हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 89 ☆ कानून, शिक्षा और संस्कार ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख कानून, शिक्षा, संस्कार। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 89 ☆

☆ कानून, शिक्षा और संस्कार ☆

कानून, शिक्षा व संस्कार/ समाज से नदारद हो चुके हैं सब/ जी हां! यही है आज का सत्य। बेरोज़गारी, नशाखोरी, भ्रूण-हत्या के कारण लिंगानुपात में बढ़ रही असमानता; संबंधों की गरिमा का विलुप्त होना; गुरु-शिष्य के पावन संबंधों पर कालिख़ पुतना; राजनीतिक आक़ाओं का अपराधियों पर वरदहस्त होना… हैवानियत के हादसों में इज़ाफा करता है। औरत को मात्र वस्तु समझ कर उसका उपभोग करना…पुरुष मानसिकता पर कलंक है, क्योंकि ऐसी स्थिति में वह मां, बहन, बेटी, पत्नी आदि के रिश्तों को नकार उन्हें मात्र सेक्स ऑब्जेक्ट स्वीकारता है।

शिक्षा मानव के व्यक्तित्व का विकास करती है और किताबी शिक्षा हमें रोज़गार प्राप्त करने के योग्य बनाती है; परंतु संस्कृति हमें सुसंस्कृत करती है; अंतर्मन में दिव्य गुणों को विकसित व संचरित करती है; जीने की राह दिखाती है; हमारा मनोबल बढ़ाती है। परंतु प्रश्न उठता है– आज की शिक्षा-प्रणाली के बारे में….क्या वह आज की पीढ़ी को यथार्थ रूप से शिक्षित कर पा रही है? क्या बच्चे ‘हैलो-हाय’ व ‘जीन्स- कल्चर’ की संस्कृति से विमुख होकर भारतीय संस्कृति को अपना रहे हैं? क्या वे गुरु-शिष्य परंपरा व बुज़ुर्गों को यथोचित मान-सम्मान देना सीख पा रहे हैं? क्या उन्हें अपने धर्म में आस्था है? क्या वे सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की अवधारणा व निष्काम कर्म की अहमियत से वाक़िफ़ हैं? क्या वे प्रेम, अहिंसा व अतिथि देवो भव: की परंपरा को जीवन-मूल्यों के रूप में स्वीकार रहे हैं? क्या जीवन के प्रति उनकी सोच सकारात्मक है?

यदि आधुनिक युवाओं में उपरोक्त दैवीय गुण हैं, तो वे शिक्षित है, सुसंस्कृत हैं, अच्छे इंसान हैं…वरना वे शिक्षित होते हुए भी अनपढ़, ज़ाहिल, गंवार व असभ्य हैं और समाज के लिए कोढ़-सम घातक हैं। वास्तव में उनकी तुलना दीमक के साथ की जा सकती है, क्योंकि दोनों में व्यवहार-साम्य है… जैसे दीमक विशालकाय वृक्ष व इमारत की मज़बूत चूलों को हिला कर रख देती है; वैसे ही पथ-भ्रष्ट, नशे की गुलाम युवा-पीढ़ी परिवार व समाज रूपी इमारत को ध्वस्त कर देती है। इसी प्रकार ड्रग्स आदि नशीली दवाएं भी जोंक के समान उसके शरीर का सारा सत्व नष्ट कर उसे जर्जर-दशा तक पहुंचा रही हैं। परिणामत: उन युवाओं की मानसिक दशा इस क़दर विक्षिप्त हो जाती है कि वे स्वयं को किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में पाते हैं तथा उचित निर्णय लेने में स्वयं को अक्षम पाते हैं।

संस्कारहीन युवा पीढ़ी समाज पर बोझ है; मानवता पर कलंक है; जो हंसते-खेलते, सुखी-समृद्ध परिवार की खुशियों को लील जाती है और उसे पतन की राह पर धकेल देती है। सो! उन्हें उचित राह पर लाने अर्थात् उनका सही मार्गदर्शन करने में हमारे वेद- शास्त्र, माता-पिता, शिक्षक व धर्मगुरु भी असमर्थ रहते हैं। उस स्थिति में उनके लिए कानून-व्यवस्था है; जिसके अंतर्गत उन्हें अच्छा नागरिक बनने को प्रेरित किया जाता है; अच्छे-बुरे, ग्राह्य-त्याज्य व उचित-अनुचित के भेद से अवगत कराया जाता है तथा कानून की पालना न करने पर दण्डित किया जाना उसकी अनिवार्य शर्त है। प्रत्येक व्यक्ति को अधिकारों के साथ-साथ कर्त्तव्य-बोध करवाया जाना आवश्यक है, ताकि समाज व देश में स्नेह- सौहार्द, शांति व सुव्यवस्था कायम रह सके।

मुझे यह स्वीकारने में तनिक भी संकोच नहीं कि ‘संस्कारों के बिना हमारी व्यवस्था पंगु है, मूल्यहीन है, निष्फल है, क्योंकि जब तक मानव में आस्था व विश्वास भाव जाग्रत नहीं होगा; वह तर्क-कुतर्क में उलझता रहेगा और उस पर किसी भी अच्छी बात का प्रभाव नहीं पड़ेगा। वैसे भी कानून अंधा है; साक्ष्यों पर आधारित है और उनके अभाव में अपराधियों को दंड मिल पाना असंभव है। इसी कारण अक्सर अपराधी दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराध करने के पश्चात् भी छूट जाते हैं और स्वच्छंद रूप में विचरण करते रहते हैं… अगला ग़ुनाह करने की फ़िराक में और उसे अंजाम देने में वे तनिक भी संकोच नहीं करते। परिणामत: पीड़ित पक्ष के लोग न्याय से वंचित रह जाते हैं और उन्हें विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। अपराधी बेखौफ़ घूमते रहते हैं और पीड़िता के माता-पिता ही नहीं; सगे-संबंधी भी मनोरोगी हो जाते हैं… डिप्रेशन के शिकार हो जाते हैं। अक्सर निर्दोष होते हुए भी उन पर दोषारोपण कर विभिन्न आपराधिक धाराओं के अंतर्गत जेल की सीखचों के पीछे धकेल दिया जाता है, जिसके अंतर्गत उन्हें अपने जीवन से हाथ धोना पड़ता है।

यह सब देख कर अपराधियों के हौसले बुलंद हो जाते हैं और वे अपराध-जगत् के शिरोमणि बनकर पूरे समाज में दबदबा कायम रखते हैं। आज मानव को आवश्यकता है…. सुसंस्कारों की, जीवन-मूल्यों के प्रति अटूट आस्था व विश्वास की, ताकि वे शिक्षा ग्रहण कर ‘सर्वहिताय’ के भाव से समाज व देश के सर्वांगीण विकास में योगदान प्रदान कर सकें… जहां समन्वय हो, सामंजस्य हो, समरसता हो और आमजन स्वतंत्रता-पूर्वक अपना जीवन बसर कर सकें। सो! उन पर कानून रूपी अंकुश लगाने की दरक़ार ही न हो। यदि फिर भी समाज में अव्यवस्था व्याप्त हो; विषमता व विसंगति हो और संवेदनशून्यता हावी हो, तो हमें भी सऊदी अरब देशों की भांति कठोर कानूनों को अपनाने की आवश्यकता रहेगी, ताकि अपराधी ग़ुनाह करने से पूर्व, उसके अंजाम के बारे में अनेक बार सोच-विचार करें

जब तक देश में कठोरतम कानून नहीं बनाया जाता, तब तक ‘भ्रूण-हत्या व बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा बेमानी अथवा मात्र जुमला बनकर रह जाएगा। ऐसे निर्मम, कठोर, हृदयहीन अपराधियों पर नकेल कसने के साथ उन्हें चौराहे पर फांसी के तख्ते पर लटका दिया जाना ही उसका सबसे उत्तम व सार्थक विकल्प है। वर्षों तक आयोग गठित कर, मुकदमों की सुनवाई व बहस में समय और पैसा नष्ट करना निष्प्रयोजन है। बहन-बेटियों पर कुदृष्टि रखने वालों से आतंकवादियों से भी अधिक सख्ती से निपटने का प्रावधान होना चाहिए।

हां! बच्चे हों या युवा– यदि वे अमानवीय कृत्यों में लिप्त पाये जाएं; तो उनके अभिभावकों के लिए भी सज़ा का प्रावधान होना चाहिए तथा महिलाओं को आत्म-निर्भर बनाने व महिला-सुरक्षा के निमित्त बजट की राशि में इज़ाफ़ा होना चाहिए, ताकि महिलाएं समाज में स्वयं को सुरक्षित अनुभव कर, स्वतंत्रता से विचरण कर सकें…खुली हवा में सांस ले सकें। इस संदर्भ में शराब के ठेकों को बंद करना, नशे के उत्पादों पर प्रतिबंध लगाना–सरकार के प्राथमिक दायित्व के रूप में स्वीकारा जाना चाहिए।

बेटियों में हुनर है। वे हर क्षेत्र में अपने कदम बढ़ा रही हैं और हर मुक़ाम पर सफलता अर्जित कर रही हैं। हमें उनकी प्रतिभा को कम नहीं आंकना चाहिए, बल्कि सुरक्षित वातावरण प्रदान करना चाहिए, ताकि उनकी प्रतिभा का विकास हो सके तथा वे निरंकुश होकर सुक़ून से जी सकें। यही होगी हमारी उन बेटियों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि… जो निर्भया के रूप में दरिंदगी की शिकार होकर; अपने प्राणों की आहुति दे चुकी हैं। आइए! हम भी इस पावन यज्ञ में यथासंभव समिधा डालें और सुंदर, स्वस्थ, सुरम्य व सभ्य समाज के विकास में योगदान दें; जहां संवेदनहीनता का लेशमात्र भी अस्तित्व न हो।

यह तो सर्वविदित तथ्य है कि संविधान में महिलाओं को समानाधिकार प्रदान किए गए हैं; परंतु वे कागज़ की फाइलों में बंद हैं। जैसे-जैसे सभ्यता का विकास हो रहा है, निर्भयाओं की संख्या बढ़ती जा रही है, क्योंकि अपराधियों के नये-नये संगठन अस्तित्व में आ रहे हैं। वे ग़िरोह में आते हैं; लूटपाट कर बर्बरता से दुष्कर्म कर, उन्हें बीच राह फेंक जाते हैं। सामान्य-जन उन दहशतगर्दों से डरते हैं, क्योंकि वे किसी के प्राण लेने में ज़रा भी संकोच नहीं करते। भले ही सरकार ने दुष्कर्म के अपराधियों के लिए फांसी की सज़ा का ऐलान किया है, परन्तु कितने लोगों को मिल पाती है, उनके दुष्कर्मों की सज़ा? प्रमाण आपके समक्ष है…निर्भया के केस की सवा सात वर्ष तक जिरह चलती रही। कभी माननीय राष्ट्रपति से सज़ा-मुआफ़ी की अपील; तो कभी बारी-बारी से क्यूरेटिव याचिका लगाना; अमुक मुकदमे का विभिन्न अदालतों में स्थानांतरण और फैसले की रात को अढ़ाई बजे तक साक्ष्य जुटाने का सिलसिला जारी रहने के पश्चात् अपराधियों को सज़ा-ए-मौत का फरमॉन एवं तत्पश्चात् उसकी अनुपालना… क्या कहेंगे इस सारी प्रक्रिया को आप… कानून का लचीलापन या अवमानना?

यह तो सर्वविदित है कि कोरे वादों व झूठे आश्वासनों से कुछ भी संभव नहीं हो सकेगा। यदि हम सब एकजुट होकर ऐसे परिवारों का सामाजिक बहिष्कार कर, उन्हें उनकी औलाद के भीतर का सत्य दिखाएं, तो शायद! उनकी अंतरात्मा जाग उठे और वे पुत्र-मोह त्याग कर उसे अपनी ज़िंदगी से बे-दखल कर दें। परंतु यदि ऐसे हादसे निरंतर घटित होते रहेंगे… तो लोग बेटियों की जन्म लेने से पहले ही इस आशंका से उनकी हत्या कर देंगे…कहीं भविष्य में ऐसे वहशी दरिंदे उन मासूमों को अपनी हवस का शिकार बनाने के पश्चात् निर्दयता से उन्हें मौत के घाट न उतार दें और स्वयं बेखौफ़ घूमते रहें।

वैसे भी आजकल दुष्कर्मियों की संख्या में बेतहाशा इज़ाफ़ा हो रहा है। देश के कोने-कोने में कितनी निर्भया दरिंदगी की शिकार हो चुकी हैं और कितनी निर्भया अपनी तक़दीर पर जीवन भर आंसू बहाने को विवश हैं, बाध्य हैं। यह बताते हुए मस्तक लज्जा-नत जाता है और वाणी मूक हो जाती है कि हर दिन असंख्य मासूम अधखिली कलियों को विकसित होने से पहले ही रौंद कर, उनकी हत्या कर दी जाती है। हमारा देश ही नहीं, पूरा विश्व किस पायदान पर खड़ा है… यह सब बखान करने की शब्दों में सामर्थ्य कहाँ?

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 41 ☆ वृद्धावस्था आज भी बड़ी समस्या है ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका  एक अत्यंत विचारणीय आलेख  “वृद्धावस्था आज भी बड़ी समस्या है”.)

☆ किसलय की कलम से # 41 ☆

☆ वृद्धावस्था आज भी बड़ी समस्या है ☆

 प्रायः यह देखा गया है कि हमारे समाज में वृद्धों की स्थिति अधिकांशतः दयनीय ही होती है, भले ही वे कितने ही समृद्ध एवं सभ्य क्यों न हों। उनकी संतानें उनके सभी दुख-सुख एवं उनकी समस्याओं का निराकरण नहीं कर पाते, मैं ये नहीं बताना चाहता कि इनके पीछे कौन-कौन से तथ्य हो सकते हैं। जिस वस्तु की उन्हें आवश्यकता होती है या उनका मन चाहता है, वे आसानी से प्राप्त नहीं कर पाते, तब उनके मन एवं मस्तिष्क में उस कमी के कारण चिंता के बीज अंकुरित होने लगते हैं। ये उनके के लिए घातक सिद्ध होते हैं। वैसे भी आधुनिक युग में वृद्ध अपनी जिंदगी से काफ़ी पहले ऊब जाते हैं। अधिकतर वृद्धों के चेहरों पर मुस्कराहट या चिकनाहट रह ही नहीं पाती। उनका गंभीर चेहरा उनके स्वयं की अनेक अनसुलझी समस्याओं का प्रतीक-सा बन जाता है। उनकी एकांतप्रियता दुखी हृदय की ही द्योतक होती है।

इस तरह की परिस्थितियाँ वृद्धावस्था में ही क्यों आती हैं? बचपन और जवानी के दिनों में क्यों नहीं आतीं ? इनके बहुत से कारणों को आसानी से समझा जा सकता है। बचपन में संतानें माता-पिता पर आश्रित रहती हैं। उनका पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा एवं नौकरी-चाकरी तक माँ-बाप लगवा देते हैं। इतने लंबे समय तक बच्चों को किसी भी प्रकार की कमी नहीं होती। प्रत्येक चाही-अनचाही आवश्यकताओं की पूर्ति माता-पिता ही करते हैं। बच्चे जवानी की दहलीज़ पर पहुँचते-पहुँचते अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं और अपने परिवार का भी दायित्व निर्वहन करने में सक्षम हो जाते हैं। अपनी इच्छानुसार अनेक मदों में धन का व्यय करके अपनी अधिकांश आवश्यकताएँ पूरी करते रहते हैं।

इन्हीं परिस्थितियों एवं समय में वही परंपरागत वृद्धावस्था की समस्या अंकुरित होने लगती है। जब वृद्ध माता-पिता के खान-पान, उनकी उचित देख-रेख और उनके सहारे की अनिवार्य आवश्यकता होती है, इन परिस्थितियों में वे संतानें जिन्हें रात-रात भर जागकर और खुद ही इनके मूत्र भरे गीले कपड़ों में लेटे रहकर इन्हें सूखे बिस्तर में सुलाया। इनका पालन-पोषण और प्रत्येक इच्छाओं को पूरा करते हुए पढ़ाया-लिखाया फिर रोज़ी-रोटी से लगाया  उनका विवाह कराया, उनके हिस्से के सारे दुखों को खुद सहा और वह केवल इसलिए की वे खुश रहें और वृद्धावस्था में उनका सहारा बनें, परंतु आज की अधिकतर कृतघ्न संतानें अपने माता-पिता से नफ़रत करने लगती हैं। उनकी सेवा-सुश्रूषा से दूर भागने लगती हैं। उनकी छोटी-छोटी सी अनिवार्य आवश्यकताओं को भी पूरी करने में रुचि नहीं दिखातीं। ऐसी संतानों को क्या कहा जाए जो उनसे ही जन्म लेकर अपने फ़र्ज़ को निभाने में कोताही करते हैं। उनकी अंतिम घड़ियों में उनकी आत्मा को शांति नहीं पहुँचातीं।

आज ऐसी शिक्षा कि आवश्यकता है जिसमें माता-पिता के लिए भावनात्मक एवं कृतज्ञता की विषयवस्तु का समावेश हो। आवश्यकता है पाश्चात्य संस्कृति के उन पहलुओं से बचने की जिनकी नकल करके हम अपने माता-पिता की भी इज़्ज़त करना भूल जाएँ। वहीं दूसरी ओर समझाईस के रूप में यह भी आवश्यक है की वृद्ध माता-पिता को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि संतान के परिपक्व होने के पश्चात उसे अपनी जिंदगी जीने का हक होता है और उसमें अनावश्यक हस्तक्षेप हानिकार ही होगा। अतः बात -बात पर, समय-असमय, अपनी संतानों को भला-बुरा अथवा अपने दबाव का प्रभाव न ही बताना श्रेयस्कर होगा, अन्यथा वृद्धों की यह परंपरागत समस्या निराकृत होने के बजाय भविष्य में और भी विकराल रूप धारण कर सकती है

(पाठकों से निवेदन है कि वे इस आलेख को संकेतात्मक स्वीकार करें, अपवाद तो हर जगह संभव हैं)

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 88 ☆ लघुकथा – विश्वास ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं एक अत्यंत विचारणीय लघुकथा  “विश्वास। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 88 – साहित्य निकुंज ☆

☆ लघुकथा – विश्वास ☆

देश का माहौल बहुत खराब है।इस कोरोना महामारी ने सबका सुख चैन छीन लिया है। आज उनको काम से यू.पी. जाना है और रास्ते में थे, तभी पता चला लॉक डाउन में कुछ ढील है तो सारे लोग सड़क पर उतर आए। रास्ते जाम हो गए। तभी नजर पड़ी एक राहगीर रास्ते में बेहोश पड़ा है और उसके सर से खून बह रहा है। इतनी भीड़ में पैदल चल रहे राहगीर को कोई टक्कर मार गया होगा। कोरोना के भय से कोई भी हाथ लगाने को तैयार नहीं लेकिन उनका मन नहीं माना। उनको  विश्वास था कि  हो सकता है इस बेचारे की जान बच जाए। वह पानी और सैनिटाइजर लेकर नीचे उतरे। उस पर पानी का छिड़काव किया। उसमें कुछ हरकत हुई तब उन्होंने पुलिस को फोन किया। एंबुलेंस बुलाई। उसका फोन दूर गिरा था उन्होंने उसे सैनेटाईज किया। जानना चाहा कि आखरी फोन  किसे किया था। इत्तेफाक से वह इसके पिता का नंबर  था। सारी जानकारी दे दी गई। उसे बस्ती के अस्पताल में भर्ती करवा दिया और वह खतरे से बाहर है।उनका दृढ़ विश्वास और बढ़ गया।

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 78 ☆ रंगपंचमी विशेष – संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं रंगपंचमी पर्व पर विशेष भावप्रवण कविता  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 78 ☆

☆ रंगपंचमी विशेष – संतोष के दोहे ☆

माटी वृज की भी कहे, मुझे नहीं अब चैन

चरण पखारन चाहती, कबसे हूँ बैचैन

 

ग्वाल-बाल तकते रहे ,कबसे प्रभु की राह

रँग-अबीर हाथ लिए, बस खेलन की चाह

 

आवत देखा कृष्ण को, संखियाँ हुईं अधीर

नर-नारी वृज के सभी, कोई रखे न धीर

 

श्याम रँग राधा रचीं, मन बसते बहुरंग

मुरली की धुन में नचीं, लग मोहन के अंग

 

प्रेम-रस में पगे सभी, देख श्याम का रास

वृज में लगता आज यह, ज्यूँ आया मधुमास

 

प्रेम रँग बरसाइये, कहता यह “संतोष”

चरण-शरण मैं आपकी, हरिये मेरे दोष

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 81 – विजय साहित्य – काळजात रहा ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 81 – विजय साहित्य  काळजात रहा  ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

गेले काही दिवस

भेट नाही,  दर्शन नाही..

कुठला मेसेज देखील नाही

आणि काल  अचानक …..

भर पावसात  तू आलास धावत

मुलीला सरकारी नोकरी लागल्याची

बातमी द्यायला… !

तुझ्याबरोबर मीही निथळत होतो….

आनंदाश्रूंनी नहात होतो.

तुझा जीवनप्रवास…

कुटुंब सावरताना झालेली ओढाताण

हाल अपेष्टा, अहोरात्र मेहनत

पोटाला चिमटा काढून केलेले…..

लेकीचे संगोपन,  पालन पोषण..

आठवणींच्या  आरश्यात

निथळत होतं… !

सा-या भावना…..

गच्च गळामिठीत बंदिस्त झाल्या.

आनंदयात्री  मित्रा…

तुझ्या आठवणींचा  आरसा

जगवतो आहे स्नेहमैत्री….

तूला मला  आहे  खात्री

अंतराची  ओढ आहे

तुझ्या माझ्या काळजाला

म्हणूनच  आलास धावत….

ही चातक भेट साधायला…. !

तू श्वास मैत्रीचा.

माझेच आहे निजरूप.

सुखात  आणि दुःखात

घनिष्ठ मैत्री

हेच खरे जीवनस्वरूप… !

कारण….

काळजातली मैत्री

आणि आसवांची भाषा

सांगायची नाही.. पण.

अनुभवायची गोष्ट आहे.

काळातल्या मित्राची

हळवी ओली पोस्ट  आहे.

माणसातल्या माणुसकीची

आठवणीतली गोष्ट आहे.

बाबा नाहीत..आई आहे

‌तिला रोज वेळ देत जा

लेक,पत्नी,‌आईला

जीवन सौख्य देत रहा.

आयुष्याच्या प्रवासात

असाच आनंद देत रहा.

कष्टमय वाटचाल तुझी

चिंता,क्लेश विसरत जा.

मित्रा, स्वत:ची काळजी घे.

वरचेवर भेटत रहा

घेतोय निरोप.

सावकाश जा…

काळजीत नको

काळजात रहा. !

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ पवित्र पैसा….भाग 1 ☆ श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे

श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे

☆ जीवनरंग ☆ जागतिक महिला दिना निमित्त – पवित्र पैसा….भाग 1 ☆ श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे ☆

अरे कोण आहेरे तिकडे…,रमेश…तुकाराम….गेले कुठे सगळे…

दोन तीन वेळा टेबलावरची बेल वाजवुन देखील कुणी आत आले नाही. त्यामुळे माझा आवाज चढला होता. शेवटी  बडेबाबु उठून आत आले.  .सर तुकाराम पोस्टात डाग द्यायला गेला आहे. आणि रमेश बाहेर गेला आहे, सर कोणी चपराशी नाही आहे  सर. काय असेल तर सांगा सर…. बडेबाबुच्या विनयशील बोलण्याने माझा आवाज बराच खाली आला. अहो बडेबाबू  दोन वाजायला आले, आज परीक्षा फी चा डी. डी.निघाला पाहिजे उद्या पाठवायचा आहे. आणि या रमेशचा पत्ता नाही केव्हा जाईल हा ब्यांकेत, मी चिंताग्रस्त स्वरात बडेबाबूना विचारले, मात्र बडेबाबुंची नजर रस्त्याकडे लागली असून ते कुणाचीतरी वाट बघत आहे हे माझ्या लक्षात आले. अहो बडेबाबु कुणाला शोधताय…. थोडा वेळ असाच गेला नी एक नीस्वास टाकून बडेबाबु बोलते झाले. सर मीच रमेशला पाठविले आहे. तो ताराचंदला शोधायला गेलाय. अरे कोण हा ताराचंद आणि रमेश चपराष्याला त्याचाकडे कशाला पाठविले. माझ्या प्रश्नार्थक नजरे कडे दुर्लक्ष करून बाडेबाबु शांतच राहिले. मला मात्र ब्यांकेत जायचे सोडून रमेश कोण्या ताराचंद ला शोधायला का गेला हे कोड उलगडतं नव्हतं.

माझी अस्वस्थता पाहून बडेबाबू सांगायला लागले, सर त्याच अस आहे, दरवर्षी पाच गरीब मुलींना हा ताराचंद दत्तक घेतो. त्यांची फी पुस्तके ड्रेस सर्व खर्च हाच करतो. मागील पाच वर्षांपासून तो हे करतोय सर. पण यावर्षी त्याने पैसे अजून आणून दिलेले नाही, त्यामुळे रमेश त्याला शोधायला गेलाय सर. त्या पाच गरीब मुलींचा परीक्षेचा प्रश्न आहे सर…. ऐकून मलाही चिंता वाटायला लागली. व कुतूहल ही जागृत झाले.

थोड्याच वेळात रमेश सोबत एक गृहस्थ येताना दिसले. पण मला अपेक्षित असलेले व्यक्तिमत्त्व मात्र दिसत नव्हते, पाच गरीब मुलींना दत्तक घेणारा म्हणजे एखादा श्रीमंत पालक असावा अशी माझी धारणा होती पण येणारी व्यक्ती मात्र अपेक्षाभंगाचा धक्का देणारी होती. एव्हाना दोघेही पायऱ्या चढून माझ्यासमोर उभे झाले. सर हाच तो ताराचंद, हाच पाच गरीब मुलींचा खर्च करतो. बडेबाबूनी मला माहिती दिली, ताराचंद नी ही मला नमस्कार केला व पैशाचे पाकीट काढून बडेबाबुंना पैसे देऊ लागला. ताराचंद कडे माझी नजर गेली, कोळशाच्या धुळीने भरलेले त्याचे कपडे, तेल न लावल्यामुळे उभे झालेले केस, बोट बोट दाडी किमान दोन दिवसापासून आंघोळ न केल्यामुळे घामाचा वास येणारे शरीर, रंग गोरा असूनही दिवसभर उन्हात व दगडी कोळशाच्या सहवासात राहून रापलेला त्याचा चेहरा. एकूण एक गबाळ व अस्वच्छ व्यक्ती असे रूप ताराचंद चे होते. पैसे देऊन ताराचंद गेला. रमेशला ब्यांकेत पाठवून मी बडेबाबुना आवाज दिला, कोण हो हा ताराचंद…..

बडेबाबुनी जी माहिती दिली ती ऐकून मी चाट पडलो….. सर हा ताराचंद.. अग्रवाल कोल डेपोचा चौकीदार कम सुपरवायझर आहे. तिथेच राहतो. एकटाच असतो. तोच पाच मुलींचा खर्च करतो. एक चौकीदार मुलींचा खर्च कसा उचलतो. माझा विस्वासच बसत नव्हता पण हे सत्य होते. व ते जाणून घेण्याचे मी ठरविले.        .

क्रमशः….

© श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे

चंद्रपूर,  मो. 9822363911

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 77 ☆ शून्य☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “शून्य । )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 77 ☆

☆ शून्य ☆

मैं शून्य में हूँ?

या शून्य मुझमें है?

या मैं ही शून्य हूँ?

 

बैठी थी जब इस इमारत के भीतर

जो शून्य के आकार की थी,

मैंने कोशिश की उस शून्य में समा जाने की,

और इतनी आसानी से समा गयी,

जैसे वो या तो मेरे लिए बना था

या फिर मैं उसके लिए!

 

पर ज़रा उठकर आगे बढ़ी ही थी

कि कोई और उस शून्य की गोद में

यूँ जा बैठा, जैसे वो उसके लिए ही बना हो…

 

नहीं…शायद मैं शून्य में नहीं थी…

हम सब में शून्य है-

तभी तो वो हम सिखाता है

कि नहीं है हमारा अपना वजूद कोई-

आखिर हमें मिट्टी में समां जाना है!

 

तो फिर हम ही शून्य हुए ना?

 

हाँ, हम शून्य हैं-

‘गर ज़िंदगी के साथ ख़ुशी से मिल जाते हैं

तो ख़ुशी चारों ओर बारिश सी बरसती है,

और यदि हम ज़िंदगी से तालमेल ही नहीं बिठा पाते

तो नहीं बचती हमारी कोई अहमियत!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 102 ☆ होली पर्व विशेष – इस बार होली में ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की  होली पर्व पर विशेष  विचारोत्तेजक कविता इस बार होली में।  इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 102☆

? होली पर्व विशेष – इस बार होली में।  ?

लगाते हो जो मुझे हरा रंग

मुझे लगता है

बेहतर होता

कि, तुमने लगाये होते

कुछ हरे पौधे

और जलाये न होते

बड़े पेड़ होली में।

देखकर तुम्हारे हाथों में रंग लाल

मुझे खून का आभास होता है

और खून की होली तो

कातिल ही खेलते हैं मेरे यार

केसरी रंग भी डाल गया है

कोई मुझ पर

इसे देख सोचता हूँ मैं

कि किस धागे से सिलूँ

अपना तिरंगा

कि कोई उसकी

हरी और केसरी पट्टियाँ उधाड़कर

अलग अलग झँडियाँ बना न सके

उछालकर कीचड़,

कर सकते हो गंदे कपड़े मेरे

पर तब भी मेरी कलम

इंद्रधनुषी रंगों से रचेगी

विश्व आकाश पर सतरंगी सपने

नीले पीले ये सुर्ख से सुर्ख रंग, ये अबीर

सब छूट जाते हैं, झट से

सो रंगना ही है मुझे, तो

उस रंग से रंगो

जो छुटाये से बढ़े

कहाँ छिपा रखी है

नेह की पिचकारी और प्यार का रंग?

डालना ही है तो डालो

कुछ छींटे ही सही

पर प्यार के प्यार से

इस बार होली में।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 83 – होली पर्व विशेष – होली ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  होली पर्व पर विशेष भावप्रवण कविता  “होली ।  इस  भावप्रवण एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 83 ☆

?? होली पर्व विशेषहोली ??

?

होली लिए फागुन मास है आई

फूले बगिया बौरै अमराई

रंग बिरंगी रंगों से देखो

प्रकृति ने हैं सुंदरता पाई

?

कुसुम सुहासी लाली सजाई

फूले महुआ सुगंध फैलाई

बैठ के आमो की डाली पर

कोयल देखो राग सुनाई

?

रंग लिए उल्लास हैं आई

सबके जीवन खुशियां बिखराई

भूल के सब राग द्वेष फिर

परंपरा की रीत निभाई

?

सबके मन फिर बात समाई

क्या होली खेले न भाई

दुष्ट कोरोना कोई रंगना

फिर भी हाहाकार मचाई

?

घरों में बनती गुजिया मिठाई

पर भाई पड़ोसन की ठंडाई

हाय ये कैसी हो गई दुनिया

सोच- सोच अब  आए रुलाई

?

जीजा साली देवर भोजाई

बस कागज पन्नों में समाई

जानू तुम न खेलना होली

देती हूं तुम्हें पहले समझाई

?

बच्चों में ना पिचकारी आई

मौड़ी रंगों से घबराई

देख-देख व्हाट्एप में सब ने

अपनी अपनी होली मनाई

?

होली खेले ना खेले गुसाई

शुभकामनाओं की बारी आई

भूल के सब पिछली बातों को

सबको देना होली की बधाई

?

रंग बिरंगी होली आई

देखो कैसी मस्ती छाई

रंग बिना जीवन है सुना

होली की हार्दिक बधाई

सबको शुभ हो होली भाई

?

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 91 ☆ दानत नाही ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 91 ☆

☆ दानत नाही ☆

ब्रह्मानंदी अजून टाळी वाजत नाही

श्रद्धेखेरिज मूर्ती त्याची पावत नाही

 

संपत नाही काही केल्या माझे मीपण

मला कळेना सहज ध्यान का लागत नाही

 

कृपादृष्टिची पखरण केली भगवंताने

तरिही कष्टी मोर मनाचा नाचत नाही

 

ओंकाराचा ध्वनी ऐकण्या आतुर असता

गोंगाटाचे ढोल नगारे थांबत नाही

 

हुंडीमधले दान मोजणे कुठे उरकते

याचकासही द्यावे काही दानत नाही

 

पाप धुण्याची प्रत्येकाला ओढ लागली

किती प्रदूषित गंगा झाली सांगत नाही

 

द्विभार्या ह्या जरी दडवल्या टोपीखाली

वेळप्रसंगी सांगायाला लाजत नाही

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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