हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 64 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – तृतीय अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है तृतीय अध्याय

फ्लिपकार्ट लिंक >> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 64 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – तृतीय अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज आप पढ़िए द्वितीय अध्याय का सार। आनन्द उठाएँ।

 डॉ राकेश चक्र

अध्याय 3

कर्मयोग क्या है ?  भगवान कृष्ण का  अर्जुन से कुछ इस तरह संवाद हुआ

अर्जुन ने भगवान कृष्ण से कर्मयोग के बारे में कहा –

केशव!कहते आप जो, बुद्धि सदा है ज्येष्ठ।

कर्म सकामी क्यों करूँ, युद्ध नहीं कुलश्रेष्ठ।।1

 

व्यामिश्रित उपदेश से, बुद्धि भ्रमित व्यामोह।।

मन का संशय दूर हो, दूर करें अवरोह।।2

 

श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा

अर्जुन तुम निष्पाप हो, दो जीवन उपहार।

एक ज्ञान का योग है, दूज भक्ति मनुहार।।3

 

कर्म जरूरी है सखा, मिटे न फल का योग।

सिद्धि नहीं संन्यास से, कर्म नहीं संयोग।।4

 

आत्म सदा सक्रिय रहे, कर्म करे हर याम।

शुभ-शुभ करते कर्म जो, मिलें सुखद परिणाम।।5

 

करे दिखावा भक्ति का,औ’ विषयों का ध्यान।

अधम भक्ति ऐसी समझ, करती मिथ्यापान।। 6

 

 

कर्मयोग कर्मेंद्रि से, अनासक्त हो भाव।

कर्म करें कर्मेंद्रियां , पावन श्रेष्ठ स्वभाव।।7

 

कर्म करे शास्त्रज्ञ विधि, कर ले शुभ-शुभ कर्म।

कर्म मनुज जो ना करें , उसको कहें अकर्म।।8

 

कर्मों का मत त्याग कर, मनासक्ति को छोड़।

प्रभु को श्रेयस मानकर,भक्ति-भाव उर मोड़।।9

 

ब्रह्मा कहते कल्प में, करना सब जन यज्ञ।

इच्छित फल तुमको मिले, जीवन हो धर्मज्ञ।।10

 

यज्ञ मनुज जो भी करें, रहते देव प्रसन्न।

इच्छित फल दें देवता, रहें सदा संपन्न।।11

 

बिन माँगे, दें देवता, वस्तु, अन्न सब भोग।

हवन सदा करते रहो, नहीं सताएं रोग।।12

 

जो खाते यज्ञ कर, अन्न मनुज वे श्रेष्ठ।

पाप-शाप सब छूटते, है जीवन गति कुलश्रेष्ठ ।।13

 

जनोत्पत्ति है यज्ञ से,यज्ञ वृष्टि का हेत

कर्मों से ही यज्ञ हों,मिलता सुख अभिप्रेत ।।14

 

जन्म-कर्म ही वेद है, ईश्वर वेद विधान।

सर्वव्याप परमात्मा,रहते यज्ञ प्रधान।।15

 

सृष्टि चक्र इस लोक में, कर्म वेद अनुसार।

कर्म करें सुख भोग को, है वह पापाचार।।16

 

करें आत्मा प्रेम जो, रहें आत्म संतुष्ट।

यही उचित कर्तव्य है, कभी न हों वे रुष्ट ।।17

 

आत्म ज्ञान में लीन जो, रहे सदा निष्पाप।

ऐसे मानव लोक में, कभी न पाएँ ताप।। 18

 

अनासक्त हो, कर्म कर, रख लें शील स्वभाव।

ईश्वर को अति प्रिय लगे , अंतर्मन- सद्भाव।।19

 

जनकादिक ज्ञानी पुरुष, अनासक्ति कृत कर्म।

परम् सिद्धि पाए सभी, किए लोक हित धर्म।।20

 

श्रेष्ठ मनुज जैसा करें, करते वैसा लोग।

देते सभी प्रमाण हैं, लोक और परलोक।।21

 

अर्जुन सुन लो बात तुम, मैं ही सबका ईश।

फिर भी करता कर्म मैं, होकर के जगदीश।।22

 

मैं जैसा हूँ कर रहा, देख करें बर्ताव।

जन्मा हूँ कल्याण हित, बाँटूँ सुंदर भाव।। 23

 

नहीं करूँ यदि कर्म मैं, लोग भ्रष्ट हो जाँय।

कर्म करूँ कल्याण के, भक्त सदा सुख पाँय।। 24

 

हे अर्जुन तू कर्म कर, अनासक्त ले भाव।

ज्ञानी जन ज्यों लोक में, बाँट रहे सद्भाव।।25

 

ज्ञानी जन करते रहे, सदा लोक कल्याण।

वैसे ही तू कर्म कर, कर्म बिना  निष्प्राण।। 26

 

सभी काम हैं प्रकृति के, अहम करे प्रतिकार।

कर्ता मानव बन रहा, मन में ले कुविचार।। 27

 

त्रिगुणी माया ज्ञान की, ज्ञानी को दे सीख।

ऐसा ज्ञानी जगत में, बाहर-भीतर दीख।। 28

 

त्रयी प्रकृति के गुणों से, होते जो आसक्त।

मर्म न प्रभु का जानते, जानें ज्ञानी भक्त।। 29

 

अर्जुन तू सुन ध्यान से, मुझमें चित लवलीन।

कर्म समर्पण भाव से,करो ईश्वराधीन।।30

 

दोष बुद्धि से जो रहित, वे ही मेरे भक्त।

मुझको पाते हैं वही, जो श्रद्धा संपृक्त।।31

 

दोष दृष्टि जो जन रखें, उसे मूर्ख तू जान।

ऐसे मनुजों का कभी, नहीं हुआ कल्यान।। 32

 

हर प्राणी ही प्रकृति के, रहता सदा अधीन।

करता कर्म स्वभाव वश, हठ हो जाता क्षीण।। 33

 

रखो इंद्रियों को प्रिये, अपने सदा अधीन।

ये ही अपनी शत्रु हैं, पथ से करें विहीन।। 34

 

करो आचरण धर्मयुत, चिंतन धर्माचार।

धर्म स्वयं का श्रेष्ठ है, खुले मुक्ति का द्वार।। 35

 

अर्जुन उवाच

अर्जुन कहते कृष्ण से, मनुज करे क्यों पाप।

बिन चाहे फिर भी विवश , झेल रहा संताप।। 36

 

श्री भगवान उवाच

हे अर्जुन प्रिय वचन सुन, रजोगुणी है काम।

भोग, क्रोध ही दे रहे, इसको बैरी नाम।। 37

 

धुआँ अग्नि को ढाँकता, रज दर्पण ढँक जाय।

गर्भ ढँका ज्यों जेर से, काम, ज्ञान भरमाय।। 38

 

काम, अग्नि सादृश्य है, जिसमें सब जल जाँय।

विषय वासना शत्रु है, ज्ञान ध्यान बिलगाँय।।39

 

मनोबुद्धि सब इन्द्रियाँ, यही काम स्थान।

ज्ञान ढकें ये स्वयं का , देते दुख औ’ त्राण।। 40

 

रखो इन्द्रियों को सदा , हे प्रिय निज आधीन।

ज्ञान, बुद्धि, बल फिर बढ़े, जीवन हो स्वाधीन।। 41

 

तन से इन्द्री श्रेष्ठ हैं, इन्द्री से मन श्रेष्ठ।

मन से बुधिबल श्रेष्ठ है, आत्म बुद्धि से श्रेष्ठ।। 42

 

सदा आत्म की बात सुन, विषय वासना मार।

मन को रख वश में सदा, है जीवन का सार।। 43

 

इस प्रकार श्रीमद्भगवतगीता के तृतीय अध्याय ” कर्मयोग” का भक्तिवेदांत तात्पर्य पूर्ण हुआ (समाप्त)।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 68 – ग़ज़ल…! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #68 ☆ 

☆ ग़ज़ल…! ☆ 

(मात्रावृत्त .)

एकटाच रे नदीकाठी या वावरतो मी

प्रवाहात त्या माझे मी पण घालवतो मी

 

सोबत नाही तू तरीही जगतो जीवनी

तुझी कमी त्या नदीकिनारी आठवतो मी

 

हात घेऊनी हातात तुझा येईन म्हणतो

रित्याच हाती पुन्हा जीवना जागवतो मी

 

घेऊन येते नदी कोठूनी निर्मळ पाणी

गाळ मनीचा साफ करोनी लकाकतो मी.

 

एकांताची करतो सोबत पुन्हा नव्याने

कसे जगावे शांत प्रवाही सावरतो मी .

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 85 – खोटा सिक्का…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी स्वास्थ्य की जटिल समस्याओं से  सफलतापूर्वक उबर रहे हैं। इस बीच आपकी अमूल्य रचनाएँ सकारात्मक शीतलता का आभास देती हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना खोटा सिक्का….। )

☆  तन्मय साहित्य  #85 ☆

 ☆ खोटा सिक्का…. ☆

उसने खोटा सिक्का

धर्म वेदी पर चढ़ा दिया

दानी धर्मी बन ऐसे

अपना कद बढ़ा लिया

 

सुबह नहाए, मिटी खुमारी,

फिर किताब बाँची

और रोज की तरह

लगे करने झूठी साँची

फूटपरस्ती के पांसे चल

सब को लड़ा दिया

अपना कद बढ़ा लिया ……..

 

शाम हुई सत्संग भवन में

सबसे आगे थे

घर आकर मधु पान

ज्ञान के उलझे धागे थे

एक आवरण फेंक

दूसरा चोला चढ़ा लिया

अपना कद बढ़ा लिया ……

 

कपटी नींव भ्रष्ट तानों-बानों

की दीवालें

गिरगिटियों से रंगे भवन में

सबके मन काले

भावहीन बौनों ने

भूल भुलैया खड़ा किया

अपना कद बढ़ा लिया …….

 

आदर्शों का पिटे ढिंढोरा

मक्कारी मन में

चेहरे हैं रंगीन, दाग धब्बे

बाकी तन में

पाठ फरेबी का

संतानों को भी पढ़ा दिया

दानी धर्मी बन ऐसे

अपना कद बढ़ा लिया।।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश0

मो. 9893266014

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -7 – कसार देवी मंदिर – अलमोड़ा ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -7 – कसार देवी मंदिर– अलमोड़ा”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं -7 – कसार देवी मंदिर – अलमोड़ा  ☆

अल्मोड़ा बागेश्वर हाईवे पर “कसार” नामक गांव में स्थित कश्यप पहाड़ी की चोटी पर एक गुफानुमा जगह पर दूसरी शताब्दी के समय निर्मित कसार देवी का मंदिर है । इस मंदिर में माँ दुर्गा के आठ रूपों में से एक रूप “देवी कात्यायनी” की पूजा की जाती है  । लोक मान्यताओं के अनुसार इसी  स्थान पर  “माँ दुर्गा” ने शुम्भ-निशुम्भ नाम के दो राक्षसों का वध करने के लिए “देवी कात्यायनी” का रूप धारण किया था

कहते है कि स्वामी विवेकानंद 1890 में ध्यान के लिए कुछ महीनो के लिए इस स्थान में आये थे । और अल्मोड़ा से कुछ दूरी पर स्थित  काकडीघाट में उन्हें विशेष ज्ञान की अनुभूति हुई थी और उसके बाद ही उन्होंने पीड़ित  मानवता की सेवा का वृत संन्यास के साथ लिया ।   इसी तरह बौद्ध गुरु “लामा अन्ग्रिका गोविंदा” ने गुफा में रहकर विशेष साधना करी थी |

यह क्रैंक रिज के लिये भी प्रसिद्ध है , जहाँ 1960-1970 के दशक में “हिप्पी आन्दोलन” बहुत प्रसिद्ध हुआ था । इस  मंदिर में  1970 से 1980 के बीच अनेक तक डच संन्यासियों ने भी साधना की । हवाबाघ की सुरम्य घाटी में स्थित इस  मंदिर के पीछे एक विशाल चट्टान है जो देखने में शेर की मुखाकृति जैसी दिखती है ।

उत्तराखंड देवभूमि का यह  स्थान भारत का एकमात्र और दुनिया का तीसरा ऐसा स्थान है , जहाँ ख़ास चुम्बकीय शक्तियाँ  उपस्थित है ।दुनिया के तीन पर्यटन स्थल ऐसे हैं जहां कुदरत की खूबसूरती के दर्शनों के साथ ही मानसिक शांति भी महसूस होती है। जिनमें अल्मोड़ा स्थित “कसार देवी मंदिर” और दक्षिण अमरीका के पेरू स्थित “माचू-पिच्चू” व इंग्लैंड के “स्टोन हेंग” में अद्भुत समानताएं हैं । ये अद्वितीय और चुंबकीय शक्ति के केंद्र भी हैं। यह क्षेत्र ‘चीड’ और ‘देवदार’ के जंगलों का घर है । यह पर्वत शिखर  अल्मोड़ा शहर के  साथ साथ हिमालय के मनोरम दृश्य भी प्रदान करता है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 36 ☆ ढूंढ रहा हूँ रफूगर ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ढूंढ रहा हूँ रफूगर । ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 36 ☆

ढूंढ रहा हूँ रफूगर

 

उधड़ गयी है जिंदगी चारों तरफ से,

पैबन्द जगह-जगह मैंने खुद लगाए,

अब हर तरफ पैबन्द लगी नजर आती है जिंदगी,

 

ढूंढ रहा शायद कोई रफूगर मिल जाए,

जो जिंदगी रफू कर दे,

जगह-जगह से उधड़ी हुई नजर आती है जिंदगी,

 

जितना सम्भल कर कदम रखता हूँ,

उतनी ही उलझ कर,

और ज्यादा उधड़ी हुई नजर आती है जिंदगी,

 

काश कोई रफूगर मिल जाता,

जो एक एक धागें को मिला,

रफू कर देता तो पहले सी नजर आ जाती जिंदगी,

 

फूलों की बगिया में कांटों से उलझ गया,

काश कांटों की जगह जिंदगी,

फूलों में उलझ जाती तो फूलों सी महक जाती जिंदगी ||

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 88 – ☆ [1] स्वप्नकळ्या / [2] रानफुले ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 88 ☆

 [1] स्वप्नकळ्या / [2] रानफुले ☆ 

(दोन जुन्या कविता १९८५/८६ साली लिहिलेल्या….१९८९ ला प्रकाशित झाल्या होत्या! लोकप्रभा मध्ये प्रकाशित झालेली “स्वप्नकळ्या” आवडल्याची सुमारे चाळीस पत्रे आली महाराष्ट्राच्या कानाकोप-यातून!“लोकप्रभा” उदंड खपाचं साप्ताहिक होतं आणि त्या काळात मोबाईल/इंटरनेट नव्हतं!)

[1] स्वप्नकळ्या

माझ्या  स्वप्नांच्या मुग्धकळ्या

उमलल्याच नाहीत,

तुझ्या आयुष्यातले

सुगंधी क्षण-

माझ्या नव्हते तरीही,

गंधवेडे मन धावत राहिले,

तुझ्यामागे उगीचच !

वळचणीला बसलेली

माझी मूक स्वप्ने

आज निसटत आहेत,

पागोळ्यांसारखी !!

(१९८९-लोकप्रभा)

[२] रानफुले

तुझ्या वाटेवर

मी सांडले माझे अश्रू ,

त्यातील वेदनेच्या,

बीजांकुराची-

आज रानफुले झाली आहेत!

तू माघारी आलास तर-

तुला दिसतील त्या फुलांत

माझ्या व्यथित मनाची

हळूवार स्पंदने!

पण तू बदलली आहेस,

तुझी वाट,

आणि माझ्यापर्यंत येणारे रस्ते,

बंद केलेस कायमचेच!

(रविवार सकाळ १९८९ )

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 73 ☆ हक़ीक़त ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं ।  सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “हक़ीक़त। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 73 ☆

☆ हक़ीक़त ☆

हक़ीक़त हमें अक्सर पसंद नहीं आती

क्योंकि वो इतनी खूबसूरत नहीं होती

जितना दिल के कोनों ने सोचा था,

और शायद इसीलिए हम अक्सर

उसपर यकीन ही नहीं करते,

बस, क़ैद रखते हैं ख़ुद को

कुछ तिलस्मी दीवारों के भीतर

और खुश होते रहते हैं!

 

तिलस्म तो धोके के असास* पर बसा होता है,

और जब वो दीवारें टूटती हैं न,

दर्द से आदमी तिलमिला उठता है!

 

जितनी जल्द हो सके

मिला लो हकीकत से हाथ,

और फिर चलो ज़िंदगी के साथ

खुशदिल से!

 

*असास=foundation

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 92 ☆ जंगल राग – श्री अशोक शाह ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  श्री संतोष तिवारी अशोक शाह जी की पुस्तक “जंगल राग” – की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 92 – रिश्तें मन से मन के – श्री संतोष तिवारी  ☆ 
 पुस्तक चर्चा

पुस्तक चर्चा

समीक्षित कृति –  जंगलराग

कवि – अशोक शाह

मूल्य (हार्ड कवर) – 200 रु

मूल्य (ई- बुक) – 49 रु

हार्डकवर : 80 पेज

ISBN-10 : 9384115657

ISBN-13 : 978-9384115654

प्रकाशक – शिल्पायन, शाहदरा दिल्ली

अमेजन लिंक >> जंगल राग (हार्ड कवर) 

अमेजन लिंक >> जंगल राग ( किंडल ई- बुक)

मूलतः इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त, म. प्र. में प्रशासनिक सेवा में कार्यरत अशोक शाह हृदय से संवेदनशील कवि, अध्येता, आध्यात्म व पुरातत्व के जानकार हैं. वे लघु पत्रिका यावत का संपादन प्रकाशन भी कर रहे हैं. उनकी ७ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. पर्यावरण के वर्तमान महत्व को प्रतिपादित करती उनकी छंद बद्ध काव्य अभिव्यक्ति का प्रासंगिक कला चित्रो के संग प्रस्तुतिकरण जंगलराग में है.

वृक्ष, जंगल प्रकृति की मौन मुखरता है, जिसे पढ़ना, समझना, संवाद करना युग की जरूरत बन गया है. ये कवितायें उसी यज्ञ में कवि की आहुतियां हैं. परिशिष्ट में ९३ वृक्षो के स्थानीय नाम जिनका कविता में प्रयोग किया गया है उनके अंग्रेजी वानस्पतिक नाम भी दिये गये हैं.

कवितायें आयुर्वेदीय ज्ञान भी समेटे हैं, जैसे ।

” रेशमी तन नदी तट निवास भूरी गुलाबी अर्जुन की छाल

उगता सदा जल स्त्रोत निकट वन में दिखता अलग प्रगट

विपुल औषधि का जीवित संयंत्र रोग हृदय चाप दमा मंत्र “

बीजा, हर्रा, तिन्सा, धामन, कातुल, ढ़ोक, मध्य भारत में पाई जाने वाली विभिन्न वृक्ष   वनस्पतियो पर रचनाकार ने कलम चलाई है. तथा सामान्य पाठक का ध्यान प्रकृति के अनमोल भण्डार की ओर आकृष्ट करने का सफल यत्न किया है. १४ चैप्टर्स में संग्रहित काव्य पठनीय लगा

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 81 – लघुकथा – गंगवा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  एक अत्यंत  भावप्रवण एवं विचारणीय लघुकथा  “गंगवा । इस  भावप्रवण एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 81 ☆

?लघुकथा  – गंगवा ?

गंगाराम का नाम जाने कब गंगवा बन गया। उसे नहीं मालूम?

गंगवा के ना कोई सुधि लेने वाला था और ना ही आगे पीछे कोई रिश्तेदार।

गांव में दिनकर बाबू और गंगवा लगभग सम उम्र। दिनकर जी के यहां सालों से काम करते-करते गंगवा जाने कब उनके अपने परिवार का सदस्य बन गया था।

गंगवा को बचपन से ही कम सुनाई और बात नहीं कर पाने की वजह से कोई उसे ठीक से बात भी नहीं करता था और न ही कोई उसकी बातें सुनता था।

बिना सुने, बिना बोले ही गंगवा सबके मन के भाव को पहचान लेता था परंतु किसी ने उसकी अच्छाइयों की ओर कभी ध्यान नहीं दिया।

दिनकर बाबू के यहां काम करते-करते दोनों साथ-साथ बड़े होकर बुजुर्ग भी हो गए।

दिनकर बाबू का बेटा-बहू बाहर विदेश में रहते थे। दिनकर को कोरोना के कारण अस्पताल में रखा गया। अब कोरोना की लड़ाई जीत कर वे घर आ गए थे।

आज सुबह से ही गांव में टीकाकरण के लिए शहर से टीम आई थीं।

दिनकर बाबू क्योंकि सरकारी नौकरी से रिटायर्ड थे और सभी बातों को समझते थे। अपनी पत्नी के साथ टीका के लिए अस्पताल जाना था वे गंगवा को अपने साथ ले गए।

अस्पताल लाइन में लगे दोनों पति-पत्नी को गांव वाले अच्छी तरह से पहचानते थे और आदर सत्कार भी करते थे। दोनों ने अपना नाम आगे कर पर्ची बढ़ाया, लगभग सभी लोग लाइन से खड़े थे परंतु मेडिकल टीम ने गंगवा को पीछे करते-करते लगभग बाहर ही कर दिया।

दिनकर जी और उनकी पत्नी एक दूसरे को देखते रह गए उसके नही बोलने और नहीं सुनने की गलतफहमी हो गई थी।

तभी दिनकर बाबू ने कहां आज मुझे गांव में टीकाकरण का सबसे पहला मौका आप लोगों ने दिया है। मेरा अपना तो कोई पूछने आज तक नहीं आया और जब मुझे कोई अपना कहने वाला नहीं था गंगवा ने उस समय ‘कोरोना योद्धा’ बनकर मेरा साथ दिया।

मुझसे पहले मेरे गंगवा को टीका लगना है। यह मेरा अपना है… कह कर दिनकर बाबू की आंखों से आंसू बहने लगे।

आज मैं सभी को बताता हूं.. मेरा जो कुछ भी है मेरे मरने के बाद में सारी संपत्ति और मेरी सारी जिम्मेदारी मैं आज गंगवा को सौंप रहा हूं।

गंगवा भाव विभोर हो सब बातों को समझ रहा था।

आज वह अपने आप को रोक नहीं सका दोनों बाँहें फैलाकर दौड़ कर दिनकर जी को गले लगा लिया।

अस्पताल के कर्मचारियों ने तालियों से स्वागत किया। गंगवा आज दोनों हाथ उठा कर ऊपर ईश्वर को शायद शुक्रिया अदाकर रहा था। इस सब बातों को सुनने के लिए वह कब से तरस रहा था।

वह अब अकेला नहीं उसका अपना परिवार है। और सबसे पहले टीका ‘गंगवा बाबू’ को लगा।

दिनकर जी की बातों को बिना सुने भी गंगवा की आंखों से अश्रुं धारा बहने लगी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूरसंगत (भाग-१९) – ‘तालवाद्ये’ ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

 ☆ सूर संगत ☆ सूरसंगत (भाग-१९) – ‘तालवाद्ये’ ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर ☆ 

‘गीतम्‌ वाद्यम्‌ नृत्यम्‌ च त्रयम्‌ संगीतमुच्यते’ अशी संगीताची व्याख्या आपल्या प्राचीन संगीतज्ञांनी केली आहे. गेल्या काही लेखांमधे आपण मुळात संगीत कसे अस्तित्वात आले असावे आणि माणसाच्या जीवनाचा अविभाज्य भाग कसे आणि का झाले असावे, ह्याविषयी विचार केला. परंतू त्यावेळी फक्त गीत किंवा गायन ह्या प्रकाराला अनुसरूनच लेखन झालं. आता वाद्यं का आणि कशी अस्तित्वात आली ह्याविषयी थोडक्यात जाणून घेऊया. असं म्हटलं जातं कि सृष्टीच्या कणाकणात लय आहे. त्यामुळे वाद्यप्रकारांमधे तालवाद्ये ही सर्वात आधी अस्तित्वात आली. असं मानलं जातं कि, भगवान शंकरांकडून ‘डमरू’ ह्या पहिल्या तालवाद्याची निर्मिती झाली. दुसरी एक अशी कथा वाचायला मिळते कि, स्वाती नावाच्या एक ऋषींनी एकदा पावसाचे मोठाले थेंब कमळाच्या पानांवर पडताना त्याचा आवाज ऐकला. एका लयीत कानांवर पडत राहिलेला तो सुंदर आवाज ऐकून त्यांच्या मनात ‘अशी सातत्यानं लय राखण्यासाठी तालवाद्यं हवीत’ ही कल्पना आली. म्हणजे शेवटी निसर्गाच्या प्रेरणेतूनच ही कल्पना जन्मली.

जुन्या ग्रंथांमधे असा उल्लेख आढळतो कि भरतमुनींच्या काळात शंभरभर तरी तालवाद्यं अस्तित्वात होती. ‘ताल’ ही संकल्पना नंतरची! मात्र कोणत्याही गोष्टीला अंगभूत ‘लय’ असते आणि ती साधली गेली तरच ती गोष्ट जास्त प्रभावी ठरते हे निश्चित! ह्यावरून असं म्हणता येईल कि, गायन, नृत्य कलेतील अंगभूत लयसौंदर्य आणखी खुललून ते जास्त प्रभावी करण्याच्या प्रयत्नातून तालवाद्ये अस्तित्वात आली. गायनाला, नृत्याला अर्थपूर्ण जोड/साथ देण्यासाठी तालवादन अस्तित्वात आले आणि प्रगतशील मानवाच्या प्रयत्नांतून पुढे तर तालवाद्ये आणि तालसंकल्पना इतकी विकसीत झाली कि त्यांचंच ‘एकलवादन’ (सोलो) शक्य होऊ लागलं ज्यावेळी लयसौंदर्याचं प्रामुख्य आणि सूर फक्त साथ देण्यापुरते मर्यादित असतात.

तालाचा विचार करताना एका आवर्तनामधे ठराविक अंतराने ठराविक मात्रा राखणं हा महत्वाचा भाग येतो. मात्र अगदी सहजी गुणगुणतानाही लय साधली गेली तरच त्यातून आनंद मिळतो. बोली भाषेचाच वापर करून माणसाच्याच जगण्यातील महत्वाच्या क्षणांचा उत्सव करणारे छोटेछोटे गीतप्रकार अस्तित्वात येत असतानाच शेवटपर्यंत त्यातली लय पकडून ठेवण्यासाठी मानवाकडून सहजस्फूर्तीने त्या लयीच्या हिशोबाने ठराविक अंतराने टाळी वाजवली गेली असेल, कधी हाताने मांडीवर आघात करून लय राखली गेली असेल, पायाने ठेका धरला गेला असेल. ह्या क्रिया आपल्या प्रत्येकाकडूनही अगदी सहजी घडत असतातच. एरवीही घरी आरतीच्या वेळी एका लयीत टाळ्या वाजवणे, कोणतेतरी गीत ऐकत असताना आपल्याही नकळत पायाने ठेका धरला जाणे, एखाद्या गायकाच्या जोशपूर्ण गायनाला साथ देताना श्रोत्यांनी उत्स्फूर्तपणे त्या गाण्याच्या लयीसोबत टाळ्या वाजवणे हे किती सहजी घडते! अशाप्रकारे लय साधताना मानवाने केलेला शारीरिक अवयवांचा उपयोग हा वाद्य कल्पनेचा प्रारंभकाल मानला जातो.

पूर्वीच्या जीवनमानाचा विचार केला तर लक्षात येईल कि स्वत:च्या शरीराच्या आधारे ठेका धरणे ह्याशिवाय भवताली उपलब्ध असणाऱ्या गोष्टींचा ह्या गोष्टीसाठी वापर करताना हुशार मानवाने दोन दगड एकमेकांवर आपटून, दोन लाकडाचे तुकडे एकमेकांवर आपटून पाहिले असतील. आजचे ‘टिपरी’ हे वाद्य म्हणजे दोन लाकडी काठ्यांचा एकमेकांवर आघात करणे हेच तर आहे! मात्र त्याचा उगम हा आदिमानवाच्या संगीतातील लय टिकवून ठेवण्याच्या गरजेतून झाला. आपल्याकडच्या चिपळ्या म्हणजेही एकसारख्या आकाराचे दोन लाकडी तुकडेच तर आहेत. पुढं धातूचा शोध लागला त्यानंतर चिपळीच्या तसेच करताल ह्यासारख्या वाद्याच्या लाकडी तुकड्यांमधे धातूच्या चकत्या बसवण्याचे प्रयोग झाले, टाळ, मंजिरी, झांज हे प्रकार अस्तित्वात आले. मात्र ह्या सगळ्याचं मूलतत्व एकच कि, दोन घन पदार्थांचा एकमेकांवर आघात केला तर नादनिर्मिती होते आणि त्याची लय पकडून ठेवण्यासाठी मदत होऊ शकते हा आपल्या जुन्या पिढ्यांनी लावलेला शोध!

आपल्या देवघरातील छोट्या घंटा किंवा देवळातल्या मोठ्या घंटा म्हणजेही एका घन पदार्थाच्या तुकड्याने दुसऱ्या घन पदार्थावर होणाऱ्या आघातातून केली जाणारी नादनिर्मिती! घुंगरूं हेसुद्धा एक प्रकारचं वाद्यच ज्यामधे धातूच्या पोकळ गोलाच्या आत असलेल्या एका धातूच्याच तुकड्याचा आघात झाला कि नादनिर्मिती होते. पायांत बांधल्यावर आपल्या पायाच्या हालचालींमुळं किंवा हातात घेऊन वाजवताना हाताने घुंगरू हालवल्यामुळं हा आघात आपोआप होतो.

प्राचीन काळी अन्न शिजवण्यासाठी मातीची भांडी वापरली जात असत. त्यावर बोटांनी आघात केला तरी सुंदर नाद निघतो हाही शोध त्यांना लागला. आज दक्षिणेतील घटम, कर्नाटक किनारपट्टींतल्या प्रांतातील घुमट, उत्तरेतील मटका ही वाद्यं हे त्याचंच उदाहरण!

प्राचीन काळी जंगलात राहाणाऱ्या मानवाचं मुख्य अन्न म्हणजे प्राण्यांची शिकार करून त्यांचं मांस शिजवून खाणं हे होतं. शिकार केलेल्या प्राण्याचा खाण्यालायक भाग म्हणजे त्याचं मांस! हळूहळू त्या प्राण्याचं कातडं, हाडं, शिंगं हा सगळा उर्वरित भागही कसा वापरता येईल ह्याचा विचार मानवाच्या मनात सुरू झाला असेल किंवा कधी तो आपसूक मानवाच्या समोर आला असेल. प्राण्यांचं कातडं बसायला वापरणं, त्याचा अंगरखा शिवून थंडीत आपल्या शरीराला ऊब मिळावी म्हणून वापरणं ही त्याची काही उदाहरणं! वाद्यांच्याबाबत विचार करता एका बाबीचा उल्लेख जुन्या पुस्तकांत आढळतो कि, शिकार केलेल्या प्राण्यांचं कातडं वाळण्यासाठी झाडाला टांगून ठेवलं असताना ते वाळल्यानंतर सहज त्यावर माणसाच्या हाताचा आघात झाला आणि त्यावेळी ‘वाळलेल्या कातड्यावर आघात केला असता नादनिर्मिती होते’ हा शोध लागला. हळूहळू पोकळ भांड्यावर हे चामडं बांधून त्यावर आघात केला तर आणखी सुंदर नादनिर्मिती होते (कारण पोकळ भाग हा त्या नादाचा ‘रेझोनेटर’ आणि ‘अम्प्लिफायर’ म्हणून काम करतो) हे लक्षात आलं आणि त्यातून चर्मवाद्यांची निर्मिती झाली.

ह्या चर्मवाद्यांना ‘अवनद्ध वाद्यं’ असं म्हटलं जातं. ‘अवनद्ध’ ह्या शब्दाचा अर्थच मुळी ‘कातड्याने मढवलेले’ असा होतो. आता डोळ्यांसमोर अशी अनंत वाद्यं उभी राहातील. लोकसंगीतात वापरली जाणारी अनेक तालवाद्यं ढोल, ताशा, हलगी, संबळ, टिमकी, नगारा इ. सगळीच ह्या प्रकारात येतात. ह्यापैकी काही वाद्यं हाताने आघात करून वाजवली जातात तर काही काठीने आघात करून! आज शास्त्रीय संगीतातील समाजमान्यता पावून सर्व रसिकांच्या मनावर अधिराज्य गाजवणारी तबला, पखवाज, मृदंग इ. वाद्येही ह्याच प्रकारातली! ह्या सर्वच वाद्यांमधे सध्या जो भाग लाकडी असतो तो पूर्वी मातीचा असायचा. पुढं मग कालमानानुसार लाकूड, धातू इ. गोष्टी वापरून विविध प्रयोग होत राहिले. ह्याचा अर्थ एकच कि अगदी प्राचीन काळापासून माणसाने निसर्गाच्या सान्निध्यात वावरताना निसर्गाकडून विविध गोष्टी शिकत आपला विकास साधला. संगीतही त्याला अपवाद नाही. ह्याच प्रक्रियेमधे उपलब्ध साधनांच्या वापरातून वाद्यांची उत्पत्ती होत राहिली. तालवाद्यांप्रमाणे तंतुवाद्ये आणि सुषीर वाद्ये कशी अस्तित्वात आली ह्याची रंजक कहाणी आपण पुढच्या लेखात जाणून घेऊ!

क्रमश:….

© आसावरी केळकर-वाईकर

प्राध्यापिका, हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत  (KM College of Music & Technology, Chennai) 

मो 09003290324

ईमेल –  [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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