(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी के साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य “हरदम बेचैन बनाये रखनेवाली दुनिया में अलीबाबा का प्रवेश”। इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि प्रत्येक व्यंग्य को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 20 ☆
☆ व्यंग्य – हरदम बेचैन बनाये रखनेवाली दुनिया में अलीबाबा का प्रवेश ☆
“खुलजा सिमसिम” अलीबाबा ने कहा मगर दरवाजा नहीं खुला. इधर उसे मुद्राओं की सख्त जरूरत थी और उधर ‘पासवर्ड इन्करेक्ट’. उसने सिमसिम को खिमसिम ट्राय करके देखा, नहीं लगा. उसे लगा कि शायद पिछली बार जब उसे पासवर्ड बदलने को मजबूर किया गया था तब उसने सि को खि कर दिया होगा. उसने सिमखिम ट्राय किया वो भी नहीं लगा. सिमसिम@1958, सिमखिम$1958 ट्राय किये. नहीं लगे. पाँच अटैम्प्ट पूरे हो जाने पर अलीबाबा लॉक कर दिया गया. उसने फरगॉट पासवर्ड पर क्लिक किया तो कन्सोल पर क्वेस्चन वही उभर कर सामने आया जो उसने इलेक्ट्रॉनिक दरवाजा सेट-अप कराते समय चुना था – ‘नेम यूअर फेवरिट पेट एनिमल’. माल ढ़ोनेवाले गधों के अतिरिक्त अलीबाबा के पास कोई और जानवर था नहीं और इतने सारे गधों के नाम में से उसने किसका नाम रखा था याद नहीं आ रहा. एक बार उसने एक प्रिय गधे के नाम पर पासवर्ड रखा, और जब जब पासवर्ड बदलना पड़ा उसी समय गधे का नाम भी बदल लिया. दुर्योग से वो गधा अल्लाह को प्यारा हो गया. अलीबाबा फिर पुराने ढर्रे पर लौट आया. मेमोरी बढ़ाने के उसने अनेक जतन किये, एवकाडो फल खाया, ब्लूबेरी खाई, बेगमजान से सिर में बादाम तेल की मालिश करवाई, दिन में छह बार शहद के साथ कलौंजी चाटी, यूनानी नेमोनिक तकनीक का प्रयोग किया, मगर तब भी बेवफा मेमोरी उस दिन दगा दे गई जिस दिन अलीबाबा को मुद्राओं की सख्त जरूरत थी.
वैसे कुछ साल पहले तक ऐसा नहीं था. सिम्पल ‘सिमसिम’ से काम चल ही रहा था. फिर उसने गुफा में एक इलेक्ट्रॉनिक गेट लगवा लिया. इसके साथ ही वो बार बार बदले जानेवाले स्ट्रांग पासवर्ड की जटिल और बेचैन बनाये रखनेवाली दुनिया में प्रवेश कर गया था. उसे हर समय एक धुकधुकी सी बनी रहती – पासवर्ड भूल न जाऊँ. कभी-कभी वो इतना घबराया हुआ रहता कि पासवर्ड लिखकर रख लेता, मगर लिखा हुआ कहाँ रखा है, एनवक्त पर यह भी याद नहीं पड़ता. मिल जाये तो पता लगता है कि इस लिखे के बाद तो पाँच बार बदला जा चुका है पासवर्ड. फिलवक्त, उसे मुद्राओं की सख्त जरूरत है और पासवर्ड लग नहीं रहा.
‘कहाँ हो इतनी देर से ?’ – फोन पर मिसेज अलीबाबा थीं.
‘आ तो रहा हूँ, पासवर्ड लग नहीं रहा.’
‘मोर्गियाना एट सिक्स्टीन लगाकर देखो. वही कलमुंही चढ़ी रहती है तुम्हारी जुबान पर.’ – मिसेज अलीबाबा को घर की नौकरानी पर शक रहता था.
‘कुछ भी मत बको, बेगमजान’
‘बहुत दिनों से तुम्हारी लीला देख रही हूँ मैं. पासवर्ड याद रखने के बहाने दिन भर उसका नाम जपते रहते हो.’ – मिसेस अलीबाबा बिफर पड़ीं.
“मुसीबतें तो सारी तुम्हारे नाम से शुरू होती हैं, बेगमजान. आज भी यही हुआ लगता है, तुम्हारा नाम और शादी का साल मिलाकर बनाया था पासवर्ड. केरेक्टर गलत हो रहा है शायद.”
“हाय अल्लाह, मेरा केरेक्टर बखान रहे हो.”
“अरे वो वाला केरेक्टर नहीं बेगमजान…..”
“वो मैं सब समझती हूँ, घर आओ तो बताती हूँ तुम्हारे पूरे खानदान का केरेक्टर. मुझे केरिये हैं के केरेक्टर गलत है, मुझे!!” – बुक्का फाड़ कर रोने लगीं मिसेज अलीबाबा. पासवर्ड के कारण वो एक नई मुसीबत में पड़ गया. खैर, उससे वह बाद में घर जाकर निपट लेगा फिलहाल जरूरी दरवाजा खुल नहीं रहा.
अलीबाबा ने कॉल सेंटर फोन किया. एक मधुर स्वर ने उसे वेलकम कहा, फिर अपनी लैंगवेज़ चुनने को कहा. फारसी का ऑप्शन था नहीं और अंग्रेज़ी अलीबाबा को बस काम चलाऊ ही आती थी. कुछेक सवालों को जैसे तैसे पकड़कर बात करने की कोशिश की तो समझ में आया कि कंपनी पासवर्ड रिसेट नहीं करेगी, लॉक सिस्टम पूरा रिप्लेस करना पड़ेगा जो काफी महंगा है. उसने मिन्नतें की, मगर हर सेंटेन्स के बाद कोकिल कंठ क्षमा मांगते हुवे उसे वही वही रिप्लाय रिपीट कर देती. खीज गया अलीबाबा. ‘आपका दिन शुभ हो’ से संवाद खत्म हुआ.
और चालीस चोर!! वे साइबर क्रिमिनल्स की भूमिका में पर्शिया से लेकर इधर झूमरी तलैया और उधर नाईजीरिया तक फैल गये हैं. अब वे तेल के पीपों में भरकर नहीं आते, सिस्टम में ट्रोजन हार्स की तरह घुस जाते हैं. अलीबाबा अपना पासवर्ड रिकवर कर पाये न कर पाये – चालीस चोरों में कोई किसी दिन उसे क्रेक कर ही लेगा. उसकी चिंता का यही सबसे बड़ा सबब है. फ़िलवक्त, वह सिर पकड़ कर गुफा के बंद दरवाजे के बाहर बैठा है. घर वापसी के लिये पास ही निरापद, निस्तब्ध, नीरव मुद्रा में खड़े गधे ने अपने मालिक को इतना निराश, उदास, चिंतित, घबराया सा, बेचैन कभी नहीं देखा. अलीबाबा की दुनिया इतनी जटिल भले हो गई हो उसकी सवारी की दुनिया अब भी वैसी की वैसी है.
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “घाटी से उतरी नदी कोई … ”। )
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है। हमारा विनम्र अनुरोध है कि प्रत्येक व्यंग्य को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। आज प्रस्तुत है आपका एक समसामयिक विषय पर आधारित व्यंग्य टूटी टांग और चुनाव। )
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं अतिसुन्दर भावप्रवण कविता “मैं स्वाभिमानी हूँ ”।)
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक समसामयिक विषय पर विचारणीय व्यंग्य ‘शोनार बांग्ला में अंतरात्मा का उपद्रव‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 91 ☆
☆ व्यंग्य – शोनार बांग्ला में अंतरात्मा का उपद्रव ☆
बंगाल में अफरातफरी का माहौल है। तू चल मैं आया की स्थिति है। जनता के चुने हुए प्रतिनिधि रोज़ पार्टी बदल रहे हैं। हर दूसरे चौथे दिन पार्टी-परिवर्तन के जलसे हो रहे हैं। गले में नयी पार्टी के दुपट्टे डाले जा रहे हैं, चरन-धूल बटोरी जा रही है। पता नहीं कभी माता- पिता के चरन भी छुए थे या नहीं। दल-बदलुओं के मुख पर चौड़ी मुस्कान है, पुरानी पार्टी छोड़ने का कोई मलाल नहीं है। जैसे गंगा-स्नान को आये हों। जनता भकुआयी देख रही है। यह सब किसके लाभार्थ हो रहा है? यह हृदय-परिवर्तन क्यों और कैसे हुआ? जिन्हें कल तक गाली देते मुँह सूखता था, अब उन्हीं के लिए मुख से फूल झर रहे हैं। लेकिन इसमें कुछ भी नया नहीं है। हमारा देश विश्वगुरू है, सौ टंच ईमानदार है। यहाँ यह सब होता रहता है, फिर भी हमारी महानता बेदाग़ रहती है। यहाँ चार पाँच बार पार्टी बदल चुके सिद्धांतवादी भी बैठे हैं। याद करना मुश्किल है कि कब कहाँ से चले थे और किस किस घाट का पानी पीकर इस घाट लगे। जहाँ भी जाएंगे, दाना-पानी तो पायेंगे ही।
विधायक गुन्नू बाबू से पूछा जाता है कि पार्टी क्यों बदल रहे हैं। जवाब मिलता है, ‘अरे भाई, क्या बताएँ! बहुत तकलीफ है। अंतरात्मा चैन से नहीं बैठने देती। बार बार पुकारती है ‘पार्टी बदलो, पार्टी बदलो’। इतना परेशान करती है कि रात को नींद नहीं आती। उठ उठ के बैठ जाता हूँ। उठ के लॉन में चक्कर लगाता हूँ, फिर भी चैन नहीं मिलता। पार्टी छोड़ना कोई आसान काम है क्या? अरे राम राम!’
सवाल होता है, ‘अंतरात्मा क्यों परेशान करती है, गुन्नू बाबू?’
गुन्नू बाबू बड़े भोलेपन से उत्तर देते हैं, ‘देखो भाई, हम पॉलिटिक्स में जनता की सेवा के लिए आये हैं। अब हमारी पार्टी में जनता की सेवा का मौका नहीं मिलता। जनता की सेवा का मौका नहीं मिलेगा तो हम पार्टी में कैसे रहेंगे? जनता को क्या मुँह दिखायेंगे?’
फिर कहते हैं, ‘हमको एक ही काम आता है—जनता की सेवा करना। दूसरा काम नहीं आता। तीन पीढ़ी से यही कर रहे हैं और बाल-बच्चों को भी इसी की ट्रेनिंग दे रहे हैं। पूरी जिन्दगी जनता को समर्पित है। जनता के लिए जीना है और जनता के लिए मरना है। जनता की सेवा जैसा संतोष कहीं नहीं।’
रिपोर्टर पूछता है, ‘कोई पद-पैसे का लालच है क्या?’
गुन्नू बाबू कानों को हाथ लगाते हैं, कहते हैं, ‘अरे राम राम! जनता की सेवा में पद-पैसे का क्या सवाल? ये तो अपने ध्यान में आता ही नहीं है। बस अंतरात्मा की पुकार सुनना है और जिधर जनता की सेवा का मौका मिले उधर जाना है। फायदा नुकसान का एकदम नहीं सोचना है। भारत माता की जय।’
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 90 ☆ अवस्था का मौन ☆
एक परिचित के घर बैठा हूँ। उनकी नन्हीं पोती रो रही है। उसे भूख लगी है, पेटदर्द है, घर से बाहर जाना चाहती है या कुछ और कहना चाह रही है, इसे समझने के प्रयास चल रहे हैं।
अद्भुत है मनुष्य का जीवन। गर्भ से निकलते ही रोना सीख जाता है। बोलना, डेढ़ से दो वर्ष में आरंभ होता है। शब्द से परिचित होने और तुतलाने से आरंभ कर सही उच्चारण तक पहुँचने में कई बार जीवन ही कम पड़ जाता है।
महत्वपूर्ण है अवस्था का चक्र, महत्वपूर्ण है अवस्था का मौन। मौन से संकेत, संकेतों से कुछ शब्द, भाषा से परिचित होते जाना और आगे की यात्रा।
मौन से आरंभ जीवन, मौन की पूर्णाहुति तक पहुँचता है। नवजात की भाँति बुजुर्ग भी मौन रहना अधिक पसंद करता है। दिखने में दोनों समान पर दर्शन में ज़मीन-आसमान।
शिशु अवस्था के मौन को समझने के लिए माता-पिता, दादी-दादा, नानी-नाना, चाचा-चाची, मौसी, बुआ, मामा-मामी, तमाम रिश्तेदार, परिचित और अपरिचित भी प्रयास करते हैं। वृद्धावस्था के मौन को कोई समझना नहीं चाहता। कुछ थोड़ा-बहुत समझते भी हैं तो सुनी-अनसुनी कर देते हैं।
एक तार्किक पक्ष यह भी है कि जो मौन, एक निश्चित पड़ाव के बाद जीवन के अनुभव से उपजा है, उसे सुनने के लिए लगभग उतने ही पड़ाव तय करने पड़ते हैं।
इस मौन में अनुभव और भोगे हुए यथार्थ की एक यूनिवर्सिटी समाहित है। उनके पास बैठना, उनके मौन को सुनना ही उनकी सबसे बड़ी सेवा है।
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।
जो व्यक्ति अभिवादनशील है अर्थात दूसरों का मान करना जानता है, दैनिक रूप से वृद्धों की सेवा करता है/ उनके मौन को सुनता-समझता है, आशीर्वादस्वरूप उसके आयु, विद्या, यश और बल में वृद्धि होती है।
क्या अच्छा हो कि अपने-अपने सामर्थ्य में उस मौन को सुनने का प्रयास समाज का हर घटक करने लगे। यदि ऐसा हो सका तो ख़ासतौर पर बुजुर्गों के जीवन में आनंद का उजियारा फैल सकेगा।
इस संभावित उजियारे की एक किरण आपके हाथ में है। इस रश्मि के प्रकाश में क्या आप सुनेंगे और पढ़ेंगे बुजुर्गों का मौन?
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 46 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 46) ☆
Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.
Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.
हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित ‘मुक्तिका’। )