूबसूरत है दोनों पास-पास है, बातें खास-खास है दुनिया चाहे कुछ भी बोले, बोले हम कुछ नहीं बोलेगा हम बोलेगा तो…हमरा एक पड़ोसी है, नाम जिसका जोशी है,वो पास हमरे आता है, और हमको ये समझाता है जब दो जवाँ दिल मिल जाएँगे, तब कुछ न कुछ तो होगा

जब दो बादल टकराएंगे, तब कुछ न कुछ तो होगा दो से चार हो सकते है, चार से आठ हो सकते हैं, आठ से साठ हो सकते हैं जो करता है पाता है, अरे अपने बाप का क्या जाता है?

जोशी पड़ोसी कुछ भी बोले,  हम तो कुछ नहीं बोलेगा, हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है।

अभिव्यक्ति की आजादी और उस पर रोक लगाने की कोशिशो पर यह बहुत सुंदर अभिव्यक्ति थी।यह गाना हिट ही हुआ था कि आ गया था १९७५ का जून और देश ने देखा आपातकाल, मुंह में पट्टी बांधे सारा देश समय पर हाँका जाने लगा।रचनाकारो, विशेष रूप से व्यंगकारो पर उनकी कलम पर जंजीरें कसी जाने लगीं। रेडियो बी बी सी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतीक बन गया।मैं  इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ रहा था,उन दिनो हमने जंगल में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखा लगाई, स्थानीय समाचारो के साइक्लोस्टाइल्ड पत्रक बांटे।सूचना की ऐसी  प्रसारण विधा की साक्षी बनी थी हमारी पीढ़ी। “अमन बेच देंगे,कफ़न बेच देंगे, जमीं बेच देंगे, गगन बेच देंगे कलम के सिपाही अगर सो गये तो, वतन के मसीहा,वतन बेच देंगे” ये पंक्तियां खूब चलीं तब।खैर एक वह दौर था जब विशेष रूप से राष्ट्र वादियो पर, दक्षिण पंथी कलम पर रोक लगाने की कोशिशें थीं।

अब पलड़ा पलट सा गया है।आज  देश के खिलाफ बोलने वालो पर उंगली उठा दो तो उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन कहा जाने का फैशन चल निकला है।राजनैतिक दलो के  स्वार्थ तो समझ आते हैं पर विश्वविद्यालयो, और कालेजो में भी पाश्चात्य धुन के साथ मिलाकर राग अभिव्यक्ति गाया जाने लगा है  इस मिक्सिंग से जो सुर निकल रहे हैं उनसे देश के धुर्र विरोधियो, और पाकिस्तान को बैठे बिठाये मुफ्त में  मजा आ रहा है।दिग्भ्रमित युवा इसे समझ नही पा रहे हैं।

गांवो में बसे हमारे भारत पर दिल्ली के किसी टी वी चैनल  में हुई किसी छोटी बड़ी बहस से या बहकावे मे आकर  किसी कालेज के सौ दो सौ युवाओ की  नारेबाजी करने से कोई अंतर नही पड़ेगा।अभिव्यक्ति का अधिकार प्रकृति प्रदत्त है, उसका हनन करके किसी के मुंह में कोई पट्टी नही चिपकाना चाहता  पर अभिव्यक्ति के सही उपयोग के लिये युवाओ को दिशा दिखाना गलत नही है, और उसके लिये हमें बोलते रहना होगा फिर चाहे जोशी पड़ोसी कुछ बोले या नानी, सबको अनसुना करके  सही आवाज सुनानी ही होगी कोई सुनना चाहे या नही।शायद यही वर्तमान स्थितियो में  अभिव्यक्ति के सही मायने होंगे। हर गृहस्थ जानता है कि  पत्नी की बड़ बड़  लगने वाली अभिव्यक्ति परिवार के और घर के हित के लिये ही होती हैं।बीबी की मुखर अभिव्यक्ति से ही बच्चे सही दिशा में बढ़ते हैं और पति समय पर घर लौट आता है,  तो अभिव्यक्ति की प्रतीक पत्नी को नमन कीजीये और देस हित में जो भी हो उसे अभिव्यक्त करने में संकोच न कीजीये।कुछ तो लोग कहेंगे लोगो का काम है कहना, छोड़ो बेकार की बातो में कही बीत न जाये रैना ! टी वी पर तो प्रवक्ता कुछ न कुछ कहेंगे ही उनका काम ही है कहना।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #5 ☆ जनरेशन गेप ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। श्री ओमप्रकाश  जी  के साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  शिक्षाप्रद लघुकथा “जनरेशन गेप ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #5 ☆

 

☆ जनरेशन गेप  ☆

 

पापाजी  उसे समझा रहे थे ,” सीमा बेटी ! अब तुम्हारी सगाई हो गई है . अब इस तरह यार दोस्तों के साथ घूमने जाना, सिनेमा देखना, शापिंग करना ठीक नहीं है ?….” पापाजी उसे आगे कुछ समझते कि सीमा ने उन्हें बीच में रोकते हुए कहा , ” पापाजी ! आप भी ना , १७ वी सदी की बातें कर रहे है.  हम नई पीढ़ी के लोग हैं. ऐसी पुरानी बातों में विश्वास नहीं करते हैं .”

अभी सीमा अपने पिताजी को जनरेशन गेप पर कुछ और लेक्चर सुनाती कि उस के मोबाइल के वाट्सएप्प पर एक सन्देश आ गया. जिसे पढ़- देख कर सीमा ‘धम्म’ से जमीन पर बैठ गई .

“क्या हुआ ?” सीमा के चेहर पर उड़ती हवाईया देख कर पापाजी ने पूछा तो सीमा ने अपना मोबाइल आगे कर दिया. जिस में एक फोटो डला हुआ था और  नीचे लिखा था , ” सीमा ! मैं इतना भी आधुनिक नहीं हुआ हूँ कि अपनी होने वाली बीवी को किसी और के साथ सिनेमा देखते हुए बर्दाश्त कर जाऊ. इसलिए मैं तुम्हारे साथ मेरी सगाई तोड़ रह हूँ.”

यह पढ़- देख कर पापाजी के मुंह से निकल गया , “बेटी ! यह कौन सा जनरेशन गेप है ? मैं समझ नहीं पाया ?”

शायद  सीमा भी इसे समझ नहीं पाई थी.  इसलिए चुपचाप रोने लगी .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 5 – आभाळ दाटून आलं की..! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं। अब आप श्री सुजित जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – सुजित साहित्य” के अंतर्गत  प्रत्येक गुरुवार को  पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता आभाळ दाटून आलं की..!)

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #5 ☆ 

 

☆ आभाळ दाटून आलं की..!☆ 

 

आभाळ दाटून आलं की भिती वाटते

येणा-या पावसाची आणि

येणा-या आठवणींची सुध्दा

डोळ्यासमोर सहज तरळून जातं

गावाकडचं घर..,गावाकडचं आंगण

मनामधल्या सा-याच जखमा

पावसाच्या प्रत्येक थेंबाबरोबर

ओल धरू लागतात सलू लागतात…

पण मी मात्र संयमानं त्या

जखमांवर फुंकर मारत राहतो

अगदी..पाऊस थांबेपर्यंत

पाऊस पडत असताना

घरात जायची भितीच वाटते

कारण ह्या पावसाने

गावच्या घरासारखं हे ही घर

माझ्या अंगावर कोसळेल की काय

ह्याची भिती वाटते

आणि माझ्या मायेसारखाच

मीही ह्या घराच्या ढीगा-यात एकाएकी

दिसेनासा होईल की काय ह्याचीही

कारण..घर जरी बदललं असलं तरी

अजून आभाळ तेच आहे

आणि कदाचित..पाऊस ही..,

आभाळ दाटून आलं की

भिती वाटते येणा-या पावसाची

आणि येणा-या आठवणींची सुध्दा..

 

……©सुजित कदम

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – #4 – वातानुकूलित संवेदना ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में प्रस्तुत है एक ऐसी  ही लघुकथा  “वातानुकूलित संवेदना”।)

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – #4 ☆

 

☆ वातानुकूलित संवेदना ☆

 

एयरपोर्ट से लौटते हुए रास्ते में सड़क किनारे एक पेड़ के नीचे पत्तों से छनती तीखी धूप-छाँव में साईकिल रिक्शे पर सोये हुए एक व्यक्ति पर अचानक नज़र पड़ी।

लेखकीय कौतूहलवश गाड़ी रुकवाकर उसके पास पहुँचा।

देखा – वह खर्राटे भरते हुए गहरी नींद सो रहा था।

समस्त सुख-संसाधनों के बीच मुझ जैसे अनिद्रा रोग से ग्रस्त सर्व सुविधा भोगी व्यक्ति को जेठ माह की चिलचिलाती गर्मी में इतने इत्मिनान से नींद में सोये इस रिक्शेवाले की नींद से कुछ ईर्ष्या सी होने लगी।

इस भीषण गर्मी व लू के थपेड़ों के बीच खुले में रिक्शे की सवारी वाली सीट पर धनुषाकार, निद्रामग्न रिक्शा चालक के इस कारुण्य दृश्य को आत्मसात कर वहाँ से अपनी लेखकीय सामग्री बटोरते हुए वापस अपनी कार में सवार हो गया

अनायास रिक्शेवाले से मिले इस नये विषय पर एक कहानी  बुनने की उधेड़बुन मेरे संवेदनशील मस्तिष्क में उमड़ने-घुमड़ने लगी।

घर पहुंचते ही सर्वेन्ट रामदीन को कुछ स्नैक्स व कोल्ड्रिंक का आदेश दे कर अपने वातानुकूलित कक्ष में अभी-अभी मिली कच्ची सामग्री के साथ लैपटॉप पर एक नई कहानी बुनने में लग गया।

‘गेस्ट’ को छोड़ने जाने और एयरपोर्ट से यहाँ तक लौटने  की भारी थकान के बावजूद— आज सहज ही राह चलते मिली इस संवेदनशील मार्मिक कहानी को लिख कर पूरी करते हुए मेरे तन-मन में एक अलग ही स्फूर्ति व  उल्लास है।

रिक्शाचालक पर तैयार मेरी इस सशक्त दयनीय कहानी को पढ़ने के बाद मेरे अन्तस पर इतना असर हो रहा है कि, इस विषय पर कुछ कारुणिक काव्य पंक्तियाँ भी खुशी से मन में हिलोरें लेने लगी है।

अब इस पर कविता लिखना इसलिए भी आवश्यक समझ रहा हूँ कि – हो सकता है, यही कविता या कहानी इस अदने से रिक्शे वाले के ज़रिए मुझे किसी प्रतिष्ठित मुकाम तक पहुंचा दे।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात #5 – मला वाटते …. ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात”  में  उनकी  एक ऐसी  कविता जो वर्तमान पीढ़ी की प्रत्येक सास अपनी  बहू के लिए मन ही मन लिखती होंगी ।  किन्तु , प्रत्यक्ष में कोई प्रदर्शित कर पाती हैं और कोई नहीं कर पाती । कभी अहंकार (Ego) आड़े आ जाता है तो कभी कुछ। आपकी कविता में बहू ही नहीं बेटी का स्वरूप भी दिखाई देता है। सुश्री प्रभा जी को निश्चित रूप से ऐसे उत्कृष्ट साहित्य के लिए साधुवाद और उनकी लेखनी को नमन।  

सास और बहू के रिश्तों पर उनकी भावना उनके ही शब्दों में –

“ सासू सुनेचं नातं युगानुयुगे वादग्रस्तच ठरलेलं आहे……माझ्या सूनेबद्दल च्या भावना व्यक्त करणारी कविता….

आजच्या #कवितेच्या प्रदेशात  मध्ये! ” – प्रभा सोनवणे

अब आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं । )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 5 ☆

 

 ☆ मला वाटते …..☆

 

ती खरोखर सुंदर आहे

आणि आवडतेही मला मनापासून !

ती दिसते अधिक आकर्षक आणि गोड

चुडीदार ,पंजाबीड्रेस मध्येच !

पैठणीत ही दिसते खुलून …….

पण मला वाटते ,

तिने क्वचितच नेसावी साडी ,

मात्र जीन्स वापरावी सर्रास ,

जावे ट्रेकिंगला ,

करावी मुलुखगिरी !

आयुष्यातले सारे सारे आनंद

लुटावेत  मनसोक्त !

स्वयंपाक ही करावा चटपटीत -चटकदार ,

हवा तसा हवा तेंव्हा !!

मला आवडते तिचे सफाईदार ड्राईव्हिंग ,

आणि फर्डा इंग्रजी संभाषणही .

मिळालेल्या स्वातंत्र्यातून आणि संधीतून

बनावे तिने स्वयंसिद्ध ,स्वयंपूर्ण !

 

तिच्यात दिसते मला नेहमीच

एक हरणाचे पाडस ,

जंगलात हरविलेले ……….

पण क्वचितच कधीतरी ………

तिच्यात एक मांजरही संचारते ,

फिस्कारते अधून मधून ,

न बोचकारता ,

रक्तबंबाळही  करते ………

पण ….पण …..तिच्यातले ते निरागस ,

टपो-या डोळ्याचे ,चकचकीत कांतीचे .

हरिणाचे पाडसच

बागडत असते आस पास !!

 

………तिच्या तिच्या  अभयारण्यात

असावे ते सुखरुप …..आनंदी !

 

ती खरोखर सुंदर आहे ,

आणि आवडतेही मला ,

मनापासून …………..

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

 

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