(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है कोविड महामारी की काली छाया में उपजी सच्ची कहानियों पर आधारित हृदय को झकझोरने वाली लघुकथा ‘एक और फोन कॉल ’.डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 80 ☆
☆ लघुकथा – एक और फोन कॉल … ☆
फोन की घंटी बजती तो पूरे परिवार में सन्नाटा छा जाता। किसी की हिम्मत ही नहीं होती फोन उठाने की। पता नहीं कब, कहाँ से बुरी खबर आ जाए। ऐसे ही एक फोन कॉल ने तन्मय के ना होने की खबर दी थी। तन्मय कोविड पॉजिटिव होने पर खुद ही गाडी चलाकर गया था अस्पताल में एडमिट होने के लिए। डॉक्टर्स बोल रहे थे कि चिंता की कोई बात नहीं, सब ठीक है। उसके बाद उसे क्या हुआ कुछ समझ में ही नहीं आया।अचानक एक दिन अस्पताल से फोन आया कि तन्मय नहीं रहा। एक पल में सब कुछ शून्य में बदल गया। ठहर गई जिंदगी। बच्चों के मासूम चेहरों पर उदासी मानों थम गई। वह बहुत दिन तक समझ ही नहीं सकी कि जिंदगी कहाँ से शुरू करे। हर तरह से उस पर ही तो निर्भर थी अब जैसे कटी पतंग। एकदम अकेली महसूस कर रही थी अपने आप को। कभी लगता क्या करना है जीकर ? अपने हाथ में कुछ है ही नहीं तो क्या फायदा इस जीवन का ? तन्मय का यूँ अचानक चले जाना भीतर तक खोखला कर गया उसे।
ऐसी ही एक उदास शाम को फोन की घंटी बज उठी, बेटी ने फोन उठाया। अनजान आवाज में कोई कह रहा था – ‘बहुत अफसोस हुआ जानकर कि कोविड के कारण आपके मम्मी –पापा दोनों नहीं रहे। बेटी ! कोई जरूरत हो तो बताना, मैं आपके सामनेवाले फ्लैट में ही रहता हूँ।’
बेटी फोन पर रोती हुई, काँपती आवाज में जोर–जोर से कह रही थी – ‘मेरी मम्मी जिंदा हैं, जिंदा हैं मम्मा। पापा को कोविड हुआ था, मम्मी को कुछ नहीं हुआ है। हमें आपकी कोई जरूरत नहीं है। मैंने कहा ना मम्मी —‘
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “नेताजी के अरमान”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 100 ☆
☆ लघुकथा — नेताजी के अरमान ☆
नेता ने अपने पास बैठते ही ठेकेदार से कहा, “आजकल बहुत बड़े ठेकेदार बन गए हो। सुना हैं जिसका ठेका मिला है उसे बिना उद्घाटन भी चालू करवाना चाहते हो।”
“जी वह ऐसा है कि….”
“हां, जानता हूं। कोई न कोई बहाना बना कर पैसा बचाना चाहते हो? सोचते हो कि उद्घाटन में जितना पैसा खर्च होगा, उतने में दूसरा अन्य काम कर लोगे? यही ना?”
“नहीं, नेताजी ऐसी बात नहीं है. मैं उद्घाटन तो करना चाहता हूं, मगर, समझ में नहीं आ रहा है कि….”
“समझना क्या है। अच्छासा कार्यक्रम रखो। लोगों को बुलाओ। हम वहां अपने चुनाव का प्रचार भी कर लेंगे और तुम्हारे कार्य का अच्छा आरम्भ भी हो जाएगा।”
“मगर, मैं नहीं चाहता कि उसका उद्घाटन हो।” ठेकेदार अपने कागज पर कुछ हिसाब लिखते हुए बोला, “आप को कुछ पैसा देना था?”
“लेना देना चलता रहेगा। आपको दूसरा ठेका भी मिल जाएगा। मगर इस ठेके का क्या हुआ, जो आपने सीधे-सीधे कार्यालय से ले लिया था। जिसकी भनक तक हमें लगने नहीं दी। मगर इस बार चुनाव है। हम आपका पीछा नहीं छोड़ेंगे। इसका उद्घाटन बड़े धूमधाम से करवाएंगे।”
“हम इसका उद्घाटन नहीं कर सकते हैं नेताजी,” ठेकेदार ने नेताजी की जिद से घबराकर नेताजी को समझाना चाहा। लेकिन नेताजी सुनने के मूड में नहीं थे।
यह सुनते ही नेताजी को गुस्सा आ गया, “जानते हो तुम, हमारे साथ रहकर ठेकेदारी करना सीखे हो। हमारा साथ रहेगा तभी आगे बढ़ पाओगे। फिर इसका उद्घाटन धूमधाम से क्यों नहीं करवाना चाहते हो? या हमारा प्रचार करने में कोई दिक्कत हो रही है?”
“जी नहीं, नेताजी। हम आपके साथ हैं। मगर आप जानते हो हमने किसका ठेका लिया है? जिसका आप धूमधाम से उद्घाटन करना चाहते हो,” ठेकेदार ने सीधे खड़े होकर कहा, “वह श्मशान घाट के अग्निदाह के कमरे का ठेका था। वहाँ किसका उद्घाटन करके भाषण दीजिएगा?”
यह सुनते ही नेताजी को साँप सूँघ गया और उन्हें अपनी मनोकामना की लाश अग्निदाह वाले कमरे में जलती नजर आने लगी।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा लिखित एक भावप्रवण कविता ‘संतुलन’। इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)
सावित्री ही सृष्टी कर्त्या ब्रह्मदेवाची पत्नी. ब्रह्मदेवाने सृष्टीची निर्मिती केली . महाप्रलयानंतर भगवान नारायण बराच काळ योग निद्रेत मग्न होते. ते जागृत झाले तेव्हा त्यांच्या नाभीतून एक दिव्य कमळ उगवले. त्या कमळातून ब्रह्मदेवाचा जन्म झाला. ब्रम्हा हा विश्वाचा मूळ निर्माता, प्रजापती, पितामह आणि हिरण्यगर्भ आहे. पण अख्ख्या विश्वात त्याचे मंदिर फक्त राजस्थान येथील पुष्कर सरोवरात आहे. याचे कारण त्याची पत्नी सावित्री हिने दिलेला शाप.
ब्रम्हा कृतयुगे
पूज्यस्त्त्रेतायां
यज्ञ उच्चते !
द्वापरे पूज्यते
विष्णूवहं
पूज्यश्चतुर्ष्वपि
( ब्रम्हांडपुराण)
कृतयुगात ब्रम्हा पूज्य, त्रेतायुगात यज्ञ पूज्य, द्वापार युगात विष्णू पूज्य व चारही युगात मी( शिव) पूज्य आहे. असे ब्रम्हांड पुराणात सांगितले आहे. या श्लोकावरून सुरुवातीच्या काळात ब्रम्हा ची पूजा प्रचलित होती हे समजते. त्यानंतर वैदिक धर्मात यज्ञयागा ला प्राधान्य मिळाले.
ब्रह्मा आणि त्यांची पत्नी सावित्री यांनी एकदा मोठा यज्ञ करायचे ठरवले. सृष्टीचे कल्याण व्हावे म्हणून त्यांनी पुष्कर येथे यज्ञाचे आयोजन केले. नारदादी सर्व देव , ब्राह्मण उपस्थित झाले. यज्ञा चा मुहूर्त जवळ आला पण सावित्री चा पत्ता नव्हता. मुहूर्त साधण्यासाठी भगवान विष्णूच्या आदेशाने ब्रह्माने नंदिनी गायीच्या मुखातून एका स्त्रीची निर्मिती केली. तिचे नाव गायत्री ठेवले. पुरोहितांनी ब्रम्हाचे तिच्याशी लग्न लावले व यज्ञास सुरुवात केली. इतक्यात सावित्री तेथे आली. आपल्या जागी गायत्री पाहून ती रागाने बेभान झाली. तिने ब्रम्हा ला शाप दिला की ज्या सृष्टीच्या कल्याणासाठी यज्ञ सुरू केलास आणि माझा विसर पडला त्या सृष्टीत तुझी पूजा कोणीही करणार नाही. तुझे मंदिर बांधण्याचा प्रयत्न कोणी केला तर त्याचा नाश होईल. पतिव्रतेचा शाप खरा ठरला व आज तागायत ब्रह्मदेवाचे मंदिर कुठेही बांधले गेले नाही. तिची शापवाणी ऐकून सर्व देव देवता भयभीत झाले त्यांनी तिला शाप मागे घेण्याची विनंती केली. काही वेळाने तिचा राग शांत झाला व तिने ऊ:शाप दिला या पृथ्वीवर के वळ पुष्कर मध्ये तुझी पूजा केली जाईल. तेव्हापासून पुष्कर खेरीज कुठेही ब्रह्मदेवाचे देऊळ नाही व पूजाही केली जात नाही.
सावित्रीने ब्रम्हा ला शाप दिलाच पण विष्णूनेही साथ दिली म्हणून त्याला ही शाप दिला की तुम्हाला पत्नी विरहाच्या यातना भोगाव्या लागतील. भगवान विष्णू ने राम अवतार घेतला त्यावेळी त्याला 14 साल पत्नी विरह सहन करावा लागला. नारदाने ब्रह्माच्या विवाहाला संमती दिली म्हणून नारदाला शाप दिला तुम्ही आजीवन एकटेच रहाल. नारद मुनींचे लग्न झाले नाही. ब्राम्हणांनी हे लग्न लावले म्हणून सर्व ब्राह्मण जातीला शाप दिला तुम्हाला कितीही दान मिळाले तरी तुमचे समाधान कधीच होणार नाही तुम्ही कायम असंतुष्टच रहाल. ज्या गायीच्या मुखातून गायत्री निर्माण झाली त्या गाईला शाप दिला की कलियुगात तुम्ही घाण खाल. व हे सारे अग्नीच्या साक्षीने घडले म्हणून अग्नीला शाप दिला की कलियुगात तुमचा अपमान होईल. राग शांत झाल्यावर कोणाचेही न ऐकता ती पुष्कर तीर्था च्या मागे रत्नागिरी पर्वतावर निघून गेली. त्या ठिकाणी सावित्री मंदिर बांधले आहे. समुद्रसपाटीपासून दोन हजार तीनशे फूट उंचीवर ते मंदिर आहे. तिथे जाण्यासाठी शेकडो पायऱ्या चढाव्या लागतात. पण भाविक लोक आजही तिथे जातात.
राजस्थानात पुष्कर मध्ये ब्रम्हा इतकेच सावित्रीला पूज्य मानतात. तिला सौभाग्यदेवता मानतात. स्त्रिया भक्तिभावाने तिथे तिची पूजा करतात. तिथे मेंदी बांगड्या बिंदी तिला अर्पण करून भक्तिभावाने ओटी भरतात आणि सौभाग्याचे दान मागतात. इथे राहून सावित्री आजही आपल्या भक्तांचे रक्षण करते. अशी ही तेजस्वी पतिव्रता. पण अन्याय सहन करू शकली नाही. व तिचा राग योग्य असल्यामुळे ब्रह्मदेवाचे ही तिच्यापुढे काही चालले नाही. या सर्व प्रकारा मध्ये गायत्रीची काहीच चूक नव्हती म्हणून तिने तिला कोणताही शाप दिला नाही हे तिचे मोठेपण. आपल्या हक्कासाठी लढणाऱ्या या मानी देवतेला कोटी कोटी प्रणाम.
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं एक अतिसुन्दर विचारणीय कविता “अजनबी हैं…”।)
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ– असहमत आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ असहमत…! भाग – 11 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
** होली स्पेशल सीरीज़ **
इस बार असहमत अपने पिताजी का escort बनकर ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन के बाद, कोविड वैक्सीन लगवाने प्राइवेट चिकित्सालय पहुँचा कि शायद यहाँ भीड़ न हो पर अनुमान के विपरीत भीड़ थी जो कोविड प्रोटोकॉल के पालन से बेखबर होने का पालन कर रहे थे. सोशल डिस्टेंसिंग से ‘सोशल’ और ‘डिस्टेंस’ दोनों ही गायब थे, परिचित भी अपरिचितों जैसा व्यवहार कर रहे थे. असहमत और उसके पिता तो मॉस्क पहनकर आये थे पर ये अनुशासन बहुत कम ही दृष्टिगोचर हो रहा था. मौसम गर्म था और सीनियर सिटीज़न या तो कतार में त्रस्त थे या फिर थकहार कर छाँह की तलाश में नज़र दौड़ा रहे थे. प्रसिद्ध मंदिरों के समान VIP दर्शन /इंजेक्शन की विशेष व्यवस्था यहाँ भी थी पर उसकी पात्रता से असहमत हमेशा की तरह दूर ही था और उसे ये चिंता सता रही थी कि संक्रमण कहीं ‘क्यू’ याने ‘कतार में ही तो नहीं खड़ा होकर अपना शिकार तलाश रहा हो.
अचानक ही असहमत की नज़र कार से उतर रही युवती पर पड़ी और उसे B. Sc. First year की क्लास याद आ गई. “सन्मति कुलश्रेष्ठ ” जो शायद अब डॉक्टर सन्मति कुलश्रेष्ठ बन चुकी थी, किसी जमाने में असहमत की सिर्फ इस क्लास की क्लासफेलो थी. सन्मति के फॉदर नगर के जानेमाने सर्जन थे और सन्मति का टॉरगेट भी वही था. जब व्यक्ति लक्ष्य निश्चित कर के समर्पित होकर आगे बढ़ता है तो अगले मोड़ पर सफलता खड़ी रहती ही है. सन्मति, सौंदर्य, स्मार्टनेस और बुद्धिमत्ता का विधाता का रचा गया कांबिनेशन थी या है . सन्मति कुलश्रेष्ठ कभी असहमत की भी क्लासफेलो थी और क्लास के बहुत से छात्र जिनकी कोई क्लास नहीं थी, “ईश्वर अल्लाह तेरो नाम हमको सन्मति दे भगवान ” भजन अक्सर गाया करते थे. सन्मति के जीवन में उस समय भी इस फिल्मी चोंचलेबाजी से कहीं अलग अपने निर्धारित लक्ष्य को पाने की प्राथमिकता सबसे ऊपर थी. तो सन्मति का सिलेक्शन नगर से दूर के मेडीकल कॉलेज में MBBS के लिये हो गया और लक्ष्यहीन मस्तीखोर असहमत और उसके साथी ग्रेजुएशन पूरा करने की लक्ष्यहीन और “सन्मतिहीन ” यात्रा में आगे बढ़ गये. असहमत का ग्रुप शेयर करने में विश्वास रखता था और ये भावना उनके इक्ज़ाम्स के रिजल्ट में भी नजर आती थी. 100% मार्क्स में ग्रास मार्क्स मिलाकर तीन दोस्त पास हो जाते थे. इस % पर साईंस फैकल्टी में पोस्टग्रेजुऐशन में एडमीशन मिलना तो संभव ही नहीं था पर लक्ष्यहीन छात्रों के लिये मॉस्टर ऑफ आर्टस फैकल्टी के दरवाजे हमेशा की तरह खुले थे जो वेस्ट waste प्रोडक्ट को रिसाइकल करके नेचरल गैस बनाने की वैज्ञानिक प्रक्रिया का प्रयोग करती रहती थी. इस फैकल्टी में अगर पोस्टग्रेजुऐशन में अच्छे नंबर आ गये तो हो सकता है कि रजिस्ट्रेशन P. HD. के लिये हो जाये.फिर बाल पकते पकते थीसिस कंप्लीट हो कर अवार्ड हो जाये और ग्रेज्यूयेशन की नाम के पहले डॉक्टर लिखने की इच्छा पूरी हो जाय.और अगर PHD नहीं कर पाये या इसके लिये सिलेक्ट नहीं हो पाये तो बहुत सारे विषय हैं जिनमें एक के बाद एक M.A.की जा सकती है जब तक कि कोई जॉब न मिल जाय या फिर कोई स्टार्ट अप प्रोजेक्ट शुरू न हो जाय. बहुत सारे दोस्त कॉलेज जाने के आकर्षण के चलते दो तीन विषयों में एम. ए. करने में व्यस्त हो गये पर असहमत ने सिर्फ इकॉनामिक्स में MA करने के बाद MBA करना ज्यादा सही समझा और आज उसके पास एक गुमनाम सेठ कॉलेज की MBA की डिग्री भी आ चुकी है.
अचानक ही किसी के छींकने की आवाज़ से अतीत की सोच को छोड़कर असहमत वर्तमान में आया और अपने पिताजी को वेक्सीन लगवाने की प्रक्रिया में व्यस्त हो गया. वेक्सीन लगने के बाद तीस मिनट के ऑब्जरवेशन पीरियड के दौरान पिताजी को मित्र मिल गये तो उन्हें गपशप करने के लिये छोड़कर और “just coming कहकर हॉस्पिटल का राउंड लगाने चल दिया. दिल के किसी कोने में डॉक्टर सन्मति को फिर से देखने की हसरत तो थी पर साहस नहीं था. क्लास की डेस्क की नजदीकियां कैरियर और स्टेटस के आधार पर कब दूरियों में बदल जाती हैं पता नहीं चलता. वैसे भी कुत्तों से डरना और लड़कियों से शरमाना असहमत के जन्मजात गुण थे.पर अचानक ही उसका सामना, सामने से राउंड पर आती डॉक्टर सन्मति कुलश्रेष्ठ से हो ही गया.
(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त । 15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।
आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।
आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण गीत “आज मुझे वर दे –”
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.
श्री अरुण डनायक जी ने महात्मा गाँधी जी की मध्यप्रदेश यात्रा पर आलेख की एक विस्तृत श्रृंखला तैयार की है। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में के अंतर्गत महात्मा गाँधी जी की यात्रा की जानकारियां आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ आलेख #89 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में (गांधी यात्रा के कुछ संस्मरण) – 5 ☆
गांधी यात्रा के कुछ संस्मरण :-
(iii) दमोह में सभा के दौरान गांधी जी ने लोगो से चंदा देने की अपील की। दमोह में लोगों ने दिल खोल कर चंदा दिया था। किसी ने जेवर तो किसी ने चांदी की चवन्नी। गोदावरी बाई धगट भी वहां मौजूद थीं। उन्होंने अपने कानों से सोने के कर्णफूल निकाले और मंच की ओर बढ़ीं। इस बीच एक कर्णफूल भीड़ में कहीं गिर गया। गोदावरी धगट ने गांधी जी से कहा कि वह दोनों कर्णफूल देने आईं थी, लेकिन एक कहीं गिर गया। गांधी जी ने मंच से कहा, जिस किसी को भी कर्णफूल मिला हो, वहा यहां लाकर दे सकता है, देश की आजादी के लिए इसकी जरूरत है। कुछ ही देर बाद, हजारों की भीड़ के बीच से एक व्यक्ति मंच तक पहुंचा और कर्णफूल गांधी जी को दे गया।
(iv) 02 दिसंबर 1933 को गांधीजी मीरा बहन के साथ देवरी में सभा को संबोधित करने जा रहे थे। तब नन्ही बाई नामक दस वर्षीय बालिका गांधीजी को निकट से देखने के प्रयत्न में मोटर कार से टकराकर गिर पड़ी और चोटिल हो गई। मीरा बहन ने उसे अपनी कार में बिठाया और अस्पताल लेकर गई थी। सभा स्थल से लौटकर गांधीजी नन्ही बाई को देखने अस्पताल गए। तब नन्ही बाई भी गांधीजी को इतने निकट से देखकर गदगद हो गई और अपना दर्द भूल गई।
(v) 20 अप्रैल 1935 को गांधीजी जब दूसरी बार इंदौर पधारे तो सेठ हुकुमचंद ने उन्हें, मीरा बहन व कस्तूरबा गांधी को अपने निवास स्थल ‘इन्द्र भवन’ में भोजन के लिए आमंत्रित किया। भोजन के समय जो घटना घटी वह गांधीजी की हास्यप्रियता को दर्शाती है। सेठ जी के यहाँ गांधीजी को सोने-चांदी के बर्तनों में भोजन परोसा गया। इस पर गांधीजी ने सेठ जी से मजाक में कहा कि ‘मेरा नियम है कि मैं जिन बर्तनों में भोजन करता हूं वे मेरे हो जाते हैं।‘ सेठ हुकुमचंद ने विनम्रता पूर्वक कहा कि ‘जी महात्मा जी।’ इस पर गांधीजी खिल खिलाकर हंस पड़े और अपने साथी रामानंद नवाल से कहा कि ‘ मेरे बर्तन कहां हैं, लाओ उन्हें।‘ अंत में गांधीजी ने अपने साधारण बर्तनों में भोजन ग्रहण किया।
(vi) गांधीजी जब खंडवा पधारे तब सफाई कर्मियों की हड़ताल चल रही थी, गांधीजी ने ऐसी परिस्थिति में स्वयं शौचालयों की सफाई की। उनके खानपान संबंधी हिदायतें तो खंडवा के लोगों को पहले से पता थी और दूध की व्यवस्था हेतु कुछ बकरियाँ जिला कांग्रेस के महामंत्री रायचंद नागड़ा के यहाँ बांध दी गई। जब लोगों को पता चला कि गांधीजी को इन्ही बकरियों का दूध अर्पित किया जाएगा तो लोगों ने श्रद्धा भाव से इन बकरियों को काजू, किसमिस, बादाम आदि मेवे खिलाने शुरू कर दिए।
(vii) गांधीजी 01 दिसंबर को इटारसी से रेलगाड़ी पकड़ करेली पहुंचे। यहां से वे सागर जाने वाले थे। बरमान घाट पर गांधीजी को नाव से नर्मदा नदी पार करनी थी। नदी तट पर मल्लाहों ने उन्हें अपनी नौका पर चढ़ाने से इंकार कर दिया। मल्लाहों की जिद्द थी कि वे गांधीजी के चरण धो चरणामृत पीने के बाद ही उनको नर्मदा नदी पार कराएंगे। गांधीजी इस आग्रह को स्वीकार नहीं कर रहे थे पर मल्लाह भी अपनी बात पर अड़े रहे। आखिरकार गांधीजी को बरमान घाट के भोले भाले मल्लाहों का आग्रह स्वीकार करना पड़ा। और इस प्रकार कलयुग में प्रभु श्रीराम के चरण केवट द्वारा धोने की पौराणिक कथा एक बार फिर दोहराई गई.
(viii) जबलपुर में गांधीजी श्याम सुंदर भार्गव की कोठी में ठहरे थे। जबलपुर में एक पत्रकार के प्रश्न का उत्तर देते हुए गांधीजी ने कहा कि जबलपुर का पूरा दायित्व दो तरुण व्यापारियों के हाथों में था, जबकि यहां के वकीलों के एक वर्ग ने असहयोग आंदोलन में दूरी बनाए रखी। इस बात का प्रतिरोध यहाँ के बैरिस्टर ज्ञानचंद वर्मा ने करते हुए कहा कि उन्होनें तो गांधीजी के आह्वान पर पिछले वर्ष ही वकालत छोड़ दी है। गांधीजी ने वर्मा जी की बात धैर्यपूर्वक सुनी और उनके साहसपूर्ण प्रतिरोध की प्रसंशा की और सभी वकीलों से अदालत का बहिष्कार करने का आह्वान किया।
(ix) मध्य प्रदेश यात्रा के दौरान गांधीजी के आश्रय स्थल अमीरों के महलनूमा आवास से लेकर धर्मशाला और गरीबों की झोपड़ी भी बने। जब गांधीजी 30 नवंबर 1933 को वर्धा से इटारसी पहुंचे तो उनके रुकने की व्यवस्था रेलवे स्टेशन के नजदीक सेठ लखमीचन्द गोठी की धर्मशाला में की गई। गांधीजी धर्मशाला की स्वच्छता व अच्छी व्यवस्था से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने अपनी हस्तलिपि में इसकी प्रसंशा करते हुए लिखा ‘इस धर्मशाला में हम लोगों को आश्रय दिया गया, इसके लिए हम संचालकों का आभार मानते हैं। यह जानकर कि स्वच्छता से रहने वाले हरिजनों को भी स्थान मिलता है बहुत हर्ष हुआ।‘ यहां से उन्होंने माखनलाल चतुर्वेदी की जन्मस्थली बाबई जाने के बारे में भी पूछताछ की पर रास्ता खराब होने के कारण उस वक्त उनका बाबई जाना स्थगित हो गया।
(x) गांधीजी का माखनलाल चतुर्वेदी के प्रति बहुत अनुराग था, उनकी वाक्शक्ति व भाषण देने की कला से गांधीजी बहुत प्रभावित थे। इसीलिए वे जबलपुर से सोहागपुर होते हुए जब बाबई पहुंचे तो इस अनुराग को उन्होंने आमसभा में व्यक्त किया। गांधीजी ने कहा कि ’ माखनलाल जी की जन्मभूमि देखने को मेरा मन बाबई में ही लगा हुआ था। मैं यहां हरिजन कोष के लिए दान लेने नहीं आया हूं। आपने अपने मानपत्र में यहाँ की कार्यकर्ताओं के कष्टों का जो विवरण दिया है, उसका मेरे मन पर असर हुआ है। यदि हरिजन मंदिर नहीं जा पाते तो याद रखो कि इस मंदिर में भगवान का वास नहीं है।‘
☆ मी प्रवासिनी क्रमांक- १६ – भाग ३ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆
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लक्झर इथे व्हॅली ऑफ किंगमध्ये तुतान खामेनची लुटारूंच्या नजरेतून वाचलेली टूम्ब मिळाली. त्यातील अमूल्य खजिना आता कैरो म्युझियममध्ये आहे. तिथल्या दुसऱ्या दोन Tomb मधील तीन हजार वर्षांपूर्वीचे कोरीवकाम व त्यातील रंग अजूनही सतेज आहेत. लाल, पिवळा, निळा, हिरवा, निळीसारखा असे नैसर्गिक रंग चित्रलिपीसाठी आणि चित्रांसाठी वापरले आहेत. पन्नास फूट उंच छतावर तीस फूट लांबीची आकाशाची देवता कोरून रंगविली आहे. तिने तिच्या दोन्ही भूजांनी आकाश तोलून धरले आहे अशी कल्पना आहे. तिच्या पायघोळ, चुणीदार,निळीसारख्या रंगाच्या घागऱ्यावर चमचमणारी नक्षत्रे, चांदण्या पाहून आपण थक्क होतो. राजासाठी पालखी, २४ तासांचे २४ नोकर कोरलेले आहेत. प्रत्येक खांबाच्या कमानीवर पंख पसरलेला रंगीत गरुड आहे. भिंतीवर रंगीत चित्रलिपी कोरली आहे.
‘क्वीन हरशेपसूत’ हिचे देवालय पाहिले. इजिप्तवर राज्य करणारी ही एकमेव राणी! बावीस वर्षे तिने पुरुषी ड्रेस, एवढेच नव्हे तर राजाची खूण असलेली कृत्रिम सोनेरी दाढी लावून राज्य केले. तीन मजले उंच असलेले तिचे देऊळ डोंगराला टेकून उभे आहे. इथेही पुनर्बांधणी केली आहे. गाय रूपात असलेल्या हॅथर या देवतेची चित्रे सीलिंगवर व इतरत्र कोरली आहेत. या राणीने प्रथमच दूर देशातून तऱ्हेतऱ्हेची रोपे मागवून बगीच्या करण्याचा प्रयत्न केला होता.
साडेतीन हजार वर्षापूर्वी लक्झर येथे एक अति भव्य देवालय बांधण्यात आले. अमन या मुख्य देवतेच्या वर्षारंभाच्या उत्सवासाठी याचे भले मोठे आवार वापरले जात असे. चार राजांच्या कालखंडात हे बांधले गेले. रामसेस (द्वितीय) या राजाचे पन्नास फुटी सहा पुतळे इथे आहेत. आस्वान इथल्या खाणीतून आणलेल्या गुलाबी रंगाच्या ग्रॅनाईटने केलेले हे सारे काम अजूनही चकाकते आहे. राजाचे तोंड आणि सिंहाचे अंग असलेले बावीस बैठे पुतळे दुतर्फा बसविले आहेत. खांबांवर केलेले कोरीवकाम व त्यावरील रंगकाम बऱ्याच ठिकाणी चांगले राहिले आहे. कोरीव चित्रांमध्ये सूर्यदेवाचे आकाशातील भ्रमण कोरले आहे. देवळाबाहेर अजूनही असलेल्या तलावातील पाणी धार्मिक कृत्यांसाठी वापरले जात असे. करनाक येथील देवालय तर यापेक्षाही भव्य आहे. सारेच भव्य आणि अतिभव्य!
काळाच्या उदरात काय काय गडप झाले कोण जाणे! पण जे राहिले आहे त्यावरूनही त्या वैभवशाली गतकाळाची कल्पना येऊ शकते.कैरोजवळ असलेले तीन भव्य पिरॅमिड्स म्हणजे मानवनिर्मित भव्य पर्वतच वाटतात. फक्त मधल्या पिरॅमिडच्या टोकाला पूर्वी असलेला गुळगुळीतपणा दिसतो. बाकी सारे दगड वाऱ्यापावसाने व मानवाच्या लालसेने उघडे पडले आहेत. त्यांच्या पुढ्यात Sphinx म्हणजे राजाचे तोंड असलेले सिंहाचे प्रचंड शिल्प आहे. त्याच्या नाकाचा तुर्की लोकांनी नेमबाजीच्या सरावासाठी उपयोग करून ते विद्रूप करून ठेवले आहे.कैरोमध्येच सलाहदिनची मशीद आहे .या मशिदीचा घुमट पारदर्शक दगडाने बांधलेला आहे. आतील दोन अर्धगोलाकार घुमट, हंड्यांमधील दिव्यांनी उजळले होते. तिथे जवळच सुलतानाच्या किल्ल्यावर चर्च बांधले आहे. अलेक्झांडर दी ग्रेट याने वसविलेले राजधानीचे शहर अलेक्झांड्रिया इथे गेलो. तेथील उत्खननात ॳॅम्फी थिएटर सापडले. अलेक्झांड्रिया बंदरामधून बोटींना मार्गदर्शन करणाऱ्या दीपगृहाचा दगडी , भव्य खांब समुद्र तळाशी गेला आहे.कॅटाकोम्ब इथे रोमन व ग्रीक राजांनी इजिप्तशिअन राजांप्रमाणे स्वतःसाठी बांधलेले Tomb आहेत.
भूमध्य समुद्राच्या (मेडिटरियन सी) हिरव्या, निळ्या, फेसाळणार्या, धडकणाऱ्या शुभ्र लाटांनी अलेक्झांड्रियाचा समुद्रकिनारा मनाला उल्हसित करीत होता. स्वच्छ सूर्यप्रकाशात रुंद रस्त्यांवरून प्रवाशांचे रंगीबेरंगी ताफे हिंडत होते. आपल्या मरीनलाइन्सच्या चौपट मोठा किनारा उंच इमारतींनी वेढला होता. मोहम्मद अली या शेवटचा राजाचा महाल आता सप्ततारांकित हॉटेल झाला आहे.
कालौघात हरवून गेलेल्या या इजिप्तशियन संस्कृतीचा काही अंश आपण पाहू शकतो याचे मुख्य श्रेय ब्रिटिश, फ्रेंच व स्वीडीश संशोधकांना आहे. त्यांची चिकाटी, परिश्रम व प्रतिकूल परिस्थितीत काम करण्याची वृत्ती यामुळेच हा अमूल्य खजिना जगाच्या नजरेला आला. आधुनिक विज्ञानाने व युनेस्कोसारख्या संस्थेने हे धन जपण्यास मदत केली आहे. तिथले आर्किऑलॉजिकल डिपार्टमेंट परदेशी शास्त्रज्ञांच्या, तज्ज्ञांच्या सहाय्याने जे सापडले आहे ते टिकविण्यासाठी केमिकल्सचे लेपन, पुनर्बांधणी करीत आहे. आणखी ठेवा शोधण्यासाठी संशोधनाचे काम चालू आहे.
इजिप्तने टुरिझम ही इंडस्ट्री मानून प्रवाशांसाठी उत्तम वातानुकूलित बसेस,क्रूझचा सुंदर ताफा, प्रशिक्षित गाइड्स, गुळगुळीत रस्ते, हॉटेल्स उभारली आहेत.ठिकठिकाणी स्वच्छतागृहे आहेत. उसाचा रस उत्तम मिळतो. फलाफल नावाचा पदार्थ म्हणजे छोट्या फुगलेल्या भाकरीमध्ये पालेभाजी घालून केलेले डाळ वडे घालून त्यावर सॅलड पसरलेले असते. ते चविष्ट लागते. तसेच शिजविलेल्या कडधान्यावर स्पॅगेटी, चटण्या, टोमॅटो वगैरे घालून केलेला कुशारी नावाचा प्रकार आपण आवडीने खाऊ शकतो. परदेशी प्रवाशांना छोटे विक्रेते किंवा कोणाकडूनही त्रास होऊ नये म्हणून पोलिसांच्या गाड्या सतर्कतेने फिरत असतात. रात्रीच्या वेळी दिव्यांच्या माळांनी नटलेल्या क्रूझमधील प्रवाशांच्या मनोरंजनासाठी फॅन्सी ड्रेस स्पर्धा, बेली डान्स, जादूचे प्रयोग, उत्तम जेवण असते.
इजिप्तसारखा छोटा देश जे करू शकतो ते आपल्याला अशक्य आहे का? सुजलाम् सुफलाम् असलेल्या आपल्या देशाची सांस्कृतिक श्रीमंती कित्येक पटीने मोठी आहे.जगभरच्या प्रवाशांना भारत बघायचा आहे. इथले चविष्ट पदार्थ खायचे आहेत. कलाकुसरीच्या वस्तूंची खरेदी करायची आहे. पण त्यासाठी उत्तम रस्ते, वाहतुकीची साधने, स्वच्छता, सोयी-सुविधा, संरक्षण यात आपण कमी पडतो. पर्यटन म्हणजे लाखो लोकांना रोजगार देणारा, देश स्वच्छ करणारा एक उत्तम उद्योग म्हणून पद्धतशीर प्रयत्न करणे आवश्यक आहे. हल्ली आपल्या मध्य प्रदेश, राजस्थान, केरळ , गुजरात गोवा वगैरे ठिकाणी प्रवाशांसाठी चांगल्या सोयी केल्या आहेत. महाराष्ट्रात मात्र याबाबत खूप प्रयत्न करणे जरुरी आहे.
नाईल नदी इतकी स्वच्छ कशी? याचे उत्तर क्रूजवरील प्रवासातच मिळाले. या सर्व दीडशे-दोनशे क्रूज वरील कचरा वाहून नेणाऱ्या तीन-चार कचरा बोटी सतत फिरत असतात. सर्व क्रूज वरील कचरा त्या बोटींवर जमा होतो. एवढेच नाही तर बोटींवरील ड्रेनेजही सक्शन पंपाने कचरा बोटींवर खेचले जाते व नंतर योग्य ठिकाणी त्याची विल्हेवाट लावली जाते. माझ्या डोळ्यांपुढे भगीरथाने भगीरथ प्रयत्नाने आणलेली पवित्र गंगा नदी आली. आम्ही ड्रेनेज, केमिकल्स, आणि प्रेते टाकून गंगेची व इतर सर्व नद्यांची करीत असलेली विटंबना आठवून मन विषण्ण, गप्प गप्प होऊन गेले.