(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “एक कहानी”। )
आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकते हैं ।
आज प्रस्तुत है श्री संतोष तिवारी जी की पुस्तक “रिश्तें मन से मन के” – की समीक्षा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 91 – रिश्तें मन से मन के – श्री संतोष तिवारी ☆
पुस्तक चर्चा
रिश्तों को,
गलतियाँ उतना कमजोर नहीं करती….
जितना कि,
ग़लतफ़हमियाँ कमजोर कर देती है !
रिश्ते ऐसा विषय है जिस पर अलग अलग दृष्टिकोण से हर बार एक अलग ही चित्र बनता है, जैसे केलिडोस्कोप में टूटी चूडियां मनोहारी चित्र बनाती हैं, पर कभी भी चाह कर भी पुनः पिछले चित्र नही बनाये जा सकते।
अतः हर रिश्ते में प्रत्येक पल को पूरी जीवंतता से जीना ही जीवन है।
पति पत्नी का रिश्ता ही लीजिए प्रत्येक दम्पति जहां कभी प्रेम की पराकाष्ठा पार करते दिखते है, तो कभी न कभी एक दूसरे से क्रोध में दो ध्रुव लगते हैं।
इस पुस्तक से गुजरते हुए मानसिक प्रसन्नता हुई। सन्तोष जी का अनुभव कोष बहुत व्यापक है। उन्होंने स्वयं के या परिचितों के अनुभवों को बहुत संजीदा तरीके से, संयत भाषा मे अत्यंत रोचक तरीके से संस्मरण के रूप में लोकवाणी बनाकर लिखा है। उनकी लेखकीय क्षमताओं को देख कलम कागज से उनके रिश्ते बड़े परिपक्व लगते हैं। मुझ जैसे पाठकों से उन्होने पक्के रिश्ते बनाने में सफलता अर्जित की है। मैं पुस्तक को स्टार लगा कर सन्दर्भ हेतु सेव कर रहा हूँ।
पढ़ने व स्वयं को इन रिश्तो की कसौटियों पर मथने की अनुशंसा करता हूँ। पुनः बधाई।
इसकी हार्ड कॉपी अपनी लाइब्रेरी में रखना चाहूंगा।
समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८
मो ७०००३७५७९८
≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक अत्यंत सार्थक, भावुक एवं समसामयिक विषय पर रचित लघुकथा “हल्दी कुमकुम”। इस सामायिक एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। )
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 80 ☆
??हल्दी कुमकुम ??
आज पड़ोसी चाची के यहां “हल्दी कुमकुम” का कार्यक्रम है, वर्षा ने जल्दी जल्दी तैयार होते अपने पतिदेव को बताया।
उन्होंने कहा.. तुम जानती हो मम्मी फिर तुम्हें खरी खोटी सुनाएंगी, क्योंकि मम्मी का वहां आना-जाना बहुत होता है। पर चाची ने मुझे भी बुलाया है वर्षा ने हंसकर कहा..।
बाहर पढ़ते-पढ़ते और एक साथ नौकरी करते हुए वर्षा और पवन दोनों ने समाज और घर परिवार की परवाह न करते हुए विवाह कर लिया था।
मम्मी-पापा ने बेटे का आना जाना तो घर पर रखा परंतु वह बहु को अंदर घुसने भी नहीं देते थे।
बहू को अपनी बहू नहीं स्वीकार कर पा रहे थे। हारकर दोनों शहर में ही ऑफिस के पास मकान लेकर रहने लगे थे।
वर्षा समझाती… कुछ दिनों में सब ठीक हो जाएगा। मम्मी पापा का गुस्सा होना जायज है क्योंकि मैं आपकी बिरादरी की नहीं हूं!!! पवन कहता आजकल जात-पात कौन देखता है? जिसके साथ जिंदगी संवरती है और जिससे तालमेल होता है उसी के साथ विवाह करना चाहिए।
जल्दी-जल्दी वर्षा तैयार होकर चाची के घर पहुंच गई। सासू मां पहले से ही आ गयी थीं। वर्षा ने सभी को प्रणाम करके एक ओर बैठना ही उचित समझा।
हल्दी कुमकुम का कार्यक्रम शुरू हुआ। सभी महिलाओं को तिलक लगा। नाश्ता और खाने का सामान दिया गया। सभी की हंसी ठिठोली आरंभ हो गई और सासू मां की वर्षा को लेकर छीटाकशी भी सभी देख रहे थे।
बातों ही बातों में वर्षा की सासू मां को सभी महिलाओं ने कहा… “तुम कब कर रही हो हल्दी कुमकुम का कार्यक्रम। पिछली बार भी तुमने नहीं किया था। इस बार तो कर लो। अब तो बहु भी आ गई है। सभी ने एक दूसरे को देखा??”
सासू मां को भी शायद इसी दिन का इंतजार था बस बोल पडी… “ठीक है तो कल ही रख लेते हैं। सभी आ जाना जितनी भी यहां महिलाएं आई हैं। सभी को निमंत्रण हैं। सभी को आना है।”
वे कनखियों से बहू की तरफ देख रही थी। बहू ने भी हाँ में सिर हिलाया।
पवन समय से पहले आ गया गाड़ी लेकर ताकि वर्षा को कहीं कोई बात न लग जाए। वह सड़क से ही गाड़ी का हार्न बजा रहा था।
वर्षा “अभी आई कह..” कर जाने लगी। सभी को प्रणाम कर सासू माँ के ज्यों ही चरण स्पर्श करने के लिए झुकी उन्होंने बाहों में भर कर कहा… “बहु, कल तुम्हारी पहली हल्दी कुमकुम होगी। दुल्हन के रूप में सज धजकर मेरी देहली पर आना साथ में उस नालायक को भी ले आना।”
वर्षा की आँखों से आँसुओं की धार बह निकली। खुशी से रोते हुए हंस रही थी या हंसते हुए रो पडी, पर आँसू थे खुशी के ही। फूली ना समाई वर्षा।
अपने घर आने के इंतजार में वह झटपट पवन की गाड़ी में जा बैठीं। आज इतनी खुशी से चहकते हुए वर्षा को पहली बार पवन ने देखा तो देखता रह गया। क्योंकि वह माँ और वर्षा की कुछ बातों से अनजान जो था।
मुझे कल घर आना है कह कर आंसुओं की धार लिए पवन से लिपट गई वर्षा!!!!!!!
अशी व्याख्याने, मूल्याधिष्टित कार्यक्रमांना आम्हां मुलांना घेऊन जाणे, आपल्या संस्कृतीची ओळख करून देणे ह्या बाबतीत आईबाबा नेहमीच सतर्क होते.
विद्यापीठ हायस्कूलच्या ग्राउंडवर राष्ट्र सेविका समितीच्या पूज्य लक्ष्मीबाई केळकर ऊर्फ मावशी यांची रामायणावर प्रवचने होती. ती पण रात्रीचीच. विद्यापीठ हायस्कूल घरापासून खूपच लांब होतं. चालतच जावं-यावं लागणार होतं. सहदेव म्हणून हाॅस्पिटलचेच एक कर्मचारी, त्यांना विनंती करून आईने त्यांना व त्यांच्या पत्नीला सोबतीला बरोबर घेतले.
वंदनीय मावशी यांची वाणी झुळुझुळु वहाणारं गंगेचं पाणी. शांत चेहरा, शांत बोलणं, स्पष्ट उच्चार, जमिनीवर आसनावर पालथी मांडी घालून बसलेल्या, शुभ्र नऊवारी लुगडे, दोन्ही खांद्यावरून पदर घेतलेला, शुभ्र रूपेरी केस, नितळ गौरवर्ण.
रोज प्रवचनाच्या सुरवातीला प्रार्थना केली जात होती.
“ही राम नाम नौका भवसागरी तराया
मद, मोह, लोभ सुसरी, किती डंख ते विषारी
ते दुःख शांतवाया मांत्रिक रामराया ।।
सुटले अफाट वारे मनतारू त्यात विखरे
त्या वादळातुनिया येईल रामराया ।।
भव भोव-यात अडली नौका परि न बुडली
धरुनी सुकाणु हाती बसलेत रामराया ।।
आम्ही सर्व ही प्रवासी जाणार दूरदेशी
तो मार्ग दाखवाया अधिकारी रामराया ।।
प्रभु ही तुझीच मूर्ती चित्ती सदा ठसू दे
मनमानसी या कृपा तुझी असू दे ।।
एकदा बोलायला सुरुवात केली की ऐकताना दीड तास कधी संपला कळतच नसे. अफाट जनसमुदाय, pin drop silence.
व्यासपीठावर प्रभु रामचंद्रांचा हार घातलेला ‘ पंचायतन’ फोटो. उदबत्तीचा वातावरणात भरून राहिलेला दरवळ आणि मावशींचं ओघवतं, निर्मळ वक्तृत्व. सग्गळा परिसर रामनामाने भारलेला असे.
प्रवचनात रामायणातल्या व्यक्तिंची, त्यांच्या स्वभावांची , वर्तणुकीची आणि घडलेल्या घटनांची गोष्टीरूप ओळख करून देताना, मावशी जीवनातल्या प्रत्येकाच्या जबाबदारी पेलण्याचे, वागण्याचे,विचारांचे स्वरूप कसे असावे यावरही बोलत असत. त्यावेळी हे सर्व कळण्याचं आमचं वय नव्हतं. खूपसं कळायचं नाही. राष्ट्रसेविका समितीचे कार्य हे व्यक्ती आणि कुटुंबापासून देशसेवेपर्यंत व्यापलेले होते. हे कार्य करताना व्यक्तिविकास, कुटुंबातली प्रत्येकाची कर्तव्ये आणि समाजातला आपला वावर हा देशसेवेसाठीच असला पाहिजे, हे शिकवणारे.
राजूनं, माझ्या भावानं या संदर्भातली एक आठवण सांगितली. एकदा प्रवचनाच्या आधी आई मावशींना भेटायला गेली. मी बरोबर होतो. आईनं विचारलं, मावशी, मी कशाप्रकारे देशसेवा करू शकते? त्यावर मावशी म्हणाल्या, तू घरचं सगळं सांभाळतेस, पतीला योग्य सहकार्य देतेस, भविष्य काळातली चार आयुष्ये घडवते आहेस, हेच निष्ठेने करत रहा, हीच देशसेवा.
त्या दिवशीच्या प्रवचनात मावशींनी हाच विचार उलगडून दाखवला. प्रत्येकाने आपले कर्तव्य निष्ठेने, आपुलकीने आणि जबाबदारी ने करणे, हीच रामायणाची शिकवण आहे.
काही वर्षानंतर, राष्ट्र सेविका समितीच्या शिबिरात माझे व माझ्या बहिणीचे नाव आईने नोंदवले. 21 दिवसाच्या शिबिरात स्वावलंबन, स्वसंरक्षण, देशाभिमान, अशा अनेक मूल्यांवर आधारित बौद्धिके, खेळ, आणि परस्पर संवाद यातून व्यक्तिमत्व विकास घडवण्याचे संस्कार नकळत आमच्यात रुजले. खरंतर हे त्यावेळी कळले नाही, पण पुढे अनेक प्रसंगात आपोआप बुध्दी तसाच विचार करू लागली. हळूहळू खरेपणा आयुष्यात किती महत्त्वपूर्ण आहे, ह्याची जाणीव झाली.
शिवशाहीर बाबासाहेब पुरंदरे हे तडफदार, अभिमान वाटावा असं व्यक्तिमत्व. जणु दुसरे शिवराय अशी देहयष्टी, पेहराव, दाढी, डोळ्यांत तीच चमक आणि अस्खलित वाणी.
तर मावशी अतिशय नम्र, आणि केवळ आदर करावा अशा. माया, ममता, प्रेम हे सगळे शब्द एकाठिकाणी सामावलेलं व्यक्तिमत्व. शिस्त आणि करारीपणा ही त्यांची दुसरी बाजू.
श्रोत्यांवर नकळत संस्कार घडत होते. व्याख्याने, प्रवचने ऐकून दुस-या दिवशी त्यावर गप्पा मारत जेवणे, हा आमचा आवडता छंद म्हणा किंवा काही, पण त्यावर बोलायला आवडायचे. कधी कधी न समजलेलं आई समजून सांगायची. त्यावेळी ह्याचं मोठंसं महत्व जाणवलं नाही. ते सहजरित्या होत होतं.
पुढे आयुष्यात कळलं की ते किती छान आणि महत्वाचं होतं.
बालपणीच्या आठवणी लिहिता लिहिता परत लहान झाल्यासारखे वाटले.
खरंच किती सुंदर असतं नाही बालपण! आई बाबा, बहीण भाऊ, , छोटंसं जग. इथे स्पर्धा नाही, स्वार्थ नाही, राग नाही.
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं शीत ऋतू पर आधारित आपके अप्रतिम दोहे।)
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “अलकों में अनमनी दिखी … … ”। )
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी द्वारा सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार एवं साहित्यकार श्री रमेश सैनी जी का साक्षात्कार। )
श्री रमेश सैनी
☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 84 ☆
☆ साक्षात्कार – “मैं मार्फत लेखन लिखने के बिल्कुल पक्ष में नहीं हूँ” – श्री रमेश सैनी ☆
जय प्रकाश पाण्डेय – जब दिन प्रतिदिन व्यंग्यकारों की फौज में सैनिकों की संख्या बढ़ती जा रही है लगभग हर पत्र पत्रिकाओं में, सोशल मीडिया में व्यंग्य का बोलबाला है तब क्या आप मानते हैं कि व्यंग्यकार साहित्य के पंडितों के साथ यज्ञ में शामिल हो सकता है?
रमेश सैनी – वर्तमान समय में साहित्य का स्पेस बढ़ गया हैं लगभग, सभी पत्रिकाओं में व्यंग्य के लिए सुरक्षित स्थान है. इस कारण व्यंग्यकारों के लिए अवसर बढ़ गए हैं. जबकि काफी समय पहले कई पत्रिकाओं ने कहानी छापना बंद कर दियाथा. पर उस वक्त किसी कहानीकार और पाठक नोटिस नहीं लिया था. व्यंग्य में यह स्थिति अभी नहीं आई.आज समाज, राजनीति, मानवीय प्रवृत्तियों की विसंगतियों में काफी विस्तार हुआ है. जिसे पढ़ना देखना लेखक के लिए आसान है. इस कारण बहुत से लेखकों ने कहानी और कविता का साथ छोड़ इसमें हाथ साफ करना शुरू कर दिया है. पर वे व्यंग्य की परम्परा से सामजंस्य नहीं बैठा पाए है और कुछ भी, मानवीय सरोकार विषयों से इतर गैरजरूरी विषयों पर सपाट बयानी कर रहे हैं. यह भी सीनाजोरी से फतवा भी कर रहे हैं.. देखो मेरा व्यंग्य. अब तो सम्पादक नाम की सत्ता भी उनके सामने नहीं है. मोबाइल, लेपटॉप पर लिखो और सीधे फेसबुक, वाट्सएप, इंस्टाग्राम पर डाल दो. मित्रों के लाइक, वाह, बधाई की भरमार से उन्हें महान लेखक बनते देर नहीं लगती. ऐसा नहीं, आपने ध्यान दिया हो, ग्रुप फोटो में कुछ लोग अपनी मुण्डी घुसेड फोटो के फ्रेम आना चाहते हैं. ऐसा ही कुछ लोग अपनी मुण्डी घुसेड़ कर व्यंग्य के फ्रेम में आना चाहते हैं. ऐसा नहीं है कि सब कुछ गलत है, यहाँ भी बहुत कुछ अच्छा भी हो रहा है. पाण्डेय जी आपसे अनुरोध है कि उन्हें सैनिक न कहें. सैनिक का जीवन सदा अनुशासन में बंधा रहता है. और व्यंग्य की अवधारणा को तोड़कर अनुशासन के विपरीत आचरण करते हैं.
जय प्रकाश पाण्डेय – सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव के इस दौर में कुछ व्यंग्यकार आत्ममुग्ध एवं बेखबर होकर व्यंग्य लेखन में अराजकता का वातावरण बनाने की तरफ अग्रसर हैं, इस बारे में आप क्या सोचते हैं?
रमेश सैनी- पाण्डेय जी जैसा मैंने पूर्व में कहा कि सोशल मीडिया के ये लोग व्यंग्यकार बन गए, पर व्यंग्य की समझ विकसित नहीं कर पाए और आत्ममुग्धता में वे कुछ भी, कैसा भी लिख रहे हैं. उन्हें यह भी नहीं मालुम हैं कि वे किस पर व्यंग्य लिख रहे हैं. शोषित पर कि शोषक पर. उनकी रचनाओं से मानवीय सरोकार, मानवीय सामाजिक प्रवृत्तियां, और उनकी समाज के प्रति प्रतिबद्बता और जिम्मेदारी दूर हो गई हैं. इस कारण व्यंग्य में अराजकता का वातावरण हो गया है. आज बहुत गैरजिम्मेदाराना ढंग से लिखा जा रहा है.
जय प्रकाश पाण्डेय- इसे कैसे दूर किया जा सकता है?
रमेश सैनी – आज आधुनिक तकनीक ने अपनी नई सत्ता स्थापित कर ली. अतः अब आपके हाथ में कुछ नहीं है. बस एक आशा की किरण है, वह है, पाठक की सत्ता. वह अपनी बेबाक, बिना लागलपेट के अपनी प्रतिक्रिया और टिप्पणियों से लेखक को सुधरने/बदलने का अवसर दे सकता है.
जय प्रकाश पाण्डेय – क्या सफल व्यंग्यकार के अंदर परकाया प्रवेश करने की गहरी पकड़ होनी जरूरी है, परकाया प्रवेश से लिखी रचना में वैसी मारक शक्ति और पैनापन की कितनी संभावना रहती है?
रमेश सैनी – व्यंग्य में परकाया प्रवेश प्रचलित शब्द है. व्यंग्य में परकाया प्रवेश सभी विषयों का पठन, अध्ययन, अनुभव ,सामाजिक, मानवीय प्रवृत्तियों की समझ विकसित होने पर ही होता है. यह एक साधना है. इसे साधने के लिए श्रम करना पड़ता है. पाण्डेय जी, परकाया प्रवेश एक तांत्रिक साधना का शब्द है. इसे सिद्ध करने के लिए कठोर नियम, अनुशासन के साथ कठोर श्रम, तप से साधना करने पड़ती है. इसके बारे यह जनश्रुति है. अगर साधक ने थोड़ी भी गल्ती की. तब इसका उल्टा प्रभाव साधक पर हो जाता है और जान के लाले पड़ जाते है. बस यही कुछ लेखक के साथ होता है. वह थोड़ा भी साहित्यिक और मानवीय मानदंडों से विचलित हुआ. और उसके लेखकीय अस्तित्व पर सवाल उठ जाते हैं.
जय प्रकाश पाण्डेय – आजकल देखा जा रहा है कि व्यंग्यकार अपनी पुस्तक/रचना की समीक्षा कराने के लिए बड़ा आतुर होता है पर अपनी रचना की आलोचना सुनने का साहस भी नहीं होता, ऐसे में व्यंग्यकारों के समूह /मठ से व्यंग्यकार के हितों और अहितों पर कोई फर्क पड़ता है क्या ?
रमेश सैनी – पुस्तक, रचना की समीक्षा किसी भी लेखक के मूल्याकन का पहला कदम होता है. समीक्षा, आलोचना से लेखक अपनी जगह देख सकता है कि वह कहाँ है. इस आधार पर वह बेहतर स्थान के लिए प्रयास भी करता है. अमूनन लेखक अपनी आलोचना से अपने को सहज नहीं पाता है. आलोचना, समीक्षा लेखक को तैयार करती है उसे अपने को सुधारने का अवसर मिलता है. बस उसमें कोई प्रोमोटर न हो. हाँ यह अवश्य देखा जा रहा है. कुछ समूह या उन्हें मठ भी कहा जा सकता है. जो प्रोमोटर का काम कर रहें हैं. इस संबंध में मेरा मानना है कि वे अज्ञानता में स्लो पायजन दे रहें हैं. और उसकी लेखकीय मृत्यु हो सकती है. अतः इसमें लेखक का अहित अधिक, हित की कम संभावना बहुत कम है.
जय प्रकाश पाण्डेय – कोरोना त्रासदी ने हमें लम्बे समय घर में कैद में रखा ऐसे वक्त पर महामारी कोरोना पर बहुत लोग व्यंग्य लिख रहे हैं। क्या आप मानते हैं कि मानव जाति को समाप्त करने पर उतारू कोरोना महामारी पर व्यंग्य लिखकर कोई महान बन जाएगा?
रमेश सैनी – यह अत्यंत जरूरी सवाल है, पहले मेरा यह सोचना है कि आदमी आधुनिकता और तरक्की के नाम हवा में उड़ रहा था, उसने प्रगति के नाम प्रकृति का बहुत अत्यधिक दोहन किया. इस अहंकार ने उसे आसमान से जमीन में पटक दिया. आदमी को उसकी औकात बता दी. अब मूल प्रश्न पर, मैं आरंभ से देखता आ रहा हूँ. जब भी देश या विश्व में किसी प्रकार की आपदा, त्रासदी आती है, तब शायर, कवि, लेखक स्थितियों का बिना जाँच परख के जागृत हो जाते हैं. ऐसे समय में हो सकता हो तात्कालिक महत्व दिखता है. पर लम्बे समय में यह नहीं दिखता है. कोरोना पर सैकड़ों व्यंग्य आ गए हैं. लगभग हर व्यंग्यकार ने अपनी कलम से कोरोना से उपकृत किया है. अभी भी कोई ऐसी रचना आई है, जिसने पाठक को प्रभावित किया हो या आज उस पर चर्चा हो रही हो. सन्1962 के युद्ध के समय में लिखी गई कवि प्रदीप की रचना “ऐ वतन के लोगों, या कवि राजेंद्र अनुरागी की रचना “आज सारा वतन लाम पर है, जो जहाँ है वो वतन के काम पर है” आज भी लोगों की जबान पर है. हाँ यह तात्कालिकता लेखक कवि को उर्जा जरूर देती है.
जय प्रकाश पाण्डेय – जब पूरी दुनिया में विरक्त, मुरझाया हुआ, मलिन एकाकीपन का दौर चल रहा हो तब क्या हास्य व्यंग्य हमारे जीवन और सोच में कोई सकारात्मक परिवर्तन कर सकता है?
रमेश सैनी – मेरा ऐसा मानना नहीं है. आधुनिक तकनीक ने सभी प्रकार के लोगों के लिए साधन उपलब्ध है, डीटीएच, इंटरनेट, फेसबुक इंस्टाग्राम, वाटसएप आदि सोशलमीडिया के माध्यम से अपनी रुचि के अनुसार धर्म, साहित्य, खेल, राजनीति को चयन कर इस स्थिति से मुक्त हुआ जा सकता है. कोरोना वायरस से हमारा शहर भी प्रभावित है. पूरे विश्व में कोरोना की त्रासदी ने सबको हिला कर रख दिया है. मैं भी इस स्थिति से अछूता नहीं था. मैं भी लाकडाउन के आरंभ में अवसाद की स्थिति में आ गया था. तब मैने हरिशंकर परसाई जी और रवीन्द्रनाथ त्यागी जी रचनाओं का पुर्नपाठ किया. जिससे मैं आश्वस्त हुआ. जीवन भी कोई चीज है, और इस स्थिति से शीघ्र मुक्त हो गया. साहित्य विशेष कर व्यंग्य और हास्य का पठनपाठन एक असरकारी दवा है. इसे सभी आजमा कर देख सकते हैं. हर विपरीत स्थितियों में यह गुणकारी नुस्खा है.
जय प्रकाश पाण्डेय – इंटरव्यू के नाम से प्रचलित गद्य रूप विधा का विकास इधर तेजी से हुआ है तमाम बड़े राजनैतिक लोगों, लेखकों, कलाकारों से इंटरव्यू लिए जाते हैं। क्या आप मानते हैं कि सच को अनुभव और विचारों की संगति में प्रस्तुत करने का यह विरल तरीका है?
रमेश सैनी – इंटरव्यू एक वह विधा है. जहाँ सत्य से साक्षात्कार होता है. इसके माध्यम से लेखक, कलाकार और राजनीतिक लोगों के विचार, मन:स्थिति, समझ को पढ़ा जा सकता है. इसमें लोगों को अपनी बात सत्यता और दृढ़ता से रखना चाहिए. जिससे समाज उनके अनुभवों और विचारों को जाने और लाभ उठा सके. यह एक महत्वपूर्ण बिंदु है कि जिसका इंटरव्यू लिया जा रहा है. उसको समझने पढ़ने और जानने अवसर मिल जाता है.
जय प्रकाश पाण्डेय – इन दिनों व्यंग्य/संस्मरण लेखन में “मार्फत लेखन” विवादास्पद लेखन माना जा रहा है। कुछ लोग मानते हैं कि मार्फत लेखन इतिहास पुरुषों की मूर्ति पर हथौड़ा चलाने की कोशिश मात्र है, पर कुछ लोगों का कहना है कि मार्फत लेखन में झूठ की संभावनाएं अधिक रहतीं हैं। इस बारे में आपका क्या विचार है?
रमेश सैनी – यह लेखन दूसरों के अनुभव पर लिखा जाता है और यह एक प्रकार की व्यंग्य लेखन में नयी विसंगति है यह लेखन जिस व्यक्ति के अनुभव पर लिखा जा रहा है. यह सच्चाई और प्रमाणिकता से दूर भी हो सकता है. यह भी हो सकता है कि वह लेखक मार्फत लेखन के वह के माध्यम से किसी खास व्यक्ति की छवि को धूमिल कर रहा हूं और इसके विपरीत अपनी धूमिल छवि को साफ करने का. इस प्रकार का लेखन, जिसके अनुभव पर लिखा जा रहा है. उसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा करता है. इस तरह लेखक और अनुभवकर्ता दोनों सवालों के घेरे में आ जाते हैं, और पाठक ठगा सा महसूस करता है. क्योंकि जिसका अनुभव है वह झूठ भी बोल सकता है. वाहवाही के चक्कर में लंबी चौड़ी हाथी सकता है. मेरा मानना है कि यह पाठकों के साथ लेखकीय धोखा है. अतः ऐसे लेखन से बचना चाहिए और दूसरों के अनुभव से लिखने वाले लेखक का बचने के लिए एक रास्ता खुला रहता है. वह बहुत आसानी से कहता है मैंने तो उसके अनुभव से लिखा है. यह कितना सच कितना झूठ है. यह वह ही जाने. यहां एक और बात हो सकती है कि लेखक उसके अनुभवों की जांच पड़ताल करें. इस प्रकार के लेखन में लेखक की नीयत पर भी प्रश्न उठते हैं. वह तो यह कहकर बच जाएगा कि इसमें मेरा कुछ नहीं है. जैसा मैंने सुना वैसे ही लिख दिया. कुछ उदाहरण सामने आए हैं. जिन्होंने दूसरों के अनुभवों पर लिखकर हरिशंकर परसाई की छवि को धूमिल करने का प्रयास किया. यह भी सच है. लेखक व्यक्तित्व से नहीं अपने काम, अपने व्यक्तित्व से पहचाना जाता है, जाना जाएगा किंतु व्यक्तित्व, पाठक को लेखक के प्रति धारणा भी बनाता है अभी कुछ दिन पहले ज्ञान चतुर्वेदी जी का अंजनी चौहान के अनुभवों के आधार पर लेख या उपन्यास का अंश एक बड़ी पत्रिका में प्रकाशित हुआ जिससे काफी हो हल्ला हुआ और लोगों ने उस लेखन को सिरे से नकार दिया. इससे यह हो सकता है कि पत्रिका को व्यासायिक लाभ मिला हो. मैं इसे घटिया प्रवृत्ति मानता हूँ. हां! इस बहाने पत्रिका और लेखक चर्चा के केंद्र में आ गए. पर इस घटना ने एक गुमनाम लेखक को पुनर्जीवित कर दिया. इसके पीछे एक चालाकी भरा कदम भी हो सकता है. ऐसे कई उदाहरण हैं. जो मेरे सामने आए हैं उसमें अब यह चलाकी आम हो गई है. अतः मैं मार्फत लेखन लिखने के बिल्कुल पक्ष में नहीं हूँ.
जय प्रकाश पाण्डेय – एक बड़े व्यंग्यकार ने पिछले दिनों फेसबुक पर अपनी टिप्पणी में लिखा कि साहित्यकारों द्वारा लिखे अधिकतर संस्मरण झूठ का पुलिंदा होते हैं। आप इससे कितना सहमत हैं?
रमेश सैनी- फेसबुक सोशल मीडिया में एक आभासी दुनिया है. जिसमें अनेक लेखक आत्ममुग्ध होकर साहित्य म़ें अपना स्पेस तलाशते रहते हैं. जो इस तरह के जुमले हवा में लहराकर तमाशा करते रहते हैं. देखिए हर लेखक की एक क्रेडिट वेल्यु होती है जिसे वह सदा बचाए रखना चाहता है. अतः सब लेखक के लिए यह कहना ठीक नहीं कहा जाता सकता है. यदि कोई लेखक का कोई संस्मरण आपकी नज़र में अविश्वसनीय और झूठ लगता है. तब ऐसी स्थिति में उस लेखक को साहित्य, समाज और पाठक के बीच में तत्थों के साथ खड़ा करना चाहिए.
जय प्रकाश पाण्डेय – प्राय: यह देखा गया है कि कुछ साहित्यकार अपने पुराने संकलनों से प्रिय रचनाएँ छांटकर नया संकलन बना लेते हैं और उस संग्रह का नाम “प्रतिनिधि संग्रह” रखकर अपनी रचनाओं की नई तरह से चर्चा कराते रहते हैं. पुराने संकलनों से प्रिय रचना छांट लेने के बाद बची हुई कमजोर, लाचार, अभागिन रचनाएं क्या अप्रिय रचनाओं की श्रेणी में आ जातीं हैं ? यदि ऐसी रचनाएं लेखक को कमजोर लगने लगतीं हैं, तो क्या लेखक को ऐसी रचनाओं को रिराइट कर वजनदार बनाना चाहिए। इस बारे में आपके क्या विचार हैं ?
रमेश सैनी – पाण्डेय जी, इसे इस तरह से देखा जाना चाहिए. यह प्रकाशक का व्यावसायिक और पाठक की सुविधा वाला पक्ष है. यह पाठक के लिए लेखक की समस्त रचना न पढ़ कर लेखक की चयनित, विशिष्ट, प्रिय रचनाओं को पुस्तक में पढ़ने का माध्यम है. उसे कम पैसे में एक ही पुस्तक में महत्वपूर्ण रचनाएं मिल जाती है. इसका सबसे अच्छा उदाहरण हरिशंकर परसाई जी और हरिवंश राय बच्चन जी की रचनाओं का है. परसाई जी की रचनाओं के छ: वाल्यूम, इसी तरह बच्चन जी के रचनाओं के छ: वाल्यूम प्रकाशित है, पूरी रचनाओं को पढ़ने के लिए आम पाठक को समय और पैसा दोनों व्यय करना होगा और दोनों स्थितियां ही कष्टदायक है.. रही शेष रचनाओं की, तो लेखक की शेष रचनाएं कमजोर, अभागी लाचार कहना गलत होगा. वे रचनाएं भी महत्वपूर्ण होती है. अत: रिराइट का कोई अर्थ नहीं, हाँ, हर रचना का एक ऐतिहासिक महत्व होता है.
जय प्रकाश पांडेय – बहुत पहले ख्याति लब्ध व्यंग्यकार सुशील सिद्धार्थ ने छटे हुए व्यंग्यकारों के बचपन पर “मेरा बचपन’ नाम से एक श्रृंखला चलाई थी. यथार्थ पर व्यंग्यकारों ने दिलेरी से बचपन की बदमाशियों को याद करते हुए वैसे ही बचपन पर अपनी कलम से बचपन की यादों को अपने सहज सरल भाषा में पारदर्शिता से बदमाशी भरे स्वरों में याद किया था. बचपन की यादों को साझा करते हुए लिखा था। आपकी तैरने की कला से आपने कुछ लोगों को डूबने से बचाने में मदद की. वाह-वाह लूटी थी और एक वयस्क लड़की को बचाने के चक्कर में आपका नर्मदा घाट जाना बंद कर दिया गया था. इस घटना से आपको जरूर ठेस लगी होगी और आपने जरूर कहानी या व्यंग्य लिखने की शुरुआत की होगी.
रमेश सैनी – मैं मेरा भी बचपन नर्मदा किनारे बीता मुझे लगभग 4 साल की उम्र में भली-भांति तैरना आ गया था. मैं बहुत अच्छा तैराक था. मैंने कॉलेज जाने के पूर्व तक हर वर्ष अनेक व्यक्तियों की डूबने से बचाया. इसे मैं अपनी उपलब्धि मानता हूं. नर्मदा तट जाने की बात को मैं इस ढंग से लेता हूं. दादी ने उस वक्त धार्मिक फिल्मों के साथ-साथ सामाजिक फिल्मों को देखना आरंभ किया था. जिसमें इस तरह की घटनाओं से फिल्मों में जवान लड़के लड़कियों को आसानी से प्रेम हो जाता था. शायद मै भी इसमें न पड़ जाऊं. गांव में प्रेम करना कठिन और जटिल है. प्रेम का पर्दा खुल जाने पर व्यक्ति के साथ साथ परिवार को भी बहुत बड़ी सजा भुगतनी पड़ती है. शायद इससे बचने बचाने के लिए उन्होंने मेरा घाट पर जाना बंद करवा दिया. कि इस चक्कर में मेरी पढ़ाई में विघ्न पैदा ना हो. हो सकता है. यह भी सोचा हो कि “अति सर्वत्र वर्जते”, यदि मैं घाट में बना रहा हूं तो मेरे साथ घटना और दुर्घटना भी हो सकती है पर उस घटना को याद कर अब भी रोमांचित हो जाता हूँ. दादी ने शायद सही पकड़ लिया हो.. मै अब भी अपने दादा दादी को अंदर तक याद करता हूँ, लगभग रोज याद करता हूँ. सच में वे दोनों महान व्यक्तित्व के धनी थे. मै ऐसा महसूस करता हूँ.
जय प्रकाश पांडेय – आपने जब अपने जीवन की पहली रचना लिखी. तब किसी घटना विशेष, आक्रोश ने उस रचना को लिखने के लिए प्रेरित किया होगा.
रमेश सैनी- मेरी पहली रचना कविता थी जिसे एक पत्रिका ने अपने वार्षिकांक के कव्हर पेज में छापी थी. मुझे ऐसा लगता था कि कविता लिखने में अपने को पूरी तरह व्यक्त नहीं कर पाता हूँ. कविता लिखना सरल नहीं लगता है. और मैं ने गद्य का सहारा लिया और मेरा पहला व्यंग्य “पानी रे पानी” टाइम्स समूह की फिल्मी पत्रिका माधुरी में प्रकाशित हुआ. मेरे स्वभाव में है कि मैं अन्याय देख आवेशित हो जाता हूँ.
जय प्रकाश पांडेय – आपकी अनेक व्यंग्य रचनाओं से गुजरते हुए कभी-कभी ऐसा लगता है कि आपका रचना का स्वभाव यथार्थ के आकार की तरफ जाते जाते हुए ठहराव आक्रोशजन्य सा हो जाता है इसके पीछे निश्चित रूप से कोई कारण हो सकते हैं वह भी क्या हो सकते हैं?
रमेश सैनी – मेरा पूरा जीवन गाँव में बीता है. मैंने वहाँ पर गरीबी मजबूरी, शोषण, बिना इलाज के मरते लोगों, और अंधविश्वासके प्रभाव को बहुत नजदीक से देखा है. गरीब शोषितों के चेहरों को मैंने बहुत बारीकी से पढ़ा है. यह सब देख कर आज जब मैं सोचता हूँ तो मेरे शरीर के रुऐं खड़े हो जाते हैं. तब मुझे प्रतिरोध करने का माध्यम नहीं मिल रहा था. यह आवेश यह प्रतिरोध मेरे अंदर बहुत गहरे तक धंसा है. जब समझ आई. तब व्यंग्य के माध्यम से धीरे धीरे प्रस्फुटित होकर जब तब बाहर निकल रहा है. मैं उन दिनों को याद करता हूं तो मुझे आज भी आवेशित हो जाता हूँ.
जय प्रकाश पांडेय – क्योंकि आपने लगातार कहानियां भी लिखी हैं. व्यंग्य भी लिखे हैं और उपन्यास भी लिख रहे हैं आपने कभी अध्यात्म रहस्यवाद और भूत प्रेतों के बारे में कभी कोई रचना लिखी है?
रमेश सैनी – मैंने अध्यात्म और रहस्यवाद भूत प्रेतों पर अभी तक कुछ भी नहीं लिखा है पर इसको पढ़ा बहुत है. चंद्रकांता, चंद्रकांता संतति प्रिय उपन्यास हैं. जबलपुर के कैलाश नारद की अनेक रचनाएँ और बंगाल के तांत्रिकों की कहानियां बहुत रुचि से पढ़ी है. मैं आदिवासी बहुल क्षेत्र मंडला का रहने वाला हूँ और ग्रामीण परिवेश से हूँ वहां पर तांत्रिक, पंडा, सौधन (महिला) आदि की कहानियां आम हैं. भूतों के अनेक प्रकार को जानता हूँ. इस तरह की कहानियों को मैंने लोगों से बहुत सुना है. हां! मैं इसे बहुत रुचि से और आनंद ले कर पढ़ता हूँ पर लिखा नहीं है.
जय प्रकाश पांडेय – आजकल आप गोष्ठियों में बोलते हुए पुस्तक का विमोचन करते हुए या इंटरव्यू देते हुए मौखिक समीक्षा आलोचना करते हुए अधिक नजर आते हैं. छपे हुए शब्दों में यदा-कदा नजर आते हैं ऐसा क्यों?
रमेश सैनी –पहले की अपेक्षा लेखन कम हुआ है, पर नियमित लिख रहा हूँ. अभी कुछ वर्षौं से व्यंग्य आलोचना पर रुचि बढ़ गई है. उसका एक कारण यह भी है. अभी व्यंग्य लेखन में थोड़ी सी अराजकता है. इसे समीक्षा, आलोचना, गोष्ठियों के माध्यम से लोगों को रेखांकित कर सचेत और प्रतिरोध भी करता हूँ.
जय प्रकाश पांडेय- समकालीन व्यंग्यकारों में आपने सबसे अधिक प्रभाव किसे ग्रहण किया है लोगों का विचार हैं कि आप व्यंग्य यात्रा के संपादक और ख्याति लब्ध व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय से ज्यादा प्रभावित दिखे हैं.
रमेश सैनी- आप सही सोच रहे हैं. प्रेम जनमेजय अच्छे व्यंग्यकार तो है ही ,संपादक भी बहुत अच्छे हैं. व्यंग्ययात्रा के माध्यम से उन्होंने व्यंग्य के नए रूपों को सामने लाया है व्यंग आलोचना का परिदृश्य पहले बहुत धूमल था, पर आज अपनी स्पष्टता के साथ सामने है. वे व्यंग्य आलोचना, व्यंग्य लेखन में नए लोगों को उनकी अनेक कमजोरियों के बाबजूद स्पेस दे रहे हैं यह व्यंग्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण काम है. इस सबके बाद बहुत बढ़िया इंसान है जोकि आज के समय में कठिन है. मेरे अच्छे मित्र तो हैं ही. मैं व्यंग्य के परिपेक्ष्य में समकालीन समय में उनसे निश्चित ही प्रभावित हूँ.
जय प्रकाश पांडेय –आप अपनी तरह से नए व्यंग्यकारों को बदलते समय के अनुसार कुछ कहना चाहेंगे?
रमेश सैनी- व्यंग्य की प्रसिद्धि, प्रभाव, और छपाव को देखकर नए लोग क्षेत्र में आए हैं. यह स्वागतेय है पर उनसे मेरा आग्रह है कि आप पुराने लेखकों हरिशंकर परसाई शरद जोशी, रवींद्रनाथ त्यागी आदि उनके समकालीन लेखकों की रचनाओं को अधिक से अधिक पढ़ें. इससे आपको व्यंग्य की दृष्टि को समझने में सहायता मिलेगी. साथ ही साथ आज के दौर की नई विसंगतियों को भी आप पढ़ने और पकड़ने की दृष्टि विकसित हो सकेगी. मेरी एक बात और भी है आपने जिन विसंगतियों को देखा. उस पर आप लिख डाला पर यह ध्यान दें. कहीं वह सीधी सपाट बयानी तो नहीं है अतः अपने लिखे को जाँचना चाहिए. अपने लिखे का संकेत, संदेश जाना चाहिए कि रचना ने पाठक को प्रभावित और बैचेन कर दिया है. तभी रचना सफल होगी क्योंकि हर लिखी हुई विसंगति व्यंग्य नहीं होती है.
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है बसंत ऋतू के आगमन पर एक भावप्रवण कविता “बासंती परिवर्तन”।)