☆ मी प्रवासिनी क्रमांक १८ भाग २ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆
झांबेझीवर झुलणारी झुंबरं
झांबिया म्हणजे पूर्वीचा उत्तर ऱ्होडेशिया. या छोट्या देशाभोवती अंगोला, कांगो, टांझानिया, मालावी, मोझांबिक, झिम्बाब्वे ( पूर्वीचा दक्षिण ऱ्होडेशिया ) आणि नामिबिया अशी छोटी छोटी राष्ट्रे आहेत. मे महिन्यापासून ऑगस्टपर्यंत इथले हवामान अतिशय प्रसन्न असते. सुपीक जमीन, घनदाट जंगले, सरोवरे, नद्या, जंगली जनावरांचे कळप, सुंदर पक्षी यांची देणगी या देशाला लाभली आहे. नद्यांवर धरणे बांधून इथे वीज निर्मिती केली जाते. तांब्याच्या खाणी, झिंक, कोबाल्ट, दगडी कोळसा, युरेनियम, मौल्यवान रत्ने, हिरे तसेच उत्तम प्रतीचा ग्रॅनाइट व संगमरवरी दगड सापडतो. गाई व मेंढ्यांचे मोठमोठे कळप आढळतात. तंबाखू, चहा-कॉफी ,कापूस उत्पादन होते. १९६४ साली ब्रिटिशांकडून स्वातंत्र्य मिळाल्यापासून २७ वर्षें राष्ट्राध्यक्ष असलेल्या केनेथ कोंडा यांनी या राष्ट्राला प्रगतीपथावर नेले.
झांबिया आणि झिंबाब्वे यांच्या सरहद्दीवर असलेल्या महाकाय व्हिक्टोरिया धबधब्याचा शोध, स्कॉटिश मिशनरी संशोधक डॉक्टर डेव्हिड लिव्हिंगस्टन यांना १८५५ मध्ये लागला. त्यांनी धबधब्याला आपल्या देशाच्या राणी व्हिक्टोरियाचे नाव दिले.५६०० फूट रुंद आणि ३५४ फूट खोल असलेला हा धबधबा जगातील सात नैसर्गिक आश्चर्यांपैकी एक मानला जातो. युनेस्कोने त्याला वर्ल्ड हेरिटेजचा दर्जा दिला आहे.
आम्हाला व्हिक्टोरिया धबधब्याचे खूप जवळून दर्शन घ्यायचे होते. धबधब्याच्या पुढ्यातील डोंगरातून रस्ता तयार केला आहे. रस्ता उंच-सखल, सतत पडणाऱ्या पाण्यामुळे बुळबुळीत झालेला होता. आधारासाठी बांधलेले लाकडी कठड्याचे खांबही शेवाळाने भरलेले होते. मध्येच दोन डोंगर जोडणारा, लोखंडी खांबांवर उभारलेला छोटा पूल होता. गाईड बरोबर या रस्त्यावरून चालताना धबधब्याचे रौद्रभीषण दर्शन होत होते. अंगावर रेनकोट असूनही धबधब्याच्या तुषारांमुळे सचैल स्नान घडले. शेकडो वर्षे अविरत कोसळणाऱ्या या धबधब्यामुळे त्या भागात अनेक खोल घळी ( गॉरजेस ) तयार झाल्या आहेत. धबधब्याचा नजरेत न मावणारा विस्तार, उंचावरून खोल दरीत कोसळतानाचा तो आदिम मंत्रघोष, सर्वत्र धुक्यासारखे पांढरे ढग….. सारेच स्तिमित करणारे. एकाच वेळी त्यावर चार-चार इंद्रधनुष्यांची झुंबरं झुलत होती. ती झुंबरं वाऱ्याबरोबर सरकत डोंगरकडांच्या झुडपांवर चढत होती. हा नयनमनोहर खेळ कितीही वेळ पाहिला तरी अपुराच वाटत होता. ते अनाघ्रात, रौद्रभीषण सौंदर्य कान, मन, डोळे व्यापून उरत होतं .स्थानिक भाषेत या धबधब्याला ‘गडगडणारा धूर’ असं म्हणतात ते अगदी सार्थ वाटलं.
मार्गदर्शकाने नंतर झांबेझी नदीचा प्रवाह जिथून खाली कोसळतो त्या ठिकाणी नेले. तिथल्या खडकांवर निवांत बसून पाण्याचा खळखळाट ऐकला. जगातील सगळ्या नद्या या लोकमाता आहेत. इथे या लोकमातांना त्यांचे सौंदर्य आणि स्वच्छता जोपासून सन्मानाने वागविले जात होते.( जागोजागी कचरा पेट्या ठेवलेल्या होत्या ) आपण आपल्या लोकमातांना इतक्या निष्ठूरपणे का वागवितो हा प्रश्न मनात डाचत राहिला.
संध्याकाळी झांबेझी नदीतून दोन तासांची सफर होती. तिथे जाताना आवारामध्ये एकजण लाकडी वाद्य वाजवीत होता. मरिंबा(Marimba ) हे त्या वाद्याचे नाव.पेटीसारख्या आकारातल्या लाकडी पट्टयांवर दोन छोट्या काठ्यांनी तो हे सुरेल वाद्य वाजवीत होता. पट्टयांच्या खालच्या बाजूला सुकलेल्या भोपळ्यांचे लहान-मोठे तुंबे लावले होते.
क्रूझमधून झांबेझीच्या संथ आणि विशाल पात्रात फेरफटका सुरू झाला. नदीत लहान-मोठी बेटं होती. नदीतले बुळबुळीत, चिकट अंगाचे पाणघोडे ( हिप्पो ) खडकांसारखे वाटत होते. श्वास घेण्यासाठी त्यांनी पाण्याबाहेर तोंड काढून जबडा वासला की त्यांचे अक्राळविक्राळ दर्शन घडे. एका बेटावर थोराड हत्ती, भलेमोठे झाड उपटण्याच्या प्रयत्नात होते. त्यांचे कान राक्षसिणीच्या सुपाएवढे होते .दुसऱ्या एका बेटावर अंगभर चॉकलेटी चौकोन असलेल्या लांब लांब मानेच्या जिराफांचे दर्शन घडले. काळे, लांब मानेचे बगळे, लांब चोचीचे करकोचे, विविधरंगी मोठे पक्षी, पांढरे शुभ्र बगळे, घारी, गरुड या साऱ्यांनी आम्हाला दर्शन दिले. निसर्गाने किती विविध प्रकारची अद्भुत निर्मिती केली आहे नाही?
सूर्य हळूहळू केशरी होऊ लागला होता. सूर्यास्त टिपण्यासाठी सार्यांचे कॅमेरे सज्ज झाले. दाट शांतता सर्वत्र पसरली आणि एका क्षणी झांबेझीच्या विशाल पात्रात सूर्य विरघळून गेला. केशरी झुंबरं लाटांवर तरंगत राहिली.
साधारण नव्वदच्या दशकापर्यंत आफ्रिकेला काळे खंड म्हटले जाई. आजही या खंडाचा काही भाग गूढ, अज्ञात आहे. सोनेरी- हिरवे गवत, फुलांचा केशरी, लाल, पांढरा, जांभळा, गुलाबी रंग, प्राणी आणि पक्ष्यांचे अनंत रंग, धबधब्याच्या धवलशुभ्र रंगावर झुलणारी इंद्रधनुष्ये, अगदी मनापासून हसून आपले स्वागत करताना तिथल्या देशबांधवांचे मोत्यासारखे चमकणारे दात….. सगळी रंगमयी दुनिया! हे अनुभवताना नाट्यछटाकार ‘दिवाकर’ यांची एक नाट्यछटा आठवली. ती भूमी जणू म्हणत होती,’ काळी आहे का म्हणावं मी? कशी छान, ताजी, रसरशीत, अगणित रंगांची उधळण करणारी सौंदर्यवती आहे मी!
यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020।
☆ लघुकथाएं – [1] बुद्धिजीवी [2] अपने बिल में ☆ डॉ. हंसा दीप ☆
☆ बुद्धिजीवी ☆
बस चली जा रही थी। अगले स्टॉप पर कुछ देर रुकी तो एक बहुत बूढ़ी महिला बस में चढ़ी। चूँकि कोई सीट खाली नहीं थी अत: वह डंडा पकड़े खड़ी रही। उसके पास वाली सीट पर एक बुद्धिजीवी-सा नवयुवक बैठा था। वह देख रहा था कि बस के बार-बार हिचकोले खाने से बुढ़िया को बड़ी दिक्कत हो रही थी। बेचारी बमुश्किल स्वयं को गिरने से बचा पा रही थी। उसने सोचा वह खड़ा हो जाए और बुढ़िया को बिठा दे पर न जाने क्यों वह उठा नहीं। सोचा, वह तो इतनी दूर से आ रहा है, वह क्यों उठे! और दूसरे यात्री भी तो हैं क्या कोई भी उसे बिठा नहीं सकता!
ऊँह बिठाना चाहता तो अब तक कोई बिठा ही देता, क्यों न वह ही उठ जाए! बिल्कुल, अब वह उठेगा और बुढ़िया को बिठा ही देगा। वह मन ही मन कई बार दुहरा चुका कि बुढ़िया से कहेगा– “माँजी आप बैठो…” और जब वह खड़ा होगा तो बस के सारे यात्री निश्चित ही उसकी दया से प्रभावित होंगे। सोचेंगे, कितना दयालु है यह! वह सोचता ही रहा और सोचते-सोचते उसे झपकी लग गयी। आँख खुली तब तक बुढ़िया उतर चुकी थी।
☆ अपने बिल में ☆
समर्थ जी बहुत खुश हैं। पिछले बीस सालों से विदेश में रहकर हिन्दी की सेवा कर रहे हैं परन्तु इन दिनों उनकी सेवा लोगों को दिखाई दे रही है। फेसबुक पर उनके पूरे पाँच हजार फ्रेंड्स हैं। पहले तो भारत जाकर रिश्तेदारों से मिल-मिला कर आ जाते थे पर इन दिनों भारत यात्रा की बात ही कुछ और है। फेसबुक के मित्र उनके लिये सम्मान समारोह रखते हैं। अब हर साल की एक भारत यात्रा पक्की कर ली है जिसमें कम से कम पच्चीस सम्मान समारोह न हो तो जाने का आनंद ही क्या! भारत से जब लौटते हैं तो अगली यात्रा के इंतज़ार में कई फूल मालाओं का वजन गर्दन पर महसूस होता रहता है। यहाँ की ठंड में मफलर पहनते हैं तो लगता है यह मफलर नहीं वे ही फूल हैं जो उन्हें इस ठंड में गर्मी दे रहे हैं।
इस बार उन्हीं मित्रों में से एक मित्र अनादि बाबू विदेश की सैर पर आए। अनादि जी की दिली इच्छा थी कि जैसा सम्मान उन्होंने अपने मित्र समर्थ जी का भारत में किया वैसा ही शानदार कार्यक्रम अनादि बाबू के लिये यहाँ किया जाए। बस यहीं आकर समर्थ जी फँस गए क्योंकि वे जानते थे कि उनके अपने शहर में उनकी कितनी इज्जत है, उन्हें कोई घास तक नहीं डालता। अब वे फूलों के हार उन्हें गले में लिपटे साँप की तरह भयानक लग रहे थे व फूँफकारते हुए साँप उन्हें बिल में घुसने के लिये मजबूर कर रहे थे।
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है बुंदेली गीत “राह देखता खड़ा सुदामा … ”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है डा उमेश कुमार सिंगजी की पुस्तक “इक्कीसवीं सदी का भारत” की समीक्षा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 106 – “इक्कीसवीं सदी का भारत” – डा उमेश कुमार सिंग ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
पुस्तक – इक्कीसवीं सदी का भारत
म. प्र. साहित्य अकादमी की पत्रिका साक्षात्कार के संपादकीय का संकलन
लेखक – डा उमेश कुमार सिंग
प्रकाशक – संदर्भ प्रकाशन, भोपाल
मूल्य – ३०० रु
संदर्भ प्रकाशन भोपाल श्री राकेश सिंह के समर्पित साहित्य प्रेम का उदाहरण है, किसी भी तरह दिल्ली या जयपुर के प्रकाशको से प्रकाशन, प्रस्तुति, उत्कृष्ट साहित्य के चयन में उन्नीस नही है. विविध विषयो पर साश्वत साहित्य वे लगातार प्रकाशित कर रहे हैं. इसी क्रम में “इक्कीसवीं सदी का भारत ” पुस्तक पढ़ने में आई. लेखक डा उमेश कुमार सिंग जो साहित्य अकादमी के निदेशक रह चुके हैं, और जिनके संपादन में म. प्र. साहित्य अकादमी की पत्रिका साक्षात्कार ने नई उंचाईयां स्पर्श की थीं, के द्वारा उनके संपादन में निकले साक्षात्कार के अंको के संपादकीय आलेखो का संकलन इस पुस्तक में है. कुल २६ लेख हैं. सभी लेख शाश्वत मुक्त चिंतन से उपजे हैं. हर उस व्यक्ति को जिसे स्व से पहले समाज और देश की चिंता हो, ये आलेख जरूर पसंद आयेंगे. अधिकांश लेख मेरे पहले ही साक्षात्कार में पढ़े हुये हैं, जिन पर मैं यदा कदा पाठकीय प्रतिक्रिया भी पत्रिका में ही व्यक्त करता रहा हूं. साहित्य का सरोकार मई २०१६ के अंक से आरंभ जून २०१८ में प्रकाशित रंक को तो रोना है लेख तक सभी न केवल पठनीय हैं वरन मनन करने और चिंताकरते हुये राष्ट्र के लिये किंचित कुछ करने को प्रेरित करते हुये लेख पुस्तक में हैं. लेखक डा उमेश कुमार सिंग ने इतिहास, कविता, आलोचना, संपादन में निरंतर बड़े काम किये हैं उन्हें कई सम्मान और जिम्मेदारियां मिली जिनका उन्होने सफल निर्वाह किया है. ऐसे साहित्यिक समर्पित मनीषी के चिंतन का लाभ पाठको को इस कृति के माध्यम से मिलना तय है.
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक सार्थक लघुकथा “ *गंगाजल*”। इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 113 ☆
लघु कथा *गंगाजल*
पहली बार गंगा स्नान के लिए गोमती गांव से इलाहाबाद जा रही थीं। बरसों की भावना और मन में उत्साह बहुत था। स्टेशन से गंगा तट की दूरी बहुत ज्यादा हैं। इसलिए एक आटो वाले के साथ अन्य लोगों के साथ अपने नाती को लेकर बैठ गई।
स्नान पूजन के बाद गंगा जल बाॅटल में भर बड़े जतन और श्रद्धा से गोद में लेकर उसी आटो से वापस स्टेशन आने लगी।
अत्यधिक भीड़ और धूप की वजह से रास्ते में आटो चालक जो शुगर पेशेंट था। अचानक उसे चक्कर सा आने लगा। उसने तुंरत आटो रोकने की कोशिश की और गिर पड़ा।
बाकी सभी बैठे यात्री अपनी अपनी गंगा जल की बाॅटल और सामान ले उतर कर भागने लगे। गोमती ने जल्द ही गंगा जल की बाॅटल खोल मुंह पर छींटा मारा और जल पिलाया।साथ में रखे खाने का सामान भी दिया।
सभी कहने लगे कितनी मेहनत से तुम गंगा जल ले जा रही थीं और इस आटो वाले को पिला कर जूठा कर लिया। नाती भी डांटने लगा इतना खर्च किएऔर आपने गंगा जल यूं ही खराब कर दिया।
आटो चालक चंगा हो चलाने की स्थिति में आ गया। बाकी महिलाओं ने कहा अब तुम पूजन के लिए क्या ले जाओगी।
गोमती मंद मंद मुस्कान के साथ बोली मेरी पूजा तो जन्मों जन्मों के लिए हो गई।
माझा जन्म पुणे जिल्ह्य़ातील एका छोट्याशा गावातल्या बागायतदार कुटुंबातला, भरपूर शेतीवाडी,घरात सुबत्ता होती, माझी आयुष्यातील पहिली मैत्रीण त्या गावातील कमल बडदे! ती माझ्यापेक्षा एक वर्षाने मोठी होती. आम्ही गावातल्या इतर मुलींबरोबर खेळायचो नाही.दोघीच काहीतरी खेळत असायचो. मी माॅन्टेसरीत असतानाच पुण्यात रहायला गेले पण सुट्टीत गावाकडे गेल्यावर मी आणि कमल भेटत असू.
पुण्यात भांडारकर रोडवर रहात असताना मालती पांडे ही मैत्रीण मिळाली तीही माझ्यापेक्षा एक वर्षाने मोठी होती, आम्ही एकमेकींच्या घरी येत जात असू. आम्ही पुणं सोडून गावाकडे आलो, पुण्यातील जागा रिकामी करण्यासाठी आईवडील गेले तेव्हा मालू भेटायला आली होती,आणि मी भेटले नाही आणि पुण्यात परत येणार नाही,म्हणून ती खूप रडली होती असं आईनी सांगितलं होतं.
आम्ही गावाकडे गेल्यावर, कमल भेटली,तिचे वडील मिलिट्रीत होते,ते माझ्या वडिलांचे चांगले मित्र होते ! तिची आई मुलांच्या शिक्षणासाठी घोडनदी-शिरूरला रहात होती.कमल नी आम्हाला शिरूरला चलण्याविषयी सुचविले होते हे मला आजही आठवतंय. शिरूर आमच्या गावापासून जवळ असल्यामुळे सोयीचं म्हणून वडिलांनी शिरूर मध्येच बि-हाड केलं!
पण शिरूरमधे गेल्यावर कमलची आणि माझी मैत्री टिकली नाही. तिथे मला राणी गायकवाड, सरस बोरा,उज्वल धारिवाल, निर्मल गुंदेचा, संजीवनी कळसकर या मैत्रीणी मिळाल्या! राणी गायकवाड शी माझे पूर्वजन्मीचे काहीतरी ऋणानुबंध असावेत असं मला नेहेमीच वाटतं.तिची मैत्री म्हणजे एक सुंदर कविताच होती….त्या मैत्रीची फार मोठी किंमत मला मोजावी लागली आहे. दहावी नंतर अकरावीला मी हिंगण्याच्या (कर्वेनगर ) महिलाश्रम हायस्कूल मधे हॉस्टेल वर राहू लागले तिथे जयश्री जमनारेची ओळख झाली . त्या हॉस्टेलवर मी महिनाभरही राहिले नाही, तिथे अजिबातच करमेना मग शिरूरचं मोडलेलं बि-हाड परत उभारलं ,राणी गायकवाड आणि जयश्री लोहकपूरे या खूप जिवलग मैत्रीणी पण त्या तरुण वयातच या जगातून निघून गेल्या!पण माझ्या आयुष्यात त्या दोघींना अनन्यसाधारण महत्त्व आहे.
या शाळेतील मैत्रीणी, काॅलेज मधे गेल्यावर नवीन मैत्रीण मिळाली सिंधू शेटे! तिची मैत्री अनेक वर्षे टिकली,पण दोन वर्षांपूर्वी तीही आजारपणाने गेली.
लग्न होऊन पुण्यात आले तेव्हा पहिली मैत्री यशवंत दत्त ची बायको वैजयंती महाडिकशी झाली. त्यानंतर काही वर्षांनी शिरूर च्या शाळेतली हुशार मुलगी माधुरी तिळवणकर ही भेटली, तिच्याशी मैत्री झाली ती तिच्या मिस्टरांमुळे, ते पूर्वी सोमवार पेठेत रहात होते, माधुरीचे पति अशोक कामत हे ह्यांचे मित्र बनले.माझ्या मुलाची आणि तिच्या मुलाचीही मैत्री झाली,एकमेकींच्या घरी जाणं हिंडणं फिरणं हे माधुरी बरोबर खूप झालं, फिरकी दिवाळी अंकाच्या संपादिका शोभा ठाकूर यांची ओळख माधुरीच्या मिस्टरांनी करून दिली, मी फिरकीची सहसंपादक झाले, असा साहित्य क्षेत्रात माझा शिरकाव झाला आणि शोभा ठाकूर ही मुंबई ची मैत्रीण मिळाली.त्याचकाळात लेखिका नंदा सुर्वे यांच्याशी खूप घनिष्ठ मैत्री झाली,नंदाताईंचं घर हे मला खूप शाश्वत, हक्काचं ठिकाण वाटतं!
पुढे “काव्यशिल्प” या कवींच्या संस्थेत मीरा शिंदेंशी पहिल्यांदा मैत्री झाली.मीराताई मैत्रीण वाटण्यापेक्षा मोठी बहिण जास्त वाटतात, त्यांच्यामैत्रीत एकप्रकारचं वेगळेपण आहे.
त्या नंतर मीनल बाठे, स्वाती सामक, स्नेहसुधा कुलकर्णी,ज्योत्स्ना चांदगुडे यांच्याशी खूप जवळची मैत्री झाली. आम्ही पाचजणींनी “मैत्रपंचमी” हे आत्मकथनपर पुस्तकही प्रकाशित केलं…..आयुष्याच्या जडणघडणीत आम्हा पाचजणींना एकमेकींची साथ खूप मोलाची ठरली आहे.
आयुष्यात खूप मैत्रीणी येऊन गेल्या ज्यांच्यामुळे आयुष्य सुखकर झालं अभिनेत्री ज्योती चांदेकर ही सुद्धा खूप जवळची मैत्रीण, तिच्यामुळे ओळख झालेली मीना जावडेकरही खूप प्रेमळ आणि काळजीवाहू मैत्रीण,आम्ही तिघी एकमेकींना खूप छान ऐकून घेतो आणि ऐकवतोही.या पाच सहा वर्षांत खूप जवळीक निर्माण झालेलं हे मैत्र !
खरंतर एक एक मैत्रीण ही एक एक कादंबरीच होईल! वर्षा कुलकर्णी ही सुद्धा खूप जवळची वृत्तबद्ध कवितेचा अभ्यास असलेली,माझ्यावर उदंड प्रेम करणारी मैत्रीण!
प्रसिद्ध कवयित्री आसावरी काकडे,अंजली कुलकर्णी, आश्लेषा महाजन, मृणालिनी कानिटकर या मैत्रीणी असल्याचा सार्थ अभिमान!
सामाजिक कार्यकर्ती सरोज फडके, स्नेहलता धूत ही स्वाध्याय महाविद्यालयात एम.ए. करताना मिळालेली हुशार मैत्रीण ! शीला शेळके,भक्ती पंडित, मेघना कुलकर्णी,लाजवंती साळुंकेआणि कवयित्री वैशाली मोहिते ही नावं घेतल्याशिवाय ही “सहेलियोंकी बाडी” पूर्ण होऊच शकत नाही. “सहेलियोंकी बाडी” राजस्थानातलं राजकन्येला तिच्या मैत्रीणींबरोबर खेळण्यासाठी राजानी बनवलेलं एक उद्यान आहे. माझ्यासाठी माझी प्रत्येक मैत्रीण राजकुमारी आणि तिची मैत्री हे एक सुंदर उद्यानच आहे !
अजून बरीच नावं नाही लिहिली गेली, विस्मरणात गेली, ज्ञात अज्ञात सर्व मैत्रीणींना हा लेख समर्पित!
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “वाणी में कम्पन सा …”।)