हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 85 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं विशेष भावप्रवण कविता  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 85 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆

(कुवलय, कुमुदबन्धु, वाचक, विरहित, वापिका)

कुवलय के नव कुंज प्रभु, कमलापति श्रीधाम

सादर वन्दन आपको, हरिये दोष तमाम

 

कुमुद-बंधु छवि मोहनी, शीतल उसकी छाँव

विकसे बिपुल सरोज जब, लगता सुंदर गाँव

 

वाचक ऐसा चाहिए, जिसके मीठे बोल

वाणी से झगड़े बढ़ें, वाणी है अनमोल

 

विरहित रहे जो प्रेम से, देखे बस निज काम

प्रेम बढ़ाता दायरा, यह ही राधे-श्याम

 

ताल तलैया वापिका, गाँवो की पहिचान

पानी के साधन सुलभ, राजाओं की शान

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 86 – विजय साहित्य – तो सागरी किनारा . . . . ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 86 – विजय साहित्य  ✒ तो सागरी किनारा✒  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

तो सागरी किनारा . . .

लग्नाआधी, लग्नानंतर, दोघांनाही

तितकाच जवळचा वाटायचा

जितका सागराला किनारा

अन किनाऱ्याला  सागर,

परस्परांना  आपलं समजायचा. . . !

सागरात काय दडलय,

याची प्रचंड उत्सुकता किनाऱ्याला.

सागराला देखील  अनावर  ओढ

आपल साम्राज्य ,किनाऱ्याला बहाल करण्याची.

कधी धीर गंभीर. . . कधी रौद्र, वादळी,

तर कधी कधी खळाळत , उत्स्फूर्तपणे

सागर धाव घ्यायचा  किनाऱ्याकडे.

उसळत्या लाटांचा, मर्दानी जोषात, सागराच येणं

त्याची गाज, बहाल केलेला,

शंखशिंपल्यांचा नजराणा पाहून, किनारा सुखावतो.

असा सालंकृत किनारा, सागराच्या भरतीन

सदा रहायचा आलंकृत,अन् प्रेमांकित देखील.

भरती ओहोटीच्या  आपलेपणातून

किनाऱ्याच सुखवस्तूपण  बहरायच.

त्याच्या तिच्या नात्याच प्रतिबिंबच लहरायचं

त्या सागर लाटांमधून. . . !

पतीपत्नीच्या नात्याला  कधी कधी

वैचारिक मतभेदान,  भरती ओहोटीला

सामोरे जाव लागायच , तेव्हाही . . .

तो सागर किनाराच द्यायचा आसरा

दोन भरकटलेल्या नावांना. . .

सांगायचा  अनुभवी बोल

”भरती ओहोटी मधला काळ

तोच खरा कसोटीचा

या काळात, एकाने व्हायचं पसा

तर  दुसऱ्यानं व्हायचं दाता ”.. .!

उसळत्या सागराचा,  अन सौदर्यशील किनाऱ्याचा

तो विहंगम भावसंवाद,

परस्परांना ओढ लावायचा

ना ते ना ते म्हणतानाही

भवसागरात जगायला शिकवायचा

नातं जोडून ठेवायचा

तो सागरी किनारा. . . !

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते 

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  9371319798.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 69 ☆ मर्डर ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  पति पत्नी के संबंधों पर आधारित  एक विचारणीय एवं संवेदनशील लघुकथा मर्डरडॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 69 ☆

☆ मर्डर ☆

मीता  ने  तेजी से काम निपटाते हुए पति से कहा – रवि! तुम्हारे फोन पर यह किसके मैसेज आते  हैं? कई दिनों से देख रही हूँ  तुम रोज मैसेज  पढकर हटा देते हो ।

मेरे साथ ऑफिस में काम करती है मारिया। बेचारी अकेली है, तलाक हो गया है बच्चे भी नहीं हैं। उसकी मदद करता रहता हूँ बस।

पक्का और कुछ नहीं ना?

नहीं यार, बहुत शक्की औरत हो तुम।

पर उसके  मैसेज  क्यों ह्टा देते हो?

यूँ ही, अपने सुख दुख की बात करती रहती है बेचारी । तुम तो जानती हो मेरा स्वभाव, मदद करता रहता हूँ सबकी।

मेरे ऑफिस में भी हैं एक मि. वर्मा, बेचारे अकेले हैं। मैं भी  उनकी मदद कर दिया करूंगी।

मर्डर हो जाएगा किसी का — ।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 96 ☆ श्रीमदभगवदगीता हिन्दी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ” विदग्ध ” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) से  हाल ही में सेवानिवृत्त में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका  पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ” विदग्ध ” जी की पुस्तक “श्रीमदभगवदगीता हिन्दी पद्यानुवाद” – की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 96 – श्रीमदभगवदगीता हिन्दी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ” विदग्ध ”  ☆ 
 पुस्तक चर्चा

समीक्षित कृति … श्रीमदभगवदगीता हिन्दी पद्यानुवाद 

अनुवादक …. प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ” विदग्ध ” 

प्रकाशक …. रवीना प्रकाशन दिल्ली

पुस्तक प्राप्ति हेतु पता … A 1 , मीनाल रेजीडेंसी , भोपाल 462023

श्रीमदभगवदगीता एक सार्वकालिक ग्रंथ है . इसमें जीवन के मैनेजमेंट की गूढ़ शिक्षा है . आज संस्कृत समझने वाले कम होते जा रहे हैं , पर गीता में सबकी रुचि सदैव बनी रहेगी , अतः संस्कृत न समझने वाले हिन्दी पाठको को गीता का वही काव्यगत आनन्द यथावथ मिल सके इस उद्देश्य से प्रो. सी. बी .श्रीवास्तव “विदग्ध” ने मूल संस्कृत श्लोक , फिर उनके द्वारा किये गये काव्य अनुवाद तथा शलोकशः ही शब्दार्थ को हार्ड बाउण्ड , बढ़िया कागज व अच्छी प्रिंटिंग के साथ यह बहुमूल्य कृति प्रस्तुत की है . अनेक शालेय व विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमो में गीता के अध्ययन को शामिल किया गया है , उन छात्रो के लिये यह कृति बहुउपयोगी बन पड़ी है . 

भगवान कृष्ण ने  द्वापर युग के समापन तथा कलियुग आगमन के पूर्व (आज से पांच हजार वर्ष पूर्व) कुरूक्षेत्र के रणांगण मे दिग्भ्रमित अर्जुन को ,  जब महाभारत युद्ध आरंभ होने के समस्त संकेत योद्धाओ को मिल चुके थे, गीता के माध्यम से ये अमर संदेश दिये थे व जीवन के मर्म की व्याख्या की थी .श्रीमदभगवदगीता का भाष्य वास्तव मे ‘‘महाभारत‘‘ है। गीता को स्पष्टतः समझने के लिये गीता के साथ ही  महाभारत को पढना और हृदयंगम करना भी आवश्यक है। महाभारत तो भारतवर्ष का क्या ? विश्व का इतिहास है। ऐतिहासिक एवं तत्कालीन घटित घटनाओं के संदर्भ मे झांककर ही श्रीमदभगवदगीता के विविध दार्शनिक-आध्यात्मिक व धार्मिक पक्षो को व्यवस्थित ढ़ंग से समझा जा सकता है। 

जहॉ भीषण युद्ध, मारकाट, रक्तपात और चीत्कार का भयानक वातावरण उपस्थित हो वहॉ गीत-संगीत-कला-भाव-अपना-पराया सब कुछ विस्मृत हो जाता है फिर ऐसी विषम परिस्थिति मे गीत या संगीत की कल्पना बडी विसंगति जान पडती है। क्या रूद में संगीत संभव है? एकदम असंभव किंतु यह संभव हुआ है- तभी तो ‘‘गीता सुगीता कर्तव्य‘‘ यह गीता के माहात्म्य में कहा गया है। अतः संस्कृत मे लिखे गये गीता के श्लोको का पठन-पाठन भारत मे जन्मे प्रत्येक भारतीय के लिये अनिवार्य है। संस्कृत भाषा का जिन्हें ज्ञान नहीं है- उन्हे भी कम से कम गीता और महाभारत ग्रंथ क्या है ? कैसे है ? इनके पढने से जीवन मे क्या लाभ है ? यही जानने और समझने के लिये भावुक हृदय कवियो साहित्यकारो और मनीषियो ने समय-समय पर साहित्यिक श्रम कर कठिन किंतु जीवनोपयोगी संस्कृत भाषा के सूत्रो (श्लोको) का पद्यानुवाद किया है, और जीवनोपयोगी ग्रंथो को युगानुकूल सरल करने का प्रयास किया है। 

इसी क्रम मे साहित्य मनीषी कविश्रेष्ठ प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव जी ‘‘विदग्ध‘‘ ने जो न केवल भारतीय साहित्य-शास्त्रो धर्मग्रंथो के अध्येता हैं बल्कि एक कुशल अध्येता भी हैं स्वभाव से कोमल भावो के भावुक कवि भी है। निरंतर साहित्य अनुशीलन की प्रवृत्ति के कारण विभिन्न संस्कृत कवियो की साहित्य रचनाओ पर हिंदी पद्यानुवाद भी आपने प्रस्तुत किया है . महाकवि कालिदास कृत ‘‘मेघदूतम्‘‘ व रघुवंशम् काव्य का आपका पद्यानुवाद दृष्टव्य , पठनीय व मनन योग्य है।गीता के विभिन्न पक्षों जिन्हे योग कहा गया है जैसे विषाद योग जब विषाद स्वगत होता है तो यह जीव के संताप में वृद्धि ही करता है और उसके हृदय मे अशांति की सृष्टि का निर्माण करता है जिससे जीवन मे आकुलता, व्याकुलता और भयाकुलता उत्पन्न होती हैं परंतु जब जीव अपने विषाद को परमात्मा के समक्ष प्रकट कर विषाद को ईश्वर से जोडता है तो वह विषाद योग बनकर योग की सृष्टि श्रृखंला का निर्माण करता है और इस प्रकार ध्यान योग, ज्ञान योग, कर्म योग, भक्तियोग, उपासना योग, ज्ञान कर्म सन्यास योग, विभूति योग, विश्वरूप दर्शन विराट योग, सन्यास योग, विज्ञान योग, शरणागत योग, आदि मार्गो से होता हुआ मोक्ष सन्यास योग प्रकारातंर से है,  तो विषाद योग से प्रसाद योग तक यात्रासंपन्न करता है।

इसी दृष्टि से गीता का स्वाध्याय हम सबके लिये उपयोगी सिद्ध होता हैं . अनुवाद में प्रायः दोहे को छंद के रूप में प्रयोग किया गया है .  कुछ अनूदित अंश बानगी के रूप में  इस तरह  हैं ..

अध्याय ५ से ..

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌ ।

पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌ ॥

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ॥

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌ ॥

स्वयं इंद्रियां कर्मरत, करता यह अनुमान

चलते, सुनते,देखते ऐसा करता भान।।8।।

सोते, हँसते, बोलते, करते कुछ भी काम

भिन्न मानता इंद्रियाँ भिन्न आत्मा राम।।9।।

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्‌ ।

सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥

हितकारी संसार का,तप यज्ञों का प्राण

जो मुझको भजते सदा,सच उनका कल्याण।।29।।

 

अध्याय ९ से ..

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्‌ ।

मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्‌ ॥

मै ही कृति हूँ यज्ञ हूँ,स्वधा,मंत्र,घृत अग्नि

औषध भी मैं,हवन मैं ,प्रबल जैसे जमदाग्नि।।16।।

इस तरह प्रो श्रीवास्तव ने  श्रीमदभगवदगीता के श्लोको का पद्यानुवाद कर हिंदी भाषा के प्रति अपना अनुराग तो व्यक्त किया ही है किंतु इससे भी अधिक सर्व साधारण के लिये गीता के दुरूह श्लोको को सरल कर बोधगम्य बना दिया है .गीता के प्रति गीता प्रेमियों की अभिरूचि का विशेष ध्यान रखा है । गीता के सिद्धांतो को समझने में साधको को इससे बडी सहायता मिलेगी, ऐसा मेरा विश्वास है। अनुवाद बहुत सुदंर है। शब्द या भावगत कोई विसंगति नहीं है। अन्य गीता के अनुवाद या व्याख्येायें भी अनेक विद्वानो ने की हैं पर इनमें  लेखक स्वयं अपनी संमति समाहित करते मिलते हैं जबकि इस अनुवाद की विशेषता यह है कि प्रो श्रीवास्तव द्वारा ग्रंथ के मूल भावो की पूर्ण रक्षा की गई है।

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 73 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – द्वादश अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है  द्वादश अध्याय

पुस्तक इस फ्लिपकार्ट लिंक पर उपलब्ध है =>> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 73 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – द्वादश अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा श्रीकृष्ण कृपा से दोहों में किया गया है। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई है। आज आप पढ़िए बारहवें अध्याय का सार। आनन्द उठाइए।

 – डॉ राकेश चक्र 

बारहवाँ अध्याय – भक्तियोग

अर्जुन ने श्रीकृष्ण भगवान से भक्तियोग के बारे में जिज्ञासा प्रकट की——–

 

अर्जुन पूछे कृष्ण से, पूजा क्या है श्रेष्ठ।

निराकार- साकार में, कौन भक्ति है ज्येष्ठ।। 1

 

श्रीभगवान ने अर्जुन को भक्तियोग के बारे में विस्तार से समझाया——-

 

परमसिद्ध हैं वे मनुज, पूजें मम साकार।

श्रद्धा से एकाग्र चित, यही मुझे स्वीकार।। 2

 

वश में इन्द्रिय जो करें, भक्ति हो एकनिष्ठ।

निराकार अर्चन करें, वे भी भक्त विशिष्ट।। 3

 

अमित परे अनुभूति के, जो अपरिवर्तनीय।

कर्मयोग कर, हित करें, भक्ति वही महनीय।। 4

 

निराकार परब्रह्म की, भक्ति कठिन है काम।

दुष्कर कष्टों से भरी, नहीं शीघ्र परिणाम।। 5

 

कर्म सभी अर्पित करें,अडिग, अविचलित भाव।

मेरी पूजा जो करें, नहीं डूबती नाव।। 6

 

 मुझमें चित्त लगायं जो, करें निरन्तर ध्यान।

भव सागर से छूटते, हो जाता कल्यान।। 7

 

चित्त लगा स्थिर करो, भजो मुझे अविराम

विमल बुद्धि अर्पित करो, बन जाते सब काम।। 8

 

अविचल चित्त- स्वभाव से, नहीं होय यदि ध्यान।

भक्तियोग अवलंब से, करो स्वयं कल्यान।। 9

 

विधि-विधान से भक्ति का, यदि न कर सको योग।

कर्मयोग कल्यान का,सर्वोत्तम उद्योग।। 10

 

नहीं कर सको कर्म यदि, करो सुफल का त्याग।

रहकर आत्मानंद में, करो समर्पित राग।। 11

 

यदि यह भी नहिं कर सको, कर अनुशीलन ज्ञान।

श्रेष्ठ ध्यान है ज्ञान से, करो तात अनुपान।। 12

 

कर्मफलों का त्याग ही, सदा ध्यान से श्रेष्ठ।

ऐसे त्यागी मनुज ही, बन जाते नरश्रेष्ठ।। 12

 

द्वेष-ईर्ष्या से रहित, हैं जीवों के मित्र।

अहंकार विरहित हृदय, वे ही सदय पवित्र।। 13

 

सुख-दुख में समभाव रख,हों सहिष्णु संतुष्ट।

आत्म-संयमी भक्ति से, जीवन बनता पुष्ट।। 14

 

दूजों को ना कष्ट दे, कभी न धीरज छोड़।

सुख-दुख में समभाव रख,मुझसे नाता जोड़।। 15

 

शुद्ध, दक्ष, चिंता रहित, सब कष्टों से दूर।

नहीं फलों की चाह है, मुझको प्रिय भरपूर। 16

 

समता हर्ष-विषाद में,है जिनकी पहचान।

ना पछताएं स्वयं से, करें न इच्छा मान। 17

 

नित्य शुभाशुभ कर्म में, करे वस्तु का त्याग।

मुझको सज्जन प्रिय वही, रखे न मन में राग।। 17

 

शत्रु-मित्र सबके लिए, जो हैं सदय समान।

सुख-दुख में भी सम रहें, वे प्रियवर मम प्रान। 18

 

यश-अपयश में सम रहें, सहें मान-अपमान।

सदा मौन, संतुष्ट जो, भक्त मोहिं प्रिय जान।। 19

 

भक्ति निष्ठ पूजे मुझे, श्रद्धा से जो व्यक्ति।

वही भक्त हैं प्रिय मुझे , मिले सिद्धि बल शक्ति।। 20

 

इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” भक्तियोग ” बारहवाँ अध्याय समाप्त।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 86 – यात्रा वृत्तांत —पहुंच गया दिल्ली ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “यात्रा वृत्तांत —पहुंच गया दिल्ली ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 86 ☆

☆ यात्रा वृत्तांत पहुंच गया दिल्ली ☆ 

मैं ने जिंदगी में कभी हवाई यात्रा नहीं की थी. पहली बार हवाई जहाज में जा रहा था. डर लगना स्वाभाविक था. राहुल को फोन लगाया, ”राहुल ! मुझे बताता रहना. पहली बार दिल्ली जा रहा हूं. हवाई जहाज में भी पहली बार बैठ रहा हूं. इसलिए समयसमय पर जानकारी देते रहना.”

” डरने की कोई बात नहीं है  पापाजी , ” राहुल ने मेरा हौंसला बढ़ाया, ” सुबह के 6 बज रहे हैं. इस वक्त आप कहां है ?” उस ने मुझ से पूछा.

” देवी अहिल्याबाई होल्कर हवाई अड्डे के मुख्य प्रवेशद्वार पर, जहां सुरक्षाकर्मी जांच के बाद अंदर जाने देते हैं, वहां खड़ा हूं.”

” यहीं से आप अंदर जाएंगे. यहां पर आप का टिकट व पहचान पत्र देख कर अंदर जाने दिया जाएगा,” राहुल ने जैसा बताया था, वैसा ही हुआ.

इस सुरक्षाचक्र से मैं अंदर पहुंच गया. वहां सामने एक सामान चैंकिंग खिड़की थी. जिस में एक रोलर लगा हुआ था. उस में सामान रखने पर वह सीधा रोलर पर घुमता हुआ आगे चला गया. वह सीधा एक खिड़की से हो कर दूसरी ओर निकल गया.

मैं ने सामान उठाया. कुछ आगे जाने पर एक टिकट का काउंटर दिखाई दिया. जहां लंबी लाइन लगी हुई थी. वहां से मैं ने टिकट प्राप्त किया. इस के बाद राहुल को फोन लगाया, ” अब कहां जाना है ?”

उस ने कहा, ”  दाएं  मुड़ जाइए. सामने सीढ़िया लगी होगी. उस पर चढ़ कर ऊपर चले जाइए.”

मैं ने ऐसा ही किया. वहां पर पहले से ही लाइन लगी हुई थी. यहां पर सभी यात्री अपने सामान को निकाल कर एक ट्रे में रख रहे थे. मैं ने भी मोबाइल और रूपए पैसे सब निकाल कर उस में रख दिए. दोबारा बैग को खिड़की में डाला. मैं एक दरवाजे से अपने शरीर की जांच कराते हुए आगे निकल गया.

दूसरी ओर मेरा सामान आ चुका था. मैं ने मोबाइल और पर्स लिया. शर्ट में रखा. सीधे आगे जाने पर कई कुर्सियां लगी हुई थी. जहां कई लोग वहां बैठे हुए प्रतिक्षा कर रहे थे. मैं भी कुर्सी पर बैठ कर प्रतिक्षा करने लगा.

कुछ देर बाद राहुल को फोन लगाया, ” अब क्या होगा ?”

” यहां से 6:30 पर विमान में जाने के लिए रास्ता खुल जाएगा ,” राहुल ने जैसा कहा था, वैसा ही हुआ. प्रतिक्षालय के  एक ओर बना हुआ बड़े से दरवाज़ा की ओर का रास्ता खुल गया. जहां पर बहुत सी परिचारिका खड़ी थी. वे बारी बारी से सीट नंबर बोल बोल कर यात्रियों को अंदर बुला रही थी.

मेरा सीट नंबर 16 एफ था. मुझे भी अंदर बुला लिया गया. मुझे लगा था कि मैं हवाई अड्डे के नीचे उतर कर सीढ़ियों से विमान में चढ़ूंगा. मगर, ऐसा कुछ नहीं हुआ. मैं एक सुरंग रूपी रास्ते से होता हुआ सीधा हवाईजहाज में पहुँच गया. मेरा बैग मेरे साथ था.

हवाईजहाज में एक परिचारिका हाथ जोड़ कर अभिावादन कर रही थी. चुंकि मैं पहली बार इस में गया था. मुझे पता नहीं था कि कौन सी सीट कहाँ है ? इसलिए पूछ लिया, ” यह 16 एफ सीट किधर है ?”

परिचारिका ने अपनी बाई ओर इशारा कर के कहा, “ वह 16 वी पंक्ति वाली खिड़की वाली सीट आप की है.”

मैं यात्रियों के साथ धीरेधीरे आगे बढ़ते हुए चल रहा था. हवाईजहाज में बहुत कम जगह थी. इस में बस की तरह हम एक साथ कई व्यक्ति सीट की तरफ नहीं जा सकते हैं. मैं अहिस्ताअहिस्ता चलते हुए लोगों के साथ अपनी सीट के पास गया. वहां एक समय में एक ही व्यक्ति अंदर जा सकता था. मैं पहले अंदर जा कर खिड़की वाली सीट पर बैठ गया. उस के बाद मेरे साथ वाले दो व्यक्ति भी सीट पर बैठ गए.

इस हवाईजहाज में यात्रा करने का यह मौका मुझे मेरे पुत्र राहुल की वजह से मिला था. वह अपनी कंपनी के काम से कई बार दिल्ली गया था. उस से मैं ने कई बार कहा था कि हवाईजहाज में बैठना कैसा लगता है ?

तब उस ने हवाईजहाज में बैठने का अपना पूरा ब्यौरा सुना कर कहा था, ” पापाजी ! इस बार आप विश्व पुस्तक मेले में हवाई जहाज द्वारा दिल्ली जाना.” बस उसी की बदौलत मुझे हवाई जहाज का टिकट मिला था.

मैंने गौर से विमान के छत को देखा. वहां पर कुछ लिखा हुआ था. पास में एक खिड़की थी. जो हवाई जहाज के विंग के उपर का हिस्सा दिखा रही थी. यानी मुझे पंखों के उपर वाली सीट मिली थी.

हवाई जहाज चालू हुआ. परिचारिका ने कई जानकारी दी. सीट बेल्ट कैसे बांधना है. यदि आक्सीजन की कमी हो जाए या जी घबराने लगे तो छत पर लगे आक्सीजन मास्क को कैसे मुंह पर लगा कर आक्सीजन प्राप्त करना है. परिचारिका यह बता रही थी कि हवाईजहाज रनवे पर चलने लगा.

कुछ निर्धारित दूरी तय करने के बाद वह रूका. अचानक उस की आवाज तेज हो गई. यात्रियों ने अनाउंसमेन्ट के अनुसार अपनेअपने सीट बेल्ट को बांध लिया. हवाई जहाज ने तेज आवाज की. रनवे पर दौड़ लगा दी.

वह तेज गति से दौड़ने लगा. मेरी निगाहें खिड़की के बाहर थी. विंडो सीट से पंख स्पष्ट नजर आ रहे थे. कुछ तेज गति से चलने के बाद हवाई जहाज जमीन से उंचा उठने लगा. पेट में हल्की से गुदगुदी हुई. धीरेधीरे जमीन दूर जाने लगी. मकान छोटे होते गए.

कुछ देर में हवाई जहाज बहुत उंचाई पर था. ऊपर जाने पर ऐसा लग रहा था कि हवाई जहाज स्थिर हो गया है. केवल वह किसी बादल पर टिका हुआ है. आसमान में बादल दिखाई दे रहे थे. नीचे का कोई हिस्सा दिखाई नहीं दे रहा था. कुछ समय बाद धूप निकल आई. नीचे की जमीन दिखाई देने लगी. तब अहसास हुआ कि हवाईजहाज बहुत ऊचाई पर है.

एक घंटे तक उड़ने के बाद हवाईजहाज दिल्ली के इंदिरागांधी अंतराराष्ट्रीय हवाई अड्डे के ऊपर उड़ रहा था. 7 जनवरी 2018 की सुबह दिल्ली में कोहरा छाया हुआ था. धुंध की वजह से नीचे दिखाई देना बंद हो गया था. हवाई जहाज धीरेधीरे नीचे आया.

वह करीब आधा घंटे तक हवाई अड्डे की रनवे पर चलता रहा. तब जा कर वह रनवे पर रूका. मुझे यह पता नहीं था कि यहां किस तरह उतरने पड़ेगा. जैसे ही मैं अपना बैग ले कर दरवाजे के बाहर निकला वैसे ही मुझे सीढ़िया नजर आई. मैं उस से उतरते हुए हवाई अड्डे की धरती पर उतर चुका था.

हवाई अड्डे को नजदीक से देखना मेरा पहला रोमांचकारी अनुभव था. मैं इसे कैसे जाने देता. मैं ने अपना मोबाइल निकाला. उस से कुछ सेल्फी लीं. यह काम मैं ने हवाई जहाज के अंदर भी किया था. ताकि मैं सगर्व यह बता सकूं कि मैं ने पहली बार हवाई जहाज की रोमांचकारी यात्रा कीं.

यहां से बस में बैठ कर मैं हवाई अड्डे के निकासी द्वार पर पहुंच गया. फिर हवाई अड्डे से बाहर निकल गया. यहां के उत्तरी निकासी द्वार पर बस खड़ी थी. उस के द्वारा मैं ने ऐरोसिटी मैट्रो स्टेशन का टिकट लिया. मैट्रो स्टेशन पर जाने के बाद वहां से ओरेज लाइन की मैट्रो में सफर किया.

दिल्ली की मैट्रो अपनेआप में एक मिसाल है. इस की साफसफाई और व्यवस्था उच्च स्तर की है. यहां से धोला कुआ होते हुए मैं नई दिल्ली स्टेशन पर उतर गया. जहां से मुझे पीली लाइन मैट्रो पकड़ कर चांदनी चौक जाना था.

मैं नईदिल्ली से मेट्रो पकड़ कर चांदनी चौक गया. वहां से मेट्रो से उतर कर सीधा बाई ओर जाते हुए शीशमहल गुरूद्वारा पहुंच गया.

इस तरह शीशमहल से बस पकड़ कर प्रगति मैदान गया. विश्व पुस्तक मेले में  घूम घूम कर पुस्तकें खरीदी ओर दूसरे दिन बस द्वारा वापस आ गया. इस तरह दिल्ली विश्वपुस्तक मेले की मेरी रोमांचकारी यात्रा पूरी हुई. यह यात्रा मैं कभी भूल नहीं पाऊंगा. क्यों कि इस यात्रा में पहली बार मैं हवाई जहाज में बैठा था.

इस तरह मेरी छोटी सी रोचक यात्रा पूरी हुई.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

२०/०३/२०१८

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #96 – अब हृदय के बोल गुम…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा रात  का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण कविता  “अब हृदय के बोल गुम….” । )

☆  तन्मय साहित्य  # 96 ☆

 ☆ अब हृदय के बोल गुम…. ☆

देह अपनी और मन है

अब अकेले ही मगन है।

 

और कब तक दलदलों में

यूँ उलझते ही रहेंगे

जान कर अनजान बन

गुणगान मुँह-देखे सहेंगे,

औपचारिक वंदनो में

झूठ के कितने जतन है……।

 

अछूता कोई नहीं

शामिल सभी इस सिंधु में

लगाते गोते रहे

बिन अंक के इस बिंदु में,

खुली आँखों से निहारे

वायवीय कल्पित सपन है…..।

 

कल्पनाओं का

न, कोई ओर कोई छोर है

जिंदगी उलझी हुई

बारीक सी इक डोर है,

द्वंद्व अंतर्जाल के

चहुँ ओर विस्तारित सघन है……।

 

अब कहाँ माधुर्य-मिश्री

घोलते से शब्द हैं

देख क्रिड़ायें मनुज की

गगन भी स्तब्ध है,

अब ह्रदय के बोल गुम

मस्तिष्क से निकले वचन है

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 47 ☆ दुनिया के दस्तूर  ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

(श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ‘दुनिया के दस्तूर । ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 47 ☆

☆ दुनिया के दस्तूर 

 

दुनिया के दस्तूर भी अजीब हैं,

जिनके लिए लड़ता रहा ताउम्र, मुझे देखते ही नजर फेर लेते हैं ||

 

अब तो मुस्कराने पर भी घबराने लगा हूँ,

मेरी मुस्कराहट को लोग अब नजरअंदाज कर देते हैं ||

 

अब कुछ भी बोलने से घबराता हूँ,

मैं सच बोलता हूँ तो लोग मुझे ही झूठा कहने लगते हैं ||

 

अब जब मैं चुप रहता हूँ ,

तो मेरे चुप रहने को लोग बुझदिली कहते हैं ||

 

मैं अब हंसने से भी घबराता हूँ,

मेरे हंसी को लोग बनावटी हंसी कहने लगते हैं ||

 

अपना दुख साँझा करने से भी ड़रता हूँ,

लोग मेरे दुखों का मजाक उड़ा दिल दुखाने लगते हैं ||

 

अब तो ख़ुशी जाहिर करने से भी घबराता हूँ,

ड़रता हूँ लोग मेरी खुशियों का भी मजाक उड़ाने लगेंगे ||

 

देखना एक दिन यूँ ही चला जाऊंगा,

लोग मेरे जाने को भी मजाक समझ मेरी हंसी उड़ाने लगेंगे ||

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 99 ☆ गझल ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 99 ?

☆ गझल ☆

होता इथून मागे तो वाद संपवावा

 ठेऊ  नको सख्या  तू दोघात हा दुरावा 

 

हातात हात देता झाले तुझीच भार्या

देवा नि ब्राह्मणांचा का लागतो पुरावा ?

 

मेंदीत जीव रंगे, हळदीत देह सारा

सोडून दूर  आले माझ्या सुरेख  गावा

 

आयुष्य नोंदले मी नावे तुझ्याच तेव्हा

लक्षात घेतला ना कुठलाच बारकावा

 

संसार  ,मोह ,माया असतोच एक धोका

त्याच्या पल्याड जाण्या सन्मार्ग आचरावा

 

सौख्यास भोगले की वैराग्ययोग आला

 साराच सोहळा हा आजन्म गौरवावा 

 

सांजावता दिशा या बघ वेध लागले ना

नांदू जरा  सुखाने, दे शेवटी विसावा

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 85 ☆ ऐ ज़िन्दगी ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता ऐ जिंदगी। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 84 ☆

☆ ऐ जिंदगी

ना कोई ख्वाहिश

ना कोई शिकवा ना गिला है

ऐ जिंदगी

मुझे तुझसे बहुत कुछ मिला है

 

ना कोई तमन्ना

ना कोई अभियोग, ना फ़रियाद

ऐ जिंदगी

तूने तो दिया है मेरा हर पल साथ

 

जो हुआ अच्छा हुआ

खुश हूँ इस ख्याल में

ऐसा होता तो वैसा होता तो

फंसती नहीं मैं इस जाल में

 

आयेगी जब शाम

और बुझ जायेगी ये शमां

खुशी खुशी मैं

दूसरी दुनिया में हो जाऊँगी रवां

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares