“जागा आहेस, का नुसताच लोळत पडलायस ?” हे थोडं दरडावणीच्या सुरात, आपल्या कानावर आपण लहान असतांना आईकडून आणि मोठेपणी (आपापल्या) बायकोकडून ऐकण्याचे अनेक प्रसंग आपल्यावर आत्ता पर्यंत नक्कीच आले असणार ! कारण झोपेतून जागे झाले तरी, 99.9% पुरुषांना लोळत पडून रहायची सवय असतेच असते, मग तो कामाचा दिवस असो वा सुट्टीचा ! ही टक्केवारी, मी एखाद्या साबणाच्या जाहिरातीत म्हटल्याप्रमाणे, रोग जंतूचा नाश करण्याच्या त्याच्या क्षमते इतकीच घेतली आहे, हे माझ्या सारख्या चाणाक्ष नवऱ्यांनी लगेच ओळखलं असेलच ! आता हे साबणाचे उदाहरण देण्या मागे सुद्धा माझे स्वतःचे असे एक सबळ कारण आहे, जे तुम्हाला पण 100% पटेल ! आपण जागे झालोय आणि नुसतेच लोळत पडलोय हे नंतर बायकोने ओळखल्यावर, ती आपल्या मागे भुणभुण करून आपल्याला सुद्धा तिच्या मागोमाग उठायला भाग पाडून, तेव्हढयावरच ती थांबली, तर ती अर्धांगिनी कसली ? तिला असं वाटत असतं की, आपल्या नवऱ्याने पण, भूतां सारखे लोळत पडण्यापेक्षा, लगेच उठून आपल्या सारखेच लगेच सुचीरभूत व्हावे ! आता भूतं जाग आल्यावर अशीच लोळत (का झाडावर लटकत?) पडतात, हे तिला कसं कळलं का तिला कोणी (तिची आई?) तसं सांगितलं, हा एक झोप न घेता करायचा संशोधनाचा विषय ठरू शकतो ! या माझ्या विधानाशी, माझ्या सारखे 100% आळशी नवरे, सहमत होऊन भली मोठी जांभई देत, परत आपल्या डोक्यावरून पांघरूण घेऊन गादीला जवळ करतील, याची मला 100% नाही तर 101% खात्री आहे ! आणि या उप्पर जरी नवऱ्याने तिला प्रेमाने (का स्वार्थापोटी ?) म्हटलं “झोप की जरा, आज सुट्टी तर आहे !” तरी 100% बायका, ते जणू ऐकलंच नाही असं भासवत, ते अजिबात मनावर न घेता, लगेच आपल्या रोजच्या कामाला स्वतःला जुंपुन घेतात, हे तमाम नवरे मंडळी मान्य करतील !
असं जाग आल्यावर लोळत पडणं वगैरे बायकांना झेपत नाही, का त्यांना ते जमत नाही, का त्यांची मानसिक घडणंच तशी असते, हे त्या निद्रादेवीलाच माहित ! त्या जाग आल्या आल्या लगेच, कुणीतरी आपल्या पाठीमागे अदृश्यपणे छडी घेऊन उभा आहे या भीतीने, रोजच्याच अंगावळणी पडलेल्या कामाला, वाघ मागे लागल्यागत सुरवात करतात ! तो अदृश्य छडीधारी कोण असेल, याचा मी अनेक वेळा माझ्या (बायकोच्या म्हणण्या नुसार) अल्पमती प्रमाणे शोधायचा अनेक वेळा विफल प्रयत्न केला, पण तो करता करता कित्येक वेळा परत झोपेच्या अधीन कधी झालो, हे माझंच मला कळलं नाही ! शेवटी मी तो नाद सोडून दिला आणि माझ्या मनाची मीच अशी समजूत करून घेतली की, सकाळी उठल्या उठल्या रोजच्या कामाचा तोच तोच व्यायाम केल्याशिवाय, तमाम बायकांना त्यांचा दिवस सुरू झालाय असं वाटतच नाही ! असो !
आता या अशा पेच प्रसंगातून मार्ग कसा काढावा, याचा विचार करता करता मला, थोरा मोठ्यांनी जे काही मोठ्या मनाने म्हणून ठेवलं आहे, त्याची आठवण झाली ! जसं, ऐकावे जनाचे (बायकोचे) करावे मनाचे ! म्हणजे तुमच्या लक्षात मतितार्थ आला असेलच, की आपल्याला देवाने जे दोन कान दिले आहेत, त्याचा योग्य वापर करून, म्हणजेच एका कानाने बायकोचे ऐकून, तेच दुसऱ्या कानाने सोडून, डोक्यावर पांघरूण घेवून मस्त ताणून देणे !
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है बाल मनोविज्ञान पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा मासूमियत। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील एवं विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 72 ☆
☆ लघुकथा – मासूमियत ☆
सुनीता पेट से है, आठवां महीना चल रहा है अब एक साथ सारा काम नहीं होता उससे, सुस्ताती फिर काम में लग जाती। मालकिन ने कहा भी कि नहीं होता तो काम छोड दे, पैसा नहीं काटेंगी, पर सुनीता को डर है कि बच्चा होने के बाद काम ना मिला तो क्या करेगी? दो लडकियां हैं, एक तीन साल की दूसरी पाँच साल की, तीसरा आनेवाला है। घर कैसे चलाएगी वह? मालकिन दिलदार है, उसके खाने – पीने का बहुत ध्यान रखती है इसलिए इसी घर का काम रखा है, बाकी छोड दिए हैं।
काम निपटाने के बाद सुनीता और उसकी लडकियां एक तरफ बैठ गईं। बडकी बोली – अम्मां ! सब काम होय गवा, अब भाभी दैहें ना हम लोगन का अच्छा – अच्छा खाए का? भाभी रोज बहुत अच्छा खाना खिलावत हैं ,सच्ची –। छुटकी बिटिया की नजर तो रसोई से हटी ही नहीं बल्कि बीच – बीच में होंठों पर जीभ भी फिरा लेती । मालकिन ने एक ही थाली में भरपूर भोजन उन तीनों के लिए परोस दिया। दोनों बच्चियां तो इंतजार कर ही रही थीं तुरंत खाने में मगन हो गईं । खाना देकर मालकिन ने सुनीता से पूछा – नवां महीना पूरा होने को है, कब से छुट्टी ले रही हो तुम? सुनीता कुछ बोले इससे पहले उसकी पाँच साल की बडकी सिर नीचे झुकाए खाना खाते – खाते जल्दी से बोली - भाभी ! ऐसा करा अम्मां को रहे दें, हम तोहार सब काम कर देब – झाडू, पोंछा, बर्तन —जो कहबो तुम — –। बस काम छोडे को ना कहैं।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता संतुलन। इस विचारणीय विमर्श के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण लघुकथा “फासले”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 88
☆ लघुकथा — फासले ☆
जय की शादी में मंच पर उस के पिता नहीं आए तो नवविवाहिता अपने को रोक नहीं पाई. अपने पति से पूछ बैठी, “ पापा जी !”
“मंच पर नहीं आएँगे,” जय की आँखों में आंसू आ गए, “ मैं भी चाहता हूँ कि वे यहाँ नहीं आएं.”
पत्नी की निगाहों में प्रश्न था. पति ने धीरे से कहा,“ उन्हें मेरी माँ ने ऐसे ही एक मंच पर, अपनी शादी में बुला कर अपने नए पति के सामने मुझे सौंप दिया था – मुझे अपना प्यार मिल गया और आप को अपना पूत. इसे सम्हालना.” अभी बेटे की बात खत्म नहीं हुई थी कि पिताजी मंच पर खड़े मुस्करा रहे थे.
मानो कह रहे हो,” बेटा ! इस टीस को कब तक सम्हाल कर तो नहीं रख सकता हूँ ना ?”
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “उम्मीद कायम है …”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 68 – उम्मीद कायम है … ☆
किसी घटनाक्रम में जब हम सकारात्मक पहलुओं पर ध्यान देते हैं तो स्वतः ही सब कुछ अच्छा होता जाता है। वहीं नकारात्मक देखने पर खराब असर हमारे मनोमस्तिष्क पर पड़ता है।
अभावों के बीच ही भाव जाग्रत होते हैं। जब कुछ पाने की चाह बलवती हो तो व्यक्ति अपने परिश्रम की मात्रा को और बढ़ा देता और जुट जाता है लक्ष्य प्राप्ति की ओर। ऐसा कहना एक महान विचारक का है। आजकल सोशल मीडिया पर सबसे ज्यादा वीडियो इन्हीं विचारों से भरे हुए होते हैं। जिसे देखो वही इन्हें सुनकर अपनी जीवनशैली बदलने की धुन में लगा हुआ है। बात इतने पर आकर रुक जाती तो भी कोई बात नहीं थी लोग तो सशुल्क कक्षाएँ भी चला रहे हैं। जिनकी फीस आम आदमी के बस की बात नहीं होती है क्योंकि इन्हें देखने वाले वही लोग होते हैं जो केवल टाइम पास के लिए इन्हें देखते हैं। दरसल चार लोगों के बीच बैठने पर ये मुद्दा काफी काम आता है कि मैं तो इन लोगों के वीडियो देखकर बहुत प्रभावित हो रहा हूँ। अब मैं भी अपना ब्लॉग/यू ट्यूब चैनल बनाकर उसे बूस्ट पोस्ट करूंगा और देखते ही देखते सारे जगत में प्रसिद्ध हो जाऊँगा।
इतने लुभावने वीडियो होते हैं कि बस कल्पनाओं में खोकर सब कुछ मिल जाता है। जब इन सबसे मन हटा तो सेलिब्रिटी के ब्लॉग देखने लगते हैं बस उनकी दुनिया से खुद को जोड़ते हुए आदर्शवाद की खोखली बातों में उलझकर पूरा दिन बीत जाता है। कभी – कभी मन कह उठता है कि देखो ये लोग कैसे मिलजुल एक दूसरे के ब्लॉग में सहयोग कर रहे हैं। परिवार के चार सदस्य और चारों के अलग-अलग ब्लॉग। एक ही चीज चार बार विभिन्न तरीके से प्रस्तुत करना तो कोई इन सबसे सीखे। सबको लाइक और सब्सक्राइब करते हुए पूरा आनन्द मिल जाता है। मजे की बात, जब डायरी लिखने बैठो तो समझ में आता है कि सारा समय तो इन्हीं कथाकथित महान लोगों को समझने में बिता दिया है। सो उदास मन से खुद को सॉरी कहते हुए अगले दिन की टू डू लिस्ट बनाकर फिर सो जाते हैं।
बस इसी उधेड़बुन में पूरा दिन तो क्या पूरा साल कैसे बीत जाता है पता ही नहीं चल बीतता जा रहा है। हाँ कुछ अच्छा हो रहा है तो वो ये कि मन सकारात्मक रहता है और एक उम्मीद आकर धीरे से कानों में कह जाती है कि धीरज रखो समय आने पर तुम्हारे दिन भी बदलेंगे और तुम भी मोटिवेशनल स्पीकर बनकर यू ट्यूब की बेताज बादशाह बन चमकोगे।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे ।
आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है पञ्चदशोऽध्यायः अध्याय।
स्नेही मित्रो सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा श्रीकृष्ण कृपा से दोहों में किया गया है। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई है। आज आप पढ़िए पन्द्रहवां अध्याय। आनन्द उठाइए।
– डॉ राकेश चक्र
पुरुषोत्तम योग
श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को पुरुषोत्तम योग के बारे में ज्ञान दिया।
श्रीभगवान ने कहा-
है शाश्वत अश्वत्थ तरु, जड़ें दिखें नभ ओर।
शाखाएँ नीचें दिखें, पतवन करें विभोर।। 1
जो जाने इस वृक्ष को, समझे वेद-पुराण।
जग चौबीसी तत्व में,बँटा हुआ प्रिय जान।। 1
शाखाएँ चहुँओर हैं, प्रकृति गुणों से पोष।
विषय टहनियाँ इन्द्रियाँ,जड़ें सकर्मी कोष।। 2
आदि, अंत आधार को, नहीं जानते लोग।
वैसे ही अश्वत्थ है, वेद सिखाए योग।। 3
मूल दृढ़ी इस वृक्ष की, काटे शस्त्र विरक्ति।
जाए ईश्वर शरण में,पाकर मेरी भक्ति।। 4
मोह, प्रतिष्ठा मान से, जो है मानव मुक्त।।
हानि-लाभ में सम रहे, ईश भजन से युक्त।। 5
परमधाम मम श्रेष्ठ है, स्वयं प्रकाशित होय।
भक्ति पंथ जिसको मिला,जनम-मरण कब होय।। 6
मेरे शाश्वत अंश हैं, सकल जगत के जीव।
मन-इन्द्रिय से लड़ रहे, माया यही अतीव।। 7
जो देहात्मन बुद्धि को, ले जाता सँग जीव।
जैसे वायु सुगंध की, उड़ती चले अतीव।। 8
आत्म-चेतना विमल है, करलें प्रभु का ध्यान।
जो जैसी करनी करें, भोगें जन्म जहान।। 9
ज्ञानचक्षु सब देखते, मन ज्ञानी की बात।
अज्ञानी माया ग्रसित, भाग रहा दिन-रात।। 10
भक्ति अटल हो ह्रदय से, हो आत्म में लीन।
ज्ञान चक्षु सब देखते, तन हो स्वच्छ नवीन।। 11
सूर्य-तेज सब हर रहा, सकल जगत अँधियार।
मैं ही सृष्टा सभी का, शशि-पावक सब सार।। 12
मेरे सारे लोक हैं, देता सबको शक्ति।
शशि बनकर मैं रस भरूँ, फूल-फलों अनुरक्ति।। 13
पाचन-पावक जीव में, भरूँ प्राण में श्वास।
अन्न पचाता मैं स्वयं, छोड़ रहा प्रश्वास।। 14
चार प्रकारी अन्न है, कहें एक को पेय।
एक दबाते दाँत से, जो चाटें अवलेह्य।। 14
एक चोष्य है चूसते, मुख में लेकर स्वाद।
वैश्वानर मैं अग्नि हूँ, सबका मैं हूँ आदि।। 14
सब जीवों के ह्रदय में, देता स्मृति- ज्ञान।
विस्मृति भी देते हमीं, हम ही वेद महान।।15
दो प्रकार के जीव
दो प्रकार के जीव हैं,अच्युत-च्युत हैं नाम।
क्षर कहते हैं च्युत को, ये है जगत सकाम।। 16
क्षर अध्यात्मी जगत में, अक्षर ये हो जाय।
जनम-मरण से छूटता, सुख अमृत ही पाय।। 16
क्षर-अक्षर से है अलग, ईश्वर कृपानिधान।
तीन लोक में वास कर, पालक परम् महान।। 17
क्षर-अक्षर के हूँ परे, मैं हूँ सबसे श्रेष्ठ।
वेद कहें परमा पुरुष, तीन लोक कुलश्रेष्ठ।। 18
जो जन संशय त्यागकर, करते मुझसे प्रीत।
करता हूँ कल्याण मैं, चलें भक्ति की रीत।। 19
गुप्त अंश यह वेद का, अर्जुन था ये सार।
जो जानें इस ज्ञान को, होयँ जगत से पार।। 20
इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” पुरुषोत्तम योग ” पन्द्रहवां अध्याय समाप्त।
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार”महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण कविता “जब से मेडल गले में पहनाया…”। )
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है।आज प्रस्तुत है श्री अरुण डनायक जी के जीवन के श्रीकृष्ण जन्माष्टमी से जुड़े अविस्मरणीय एवं प्रेरक संस्मरण/प्रसंग “पन्ना के जुगल किशोर मुरलिया में हीरा जड़े ”)
☆ जीवन यात्रा #81 – 3 – पन्ना के जुगल किशोर मुरलिया में हीरा जड़े ☆
(मेरी आगामी पुस्तक घुमक्कड़ के अध्याय पन्ना और हटा की सुनहरी यादें का एक अंश)
आज जन्माष्टमी है बाल गोपाल , कृष्ण कन्हैया , गिरधर नागर, नन्द किशोर यशोदानंदन, देवकीसुत का जन्मोत्सव का दिन I आगामी छह दिनों तक कभी घर- घर सजाई जाने वाली झाँकी और बालमुकुन्द का झूला तो अब कुछ घरों में सिमट कर रह गया है I पर बृज भूमि अगर कृष्प भक्णि के लिए प्रसिद्द है तो भैया हमाओ बुंदेलखंड भी कछु कम नईया I आज से मैं आपको पन्ना के जुगल किशोर के दर्शन आगामी छह दिनों तक रोज कराउंगा I यह अंश है मेरी आगामी पुस्तक घुमक्कड़ के
पन्ना शहर के मध्य में स्थित जुगल किशोर मंदिर आसपास के क्षेत्रों के लोगों की धार्मिक आस्था व श्रद्धा का केंद्र है I यह प्रसिद्ध और ऐतिहासिक मंदिर उत्तर मध्य कालीन राजपुताना एवं बुन्देली वास्तुकला में निर्मित है I मंदिर के गर्भगृह में राधा कृष्ण की भव्य एवं मनोहारी प्रतिमा स्थापित है जिसे ओरछा से महाराजा छत्रसाल पन्ना लाये थे I बाद में मंदिर का जीर्णोद्धार राजा हिन्दुपत ने सन 1756 में करवाया I राधा कृष्ण की जुगल जोड़ी का प्रतिदिन होने वाला श्रृंगार बुन्देली पहनावे एवं साज-सज्जा के अनुरूप होता है I गर्भगृह के आगे जगमोहन भोग मंडप और विशाल नट मंडप निर्मित है I नट मंडप में छत को सहारा देने के लिए दोनों तरफ गोल खम्भे हैं I गर्भगृह के उपार भव्य गुम्बज शिखर और चारो कोनों पर चार छोटी छोटी मडिया मंदिर की शोभा में चार चाँद लगा देती हैं I मंदिर का प्रवेश द्वार विशाल है और उसके ऊपर राजपूताना शैली में तोरण द्वार बना हुआ है ।
श्री जुगल किशोर मंदिर के बाहर से ही श्री कृष्ण जी और राधा जी की सुंदर प्रतिमा के दर्शन होते हैं । मंदिर परिसर में ही हनुमान एवं शिव जी को समर्पित मंदिर बने हुए हैं । मंदिर के अंदर राधा कृष्ण की सुंदर सजी हुई भव्य मूर्ति अपने आकर्षक श्रंगार के कारण श्रद्धालुओं को सहज ही मोह लेती है I भगवान कृष्ण के हाथ में मुरली है, उनकी मुरली के बारे में कहा जाता है, कि इस मुरली में हीरे जड़े हुए हैं। श्री कृष्ण जी की मूर्ति यहां पर श्याम रंग की है और राधा जी की मूर्ति गौर वर्ण की है। मंदिर में सजावट हेतु लगाए गए झूमर और सुंदर तैल चित्र सहज ही आकर्षित करते हैं I ऐसी ही बाल कृष्ण की लगभग सौ वर्ष पुरानी एक पेंटिंग हमारे दादाजी की स्मृति में जुगल किशोर जी के मंदिर को फरवरी 1956 में हमारे परिवार ने समर्पित की थी ।
पन्ना शहर के मध्य में स्थित जुगल किशोर मंदिर आसपास के क्षेत्रों के लोगों की धार्मिक आस्था व श्रद्धा का केंद्र है I यह प्रसिद्ध और ऐतिहासिक मंदिर उत्तर मध्य कालीन राजपुताना एवं बुन्देली वास्तुकला में निर्मित है I मंदिर के गर्भगृह में राधा कृष्ण की भव्य एवं मनोहारी प्रतिमा स्थापित है जिसे ओरछा से महाराजा छत्रसाल पन्ना लाये थे I बाद में मंदिर का जीर्णोद्धार राजा हिन्दुपत ने सन 1756 में करवाया I राधा कृष्ण की जुगल जोड़ी का प्रतिदिन होने वाला श्रृंगार बुन्देली पहनावे एवं साज-सज्जा के अनुरूप होता है I गर्भगृह के आगे जगमोहन भोग मंडप और विशाल नट मंडप निर्मित है I नट मंडप में छत को सहारा देने के लिए दोनों तरफ गोल खम्भे हैं I गर्भगृह के उपार भव्य गुम्बज शिखर और चारो कोनों पर चार छोटी छोटी मडिया मंदिर की शोभा में चार चाँद लगा देती हैं I मंदिर का प्रवेश द्वार विशाल है और उसके ऊपर राजपूताना शैली में तोरण द्वार बना हुआ है ।
श्री जुगल किशोर मंदिर के बाहर से ही श्री कृष्ण जी और राधा जी की सुंदर प्रतिमा के दर्शन होते हैं । मंदिर परिसर में ही हनुमान एवं शिव जी को समर्पित मंदिर बने हुए हैं। मंदिर के अंदर राधा कृष्ण की सुंदर सजी हुई भव्य मूर्ति अपने आकर्षक श्रंगार के कारण श्रद्धालुओं को सहज ही मोह लेती है I भगवान कृष्ण के हाथ में मुरली है, उनकी मुरली के बारे में कहा जाता है, कि इस मुरली में हीरे जड़े हुए हैं। श्री कृष्ण जी की मूर्ति यहां पर श्याम रंग की है और राधा जी की मूर्ति गौर वर्ण की है। मंदिर में सजावट हेतु लगाए गए झूमर और सुंदर तैल चित्र सहज ही आकर्षित करते हैं I ऐसी ही बाल कृष्ण की लगभग सौ वर्ष पुरानी एक पेंटिंग हमारे दादाजी की स्मृति में जुगल किशोर जी के मंदिर को फरवरी 1956 में हमारे परिवार ने समर्पित की थी ।
मंदिर के पुजारी रोज सुबह 5 बजे जुगलकिशोर को जगाकर उनकी मंगल आरती करते हैं , फिर कनक कटोरा आरती का आयोजन होता है। इसके बाद पट बंद कर दिए जाते हैं। दोपहर 12 बजे फिर मंदिर के द्वार खोले जाते हैं । ढाई बजे जब पूरे शहर के लोग भोजन कर चुके होते हैं, तब भगवान को भोग लगाया जाता है। यह भोग बहुत ही सात्विक वातावरण में पकाया जाता है I मैंने भी एक बार 2010 में मुंबई से पन्ना आकर थाल भोग अर्पित किया था I मैंने मंदिर के पुजारी से इतने विलम्ब से भगवान को दोपहर का भोजन अर्पित करने का कारण पूछ लिया I पंडितजी के अनुसार आमतौर पर मंदिरों में पहले भगवान को भोग लगता है, फिर भक्तों को प्रसाद मिलता है, लेकिन पन्ना के जुगलकिशोर इतने भक्तवत्सल माने जाते हैं कि वे पहले अपने भक्तों को पेट पूजा का मौका देते हैं, उसके बाद ही भोग ग्रहण करते हैं। यही वजह है कि यहां दोपहर के भोजन की आरती 2.30 बजे और रात्रि के भोजन की आरती रात 10.30 बजे होती है । मैं भी पुजारी के इस उत्तर को सुनकर भावविभोर हो गया I इस अनूठी परंपरा और उससे जुड़ी भावना पन्ना वासियों की इस आस्था को और अधिक बल प्रदान करती है कि जुगल किशोरजी अपने राज्य में किसी को भी भूखा नहीं सोने देते । पन्ना के सभी मंदिरों के पट प्राय: रात्रि नौ बजे बंद हो जाते हैं किन्तु जुगल किशोर जू के पट बंद होने का समय साढे दस बजे रात्रि है I