हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ #130 – आतिश का तरकश – ग़ज़ल – 18 – “दरमियाँ” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “दरमियाँ …”)

? ग़ज़ल # 18 – “दरमियाँ…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

निभाने को हमें कुछ बचा ही नहीं,

दरमियाँ हमारे सच बचा ही नहीं।

 

इतने हिस्सों में बँट चुके हैं हम,

मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं।

 

ईमान रिश्तों की साझा नींव है,

सच्चा इंसान कोई बचा ही नहीं।

 

माना तुम ज़मीन पर खड़े हुए हैं,

पैरों के नीचे तल बचा ही नहीं।

 

दिल का दर्द किससे बयाँ करूँ मैं,

हमसाया मेरा कोई बचा ही नहीं।

 

दर्द समझ सकता कोई तो हमारा,

हमनफ़स अब कोई बचा ही नहीं।

 

चहलक़दमी साथ कर सकता कोई,

हमराह अपना कोई बचा ही नहीं।

 

मेरे साथ गीत गुनगुनाता कोई,

हमनवा ऐसा कोई बचा ही नहीं।

 

अब तो सफ़र तनहा ही कटना है,

हमसफ़र हमारा कोई बचा ही नहीं।

 

दिले बीमार लाइलाज हुआ अब तो,

क़ाबिल चारागर कोई बचा ही नहीं।

 

दिल के टुकड़ों को अब क्या सँभालू,

तीमारदार अब कोई बचा ही नहीं।

 

दिल से सदा आती सुनाई देती है,

अब चलो आतिश कुछ बचा ही नहीं।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा 70 ☆ गजल – ’’कठिन श्रम की साधना’’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “कठिन श्रम की साधना”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 70 ☆ गजल – ’’कठिन श्रम की साधना’’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

आने वाले कल से हर एक आदमी अनजान है

किया जा सकता है केवल काल्पनिक अनुमान है।

सोचकर भी बहुत कुछ, कर पाता कोई कुछ भी नहीं

सफलता की राह पै’ अक्सर खड़ा व्यवधान है।

करती नई आशायें नित खुशियों की मोहक सर्जना

जोड़ते जिनके लिये सब सैकड़ों सामान हैं।

कठिन श्रम की साधना ही दिलाती है सफलता

परिश्रम भावी सफलता की सही पहचान है।

राह चलते जो अकेले भी कभी थकते नहीं

वहीं कह सकते है कि यह जिन्दगी आसान है।

हर दिशा  में क्षितिज के भी पार हैं कई बस्तियॉ

किया जा सकता पहुॅंच ही कोई नव अनुसंधान है।

प्रेरणा उत्साह जिज्ञासा का हो यदि साथ तो

परिश्रम देता सदा मनवांछित वरदान है।

कठिन श्रम की साधना की कला जिसको सिद्ध है

वही हर अभियान में पाता विजय औ’ मान है।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 122 ☆ कोरोना और भूख ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख कोरोना और भूख। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 122 ☆

☆ कोरोना और भूख

कोरोना बाहर नहीं जाने देता और भूख भीतर नहीं रहने देती। आजकल हर इंसान दहशत के साये में जी रहा है। उसे कल क्या, अगले पल की भी खबर नहीं। अब तो कोरोना भी इतना शातिर हो गया है कि वह इंसान को अपनी उपस्थिति की खबर ही नहीं लगने देता। वह दबे पांव दस्तक देता है और मानव शरीर पर कब्ज़ा कर बैठ जाता है। उस स्थिति में मानव की दशा उस मृग के समान होती है, जो रेगिस्तान में सूर्य की चमकती किरणों को जल समझ कर दौड़ता चला जाता है और वह बावरा मानव परमात्मा की तलाश में इत-उत भटकता रहता है। अंत में उसके हाथ निराशा ही लगती है, क्योंकि परमात्मा तो आत्मा के भीतर बसता है। वह अजर, अमर, अविनाशी है। उसी प्रकार कोरोना भी शहंशाह की भांति हमारे शरीर में बसता है, जिससे सब अनभिज्ञ होते हैं। वह चुपचाप वार करता है और जब तक मानव को रोग की खबर मिलती है,वह लाइलाज घोषित कर दिया जाता है। घर से बाहर अस्पताल में क्वारेंटाइन कर दिया जाता है और आइसोलेशन में परिवारजनों को उससे मिलने भी नहीं दिया जाता। तक़दीर से यदि वह ठीक हो जाता है, तो उसकी घर-वापसी हो जाती है, अन्यथा उसका दाह-संस्कार करने का दारोमदार भी सरकार पर होता है। आपको उसके अंतिम दर्शन भी प्राप्त नहीं हो सकते। वास्तव में यही है– जीते जी मुक्ति। कोरोना आपको इस मायावी संसार ले दूर जाता है। उसके बाद कोई नहीं जानता कि क्या हो रहा है आपके साथ… कितनी आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है आपको… और अंत में किसी से मोह-ममता व लगाव नहीं; उसी परमात्मा का ख्याल … है न यह उस सृष्टि-नियंता तक पहुंचने का सुगम साधन व कारग़र उपाय। यदि कोई आपके प्रति प्रेम जताना भी चाहता है, तो वह भी संभव नहीं, क्योंकि आप उन सबसे दूर जा चुके होते हो।

परंतु भूख दो प्रकार की होती है… शारीरिक व मानसिक। जहां तक शारीरिक भूख का संबंध है, भ्रूण रूप से मानव उससे जुड़ जाता है और अंतिम सांस तक उसका पेट कभी नहीं भरता। मानव उदर-पूर्ति हेतु आजीवन ग़लत काम करता रहता है और चोरी-डकैती, फ़िरौती, लूटपाट, हत्या आदि करने से भी ग़ुरेज़ नहीं करता। बड़े-बड़े महल बनाता है, सुरक्षित रहने के लिए, परंतु मृत्यु उसे बड़े-बड़े किलों की ऊंची-ऊंची दीवारों के पीछे से भी ढूंढ निकालती है। सो! कोरोना भी काल के समान है, कहीं भी, किसी भी पल किसी को भी दबोच लेता है। फिर इससे घबराना व डरना कैसा? जिस अपरिहार्य परिस्थिति पर आपका अंकुश नहीं है, उसके सम्मुख नतमस्तक होना ही बेहतर है। सो! आत्मनिर्भर हो जाइए, डर-डर कर जीना भी कोई ज़िंदगी है। शत्रु को ललकारिए, परंतु सावधानी-पूर्वक। इसलिए एक-दूसरे से दो गज़ की दूरी बनाए रखिए, परंतु मन से दूरियां मत बनाइए। इसमें कठिनाई क्या है? वैसे भी तो आजकल सब अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं… एक छत के नीचे रहते हुए अजनबीपन का एहसास लिए…संबंध-सरोकारों से बहुत ऊपर। सो! कोरोना तो आपके लिए वरदान है। ख़ुद में ख़ुद को तलाशने व मुलाकात करने का स्वर्णिम अवसर है, जो आपको राग-द्वेष व स्व-पर के बंधनों से ऊपर उठाता है। इसलिए स्वयं को पहचानें व उत्सव मनाएं। कोरोना ने आपको अवसर प्रदान किया है, निस्पृह भाव से जीने का; अपने-पराये को समान समझने का… फिर देर किस बात की है। अपने परिवार के साथ प्रसन्नता से रहिए। मोबाइल व फोन के नियंत्रण से मुक्त रहिए, क्योंकि जब आप किसी के लिए कुछ कर नहीं सकते, तो चिन्ता किस बात की और तनाव क्यों? घर ही अब आपका मंदिर है, उसे स्वर्ग मान कर प्रसन्न रहिए। इसी में आप सबका हित है। यही है ‘ सर्वे भवंतु सुखिनः ‘ का मूल, जिसमें आप भरपूर योगदान दे सकते हैं। सो! अपने घर की लक्ष्मण-रेखा न पार कर के, अपने घर में ही अलौकिक सुख पाने का प्रयास कीजिए। लौट आइए! अपनी प्राचीन संस्कृति की ओर…तनिक चिंतन कीजिए, कैसे ऋषि-मुनि वर्षों तक जप-तप करते थे। उन्हें न भूख सताती थी; न ही प्यास। आप भी तो ऋषियों की संतान हैं। ध्यान-समाधि लगाइए– शारीरिक भूख-प्यास आप के निकट आने का साहस भी नहीं जुटा पाएगी और आप मानसिक भूख पर स्वतः विजय प्राप्त करने में समर्थ हो सकेंगे।

आधुनिक युग में आपके बुज़ुर्ग माता-पिता तो वैसे भी परिवार की धुरी में नहीं आते। बच्चों के साथ खुश रहिए। एक-दूसरे पर दोषारोपण कर घर की सुख-शांति में सेंध मत लगाइए। पत्नी और बच्चों पर क़हर मत बरसाइए, क्योंकि इस दशा के लिए दोषी वे नहीं हैं। कोरोना तो विश्वव्यापी समस्या है। उसका डटकर मुकाबला कीजिए। अपनी इच्छाओं को सीमित कर ‘दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ’ में मस्त रहिए। वैसे भी पत्नी तो सदैव बुद्धिहीन अथवा दोयम दर्जे की प्राणी समझी जाती है। सो! उस निर्बल व मूर्ख पर अकारण क्रोध व प्रहार क्यों? बच्चे तो निश्छल व मासूम होते हैं। उन पर क्रोध करने से क्या लाभ? उनके साथ हंस-बोल कर अपने बचपन में लौट जाइए, क्योंकि यह सुहाना समय है…खुश रहने का; आनंदोत्सव मनाने का। ज़रा! देखो तो सदियों बाद कोरोना ने सबकी साध पूरी की है… ‘कितना अच्छा हो, घर बैठे तनख्वाह मिल जाए… रोज़ की भीड़ के धक्के खाने से  मुक्ति प्राप्त हो जाए…बॉस की डांट-फटकार का भी डर न हो और हम अपने घर में आनंद से रहें।’ लो! सदियों बाद आप सबको मनचाहा प्राप्त हो गया…परंतु बावरा मन कहां संतुष्ट रह पाता है, एक स्थिति में…वह तो चंचल है। परिवर्तनशीलता सृष्टि का नियम है। मानव अब तथाकथित स्थिति में छटपटाने लगा है और उस से तुरंत मुक्ति पाना चाहता है। परंतु आधुनिक परिस्थितियां मानव के नियंत्रण में नहीं हैं। अब तो समझौता करने में ही उसका हित है। सो! मोबाइल फोन को अपना साथी बनाइए और भावनाओं पर नियंत्रण रखिए, क्योंकि तुम असहाय हो और तुम्हारी पुकार सुनने वाला कोई नहीं। तुम्हारी आवाज़ तो  दीवारों से टकराकर लौट आएगी।

औरत की भांति हर विषम परिस्थिति में ओंठ सी कर व मौन रह कर खुश रहना सीखिए और सर्वस्व समर्पण कर सुक़ून की ज़िंदगी गुज़ारिए। यहां तुम्हारी पुकार सुनने वाला कोई नहीं। अब सृष्टि-नियंता की कारगुज़ारियों को साक्षी भाव से देखिए, क्योंकि तुमने मनमानी कर धन की लालसा में प्रकृति से खिलवाड़ कर पर्यावरण को प्रदूषित कर दिया है, यहां तक कि अब तो हवा भी सांस लेने योग्य नहीं रह गयी है। पोखर, तालाब नदी-नालों पर कब्ज़ा कर उस भूमि पर कंकरीट की इमारतें बना दी हैं। इसलिए मानव को बाढ़, तूफ़ान, सुनामी, भूकंप, भू-स्खलन आदि का प्रकोप झेलना पड़ रहा है। जब इस पर भी मानव सचेत नहीं हुआ, तो प्रकृति ने कोरोना के रूप में दस्तक दी है।

इसलिए कोरोना, अब काहे का रोना। इसमें दोष तुम्हारा है। अब भी संभल जाओ, अन्यथा वह दिन दूर नहीं, जब सृष्टि में पुनः प्रलय आ जाएगी और विनाश ही विनाश चहुंओर प्रतिभासित होगा। इसलिए गीता के संदेश को अपना कर निष्काम कर्म करें। मानव इस संसार में खाली हाथ आया है और खाली हाथ उसे जाना है। इस नश्वर संसार में अपना कुछ नहीं है। इसलिए प्रेम व नि:स्वार्थ भाव से सबकी सेवा करो। न जाने! कौन-सी सांस आखिरी सांस हो जाए।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 121 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 121 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

देखो कैसे चढ़ रहा, उनको युद्ध बुखार।

मन को निर्मल करो तुम, कर लो सबसे प्यार।।

 

कोरोना के कहर का, असर है द्वार द्वार।

रूप बदलकर फिर रहा, होते सब बीमार।।

 

चोट आज ऐसी लगी, हुआ है मोह भंग।

अब तुम चाहे कुछ करो, नहीं जमेगा रंग।।

 

औषधि कड़वी ही सही, करना है सम्मान।

बिना पीए आए नहीं, अपने शरीर जान।।

 

देश -देश  में हो रहा, राजनैतिक प्रचार।

सोच सही हो आपकी, है जनता उपचार।।

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 111 ☆ मोरी बिगड़ी बना दो श्याम… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “मोरी बिगड़ी बना दो श्याम….। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 111 ☆

☆ मोरी बिगड़ी बना दो श्याम…

सुख-दुख के हो तुम ही साथी, तुम बिन कोई न ठाम

संकट में बस एक आसरा, मुरलीधर घनश्याम

पार लगा दो मोरी नैयाँ, बन माझी मोहि थाम

झूठे जग के रिश्ते सारे, सच है तिहारो नाम

दया तिहारी मैं भी चाहूँ, दया करो दया धाम

खबर करो “संतोष” की कृष्णा, पूरन करो सब काम

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 87 ☆ बदलेगा बहुत कुछ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘माँ सी …! ’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 87 ☆

☆ लघुकथा – बदलेगा बहुत कुछ ☆

शिक्षिका ने हिंदी की कक्षा  में आज  अनामिका की कविता ‘ बेजगह ‘ पढानी शुरू की –

अपनी जगह  से गिरकर कहीं के नहीं रहते,

केश, औरतें और नाखून,

पहली कुछ पंक्तियों को पढते ही लडकियों के चेहरे के भाव बदलने लगे, लडकों पर कोई असर  नहीं दिखा। कविता की आगे की पंक्तियाँ  शिक्षिका पढती है –

लडकियां हवा, धूप, मिट्टी होती हैं,

उनका कोई घर नहीं होता।

शिक्षिका  कविता के भाव समझाती जा रही थी। क्लास में बैठी लडकियां बैचैनी से  एक – दूसरे की ओर देखने लगीं, लडके मुस्कुरा रहे थे। कविता आगे बढी –

कौन सी जगह होती है ऐसी

जो छूट जाने पर औरत हो जाती है कटे हुए नाखूनों,

कंघी में फँसकर बाहर आए केशों सी

एकदम बुहार दी जानेवाली।

एक लडकी ने प्रश्न पूछ्ने के लिए झट से हाथ उपर उठाया- मैडम ! बुहारना मतलब? जैसे हम घर में झाडू लगाकर कचरे को  बाहर फेंक देते हैं, यही अर्थ है ना?

हाँ –  शिक्षिका ने गंभीरता से उत्तर दिया।

एकदम से  कई लडकियों के हाथ उपर उठे – किस जगह की बात कर रही हैं कवयित्री और औरत को कैसे बुहार दिया जाता है  मैडम! वह तो इंसान है कूड़ा – कचरा थोडे ही है?

शिक्षिका को याद आई अपने आसपास की ना जाने कितनी औरतें, जिन्हें अलग – अलग कारण जताकर , बुहारकर घर से बाहर कर दिया  गया था । किसी के मन-मस्तिष्क को बडे योजनाबद्ध तरीके से बुहारा गया था  यह कहकर कि इस उम्र में हार्मोनल बदलाव के कारण पागल होती जा रही हो। वह जिंदा लाश सी घूमती है अपने घर में। तो कोई सशरीर अपने ही घर के बाहर बंद दरवाजे के पास खडी  थी। उसे एक दिन  पति ने बडी सहजता से कह दिया – तुम हमारे लायक नहीं हो, कोई और है तुमसे बेहतर  हमारी जिंदगी में। ना जाने कितने किस्से, कितने जख्म, कितनी बेचैनियाँ  —–

 मैडम! बताइए ना – बच्चों की आवाज आई।

 हाँ – हाँ, बताती हूँ। क्या कहे? यही कि सच ही तो लिखा है कवयित्री ने। नहीं – नहीं,  इतना सच भी ठीक नहीं, बच्चियां ही हैं ये। पर झूठ भी तो नहीं बोल सकती। क्या करे, कह दे कि इसका उत्तर वह भी नहीं ढूंढ सकी है अब तक। तभी सोचते – सोचते  उसके चेहरे पर मुस्कान दौड गई।  वह बोली एक दूसरी कवयित्री की कविता की कुछ पंक्तियाँ सुनाती हूँ –

शीर्षक है – बदलेगा बहुत कुछ

प्रश्न पुरुष – स्त्री या समाज का नहीं,

मानसिकता का है।

बात किसी की मानसिकता की हो,

जरूरी है कि स्त्री

अपनी सोच, अपनी मानसिकता बदले

बदलेगा बहुत कुछ, बहुत कुछ ।

घंटी बज गई थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 90 ☆ बसंती बयार… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना बसंती बयार …”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 90☆ बसंती बयार  

बसंत ऋतु के आगमन के साथ ही फागुन भी दस्तक देने लगता है। मौसम का असर सभी पर पड़ना स्वाभाविक है। इस समय तो चुनावी माहौल होने के कारण रंगों की राजनीति भी जोर पकड़ती दिख रही है। कौन आएगा कौन जाएगा ये तो मतदाता की इच्छा पर निर्भर करेगा किन्तु पक्ष और विपक्ष दोनों ही अपनी – अपनी तैयारियों में व्यस्त हैं। पहले चुनावी टिकट के लिए घमासान मचा हुआ था। अब मनोरंजन हेतु देश -विदेश की यात्रा के टिकट के लिए मारामारी हो रही है। एक दूसरे को समझते- समझाते वे ये भूल गए थे कि उन्हें अपनी यात्रा भी तो सुनिश्चित करनी है। ऊँट किस करवट बैठेगा इसका अंदाजा तो उन्हें है किंतु सकारात्मक चिंतन के वशीभूत वे देखकर भी अनदेखा करने में महारथी हो रहे हैं।

कहा भी गया है आँख ओट पहाड़ ओट, अच्छा है परिवर्तन होना ही चाहिए। भले ही सत्ता का हो, स्थान का हो, दल या विचारधारा का हो। डॉक्टर भी रोगियों को यही कहते हैं कि आप जगह बदलें,हवा- पानी बदलते ही दवा- दारू भी असर करने लगेगी। चुनावी जोड़तोड़ में दो महीने की मेहनत कितना रंग लाएगी ये तो मतपेटी में पड़े हुए बैलेट पेपर ही तय करेंगे पर होली में कौन सा रंग सबके चेहरों पर दिखाई देगा ये चुनावी परिणाम ही बताएंगे। आम मतदाता तो जिधर का पड़ला भारी देखेगा उसी ओर मुड़ जाएगा। उसे तो रंगों से खेलना है चाहें कोई भी रंग क्यों न हो।

मौखिक प्रचार में सभी लोग लगे हुए हैं। अपना प्रत्याशी जीते ये न केवल कार्यकर्ता चाहते हैं वरन मतदाता भी हवा का रुख निर्धारित करते हुए देखे जा सकते हैं। प्रादेशिक चुनाव केवल उस विशेष राज्य तक सीमित नहीं रह गए हैं। उनका भी कार्यक्षेत्र बढ़ है। अब सब लोग केंद्र के साथ ही अपने प्रदेश की गोटी फिट करना चाह रहे हैं। बदलाव का असर हो रहा है, लोकतंत्र की विशालता चुनावों की गतिविधियों द्वारा ही तय होती है। जागरूकता का असर साफ दिखाई दे रहा है। जैसे- जैसे शिक्षा का स्तर बढ़ता जाएगा, लोगों को रोजगार मिलेगा, उनके पेट भरे होंगे वैसे- वैसे चुनावी मुद्दे भी बदलेंगे। अब दलों को भी अपने कार्यों पर पूरे पाँच वर्षों का लेखा – जोखा देना होगा क्योंकि मतदाता जागरूक हो रहा है। किस रंग से रंगे ये निर्धारण अब वो स्वयं करेगा। मौसम हर बार बासंती नहीं हो सकता।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 108 – “एक दिया देहरी पर” – कवियत्री… सुश्री सुषमा व्यास राजनिधि ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  सुश्री सुषमा व्यास राजनिधि जी  के काव्य संग्रह  “एक दिया देहरी पर” की समीक्षा।

पुस्तक चर्चा

कृति… एक दिया देहरी पर

कवियत्री… सुषमा व्यास राजनिधि

संस्मय प्रकाशन, इंदौर

ISBN 978-81-95264-12-4

मूल्य २०० रु, पृष्ठ १०८

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 108 ☆

☆ “एक दिया देहरी पर” – कवियत्री… सुश्री सुषमा व्यास राजनिधि ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

 

“धन, वैभव, राज सब ठुकरा देना

आंगाष्टिक मार्ग सेतप संयम की राह अपनाना

सिद्धार्थ से सिद्धस्थ हो जाना

मौन से हर उत्तर दे पाना

इतनाआसान तो नही बुद्ध हो जाना”

या

“उसके अंदर  सांझा चूल्हा है

तंदूर धधक रहा है

वो निगल नही सकता रोटी

उसके पास मुंह ही नही

फिर भी वह मुस्करा रहा है “

अथवा

“जब तुम मूड में हो

हँसो तो वह भी हँस ले

जब तुम गिल्टी हो

तो उसे भी होना ही चाहिये

तुम्हें क्या लगता है

स्त्री कोई उपयोग करने वाली चीज है ?

इन सब पंक्तियों को पढ़ने के बाद आपको क्या लगता है कि  ये किसी नई कवियत्री की पहली किताब से उधृत कविता अंश हैं ? पर हाँ यह सच ही सुषमा व्यास राजनिधि के प्रथम काव्य संग्रह “एक दिया देहरी पर” की कविताओ को पढ़ते हुये जिन ढ़ेरो पक्तियो को मैंने लाल स्याही से रेखांकित किया है, उन्हीं में से चंद पंक्तियां हैं.  सुषमा जी रिश्तों, घर परिवार, धन धान्य, सदव्यवहार से परिपूरित एक आध्यात्मिक दृष्टि वाली भाषा संपन्न सरल रचनाकार हैं. एक दिया देहरी पर में उन्होने तीन खण्डों में अपनी ४५ अकवितायें साहित्य जगत के सम्मुख रखीं हैं. शैली, भाषा, काव्य में भावगत सौंदर्य, रचना सौष्ठव परिपक्व है. स्त्री विमर्श की कवितायें नारी खण्ड में हैं, जिनमें माई का पल्लू, घर से जाती बेटियां, नारी मन के भाव बेलती रोटियां, मैं सितार सी, खुद को खुद में ढ़ूंढ़ रही हूं, धरा सी नारी, मेरा कोना, मैं भी चुनरिया, अनगढ़ी आदि प्रभावोत्पादक हैं. उनकी आध्यात्मिक दृष्टि व पौराणिक ज्ञान ही उनसे लिखवाता है

“ओ स्त्री तुम पैदा नही हुई, बना दी गई हो….

तुम कभी अनुसूया बनी कभी अहिल्या बनी बरसों बरस

शिला बन सहती रहीं वर्षा, शीत, ग्रीष्म….

सीता, द्रौपदि, तारा बनकर शोषित होती रहीं पर अब तुम उठ खड़ी हो गई हो….

मेरी आशा है कि यह आव्हान नारी अस्मिता और जीवन दर्शन में शाश्वत प्रेम के जागरण की नई इबारत लिखेगा.

सुषमा व्यास राजनिधि जी व्यंग्य, आध्यात्म, मंच संचालन आदि विविध विधाओ में समान रूप से पारंगत हैं उनसे अनवरत बहुआयामी लेखन की अपेक्षा साहित्य जगत रखता है. एक दिया देहरी पर अक्षय प्रकाश करता रहे यही शुभेच्छा करता हूं.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र #99 ☆ बाल कविता – माँ सरस्वती ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है आपकी एक बाल कविता  “माँ सरस्वती”.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 99 ☆

☆ बाल कविता – माँ सरस्वती ☆ 

माँ मुझे सद्बुद्धि देना

कर सकूँ जग में भलाई।

ज्ञान दे, विज्ञान देना

मिट सकें जग से बुराई।।

 

सब पढ़ेंगे, सब लिखेंगे

पुष्प – सा हर मुख खिलाना।

नहीं भूखा रहे कोई

और बिछुड़ों को मिलाना।

 

मान सँग सम्मान देना

मित्र हों सब बहन – भाई।

ज्ञान दे, विज्ञान देना

मिट सकें जग से बुराई।।

 

द्वेष, मद से दूर रखना

और ईर्ष्या से बचाना।

सत्य का आलम्ब देकर

ज्ञान का दीपक जलाना।

 

हर मनुज को छत भी देना

नहीं रहे निर्वस्त्र भाई।

ज्ञान दे, विज्ञान देना

मिट सकें जग से बुराई।।

 

भक्ति कर हम धन्य हो लें

आप दो उर में सरलता।

वैर, रागों को हटाकर

भरें वाणी में मधुरता।

 

कर्म को सन्मार्ग देना

दूर कर आलस जंभाई।

ज्ञान दे, विज्ञान देना

मिट सकें जग से बुराई।।

 

भेदभावों को मिटाकर

प्रेमपूरित भाव करना।

और तम सारा हटाकर

पीर के सब घाव भरना।

 

यश बढ़े, वह गान देना

विषमता की पटे खाई।

ज्ञान दे, विज्ञान देना

मिट सकें जग से बुराई।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #108 – बाल कथा – मोना जाग गई ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर बाल कथा – “मोना जाग गई।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 108 ☆

☆ बाल कथा – मोना जाग गई ☆ 

मोना चकित थी। जिस सुंदर पक्षी को उसने देखा था वह बोल भी रहा था। एक पक्षी को मानव की भाषा बोलता देखकर मोना बहुत खुश हो गई।

उसी पक्षी ने मोना को सुबह-सवेरे यही कहा था,

“चिड़िया चहक उठी

उठ जाओ मोना। 

चलो सैर को तुम 

समय व्यर्थ ना खोना।।”

यह सुनकर मोना उठ बैठी। पक्षी ने अपने नीले-नीले पंख आपस में जोड़ दिए। मोना अपने को रोक न सकी। इसी के साथ वह हाथ जोड़ते हुए बोली, “नमस्ते।”

पक्षी ने भी अपने अंदाज में ‘नमस्ते’ कहा। फिर बोला,

“मंजन कर लो 

कुल्ला कर लो। 

जूता पहन के

उत्साह धर लो।।”

यह सुनकर मोना झटपट उठी। ब्रश लिया। मंजन किया। झट से कपड़े व जूते पहने। तब तक पक्षी उड़ता हुआ उसके आगे-आगे चलने लगा।

मोना का उत्साह जाग गया था। उसे एक अच्छा मित्र मिल गया था। वह झट से उसके पीछे चलने लगी। तभी पक्षी ने कहा,

“मेरे संग तुम दौडों 

बिल्कुल धीरे सोना। 

जा रहे वे दादाजी 

जा रही है मोना।।”

“ओह! ये भी हमारे साथ सैर को जा रहे हैं,” मोना ने चाहते हुए कहा। फिर इधर-उधर देखा। कई लोग सैर को जा रहे थे। गाय जंगल चरने जा रही थी। 

पक्षी आकाश में कलरव कर रहे थे। पूर्व दिशा में लालिमा छाने लगी थी। पहाड़ों के सुंदर दिख रहे थे। तभी पक्षी ने कहा,

“सुबह-सवेरे की 

इनसे करो नमस्ते। 

प्रसन्नचित हो ये 

आशीष देंगे हंसते।।”

यह सुनते ही मोना जोर से बोल पड़ी, “नमस्ते दादा जी!”

तभी उधर से भी आवाज आई, “नमस्ते मोना! सदा खुश रहो।”

यह सुनकर मोना चौंक उठी। उसने आंखें मल कर देखा। वह बिस्तर पर थी। सामने दादा जी खड़े थे। वे मुस्कुरा रहे थे, “हमारी मोना जाग गई!”

“हां दादा जी,” कहते हुए मोना झट से बिस्तर से उठी, “दादा जी, मैं भी आपके साथ सैर को चलूंगी,” कह कर वह मंजन करके तैयार होने लगी।

“हां क्यों नहीं!” दादा जी ने कहा।

यह देख सुनकर उसकी मम्मी खुश हो गई।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

17-01-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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