(बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आज प्रस्तुत है आपकी वसंत पंचमी पर्व पर एक विशेष रचना ।।शरद ऋतु का अंत।।बसंत।। )
☆ कविता ☆ वसंत पंचमी विशेष – ।।शरद ऋतु का अंत।।बसंत।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆
।।विधा।। मुक्तक।।
[1]
शरद ऋतु तुमको प्रणाम, खुमारी सी छाने लगी है। लगता ऋतुराज़ बसंत की, रुतअब कहींआने लगी है।। माँ सरस्वती काआशीर्वाद, अब पाना है हम सबको। मन पतंग भीअब खुशियों, के हिलोरे खाने लगी है।।
[2] पत्ता पत्ता बूटा बूटा अब, खिला खिला सा तकता है। धवल रश्मि किरणों सा, सूरज जैसे अब जगता है।। मौसम चक्र में मन भावन, परिवर्तन अब आया जैसे। ऋतुराज बसन्त काअवसर, अब आया सा लगता है।।
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण ग़ज़ल “याद ”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ काव्य धारा 67 ☆ गजल – ’याद’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #78 – महानता के लक्षण ☆ श्री आशीष कुमार☆
एक संत थे। वह नदी तट पर आश्रम बनाकर रहते और अपने शिष्यों को शिक्षा देते थे। कुंभी नामक उनका एक शिष्य दिन-रात उनके पास ही रहता था। संत उसके प्रति काफी स्नेह रखते थे। एक दिन उसने संत से सवाल किया, ‘गुरुजी, मनुष्य महान किस तरह बन सकता है?’ संत बोले, ‘कोई भी मनुष्य महान बन सकता है लेकिन उसके लिए कुछ बातों को अपने दिलो-दिमाग में उतारना होगा।’
इस पर कुंभी बोला, ‘कौन सी बातों को?’ संत ने कुंभी की बात सुनकर एक पुतला मंगवाया। संत के आदेश पर पुतला लाया गया। संत ने कुंभी से कहा कि वह उस पुतले की खूब प्रशंसा करे। कुंभी ने पुतले की तारीफों के पुल बांधने शुरू कर दिए। वह बड़ी देर तक ऐसा करता रहा। इसके बाद संत बोले, ‘अब तुम पुतले का अपमान करो।’
संत के कहने पर कुंभी ने पुतले का अपमान करना शुरू कर दिया। पुतला क्या करता! वह अब भी शांत रहा। संत बोले, ‘तुमने इस पुतले की प्रशंसा व अपमान करने पर क्या देखा?’ कुंभी बोला, ‘गुरुजी, मैंने देखा कि पुतले पर प्रशंसा व अपमान का कुछ भी फर्क नहीं पड़ा।’
कुंभी की बात सुनकर संत बोले, ‘बस महान बनने का यही एक सरल उपाय है। जो व्यक्ति मान-अपमान को समान रूप से सह लेता है, वही महान कहलाता है। महान बनने का इससे बढ़िया उपाय कोई और नहीं हो सकता।’
संत की इस व्याख्या से उनके सभी शिष्य सहमत हो गए और सबने प्रण किया कि वे अपने जीवन में प्रशंसा व अपमान को समान रूप से लेने का प्रयास करेंगे।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख अधूरी ख़्वाहिशें। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 119 ☆
☆ अधूरी ख़्वाहिशें ☆
‘कुछ ख़्वाहिशों का अधूरा रहना ही ठीक है/ ज़िंदगी जीने की चाहत बनी रहती है।’गुलज़ार का यह संदेश हमें प्रेरित व ऊर्जस्वित करता है। ख़्वाहिशें उन स्वप्नों की भांति हैं, जिन्हें साकार करने में हम अपनी सारी ज़िंदगी लगा देते हैं। यह हमें जीने का अंदाज़ सिखाती हैं और जीवन-रेखा के समान हैं, जो हमें मंज़िल तक पहुंचाने की राह दर्शाती है। इच्छाओं व ख़्वाहिशों के समाप्त हो जाने पर ज़िंदगी थम-सी जाती है; उल्लास व आनंद समाप्त हो जाता है। इसलिए अब्दुल कलाम जी ने खुली आंखों से स्वप्न देखने का संदेश दिया है। ऐसे सपनों को साकार करने हित हम अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं और वे हमें तब तक चैन से नहीं बैठने देते; जब तक हमें अपनी मंज़िल प्राप्त नहीं हो जाती। भगवद्गीता में भी इच्छाओं पर अंकुश लगाने की बात कही गई है, क्योंकि वे दु:खों का मूल कारण हैं। अर्थशास्त्र में भी सीमित साधनों द्वारा असीमित इच्छाओं की पूर्ति को असंभव बताते हुए उन पर नियंत्रण रखने का सुझाव दिया गया है। वैसे भी आवश्यकताओं की पूर्ति तो संभव है; इच्छाओं की नहीं।
इस संदर्भ में मैं यह कहना चाहूंगी कि अपेक्षा व उपेक्षा दोनों मानव के लिए कष्टकारी व उसके विकास में बाधक हैं। उम्मीद मानव को स्वयं से रखनी चाहिए, दूसरों से नहीं। प्रथम मानव को उन्नति के पथ पर अग्रसर करता है; द्वितीय निराशा के गर्त में धकेल देता है। सो! गुलज़ार की यह सोच भी अत्यंत सार्थक है कि कुछ ख़्वाहिशों का अधूरा रहना ही कारग़र है, क्योंकि वे हमारे जीने का मक़सद बन जाती हैं और हमारा मार्गदर्शन करती हैं। जब तक ख़्वाहिशें ज़िंदा रहती हैं; मानव निरंतर सक्रिय व प्रयत्नशील रहता है और उनके पूरा होने के पश्चात् ही सक़ून प्राप्त करता है।
‘ख़ुद से जीतने की ज़िद्द है/ मुझे ख़ुद को ही हराना है/ मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ जी हां! मानव से जीवन में संघर्ष करने के पश्चात् मील के पत्थर स्थापित करना अपेक्षित है। यह सात्विक भाव है। यदि हम ईर्ष्या-द्वेष को हृदय में धारण कर दूसरों को पराजित करना चाहेंगे, तो हम राग-द्वेष में उलझ कर रह जाएंगे, जो हमारे पतन का कारण बनेगा। सो! हमें अपने अंतर्मन में स्पर्द्धा भाव को जाग्रत करना होगा और अपनी ख़ुदी को बुलंद करना होगा, ताकि ख़ुदा भी हमसे पूछे कि तेरी रज़ा क्या है? विषम परिस्थितियों में स्वयं को प्रभु-चरणों में समर्पित करना सर्वश्रेष्ठ उपाय है। सो! हमें वर्तमान के महत्व को स्वीकारना होगा, क्योंकि अतीत कभी लौटता नहीं और भविष्य अनिश्चित है। इसलिए हमें साहस व धैर्य का दामन थामे वर्तमान में जीना होगा। इन विषम परिस्थितियों में हमें आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे रखना है तथा पीछे मुड़कर कभी नहीं देखना है।
संसार में असंभव कुछ भी नहीं। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और हम वह सब सोच सकते हैं; जिसकी हमने आज तक कल्पना नहीं की। कोई भी रास्ता इतना लम्बा नहीं होता; जिसका अंत न हो। मानव की संगति अच्छी होनी चाहिए और उसे ‘रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं’ में विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं, जड़ें नहीं। जीवन संघर्ष है और प्रकृति का आमंत्रण है। जो स्वीकारता है, आगे बढ़ जाता है। इसलिए मानव को इस तरह जीना चाहिए, जैसे कल मर जाना है और सीखना इस प्रकार चाहिए, जैसे उसको सदा ज़िंदा रहना है। वैसे भी अच्छी किताबें व अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते; उन्हें पढ़ना पड़ता है। श्रेष्ठता संस्कारों से मिलती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। ऊंचाई पर पहुंचते हैं वे लोग जो प्रतिशोध नहीं, परिवर्तन की सोच रखते हैं। परिश्रम सबसे उत्तम गहना व आत्मविश्वास सच्चा साथी है। किसी से धोखा मत कीजिए; न ही प्रतिशोध की भावना को पनपने दीजिए। वैसे भी इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो हम किसी से करते हैं। जीवन में तुलना का खेल कभी मत खेलें, क्योंकि इस खेल का अंत नहीं है। जहां तुलना की शुरुआत होती है, वहां अपनत्व व आनंद भाव समाप्त हो जाता है।
ऐ मन! मत घबरा/ हौसलों को ज़िंदा रख/ आपदाएं सिर झुकाएंगी/ आकाश को छूने का जज़्बा रख। इसलिए ‘राह को मंज़िल बनाओ,तो कोई बात बने/ ज़िंदगी को ख़ुशी से बिताओ तो कोई बात बने/ राह में फूल भी, कांटे भी, कलियां भी/ सबको हंस के गले से लगाओ, तो कोई बात बने।’ उपरोक्त स्वरचित पंक्तियों द्वारा मानव को निरंतर कर्मशील रहने का संदेश प्रेषित है, क्योंकि हौसलों के जज़्बे के सामने पर्वत भी नत-मस्तक हो जाते हैं। ऐ मानव! अपनी संचित शक्तियों को पहचान, क्योंकि ‘थमती नहीं ज़िंदगी, कभी किसी के बिना/ यह गुज़रती भी नहीं, अपनों के बिना।’ सो! रिश्ते-नातों की अहमियत समझते हुए, विनम्रता से उनसे निबाह करते चलें, ताकि ज़िंदगी निर्बाध गति से चलती रहे और मानव यह कह उठे, ‘अगर देखना है मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो मेरी उड़ान को।’
(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय एवं सार्थक आलेख “नारी शक्ति”।)
☆ किसलय की कलम से # 70 ☆
☆ नारी शक्ति ☆
प्राचीन भारत का लिखित-अलिखित इतिहास साक्षी है कि भारतीय समाज ने कभी मातृशक्ति के महत्त्व का आकलन कम नहीं किया, न ही मैत्रेयी, गार्गी, विद्योत्त्मा, लक्ष्मीबाई, दुर्गावती के भारत में इनका महत्त्व कम था। हमारे वेद और ग्रंथ शक्ति के योगदान से भरे पड़े हैं। इतिहास वीरांगनाओं के बलिदानों का साक्षी है। जब आदिकाल से ही मातृशक्ति को सोचने, समझने, कहने और कुछ कर गुजरने के अवसर मिलते रहे हैं तब वर्तमान में क्यों नहीं? आज जब परिवार, समाज और राष्ट्र नारी की सहभागिता के बिना अपूर्ण है तब हमारा दायित्व बनता है कि हम बेटियों में दूना-चौगुना उत्साह भरें। उन्हें घर, गाँव, शहर, देश और अंतरिक्ष से भी आगे सोचने का अवसर दें। उनकी योग्यता और क्षमता का उपयोग समाज और राष्ट्र विकास में होनें दें।
आज भले हम विकास के अभिलेखों में नारी सहभागिता को उल्लेखनीय कहें परंतु पर्याप्त नहीं कह सकते। अब समय आ गया है कि हम बेटियों के सुनहरे भविष्य के लिए गहन चिंतन करें. सरोजिनी नायडू, मदर टेरेसा, अमृता प्रीतम, डॉ. सुब्बु लक्ष्मी, पी. टी. उषा जैसी नारियाँ वे हस्ताक्षर हैं जो विकास पथ में “मील के पत्थर” सिद्ध हुई हैं, फिर भी नयी नयी दिशाओं में, नये आयामों में, सुनहरे कल की ओर विकास यात्रा निरंतर आगे बढ़ती रहेगी। पहले नारी चहार दीवारी तक ही सीमित थी, परंतु आज हम गर्वित हैं कि नारी की सीमा समाज सेवा, राजनीति, विज्ञान, चिकित्सा खेलकूद, साहित्य और संगीत को लाँघकर दूर अंतरिक्ष तक जा पहुँची है। भारतीय मूल की नारी ने ही अंतरिक्ष में जाकर अपनी उपस्थिति से नारी जगत को गौरवान्वित किया है। महिला वर्ग में शिक्षा के प्रति जागरूकता, पुरुषों की नारी के प्रति बदलती हुई सकारात्मक सोच, नारी प्रतिभा और महत्त्व का एहसास आज सभी को हो चला है। उद्योग-धंधे या फिर तकनीकि, चिकित्सा आदि का क्षेत्र ही क्यों न हो, नारी प्रतिनिधित्व स्वाभाविक सा लगने लगा है। अनेक क्षेत्रों में नारी पुरुषों से कहीं आगे निकल गई है।
समाज महिला और पुरुष दोनों वर्गों का मिला-जुला स्वरूप है। चहुँमुखी विकास में दोनों की सक्रियता अनिवार्य है। महिलाओं में प्रगति का अर्थ है आधी सामाजिक चेतना और जन-कल्याण। महिलाएँ घर और बाहर दोनों जगह महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती हैं, बशर्ते वे शिक्षित हों। जागरूक हों। उन्हें उत्साहित किया जाए। उन्हें आभास कराया जाए कि नारी तुम्हारे बिना विकास सदैव अपूर्ण रहेगा। अब स्वयं ही तुम्हें अपने बल, बुद्धि और विवेक से आगे बढ़ने का वक्त आ गया है। कब तक पुरुषों का सहारा लोगी? बैसाखी पकड़कर चलने की आदत कभी स्वावलंबन नहीं बनने दे सकती। कर्मठता का दीप प्रज्ज्वलित करो। श्रम की सरिता बहाओ। बुद्धि का प्रकाश फैलाओ और अपनी ” नारी शक्ति ” का वैभव दिखला दो। नारी विकास के पथ में आने वाले सारे अवरोधों को हटा दो। घर की चहारदीवारी से बाहर निकालकर कूद पड़ो विकास के महासमर में। छलाँग लगा दो विज्ञान और तकनीकि के अंतरिक्ष में। परिस्थितियाँ और परिवेश बदले हैं। आत्मनिर्भरता बढ़ी है। दृढ़ आत्मविश्वास की और आवश्यकता है। मात्र नारी मुक्ति आंदोलनों से कुछ नहीं होगा! पहले तुम्हें स्वयं अपना ठोस आधार निर्मित करना होगा। इसके लिए शिक्षा, कर्मठता का संकल्प, भविष्य के सुनहरे सपने और आत्मविश्वास की आधार शिलाओं की आवश्यकता है। इन्हें प्राप्त कर इन्हें ही विकास की सीढ़ी बनाओ और पहुँचने की कोशिश करो, प्रगति के सर्वोच्च शिखर पर। कोशिशें ही तो कर्म हैं। कर्म करती चलो। परिणाम की चिंता मत करो। नारी तुम्हारा श्रम, तुम्हारी निष्ठा, तुम्हारी सहभागिता, तुम्हारे श्रम सीकर व्यर्थ नहीं जाएँगे। कल तुम्हारा होगा। तुम्हारी तपस्या का परिणाम निःसंदेह सुखद ही होगा, जिसमें तुम्हारी, हमारी और सारे समाज की भलाई निहित है।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे”। )
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण रचना “कैसे कहूँ विरह की पीर….”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
“अरे मोऱ्या, एवढी थंडी वाजत्ये तर पेपर न्यायचाच कशाला म्हणतो मी ?”
“त्याच काय आहे ना पंत, तुमचा पेपर वाचल्या शिवाय दिवसाची सुरवातच झाल्या सारखी वाटत नाही बघा मला !”
“म्हणजे रे काय मोऱ्या ? माझ्या पेपरला काय जगा वेगळ्या बातम्या असतात की काय ? मुंबईला ‘अभूतपूर्व थंडी’ ही बातमी माझ्या पेपरात काय, ‘मुंबईत उष्णतेची लाट’ अशी थोडीच छापणार आहेत ?”
“तसं नाही पंत, पण चहा पिता पिता तुमचा पेपर वाचला, की लगेच हेड ऑफिसचा कॉल येतो आणि एकदा का तो कॉल व्यवस्थित पार पडला, की सारा दिवस कसा उत्साहात जातो माझा !”
“अरे गाढवा, पण ज्या दिवशी पेपरला सुट्टी असते तेव्हा काय करतोस रे ?”
“जाऊ दे पंत, त्या विषयी नंतर बोलू ! पण मला एक सांगा, तुम्हांला कशी नाही थंडी वाजत या वयात ?”
“या वयात म्हणजे ? गधड्या आत्ता कुठे माझी सत्तरी आल्ये !”
“हॊ, माहित आहे मला, पण या वयात अंगातलं रक्त कमी होतं आणि त्यामुळे थंडी जास्त वाजते असं म्हणतात, म्हणून म्हटलं !”
“अरे आमची जुनी हाडं पेर ! असल्या बारा अंशाच्या थंडीला ती थोडीच भीक घालणार आहेत !”
“पंत, पण थंडी वाजू नये म्हणून तुम्ही काहीतरी उपाय करतच असणार ना ?”
“हॊ करतो नां! अरे मस्त आल्याचा चहा घेतो दोन तीन वेळेला आणि पाती चहाचा काढा सुंठ, काळी मिरी घालून उकळत ठेवला आहे बायकोने, तो पण घेतो मधून मधून ! मग थंडीची काय बिशाद !”
“अच्छा ! पण पंत तुम्हाला एक सांगू का, आपल्या मायबाप सरकारला यंदा आलेल्या बोचऱ्या थंडीची चाहूल आधीच लागली होती, असं मला आता वाटायला लागलंय !”
“असं कशावरून म्हणतोयस तू मोऱ्या ?”
“अहो पंत असं काय करता, सध्या सगळ्या पेपर मधे एकच विषय तर घटा घटा प्यायला, सॉरी, चघळा जातोय ना, वाईन, वाईन आणि फक्त वाईन !”
“तू म्हणतोयस ते बरोबर आहे रे मोऱ्या. अरे त्या वाईनच्या बातम्यांनी किराणामालाच्या दुकान मालकांचे गल्लेपण गरमा गरम झाले असतील नाही !”
“बरोब्बर पंत !”
“मोऱ्या, पण मला एक सांग, आपल्या चाळीच्या कोपऱ्यावरच्या ‘उर्वशी साडी सेंटर’ मधे सकाळ पासून खरेदीसाठी लाईन कशी काय लागलेली असते हल्ली ? काल परवा पर्यंत त्या दुकानात काळं कुत्र सुद्धा फिरकत नव्हतं रे !”
“अहो पंत तो पण वाईनचाच महिमा !”
“काय सांगतोयस काय मोऱ्या ?”
“अहो पंत, त्या उर्वशी साडी सेंटरच्या मालकाने एक स्कीम चालू केली आहे !”
“कसली स्कीम ?”
“अहो पहिल्या शंभर गिऱ्हाईकांना एका साडीवर एक वाईनची बाटली फुकट ! म्हणून तर सकाळ पासून गर्दी असते तिथे !”
“अरे पण नवीन सरकारी नियमांप्रमाणे साडीच्या दुकानात वाईन विकायला परमिशनच नाही, मग तो …..”
“अहो तो वाईन विकतच नाही, तो साडयाच विकतो ! पण एका साडी खरेदीवर तो एक कुपन देतो ! ते घेवून त्याच्याच भावाच्या किराणा मालाच्या दुकानात जायचं आणि ते कुपन दाखवून वाईनची एक बाटली मोफत मिळते ती घेवून घरी जायचं !”
“हे बरं आहे, म्हणजे साडी खरेदीमुळे बायको खूष आणि वाईन मिळाल्यामुळे नवरा पण खूष !”
“अगदी बरोब्बर बोललात पंत ! पंत,
पण एक विचारू का तुम्हांला ?”
“अरे विचार नां, त्याच्यासाठी परमिशन कसली मगतोयस, बोल ! “
“पंत ह्या ब्यागा कसल्या भरल्येत तुम्ही, कुठे बाहेर जाताय का काकूंच्या बरोबर ?”
“मोऱ्या, अरे पुण्यात जाऊन येतोय दोन तीन दिवस हिच्या भावाकडे !”
“काही खास प्रोग्राम ?”
“काही खास प्रोग्राम वगैरे नाही रे ! तुला तर माहित आहेच, हिचा भाऊ पुण्यात ‘अस्सल पुणेरी अर्कशाळा’ चालवतो ते !”
“हॊ मागे काकूंनी सुनीताला ओव्याच्या अर्काची बाटली दिली होती एकदा !”
“हां, तर त्याच हिच्या भावाने त्याच्या अर्कशाळेत, अथक परिश्रमातून साबुदाण्यापासून बनवलेली, उपासाला चालणारी, ‘सज्जन वाईन’ बनवल्ये आणि त्या वाईनच्या पहिल्या बाटलीच बूच, मी माझ्या हस्ते उघडून त्याच्या या नवीन वाईनच मी उदघाट्न करावं असं माझ्या मेव्हण्याला वाटत, म्हणून चाललोय पुण्याला !”
“धन्य आहे तुमची आणि तुमच्या त्या सज्जन मेव्हण्याची !”
ताजा कलम – या पुढे भविष्यात प्रौढ शिक्षणाच्या मास्तरांनी, ‘झोप’ या विषयाला धरून निबंध लिहायला सांगितला, तरी त्या विषयी आज जागेपणी, काहीही न लिहिण्याचा मी संकल्प करत आहे !