(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा एक भावप्रवण कविता “राम जाने कि – क्यों राम आते नहीं ? “। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 35 ☆
☆ राम जाने कि – क्यों राम आते नहीं ? ☆
राम जाने कि – क्यों राम आते नहीं ?
है जहाँ भी कही, दुखी साधुजन, दे के उनको शरणं क्यों बचाते नही ?
धर्म के नाम नाहक का फैला जुनू, हर समझदार उलझन में बेहाल है।
काट खाने को दौडे ये वातावरण, राम जाने कि क्यों राम आते नहीं ?
बढ़ रही हर जगह कलह बेवजह, स्नेह – सदभाव पड़ते दिखाई नहीं।
एकता प्रेम विश्वास है अधमरे, आदमियत आदमी से हुई गुम कही ।
स्वार्थ सिंहासनों पर अब आसीन है, कोई समझता नहीं है किसी की व्यथा।
मिट गई रेखा लक्ष्मण ने खींची थी जो, महिमा – मंडित है अपराधियों की कथा।
है खुले आम रावण का आवागमन – राम जाने कि क्यों राम आते नहीं ?
सारे आदर्श बस सुनने पढ़ने को हैं, आचरण में अधिकतर हैं मनमानियां।
जिसकी लाठी है अब उसकी ही भैस है, राजनेताओं में दिखती हैं नादानियां।
स्वप्न में भी न सोचा, जो होता है वो, हर समस्या उठाती नये प्रश्न कई।
मान मिलता है अब कम समझदार को, भीड़ नेताओं की इतनी बढ़ गई।
हर जगह डगमगा गया है संतुलन, राम जाने कि क्यों राम आते नही ?
है सिसकती अयोध्या दुखी नागरिक, कट गये चित्रकूटों के रमणीक वन।
स्वर्णमृग चर रहे दण्डकारण्य को, पंचवटियों में बढ़ रहा हैअपहरण।
घूमते हैं असुर साधु के वेश में, अहिल्याएं कई बन गई हैं शिला।
सारी दुनियां में फैला अनाचार है, रूकता दिखता नही ये बुरा सिलसिला।
हो रहा गाँव – नगरों में नित सीताहरण, राम जाने की क्यों राम आते नहीं?
((श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है।
ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी जी ने अपनी शीघ्र प्रकाश्य कथा संग्रह “प्रेमार्थ “ की कहानियां साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया है। इसके लिए श्री सुरेश पटवा जी का हृदयतल से आभार। प्रत्येक सप्ताह आप प्रेमार्थ पुस्तक की एक कहानी पढ़ सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है द्वितीय प्रेमकथा – अनिरुद्ध-ऊषा । )
हरिवंश पुराण में मध्यप्रदेश के होशंगाबाद ज़िले की एक छोटी सी बस्ती सोहागपुर का उल्लेख श्रोणितपुर नाम से बांणासुर राक्षस की राजधानी के रूप में आता है। महाभारत युद्ध से कृष्ण की स्थापना एक सर्वमान्य आर्य नेतृत्व के रूप में हो गई थी लेकिन कई अनार्य राजा उनसे ईर्ष्यावश द्वेष पाले रखते थे। यादवों का राज्य अरबसागर किनारे स्थित द्वारका से नर्मदा के उत्तरी तट तक फैला हुआ था यानि पूरा गुजरात, मालवा और दक्षिणी बुंदेलखंड का कुछ हिस्सा उनके आधिपत्य में था। असुरराज बांणासुर का राज्य नर्मदा के दक्षिण में श्रोणितपुर राजधानी से पूरे छत्तीसगढ़ तक फैला था। नर्मदा नदी उनके राज्यों की प्राकृतिक विभाजक रेखा थी।
राज्यों की कूटनीति का एक परम सिद्धांत है कि या तो तुम अपने राज्य का पड़ोसी राज्य में विस्तार करो अन्यथा पड़ौसी तुम्हारे राज्य की सीमा पार करके अपने राज्य का विस्तार करेगा। असुरराज बांणासुर के सैनिक आज के नरसिंहपुर, होशंगाबाद और हरदा जिलों से नर्मदा पार करके यादव राज्य में घुसकर आज के सागर, दमोह, रायसेन, सीहोर और देवास जिलों पर हमला करके इलाक़ा अधिग्रहित करने की कोशिश करते रहते थे। कृष्ण ने अपने पौत्र अनिरुद्ध को उस इलाक़े की रक्षा के लिए नियुक्त किया, तभी उसका बांणासुर की पुत्री ऊषा से प्रेम प्रसंग हो गया। अनिरुद्ध राजकुमारी ऊषा से मिलने शोणितपुर तक पहुँच गया। उस समय बांणासुर ने ऊषा के लिए बागड़ा-वन में एक क़िला अग्निगढ़ नाम से बनाया हुआ था। उषा की मायावी सहेली चित्रलेखा ने अनिरुद्ध को शोणितपुर से अग्निगढ़ क़िले तक पहुँचा दिया। दो प्यासे हृदय एक होकर रसरंग की ख़ुमारी में खो गए। जब बांणासुर को जासूसों ने ख़बर दी तो राक्षसराज ने अनिरुद्ध को बंदी बना लिया। शिव पुराण के पाँचवें भाग युद्ध-खंड में बाणासुर-शोणितपुर कथा का वर्णन आता है। हम इसे आर्य-अनार्य संस्कृति सम्मिलन प्रक्रिया के रूप में देख रहे हैं।
पुराणों के रचनाकार ऋषि-मुनि उस समय के इतिहासकार थे, जिन्होंने कहानी के रूप में सामयिक घटनाओं को रोचक रूप दिया था। उन्होंने अपने साहित्य में कथा को आगे बढ़ाने के लिए वरदान और श्राप नामक दो तरीक़े आदमी के अहंकार को बढ़ाने, फिर अहंकार या अहंकारी को नष्ट्र करने के तरीक़े स्वरूप सुनियोजित रूप से प्रयोग किए हैं ताकि राजा कभी भी अति अहंकारी न हो। अहंकार राजा का अत्यावश्यक गुण है परंतु राजा का अति अहंकार प्रजा को दम्भी बनाता है। पहले अति अहंकारी राजा का विनाश होता है फिर बेलगाम प्रजा आपस में भिड़ने लगती है और राष्ट्र बर्बादी के कगार पर पहुँच जाता है। शिव पुराण में लिखित कृष्ण-बाणासुर संग्राम की पूरी कहानी इस प्रकार है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार दक्ष प्रजापति की तेरह कन्याएँ कश्यप मुनि की पत्नियाँ थीं। उनमें से एक अदिति के गर्भ से इंद्र, अरूण, वरुण, सूर्य इत्यादि देवता उत्पन्न हुए इसीलिए अदिति के एक पुत्र सूर्य का एक नाम आदित्य है। दिति के गर्भ से उत्पन्न पुत्र दैत्य कहलाए। उसके हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष दो पुत्र हुए। हिरण्यकश्यप के चार पुत्र हुए। ह्लाद, अनुह्लाद, संह्लाद और प्रह्लाद। प्रह्लाद आर्यों के प्रधान देव विष्णु का भक्त हुआ और विष्णु के नरसिंह अवतार द्वारा हिरण्यकश्यप के वध का कारण बना। प्रह्लाद का पुत्र राजा विरोचन हुआ जिसने अपना सिर देवताओं के राजा इंद्र को दान में दे दिया था। विरोचन का लड़का राजा बलि हुआ जिसने विष्णु को समस्त पृथ्वी दान कर दी थी। उसी राजा बलि का पुत्र था शोणितपुर का राजा बांणासुर। इस प्रकार आर्य लोग अनार्यों को भक्ति और दान द्वारा उनके लोभ और वैमनस्य पिघला कर अपनी उदार संस्कृति में ढालते जा रहे हैं। अनार्यों के प्रमुख देव शिव है जो कि ऋग्वेद में आर्यों के रूद्र थे। वे हमेशा ख़ुश होकर दैत्यों को वरदान दे देते हैं, परंतु देवताओं को वरदान देते नहीं दिखते हैं। इसका उलट वे आर्य देवों को भस्म करते हैं जैसे कामदेव को शिव ने अनंग कर दिया था। वही कामदेव कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के रूप में अवतरित हुए थे। रति ने भी उनकी पत्नी बनकर जन्म लिया, जिनका पुत्र अनिरुद्ध था। विष्णु उपासक होने से विष्णु ही आर्यों के संकटमोचक थे।
बांणासुर ताण्डव नृत्य द्वारा शिव को प्रसन्न कर त्रिलोकाधिपतियों को बलपूर्वक जीतकर श्रोणितपुर को अपनी राजधानी बना कर राज्य करने लगा। उसने भगवान शंकर को प्रसन्न कर उन्हें अपने नगर का अध्यक्ष बनाकर गणों और पुत्रों सहित निवास करने की विनती की जिसे भगवान शिव ने स्वीकार किया और शोणितपुर में निवास करने लगे।
एक बार उसने तांडव नृत्य कर अपने हजार हाथों से ताली बजा-बजाकर भगवान शंकर को प्रसन्न कर कहा – “हे त्रिपुरारी! पूरे त्रिलोक में मुझे आप जैसा बलशाली योद्धा नहीं मिल रहा। कोई मुझसे अब युद्ध करने को तैयार नहीं है। हे! शंकर मेरी 1000 भुजाएँ फड़क रहीं हैं या तो आपसा योद्धा मुझसे युद्ध करे या आप मेरी भुजाओं को कटवा दें।” भगवान शंकर बाणासुर का दर्प समझ गए। उन्होंने मुस्कुराते हुए उसकी मंशा पूरी होने का वरदान दे दिया। वह भगवान शंकर जैसे योद्धा के साथ युद्ध चाहता था। तदानुसार दैव योजना से बांणासुर की पुत्री उषा एक रात कामातुर हुई। पार्वती ने उसके स्वप्न में प्रद्युम्न पुत्र अनिरुद्ध को भेजकर शमन कराया। उसकी स्वप्न छवि ऊषा के हृदय में बस गई। उसने अपनी सेविका सखी मायावी चित्रकार चित्रलेखा से अनिरुद्ध से मिलाने की विनती की। चित्रलेखा ने अनिरुद्ध को द्वारका से लाकर उषा के महल में छोड़ दिया। बांणासुर के रक्षकों ने यह ख़बर उस तक पहुँचा दी कि कोई देव पुरुष उसकी पुत्री ऊषा का भोग कर रहा है। अनिरुद्ध बंदी बना लिया गया। भगवान शंकर की माया के अनुसार अपने पौत्र अनिरुद्ध को बाणासुर से मुक्त कराने के लिए श्रीकृष्ण को शोणितपुर पर चढ़ाई करनी पड़ी। भगवान शंकर अपने भक्त बाणासुर की तरफ से युद्ध करने के लिए खड़े हुए थे।
शंकर और श्रीकृष्ण में भीषण युद्ध होने लगा तब श्रीकृष्ण शंकर जी के पास जाकर बोले – “हे प्रभु मैं तो आपके ही आदेश से और आपके श्राप से दैत्य की मुक्ति के कारण इस दुष्ट की भुजाएं काटने आया था। आप मुझसे ही भीषण युद्ध कर रहे हैं।” तब भगवान शंकर ने श्री कृष्ण जी को अपने भक्त वत्सल होने का वास्ता देते हुए बताया कि मुझे “जृम्भणास्त्र” से जृम्भित कर अपना अभीष्ट सिद्ध करो। श्रीकृष्ण ने ऐसा ही किया और उसके बाद में उन्होंने बांणासुर की चार भुजाएँ छोड़कर बाक़ी भुजाएं काट डाली, जब सुदर्शन चक्र से सिर काटने लगे तो भगवान शंकर ने उन्हें यह कह कर रोक लिया कि हे मधुसूदन आपने रावण और कंस या किसी भी प्रमुख दैत्यराज का वध चक्र से नहीं किया है। आप चक्र को लौटा लीजिए। दैत्य मेरा परम भक्त है।
सोहागपुर में शंकर मंदिर के सामने एक प्रस्तर भुजा अभी भी पड़ी है जिसे बांणासुर की भुजा बताई जाती है। बांणासुर ने हाथ जोड़कर शिव से एक वरदान माँगा कि ऊषा-अनिरुद्ध से उत्पन्न उसका दौहित्य शोणितपुर पर राज्य करे। उसके बाद शिव कैलाश और कृष्ण द्वारका चले गए। यह कहानी इस तरफ़ संकेत करती है कि आर्य-अनार्य संस्कृतियों का सम्मिलन नर्मदा घाटी में घटित हो रहा था।
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#47 – आधा किलो आटा ☆ श्री आशीष कुमार☆
एक नगर का सेठ अपार धन सम्पदा का स्वामी था। एक दिन उसे अपनी सम्पत्ति के मूल्य निर्धारण की इच्छा हुई। उसने तत्काल अपने लेखा अधिकारी को बुलाया और आदेश दिया कि मेरी सम्पूर्ण सम्पत्ति का मूल्य निर्धारण कर ब्यौरा दीजिए, पता तो चले मेरे पास कुल कितनी सम्पदा है।
सप्ताह भर बाद लेखाधिकारी ब्यौरा लेकर सेठ की सेवा में उपस्थित हुआ। सेठ ने पूछा- “कुल कितनी सम्पदा है?” लेखाधिकारी नें कहा – “सेठ जी, मोटे तौर पर कहूँ तो आपकी सात पीढ़ी बिना कुछ किए धरे आनन्द से भोग सके इतनी सम्पदा है आपकी”
लेखाधिकारी के जाने के बाद सेठ चिंता में डूब गए, ‘तो क्या मेरी आठवी पीढ़ी भूखों मरेगी?’ वे रात दिन चिंता में रहने लगे। तनाव ग्रस्त रहते, भूख भाग चुकी थी, कुछ ही दिनों में कृशकाय हो गए। सेठानी द्वारा बार बार तनाव का कारण पूछने पर भी जवाब नहीं देते। सेठानी से हालत देखी नहीं जा रही थी। उसने मन स्थिरता व शान्त्ति के किए साधु संत के पास सत्संग में जाने को प्रेरित किया। सेठ को भी यह विचार पसंद आया। चलो अच्छा है, संत अवश्य कोई विद्या जानते होंगे जिससे मेरे दुख दूर हो जाय।
सेठ सीधा संत समागम में पहूँचा और एकांत में मिलकर अपनी समस्या का निदान जानना चाहा। सेठ नें कहा- “महाराज मेरे दुख का तो पार नहीं है, मेरी आठवी पीढ़ी भूखों मर जाएगी। मेरे पास मात्र अपनी सात पीढ़ी के लिए पर्याप्त हो इतनी ही सम्पत्ति है। कृपया कोई उपाय बताएँ कि मेरे पास और सम्पत्ति आए और अगली पीढ़ियाँ भूखी न मरे। आप जो भी बताएं मैं अनुष्ठान, विधी आदि करने को तैयार हूँ”
संत ने समस्या समझी और बोले- “इसका तो हल बड़ा आसान है। ध्यान से सुनो सेठ, बस्ती के अन्तिम छोर पर एक बुढ़िया रहती है, एक दम कंगाल और विपन्न। उसके न कोई कमानेवाला है और न वह कुछ कमा पाने में समर्थ है। उसे मात्र आधा किलो आटा दान दे दो। अगर वह यह दान स्वीकार कर ले तो इतना पुण्य उपार्जित हो जाएगा कि तुम्हारी समस्त मनोकामना पूर्ण हो जाएगी। तुम्हें अवश्य अपना वांछित प्राप्त होगा।”
सेठ को बड़ा आसान उपाय मिल गया। उसे सब्र कहां था, घर पहुंच कर सेवक के साथ कुन्तल भर आटा लेकर पहुँच गया बुढिया के झोपडे पर। सेठ नें कहा- “माताजी मैं आपके लिए आटा लाया हूँ इसे स्वीकार कीजिए”
बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा आटा तो मेरे पास है, मुझे नहीं चाहिए”
सेठ ने कहा- “फिर भी रख लीजिए”
बूढ़ी मां ने कहा- “क्या करूंगी रख के मुझे आवश्यकता नहीं है”
सेठ ने कहा- “अच्छा, कोई बात नहीं, कुन्तल नहीं तो यह आधा किलो तो रख लीजिए”
बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा, आज खाने के लिए जरूरी, आधा किलो आटा पहले से ही मेरे पास है, मुझे अतिरिक्त की जरूरत नहीं है”
सेठ ने कहा- “तो फिर इसे कल के लिए रख लीजिए”
बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा, कल की चिंता मैं आज क्यों करूँ, जैसे हमेशा प्रबंध होता है कल के लिए कल प्रबंध हो जाएगा” बूढ़ी मां ने लेने से साफ इन्कार कर दिया।
सेठ की आँख खुल चुकी थी, एक गरीब बुढ़िया कल के भोजन की चिंता नहीं कर रही और मेरे पास अथाह धन सामग्री होते हुए भी मैं आठवी पीढ़ी की चिन्ता में घुल रहा हूँ। मेरी चिंता का कारण अभाव नहीं तृष्णा है।
वाकई तृष्णा का कोई अन्त नहीं है। संग्रहखोरी तो दूषण ही है। संतोष में ही शान्ति व सुख निहित है।
(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गीजी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)
☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग – 14 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆
(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)
(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )
इतने साल के अथक परिश्रम, तपश्चर्या के बाद जिस सुवर्ण काल की राह देखती थी, वही वक्त आज मेरे सपने में आ गया है। मैंने भरतनाट्यम जैसे कठिन नृत्य प्रकार में एम.ए. की पदवी संपादन करके ‘मास्टर्स’ की उपाधि प्राप्त की थी। यही क्षण मेरे माता-पिता जी, घर के सभी लोग, गोखले चाची, श्रद्धा और मेरी अनेक सहेलियां, सबके लिए हमेशा के लिए ध्यान में रखने का क्षण था। आनंद का समय था, सफलता का क्षण था।
एम.ए की पदवी प्राप्त करने के बाद मेरा व्यक्तित्व बदल गया। सच तो यह है कि- इस अवस्था में परिस्थिति से जूझते जूझते घर के कोने में बैठ जाती थी। माता-पिता जी की हमेशा की चिंता बन कर रह जाती थी। फिर भी इस आफत से दूर जाकर मैंने यशस्विता प्राप्त कर ली थी।
बहुत पाठशालाओं, महिला मंडल, रोटरॅक्ट क्लब, लायन्स क्लब से मुझे नृत्य के कार्यक्रमों का बुलावा आता था। समाज में मेरी पहचान को ‘अंध शिल्पा’ न रहकर ‘नृत्यांगना’ नाम से पुकारा जाता था। मेरे रास्ते में भाग्य से कलाकार का आयुष्य आ गया। उसे पहचाना जाने लगा।
हमेशा कार्यक्रम, ड्रेसअप, मेकअप, हेयर स्टाइल, अलंकार पहनना, पांव में घुँघरू बांधना, कार्यक्रम स्थल पर वक्त पर पहुंचना, इसमें मुझे बहुत खुशी मिलती थी। घुंघरू के मधुर मंजुळ नाद से मुझे जीवन का अनोखा संगीत प्राप्त हुआ। तालियों की आवाज, अभिप्राय, लोगों की मेरे पीठ पर अभिमान से थपथपाई हुई आवाज, लोगों ने मेरे रंगमंच से नीचे उतरते ही प्रसन्नता से हाथ में हाथ लेकर मुझे ऊंचाई पर बिठाना, इन सब बातों से मैं हर्षित हो गई। मेरे जीवन को बहुत ऊंचाई पर ले गए। मेरे गौरव के कारण मां और पिताजी के चेहरे पर खुशियां, समाधान, शांति दिखाई देती थी।
भरतनाट्यम में एम.ए. पदवी प्राप्त करना मेरे लिए और ताई की तपश्चर्या का लंबा काल था, प्रवास था। उसकी फलश्रुति के रूप में पदवी का सुंदर सुहाना फल मिला था। इस आनंद को प्रकट करने के लिए माताजी पिताजी ने कुटुंब उत्सव करने का तय किया। वह दिन मेरे लिए ‘न भूतो न भविष्यति’ ऐसा ही था। इस कार्यक्रम में मेरे सारे परिवारजन, घर के लोग, आपटे कुटुंब, सुपरिचित सब लोगों को निमंत्रित किया था। इन सब लोगों के सामने मैंने मेरी कला भी सादर की थी, सभी लोग नृत्य का आनंद ले रहे थे।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख यह भी गुज़र जाएगा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 88 ☆
☆ यह भी गुज़र जाएगा ☆
‘गुज़र जायेगा यह वक्त भी/ ज़रा सब्र तो रख/ जब खुशी ही नहीं ठहरी/ तो ग़म की औक़ात क्या?’ गुलज़ार की उक्त पंक्तियां समय की निरंतरता व प्रकृति की परिवर्तनशीलता पर प्रकाश डालती हैं। समय अबाध गति से निरंतर बहता रहता है; नदी की भांति प्रवाहमान् रहता है, जिसके माध्यम से मानव को हताश-निराश न होने का संदेश दिया गया है। सुख-दु:ख व खुशी-ग़म आते-जाते रहते हैं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। मुझे याद आ रही हैं स्वरचित पंक्तियां ‘दिन रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ-साथ/ फूल और पात बदलते हैं अर्थात् समयानुसार दिन-रात, हालात व मौसम के साथ फूल व पत्तियों का बदलना अवश्यंभावी है। प्रकृति के विभिन्न उपादान धरती, सूर्य, चंद्रमा, तारे आदि निरंतर परिक्रमा लगाते रहते हैं; गतिशील रहते हैं। सो! वे कभी भी विश्राम नहीं करते। मानव को नदी की प्रवाहमयता से निरंतर बहने व कर्म करने का संदेश ग्रहण करना चाहिए। परंतु यदि उसे यथासमय कर्म का फल नहीं मिलता, तो उसे निराश नहीं होना चाहिए; सब्र रखना चाहिए। ‘श्रद्धा-सबूरी’ पर विश्वास रख कर निरंतर कर्मशील रहना चाहिए, क्योंकि जब खुशी ही नहीं ठहरी, तो ग़म वहां आशियां कैसे बना सकते हैं? उन्हें भी निश्चित समय पर लौटना होता है।
‘आप चाह कर भी अपने प्रति दूसरों की धारणा नहीं बदल सकते,’ यह कटु यथार्थ है। इसलिए ‘सुक़ून के साथ अपनी ज़िंदगी जीएं और खुश रहें’– यह जीवन के प्रति सकारात्मक सोच को प्रकट करता है। समय के साथ सत्य के उजागर होने पर लोगों के दृष्टिकोण में स्वत: परिवर्तन आ जाता है, क्योंकि सत्य सात परदों के पीछे छिपा होता है; इसलिए उसे प्रकाश में आने में समय लगता है। सो! सच्चे व्यक्ति को स्पष्टीकरण देने की कभी भी दरक़ार नहीं होती। यदि वह अपना पक्ष रखने में दलीलों का सहारा लेता है तथा अपनी स्थिति स्पष्ट करने में प्रयासरत रहता है, तो उस पर अंगुलियाँ उठनी स्वाभाविक हैं। यह सर्वथा सत्य है कि सत्य को हमेशा तीन चरणों से गुज़रना पड़ता है… ‘उपहास, विरोध व अंततः स्वीकृति।’ सत्य का कभी मज़ाक उड़ाया जाता है, तो कभी उसका विरोध होता है…परंतु अंतिम स्थिति है स्वीकृति, जिसके लिए आवश्यकता है– असामान्य परिस्थितियों, प्रतिपक्ष के आरोपों व व्यंग्य-बाणों को धैर्यपूर्वक सहन करने की क्षमता की। समय के साथ जब प्रकृति का क्रम बदलता है… दिन-रात, अमावस-पूनम व विभिन्न ऋतुएं, निश्चित समय पर दस्तक देती हैं, तो उनके अनुसार हमारी मन:स्थिति में परिवर्तन होना भी स्वाभाविक है। इसलिए हमें इस तथ्य में विश्वास रखना चाहिए कि यह परिस्थितियां व समय भी बदल जायेगा; सदा एक-सा रहने वाला नहीं। समय के साथ तो सल्तनतें भी बदल जाती हैं, इसलिए संसार में कुछ भी सदा रहने वाला नहीं। सो! जिसने संसार में जन्म लिया है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है। इसके साथ-साथ आवश्यकता है मनन करने की… ‘ इंसान खाली हाथ आया है और उसे जाना भी खाली हाथ है, क्योंकि कफ़न में कभी जेब नहीं होती।’ इसी प्रकार गीता का भी यह सार्थक संदेश है कि मानव को किसी वस्तु के छिन जाने का ग़म नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसने जो भी पाया व कमाया है, वह यहीं से लिया है। सो! वह उसकी मिल्कियत कैसे हो सकती है? फिर उसे छोड़ने का दु:ख कैसा? सो! हमें सुख-दु:ख से उबरना है, ऊपर उठना है। हर स्थिति में संभावना ही जीवन का लक्ष्य है। इसलिए सुख में आप फूलें नहीं, अत्यधिक प्रसन्न न रहें और दु:ख में परेशान न हों…क्योंकि इनका चोली-दामन का साथ है। एक के जाने के पश्चात् ही दूसरे का पदार्पण होना स्वाभाविक है। इसमें एक अन्य भाव भी निहित है कि जो अपना है, वह हर हाल में मिल कर रहेगा और जो अपना नहीं है, लाख कोशिश करने पर भी मिलेगा नहीं। वैसे भी सब कुछ सदैव रहने वाला नहीं; न ही साथ जाने वाला है। सो! मन में यह धारणा बना लेनी आवश्यक है कि ‘समय से पूर्व व भाग्य से अधिक कुछ मिलने वाला नहीं।’ कबीरदास जी का यह दोहा ‘माली सींचै सौ घड़ा, ऋतु आय फल होइ’…. समय की महत्ता व प्रकृति की निरंतरता पर प्रकाश डालता है।
समय का पर्यायवाची आने वाला कल अथवा भविष्य ही नहीं, वर्तमान है। ‘काल करे सो आज कर. आज करे सो अब/ पल में प्रलय होयेगी, मूरख करेगा कब’ में भी यही भाव निर्दिष्ट है कि कल कभी आएगा नहीं। वर्तमान ही गुज़रे हुए कल अथवा अतीत में परिवर्तित हो जाता है। सो! आज अथवा वर्तमान ही सत्य है। इसलिए हमें अतीत के मोह को त्याग, वर्तमान की महत्ता को स्वीकार, आगामी कल को सुंदर, सार्थक व उपयोगी बनाना चाहिए। दूसरे शब्दों में ‘कल’ का अर्थ है– मशीन व शांति। आधुनिक युग में मानव मशीन बन कर रह गया है। सो! शांति उससे कोसों दूर हो गयी है। वैसे शांत मन में ही सृष्टि के विभिन्न रहस्य उजागर होते हैं, जिसके लिए मानव को ध्यान का आश्रय लेना पड़ता है।
ध्यान-समाधि की वह अवस्था है, जब हमारी चित्त-वृत्तियां एकाग्र होकर शांत हो जाती हैं। इस स्थिति में आत्मा-परमात्मा का तादात्म्य हो जाता है और उसका संबंध संसार व प्राणी-जगत् से कट जाता है; उसके हृदय में आलोक का झरना फूट निकलता है। इस मन:स्थिति में वह संबंध-सरोकारों से ऊपर उठ जाता है तथा वह शांतमना निर्लिप्त-निर्विकार भाव से सरोवर के शांत जल में अवगाहन करता हुआ अनहद-नाद में खो जाता है, जहां भाव-लहरियाँ हिलोरें नहीं लेतीं। सो! वह अलौकिक आनंद की स्थिति कहलाती है।
आइए! हम समय की सार्थकता पर विचार- विमर्श करें। वास्तव में हरि-कथा के अतिरिक्त, जो भी हम संवाद-वार्तालाप करते हैं; वह जग-व्यथा कहलाती है और निष्प्रयोजन होती है। सो! हमें अपना समय संसार की व्यर्थ की चर्चा में नष्ट नहीं करना चाहिए, क्योंकि गुज़रा हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता। इसलिए हमें उसका शोक भी नहीं मनाना चाहिए। वैसे भी यह कहावत प्रसिद्ध है कि ‘नया नौ दिन, पुराना सौ दिन’ अर्थात् ‘ओल्ड इज़ गोल्ड’… पुरातन की महिमा सदैव रहती है। यदि सोने के असंख्य टुकड़े करके कीचड़ में फेंक दिये जाएं, तो भी उनकी चमक बरक़रार रहती है; कभी कम नहीं होती है और उनका मूल्य भी वही रहता है। सो! हम में समय की धारा की दिशा को परिवर्तित करने का साहस होना चाहिए, जो सबके साथ रहने से, मिलकर कार्य को अंजाम देने से आता है। संघर्ष जीवन है…वह हमें आपदाओं का सामना करने की प्रेरणा देता है; समाज को आईना दिखाता है और गलत-ठीक व उचित-अनुचित का भेद करना भी सिखाता है। इसलिए समय के साथ स्वयं को बदल लेना ही श्रेयस्कर है। जो लोग प्राचीन परंपराओं को त्याग, नवीन मान्यताओं को अपना कर जीवन-पथ पर अग्रसर नहीं होते; पीछे रह जाते हैं… ज़माने के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल सकते तथा उन्हें व उनके विचारों को मान्यता भी प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए संतोष रूपी रत्न को धारण कर, जीवन से नकारात्मकता को निकाल फेंके, क्योंकि संतोष रूपी धन आ जाने के पश्चात् सांसारिक धन-दौलत धूलि के समान निस्तेज, निष्फल व निष्प्रयोजन भासती है; शक्तिहीन व निरर्थक लगती है और उसकी जीवन में कोई अहमियत नहीं रहती। इसलिए हमें जीवन में किसी के आने और भौतिक वस्तुओं व सुख-सुविधाओं के मिल जाने पर खुश नहीं होना चाहिए और उसके अभाव में दु:खी होना भी बुद्धिमत्ता नहीं है, क्योंकि सुख-दु:ख का एक स्थान पर रहना असंभव है, नामुमक़िन है… यही जीवन का सार है।
(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका ऐतहासिक, ज्ञानवर्धक एवं रोचक आलेख “भारत का प्रमुख ऐतिहासिक एवं महत्त्वपूर्ण नगर ‘जबलपुर’”.)
☆ किसलय की कलम से # 40 ☆
☆ भारत का प्रमुख ऐतिहासिक एवं महत्त्वपूर्ण नगर ‘जबलपुर’ ☆
मध्य प्रदेश में स्थित जबलपुर विशाल भारत के प्रमुख ऐतिहासिक एवं महत्वपूर्ण नगरों में से एक है। आचार्य विनोबा भावे द्वारा ‘संस्कारधानी‘ नाम से विभूषित जबलपुर शब्द की उत्पत्ति के संबंध में इसको जाउलीपत्तन का अपभ्रंश माना जा सकता है जो कि कल्चुरी नरेश जयसिंह के ताम्रलेख के अनुसार एक मण्डल था। जाबालि ऋषि की तपोभूमि होने के कारण इसे जाबालीपुरम् से भी जोड़ा जाता है। जबलपुर एवं इसका निकटवर्ती प्रक्षेत्र ऐतिहासिक, दार्शनिक, राजनैतिक, साहित्यिक एवं सामरिक दृष्टि से अपना विशेष महत्त्व रखता है।
प्राकृतिक सुन्दरता की गोद में बसे जबलपुर की दक्षिण – पश्चिम दिशा में बहती पावन नर्मदा एवं दूर तक दृष्टिगोचर होती पर्वत श्रृंखलाओं के फलस्वरूप इस नगर की सुन्दरता में एक अनोखा सामंजस्य बन गया है। भेड़ाघाट में संगमरमरी चट्टानों की सुरम्य घाटियों के दृश्य देखते हुए लोगों की आँखें आश्चर्य चकित हो जाती हैं। पास ही प्रकृति की अनोखी धरोहर ‘धुआँधार‘ नामक जलप्रपात के रूप में दिखाई देता है।
यहीं पहाड़ी पर बना चौसठ योगिनी का मन्दिर प्राचीन शिल्पकला का अनूठा उदाहरण है। एक चक्र के आकार में 86 से भी अधिक देवी, देवताओं एवं योगिनियों की मूर्तियों में अद्भुत शिल्पकला के दर्शन होते हैं। भेड़ाघाट के समीप ही नर्मदा के लम्हेटाघाट में पाई जाने वाली चट्टानें विश्व की प्राचीनतम् चट्टानों में गिनी जाती हैं। भूगर्भशास्त्रियों द्वारा इनकी प्राचीनता लगभग 50 लाख वर्ष बताई गई है जिन्हें विश्व की भूगर्भीय भाषा में लम्हेटाईट नाम से जाना जाता है। जबलपुर की पश्चिम दिशा में भेड़ाघाट रोड पर स्थित वर्तमान तेवर ही कल्चुरियों की राजधानी त्रिपुरी है जो कि शिशुपाल चेदि राज्य का वैभवशाली नगर था। इसी त्रिपुरी के त्रिपुरासुर नामक राक्षस का वध करने के कारण ही भगवान शिव का नाम ‘त्रिपुरारि‘ पड़ा।
गांगेय पुत्र कल्चुरी नरेश कर्णदेव एक प्रतापी शासक हुए, जिन्हें ‘इण्डियन नेपोलियन‘ कहा गया है। उनका साम्राज्य भारत के वृहद क्षेत्र में फैला हुआ था। सम्राट के रूप में दूसरी बार उनका राज्याभिषेक होने पर उनका कल्चुरी संवत प्रारंभ हुआ। कहा जाता है कि शताधिक राजा उनके शासनांतर्गत थे।
कल्चुरियों के पश्चात गौंड़ वंश का इतिहास सामने आता है और गढ़ा-मण्डला की वीरांगना रानी दुर्गावती की वीरता तथा देशभक्ति याद आती है। मुगलों से लड़ते हुए उनके पुत्र वीरनारायण की शहादत एवं अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए स्वयं के प्राणोत्सर्ग की घटना दुर्लभ कही जा सकती है। महारानी दुर्गावती के पूर्व मदनशाह की स्मृति में सुरम्य पहाड़ियों के मध्य बना मदन महल हो अथवा रानी दुर्गावती नाम का रानीताल, दुर्गावती के सेनापति अधार सिंह के नाम से अधारताल, श्वसुर संग्राम शाह के नाम से संग्राम सागर,, चेरी अर्थात दासी की स्मृतियों में बने चेरीताल के रूप में आज भी गौड़ वंश की स्मृतियाँ जीवित हैं। गौंड़ साम्राज्य चार भागों में बँटा हुआ था। उत्तर प्रान्त की राजधानी सिंगौरगढ, दक्षिण-पूर्व की मण्डला, पश्चिम की चौरागढ़ तथा मध्य की गढ़ा राजधानी थी। गढ़ा समस्त साम्राज्य का केन्द्र था।
स्वतंत्रा संग्राम की लड़ाई में भी जबलपुर का सक्रिय योगदान रहा है। भारत में झण्डा आंदोलन का सूत्रपात जबलपुर से ही हुआ था। जबलपुर वासियों की स्वतंत्रता के प्रति सक्रयिता का ही परिणाम था कि सन् 1939 में अखिल भारतीय कांग्रेस का 52 वाँ ‘त्रिपुरी कांग्रेस अधिवेशन’ जबलपुर में हुआ था। ज्ञातव्य है कि इस अधिवेशन में महात्मा गांधी समर्थित पट्टाभि सीतारमैया को हराकर सुभाष चन्द्र बोस के राष्ट्रीय कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने पर गांधी जी और उनके बीच मतभेद की परिणति सुभाष बाबू के फारवर्ड ब्लाक के गठन के रूप में हुई, जिसकी स्वतंत्रता संग्राम में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। ऐतिहासिक दृष्टि यह बात भी सदैव याद की जाएगी कि श्री सुभाष चन्द्र बोस स्वतंत्रा आंदोलन में जबलपुर सेन्ट्रल जेल में भी रहे हैं।
‘खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी‘ कविता की रचयिता सुभद्रा कुमारी चौहान, व्यंग्य विधा के जनक हरिशंकर परसाई जैसे साहित्यकारों की नगरी जबलपुर में ख्यातिलब्ध व्यक्तित्वों की कमी नहीं रही। मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्र, मध्य प्रदेश विधान सभा के अध्यक्ष कुंजीलाल दुबे, सेठ गोविन्ददास, राजर्षि परमानन्द भाई पटेल, राजस्थान के पूर्व राज्यपाल निर्मल चंद जैन, साहित्य मनीषी रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल‘ एवं मध्य प्रदेश विधान सभा अध्यक्ष श्री ईश्वरदास रोहाणी का नाम कौन नहीं जानता।
जबलपुर की माटी और संस्कृति में पल्लवित आचार्य रजनीश (ओशो) एवं महर्षि महेश योगी विश्वविख्यात विभूतियाँ हैं। सम्पूर्ण भारत के डाकतार विभाग में पिन कोड अर्थात पोस्टल इन्डेक्स नंबर की प्रणेता भी जबलपुर की ही श्रीमती चौरसिया थीं। मध्य प्रदेश राज्य की विद्युत कंपनियों के मुख्यालय, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय, पश्चिम-मध्य रेलवे जोन मुख्यालय, जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय एवं आयुध निर्माणियों का यह नगर देश में अपना विशेष स्थान रखता है।
उपनगरीय क्षेत्र गढ़ा में पर्वत श्रृंखला पर स्थित जैन मंदिर समूह एवं नीचे नंदीश्वर द्वीप सहित कांग्रेस अधिवेशन की स्मृति में निर्मित गांधी स्मारक कमानिया गेट, त्रिपुरी कांग्रेस स्मारक, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय भवन, गोकुलदास धर्मशाला आदि इमारतें आज भी वैभव एवं वास्तुकला के प्रमाण हैं। सुभाष चन्द्र बोस, विनोबा भावे, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरु की अनेक प्रवासों की स्मृतियाँ संजोए जबलपुर आज भी राजनीति, साहित्य और संस्कारों की निजी पहचान बनाए हुए हैं।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे”। )
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण कविता “कहाँ गई नन्ही गौरैया”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)