हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 52 ☆ पर्व एवं आस्था ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख  “पर्व एवं आस्था”.)

☆ किसलय की कलम से # 52 ☆

☆ पर्व एवं आस्था ☆

हिन्दु धर्मावलंबी धार्मिक कृत्य करने के समय या दिन को पर्व कहते हैं। लोग बड़ी आस्था, श्रद्धा व पवित्रता से धर्म के निर्देशानुसार अलग-अलग पर्वों पर उपवास, पूजन-हवन, प्रार्थनाएँ, आरती करते हैं, जिससे आनन्दमयी वातावरण निर्मित हो जाता है। शायद ही विश्व में कोई ऐसा धर्म होगा जिसमें इतने बहुसंख्य पर्व मनाए जाते होंगे। आप हिन्दी पञ्चाङ्ग खोल कर देखेंगे तो हर तिथि पर कोई न कोई पर्व दिखाई पड़ ही जाएगा। आप भी पढ़ लीजिए-  प्रथम तिथि पर बैठकी, धुरेड़ी, अन्नकूट पर्व आते हैं। भाईदूज, अक्षय तृतीया, हरतालिका, गणेश चतुर्थी, ऋषि पंचमी, बसंत पंचमी, रंग पंचमी, नाग पंचमी, हलषष्ठी, छठ पूजा, संतान सप्तमी, दुर्गाष्टमी, कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, दशहरा, प्रत्येक माह की एकादशी व द्वादशी (प्रदोष व्रत), धनतेरस, अनंत चतुर्दशी, नरक चौदस, प्रत्येक माह की अमावस्या एवं पूर्णिमा। इस तरह मास में दोनों पक्षों के पन्द्रह-पन्द्रह दिनों में प्रत्येक दिन कोई न कोई पर्व रहता ही है। आशय यह है कि हिन्दुधर्म में प्रत्येक दिन धर्मप्रधान होता है। सभी हिन्दुओं का कर्तव्य है कि वे आस्था और पवित्र मन से दिन की शुरुआत करें और रात्रि में शयन पूर्व प्रभु का नाम लेते हुए उनके प्रति आभार प्रकट करें।

ये तो धर्मोक्त की बातें हुईं। आज इक्कीसवीं सदी में ऐसे कितने प्रतिशत लोग बचे होंगे जो नियमित रूप से धर्मानुसार दिनचर्या अपना रहे होंगे। आज जब अर्थ और स्वार्थ का वर्चस्व स्थापित हो चुका है। निंदा, झूठ, छल, द्वेष आदि को स्वहित में जायज माना जाता है, तब सत्य, आदर्श, प्रेम, परोपकार, सद्भाव, रिश्ते जैसे शब्दों के अर्थ भी बदले-बदले लगने लगे हैं।

हमारे पारंपरिक पर्वों के आदर्श तार-तार हो चुके हैं। हर पर्व को लोग अवसर मानकर अपनी अपनी रोटी सेंकने में लग जाते हैं, जबकि हमारे पर्वों के पीछे कोई न कोई महत्त्वपूर्ण उद्देश्य होते ही हैं। स्वास्थ्य एवं सामाजिक गतिविधियों की सार्थकता से जुड़े ये पर्व हमें परस्पर एक सूत्र में पिरोने का काम करते हैं। पावन, निश्छल एवं सद्भावना पूर्ण वातावरण निर्मित करते हैं, लेकिन जब हम पर्वों को ही महत्त्व नहीं देंगे तो बाकी अन्य सभी बातें गौण हो ही जायेंगी।

आज पर्व का मतलब घर में पकवान बनना होता है। उपवास के नाम पर भरपेट फलाहार करना होता है। हर पर्व पर समाज के लोगों द्वारा इनसे कमाई का, स्वार्थ का, मनोरंजन का, व्यसन का, फूहड़ता का, और तो और अश्लीलता का तरीका ढूँढ़ लिया जाता है। पर्वों में लगने वाली हर सामग्री आम दिनों की अपेक्षा लगभग दुगनी महँगी हो जाती है। खरीदने की अनिवार्यता के चलते व्यापारी वर्ग घटिया वस्तुएँ तथा बासे खाद्य पदार्थ तक बेच डालता है। पर्वों पर हर सेवाएँ भी जाने क्यों महँगी हो जाती हैं। लोग मुनाफे के कोई भी अवसर नहीं छोड़ते। पता नहीं इन लोगों की आस्था पर पत्थर पड़ जाते हैं।

आजकल पर्वों पर भोंड़े नृत्य-गीत-संगीत अथवा द्विअर्थी गानों की धूम मच जाती है। भीड़ की आड़ में लोग अश्लीलता की पराकाष्ठा पार कर जाते हैं। सौन्दर्य-दर्शन जहाँ कुछ पुरुषों के शगल बन जाते हैं, वहीं कुछ युवतियाँ भी सौन्दर्य, आकर्षक एवं लुभावनी दिखने हेतु कोई कोर-कसर नहीं छोड़तीं। छेड़छाड़, वाद-विवाद एवं स्तरहीन टिप्पणियों के चलते मजनूँ प्रकृति के लोग ही दोषी करार दिए जाते हैं। उनकी अधैर्यता का खामियाजा उन्हें पुलिस के सानिध्य में भुगतना पड़ता है।

पर्वों पर आस्था उस वक्त और भी किसी कोने में छिप जाती है, जब जोश का अतिरेक होने लगता है। इतर धर्म तथा हिन्दु धर्म की ईर्ष्या-निन्दा पर विवाद बढ़ते हैं। धर्म की आड़ में प्रतिशोध लिए जाते हैं। कट्टरवादिता के चलते मानवता को रौंद दिया जाता है। इन्हीं पर्वों पर राजनीति की रोटियाँ सेंकना भी कोई नई बात नहीं है। छुटभैये अपने नेता के दबदबे का भरपूर फायदा उठाते हैं।

आज कल पर्व के कुछ दिन पूर्व से कुछ दिनों पश्चात तक बड़े, भव्य, विशाल पंडालों में प्रायोजित तथाकथित धार्मिक आयोजन किए जाते हैं, जिनमें आस्था कम पुरुषों और महिलाओं के परस्पर आकर्षण और सौंदर्य दर्शन की ही प्रधानता होती है। पर्वों के अवसर पर घर से बाहर निकलने वाले कुछ युवक एवं युवतियों का भी यही उद्देश्य रहता है। यहीं पर धर्म और आस्था के तले प्रेम प्रसंग पनपते हैं जिनमें से कुछ वैवाहिक स्थिति तक भी पहुँच जाते हैं। यहाँ तक तो ठीक है, लेकिन प्रेम में धोखा, जबरदस्ती की  घटनाओं के स्रोत क्या है? इन पर अभिभावकों के साथ-साथ स्वयं युवापीढ़ी का भी सावधान रहना अत्यावश्यक है।

वैसे तो अधिकांश पर्व धर्म पर आधारित होते हैं, लेकिन कुछ व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक व प्राकृतिक हित को भी ध्यान में रखकर मनाए जाते हैं, जो सद्भावना, सर्वकल्याण सुख-शांति, स्वच्छता स्वास्थ्य आदि के लिहाज से भी उपयोगी होते हैं। हमारे सभी पर्वों में अकेले मानव ही नहीं पशु-पक्षी, पेड़-पौधों, नदियों-जलस्रोतों, सूर्य,चंद्र, ग्रह, नक्षत्रों के प्रति भी कृतज्ञता ज्ञापित की जाती है।

पर्वों के पावन, रम्य, सुखद वातावरण हमारे बच्चों में अच्छे संस्कारों के बीजारोपण में मददगार साबित होते हैं। मौसमी और अनूठे पकवान नए वस्त्र, घरों की स्वच्छता तथा सौंदर्यीकरण धार्मिक वातावरण  के साथ ही सबकी सहभागिता निश्चित रूप से सकारात्मकता बढ़ाती है। सबके दिलों में नवीन ऊर्जा और सात्विक विचारधारा का जन्म होता है। इन पर्वों के शुभ-अवसरों पर इतर धर्मावलंबियों को भी हमारे पर्व व धार्मिक कृत्यों को नजदीक से देखने-समझने का अवसर मिलता है, जिससे आपस में सद्भावना बढ़ती है। हम भी आगे बढ़कर उनका अभिनंदन करते हैं, क्योंकि हमारा वेदोक्त ही ‘वसुदेव कुटुंबकम’ है।

अंत में बस यही रह जाता है कि यदि हमें अपनी संस्कृति और धर्म को अक्षुण्ण बनाये रखना है, इसकी गरिमा बनाए रखना है तो पर्वों को अवसरवादिता की घटिया भावनाओं से ऊपर उठकर शत-प्रतिशत आस्था के साथ मनाना होगा। हम अपने पर्वों को आस्था पूर्वक पवित्र मन से मनाएँगे तो निश्चित रूप से हमारी भावी पीढ़ी पर्वों का वास्तविक उद्देश्य समझ पाएगी, अन्यथा भूमंडलीकरण एवं आधुनिकता की होड़ में हमारे धर्म और हमारी आस्था का क्या होगा? आप स्वयं समझ सकते हैं।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 99 ☆ भावना के दोहे – श्राद्ध पक्ष ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे – श्राद्ध पक्ष । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 99 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – श्राद्ध पक्ष ☆

हाथ पांव धोकर सभी, बैठे पुरखे द्वार।

स्वागत उनका कर रहा, अपना ही परिवार।।

 

पितरों का तर्पण करें, श्राद्ध पक्ष में आज।

पुरखों के आशीष से, बनते बिगड़े काज।।

 

दूर गए हमसे सभी, दिल के है वे पास।

विदा हुए संसार से, हैं वे सबके खास।।

 

करकशता है काग की, बनी यही पहचान।

फिर भी मिलता है उसे, श्राद्धपक्ष सम्मान।।

 

कांव कांव वो कर रहा, बैठ मुंडेर काग।

लेने आया भाग से, पितरों का वह भाग।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 88 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं   “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 88 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆

(प्राणायाम, चकोरी, हरियाली, हिलकोर, प्रसून)

नमस्कार कर सूर्य का, करिए प्राणायाम

नित होगा जब योग तब, तन-मन में आराम

 

प्रेम चकोरी-सा करें, जैसे चाँद-चकोर

इक टक ही वो ताकती, किये बिना ही शोर

 

रितु पावस मन भावनी, बढ़ती जिसमें प्रीत

सब के मन को मोहते, हरियाली के गीत

 

जब भी देखा श्याम ने, राधा भाव विभोर

प्रेम बरसता नयन से, राधा मन हिलकोर

 

देख प्रेयसी सामने, मन में खिले प्रसून

जब आँखे दो-चार हों, खुशियां होतीं दून

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 90 – हरवलेले प्रेम जेव्हा .. . . ! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? साप्ताहिक स्तम्भ # 90 – विजय साहित्य ?

☆ ✒ हरवलेले प्रेम जेव्हा .. . . ! ✒  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

हरवलेले प्रेम जेव्हा

तुला मला हसू  लागते

तुझ्या माझ्या काळजाला

पुन्हा चूक डसू लागते. . . . !

 

हरवलेले प्रेम जेव्हा

नवी वाट चालू लागते.

जुन जुन प्रेम देखील

नव नवं रूसू लागते. . . . !

 

हरवलेले प्रेम जेव्हा

एकट एकट राहू लागते

तुला मला  एकदा तरी

वाट त्याची दिसू लागते. . . . !

 

हरवलेले प्रेम जेव्हा

आठवणींचे मेघ होते

ओठांमधले नकार  सारे

शब्दांमध्ये फसू लागते. . . . . !

 

हरवलेले प्रेम जेव्हा

तुझी माझी झोप पळवते

नकळत आपल्या डोळ्यात

नवे स्वप्न वसू लागते. . . . !

 

हरवलेले प्रेम जेव्हा

तुला मला शोधू लागते.

काळीजदारी उंबरठ्यावर

वाट बघत बसू लागते.

 

हरवलेले प्रेम जेव्हा

वळवाची सर होते

जपून ठेवलेले वादळवारे

पाऊस होऊन  बरसू लागते. . . . !

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते 

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  9371319798.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ चं म त ग ! – पोपट ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? विविधा ?

? चं म त ग ! ⭐ श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐

? पोपट ! ??

सूर्य मावळतीकडे कलला होता. आता अंधार पडायला सुरवात झाली होती.

सगळीकडे शांतता… आजूबाजूला कोणतेही आवाज ऐकू येत नव्हते. वाटेवर पावसाचं पाणी साचल्यामुळे चालताना पायाचा ‘पचक पचक’ असा आवाज तेवढा येत होता….

गण्याला आज घरी जायला जास्तच उशीर झाला होता, त्यात हा पाऊस. पण रस्ता पायखलाचा होता म्हणून ठीक, पण या पावसामुळे आधीच गावच्या रस्त्याला असलेले मिणमिणते दिवे गुल झाले होते. अजून घर येण्यासाठी त्याला भरपूर रस्ता कापायचा होता. आता चांगलाच अंधार पडला होता आणि अमावस्या असल्यामुळे तो जास्तच गडद आणि भीतीदायक वाटत होता. त्यातल्या त्यात त्या अंधारात त्याला हातातल्या मोबाईल मधल्या विजेरीचा काय तो आधार वाटत होता !

तसा गण्या धीट गडी, पण या अमावस्येच्या किर्र रात्री त्याला नको नको ते आवाज येत असल्याचे भास व्हायला लागले. रस्त्यातले ते नेहमीचे पिंपळाच्या पाराचे वळण आले. गण्या मनांत खरंच घाबरला आणि मोठ मोठ्या आवाजात रामरक्षा म्हणू लागला. त्यात बहुतेक मोबाईलची बॅटरी डाउन झाल्यामुळे मोबाईलची विजेरी पण फडफडायला लागली आणि पाराचे वळण येण्या आधीच तिने अखेरचा श्वास घेतला व गण्याच्या डोळयांपुढे काळोख पसरला. तेवढ्यात पारा खालून त्याला कोणीतरी हसल्याचा आवाज आला. तो आवाज ऐकताच मागे वळून न बघता गण्या घराकडे तिरासारखा धावत सुटला. तो थोडा धावला असेल नसेल तोच पुन्हा एकदा त्या हसण्याचा आवाज त्याच्या कानी पडला, त्या बरोबर गण्या अंगातली होती नव्हती ती शक्ती एकवटून पुन्हा घराच्या दिशेने जोरात धावत सुटला. थोडं पुढे आल्यावर गण्या धीर एकवटून रस्त्यात थांबला व त्या आवाजाचा कानोसा घ्यायचा त्याने पुन्हा प्रयत्न केला. पण आता तो आवाज काही त्याच्या कानी पडला नाही. आता घर पण टप्प्यात आलं होतं त्यामुळे त्याच्या जीवात जीव आला.

घरी आल्या आल्या काहीच न बोलता हात पाय धुवून तो जेवायला बसला. जेवताना पण गप्प गप्प ! शेवटी बायकोने न राहून विचारलंच “आज जेवणात काही कमी जास्त झालंय का?” “नाही” “मग आज एकदम गप्प गप्प, कुणाशी भांडण वगैरे?” बायकोला त्या आवाजबद्दल सांगावे का नाही या विचारात त्याच्या तोंडून “काही नाही गं, थोडी कणकण वाटत्ये, म्हणून…” “अगं बाई, मग असं करा जेवण करून, मी काढा करते तो प्या आणि झोपा बघू, म्हणजे तुम्हाला बरं वाटेल.” “बरं” इतकंच म्हणून गण्यान जेवण आटोपत घेतलं आणि तो पलंगावर आडवा झाला. पण निद्रादेवी काही प्रसन्न व्हायचं लक्षण दिसेना. त्यात पुन्हा त्याच्या कानात तो मगाचा हसण्याचा आवाज येत राहिला. कोण हसत असेल? त्या पारावर भूत खेत असल्याच्या वावड्या त्याने लहानपणा पासून ऐकल्या होत्या. त्यात आजची अमावस्येची रात्र, विचार कर करून त्याच्या डोक्याचा भुगा झाला.  तेवढ्यात बायको काढा घेऊन आली. गाण्याने निमूटपणे काढा घेतला आणि डोक्यावर परत पांघरूण घेऊन निद्रादेवीची आराधना करू लागला. पण तो हसण्याचा आवाज काही त्याची पाठ सोडत नव्हता. विचार कर करून शेवटी त्याचा मेंदू थकला आणि पहाटे पहाटे कधीतरी त्याचा डोळा लागला.

सकाळी गण्या नेहमी प्रमाणे आवरून शाळेला निघाला. आज पावसाचा मागमूस नव्हता, लख्ख ऊन पडले होते. पण कालचा हसण्याचा आवाज काही त्याच्या मनातून जात नव्हता. रस्त्यातला नेहमीचा पिंपळाचा पार आला आणि आज शाळेचा रस्ता बदलावा का, या विचारात असतांनाच त्याचे लक्ष पाराकडे गेले. पारा जवळ म्हादू काहीतरी शोधत असल्याचे त्याला दिसले. गण्याने पुढे होतं “म्हादबा सकाळी सकाळी काय शोधताय पारा जवळ?” “नमस्कार मास्तर. काल पासून मोबाईल हरवला आहे माझा.” “अहो मग घरी शोधा ना, इथे पाराजवळ कशाला….” “मास्तर, काल रात्री घरी मुलाच्या मोबाईल वरून कॉल करून बघितला, बेल वाजत्ये पण घरात कुठेच नाही मिळाला.” “पण मग तो पारा जवळ शोधायच कारण काय?” “मास्तर, आता वय झालं, काल आम्ही मित्र मंडळी इथंच पारावर गप्पा मारत होतो, तेवढ्यात पाऊस यायला लागला. माझ्याकडे छत्री नव्हती” “मग?” “मग मी माझा मोबाईल इथेच कुठे तरी ठेवला, पण तो नक्की कुठे ठेवला हे आठवत नाही बघा.” “अस्स ! मी काही मदत करू का तुम्हाला मोबाईल शोधायला?” “मास्तर तुमच्याकडे मोबाईल आहे ना?” “हो आहे ना” असं म्हणून गण्याने खिशात हात घालून आपला मोबाईल काढला. “हां, मास्तर आता एक काम करा.” “बोला म्हादबा.” “तुमच्या मोबाईल वरून मला फोन लावा बघू.” गण्याने म्हादबाने सांगितलेल्या नंबर वर फोन लावला आणि पिंपळाच्या झाडाच्या ढोलीतून कुणीतरी कालच्या सारखं हसल्याचा आवाज गण्याला आला ! त्या बरोबर “मिळाला, मिळाला” असं आनंदाने ओरडत म्हादबा त्या ढोली जवळ गेला आणि त्याने आतून आपला मोबाईल काढून गण्याला दाखवला, जो अजून जोर जोरात काल रात्री सारखं हसतच होता ! आणि ते हसणं ऐकून गण्या पण कधी हसायला लागला ते त्याच त्यालाच कळलं नाही !

 

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

(सिंगापूर) +6594708959

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 73 ☆ प्यार ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा प्यार । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील एवं विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 73 ☆

☆ लघुकथा – प्यार ☆

रविवार का दिन। घर में छुट्टी के दिन सबके काम इत्मीनान से होते हैं। बच्चे तो दस बजे तक सोकर उठते हैं। रिया जल्दी से नहाने चली गई, छुट्टी के दिन सिर ना धो तो फिर पूरे हफ्ते समय ही नहीं मिलता। ऑफिस से लौटते हुए शाम के सात बज जाते हैं। उसने नहाकर पूजा की और रसोई में जाकर नाश्ता बनाने लगी। रविवार को नाश्ता में कुछ खास चाहिए सबको। आज नाश्ते में इडली बना रही है। नाश्ते में ही ग्यारह बज गए। उसने बच्चों को आवाज लगाई खाने की मेज साफ करने को। तभी पति की आवाज सुनाई दी – रिया! मेरी पैंट शर्ट भी वाशिंग मशीन में डाल देना। झुंझला गई – अपने गंदे कपडे भी धोने को नहीं डालते, बच्चे तो बच्चे ही हैं, ये और —

अरे, बारह बज गए, जल्दी से खाने की तैयारी में लग गई। दाल, चावल,सब्जी बनाते – बनाते दो बजने को आए। गरम  फुलके खिलाने लगी सबको। तीन बजे उसे खाना नसीब हुआ। रसोई समेटकर कमर सीधी करने को लेटी ही थी कि बारिश शुरू हो गई। अरे, मशीन से निकालकर कपडे  बाहर डाल दिए थे , जब तक बच्चों को आवाज लगाएगी कपडे गीले हो जाएंगे, खुद ही भागी। सूखे कपडे तह करके सबकी अल्मारियों में रख दिए, जो थोडे गीले  थे कमरे में सुखा दिए। शाम को फिर वही क्रम रात का खाना, रसोई की सफाई— ।

छुट्टी के दिन के लिए कई काम सोचकर रखती है पर रोजमर्रा के काम में ही रविवार निकल जाता है। छुट्टीवाले दिन कुछ ज्यादा ही थक जाती है। छुट्टी का तो  इंतजार ही अच्छा होता है बस। आँखें बोझिल हो रही थीं। बिस्तर पर लेटी ही थी कि पति ने धीरे से कंधे पर हाथ रखकर कहा – आज सारा दिन मैं घर पर था पर तुम दो मिनट आकर बैठी नहीं मेरे पास, पता नहीं क्या करती रहीं सारा दिन?  प्यार करती हो ना मुझसे? वह जैसे नींद में ही बोली — प्यार? उसके होठों पर मुस्कुराहट आई, पर कुछ बोले बिना ही वह गहरी नींद में सो गई।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 115 ☆ अनुस्वार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता  संतुलन। इस विचारणीय विमर्श के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 115 ☆

? कविता – अनुस्वार ?

चंचला हो

नाक से उच्चारी जाती

मेरी नाक ही तो

हो तुम .

माथे पर सजी तुम्हारी

बिंदी बना देती है

तुम्हें धीर गंभीर .

पंचाक्षरो के

नियमों में बंधी

मेरी गंगा हो तुम

अनुस्वार सी .

लगाकर तुममें डुबकी

पवित्रता का बोध

होता है मुझे .

और

मैं उत्श्रंखल

मूँछ मरोड़ू

ताँक झाँक करता

नाक से कम

ज्यादा मुँह से

बकबक

बोला जाने वाला

ढ़ीठ अनुनासिक सा.

हंसिनी हो तुम

मैं हँसी में

उड़ा दिया गया

काँव काँव करता

कौए सा .

पर तुमने ही

माँ बनकर

मुझे दी है

पुरुषत्व की पूर्णता .

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 69 ☆ हरि इच्छा के आगे ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “हरि इच्छा के आगे ”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 69 – हरि इच्छा के आगे

उम्मीदों का टोकरा लेकर पार्टी में पहुँचे हुए साहब ने देखा कि यहाँ उनकी पूछ- परख कम हो रही है । हमेशा मंच पर बैठने वाले आज दर्शक दीर्घा में बैठकर तालियाँ बजा रहे थे । किसी तरह इस कार्यक्रम को बीतने दो तो आयोजकों की खबर लेता हूँ । वे मन ही मन कहे जा रहे थे कि इतना खर्च कर के आया हूँ, न कोई ढंग का फोटोसेशन न ही मीडिया कवरेज , लगता है खुद ही आगे बढ़कर मोर्चा संभालना होगा ।

सो साहब जी सबकी ओर देखकर मुस्कुराते हुए आगे आकर बोले , आप सबको आनन्दित होते हुए देखना सचमुच सुखकारी लगता है । मैंने तो आज नए लोगों को मौका दिया है, वे अपनी योजनाओं से अवगत करावें । जहाँ जरूरत होगी वहाँ मैं सहयोग को हाजिर हो जाऊँगा ।

जोरदार तालियाँ बजीं, सबसे अधिक मंचासीन लोगों ने बजाई । कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे मनोहर जी ने उन्हें ससम्मान ऊपर बुलाया अब वे भी अपने को विशिष्ट मान रहे थे । दरसल इस तरह के आयोजनों में मुख्य परिचर्चा तो कम ही होती है, सभी लोग केवल अपनी गोटियाँ फिट करने की फिराक में ज्यादा दिखाई देते हैं । पुरस्कारों का लेन देन तो आम बात है किंतु आपसी अचार व्यवहार में कितना सम्मान किसे मिला ये भी नोटिस किया जाता है । जब सिक्का बदलता है तो हिसाब बराबर का होते देर नहीं लगती है ।

लोग क्या कहेंगे इस पर तो हम अपने आपको चलाते ही हैं पर आजकल नए- नए मुद्दे भी इसमें शामिल होते जा रहे हैं । बाकायदा  इवेंट मैनेजर रखा जाता है जिसे सब पहले से ही पता होता है कि कैसा क्या होगा । जिससे रिश्ता बनाकर रखना होता है उसे सबसे पहले और अन्य को उनकी उपयोगिता के आधार पर रखा जाता है । मजे की बात यहाँ उम्र आड़े नहीं आती है बस स्वार्थ सिद्ध होने से मतलब है । वैसे  हम लोग तो प्राचीन काल से ही कर्मयोगी रहे हैं । मैं से दूर होकर कर्म करो, कर्ता बनने की भूल मत करना ये हमें सिखाया गया है । सो हरि इच्छा का जाप करते हुए हमेशा स्थिति के अनुरूप ढल जाने में ही समझदारी दिखती है ।

उम्मीद कायम है …

किसी घटनाक्रम में जब हम सकारात्मक पहलुओं पर ध्यान देते हैं तो स्वतः ही सब कुछ अच्छा होता जाता है। वहीं नकारात्मक देखने पर खराब असर हमारे मनोमस्तिष्क पर पड़ता है।

अभावों के बीच ही भाव जाग्रत होते हैं। जब कुछ पाने की चाह बलवती हो तो व्यक्ति अपने परिश्रम की मात्रा को और बढ़ा देता और जुट जाता है लक्ष्य प्राप्ति की ओर। ऐसा कहना एक महान विचारक का है। आजकल सोशल मीडिया पर सबसे ज्यादा  वीडियो इन्हीं विचारों से भरे हुए होते हैं। जिसे देखो वही इन्हें सुनकर अपनी जीवनशैली बदलने की धुन में लगा हुआ है। बात इतने पर आकर रुक जाती तो भी कोई बात नहीं थी लोग तो सशुल्क कक्षाएँ  भी चला रहे हैं। जिनकी फीस आम आदमी के बस की बात नहीं होती है क्योंकि इन्हें देखने वाले वही लोग होते हैं जो केवल टाइम पास के लिए इन्हें देखते हैं। दरसल चार लोगों के बीच बैठने पर ये मुद्दा काफी काम आता है कि मैं तो इन लोगों के वीडियो देखकर बहुत प्रभावित हो रहा हूँ। अब मैं भी अपना ब्लॉग/यू ट्यूब चैनल बनाकर उसे बूस्ट पोस्ट करूंगा  और देखते ही देखते  सारे जगत में प्रसिद्ध हो जाऊँगा।

इतने लुभावने वीडियो होते हैं कि बस कल्पनाओं में खोकर सब कुछ मिल जाता है। जब इन सबसे मन हटा तो सेलिब्रिटी के ब्लॉग देखने लगते हैं बस उनकी दुनिया से खुद को जोड़ते हुए आदर्शवाद की खोखली बातों में उलझकर पूरा दिन बीत जाता है। कभी – कभी मन कह उठता है कि देखो ये लोग कैसे मिलजुल एक दूसरे के ब्लॉग में सहयोग कर रहे हैं। परिवार के चार सदस्य और चारों के अलग-अलग ब्लॉग। एक ही चीज चार बार विभिन्न तरीके से प्रस्तुत करना तो कोई इन सबसे सीखे। सबको लाइक और सब्सक्राइब करते हुए पूरा आनन्द मिल जाता है। मजे की बात,  जब डायरी लिखने बैठो तो समझ में आता है कि सारा समय तो इन्हीं कथाकथित महान लोगों को समझने में बिता दिया है। सो उदास मन से खुद को सॉरी कहते हुए अगले दिन की टू डू लिस्ट बनाकर फिर सो जाते हैं। 

बस इसी  उधेड़बुन में पूरा दिन तो क्या पूरा साल कैसे बीत जाता है पता ही नहीं चल बीतता जा रहा है। हाँ कुछ अच्छा हो रहा है तो वो ये कि मन सकारात्मक रहता है और एक उम्मीद आकर धीरे से कानों में कह जाती है कि धीरज रखो समय आने पर तुम्हारे दिन भी बदलेंगे और तुम भी मोटिवेशनल स्पीकर बनकर यू ट्यूब की बेताज बादशाह बन चमकोगे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 89 – लघुकथा – सहयोग ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण लघुकथा  “सहयोग।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 89

☆ लघुकथा — सहयोग ☆ 

” उसे जरूरी काम है। अवकाश मंजूर कर दो भाई।”

” नहीं करूंगा। वह अपने आपको बहुत ज्यादा होशियार समझता है।” प्रभारी प्राचार्य ने कहा।

” उसकी मजबूरी है। देख लो।”

“उससे कहो- वह मेरी बात मान ले।”

“अरे भाई ! वह नास्तिक है। आपकी बात कैसे मान  सकता है? ” उसके साथी ने सिफारिश करते हुए कहा।

” उससे कहो- ताली एक हाथ से नहीं बजती है,”  प्राचार्य ने विजय मुद्रा में मुस्कुराते हुए कहा,”  वह मंदिर-निर्माण के लिए दान दे कर मेरा सहयोग करें तब मैं उस का अवकाश मंजूर कर के उसका सहयोग करूंगा।”

यह निर्णय सुनते ही उसका साथी चुप हो गया।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

17-08-21

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 77 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – षोडशोऽध्यायः ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है षोडशोऽध्यायः

पुस्तक इस फ्लिपकार्ट लिंक पर उपलब्ध है =>> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 77 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – षोडशोऽध्यायः ☆ 

स्नेही मित्रो सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा श्रीकृष्ण कृपा से दोहों में किया गया है। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई है। आज आप पढ़िए सोलहवाँ अध्याय। आनन्द उठाइए। ??

– डॉ राकेश चक्र।।

☆ सोलहवाँ अध्याय – दैवीय और आसुरी स्वभाव ☆

श्रीकृष्ण भगवान ने इस अध्याय में अर्जुन को दैवीय व आसुरी स्वभाव के बारे में ज्ञान दिया। दो प्रकार के मनुष्य भगवान ने वर्णित किए हैं, एक दैव प्रकृति के तथा दूसरे आसुरी प्रवत्ति के। उनके गुण व अवगुण भगवान ने बताए हैं –

 

दैवीय मनुष्यों  के गुण इस प्रकार हैं

 

दैव तुल्य हैं जो मनुज,दैव प्रकृति सम्पन्न।

भरतपुत्र! होते नहीं, वे ईश्वर से भिन्न ।। 1

 

आत्म-शुद्ध आध्यात्म से,हो परिपूरित ज्ञान।

संयम अनुशीलन करे,सदा सुपावन दान।। 2

यज्ञ, तपस्या भी करें, पढें शास्त्र व वेद।

सत्य, अहिंसा भाव से, करें क्रोध पर खेद।। 2

 

शान्ति, क्षमा,करुणा,रखें,हो न हृदय में भेद।

लोभ विहीना ही रहें, करें दया, रख तेज।। 3

लज्जा हो , संकल्प हो, मन से रहे पवित्र।

यश की करे न कामना, धैर्य , प्रेम हो मित्र।।3

 

दम्भ, दर्प, अभिमान सब,हैं आसुरी स्वभाव।

क्रोधाज्ञान, कठोरता, देते सबको घाव।। 4

 

दिव्य गुणी देते रहे, मानव तन को मोक्ष।

वृत्ति आसुरी दानवी, माया करे अबोध।। 5

 

दो प्रकार के हैं मनुज, असुर,दूसरे देव।

दैवीय गुण बतला चुका, सुनलो असुर कुटेव।। 6

 

भगवान ने असुर स्वभाव के मनुजों के बारे में बताया है—

 

वृत्ति आसुरी मूढ़ नर, रखते नहीं विवेक।

हो असत्य,अपवित्रता, नहीं आचरण नेक।। 7

 

मिथ्या जग को मानते, ना इसका आधार।

सृष्टा से होकर विमुख,करते भोगाचार।। 8

 

आत्म-ज्ञान खोएँ असुर, चाहें दुर्मद राज।

बुद्धिहीन बनकर सदा, करें न उत्तम काज।। 9

 

मद में डूबें गर्व से , झूठ प्रतिष्ठा चाह।

मोह-ग्रस्त संतोष बिन, सबको करें तबाह।। 10

 

इन्द्रिय के आश्रित रहें,जानें केवल भोग।

चिन्ता करते मरण तक, रहते नहीं निरोग।। 11

 

इच्छाओं की चाह में, करें पाप के काम।

मुफ्त माल चाहें सदा, क्रोध करें अतिकाम।। 12

 

असुरों के स्वभाव के बारे में भगवान ने बताया——–

 

 व्यक्ति आसुरी सोचता, धन भी रहे अथाह।

वृद्धि उत्तरोत्तर करूँ, बस दौलत की चाह।। 13

 

मन में रखते शत्रुता, करें शत्रु पर वार।

सुख सुविधा चाहें सभी, सोचें मैं संसार।। 14

 

करें कल्पना मैं सुखी, मैं ही सशक्तिमान।

मुझसे बड़ा न कोय है, करें सभी सम्मान।। 15

 

चिन्ता कर, उद्विग्न रह, बँधे मोह के जाल।

चाहें इन्द्रिय भोग सब, बढ़ें नरक के काल।। 16

 

श्रेष्ठ मानते स्वयं को, करते सदा घमण्ड।

विधि-विधान माने नहीं, जकड़े मोह प्रचंड।। 17

 

अहंकार, बल, दर्प से, करते काम या क्रोध।।

प्रभु ईर्ष्या कर रहे , सत से रहें अबोध।।18

 

क्रूर , नराधम जो मनुज, और बड़े ईर्ष्यालु।

प्राप्त अधोगति को हुए , ईश न होयँ कृपालु।। 19

 

प्राप्त अधोगति को हुए, असुर प्रवृत्ति के लोग।

बार-बार वे जन्म लें, भोगें फल का भोग।। 20

 

तीन नरक के द्वार, काम, क्रोध सँग लोभ।

बुद्धिमान को चाहिए, कर लें इनसे क्षोभ।। 21

 

नरक द्वार से जो बचें, उनका हो कल्यान।

प्राप्त परमगति को करें, बढ़े सदा सम्मान।।22

 

जो जन शास्त्रादेश की,नहीं मानते बात।

उन्हें मिली सुख-सिद्धि कब, मिलती तम की रात।। 23

 

शास्त्र पढ़ें, उनको गुनें, जानें सुविधि- विधान।

उच्च शिखर पर पहुँचते, होता है कल्यान।। 24

 

इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” दैवीय और आसुरी स्वभाव ब्रह्मयोग ” सोलहवाँ अध्याय समाप्त।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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