आपण एखाद्या गोष्टीचा अनुभव घेत असताना आपलं भान हरपतं, भवताल विसरलं जातं, वाऱ्याच्या लहरीवर तरंगत जात असल्यासारखं मन हलकं होऊन जात अक्षरश: एका भारलेल्या अवस्थेत आपण जातो. निर्गुण-निराकारत्वाची खूण पटवणाऱ्या, ‘त्याच्या’ अस्तित्वाची साक्ष देणाऱ्या, त्या सर्वोच्च शक्तीनं वेढलेल्या अवस्थेतले क्षण हे खरंतर जाणिवेच्या पलीकडले असेच म्हणावे लागतील. मात्र ही अवस्था लोप पावल्यानंतरही तिचा प्रभाव टिकून राहातो, ते क्षण मनात रेंगाळत राहातात. ह्या रेंगाळत्या क्षणांमधेच आपण खरोखरी काही चैतन्यदायी, निखळ आनंद देणारे क्षण अनुभवले हे जाणवतं… मनावर उमटलेल्या त्या अनुभूतीच्या पाऊलखुणा स्पष्ट दिसतात! अशाच प्रकारच्या एकाच वेळी तेजस्वी आणि हळव्याही पाऊलखुणा भैरवी कायमच मनावर उमटवत राहाते असं मला वाटतं.
मागच्या लेखात भैरवीला शब्दमर्यादेत मुडपून कसंबसं बसवलं असं माझं मलाच वाटत राहिलं. मन भरलं नाही, ते पुरेसं कागदावर उतरलंच नाही असं अधुरेपण जाणवत राहिलं. किंबहुना, भैरवीविषयी लिहिल्यावरही तिच्या पाऊलखुणा अजून मनात रेंगाळत राहिल्या आहेत म्हणायला हरकत नाही. बारा सुरांपैकी सगळे कोमल सूर भैरवीत आहेत म्हणूनच कि काय आपल्या मनालाही तीच कोमल अवस्था प्राप्त होत कुणी एखादा शब्द आपल्याशी बोललं तरी त्या ध्वनिलहरींच्या हलक्याशा धक्क्यानंही जिभेवर पिठीसाखर विरघळावी तितक्या सहजी आपलं अस्तित्वच विरघळून जाईलसं वाटत राहातं. म्हणूनच अशा अनुभवानंतर प्रत्येकच संवेदनशील व्यक्ती नि:शब्द होत मनावरचा भैरवीच्या रुतल्या पाऊलखुणांचा रेंगाळ ओलसर डोळ्यांनी जपत राहाते.
निरीक्षण केलं तर लक्षात येईल कि, कुठल्याही उत्तम रंगलेल्या मैफिलीतील भैरवीनंतर वातावरणात एक आल्हाददायक शांतता भरून राहिलेली असते, प्रत्येक श्रोत्याच्या मनात भैरवी आणखी ठळकपणे पाऊलखुणा उमटवत जात असते. श्रोते त्या परमानंदावस्थेत नुसते एकमेकांकडे पाहताना डोळ्यांतूनच ‘अहाहा… क्या बात है!’ असं गायकाविषयीचं कौतुक एकमेकांपर्यंत पोहोचवत असतात. त्या भारलेल्या अवस्थेला आपल्या शब्दानं धक्का लागू नये ह्याची काळजीच जणू प्रत्येकजण घेत असतो. भैरवीनं श्रोत्याला आनंदात न्हाऊ-माखू घालण्याचं कसब गायक-वादक कलाकाराचं हे वादातीत! त्यानं संगीतसाधनेतून कमावलेली शक्तीच इतक्या सगळ्या श्रोत्यांचं बोट धरून त्यांना वेगळ्या विश्वात घेऊन जाण्याची किमया घडवून आणू शकते. मात्र भैरवीच्या बाबतीत थोडंसं झुकतं माप त्या सुरांना जातं असं माझं वैयक्तिक मत!
मागच्या भागात आपण भैरवीवर आधारित काही मराठी रचनांचा उल्लेख केला होता. हिंदी रचनांविषयी बोलायचं झाल्यासही अक्षरश: लांबलचक यादी तयार होईल. पण पटकन आठवते ती रचना म्हणजे भारतरत्न पं. भीमसेन जोशीजी, पं. बालमुरलीकृष्णनजी, लताबाई ह्यांचे सूर आणि दर्शनासोबत भारतातील इतरही प्रांतांमधील अनेक गुणी व्यक्तींचं दर्शन घडवणारी, अनेक भाषांत सजलेली पूर्वी दूरदर्शनवर लागणारी ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ ही संपन्न रचना! मागच्या लेखात उल्लेखिल्याप्रमाणे कोणतीही मैफिल ‘भैरवी’ने संपन्न करण्याची प्रथा उत्तर भारतीय संगीत पद्धतीत रूढ आहे. ही रचना मात्र भैरवीमुळे जास्त संपन्न झालीये असं मनात येतं. ह्या संपन्नतेचं लक्षण म्हणजे ही रचना पाहाताना डोळे पाणावतातच, देशभक्ती उरात दाटून येतेच, अनेकविध प्रांतांमधील आपल्या देशबांधवांविषयी आस्था, एकात्मतेची भावना मनात जागतेच, सगळ्याच अर्थांनी दुजाभावाच्या कल्पना लोप पावत एक उदात्त, संपन्न जाणीव मनात जागतेच जागते. कितीही वेळा ही रचना ऐकली तरी प्रत्येकवेळी अशीच अनुभूती येते! पुन्हा म्हणेन, मनात जागणारी ही अनोखी जाणीव ‘भैरवी’नं गडद केली आहे!
हिंदी चित्रपट संगीतातल्याही किती रचना सांगाव्या! लताबाईंचं ‘माता सरस्वती शारदा’ अंगावर रोमांच उभं करतं, ‘बाबूल मोरा नैहर छूटो जाए’ हळवंहळवं करून टाकतं, ‘दिल का खिलौना हाए टूट गया’, ‘मीठे बोल बोले’, ‘फुल गेंदवा ना मारो’, ‘कैसे समझाऊ बडे नासमझ हो’ अशा कितीतरी रचना मनात रुंजी घालू लागतात. ‘कर चले हम फिदा जान-ओ-तन साथियों, अब तुम्हारे हवालें वतन साथियों’ ह्या ओळी ऐकताना काळजाला घरं पडतात, अंतऱ्यात मात्र वेगळे सूर वेगळा नूर घेऊन येत उरांत अभिमान जागवतात आणि पुन्हा ध्रुवपदाशी आल्यावर भैरवी काळजाचं पाणीपाणी करते. बेगम अख्तर, शोभा गुर्टू ‘हमरी अटरिया पे आजा रे सावरिया’ गातात तेव्हां त्यातली विरहवेदना जीव जाळत जाते.
खरंतर अशा अजून कितीतरी रचना आहेत ज्या मुख्यत्वे भैरवीची आठवण करून देतात, मात्र इतर स्वरांच्या वापरामुळे वेगळ्या ढंगानं पुढं जातात. मग तिथे भैरवीतल्या सुरांमध्ये एखाद- दुसऱ्या सुराचा फरक केल्यावर जे राग निर्माण होतात त्यांची आठवण जास्त गडद होत जाते. म्हणूनच अशा कित्येक रचनांचा उल्लेख मुद्दाम टाळतेय. सुगम रचनांबाबत हेच महत्त्वाचं आहे. रागनियम हा भागच तिथे लागू नसल्याने एखाद्या रचनेवर धडमकन एखाद्या रागाचं लेबल लावायला मन धजावत नाही, ते संयुक्तिकही नाही. एक मात्र खरं की, कोणताही संगीतप्रकार असो, त्यातली भैरवीची प्रत्येक सुरावट ही काळजावर पाऊलखुणा उमटवत जाते हे नि:संशय!
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी की संस्कारधानी जबलपुर शहर पर आधारित एक भावप्रवण कविता “जबलपुर हमारा “। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 19 ☆
☆ जबलपुर हमारा☆
रेवा तट पर बसा जबलपुर, शहर हमारा हमको प्यारा
इसकी मन भावन माटी ने, हमें सवारा हमें निखारा
इसके वातावरण, वायु, जल, नभ ने नित उत्साह बढाये
इसके शिष्ट समाज सरल, सदा नेह ममता बरसाये
दृश्य देख इसके बातें सुन, मन ने नये नये स्वप्न सजाये
इससे प्राप्त विशेष ज्ञान ने, पावन विविध विचार जगाये
मन भरती आल्हाद अनोखे, इसकी मंगल परंपराये
इसकी धार्मिक भावनाओ ने, आराधन के गीत गुंजाये
इससे ही बन सका आज मैं, जो हूं साहित्यिक अनुरागी
संवेदी मन ने ज्ञानार्जन की, उत्कंठा, प्रीति न त्यागी
इसकी हर हलचल में दिखता, मुझको एक संसार सुहाना
श्वेत श्याम चट्टानो में है, भरा प्रकृति का सुखद खजाना
दूर-दूर फैला दिखता है, विध्यांचल का हरित वनाचंल
छाया देता, प्यास बुझाता, सबकी मॉ रेवा का आंचल
जहॉ ज्ञान वैराग्य भक्ति तप, रत है सब शोभित तट वासी
मन वांछित सब सुख सुविधाये, पाते हैं साधू सन्यासी
शिक्षा और रक्षा के स्थित, कई एक संस्थान उजागर
धर्म प्राण हैं अधिक निवासी, रेल वायु सुविधाये यहाँ पर
लगता मेरा शहर मुझे प्रिय, अनुपम सब नगरो से ज्यादा
परिवारी स्वजनो से ज्यादा, ममतामय संबंध हमारा
इसकी स्वात्विक रूचि ने ही, संपोषित की मम जीवन धारा
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख अहसास, जज़्बात व अल्फ़ाज़।यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 74 ☆
☆ अहसास, जज़्बात व अल्फ़ाज़ ☆
अल्फ़ाज़ जो कह दिया/ जो कह न सके जज़्बात/ जो कहते-कहते कह न पाए अहसास। अहसास वह अनुभूति है, जिसे हम शब्दों में बयान नहीं कर सकते। जिस प्रकार देखती आंखें हैं, सुनते कान हैं और बयान जिह्वा करती है। इसलिए जो हम देखते हैं, सुनते हैं, उसे यथावत् शब्दबद्ध करना मानव के वश की बात नहीं। सो! अहसास हृदय के वे भाव हैं, जिन्हें शब्द-रूपी जामा पहनाना मानव के नियंत्रण से बाहर है। अहसासों का साकार रूप हैं अल्फ़ाज़; जिन्हें हम बयान कर देते हैं… वास्तव में सार्थक हैं। वे जज़्बात, जो हृदय में दबे रह गए, निरर्थक हैं, अस्तित्वहीन हैं, नश्वर हैं… उनका कोई मूल्य नहीं। वे किसी की पीड़ा को शांत कर सुक़ून प्रदान नहीं कर सकते। इसलिए उनकी कोई अहमियत नहीं; वे निष्फल व निष्प्रयोजन हैं। मुझे स्मरण हो रहा है, रहीम जी का वह दोहा… ‘ऐसी बानी बोलिए, मनवा शीतल होय/ औरन को शीतल करे, खुद भी शीतल होय’ के द्वारा मधुर वाणी बोलने का संदेश दिया गया है, जिससे दूसरों के हृदय की पीड़ा शांत हो सके। इसलिए मानव को अपना मुख तभी खोलना चाहिए; जब उसके शब्द मौन से बेहतर हों। यथासमय सार्थक वाणी का उपयोग सर्वोत्तम है। मानव के शब्दों व अल्फाज़ों में वह सामर्थ्य होनी चाहिए कि सुनने वाला उसका क़ायल हो जाए; मुरीद हो जाए। जैसाकि सर्वविदित है कि शब्द-रूपी बाणों के घाव कभी भर नहीं सकते; वे आजीवन सालते रहते हैं। इसलिए मौन को नवनिधि के समान अमूल्य, उपयोगी व प्रभावकारी बताया गया है। चेहरा मन का आईना होता है और अल्फ़ाज़ हृदय के भावों व मन:स्थिति को अभिव्यक्त करते हैं। सो! जैसी हमारी मनोदशा होगी, वैसे ही हमारे अल्फ़ाज़ होंगे। इसीलिए कहा जाता है, यदि आप गेंद को ज़ोर से उछालोगे, तो वह उतनी अधिक ऊपर जाएगी। यदि हम नल की जलधारा में विक्षेप उत्पन्न करते हैं, तो वह उतनी ऊपर की ओर जाती है। यदि हृदय में क्रोध के भाव होंगे, तो अहंनिष्ठ प्राणी दूसरे को नीचा दिखाने का भरसक प्रयास करेगा। इसी प्रकार सुख-दु:ख, ख़ुशी-ग़म व राग-द्वेष में हमारी प्रतिक्रिया भिन्न होगी और जैसे शब्द हमारे मुख से प्रस्फुटित होंगे; वैसा उनका प्रभाव होगा। शब्दों में बहुत सामर्थ्य होता है। वे पल-भर में दोस्त को दुश्मन व दुश्मन को दोस्त बनाने की क्षमता रखते हैं। इसलिए मानव को अपने भावों को सोच-समझ कर अभिव्यक्त करना चाहिए।
‘तूफ़ान में कश्तियां/ अभिमान में हस्तियां/ डूब जातीं हैं। ऊंचाई पर वे पहुंचते हैं/ जो प्रतिशोध की बजाय/ परिवर्तन की सोच रखते हैं।’ मानव को मुसीबत में साहस व धैर्य बनाए रखना चाहिए; अपना आपा नहीं खोना चाहिए। इसके साथ ही मानव को अभिमान को भी स्वयं से कोसों दूर रखना चाहिए। मुसीबतें तो सब पर आती हैं–कोई निखर जाता है, कोई बिखर जाता है और जो आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे रखता है; सभी आपदाओं पर मुक्ति प्राप्त कर लेता है।’ स्वेट मार्टन का यह कथन इस भाव को पुष्ट करता है…’केवल विश्वास ही हमारा संबल है, जो हमें अपनी मंज़िल पर पहुंचा देता है।’ शायद इसलिए रवींद्रनाथ टैगोर ने ‘एकला चलो रे’ सिद्धांत पर बल दिया है। यह वाक्य मानव में आत्मविश्वास जाग्रत करता है, क्योंकि एकांत में रह कर विभिन्न रहस्यों का प्रकटीकरण होता है और वह उस अलौकिक सत्ता को प्राप्त होता है। इसीलिए मानव को मुसीबत की घड़ी में इधर- उधर न झांकने का संदेश प्रेषित किया गया है।
सुंदर संबंध वादों व शब्दों से जन्मते नहीं, बल्कि दो अद्भुत लोगों द्वारा स्थापित होते हैं…जब एक दूसरे पर अगाध विश्वास करे और दूसरा उसे बखूबी समझे। जी, हां! संबंध वह जीवन-रेखा है, जहां स्नेह, प्रेम, पारस्परिक संबंध, अंधविश्वास और मानव में समर्पण भाव होता है। संबंध विश्वास की स्थिति में ही शाश्वत हो सकते हैं, अन्यथा वे भुने हुए पापड़ के समान पल-भर में ज़रा-सी ठोकर लगने पर कांच की भांति दरक़ सकते हैं, टूट सकते हैं। सो! अहं संबंधों में दरार ही उत्पन्न नहीं करता, उन्हें समूल नष्ट कर देता है। ‘इगो’ (EGO) शब्द तीन शब्दों का मेल है; जो बारह शब्दों के ‘रिलेशनशिप’ ( RELATIONSHIP) अर्थात् संबंधों को नष्ट कर देता है। दूसरे शब्दों में अहं चिर-परिचित संबंधों में सेंध लगा हर्षित होता है; फूला नहीं समाता और एक बार दरार पड़ने के पश्चात् उसे पाटना अत्यंत दुष्कर ही नहीं, असंभव होता है। इसलिए मानव को बोलने से पूर्व तोलने अर्थात् सोचने-विचारने की सीख दी जाती है। ‘पहले तोलो, फिर बोलो।’ जो व्यक्ति इस नियम का पालन करता है और सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करता; उसके संबंध सबके साथ सौहार्दपूर्ण व शाश्वत बने रहते हैं।
मित्रता, दोस्ती व रिश्तेदारी सम्मान की नहीं; भाव की भूखी होती है। लगाव दिल से होना चाहिए; दिमाग से नहीं। यहां सम्मान से तात्पर्य उसकी सुंदर-सार्थक भावाभिव्यक्ति से है। भाव तभी सुंदर होंगे, जब मानव की सोच सकारात्मक होगी और उसके हृदय में किसी के प्रति राग-द्वेष व स्व-पर का भाव नहीं होगा। इसलिए मानव को सदैव सर्वहिताय व अच्छा सोचना चाहिए, क्योंकि मानव दूसरों को वही देता है जो उसके पास होता है। शिवानंद जी के मतानुसार ‘संतोष से बढ़कर कोई धन नहीं। जो मनुष्य इस विशेष गुण से संपन्न है; त्रिलोक में सबसे बड़ा धनी है।’ रहीम जी ने भी कहा है, ‘जे आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान।’ इसके लिए आवश्यकता है… आत्म-संतोष की, जो आत्मावलोकन का प्रतिफलन होता है। इसी संदर्भ में मानव को इन तीन समर्थ, शक्तिशाली व उपयोगी साधनों को कभी न भूलने की सीख दी गई है…प्रेम, प्रार्थना व क्षमा। मानव को सदैव अपने हृदय में प्राणी-मात्र के प्रति करुणा भाव रखना चाहिए और प्रभु से सबके लिए मंगल- कामना करनी चाहिए। जीवन में क्षमा को सबसे बड़ा गुण स्वीकारा गया है। ‘क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पात्’ अर्थात् बड़ों को सदैव छोटों को क्षमा करना चाहिए। बच्चे तो स्वभाववश नादानी में ग़लतियां करते हैं। वैसे भी मानव को ग़लतियों का पुतला कहा गया है। अक्सर मानव को दूसरों में सदैव ख़ामियां- कमियां नज़र आती हैं और वह मंदबुद्धि स्वयं को गुणों की खान समझता है। परंतु वस्तु-स्थिति इसके विपरीत होती है। मानव स्वयं में तो सुधार करना नहीं चाहता; दूसरों से सुधार की अपेक्षा करता है; जो चेहरे की धूल को साफ करने के बजाय आईने को साफ करने के समान है। दुनिया में ऐसे बहुत से लोग होते हैं, जो आपको उन्नति करते देख, आपके नीचे से सीढ़ी खींचने में विश्वास रखते हैं। मानव को ऐसे लोगों से कभी मित्रता नहीं करनी चाहिए। शायद! इसलिए ही कहा जाता है कि ‘ढूंढना है तो परवाह करने वालों को ढूंढिए, इस्तेमाल करने वाले तो ख़ुद ही आपको ढूंढ लेंगे।’ परवाह करने वाले लोग आपकी अनुपस्थिति में भी सदैव आपके पक्षधर बने रहेंगे तथा किसी भी विपत्ति में आपको पथ-विचलित नहीं होने देंगे, बल्कि आपको थाम लेंगे। परंतु यह तभी संभव होगा, जब आपके भाव व अहसास उनके प्रति सुंदर व मंगलकारी होंगे और आपके ज़ज़्बात समय- समय पर अल्फ़ाज़ों के रूप में उनकी प्रशंसा करेंगे। यह अकाट्य सत्य है कि जब आपके संबंधों में परिपक्वता आ जाती है; आपके मनोभाव हमसफ़र की ज़ुबान बन जाते हैं। सो! अल्फ़ाज़ वे संजीवनी हैं, जो संतप्त हृदय को शांत कर सकते हैं; दु:खी मानव का दु:ख हर सकते हैं और हताश-निराश प्राणी को ऊर्जस्वित कर उसकी मंज़िल पर पहुंचा सकते हैं। अच्छे व मधुर अल्फ़ाज़ रामबाण हैं; जो दैहिक, दैविक, भौतिक अर्थात् त्रिविध ताप से मानव की रक्षा करते हैं।
( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “महापुण्य उपकार है, महापाप अपकार“. )
☆ किसलय की कलम से # 26 ☆
☆ महापुण्य उपकार है, महापाप अपकार ☆
स्वार्थ के दायरे से निकलकर व्यक्ति जब दूसरों की भलाई के विषय में सोचता है, दूसरों के लिये कार्य करता है। वही परोपकार है।
इस संदर्भ में हम कह सकते हैं कि भगवान सबसे बड़े परोपकारी हैं, जिन्होंने हमारे कल्याण के लिये प्रकृति का निर्माण किया। प्रकृति का प्रत्येक अंश परोपकार की शिक्षा देता प्रतीत होता है। सूर्य और चाँद हमें प्रकाश देते हैं। नदियाँ अपने जल से हमारी प्यास बुझाती हैं। गाय-भैंस हमारे लिये दूध देती हैं। मेघ धरती के लिये झूमकर बरसते हैं। पुष्प अपनी सुगन्ध से दूसरों का जीवन सुगन्धित करते हैं।
परोपकारी मनुष्य स्वभाव से ही उत्तम प्रवृत्ति के होते हैं। उन्हें दूसरों को सुख देकर आनंद मिलता है। परोपकार करने से यश बढ़ता है। दुआयें मिलती हैं। सम्मान प्राप्त होता है।
तुलसीदास जी ने कहा है-
‘परहित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहीं अधभाई।’
प्रकृति भी हमें परोपकार करने के हजारों उदाहरण देती है जैसे :-
परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः
परोपकाराय वहन्ति नद्यः ।
परोपकाराय दुहन्ति गावः
परोपकारार्थं इदं शरीरम् ॥
अपने लिए तो सभी जीते हैं किन्तु वह जीवन जो औरों की सहायता में बीते, सार्थक जीवन है.
उदाहरण के लिए किसान हमारे लिए अन्न उपजाते हैं, सैनिक प्राणों की बाजी लगा कर देश की रक्षा करते हैं। परोपकार किये बिना जीना निरर्थक है। स्वामी विवेकानद, स्वामी दयानन्द, रवींद्र नाथ टैगोर, गांधी जी जैसे महापुरुषों के जीवन परोपकार के जीते जागते उदाहरण हैं। ये महापुरुष आज भी वंदनीय हैं।
आज का इन्सान अपने दुःख से उतना दुखी नहीं है, जितना की दूसरे के सुख से।
मानव को सदा से उसके कर्मों के अनुरूप ही फल भी मिलता आया है। वैसे कहा भी गया है:-
‘जैसी करनी, वैसी भरनी’।
वे रहीम नर धन्य हैं, पर-उपकारी अंग ।
बाँटन बारे के लगे, ज्यों मेहंदी के रंग ॥
जब कोई जरूरतमंद हमसे कुछ माँगे तो हमें अपनी सामर्थ्य के अनुरूप उसकी सहायता अवश्य करना चाहिए। सिक्खों के गुरू नानक देव जी ने व्यापार के लिए दी गई सम्पत्ति से साधु-सन्तों को भोजन कराके परोपकार का सच्चा सौदा किया।
एक बात और ये है कि परोपकार केवल आर्थिक रूप से नहीं होता; वह मीठे बोलकर, किसी जरूरतमंद विद्यार्थी को पढ़ाकर, भटके को राह दिखाकर, समय पर ठीक सलाह देकर, भोजन, वस्त्र, आवास, धन का दान कर जरूरतमंदों का भला कर के भी किया सकता है।
पशु-पक्षी भी अपने ऊपर किए गए उपकार के प्रति कृतज्ञ होते हैं, फिर मनुष्य तो विवेकशील प्राणी है। उसे तो पशुओं से दो कदम आगे बढ़कर परोपकारी होना चाहिए ।
परोपकार अनेकानेक रूप से कर आत्मिक आनन्द प्राप्त किया जा सकता है। जैसे-प्यासे को पानी पिलाना, बीमार या घायल व्यक्ति को अस्पताल ले जाना, वृद्धों को बस में सीट देना, अन्धों को सड़क पार करवाना, गोशाला बनवाना, चिकित्सालयों में अनुदान देना, प्याऊ लगवाना, छायादार वृक्ष लगवाना, शिक्षण केन्द्र और धर्मशाला बनवाना परोपकार के ही रूप हैं ।
आज का मानव दिन प्रति दिन स्वार्थी और लालची होता जा रहा है। दूसरों के दु:ख से प्रसन्न और दूसरों के सुख से दु:खी होता है। मानव जीवन बड़े पुण्यों से मिलता है, उसे परोपकार जैसे कार्यों में लगाकर ही हम सच्ची शान्ति प्राप्त कर सकते हैं। यही सच्चा सुख और आनन्द है। ऐसे में हर मानव का कर्त्तव्य है कि वह भी दूसरों के काम आए।
उपरोक्त तथ्यों से अवगत कराने का मात्र यही उद्देश्य है कि यदि हमें ईश्वर ने सामर्थ्य प्रदान की है, हमें माध्यम बनाया है तो पीड़ित मानवता की सेवा करने हेतु हमें कुछ न कुछ करना ही चाहिए। सच यह भी है कि ऐसी अनेक संस्थाएँ यत्र-तत्र-सर्वत्र देखी जा सकती हैं जो निरंतर लोक कल्याण में जुटी हैं। मेरी दृष्टि से इससे अच्छे कोई दूसरे विकल्प हो भी नहीं सकते और मानवता का भी यही धर्म है।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे ”। )
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं “संतोष के दोहे”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी स्त्री विमर्श पर एक लघुकथा ‘कम्फर्ट जोन’। लघुकथा पढ़ते पढ़ते अनायास ही लगा कि कभी माँ के स्थान पर संवेदनशील पिता को रख कर भी देखना चाहिए, पत्नी को घर लाने से बेटी को विदा करते और गृहस्थी बसाते देखते हुए। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 54 ☆
☆ लघुकथा – कम्फर्ट जोन ☆
कितना अच्छा शब्द है ना कम्फर्ट जोन? सुनते ही आराम का एहसास, वह मुस्कुराई। हर लडकी के लिए मायका ऐसा ही होता है। कितने साल बीत गए शादी को? उंगलियों पर गिनने लगी – बाईस साल? समय मानों पँख लगाकर उड गया? बेटी की शादी भी हो गई। कैसा होता है ना, बेटी को जान लगाकर प्यार- दुलार से पालो और विदा कर दो किन्हीं अनजान लोगों के साथ। हाँ जानती हूँ आजकल लव मैरिज हो रही है, लडका- लडकी पहले से ही एक – दूसरे को जानते हैं, प्री वेडिंग शूट भी होता है। सब पता है लेकिन यह सब काफी होता है क्या एक – दूसरे को जानने के लिए? असली जीवन तो तब शुरु होता है जब चौबीस घंटे साथ रहना पडता है, तब पता चलता है आटे-दाल का भाव। और शुरु हो जाता है यह कहना- शादी के पहले तो ऐसे नहीं थे तुम, बहुत बदल गए हो। मन ही मन वह मुस्कुराई, ऐसे ही आरोप – प्रत्यारोप लगाते धीरे- धीरे जीवन कट जाता है। समय तो पता नहीं कहाँ फुर्र हो जाता है। फ्लैशबैक की तरह जीवन का एक – एक पल उसकी खुली आँखों के सामने आ रहा था –
नई नवेली दुल्हन अपने घर से एक ऐसे परिवार में आ जाती है, जहाँ हर कोई अनजान है, सब कुछ नया। नई – नई बातें, परंपराओं का बदला रूप, नए- नए व्यंजन, तौर-तरीके और ना जाने क्या क्या सीखती है वह। वह सम्भालती है अपने आपको, अपनी आदतों को और अपनी यादों को भी, कभी आँसू भरी आँखों को ठंडे पानी के छींटे मारकर तो कभी बाथरूम में बिना मतलब पानी चलाकर। हर लडकी से यही उम्मीद की जाती है कि जितनी जल्दी हो सके सब कुछ अपना ले। अनकहा सा स्वर गूँजता है उस नए माहौल में – बदलो अपने आप को, खाना – पीना बदलो, बोलो भी उनकी तरह उनके तौर – तरीकों से, यहाँ तक कि सोचो भी वैसे ही। हर घर में यह अलग ढंग से होता है, कहीं उसे परंपराओं की फेहरिस्त पकडा दी जाती है तो कहीं आदेश – यहाँ जैसे कहा जाए वैसे ही रहना है।
उसका मन कब अपने जीवन की यादों से हटकर बेटी से जुड गया उसे खुद पता ही ना चला। उसका अंश उससे अलग है ही कहाँ, वह बेटी को नए माहौल में, नए रूप में ढलते देख रही थी। सब के बीच घुल – मिलकर भी उसे सुरक्षित रखना है अपना अस्तित्व, अपनी पहचान।
कितना कठिन है ना? पर औरतों को अब सीखना ही होगा यह सब।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की एक समसामयिक व्यंग्य ‘रामभरोसे का कोविड वैक्सीनेशन’. इस सार्थक एवं अतिसुन्दर लघुकथा के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिकआभार। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 85 ☆
☆ व्यंग्य – रामभरोसे का कोविड वैक्सीनेशन ☆
मियां अल्लारख्खा, रामभरोसे जी का उर्दू संस्करण हैं. दोनो ही गरीबी की रेखा से नीचे वाले राशन कार्ड, बी पी एल कार्ड, आयुष्मान कार्ड जैसे बेशकीमती दस्तावेजों के महत्वपूर्ण धारक हैं. वे सब्सिडी वाली बिजली, उज्वला गैस, अंत्योदय योजना, बैंको के रोजगार लोन के सुपात्र हैं. उनके लोन की गारंटी सरकारें लेती हैं.वे मुफ्त शौचालय निर्माण, बिना ब्याज के गृह ॠण, डायरेक्ट फंड ट्रांस्फर वगैरह वगैरह जैसी एक नही अनेकों जन हितैषी योजनाओ के लाभार्थी हैं. तमाम सरकारी कोशिशों के बाद भी वे गरीबी रेखा पार नही कर पाते. दीन हीन रामभरोसे में राम बसते हैं. जनगणना में अल्लारख्खाओ और रामभरोसों के आंकड़े सब के लिये बड़े मायने के होते हैं. उनके आंकड़े सरकारो की सारी योजनाओ का मूल आधार बनते हैं. अल्लारख्खा और रामभरोसे की बस्तियां नेता जी की वोट की खदाने हैं. वे राजनैतिक दलो के घोषणा पत्रो के चुनिंदा विषय हैं.
लालकिले की प्राचीर से होने वाले भाषण हों या रेडियो पर दिल की बातें उनमें इनमें से किसी की चर्चा हो तो भाषण हिट हो जाते हैं. इनके मन को टटोलने में जो सफल हो जाता है वह जननेता बन जाता है. इनकी गिनती में थोड़ी बहुत हेरा फेरी कर्मचारियो की ऊपरी कमाई का स्त्रोत है. धर्म के कथित ठेकेदारो के लिये रामभरोसों और अल्लारख्काओ की आस्थायें बड़ा महत्व रखती हैं, ये और बात है कि इस सब से बेफिक्र उनकी पहली आस्था भूख के प्रति है. दोनो ही दिन भर की थकान मिटाने के लिये शाम को एक ही ठेके पर मिलते हैं, और जब कभी जेबें थोड़ी बहुत भरी होती हैं तो वे एक ही बाजार में देह की खुशी तलाशने निकल जाते हैं.
फटे, मैलेकुचैले कपड़ो में उनके बच्चो की मुस्कराती हुई तस्वीरें अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने की क्षमतायें रखती हैं. जब कभी अल्लारख्खा और रामभरोसे की बस्ती से कोई बच्चा अपने बस्ते और बुद्धि के कमाल से किसी प्रतियोगिता में कोई सफलता पा लेता है, तो खबरो में धमाल मच जाता है. रामभरोसे या अल्लारख्खा की जान बड़ी कीमती है. उन्होने देखा है कि जीते जी न सही किसी दुर्घटना में उनकी मौत तुरंत लाख रुपयो की सरकारी सहायता और परिवार में किसी के लिये सरकारी नौकरी का वादा लेकर आती है.
किसी भी राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम की सफलता रामभरोसों और अल्लारख्खाओ के वैक्सीनेशन हुये बिना संभव नही है. यह तथ्य डाक्टर्स से लेकर राजनेता तक खूब समझते हैं. ये और बात है कि स्वयं की प्रतिरोधक क्षमताओ पर इन बस्तियों को इतना भरोसा है कि उन्हें पकड़ पकड़ कर टीके लगाने होते हैं. उनकी इस आत्मनिर्भरता की भावना से मुकाबले के लिये ही स्वास्थ्य कर्मियो का बड़ा अमला घर घर जाकर उनके मना करने पर भी उन्हें मना मना कर उनका वैक्सिनेशन करता है.
दुनियां को फिर से पटरी पर लाने के लिये कोरोना की वैक्सीन जरूरी है. नेता जी ने चुनावी वादों में सबको मुफ्त कोविड वैक्सीनेशन का वादा किया हुआ है. तरह तरह की वैक्सीन बन रही हैं.किसी के दो डोज लगने हैं तो किसी के तीन. कोई माइनस ७० डिग्री में रखी जानी है तो कोई फ्रिज टेम्प्रेचर पर. माइनस ७० डिग्री स्टोरेज तापमान वाले उपकरण बनाने वाली कम्पनियां दुनियां भर से अपने उपकरणो के लिये आर्डर लेने की जुगत भिड़ाने में लगी हैं. उनकी मार्केटिंग टीमें ईमेल करने और देश देश के संबंधित मंत्रालयो से हर तरह के संपर्क में सक्रिय हैं. नकली चीनी वैक्सीन निर्माता इंतजार में हैं कि कब कोई वैक्सीन बाजार में आये और वे उंचे दामो पर अपना माल खपा दें. वैक्सीन, कोरोना की आपदा में अवसर बनकर आ रही है. किसी के लिये कमाई और रोजगार के तो किसी के लिये पुरस्कार के मौके कोविड वैक्सिनेशन में अंतर्निहित हैं.
इस सबसे बेखबर रामभरोसे और अल्लारख्खा अपनी खुद की इम्युनिटी के बल पर गमछा लपेटे कोविड आत्मनिर्भर दिखते हैं.संभ्रांत बुद्धिजीवी दानवीर लोग व संस्थायें इन्हें ही मास्क बांटतें हैं और अपने संवेदनशील होने की तस्वीरें खिंचवा पाते हैं. वे स्वयं को सेल्फ वैक्सीनेटेड मानते हैं. कोरोना के प्रति रामभरोसे और अल्लारख्खा के दृष्टिकोण बड़े परिपक्व हैं, वे इसे अमीरों की बीमारी बताने में नही हिचकिचाते. वे बिना मास्क मजे में बाजारो में घूमते मिल सकते हैं. उन्हें चुनावो की रैलियों, धार्मिक जुलूसों, किसान आंदोलनो की भीड़ से डर नही लगता. कभी कभार नाक,मुंह पर गमछे का कोना या साड़ी का पल्ला लपेटकर वे मास्क का शौक पूरा कर लेते हैं. जब कभी सरकारी चालान का डर हो तो यही गमछा उनका अस्त्र बन जाता है. जिसको वैक्सीनेशन के दस्तावेजों में उनका नाम चढ़ाना हो अभी से चढ़ा ले. रामभरोसे हों या अल्लारख्खा वे वैक्सीन के भरोसे नही. आत्मनिर्भरता ही उनकी ताकत है. उनका कोविड वैक्शीनेसन हो न हो उनकी बला से. वैक्सीनेशन की जल्दबाजी आप करें, रामभरोसे और अल्लारख्खा को पता है उन्हें तो मना मना कर, टीवी पर विज्ञापन दे देकर वैक्सीन लगायेगी सरकार.