मराठी साहित्य – विविधा ☆ चं म त ग ! साखरभाताची साखर झोप ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? विविधा ?

? चं म त ग ! ⭐ श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐

? साखरभाताची साखर झोप! ?

“अगं जरा ऐकतेस का !”

“तुमचच तर ऐकत आले आहे जन्मभर !”

“हे माझ्या प्रश्नाचं उत्तर नाही.”

“मग काय उत्तर अपेक्षित आहे गुरुवर्यांना ?”

“हे s s च ! मी म्हणतोय नां ते हे s s च ! ते व्हाट्स ऍपवर तुमच्या महिला मंडळाच्या “खुमखूमी” ग्रुपवर सारखे, सारखे पुणेकरांवरचे पुणेरी विनोद वाचून, तुझी भाषा जन्माने जरी तू अस्सल गिरगावकरीण असलीस, तरी आता साध्या साध्या प्रश्नांची उत्तर देतांना पण, पुणेरी भाषेत द्यायला लागली आहेस !”

“आता या विषयावर, बेडवर पडल्या पडल्या, रात्री अकरा वाजता माझं बौद्धीक घेणार आहात कां ?”

“अगं, काही जणांची मराठी जशी इंग्राजळलेली असते, तशी तुझीही मराठी आता साधं साधं बोलतांना पण, मुळा मुठेच्या पात्रात डुबकी मारल्या सारखी बोलायला लागल्ये, कळलं ?”

“इ s s श्श ! हल्ली मुळा मुठेच्या पात्रात चुळ भरण्या इतकं सुद्धा पाणी नाहीये, त्यात मी मेली डुबकी कशी काय मारणार ?”

“हे तुला कुणी सांगितलं?”

“अहो परवा लेले काकी गेल्या होत्या पुण्याला, त्या सांगत होत्या !”

“काय ?”

“त्यांची गाडी नदीच्या पुलावरून जातांना, त्यांनी भक्तीभावाने एक पाच रुपयाचं नाणं, चालत्या गाडीतून नदी पात्रात टाकलं !”

“मग ?”

“मग काय मग, खालून एका माणसाचा किंचाळण्याचा आवाज आला ! म्हणून त्यांनी ड्रायवरला गाडी थांबवायला सांगितली आणि त्या खाली नदी पात्रात डोकावून पाहायला लागल्या आणि बघतात तर काय ?”

“काय ?”

“अहो त्यांनी फेकलेलं ते नाणं पात्रात शेती करणाऱ्या शेतकऱ्याच्या कपाळाला लागून, त्यातून रक्त येत होतं !”

“बापरे !”

“त्या मग तशाच धावत गाडीत बसल्या आणि त्यांनी ड्रायवरला गाडी हाणायला सांगितली !”

“हा s णा s य s ला ! काय ही तुझी भाषा ? मी मगाशी जे म्हटलं ते काही अगदीच खोटं नाही ! अगं गिरगांवातल्या गोरेगावकर चाळीला स्मरून, निदान दामटवायला, हाकायला असं तरी म्हणं गं !”

“त्यानं काय फरक पडणार आहे ?”

“जाऊ दे, तुझ्याशी या विषयावर आत्ता वाद घालण्यात अर्थ नाही ! गूड नाईट !”

“अरे वा रे वा, असं कसं गुड नाईट !”

“म्हणजे ? मी नाही समजलो !”

“अहो आत्ता माझा चांगला डोळा लागत होता, तर तुम्हीच नाही का, ‘अगं ऐकतेस का?’ असं बोलून माझी झोप उडवलीत ती !”

“अरे हॊ, आत्ता आठवलं. तू उद्यासाठी जो ‘साखरभात’ करून ठेवला आहेस नां, तो जरा चमचाभर आणून देतेस का ?”

“आत्ता ? रात्री अकरा वाजता ? अहो वाटलं तर सकाळी नाश्त्याला घ्या तो आणि जेवतांना पण घ्या की, आत्ता कशाला उगाच रात्री झोपताना तुम्हाला चमचाभर साखर भात हवाय ?”

“अगं त्याच काय आहे नां, आमच्या मास्तरांनी ‘साखरझोप’ ह्या विषयावर निबंध लिहून आणायला सांगितला आहे !”

“बरं, मग ?”

“मग काही नाही, म्हटलं अनायासे तू आज साखरभात केलाच आहेस, तर तो थोडा खाऊन झोपीन ! म्हणजे रात्री साखरझोप लागून, सकाळी त्यावर काहीतरी लिहिता येईल असा एक सुज्ञ विचार मनांत साखर पेरून गेला इतकंच !”

“अस्स होय ! आता आमच्या ह्या प्रौढ ढ विद्यार्थ्यांची मलाच मेलीला काळजी घेतली पाहिजे ! नाहीतर उगाच मी त्याला आत्ता साखरभात दिला नाही, म्हणून तो जर उद्या परीक्षेत नापास झाला, तर त्याचे खापर माझ्या डोक्यावर फोडून मोकळा व्हायचा !”

असं बोलून बायको किचन मधे गेली आणि बाउल मधे साखरभात घेवून आली. मी पण विजयी मुद्रेने तो बाउल घ्यायला हात पुढे केला आणि धाडकन बेडवरून खाली पडलो!

 

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

२८-०१-२०२२

ताजा कलम  – या पुढे भविष्यात प्रौढ शिक्षणाच्या मास्तरांनी, ‘झोप’ या विषयाला धरून निबंध लिहायला सांगितला, तरी त्या विषयी आज जागेपणी, काहीही न लिहिण्याचा मी संकल्प करत आहे !

(सिंगापूर) +6594708959

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 84 ☆ प्रेम ना जाने कोय ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है परंपरा और वास्तविकता के संघर्ष  पर आधारित मनोवैज्ञानिक लघुकथा ‘प्रेम ना जाने कोय’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस विचारणीय लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 84 ☆

☆ लघुकथा – प्रेम ना जाने कोय ☆

शादी के लिए दो साल से कितनी लडकियां दिखा चुकी हूँ पर तुझे कोई पसंद ही नहीं आती। आखिर कैसी लडकी चाहता है तू, बता तो।

मुझे कोई लडकी अच्छी नहीं लगती। मैं क्या करूँ? मैंने आपको कितनी बार कहा  है कि मुझे लडकी देखने जाना ही नहीं है पर आप लोग मेरी बात ही नहीं सुनते।

तुझे कोई लडकी पसंद हो तो बता दे, हम उससे कर देंगे तेरी शादी।

नहीं, मुझे कोई लडकी पसंद नहीं है।

अरे! तो क्या लडके से शादी करेगा? माँ ने झुंझलाते हुए कहा।

हाँ – उसने शांत भाव से उत्तर दिया।

क्या??? माँ को झटका लगा, फिर सँभलते हुए बोली – मजाक कर रहा है ना तू?  

नहीं, मैं सच कह रहा हूँ। मैं विकास से प्रेम करता हूँ और उसी से शादी करूंगा।

माँ चक्कर खाकर गिरने को ही थी कि पिता जी ने पकड लिया।

क्यों परेशान कर रहा है माँ को –  पिता ने डाँटा।

माँ रोती हुई बोली – कब से सपने देख रही थी कि सुंदर सी बहू आएगी घर में, वंश  बढेगा अपना और इसे देखो कैसी ऊल जलूल बातें कर रहा है। पागल हो गया है क्या? लडका होकर तू लडके से प्यार कैसे कर सकता है? उससे शादी कैसे कर सकता है?  बोलते – बोलते वह सिर पकडकर बैठ गई।

क्यों नहीं कर सकता माँ? लडका इंसान नहीं है क्या? और प्यार शरीर से थोडे ही होता है। वह तो मन का भाव है, भावना है। किसी से भी हो सकता है।

माँ हकबकाई सी बेटे को देख रही थी।  उसकी बातें माँ के पल्ले  ही नहीं पड रही थीं।

अब तो समझो मयंक की माँ ! कब तक नकारोगी इस सच को?

परंपरा और वास्तविकता का संघर्ष जारी है —  

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 104 – मोना जाग गई ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कहानी  “मोना जाग गई।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 104 ☆

☆ कहानी – मोना जाग गई ☆ 

मोना चकित थी। जिस सुंदर पक्षी को उसने देखा था वह बोल भी रहा था। एक पक्षी को मानव की भाषा बोलता देखकर मोना बहुत खुश हो गई।

उसी पक्षी ने मोना को सुबह-सवेरे यही कहा था,

“चिड़िया चहक उठी

उठ जाओ मोना। 

चलो सैर को तुम 

समय व्यर्थ ना खोना।।”

यह सुनकर मोना उठ बैठी। पक्षी ने अपने नीले-नीले पंख आपस में जोड़ दिए। मोना अपने को रोक न सकी। इसी के साथ वह हाथ जोड़ते हुए बोली, “नमस्ते।”

पक्षी ने भी अपने अंदाज में ‘नमस्ते’ कहा। फिर बोला,

“मंजन कर लो 

कुल्ला कर लो। 

जूता पहन के

उत्साह धर लो।।”

यह सुनकर मोना झटपट उठी। ब्रश लिया। मंजन किया। झट से कपड़े व जूते पहने। तब तक पक्षी उड़ता हुआ उसके आगे-आगे चलने लगा।

मोना का उत्साह जाग गया था। उसे एक अच्छा मित्र मिल गया था। वह झट से उसके पीछे चलने लगी। तभी पक्षी ने कहा,

“मेरे संग तुम दौडों 

बिल्कुल धीरे सोना। 

जा रहे वे दादाजी 

जा रही है मोना।।”

“ओह! ये भी हमारे साथ सैर को जा रहे हैं,” मोना ने चाहते हुए कहा। फिर इधर-उधर देखा। कई लोग सैर को जा रहे थे। गाय जंगल चरने जा रही थी। 

पक्षी आकाश में कलरव कर रहे थे। पूर्व दिशा में लालिमा छाने लगी थी। पहाड़ों के सुंदर दिख रहे थे। तभी पक्षी ने कहा,

“सुबह-सवेरे की 

इनसे करो नमस्ते। 

प्रसन्नचित हो ये 

आशीष देंगे हंसते।।”

यह सुनते ही मोना जोर से बोल पड़ी, “नमस्ते दादा जी!”

तभी उधर से भी आवाज आई, “नमस्ते मोना! सदा खुश रहो।”

यह सुनकर मोना चौंक उठी। उसने आंखें मल कर देखा। वह बिस्तर पर थी। सामने दादा जी खड़े थे। वे मुस्कुरा रहे थे, “हमारी मोना जाग गई!”

“हां दादा जी,” कहते हुए मोना झट से बिस्तर से उठी, “दादा जी, मैं भी आपके साथ सैर को चलूंगी,” कह कर वह मंजन करके तैयार होने लगी।

“हां क्यों नहीं!” दादा जी ने कहा।

यह देख सुनकर उसकी मम्मी खुश हो गई।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

17-01-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 142 ☆ व्यंग्य – जस्ट फारवर्ड ! ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीय व्यंग्य कविता  ‘जस्ट फारवर्ड!’ । इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 142☆

? व्यंग्य  – जस्ट फारवर्ड! ?

सुपर फास्ट इंटरनेट वाला युग है, रचना भेजो तो फटाफट पोर्टल का लिंक चला आता है, कि ये लीजीये छप गई आपकी रचना. हां, अधिकांश अखबार अब प्रकाशित प्रति नही भेजते,उनके पास कथित बुद्धिजीवी लेखक के लिये प्रतियां नही होती ।

मतलब ई मेल से रचना भेजो,vफिर खुद ही छपने का इंतजार करो और रोज अखबार पढ़ते हुये अपनी रचना तलाशते रहो. छप जाये तो फट उसकी इमेज फाईल, अपने फेसबुक और व्हाट्सअप पर चिपका दो, और जमाने को सोशल मीडीया नाद से जता दो कि लो हम भी छप गये.

अब फेसबुक, इंस्टाग्राम, टिकटाक, ट्वीटर और व्हाट्सअप में सुर्खियो में बने रहने का अलग ही नशा है.  इसके लिये लोग गलत सही कुछ भी पोस्ट करने को उद्यत हैं. आत्म अनुशासन की कमी फेक न्यूज की जन्मदाता है. हडबडी में गडबड़ी से उपजे फेक न्यूज सोशल मीडीया में वैसे ही फैल जाते हैं, जैसे कोरोना का वायरस फारवर्ड होता है. सस्ता डाटा फेकन्यूज प्रसारण के लिये रक्तबीज है. लिंक  फारवर्ड, रिपोस्ट ढ़ूंढ़ते हुये सर्च एंजिन को भी पसीने आ जाते हैं. हर हाथ में मोबाईल के चक्कर में फेकन्यूज देश विदेश, समुंदर पार का सफर भी मिनटों में कर लेती है, वह भी बिल्कुल हाथों हाथ, मोबाईल पर सवार.

धर्म पर कोई अच्छी बुरी टिप्पणी कहीं मिल भर जाये, सोते हुये लोग जाग जाते हैं, जो धर्म का मर्म  नहीं समझते, वे सबसे बड़े धार्मिक अनुयायी बन कर अपने संवैधानिक अधिकारो तक पहुंच जाते हैं.

आज धर्म, चंद कट्टरपंथी लोगो के पास कैद दिखता है. वह जमाना और था जब ” हमें भी प्यार हुआ अल्ला मियां ” गाने बने जो अब तक बज रहे हैं.

इन महान कट्टर लोगों को लगता है कि इस तरह के फेक न्यूज को भी फारवर्ड कर के वे कोई महान पूजा कर रहे हैं. उन्हें प्रतीत होता है कि यदि उन्होंने इसे फारवर्ड नही किया तो उसके परिचित को शायद वह पुण्य लाभ नहीं मिल पायेगा जो उन्हें मिल रहा है. जबकि सचाई यह होती है कि जिसके पास यह फारवर्डेड  न्यूज पहुंचता  है वह बहुत पहले ही उसे फारवर्ड कर अपना कर्तव्य निभा चुका होता है. सचाई यह होती है कि यदि आप का मित्र थोड़ा भी सोशल है तो उसके मोबाईल की मेमोरी चार छै अन्य ग्रुप्स से भी वह फेक न्यूज पाकर धन्य हो चुकी होती है, और डिलीट का आप्शन ही आपके फारवर्डेड मैसेज का हश्र होता है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ #86 ☆ उम्मीद कायम है…  ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “उम्मीद कायम है… ”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 86 ☆ उम्मीद कायम है… 

कहते हैं हम ही उम्मीद का दामन छोड़ देते हैं, वो हमें कभी भी छोड़कर नहीं जाती। इसके वशीभूत होकर न जाने कितने उम्मीदवार टिकट मिलने के बाद ही अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता तय करते देखे जा सकते हैं। कौन किस दल का घोषणा पत्र पढ़ेगा ये भी सीट निर्धारण के बाद तय होता है। इन सबमें सुखी वे पत्रकार हैं, जो पुराने वीडियो क्लिप दिखा -दिखा कर शो की टी आर पी बढ़ा देते हैं। उन्हें प्रश्नों के लिए भी ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती। वही सवाल सबसे पूछते हुए पूरा चुनाव निपटा देते हैं।

मजे की बात इन सबमें नए – नए क्षेत्रीय गायकों ने भी अपनी भूमिका सुनिश्चित कर ली है। विकास का लेखा – जोखा अब गानों के द्वारा सुना और समझा जा रहा है। धुन और बोल लुभावने होने के कारण आसानी से जुबान पर चढ़ जाते हैं। मुद्दे से भटकते लोग मनोरंजन में ही सच्चा सुख ढूंढ कर पाँच वर्ष किसी को भी आसानी से देने को तैयार देते हुए दिखाई देते हैं। होगा क्या ये तो परिवार व समाज के लोग तय करते हैं पर मीडिया जरूर भ्रमित हो जाता है। जिसको देखो वही माइक और कैमरा लेकर छोटे – छोटे वीडियो बनाकर पोस्ट करता जा रहा है। 

इन सबसे बेखबर कुर्सी, अपने आगंतुकों के इंतजार में पलक पाँवड़े बिछाए हुए नेता जी को ढूंढ रही है। वो भी ये चाहती है कि जो भी आए वो स्थायी हो, मेरा मान रखे। गठबंधन को निभाने की क्षमता रखता हो। उसकी अपील जनमानस से यही है कि सोच समझ कर ही ये गद्दी किसी को सौंपना। यही नीतियों के निर्धारक हैं; यही तुम्हारे दुःख दर्द के हर्ता हैं; यही राष्ट्रभक्त हैं जो भारत माता के सच्चे सपूत बनकर अमृत महोत्सव को साकार कर सकते हैं।

कुर्सी के मौन स्वरों को जनमानस को ही सुनना व समझना होगा क्योंकि आम जनता सब कुछ समझने का माद्दा रखती है। किसे आगे बढ़ाना है, किसे वापस बुलाना है, ये जिम्मेदारी संविधान ने उन्हें  दी है। जाति धर्म का क्या है ? ये कुर्सी तो सबसे ऊपर केवल राष्ट्र की है, जो देश का, वही जनता का और वही सच्चा हकदार इस पर विराजित होकर जन सेवा करने का।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 95 ☆ हँसता जीवन ही बचपन ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण  रचना “हँसता जीवन ही बचपन”. 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 95 ☆

☆ गीत – हँसता जीवन ही बचपन ☆ 

भोला बचपन कोमल मन है

प्यार तुम्हारा सदा अमर है।

मुझको तो बस ऐसा लगता

तू पूरा ही गाँव  – नगर है।।

 

रहें असीमित आशाएँ भी

जो मुझको नवजीवन देतीं।

जीवन का भी अर्थ यही है

मुश्किल में नैया को खेतीं।

 

हँसता जीवन ही बचपन है

दूर सदा पर मन से डर है।

भोला बचपन कोमल मन है

प्यार तुम्हारा सदा अमर है।।

 

पल में रूठा , पल में मनता

घर – आँगन में करे उजारा।

राग, द्वेष, नफरत कब जागे

इससे तो यह तम भी हारा।

 

बचपन तू तो खिला सुमन है

पंछी – सा उड़ता फर – फर है।

भोला बचपन कोमल मन है

प्यार तुम्हारा सदा अमर है।।

 

बचपन का नाती है नाना

खेल करे यह खूब सुहाए।

सदा समर्पित प्यार तुम्हीं पर

तुम ही सबका मिलन कराए।

 

झरने, नदियाँ तुम ही सब हो

जो बहता निर्झर – निर्झर है।

भोला बचपन कोमल मन है

प्यार तुम्हारा सदा अमर है।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 97 – पडवी ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

? साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #97  ?

☆ पडवी 

हल्ली शहरात आल्या पासून

गावाकडंची खूप आठवण येऊ

लागलीय

गावाकडची माती

गावाकडची माणसं

गावाकडचं घर

अन्

घरा बाहेरची पडवी

घराबाहेरची पडवी म्हणजे

गावाकडचा स्मार्टफोनच…!

गावातल्या सर्व थोरा मोठ्यांची

हक्काची जागा म्हणजे

घराबाहेरची पडवीच…!

जगातल्या प्रत्येक गोष्टीवर इथे

चर्चासत्र रंगतं

आणि कोणत्याही प्रश्नावर इथे

हमखास उत्तर मिळतं

दिवसभर शेतात राबल्यावर

पडवीत बसायची गंमतच

काही और असते..

अन् माणसां माणसांमध्ये इथे

आपुलकी हीच खासियत असते

पडवीतल्या गोणपाटावर अंग

टाकलं की ,

आपण कधी झोपेच्या

आधीन होतो हे

कळत सुध्दा नाही

पण शहरात आल्या पासून ,

ह्या कापसाच्या गादीवर

क्षण भर ही गाढ झोप

लागत नाही…!

घराबाहेरचं सारं जग एकाएकी

अनोळखी वाटू लागलंय….

अन् ह्या चार भितींच्या आत

आज.. डोळ्यांमधलं आभाळं देखील

नकळतपणे भरून आलंय

कधी कधी वाटतं

ह्या शहरातल्या घरांना ही

गॅलरी ऐवजी

पडवी असती तर

आज प्रत्येक जण

स्मार्टफोन मधे डोकं

खुपसून बसण्यापेक्षा

पडवीत येऊन बसला असता…

आणि खरंच

गावाकडच्या घरासारखा

ह्या शहरातल्या घरानांही

मातीचा गंध सुटला असता….!

 

© सुजित कदम

संपर्क – 117,विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#117 ☆ गणतंत्र दिवस विशेष – मैं भारत हूँ…..☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण कविता “मैं भारत हूँ…..”)

☆  तन्मय साहित्य  #117 ☆

?? गणतंत्र दिवस विशेष – मैं भारत हूँ….. ??

मैं हूँ भारत देश, अहिंसा मेरा नारा।

प्रेम शांति सद्भावों की, बहती जलधारा।।

 

सत्य सनातन धर्म-कर्म के स्रोत यहाँ है

भेदभाव नहीं जाति पंथ में, द्वेष यहाँ है

हिंदू-मुस्लिम, बौद्ध, पारसी और ईसाई,

सब के अंतर में समतामय, बोध यहाँ है।

  क्षमताओं में ममतामय कौशल बल निर्मल

  सर्वे भवन्तु सुखिनः, मूलमंत्र यह प्यारा।

  मैं हूँ भारत देश, अहिंसा मेरा नारा

 

अलग-अलग भाषा बोली के कंठ सुरीले

सबसे ऊपर हिंदी, इसके बोल रसीले

गंगा, यमुना और नर्मदा पुण्य दायिनी

पाप मिटे जो इनका जल श्रद्धा से पी ले,

    ज्ञान ध्यान साधना नियम संयम है मुझमें

    इंद्रधनुष सतरंगा ये गुलशन अति प्यारा।

    मैं हूँ भारत देश, अहिंसा मेरा नारा।।

 

 मैं शांति का उदघोषक सब जीव अभय हो

 हूँ क्रांति का पोषक, अपनी सदा विजय हो

 “वसुधैव कुटुंबकम” का संदेश हमारा,

 चाह, विश्व में भ्रातृभाव की, मधुरिम लय हो

   पराक्रमी पुरुषत्व, उमंगित जन-मन मेरा

   सकल विश्व में हूँ, समज्योतिर्मय ध्रुव तारा।

   मैं हूँ भारत देश अहिंसा मेरा नारा।।

                                    

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से#10 ☆ पगडंडियों के रास्ते ☆ डॉ. सलमा जमाल

डॉ.  सलमा जमाल

 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन। ) 

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर भावप्रवण  रचना  “पगडंडियों के रास्ते”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 10 ✒️

?  पगडंडियों के रास्ते —  डॉ. सलमा जमाल ?

इक हंसी दोशीज़ा

पुरुषों को रिक्शे पे लिए ।

जा रही थी ठाट से

पगडंडियों के रास्ते ।।

चलते चलते एक नज़र

ग़ुरूर से देखा मुझे ,

कहती हो ,मंज़िल पर

ढोकर ले जाऊंगी तुझे ,

जोश है तूफ़ान सा,

फ़ख़्र औरत के वास्ते ।

जा रही ——————-।।

 

वाह रे हिंदुस्तान , क्या

हुस्न की तोक़ीर है ,

औरत के कंधे पे बैठे,

मर्द ये रणवीर हैं ,

पाला होगा बाप ने इस ,

परी को किस नाज़ से ।

जा रही ——————–।।

 

रहना था जिसको महलों में,

सड़क पर आ गई ,

नारी की अस्मत देख ,

धरती मां भी शरमा गई ,

अबला नहीं , सबला है ,

यह दुर्गा बनी खाक से ।

जा रही —————–।।

 

हे वतन की रूह ऐ ,

हिंदुस्तां की रहनुमा ,

हालात से लड़कर बनी,

हिम्मते मरदे जवां ,

क़ायम की मिसाल तूने ,

पन्नों में इतिहास के ।

जा रही —————-।।

 

औरत अब पाज़ेब की ,

झंकार तक सीमित नहीं ,

लालो गौहर ,ज़र – ज़ेवर ,

नज़र में क़ीमत नहीं ।

हक़ पाए अपना ‘ सलमा ‘

बराबरी के वास्ते ।

जा रही ——————–।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 16 – परम संतोषी भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – परम संतोषी   के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)     

☆ कथा – कहानी # 16 – परम संतोषी भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

संतोषी साहब परिवार सहित नगर में और अपनी अंतरात्मा सहित ब्रांच में स्थापित हो गये. मुख्य प्रबंधक जी के अस्नेह को उन्होंने भी ईश्वर का प्रसाद मानकर स्वीकारा और अपने काम में लग गये. यहाँ काम का अर्थ, बैंक के कर्मवीरों की डिक्शनरी से अलग था. पर हर व्यक्ति की तरह उनमें कुछ दुर्लभ गुण भी विद्यमान थे जिससे शाखा के स्टाफ ने उन्हें बहुत तेजी से अंगीकार कर लिया. पहला गुण तो यही था कि उनका किसी से पंगा नहीं लेने का सिद्धांत था. दूसरा सहनशीलता में बैल भी उनसे पार नहीं पा सकता था. बैंकिंग के अलावा अन्य विषयों पर उनकी गजब की पकड़ थी और एक से बढ़कर एक रोचक किस्से उनके बस्ते में रहते थे जो शाम पांच बजे के बाद जब खुलता था तो उनके इर्दगिर्द सुनने वालों का मजमा लग ही जाता था, विशेषकर उस समय जब मुख्य प्रबंधक अपने कक्ष में उपस्थित नहीं होते थे.

बैंकिंग का यह काल प्राचीन स्वर्णिम काल था जब बैंक शाखाएँ टेक्नोलॉजी की जगह मानवीय संबंधों के आधार पर चला करतीं थीं. बिज़नेस के नाम पर कस्टमर्स की आवाजाही दोपहर तीन बज़े समाप्त हो जाती थी, स्टाफ अपने अपने ग्रुप में लंच के लिये प्रस्थान कर जाते थे. ये वो ज़माना था जब शाखाओं में चहल पहल भारत के समान होती थी और तकनीकी रूप से विकसित अमरीका जैसी निर्जनता सिर्फ रात्रि सात आठ बजे के बाद ही मिल पाती थी जब सिक्युरिटी गार्ड शाखा के सुरक्षा सिंहासन पर राज़ा के समान राज किया करते थे.

रिक्रिएशन हॉल जहाँ होते थे वो भी अविवाहित युवकों के कारण ज़रूर आठ बज़े तक हलचलायमान होते थे पर उसके बाद बैंक के ये भविष्य भी अपनी दिनभर की थकान उतारने का पूरा सामान लेकर महा-विशिष्ट डिनर के लिये उपयुक्त हॉटल में प्रस्थान कर जाते थे. हालांकि घुसपैठ यहाँ भी होती थी जब इन युवाओं के बीच पत्नी के अंशकालिक विरह से त्रस्त forced batchler भी शामिल हो जाते थे, इनमें कभी कभी संतोषी साहब भी हूआ करते थे जो सुरूर में मधुबाला, मीनाकुमारी और नर्गिस की प्रेमकथाओं के एक से बढ़कर एक रोमांचक और जादुई किस्से अपने बैग से निकालकर महफिल में परोसा करते थे, इससे महफिलें रंगीन हो जाती थीं और संतोषी साहब हरदिल अज़ीज़. लोग इन महफिलों में उन्हें प्यार से अंकल सैम बुलाते थे और इस संबोधन को बड़ी सहजता से स्वीकारा भी जाता था.

ये महफिलें बड़ी शानदार हुआ करतीं थी जहाँ हर विषय पर और हर स्टाफ के बारे में चटखारे ले लेकर किस्सागोई की जाती थी.कभी कभी इस किस्सागोई के नायक या असलियत में खलनायक, शाखा के मुख्य प्रबंधक भी हुआ करते थे जो स्वाभाविक रुप से इन महफिलों में सदा अनुपस्थित रहते थे. शाखा प्रबंधक के लिये खलनायक बनना कभी कठिन नहीं हुआ करता, कभी कभी दो चार दिन की छुट्टी नहीं देने से भी यह उपाधि मिल जाती है. बैंकिंग की ये रंगभरी दुनिया आज भी अपनी ओर यादों में खींच लेती है जब नौकरी भले ही दस से छह बजे की हो पर लोग बैंक की दुनियां में चौबीसों घंटे मगन रहा करते थे और “जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ” गाया करते थे.

हमारे और आपके दिलों को भाती ये कथा जारी रहेगी, बस प्रोत्साहन की ऑक्सीजन देते रहिए.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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