(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता “अटपटे परिवेश में सद्भाव का घुटता है दम। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ काव्य धारा # 47 ☆ अटपटे परिवेश में सद्भाव का घुटता है दम ☆
जहां के वातावरण में घुली रहती व्यंग्य भाषा
चोटें ही करती है स्वागत स्नेह की संभव न आशा
बजा करते फिर वही गाने जमाने के पुराने
रास्ते संकरे हैं इतने कठिन होता निकल पाने
ऐसे तो परिवेश में सद्भाव का घुटता है दम
सांस ले सकने को समुचित वायु मिल पाती है कम
जहां जाके कभी मन की बातें कोई कह ना पाता
बात कब क्या मोड़ ले यह समझ में कुछ भी ना आता
सशंकित रहती है सांसे कब बजे कोई नया स्वर
कब उठे आंधी कभी कोई या दिखे मुस्कान मुंह पर
ऐसे तो परिवेश में सद्भाव का घुटता है दम
सांस ले सकने को समुचित वायु मिल पाती है कम
सही बातें होने पर भी कब सहज आयें उबालें
या पुरानी गठरियों से बातें नई जाएं निकाले
या कि फिर अभिमान के अंगार नए कोई सुलग जांए
उचित शब्दों के भी कोई अर्थ उल्टे समजें जायें
ऐसे तो परिवेश में सद्भाव का घुटता है दम
सांस ले सकने को समुचित वायु मिल पाती है कम
अनिश्चित व्यवहार का रहता जहां डर व्याप्त मन में
बेतुकी बातों का है भंडार जहां अटपट वचन में
अप्रसांगित बातों में जहां हाँ में हाँ को न मिलायें
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय साप्ताहिकआलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी “मैं” की यात्रा का पथिक…3”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…3 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆
वीणा के तार जब न अधिक कसे होते हैं और न ढीले होते हैं, तभी संगीत पैदा होता है। जीवन के संगीत को पाने का सूत्र भी यही है। जो आध्यात्म-योग के माध्यम से पांचों इंद्रियों और मन को संतुलन में रखता है, उसे ही जीवन का अमृत प्राप्त होता है। कबीर कहते हैं : ज्यों कि त्यों धर दीनी चदरिया। अध्यात्म की यात्रा पर चलने से जीवन बदल जाता है। बदलने का सबसे बड़ा उपाय है -आत्मा को “मैं” के द्वारा देखना। जब तक भीतर नहीं देखा जाता तब तक बदलाव नहीं होता, रूपांतरण नहीं होता।
शास्त्रों में एक सूत्र है -जहां राग होता है वहीं द्वेष होता है। द्वेष कड़वा होता है, वह तो छूट जाता है, पर राग मीठा जहर है। वह आसानी से नहीं छूटता। इसीलिए आचार्यों ने कहा है कि यदि राग को जड़ से काट दें तो द्वेष पैदा ही न हो। आसक्ति ही आत्मा के केंद्र से च्युति का कारण है। आसक्ति के कारण एक के प्रति राग और दूसरे के प्रति द्वेष हो ही जाता है।
“मैं” को आत्मबोध की अनुभूति की राह में राग और द्वेष बड़े रोड़े हैं। उनसे लड़े बग़ैर “मैं” स्वयं की आरम्भिक मौखिक अनुभूति तक नहीं पहुँचा सकता। “मैं’ के निर्माण की प्रक्रिया में इंद्रियों से अनुराग पहली सीढ़ी थी। “मैं” के मुँह में माँ के दूध की पहली बूँद और उसके नरम अहसास की पहली अनुभूति राग का पहला पाठ था। माँ का “मैं” को सहलाना, लोरी सुनाना, माँ की देह की सुगंध “मैं” की नासिका में पहुँचना राग का दूसरा पाठ था। माँ-बाप का “मैं” को दुलराना, खिलाना और झुलाना तीसरा पाठ था। कामना की उत्पत्ति यहीं से होती है।
राग की आरम्भिक अवस्था में जब भी कामना की पूर्ति में व्यवधान आता है तब “मैं” रोता है, मचलता है, खीझता है। फिर भी कामना पूरी नहीं होती तो “मैं” पहली बार क्रोध की अनुभूति करता है। जब बार-बार कामना निष्फल होती है तो द्वेष का पहला सबक़ मिलता है। “मैं” के आसपास जिनकी कामना पूरी हो रही है, उनसे द्वेष उत्पन्न होता है। यही राग-द्वेष माया प्रपंच आत्मबोध की राह पर चलने की बाधा है।
तो क्या माता-पिता का प्यार साज सम्भाल बेकार की बातें हैं? नहीं, बेकार की बातें नहीं हैं। वे अपना कर्तव्य निभा कर “मैं” के मन में अधिकारों का अविच्छिन्न अधिकार रच रहे थे, और “मैं” की कामना संतुष्ट न होने पर द्वेष का ज़ाल बुन रहे थे। वे अपने प्रेम से “मैं” के अंदर कभी न संतुष्ट होने वाले मन को खाद-पानी दे रहे थे। जिनके बग़ैर “मैं” का विकास सम्भव नहीं था। वे अपने पितृ ऋण से उऋण हो रहे थे।
जब तुमने यही काम अपने बच्चों के लिए किया, तुम अपने पितृ ऋण से उऋण हो गए। लेकिन इस प्रक्रिया में रचा राग-द्वेष का चक्र अभी भी तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ रहा है। यही तुम्हारी बेचैनी का कारण है। यही माया का प्रबल अस्त्र “मैं” को सरल होने की राह की बाधा है। राग और प्रेम में एक फ़र्क़ है। राग कामनाओं का मकड़जाल बुनता है। प्रेम माँ के कर्तव्य की तरह कामना रहित निष्काम कर्म है, जो मैं को मुक्त करता है। “मैं” को एक काम करना है। मुक्त होने के लिए उसे माँ बनना है। सिर्फ़ निष्काम कर्म करना है, अनासक्त भाव से फल निर्लिप्त कर्म।
राग आकर्षण का सिद्धांत है और द्वेष विकर्षण का। इस तरह द्वंद्व की स्थिति बनी ही रहती है। यद्यपि आत्मा अपने स्वभाव के अनुसार समता की स्थिति में रमण करती है, लेकिन राग-द्वेष आदि की उपस्थिति किसी भी स्थायी संतुलन की स्थिति को संभव नहीं होने देती। यही विषमता का मूल आधार है। आज की युवा पीढ़ी पूछती है -धर्म क्या है? किस धर्म को मानें? मंदिर में जाएं या स्थानक में? अथवा आचरण में शुद्धता लाएं? कुछ धर्मानुरागियों के आडंबर और व्यापार आचरण को देखकर भी युवा पीढ़ी धर्म-विमुख होती जा रही है। धर्म ढकोसले में नहीं, आचरण में है। धर्म जीवन का अंग है। समता धर्म का मूल है। धर्म की सबसे बड़ी उपलब्धि है -अध्यात्म की यात्रा। जो धर्म अपने अनुयायियों से अध्यात्म की यात्रा नहीं कराता, वह धर्म एक प्रकार से छलना है, धोखा है, ढोंग है और यदि उसे कम्युनिस्टों की तर्ज़ पर अफीम भी कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #60 – लाल फर्श वाला कमरा ☆ श्री आशीष कुमार☆
इस बार जब घर गया तो कुछ देर के लिए अकेला जाकर लाल फर्श वाले कमरे में बिस्तर पर लेट गया।
वो कमरा जो बचपन में बहुत बड़ा लगता था अब वो बहुत छोटा लगने लगा था क्योकि मैं शायद अपने आपको बहुत बड़ा समझने लगा था।
मैं कुछ ही देर लेटा था की तुरंत यादें मन का हाथ थामे ले गयी मुझे बचपन में
जब इस कमरे में बैठकर पूरा परिवार होली से पहले गुंजिया बनवाता था।
हां वो ही कमरा जिसमे दिवाली की पूजा होती थी और पूजा के दौरान मन बेचैन रहता था की जल्दी पूजा ख़त्म हो और मैं अपने भाई- बहन के साथ घर की छत पर जाकर पठाखे फोड़ सकू।
अनायास ही मेरा ध्यान उस कमरे के टांड पर चला गया जो लाधे खड़ा था मेरा हँसता हुआ बचपन अपने कंधो पर।
पता नहीं अचानक मुझे क्या हुआ मैं बिस्तर पर से उठा और उस टांड के सिरों को सहलाने लगा जो मेरी खुशियों का बोझ उठाते उठाते बूढा हो चला था।
जिस पर एक बार घरवालों से छिपाकर मैंने एक कॉमिक छुपाई थी
उस टांड के गले में हम पैरो को फंसा कर उल्टा लटककर बेताल बना करते थे।
एक बार छुपन-छुपाई में मैं उस टांड पर चढ़ कर बैठा गया था और आगे से पर्दा लगा लिया था।
तभी मेरा ध्यान कमरे में लगें कढ़ो पर गया क्योकि कमरा पुराना था इसलिए कढ़ो वाला था।
वो कढ़ा भी मेरी ओर देखकर 360 की मुसकुराहट दे रहा था जिसमे से होकर हम डैक के स्पीकरों का तार निकला करते थे।
कमरे की दीवारों की पुताई कई जगह से छूट गयी थी और कई परतों के बीच मेरे बचपन वाली पुताई की परत ऐसे झांक कर देख रही थी जैसे गुजरे ज़माने में घर की बहुएँ किसी बुजुर्ग को अपने पल्ले के परदे के पीछे से झांकती थी।
अब उस कमरे में लाल रंग का फर्श नहीं रहा
wooden flooring हो गयी है
जिस कमरे को मैं छोटा सोच रहा था उसमे तो मेरा पूरा बचपन बसा था
अब मैं आपने आप को उस कमरे मे फिर से बहुत छोटा अनुभव कर रहा था ।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख ग़क़ामयाब-नाक़ामयाब। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 101 ☆
☆ क़ामयाब-नाक़ामयाब ☆
‘कोशिश करो और नाकाम हो जाओ, तो भी नाकामी से घबराओ नहीं; फिर कोशिश करो। अच्छी नाकामी सबके हिस्से में नहीं आती’– सैमुअल वेकेट मानव को यही संदेश देते हैं कि ‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।’ इसलिए मानव को नाकामी से घबराना नहीं चाहिए, बल्कि मकड़ी से सीख लेकर बार-बार प्रयत्न करना चाहिए। जैसे किंग ब्रूस ने मकड़ी को बार-बार गिरते-उठते व अपने कार्य में तल्लीन होते देखा और उसके हृदय में साहस संचरित हुआ। उन्होंने युद्ध-क्षेत्र की ओर पदार्पण किया और वे सफल होकर लौटे। जार्ज एडीसन का उदाहरण भी सबके समक्ष है। अनेक बार असफल होने पर भी उन्होंने पराजय स्वीकार नहीं की, बल्कि अपने दोस्तों को आश्वस्त किया कि उनकी मेहनत व्यर्थ नहीं हुई। अब उन्हें वे सब प्रयोग दोहराने की आवश्यकता नहीं होगी। अंततः वे बल्ब का आविष्कार करने में सफल हुए।
‘पूर्णता के साथ किसी और के जीवन की नकल कर जीने की तुलना में अपने आप को पहचान कर अपूर्ण रूप से जीना बेहतर है।’ भगवान श्रीकृष्ण मानव को अपनी राह का निर्माण स्वयं करने को प्रेरित करते हैं। यदि हमें अपने लक्ष्य की प्राप्ति करनी है, तो हमें अपनी राह का निर्माण स्वयं करना होगा, क्योंकि लीक पर चलने वाले कभी भी मील के पत्थर स्थापित नहीं कर सकते। बनूवेनर्ग उस व्यक्ति का जीवन निष्फल बताते हुए कहते हैं कि ‘जो वक्त की कीमत नहीं जानता; उसका जन्म किसी महान् कार्य के लिए नहीं हुआ।’ वे मानव को ‘एकला चलो रे’ का संदेश देते हुए कहते हैं कि ज़िंदगी इम्तिहान लेती है। सो! आगामी आपदाओं के सिर पर पांव रख कर हमें अपने मंज़िल की ओर अग्रसर होना चाहिए।
जीवन में समस्याएं आती हैं और जब कोई समस्या हल हो जाती है, तो हमें बहुत सुक़ून प्राप्त होता है। परंतु जब समस्या सामने होती है, तो हमारे हाथ-पांव फूल जाते हैं और कुछ लोग तो उस स्थिति में अवसाद का शिकार हो जाते हैं। रॉबर्ट और उपडेग्रॉफ ‘थैंकफुल फॉर योअर ट्रबल्स’ पुस्तक में समस्याओं के समाधान प्रस्तुत करते हुए इस तथ्य पर प्रकाश डालते हैं कि हम चतुराई व समझदारी से समस्याओं के ख़ौफ से बच सकते हैं और उनके बोझ से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। अधिकतर समस्याएं हमारे मस्तिष्क की उपज होती हैं और वे उनके शिकंजे से मुक्त होकर बाहर नहीं आतीं। अधिकतर बीमारियां बेवजह की चिन्ता का परिणाम होती हैं। हमारा मस्तिष्क उन चुनौतियों को, समस्याएं मानने लगता है और एक अंतराल के पश्चात् वे हमारे अवचेतन मन में इस क़दर रच-बस जाती हैं कि हम उनके अस्तित्व के बारे में सोचते ही नहीं। वास्तव में संसार में हर समस्या का समाधान उपलब्ध है। हमें अपनी सूझ-बूझ से उन्हें सुलझाने का प्रयास करना चाहिए। इस प्रकार हमें न केवल आनंद की प्राप्ति होगी, बल्कि अनुभव व ज्ञान भी प्राप्त होगा। मुझे स्मरण हो रहा है वह प्रसंग –जब एक युवती संत के पास अपनी जिज्ञासा लेकर पहुंचती है कि उसे विवाह योग्य सुयोग्य वर नहीं मिल रहा। संत ने उस से एक बहुत सुंदर फूल लाने की पेशकश की और कहा कि ‘उसे पीछे नहीं मुड़ना है’ और शाम को उसके खाली हाथ लौटने पर संत ने उसे सीख दी कि ‘जीवन भी इसी प्रकार है। यदि आप सबसे योग्य की तलाश में भटकते रहोगे, तो जो संभव है; उससे भी हाथ धो बैठोगे।’ इसलिए जो प्राप्तव्य है, उसमें संतोष करने की आदत बनाओ। राधाकृष्णन जी के मतानुसार ‘आदमी के पास क्या है, यह इतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना यह कि वह क्या है?’ सो गुणवत्ता का महत्व है और मानव को संचय की प्रवृत्ति को त्याग उपयोगी व उत्तम पाने की चेष्टा करनी चाहिए।
जीवन में यदि हम सचेत रहते हैं, तो शांत, सुखी व सुरक्षित जीवन जी सकते हैं। इसलिए हमें समय के मूल्य को समझना चाहिए और आगामी आपदाओं के आगमन से पहले पूरी तैयारी कर लेनी चाहिए ताकि हमें किसी प्रकार की हानि न उठानी पड़े। इसलिए कहा जाता है कि यदि हम विपत्ति के आने के पश्चात् सजग व सचेत नहीं रहते, तो विनाश निश्चित है और उन्हें सदैव हानि उठानी पड़ती है। सो! हमें चीटियों से भी शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए, क्योंकि वे सदैव अनुशासित रहती हैं और एक-एक कण संकट के समय के लिए एकत्रित करके रखती हैं। मुसीबतों से नज़रें चुराने से कोई लाभ नहीं होता। इसलिए मानव को उनका साहस-पूर्वक सामना करना चाहिए।
समस्याएं डर व भय से उत्पन्न होती हैं। यदि जीवन में भय का स्थान विश्वास ले ले, तो वे अवसर बन जाती हैं। नेपोलियन हिल पूर्ण विश्वास के साथ समस्याओं का सामना करते थे और उन्हें अवसर में बदल डालते थे। अक्सर वे ऐसे लोगों को बधाई देते थे, जो उनसे समस्या का ज़िक्र करते थे, क्योंकि उन्हें विश्वास था कि यदि आपके जीवन में समस्या आई है, तो बड़ा अवसर आपके सम्मुख है। सो! उसका पूर्ण लाभ उठाएं और समस्या की कालिमा में स्वर्णिम रेखा खींच दें। हौसलों के सामने समस्याएं सदैव नतमस्तक होती हैं और उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकतीं। इसलिए उनसे भय कैसा?
गंभीर समस्याओं को भी अवसर में बदला जा सकता है। यदि हम समस्याओं के समय मन:स्थिति को बदल दे और सोचें कि वे क्यों, कब और कैसे उत्पन्न हुईं और उसने कितनी हानि हो सकती है… लिख लें कि उनके समाधान मिलने पर उन्हें क्या प्राप्त होगा– मानसिक शांति, अर्थ व उपहार। यदि वे सब प्राप्त होते हैं, तो वह समस्या नहीं, अवसर है और उसे ग्रहण करना श्रेयस्कर है।
आइए! एक प्रसन्नचित्त व्यक्ति के बारे में जानें कि वह अपना जीवन किस प्रकार व्यतीत करता था। वह अपने दिनभर की मानसिक समस्याएं अपने दरवाज़े के सामने वाले पेड़ ‘प्राइवेट ट्रबल ट्री ‘ अर्थात् कॉपर ट्री पर टांग आता था और अगले दिन जब वह काम पर जाते हुए उन्हें उठाता और देखता कि 50% समस्याएं तो समाप्त हो चुकी होती थीं और शेष भी इतनी भारी व चिंजाजनक नहीं होती थीं। इससे सिद्ध होता है कि हम व्यर्थ ही अपने मनो-मस्तिष्क पर बोझ रखते हैं; बेवजह की चिंताओं में उलझे रहते हैं। सो! हमें समस्या को अवसर में बदलना सीखना होगा और उन्हें तन्मयता से सुलझाना होगा। उस स्थिति में वे अवसर बन जाएंगी। वैसे भी जो व्यक्ति अवसर का लाभ नहीं उठाता; मूर्ख कहलाता है तथा सदैव भाग्य के सहारे प्रतीक्षा करता रह जाता है। इसलिए मानव को केवल दृढ़-निश्चयी ही नहीं; पुरुषार्थी बनना होगा और अथक परिश्रम से अपनी मंज़िल पर पहुंचना होगा, क्योंकि जीवन में दूसरों से उम्मीद रखना कारग़र नहीं है।
(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय एवं सार्थक आलेख “ऑन लाईन खरीदी में ठगे जाते लोग”.)
☆ किसलय की कलम से # 53 ☆
☆ ऑन लाईन खरीदी में ठगे जाते लोग ☆
वर्तमान में ऑन लाईन खरीदी का प्रचलन बढ़ता ही जा रहा है। यह खासतौर पर नई पीढ़ी का शौक अथवा यूँ कहें कि ये उनकी विवशता बनती जा रही है। आज एक ओर कुछ ऑन लाईन विक्रय करने वाली कंपनियाँ और एजेंसियाँ ऐसी हैं जिन्होंने अपनी सेवा और गुणवत्ता से लोगों का दिल जीत लिया है। उनकी नियमित और त्वरित सेवाओं के साथ-साथ नापसंदगी व टूट-फूट आदि पर वापसी की सुविधा रहती है। जिस कारण लोगों का विश्वास भी बढ़ता जा रहा है। वहीं दूसरी ओर ऐसी असंख्य ऑन लाईन विक्रय करने वाली वेब साईट्स और कंपनियाँ बाजार में उतरती जा रही हैं जिनका काम ग्राहकों को केवल और केवल ठगना ही होता है। यह हम बहुत पहले से सुनते आए हैं कि रेडियो बुलाने पर पैकिंग के अंदर घटिया खिलौने निकलते हैं। यहाँ तक कि पत्थर, लकड़ी के टुकड़े या पेपर के गत्ते बंद पार्सल में मिले हैं। इनके उत्पाद तो इतने लुभावने होते हैं कि अधिकतर लोग उनके झाँसे में आकर ऑर्डर बुक कर ही देते हैं। दिखाये जाने वाले चित्रों में सामग्री अथवा उत्पादों को इतने आकर्षक और उत्कृष्टता के साथ प्रदर्शित किया जाता है कि उस पर विश्वास कर हम ऑर्डर करने हेतु विवश होकर बहुत बड़ी भूल कर बैठते हैं। एक बार पार्सल खुलने और उसमें वांछित उत्पाद न निकलने पर कंपनी द्वारा उलझाया और कई तरह से घुमाया जाता है। लाख संपर्क करने पर भी तरह-तरह की बातें करते करते हुये उल्टे आप को ही दोषी साबित कर दिया जाता है। इस तरह 100 में से 99 लोग बेवकूफ बनते हैं। 1% लोगों को दोबारा उत्पाद प्राप्त तो हो जाता है, लेकिन तब तक उस उत्पाद की कीमत से कई गुना अधिक पैसा, समय और तनाव लोग झेल चुके होते हैं। मैं स्वयं भी इस ठगी का भुक्तभोगी हूँ कि मुझे उत्पाद बदल कर नहीं मिल पाया। एक बात और होती है कि इन एजेंसियों और कंपनियों की सेवा शर्तें तथा नियमावलियाँ ऐसी होती हैं कि आप चाह कर भी उनके विरुद्ध कुछ भी नहीं कर पाते। शर्तें, नियम और कानून इतने विस्तृत और बारीक शब्दों में प्रिंट होते हैं कि लेंस से भी पढ़ने में कठिनाई होगी। कटे-फटे कपड़े, टूटा-फूटा सामान, अमानक और घटिया उत्पाद भेजना ऐसी अज्ञात-सी कंपनियों का उद्देश्य ही रहता है। दिखाई देने में सस्ते प्रतीत होने वाले उत्पाद पार्सल खोलते ही घटिया स्तर की कचरे में फेंकने जैसी वस्तु प्रतीत होते हैं। कुछ तो पहली या दूसरी बार उपयोग करते ही दम तोड़ देते हैं। यह सब हमारे आलस और कुछ अज्ञानता के चलते होता है। हम घर बैठे सामान प्राप्त होने की सुविधा के चलते सोचते हैं कि मार्केट जाने का खर्चा बच जाएगा या फिर सोचते हैं कि यह वस्तु बाजार में उपलब्ध ही नहीं होगी, जबकि ऐसा नहीं होता। क्योंकि आज के युग में उत्पाद के लांच होते ही वह यत्र-तत्र-सर्वत्र उपलब्ध हो ही जाती है, बस हमें मार्केट जाकर थोड़ी पूछताँछ करना होती है। कुछ जगहों पर घूमना पड़ता है। फिर ये चीजें इतनी उपयोगी तो होती ही नहीं है कि उनके न मिलने पर हमारा काम नहीं चलेगा।
साथियो! ये सभी चीजें लांच होने के कुछ ही दिनों बाद सस्ती और आम हो जाती हैं, जिनके लिए हम बेताब होकर ऑनलाईन खरीदी से ठगते रहते हैं। आज छोटे-मझोले शहरों में भी बड़े-बड़े शॉपिंग सेण्टर और बड़े-बड़े मॉल खुल गए हैं, जहाँ पर जरूरत की हर चीजें उपलब्ध होती हैं। हम वहाँ जाकर अपनी आँखों से देख-परख कर और जानकारी प्राप्त कर अच्छा उत्पाद खरीद सकते हैं। नापसंद अथवा खराबी होने पर उन्हें आसानी से बदल सकते हैं, फिर उपभोक्ता फोरम हमारी मदद के लिए तो है ही। हमें क्रय-रसीद के साथ उत्पाद की खराबी भर बतलाना होती है। उस पर त्वरित निदान और विक्रेता के विरुद्ध सजा तथा दंड आदि का प्रावधान है।
आज के व्यस्तता भरे जीवन में कभी-कभी ये सब प्रक्रियाएँ अनिवार्य सी प्रतीत होती हैं, फिर भी सावधानी रखने में ही हमारी भलाई है। अति आवश्यक होने पर ही ऑनलाईन खरीदी करें और यह ध्यान रखें कि हम किस कंपनी से खरीदी कर रहे हैं वह प्रतिष्ठित और जाँची-परखी कंपनी है भी या नहीं।
हम यह अच्छी तरह से जानते हैं कि आजकल अंतरजालीय अपराधों की बाढ़ सी आ गई है। आपके साथ धोखाधड़ी के अवसर ज्यादा होते हैं। ऑनलाईन पेमेंट करते समय भी आपका खाता हैक हो सकता है। आपके द्वारा दी गई थोड़ी सी जानकारी व लापरवाही आपके अकाउंट को खाली करवा सकती है, यह भी ऑनलाईन खरीदी में एक बहुत बड़ी कमी है।
इस तरह हम देखते हैं कि ऑनलाईन खरीदी में पता नहीं किस तरह से और कब आपकी क्षति हो जाए। आपका विवरण इण्टर नेट पर जाते ही हैकर्स के स्रोत के रूप में उपलब्ध हो जाता है, जिससे आर्थिक क्षति की संभावना सदैव बनी रहती है। यह अच्छी बात होगी यदि आप अभी तक ठगे नहीं गए, लेकिन ठगे जाने की संभावना भी कम नहीं होती। इसीलिए ऑनलाईन खरीदी में सतर्कता बेहद जरूरी है। देखने, सुनने और जानकारियों के बावजूद आज भी ऑनलाईन खरीदी में अक्सर लोगों के ठगे जाने की खबरें मिलती रहती हैं। लोग यह भी जानते हैं कि कंपनियों या एजेंसियों से दुबारा मानक उत्पाद पाने में दाँतों पसीना आता है। अतः ऑन लाईन उत्पाद खरीदते समय सतर्क रहें और ठगे जाने से बचें।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे ”। )
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं “संतोष के दोहे”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा रचित एक विचारणीय व्यंग्य– पक्ष विपक्ष और हिंडोले । इस विचारणीय विमर्श के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 116 ☆
व्यंग्य – पक्ष विपक्ष और हिंडोले
विसंगति … क्या विपक्ष का अर्थ केवल विरोध ?
पत्नी मधुर स्वर में भजन गा रहीं थीं . “कौन झूल रहे , कौन झुलाये हैं ? कौनो देत हिलोर ? … गीत की अगली ही पंक्तियों में वे उत्तर भी दे देतीं हैं . गणपति झूल रहे , गौरा झुलायें हैं , शिव जी देत हिलोर.” … सच ही है हर बच्चा झूला झूलकर ही बडा होता है . सावन में झूला झूलने की हमारी सांस्कृतिक विरासत बहुत पुरानी है . राजनीति के मर्मज्ञ परम ज्ञानी भगवान कृष्ण तो अपनी सखियों के साथ झूला झूलते , रास रचाते दुनियां को राजनीति , जीवन दर्शन , लोक व्यवहार , साम दाम दण्ड भेद बहुत कुछ सिखा गये हैं . महाराष्ट्र , राजस्थान , गुजरात में तो लगभग हर घर में ही पूरे पलंग के आकार के झूले हर घर में होते हैं . मोदी जी के अहमदाबाद में साबरमती तट पर विदेशी राजनीतिज्ञों के संग झूला झूलते हुये वैश्विक राजनीती की पटकथा रचते चित्र चर्चित रहे हैं . आशय यह है कि राजनीति और झूले का साथ पुराना है .
मैं सोच रहा था कि पक्ष और विपक्ष राजनीति के झूले के दो सिरे हैं . तभी पत्नी जी की कोकिल कंठी आवाज आई “काहे को है बनो रे पालना , काहे की है डोर , काहे कि लड़ लागी हैं ? राजनीती का हिंडोला सोने का होता है , जिसमें हीरे जवाहरात के लड़ लगे होते हैं , तभी तो हर राजनेता इस झूले का आनंद लेना चाहता है . राजनीति के इस झूले की डोर वोटर के हाथों में निहित वोटों में हैं . लाभ हानि , सुख दुख , मान अपमान , हार जीत के झूले पर झूलती जनता की जिंदगी कटती रहती है . कूद फांद में निपुण ,मौका परस्त कुछ नेता उस हिंडोले में ही बने रहना जानते हैं जो उनके लिये सुविधाजनक हो . इसके लिये वे सदैव आत्मा की आवाज सुनते रहते हैं , और मौका पड़ने पर पार्टी व्हिप की परवाह न कर जनता का हित चिंतन करते इसी आत्मा की आवाज का हवाला देकर दल बदल कर डालते हैं . अब ऐसे नेता जी को जो पत्रकार या विश्लेषक बेपेंदी का लोटा कहें तो कहते रहें , पर ऐसे नेता जी जनता से ज्यादा स्वयं के प्रति वफादार रहते हैं . वे अच्छी तरह समझते हैं कि ” सी .. सा ” के राजनैतिक खेल में उस छोर पर ही रहने में लाभ है जो ऊपर हो . दल दल में गुट बंदी होती है . जिसके मूल में अपने हिंडोले को सबसे सुविधाजनक स्थिति में बनाये रखना ही होता है . गयाराम जिस दल से जाते हैं वह उन्हें गद्दार कहता है , किन्तु आयाराम जी के रूप में दूसरा दल उनका दिल खोल कर स्वागत करता है और उसे हृदय परिवर्तन कहा जाता है. देश की सुरक्षा के लिये खतरे कहे जाने वाले नेता भी पार्टी झेल जाती है.
किसी भी निर्णय में साझीदारी की तीन ही सम्भावनाएं होती हैं , पहला निर्णय का साथ देना, दूसरा विरोध करना और तीसरा तटस्थ रहना. विरोध करने वाले पक्ष को विपक्ष कहा जाता है. राजनेता वे चतुर जीव होते हैं जो तटस्थता को भी हथियार बना कर दिखा रहे हैं . मत विभाजन के समय यथा आवश्यकता सदन से गायब हो जाना ऐसा ही कौशल है . संविधान निर्माताओ ने सोचा भी नहीं होगा कि राजनैतिक दल और हाई कमान के प्रति वफादारी को हमारे नेता देश और जनता के प्रति वफादारी से ज्यादा महत्व देंगे . आज पक्ष विपक्ष अपने अपने हिंडोलो पर सवार अपने ही आनंद में रहने के लिये जनता को कचूमर बनाने से बाज नही आते .
मुझ मूढ़ को समझ नहीं आता कि क्या संविधान के अनुसार विपक्ष का अर्थ केवल सत्तापक्ष का विरोध करना है ? क्या पक्ष के द्वारा प्रस्तुत बिल या बजट का कोई भी बिन्दु ऐसा नही होता जिससे विपक्ष भी जन हित में सहमत हो ? इधर जमाने ने प्रगति की है , नेता भी नवाचार कर रहे हैं . अब केवल विरोध करने में विपक्ष को जनता के प्रति स्वयं की जिम्मेदारियां अधूरी सी लगती हैं . सदन में अध्यक्ष की आसंदी तक पहुंचकर , नारेबाजी करने , बिल फाड़ने , और वाकआउट करने को विपक्ष अपना दायित्व समझने लगा है .लोकतंत्र में संख्याबल सबसे बड़ा होता है , इसलिये सत्ता पक्ष ध्वनिमत से सत्र के आखिरी घंटे में ही कथित जन हित में मनमाने सारे बिल पारित करने की कानूनी प्रक्रिया पूरी कर लेता है . विपक्ष का काम किसी भी तरह सदन को न चलने देना लगता है . इतना ही नही अब और भी नवाचार हो रहे हैं , सड़क पर समानांतर संसद लगाई जा रही है . विपक्ष विदेशी एक्सपर्टाइज से टूल किट बनवाता है , आंदोलन कोई भी हो उद्देश्य केवल सत्ता पक्ष का विरोध , और उसे सत्ता च्युत करना होता है . विपक्ष यह समझता है कि सत्ता के झूले पर पेंग भरते ही झूला हवा में ऊपर ही बना रहेगा , पर विज्ञान के अध्येता जानते हैं कि झूला हार्मोनिक मोशन का नमूना है , पेंडलुम की तरह वह गतिमान बना ही रहेगा . अतः जरूरी है कि पक्ष विपक्ष सबके लिये जन हितकारी सोच ही सच बने , जो वास्तविक लोकतंत्र है .
पारम्परिक रूप से पत्नियों को पति का कथित धुर्र विरोधी समझा जाता है . पर घर परिवार में तभी समन्वय बनता है जब पति पत्नी झूले दो सिरे होते हुये भी एक साथ ताल मिला कर रिदम में पेंगें भरते हैं .यह कुछ वैसा ही है जैसा पक्ष विपक्ष के सारे नेता एक साथ मेजें थपथपा कर स्वयं ही आपने वेतन भत्ते बढ़वा लेते हैं . मेरा चिंतन टूटा तो पत्नी का मधुर स्वर गूंज रहा था ” साथ सखि मिल झूला झुलाओ . काश नेता जी भी देश के की प्रगति के लिये ये स्वर सुन सकें .