हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 97 – लघुकथा – मजबूर ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “मजबूर।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 97 ☆

☆ लघुकथा — मजबूर ☆ 

जैसे ही कार रुकीं और ड्राइवर उतरा, वैसे ही ‘क’ ने ड्राइवर सीट संभाल ली। तभी कार के अंदर बैठे हुए ‘ब’ ने कहा,” अरे! कार रोको। वह भी रतनगढ़ जाएगा।”

” अरे नहीं!” ‘क’ ने जवाब दिया,” वह रतनगढ़ नहीं जाएगा।”

इस पर ‘ब’ बोला,” उसने घर पर ही कह दिया था। मैं अपनी कार से नहीं चलूंगा। आपके साथ चलूंगा।”

” मगर अभी थोड़ी देर पहले, जब वह अपनी कार से उतर रहा था तब मैंने उससे पूछा था कि रतनगढ़ जाओगे? तो उसने मना कर दिया था,” यह कहते हुए ‘क’ ने ड्राइवर सीट की विंडो से गर्दन बाहर निकाल कर जोर से पूछा,” क्यों भाई! रतनगढ़ चलना है क्या?”

उसने इधर-उधर देखा। ” नहीं,” धीरे  से कहा। और ‘नहीं’ में गर्दन हिला दी। यह देखकर ‘ब’ कभी उसकी ओर, कभी ‘क’ की और देख रहा था। ताकि उसके मना करने का कारण खोज सके।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

01-12-2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 87 ☆ समसामयिक दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  “समसामयिक दोहे”. 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 87 ☆

☆ समसामयिक दोहे ☆ 

घर – घर पीड़ा देखकर, मन ने खोया चैन।

हर कोई भयभीत है, घड़ी- घड़ी दिन- रैन।।

 

खुद को आज संभालिए , मन से करिए बात।

दिनचर्या को साधिए , योग निभाए साथ।।

 

गरम नीर ही मित्र है, कभी न छोड़ें साथ।

नीम पात जल भाप लें, कोरोना को मात।।

 

दाल, सब्जियां भोज में , खाएँ सब भरपूर।

शक्ति बढ़े, जीवन सधे, आए मुख पर नूर।।

 

दुख – सुख आते जाएँगे, ये ही जीवन चक्र।

अच्छा सोचें हम सदा, कर लें खुद पर फक्र।।

 

याद रखें प्रभु को सदा, कर लें जप औ ध्यान।

दुख कट जाते स्वयं ही, हो जाता कल्यान।।

 

पेड़ हमारी शान हैं, पेड़ हमारी जान।

पेड़ों से ही जग बचे,बढ़ जाए मुस्कान।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 89 – एस टी..! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

? साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #89 ?

☆ एस टी….! ☆

परवा माणसांनी गच्च

भरलेली एसटी पाहिलीआणि ..

सहज वाटून गेलं…

किती सहन करत असेल ना

ही एसटी…

ऐकून घेत असेल

एसटी मध्ये असणाऱ्या

प्रत्येकाचं सुख: दुःख

तर कधी…

उघड्या डोळ्यांनी

पहात असेल..

कुणाच्यातरी डोळ्यातून

ओघळणारे चार दोन थेंब..

तर कधी

गुदमरून जात असेल

 ह्या असंख्य माणसांच्या गर्दीत..

तिलाही वाटत असेल खंत..

हे सगळं ऐकत असून,

पहात असून आपण

काहीच करू शकत नाही ह्याची…

पण मला तिला सांगायचंय..

की तुला ठाऊक नाही

तुझा हात सोडून खाली

उतरल्यावर ही असंख्य माणसं

तुझे आभार मानत असतील..

कारण…गावी गेल्यावर ..

आईला पाहून जितका आनंद होतो ना..

तितकाच आनंद ह्या माणसांना

गावी जाताना तुला पाहिल्यावर होतो..

त्यांना ठाऊक असतं…

एसटी मध्ये बसल्यावर

आपलं ऐकणारी..

आपल्याकडे पाहणारी..

आपलं कुणीही नसताना

आपल्याला सुखरूप घरी पोहचवणारी..

आणि..

चार दोन क्षण डोळे मिटल्यावर

मायेच्या प्रेमानं कुशीत घेणारी..

जर कोणी असेल

 तर ती तू आहेस…

आणि म्हणूनच

ही माणसं तुला एसटी

म्हणत नाहीत तर

लाल परी म्हणतात…

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #109 – कथा कहानी – खोई हुई चाबी….. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी  एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय कथा “खोई हुई चाबी…..”। )

☆  तन्मय साहित्य  #109 ☆

☆ कथा कहानी – खोई हुई चाबी…..

क्या सोच रहे हो बाबूजी! आज बहुत परेशान लग रहे हो ?

हाँ, देविका तुम्हें तो सब मालूम है आज पूरे दो साल हो गए सुधा को घर छोड़े हुए, रानू बिटिया जो हॉस्टल में रह रही है वह भी आठ वर्ष की हो गई, चिंता खाए जा रही है, आगे क्या होगा। अब तो ऑफिस से घर आने के नाम से ही जी घबराने लगता है।

सही कह रहे हो बाबू जी! मुझे भी नहीं जमता यहाँ आना, पर क्या करूँ, सुधा बीबी जी ने कहा है रोज यहाँ आकर साफ-सफाई और आपके भोजन पानी की व्यवस्था करने की, इसीलिए…..

अच्छा तो मतलब सुधा से तुम्हारी मुलाकात होती है?

नहीं बाबू जी – फोन पर ही आपके हालचाल पूछती रहती हैं वे और कहती हैं…,

क्या कहती है सुधा मेरे बारे में? यहाँ लौटने के बारे में भी कभी कुछ कहा है क्या, बताओ न देविका?

हाँ साहब कहती हैं कि, तेरे साहब का गुस्सा ठंडा हो जाएगा उस दिन वापस अपने घर लौट आऊँगी।

बाबूजी! ले क्यों नहीं आते बीबी जी को, छोटे मुँह बड़ी बात, मेरी बेटी जो सातवीं कक्षा में पढ़ती है न, स्कूल से आकर मुझे रोज पढ़ाने लगी है आजकल। कल ही उसने एक दोहा मुझे याद कराया है, आप कहें तो सुनाऊँ साहब, बहुत काम की बात है उसमें

यह तो अच्छी बात है कि, बेटी तुम्हें पढ़ाने लगी है सुनाओ देविका वह  दोहा

जी साब-

रूठे सुजन मनाइए, जो रूठे सौ बार।

रहिमन फिरी-फिरी पोईये, टूटे मुक्ताहार।।

अरे वाह! यह तो सच में बहुत ही काम का दोहा है।

बाबू जी अब मैं चलती हूँ, कल बेटी के स्कूल जाना है, इसलिए नहीं आ पाऊँगी।

तीसरे दिन देविका को डोर बेल बजाने की जरूरत नहीं पड़ी खुले दरवाजे से डायनिंग में रानू बेटी, सुधा बीबी जी और साहब जी बैठे जैसे उसी का इंतजार कर रहे थे।

आओ-आओ देविका! देखो परसों जो खोई  हुई चाबी तुमने दी थी न, उसने मेरे दिमाग की सारी जंग साफ करके इस घर का ताला फिर से खोल दिया।

कौन सी चाबी साब मैं कुछ समझी नहीं

अरे वही दोहे वाली चाबी जो हमारी नासमझी से कहीं खो गयी थी।

अच्छा तो हमारी खोई हुई चाबी ये देविका है सुधा ने अनजान बनते हुए कहा।

नहीं बीबी जी! असली चाबी तो फिर मेरी बेटी है जो खुद पढ़ने के साथ-साथ मुझे भी इस उमर में पढ़ा रही है।

ठीक है तो देविका अब से उस चाबी की सार संभाल और पूरी पढ़ाई की जिम्मेदारी हमारी है।

मन ही मन खुश होते हुए देविका सोच रही है आपके घर के बंद ताले को खोलने के साथ ही बेटी ने आज हमारे सुखद भविष्य का ताला भी खोल दिया है बाबूजी।

ऐसे ही बहुत महत्व रखती है जीवन में ये खोई  हुई चाबियाँ। 

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ असहमत…! – भाग-8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है।  अब आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे। )     

☆ असहमत…! भाग – 8 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

असहमत, सायंकालीन भ्रमण पर निकला, मौसम सुहाना था, ठंड उतनी ही थी कि तिब्बती बाज़ार से खरीदी नई स्वेटर पहनकर दिखाई जा सके. वैसे तो प्रायः असहमत भीड़भाड़ से मुक्त स्थान पर जाना पसंद करता था पर आज उसकी इच्छा बाज़ार की चहलपहल में रमने की थी तो उसने मार्केट रोड चुनी. पदयात्रियों के लिये बने फुटपाथ पर मनिहारी, जूतों, कपड़ों और जड़ी बूटियों के बाज़ार सजाकर बैठे विक्रेता उसका रास्ता रोके पड़े थे. मजबूरन उसे वाहनों के हार्न के शोर से कराहती सड़क पर चलना पड़ रहा था. बाइकर्स ब्रेक से अंजान पर एक्सीलेटर घुमाने के ज्ञानी थे जो हैंडल के neck pain की तकलीफ समझते हुये नाक की सीध में तूफानी स्पीड से चले जा रहे थे.असहमत को शंका भी होने लगी कि कहीं ये उसकी तरफ निशाना लगाकर भिड़ने का प्लान तो नहीं कर रहे हैं. वो वापस लौटने का निर्णय लेने वाला ही था कि उसकी नजर सामने लगे बोर्ड पर पड़ी. लिखा था “जो तुम्हारा है पर क्या तुम्हारे काम नहीं आ रहा है” समाधान के लिये मिलें “स्वामी त्रिकालदर्शी ” समाधान शुल्क 1100/-.

असहमत के पास वैसे तो कई समस्याओं का भंडार था जिनमें अधिकतर का कारण ही उसका सहमत नहीं हो पाना था पर फिर भी अपनी ताज़ातरीन समस्या के समाधान के लिये और बाइकर्स की निशानेबाजी से बचने के लिये उसने खुद को स्वामी जी के दरबार में पाया. दरबार में प्राइवेसी उतनी ही थी जितनी सरकारी अस्पतालों की OPD में होती है याने खुल्ला खेल फरुख्खाबादी. पहले नंबर पर एक महिला थी और समस्या : स्वामी जी, वैसे पति तो मेरा है पर उसकी हरकतों से लगता है कि ये पड़ोसन का है.

स्वामी : सात शुक्रवार को पड़ोसन के पति को अदरक वाली चाय पिलाओ.पड़ोसन अपने आप समझ जायेगी और तुम्हारा पति भी कि क्रिकेट के ग्राउंड पर फुटबाल नहीं खेली जाती.

अगला नंबर वृद्ध पति पत्नी का था और समस्या : स्वामी जी, बेटा तो हमारा है पर हमारे काम का नहीं है. अपनी आधुनिक मॉडल पत्नी और कॉन्वेंटी बच्चों के साथ सपनों की महानगरी में मगन है, रम गया है, वो भूल गया है कि वो हमारा है.

स्वामी : उस महानगरी के अखबार में विज्ञापन दे दीजिये कि हम अपना आलीशान मकान बेचकर हरिद्वार जाना चाहते हैं. बेटा तो आपके हाथ से निकल चुका है पर वो है तो बुद्धिमान तभी तो महानगरीय व्यवस्था में अपने सपनों को तलाश रहा है. तो आयेगा तो जरूर क्योंकि विद्वत्ता के साथ साथ धन भी सपने साकार करने की चाबी ? होता है.

अब नंबर असहमत का आया

“स्वामी जी,है तो मेरा मगर जरूरत पर मेरे काम नहीं आता.

स्वामी जी: पहेलियों में बात नहीं करो बच्चा, समस्या कहो, समाधान के लिये हम बैठे हैं.

असहमत : पैसा तो मेरा ही है पर जरूरत पर निकल नहीं पा रहा है. कभी लिंक फेल हो जाता है, कभी कार्ड का पिन भूल जाता हूँ.

स्वामी जी: अरे तुम तो मेरे गुरु भाई निकले, मैं त्रिकालदर्शी हूँ पर मेरा धन “जो बंद हो चुके बहुत सारेे पांच सौ के नोटों की शक्ल में है”, मेरे किसी काम नहीं आ रहा है. चलो चलते हैं, इसका समाधान तो हम दोनों के महागुरु ही दे सकते हैं.

?   ?

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 2– जगमग दीप जले — ☆डॉ. सलमा जमाल

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण गीत “जगमग दीप जले —” 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 2 ✒️

? गीत –  जगमग दीप जले —  डॉ. सलमा जमाल ?

जगमग – जगमग ये दीप जले ।

फिर भी अंधेरा दिया तले ।।

 

फैला अमावस का अंधेरा ,

निर्धनों को दुखों ने घेरा ,

बच्चे अभावों में हैं पले ।

जगमग ————— ।।

 

धनी वर्ग मनाऐ दिवाली ,

ख़ुशियां हैं कमाई – काली ,

ऊपरी तौर से मिलें गले ।

जगमग ————— ।।

 

सभी जलाएं आतिशबाज़ी ,

आपस में फ़िर भी नाराज़ी ,

खड़ी इंसानियत हाथ मले ।

जगमग ————— ।।

 

महलों में दीपों की कतारें ,

कुटिया में बचपन मन मारे ,

ग़म उनके रिस्ते सांझ ढले ।

जगमग ————— ।।

 

प्रकाश ने संदेश दिया है ,

हम सबने अनसुना किया है ,

सपने पलते आकाश तले ।

जगमग ————— ।।

 

काश ! मसीहा ऐसा आए ,

दीन – दुखी को गले लगाऐ ,

जो संग सलमा दो क़दम चले ।

जगमग ————— ।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ #86 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में – 2 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने महात्मा गाँधी जी की मध्यप्रदेश यात्रा पर आलेख की एक विस्तृत श्रृंखला तैयार की है। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में  के अंतर्गत महात्मा गाँधी जी  की यात्रा की जानकारियां आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ आलेख #86 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में – 2 ☆ 

छिंदवाड़ा :- गांधीजी यहां  अली भाइयों (मौलाना मुहम्मद अली एवं मौलाना शौकत अली) के आमंत्रण पर आए और 06 जनवरी 1921 को  एक आमसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने एक तरफ खिलाफत के अपमान का परिमार्जन करने हेतु कांग्रेस के आंदोलन का समर्थन किया तो दूसरी तरफ पंजाब में घटित जलियाँवाला बाग के अन्याय का विरोध भी किया। गांधीजी ने सैनिकों से कहा कि जनरल डायर जैसे  अत्याचारी का बेहूदा हुकूम मानने की अपेक्षा बहादुरी से  उसकी गोली खाकर मरना स्वीकार करें और इस प्रकार  सैनिकों से राजभक्ति की अपेक्षा देशभक्ति को मनुष्य का धर्म मानते हुए उसका अनुपालन करने को कहा। उन्होंने सैनिकों से निर्भय होकर कांग्रेस की सभाओं में शामिल होने का आग्रह किया. उन्होंने उपाधिधारियों से उपाधि त्यागने, वकीलों से वकालत छोड़ देने, पंद्रह वर्ष से अधिक आयु के बालकों से स्कूल छोड़ देने का आह्वान किया। इसके अलावा उन्होंने स्वदेशी के महत्व को रेखांकित करते हुए चरखा चलाने, हिन्दू मुस्लिम एकता को मजबूत करने और अस्पृश्यता के कलंक को मिटाने का भी अनुरोध किया। जहां एक ओर गांधीजी ने वकीलों और विद्यार्थियों से बहिष्कार की अपील की तो दूसरी तरफ आर्थिक दृष्टि से कमजोर वकीलों को कांग्रेस की ओर से मदद व विद्यार्थियों से पढ़ाई छोड़ने के बाद देशहित  के अन्य कार्यों से संलग्न होने की सलाह दी। इस प्रकार गांधीजी की  सभा से लोगों का उत्साह बढ़ा और अंग्रेजी शासन व उपाधिधारियों से उनका भय खत्म हुआ।

सिवनी व जबलपुर के अल्प प्रवास पर गांधीजी 20 व 21 मार्च 1921 को पधारे। सिवनी में  सभा को संबोधित करते हुए, कांग्रेस के नेता भगवान दीन यहां गिरफ्तार कर लिए गए थे, इसीलिए जनता का मनोबल बढ़ाने गांधीजी यहां विशेष रूप से आए और भाषण भी दिया। उन्होंने मद्यपान न करने की सलाह दी और कहा कि इससे बेहतर तो गंदे नाले का पानी पीना है।  गंदे नाले का पानी पीने से तो बीमारी होती है पर शराब पीने से आत्मा मलिन हो जाती है।

खंडवा :- इस नगर को महात्मा गांधी का स्वागत करने का अवसर दो बार मिला।  पहली बार बापू मई 1921 में जब वे अंबाला से भुसावल जाते हुए खंडवा में रुके थे। यद्दपि  यहां  उस दिन उन्होनें किसी सभा को संबोधित तो नहीं किया लेकिन रास्ते में पड़ने वाले छोटे-छोटे स्टेशनों पर उपस्थित जनसमूह को उन्होंने अवश्य संबोधित किया। ऐसे ही एक भाषण में उल्लेख है कि स्टेशन पर आए जनसमूह से उन्होंने तिलक स्मृति कोष के लिए दान देने की अपील की, स्वराज का अर्थ केवल टोपी तक सीमित न रखते हुए विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार और खादी अपनाने का आग्रह किया और उन्हें  फूल भेंट करने की जगह स्वराज के लिए धन देने को कहा। गांधीजी ने अस्पृश्यता निवारण हेतु भी लोगों से कहा कि भंगी-चमार को अस्पृश्य न माने और उनकी और ब्राह्मण की समान सेवा करें। दूसरी बार गांधीजी 1933 में खंडवा आए और तत्कालीन नगरपालिका अध्यक्ष रायचंद नागड़ा के आवास पर रुके। रेलवे स्टेशन पर गांधीजी का स्वागत माखनलाल चतुर्वेदी की बहन कस्तूरी बाई ने सूत की माला पहना कर किया और स्थानीय घंटाघर चौक  में विशाल आमसभा को संबोधित किया और अस्पृश्यता को दूर करने हेतु लोगों से इस पुनीत कार्य में जुट जाने की अपील की। खंडवा में जिस स्थान पर गांधीजी की सभा हुई थी, वहां स्मारक का निर्माण किया गया और उस जगह को गांधी चौक नाम दिया गया। यहां  एक लगे स्मृति पटल  के अनुसार गांधीजी ने 01अप्रैल 1930 को खंडवा में आम सभा को संबोधित किया था, लेकिन यह तिथि सही है पर वर्ष गलत है।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 111 ☆ अरुंधती ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 111 ?

☆ अरुंधती ☆

 ऋषीपत्नी अरुंधती

गाऊ तिचीच आरती

एकनिष्ठा पतिव्रता

सुयज्ञाची हीच माता !

 

वशिष्ठ नि अरुंधती

युगानुयुगे जन्मती

आदर्श हे पती पत्नी

अढळपदी पोचती !

 

पातिव्रत्य धर्म तिचा

असे मनस्वी मानिनी

 दक्षराजाची ती कन्या

कुलवती सौदामिनी !

 

आतिथ्य धर्म आचारी

तेजस्वी गुणसुंदरी

गाऊ गुणगान तिचे

सारे जन्म हो भाग्याचे

 

तारा तो चमचमता

देवी अरुंधतीमाता

नवदांपत्ये प्रार्थिती

लाभावया फलश्रुती

 

पुण्यवती पावन ती

 शुभांगिनी सुभाषिणी

अलौकिका ही भामिनी

कृतार्थ झाली जीवनी!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 9 – आओ लौटें बालपन में… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है सजल “आओ लौटें बालपन में… । अब आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 9 – आओ लौटें बालपन में…  ☆ 

सजल

समांत – आरे

पदांत –

मात्राभार- 14

 

राह हरियाली निहारे।

गाँव की यादें पुकारे।।

 

आओ लौटें बालपन में,

जो सदा हमको सँवारे।

 

गाँव की पगडंडियों में,

प्रियजनों के थे दुलारे।

 

गर्मियों की छुट्टियों में,

मौज मस्ती दिन गुजारे।

 

बैठकर अमराइयों में, 

चूसते थे आम सारे।

 

ताकते ही रह गए थे,

बाग के रक्षक बिचारे।

 

आँख से आँखें मिलें जब,

प्रेम के होते इशारे।

 

पहुँच जाते थे नदी तट,

प्रकृति के अनुपम नजारे।

 

भूल न पाए हैं बचपन,

संग-साथी थे हमारे।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 129 ☆ व्यंग्य – ड्रेन आउट द मनी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीय व्यंग्य  ‘ड्रेन आउट द मनी’ । इस विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 129 ☆

?  व्यंग्य – ड्रेन आउट द मनी ?

दक्षिण भारत के एक जूनियर इंजीनियर साहब के घर के ड्रेन पाईप से एंटी करप्शन ब्यूरो ने पांच सौ रुपये के ढ़ेर से बंडल ढ़ूंढ़ निकाले और चोक नाली से जल की अविरल धारा पुनः बह निकली. अब इन जाँच एजेंसियो को कौन बताये कि रुपये कमाना कितना कठिन है. घोटाले, भ्रष्टाचार, कमीशन, हफ्ता, पुलिसिया वसूली, माफिया, शराब, ड्रग्स, सेक्स रैकेट,  वगैरह कुछ लोकप्रिय फार्मूले हैं जिनमें रातो की नींद दिन का चैन सब कुछ दांव पर लगाना पड़ता है, तब कहीं बाथरूम की दीवारों, छत की सीलिंग, फर्श या गद्दे में छिपाने लायक थोड़े से रुपये जुट पाते हैं. अपने और परिवार के सदस्यो यहां तक कि कुत्ते बिल्ली के नाम पर सोना चांदी, चल-अचल संपत्ति अर्जित करना हंसी खेल नही होता. उनसे पूछिये जिन्होंने ऐसी अकूत कमाई की है. अरे मन मारना पड़ता है तरह तरह के समझौते करने पड़ते हैं, गलत को सही बताना पड़ता है. किसी की बीमारी की मजबूरी में उससे रुपये ऐंठने के लिये कितना बेगैरत बनना पड़ता है, यह किसी भी ऐसे डाक्टर से पूछ लीजीये जिसने महामारी की आपदा में अवसर तलाश कर रुपये बनायें हों.  जांच के दौरान संपत्ति का कोई हिसाब-किताब नहीं दे पाने का रुतबा हासिल करना बिल्कुल सरल नही होता. ऐसे बड़े लोगों के ड्राइवर, नौकर, कर्मचारी भी उनकी बेनामी संपत्तियो के आफिशियल मालिक होते हैं. नेता जी, सरकारी अफसर, ठेकेदार, डाक्टर जिसे जहाँ मौका मिल पाता है अपने सारे जुगाड़ और योग्यता से संम्पत्ति बढ़ाने में जुटे दिखते हैं. दूसरी ओर आम आदमी अपना पसीना निचोड़ निचोड़ कर महीने दर महीने बीमा की किश्तें भरता रहता है और बैंक स्टेटमेंट्स में बढ़ते रुपयो को देखकर मुंगेरीलाल के हसीन सपनों में खोया रहता है. वैसे रुपये कमाना जितना कठिन है, उन्हें संभालना उससे भी ज्यादा मुश्किल. माया बड़ी ठगनी होती है. सही निवेश न हो तो मेहनत से कमाई सारी संपत्ति डेप्रिशियेशन की भेंट चढ़ जाती है. शेयर बाजार बड़ों बड़ो को रातों रात सड़क पर ले आने की क्षमता रखता है.

आई ए एस के साक्षात्कार में पूछा गया यदि  2 करोड़ रुपये १० मिनट में छिपाने का समय मिलता हैं तो आप क्या करेंगे ?  उम्मीदवार का उत्तर था मैं ऑनलाइन आयकर विभाग को स्वयं सूचित करूँगा और उनको जानकारी दूंगा कि मेरे पास 2 करोड़ रुपये अघोषित धन हैं. मै इस 2 करोड़ पर जितना कर और जुर्माना बनता हैं सब जमा करना चाहता हूँ. जितना कर और जुर्माना निर्धारित होगा उसे जमा कर दूंगा. इसके बाद जो भी धनराशि बचेगी वह सफ़ेद धन बन जाएगी और उसे म्यूचुअल फंड में निवेश कर दूंगा. कुछ ही वर्षों में वह बढ़कर 2 करोड़ से ज्यादा हो जायेगी. उम्मीदवार का चयन कर लिया गया. नियम पूर्वक चलना श्रेष्ठ मार्ग होता है. रुपयों को रोलिंग में बने रहना चाहिये. लक्ष्मी मैया सदा ऐसी कृपा बनायें रखें कि अच्छा पैसा खूब आये और हमेशा अच्छे कामों में लगता रहे. सद्कार्यो में किया गया निवेश पुण्य अर्जित करता है  और पुण्य ही वह करेंसी है जो परलोक में भी साथ जा सकती है. शायद इसीलिये धर्माचार्य भले ही स्वयं अपने आश्रमो में लकदक संग्रह करते हों पर अपने शिष्यों को यही शिक्षा देते नजर आते हैं कि रुपया हाथ का मैल है. दान दया ही माया को स्थायित्व देते हैं. तो यदि घर के ड्रेन पाईप से रुपयों की बरामदगी से बचना हो तो  मेक इट योर हेबिट टु ड्रेन आउट द मनी इन गुड काजेज एण्ड हेलपिंग अदर्स.  

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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