हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 66 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – षष्ठम अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है षष्ठम अध्याय

फ्लिपकार्ट लिंक >> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 67 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – षष्ठम अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज आप पढ़िए षष्ठम अध्याय का सार। आनन्द उठाएँ।

 डॉ राकेश चक्र

अध्याय 6 -ध्यान योग

श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को ध्यान योग के गूढ़ रहस्य को समझाया

संन्यासी-योगी वही, करता जो कर्तव्य।

पाने की ना चाह है, करे धर्म औ” यज्ञ।। 1

 

योगी सच्चा है वही, त्यागे इन्द्रिय भोग।

शेष रहे ना लालसा,करे भक्तिमय योग।। 2

 

करता साधक भक्ति का, जो अष्टांगी योग।

योग सिद्ध  ऐसा पुरुष, करें न भौतिक भोग।। 3

 

योगारूढ़ी है वही, करे भोग का त्याग।

कर्म सकामी ना करे, चित्त-भक्ति  अनुराग।। 4

 

अपने मन का मित्र भी, कभी शत्रु बन जाय।

मन को जो वश में करे, वही सिद्धि को पाय।। 5

 

मन को जीते जो मनुज, मित्र श्रेष्ठ बन जाय।

जो मन के वश में हुआ, दुख को गले लगाय।। 6

 

मन के जीते जीत है, मन के हारे हार।

सुख-दुख, यश-अपयश सभी, मन खेल ही उपहार।। 7

 

ज्ञान और अनुभूति से, हो योगी संतुष्ट।

निर्विकार समभाव से,दे न किसी को कष्ट।। 8

 

शत्रु-मित्र सबके लिए, रखे प्रेम का भाव।

ऐसा योगी श्रेष्ठ है, रखे सदा समभाव।। 9

 

योगी मन वश में रखे, आत्म ईश में लीन।

मुक्त लालसा से रहे, तन-मन ईशाधीन।। 10

 

सदा योग अभ्यास का , पावन हो स्थान।

हो मन इंद्रिय से परे, रमे ईश में ध्यान।। 11

 

पावन आसन बैठकर, करे योग अभ्यास।

मेरा ही चिंतन करे, मन हो मेरे पास।। 12

 

तन-ग्रीवा-सिर साधकर, करे योग अभ्यास।

दृष्टि नासिका पर रखे , मन में दृढ़ विश्वास।। 13

 

नित्य करे अभ्यास को, भय-संशय से दूर।

योगी विषय विमुक्त हो, प्रेम ईश  भरपूर।। 14

 

सभी कर्म, मन-देह भी, प्रभु में हों आसक्त।

ऐसा योगी अंततः, हो जाता है मुक्त।। 15

 

योगी है वो ही सफल, रखे नियम आहार।

जागे, सोए नियमतः, पिए प्रेम का सार।। 16

 

खान-पान या जागरण, निद्रा उचित विहार।

बढ़े योग अभ्यास से , मिटते कष्ट अपार।। 17

 

मनसा-वाचा-कर्मणा, करे योग अभ्यास।

मिट जाती सब लालसा, मिलता योग प्रकाश।। 18

 

 

योगी मन वश में रखे, आत्मतत्व में ध्यान।

दीपक जैसे बिन हवा, जलता सीना तान।। 19

 

योगाभ्यासी मन बने, संयम करे शरीर।

योग सिद्ध ऐसा मनुज, कहें समाधि सुवीर।। 20

 

मिले सिद्धि जब इस तरह, मन से स्वे मिल जाय।

दिव्य बनें सब इन्द्रियाँ, दिव्य सुखों को पाय।। 21

 

सिद्ध पुरुष को लाभ या,हानि न किंचित् भास

है सन्तोषी धन बड़ा, मन ही मन पूरित उल्लास। 22

 

सिद्धि मिले जब मनुज को, करें न विचलित कष्ट।

सभी दुखों से दूर हो, खुलें ज्ञान के पृष्ठ।। 23

 

श्रद्धायुत संकल्प से, करें योग अभ्यास।

इच्छाओं को त्याग दें, करें आत्म में वास।। 24

 

सन्मति से विश्वास से , रहे समाधी लीन।

स्थित मन हो आत्मा, पावन बने नवीन।। 25

 

अस्थिर चंचल वृत्ति मन, कसता रहे लगाम।

मन को वश में रख सदा, सिद्ध होयँ सब काम।। 26

 

मन स्थिर मुझमें करें, जो भी पुरुष महान।

दिव्य सुखों की सिद्धि हो, करते प्रभु कल्यान।। 27

 

आत्म संयमी निग्रही, करते योगाभ्यास।

सब पापों से मुक्त हो, आए आत्म प्रकाश।। 28

 

सिद्धि योगि वो ही मनुज, सबमें मुझको पाँय।

घट-घट वासी हूँ, समझ सबमें प्रेम जतांय।। 29

 

जो देखें सबमें मुझे, मैं रहता सर्वस्य।

प्रकट हुआ मैं देखता, सब भक्तों के दृश्य।। 30

 

योगी वे ही सिद्ध हैं, करे मुझी में ध्यान।

करे समर्पण स्वयं को, करे भक्त गुणगान।। 31

 

योगी सच्चा है वही, सुख-दुख में मुस्काय।

हर प्राणी के भाव को, कर समान दुलराय।। 32

 

अर्जुन उवाच

अस्थिर चंचल मन जहाँ, कठिन बहुत है योग।

नहीं समझ पाया सखे, पल-छिन माँगे भोग।। 33

 

मन चंचल हठ से भरा, रहा बड़ा बलवान।

वायु वेग-सा भागता, भागे तीर समान।। 34

 

श्री भगवान उवाच

कृष्ण कहें कौन्तेय से, ये मन भागे वेग।

होय विरत अभ्यास से, होयँ शांत संवेग।। 35

 

मन चंचल जिसका रहे, लक्ष्य कभी ना पाय।

मन का संयम ध्रुव अटल, विजित होय मुस्काय।। 36

 

अर्जुन उवाच

कृष्ण सुनो मेरी व्यथा, असफल योगी कौन।

भौतिकता के जाल में, टूटे मन का मौन।। 37

 

ब्रह्म प्राप्ति के मार्ग से , भटकें जो इंसान।

उसकी गति मुझसे कहो, मेरे सखे महान।। 38

 

कृष्ण सुनो तुम प्रार्थना, संशय कर दो दूर।

योगि भोग में यदि रमें, क्या मिल जाता धूर।। 39

 

श्री भगवान उवाच

परहित योगी जो करें , सिद्ध लोक-परलोक।

प्रथा पुत्र मेरी सुनो, जीवन बने अशोक।। 40

 

असफल योगी भोगता, कुछ दिन भौतिक भोग।

अच्छे कुल में जन्म ले ,व्यर्थ न जाता योग।। 41

 

दीर्घकाल तक योग से, यदि वह असफल होय।

जन्म मिले वैभव कुली, योग सदा फल बोय।। 42

 

पूर्वजन्म की चेतना, है दैवी संयोग।

करें साधना ईश की, नित्य भक्तिमय योग।। 43

 

प्रारब्धों के ज्ञान से, योग स्वतः आ जाय।

ऐसा योगी ही सफल, मुझे सर्वदा भाय।। 44

 

कल्मषादि  से शुद्ध हो, ऐसा ज्ञानी भक्त।

जनम-जनम अभ्यास से, जन्म-मरण से मुक्त।। 45

 

योगी-तापस से बढ़ा, ज्ञानी से भी श्रेष्ठ

योगी सबसे उच्च है, आदरणीय यथेष्ठ। 46

 

उत्तम योगी है वही, रखे हृदय में प्रीत।

करे समर्पण स्वयं को, श्रेष्ठ योग की रीत।। 47

इस प्रकार श्रीमद्भगवतगीता छठे अध्याय ” ध्यान योग ” का भक्तिवेदांत का तात्पर्य पूर्ण हुआ।

 © डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 71 – माझी कविता…! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #71 ☆ 

☆ माझी कविता…! ☆ 

अक्षर अक्षर मिळून बनते माझी कविता

आयुष्याचे दर्पण असते माझी कविता

अक्षरांतही गंध सुगंधी येतो जेव्हा

काळजातही वसते तेव्हा माझी कविता….!

 

कधी हसवते कधी रडवते माझी कविता.

डोळ्यांमधले ओले पाणी माझी कविता.

तुमचे माझे पुर्ण अपूर्णच गाणे असते.

ओठावरती अलगद येते माझी कविता…..!

 

आई समान मला भासते माझी कविता.

देवळातली सुंदर मुर्ती माझी कविता.

कोरे कोरे कागद ही मग होती ओले.

जीवन गाणे गातच असते माझी कविता….!

 

झाडांचाही श्वासच बनते माझी कविता.

मुक्या जिवांना कुशीत घेते माझी कविता.

अक्षरांसही उदंड देते आयुष्य तिही.

फुलासारखी उमलत जाते माझी कविता….!

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूर संगीत राग गायन (भाग १३ ) – राग~ संपन्न भैरव कूळ ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

☆ सूर संगीत राग गायन (भाग १३ ) – राग~ संपन्न भैरव कूळ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ 

सूर संगत~संपन्न भैरव कूळ

प्राचीन काळी संगीतांतील उत्पत्ती देव देवतांपासून झाल्याचे मानले गेले. पंचमहाभुतांना देवता मानून त्यांची स्तुती आणि प्रार्थना मुख्यतः संगीताद्वारे केली जात असे. अशा संगीतात काही रागस्वरूपे देव देवतांच्या नावानेच अस्तित्वात आली.पुढे त्या त्या रागांना देव~देवतांची वर्णने लावण्यांत आली. अशा प्रकारच्या रागांमध्ये भैरव हा प्रमूख आहे. भैरव म्हणजेच शिव शंकर, शंभू महादेव!

हा भैरव थाटजन्य राग. रिषभ व धैवत कोमल. वादी~संवादी अनुक्रमे धैवत व रिषभ.सात स्वरांचा संपूर्ण जातीचा हा राग प्रातःकाळी गायला जातो. “जागो मोहन प्यारे” ह्या गाण्याच्या ओळी कानांवर पडल्या की भैरव रागाचे दर्शन घडते. यशोदा मैय्या तिच्या नंदलालाला प्रातःकाळी उठविते, “उठी उठी नंदकिशोरे”, “प्रातसमय भई भानूदय भयो, ग्वाल बाल सब भूपति थाडे” अशा वर्णनाच्या बंदीशी ह्या भैरव रागांत ऐकायला मिळतात. पहाटेच्या वेळी चित्त प्रसन्न होते.

सा (रे) ग म प (ध) नी सां

सां नी (ध)प म ग (रे) सा असे ह्याचे सरळ आरोह अवरोह असले तरी सादर करतांना वक्र स्वरूपांत आढळतो, जसे रिषभाला मध्यमाचा स्पर्ष”ग म(रे) सा, धैवताला ग म नी(ध), नी(ध)प असा निषादाचा स्पर्ष हे भैरवाचे खास वैशिष्ठ्य आहे. गायन/वादन रंजक करण्यासाठी पूर्वांगांत सा ग म प ग म(रे)सा, आणि उत्तरांगांत ग म नी(ध)सां अशी वक्र स्वररचना करतात. शांत रस हा या रागाचा आत्मा म्हणता येईल.

अकबराच्या दरबारांतील  तानसेनाने या रागाविषयी “कहे मिया तानसेन सुनो शाह अकबर। सब रागनमे प्रथम राग भैरव।” असे म्हटले आहे. संगीत मार्तंड पं. जसराजजी यांच्या संगीत शिक्षण संस्थेत विद्यार्थ्यांचे शिक्षण भैरव रागानेच सुरू होते हे बर्‍याचजणांना माहीत असेलच.

अतिशय संपन्न असे हे भैरव कूळ आहे. अनेक वर्षांपूर्वी कुमार गंधर्वांनी ‘भैरव के प्रकार’ अशी एक मैफील केली होती. ह्या मैफीलीत भैरवाबरोबरच सादरीकरणांत थोडेफार फेरफार करून अहीर भैरव, शिवमत भैरव, भवमत भैरव, बीहड भैरव, बैरागी भैरव, बंगाल भैरव, प्रभात भैरव, धुलिया भैरव, आनंद भैरव नटभैरव, भैरव बहार असे भैरवाचे अनेक प्रकार सादर करून श्रोत्यांना भैरवाचे वैभव दाखवून दिले होते.

“नवयूग चूमे नैन तुम्हारे” हे सलील चौधरींनी संगीतबद्ध केलेले भैरवातील गीत रात्रीकडून पहाटेकडे नेते. “जागो मोहन प्यारे” ह्या पारंपारिक बंदीशीत काही वेगळे शब्द आणि सूर चपखल बसवून लतादिदींच्या आवाजांत ऐकतांना वेगळाच आनंद मिळतो. खेड्यांतून शहरांत आलेला एक तरूणराज कपूरपाण्यासाठी वणवण फिरतो, पहाट होते, प्राचीवर सूर्यबिंब उगवते, पण पाणी न मिळाल्यामुळे त्रासलेल्या त्याला एक सामान्य पाणी भरणारी स्त्रीनर्गीसत्याच्या ओंजळीत घागरीने पाणी घालते. भैरवाच्या सुरांनी भरलेली ती पहाट~चित्रपट संपतो पण भैरव कायम मनांत रेंगाळतो.

कालिंगडा, रामकली,जोगिया ही भैरवाचीच रूपे! “मोहे भूल गये सांवरिया” हे बैजू बावरांतील गीत, सामनामधील “तुम्हावरी केली मी मर्जी बहाल”, जाळीमंदी पिकली करवंद”ह्या लावण्या म्हणजे भैरवाचे चंचल रूप कालिंगडा.

रामकलीतून भैरवाचे मृदू स्वरूप दिसते.भीमसेन जोशी “सगरी रैन मै जागी”ह्या बंदीशीने सवाई गंधर्व उत्सवाची सांगता करीत असत.

जोगिया म्हणजे करूण रसांत भिजलेला भैरव!”पिया मिलनकी आस”ही ठुमरी ऐकतांना डोळे न पाणावणारा श्रोता विरळाच.सौभद्र नाटकांतील”माझ्या मनीचे हितगूज सारे ठाऊक कृष्णाला”हे बाल गंधर्वांनी अजरामर केलेले पद.गीत रामायणातील परित्यक्ता सीतेच्या तोंडी असलेले “मज सांग लक्ष्मणा जाऊ कुठे”हे गीत श्रोत्यांना देहभान विसरावयास लावते.

असे हे सूर संपन्न भैरव खानदान! हे जाणून घेतल्याशिवाय संगीत शिक्षण अधूरे आहे.

क्रमशः ….

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 88 – बैठे ठाले होली पर एक खजल……. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी स्वास्थ्य की जटिल समस्याओं से  सफलतापूर्वक उबर रहे हैं। इस बीच आपकी अमूल्य रचनाएँ सकारात्मक शीतलता का आभास देती हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी होली के रंग की एक रचना बैठे ठाले होली पर एक खजल……. । )

☆  तन्मय साहित्य  #88 ☆

 ☆ बैठे ठाले होली पर एक खजल……. ☆

हुरियारों की शक्लें, होली पर ही अच्छी लगती है

रंग भरे धुंधलेपन में, उम्मीदें सोती, जगती है।

 

सब में दिखती खोट,गलतियाँ, और अधूरापन उनको

बढ़िया उनको तो केवल, खुद की कविताई लगती है।

 

तेरे गीत गजल, चौपाई, और घनाक्षरी, मुक्तक छंद

ये सब तो उनको सौतन की, आग लगाई लगती है।

 

छांछ, दहीं,मक्खन-पनीर, सब तेरे हैं बेस्वाद यहाँ

उनको तो उनके वाली ही, दुध मलाई लगती है।

 

छिपन छिपैया, ता-ता थैया, खेल रहे कविताओं में

बिना बीज खरपतवारों की, धूम मचायी लगती है।

 

मदिरा, भांग नशे के खातिर, नहीं कमी है नोटों की

बच्चों की पिचकारी, रंगों में, मंहगाई लगती है।

 

जैसे-तैसे टीप, टाप के, नकल मार कर पास हुए

आगे भइए! इत कुंआ, उत गहरी खाई लगती है।

 

चाहे नशा चढ़ा हो कितना, फिर भी नहीं भूलते हैं

अच्छे खां को खुद की बीबी, क्रूर कसाई लगती है।

 

पंगत में स्वभाव गत नजरें, तकती है इक-दूजे को

अपनी पत्तल कमतर, ज्यादा भरी पराई लगती है।

 

गिरगिट हार गए, इस रंग बदलते हुए आदमी से

परत दर परत चेहरे पर, की हुई पुताई लगती है।

 

संसद में वेतन-भत्ते,अपने इक मत हो पास किए

घर ही घर में खुद ही प्रसूता, खुद ही दाई लगती है।

 

बैठे ठाले फुरसत में यूँ ही, ये बातें लिख डाली

कब के अपन हो लिए, होली अब हरजाई लगती है।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश0

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #74-9 – चितई गोलू मंदिर ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं -8 – बिनसर ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #74-9 – चितई गोलू मंदिर ☆ 

चितई गोलू मंदिर बिनसर से कोई तीस किलोमीटर दूर है । अल्मोड़ा से  यह ज्यादा पास है और आठ किलोमीटर दूर पिथौरागढ़ हाईवे पर है। यहां गोलू देवता का आकर्षक मंदिर है। मंदिर के बाहर अनेक प्रसाद विक्रेताओं की दुकानें है जिनमें तरह तरह की आकृति व आकार के घंटे मिलते हैं। मुख्य गेट से लगभग तीन सौ मीटर की दूरी पर एक छोटे से मंदिर के अंदर सफेद घोड़े में सिर पर सफेट पगड़ी बांधे गोलू देवता की प्रतिमा है, जिनके हाथों में धनुष बाण है।

उत्तराखंड में गोलू देवता को स्थानीय संस्कृति में सबसे बड़े और त्वरित न्याय के लोक देवता के तौर पर पूजा जाता है। उन्हें  शिव और कृष्ण दोनों का अवतार माना जाता है। उत्तराखंड ही नहीं बल्कि देश  विदेश से भी लोग गोलू देवता के इस मंदिर में लोग न्याय मांगने के लिए आते हैं। वे मनोकामना पूरी होने के लिए इस मन्दिर में अर्जी लिखकर आवेदन देते हैं और मान्यता पूरी होने पर पुनः आकर मंदिर में घंटियां चढ़ाते हैं। असंख्य घंटियों को देखकर  इस बात का अंदाजा लगता है  कि भक्तों की इस लोक देवता पर अटूट आस्था है, यहां मांगी गई  भक्त की मनोकामना कभी अधूरी नहीं रहती। अनेक लोग मन्नत के लिए स्टाम्प पेपर पर भी आवेदन पत्र लिखते हैं।आवेदन पत्र चितई गोलू देव, न्याय  के देवता, अल्मोड़ा को संबोधित करते हुए लिखते हैं। ऐसा वे इसलिए करते हैं क्योंकि कोर्ट में उनकी सुनवाई नहीं हुई या न्याय नहीं मिला। राजवंशी देवता के रुप में विख्यात गोलू देवता को उत्तराखंड में कई नामों से पुकारा जाता है। इनमें से एक नाम गौर भैरव भी है। गोलू देवता को भगवान शिव का ही एक अवतार माना जाता है। अद्भुत और अकल्पनीय देश में लोक मान्यताओं और विश्वास की परमपराएं सदियों पुरानी है। न्याय की आशा तो ग्रामीण जन करते ही हैं लेकिन न्याय उन्हें राजसत्ता से शायद कम ही मिलता है। और अगर न्याय न मिले तो गुहार तो देवता से ही करेंगे। इसी विश्वास और आस्था ने गोलू देवता को मान्यता दी है। हो सकता है वे कोई राजपुरुष रहे हों या राबिनहुड जैसा चरित्र रहे हों और सामान्यजनों के कष्टहरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो तथा ऐसा करते-करते वे लोक देवता के रुप में पूजनीय हो गए।

मेरा ऐसा सोचना सही भी है लोक कथाओं के अनुसार गोलू देवता चंद राजा, बाज बहादुर ( 1638-1678 ) की सेना के एक जनरल थे और किसी युद्ध में वीरता प्रदर्शित करते हुए उनकी मृत्यु हो गई थी । उनके सम्मान में ही अल्मोड़ा में चितई मंदिर की स्‍थापना की गई।

कोरोना काल में मंदिरों में लोगों का आना-जाना, काफी हद तक रोकथाम व पूजा-पाठ में निर्देशों का कड़ाई से पालन करने के कारण, कम हुआ है। इसलिए हमें इस मंदिर में ज्यादा समय नहीं लगा।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 39 ☆ बचपन चोरी हो गया ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ‘बचपन चोरी हो गया’। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 39 ☆

☆ बचपन चोरी हो गया

मेरा बचपन चोरी हो गया,

कहीं तूने तो नही चुराया बता ए जिंदगी ||

 

कोई लड़कपन मेरा चुरा कर ले गया,

कहीं तूने तो नहीं छुपाया बता ए जिंदगी ||

 

मेरे यार दोस्तों की टोली गुम हो गयी,

कहीं तूने उन्हें जाते तो नहीं देखा बता ए जिंदगी ||

 

माता-पिता की टंगी तस्वीर रुला देती है,

तूने उन्हें जाने से रोका क्यों नहीं बता ए जिन्दगी ||

 

एक-एक करके सब जुदा हो गए,

तूने सब को क्यों जाने दिया बता ए जिंदगी ||

 

चंद सांसे ही हैं जो मेरी बची है,

कहीं अब तेरी उस पर तो नजर नहीं बता ए जिंदगी ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 91 ☆ आठवणी – जाहल्या काही चुका ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 91 ☆

 ☆ आठवणी – जाहल्या काही चुका  ☆ 

काही चूका शेअर केल्याने हलक्या होतात असं मला वाटतं,

मी माझी ऑक्टोबर 2020 मधली चूक सांगणार आहे. ती चूक कबूल करणं म्हणजे confession Box जवळ जाऊन पापांगिकार करण्याइतकी गंभीर बाब आहे असे मला वाटते.

गेले काही वर्षे माझ्या पायाला मुंग्या येत होत्या, डाॅक्टर्स,घरगुती उपाय करून झाले, पण मागच्या वर्षी मी बाहेर चालत जाताना पाय जड झाला आणि मला चालता येईना, ऑर्थोपेडीक,फिजिओ थेरपी सर्व झाले तरी बरं वाटेना, स्पाईन स्पेशालिस्ट ला दाखवलं,एम आर आय काढला, मणक्याची नस दबली गेली ऑपरेशन करावं लागेल असं डाॅक्टर नी सांगितलं, मार्च/एप्रिल मध्ये ऑपरेशन करायचं ठरलं, पण बाबीस मार्च ला लाॅकडाऊन झालं, कामवाली बंद, माझी सून लाॅकडाऊन च्या काळात आमच्या मदतीसाठी आली घरची आघाडी तिनं उत्तम सांभाळली! तीन महिन्यानंतर ती परत तिच्या फ्लॅटवर गेली……

माझ्या पायाच्या तक्रारी होत्याच ऊठत बसत स्वयंपाक करत होते, नव-याने घरकामात खुप मदत केली, माझी सून आणि नवरा यांना खुपच कष्ट पडले.

एक मैत्रीण म्हणाली मणक्याचं ऑपरेशन टळू शकतं मी स्पाईन क्लिनीक ची ट्रिटमेन्ट घेतेय मला बरं वाटतंय, तिथे जायचं धाडस केलं कारण कोरोना च्या काळात मी मला मधुमेह असल्यामुळे कुठेच बाहेर जात नव्हते कुणाकडे जात नव्हतो,कुणाला घरी येऊ देत नव्हतो!पण दोन  महिने माझा नवरा मला स्पाईन क्लिनीक मध्ये फिजिओ साठी घेऊन जात होता.घरी आल्यावर आम्ही अंघोळ करून वाफ घेत होतो, पण माझं दुखणं कमी होईना, शेवटी ऑपरेशन ला पर्याय नाही हे समजलं सेकंड ओपिनिअन घ्यायचं म्हणून डाॅ भणगेंची रूबी हाॅलची वेळ घेतली तिथे दोन अडीच तास वाट पाहिली डॉक्टरांची! मला तिथे निवर्तलेले आप्तेष्ट आठवले खुप अस्वस्थ झालं, नव-याला म्हटलं आपण उगाच इथे आलो…माझी मानसिकता समजणं शक्य नव्हतं त्याला..मग  भांडण झाल्यामुळे डॉक्टरांना न भेटता घरी ! काही काळ अबोला, मी पुन्हा पहिल्या डॉक्टरांना फोन केला त्यांनी चार वाजता बोलवलं व पाच दिवसांनी दीनानाथ मध्ये ऑपरेशन करायचं ठरलं, सर्व टेस्ट झाल्या, दीनानाथ ची भीती वाटत होती, माझी पुतणी म्हणाली काकी वॅक्सिन घेतल्यानंतर ऑपरेशन कर,दीनानाथ मध्ये जाऊ नको,कामवाली पण म्हणाली, “आई रूबी लाच ऑपरेशन करा!” मला ऑपरेशन ची भीती वाटत होती पण त्या काळात कोरोना ची भीती  वाटली नाही, माझं ऑपरेशन म्हणून सून आणि नातू आमच्याकडे सोमवार पेठेत रहायला आले, कोरोना ची तीव्रता कमी झाल्यामुळे कामवालीला  परत बोलवलं होतं, ऑपरेशन करणा-या डॉक्टरांनी “दीनानाथ मध्ये आता अजिबात भीती नाही, नाहीतर मी तुम्हाला सांगितलं नसतं तिथे ऑपरेशन करायला ” अशी ग्वाही दिली! गुरुवारी ऑपरेशन झाले,हॉस्पिटल मध्ये माझ्याजवळ “हे” राहिले. आम्ही सोमवारी घरी आलो, आमची सून कार घेऊन  आम्हाला न्यायला आली हॉस्पिटल मध्ये,  घरी आल्यावर नातू म्हणाला “आजी मला तुला hug करावंसं वाटतंय पण तुझं ऑपरेशन झालंय!”……..

माझे दीर आणि जाऊबाई मला भेटायला आले त्याचदिवशी!

……..आणि चार नोव्हेंबर नंतर आमचं सर्व कुटुंब “पाॅझिटीव” एक दोन दिवसांच्या अंतराने गोळविलकर लॅबचे रिपोर्ट….. मी, हे, दीर, जाऊ केईएम ला एडमिट, सूननातू घरीच होते होम क्वारंटाईन पण सुनेला ताप येऊ लागला, म्हणून ती आणि नातू मंत्री हॉस्पिटल मधे एडमिट झाली, ऐन दिवाळीत आम्ही कोरोनाशी लढा देत होतो…….

या सर्वाचा मला प्रचंड मानसिक त्रास झाला. असं वाटलं  हे सगळं होण्यापेक्षा मी मरून गेले असते तर बरं झालं असतं, ऑपरेशनला तयार झाले ही माझी चूक, रूबी हाॅल मधून परत आले ही पण चूकच ! संपूर्ण कुटुंबाला माझ्या ऑपरेशन च्या निर्णयाने बाधा झाली, मला सतत रडू येत होतं, सारखी देवाची प्रार्थना करत होते…..आपण कुणीतरी शापीत, कलंकित आहोत असं वाटत होतं! आयुष्यभराची सर्व दुःख या घटनेपुढे फिकी वाटायला लागली, सर्वजण बरे होऊन सुखरूप घरी आलो ही देवाची कृपा! मुलगा म्हणाला “आई तू स्वतःला दोष देऊ नकोस, ही Destiny आहे,”

पण हे शल्य सतत काळजात रहाणारच!

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 76 ☆ मंजिल ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “मंजिल। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 76 ☆

☆ मंजिल ☆

जाने की सोची थी ये कहाँ, कहाँ चल दिए हम

लिखा हो जो रास्ता सो हो, कहाँ हमें कोई ग़म

 

ज़िंदगी की अपनी ही ताल है, लय पर चलती है

कठपुतली हैं हम, चल देते हैं, जहां ले जाते कदम

 

करें क्या बात आशनाई की, कहाँ सबको साथ है

उम्मीद नहीं इतनी वफ़ा की, कोई दे साथ हरदम

 

झुक जाता है सर रब के आगे, यार सा लगता है

चलता ही रहा थामे हाथ, ग़म ने जब घेरा दामन

 

बहुत दिनों की कहाँ जीस्त, ख़त्म ही हो जायेगी

उम्मीद यही है रब से अब, चलती रहे ये कलम

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 100 ☆ संवाद संजीवनी है ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है पारिवारिक, सार्वजनिक जीवन में एवं राष्ट्रीय स्तर पर संवाद की  भूमिका। वास्तव में समय पर संवाद संजीवनी ही है।  इस शोधपरक विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

? श्री विवेक जी ने ई- अभिव्यक्ति में  अपने साप्ताहिक स्तम्भ ‘विवेक साहित्य’ में 100 रचनाओं के साथ अभूतपूर्व साहित्यिक सहयोग  किया ?

?अभिनन्दन ?

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 100☆

? संवाद संजीवनी है ?

घर, कार्यालय हर रिश्ते में सीधे संवाद की भूमिका अति महत्वपूर्ण है.

संवादहीनता सदा कपोलकल्पित भ्रम व दूरियां तथा समस्यायें उत्पन्न करती है. वर्तमान युग मोबाइल का है, अपनो से पल पल का सतत संपर्क व संवाद हजारो किलोमीटर की दूरियों को भी मिटा देता है. जहां कार्यालयीन रिश्तों में फीडबैक व खुले संवाद से विश्वास व अपनापन बढ़ता है वहीं व्यर्थ की कानाफूसी तथा चुगली से मुक्ति मिलती है.

इसी तरह घरेलू व व्यैक्तिक रिश्तो में लगातार संवाद से परस्पर प्रगाढ़ता बढ़ती है, रिश्तों की गरमाहट बनी रहती है, खुशियां बांटने से बढ़ती ही हैं और दुःख बांटने से कम होता है. कठनाईयां मिटती हैं. बेवजह ईगो पाइंट्स बनाकर संवाद से बचना सदैव अहितकारी है.

आज प्रायः बच्चे घरों से दूर शिक्षा पा रहे हैं उनसे निरंतर संवाद बनाये रख कर हम उनके पास बने रह सकते हैं व उनके पेरेण्ट्स होने के साथ साथ उनके बैस्ट फ्रैण्ड भी साबित हो सकते हैं. डाइनिंग टेबल पर जब डिनर में घर के सभी सदस्य इकट्ठे होते हैं तो दिन भर की गतिविधियो पर संवाद घर की परंपरा बनानी चाहिये.

यदि सीता जी के पास मोबाईल जैसा संवाद का साधन होता तो शायद राम रावण युद्ध की आवश्यकता ही न पड़ती और सीता जी की खोज में भगवान राम को जंगल जंगल  भटकना न पड़ता. विज्ञान ने हमें संवाद के संचार के नये नये संसाधन,मोबाईल, ईमेल, फोन, सामाजिक नेटवर्किंग साइट्स आदि के माध्यम से सुलभ कराये हैं, पर रिश्तो के हित में उनका समुचित दोहन हमारे ही हाथों में है.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 90 ☆ कधी व्हायची सकाळ ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 90 ☆

☆ कधी व्हायची सकाळ 

काळ्या ढगात झाली किरणे गहाळ सूर्या

तेजोवलये घेउन मिरवी टवाळ सूर्या

 

मराठीतुनी गीता सांगे ज्ञानेश्वर हा

जीवन ओवी व्हावी येथे मधाळ सूर्या

 

समजविण्याचे दिवसच नाही आता उरले

मध्यस्थाचे फुटले येथे कपाळ सूर्या

 

किती बेसुरे जीवन झाले कसे गाउ मी

सूरच झाले सारे आता रटाळ सूर्या

 

व्यवहाराचा किती वाढला टक्का आहे

वृद्ध पोसता होणारच ना अबाळ सूर्या

 

चिपाड होता काया माझी अशी फेकली

कधीतरी मी ऊसच होतो रसाळ सूर्या

 

रथ घोड्यांचा घेउन गेला सांग कुठे तू

कधी व्हायची सांग मला रे सकाळ सूर्या

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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