हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆☆”नया महीना और कलेंडर” ☆☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है एक संस्मरणात्मक आलेख – नया महीना और कलेंडर.)

☆ आलेख ☆ “नया महीना और कलेंडर” ☆ श्री राकेश कुमार ☆

ये नया महीना, हर महीने आ जाता हैं। नया साल आने में तो कई महीने लग जाते हैं, परंतु नया महीना तो ऐसा प्रतीत होता है कि मानो पलक झपकते ही आ धमकता हैं।

बचपन में पिताजी ने इस दिन घर में प्रदर्शित सभी कैलेंडरों के पन्ने पलटने की जिम्मवारी हमको दे दी थी। सुबह आठ बजने से पूर्व ये कार्यवाही पूरी नहीं होने पर कई बार पांचों उंगलियां गालों पर छपवाने की यादें अभी भी जहन में हैं। एक तो उन दिनों में आठ दस कैलेंडर पूरे घर में होते थे। अधिकतर धार्मिक चित्र होते थे।

समय के साथ कुछ बड़े शहरों विशेषकर मुंबई के मरीन ड्राइव के चित्र भी कैलेंडर में आने लगे थे। दवा कंपनियां उन दिनों में महंगे और प्रकृति से संबंधित कैलेंडर डॉक्टर को भेंट देती थी। जीवन बीमा निगम और बैंक के कैलेंडर भी बारह अलग तरह की फ़ोटो वाले कैलेंडर मुफ्त में वितरित किया करते थे। चुंकि कैलेंडर मुफ्त में मिलता था, तो इसकी मांग भी अधिक रहती थी। इमरजेंसी( 1975) में किसी व्यापारी ने इंदिरा गांधी जी के चित्र का कैलेंडर छाप दिया था। ऐसा कहते हैं की उसकी  काला बाजारी होने लगी थी।                 

बाद में “टेबल कैलेंडर”, “पॉकेट कैलेंडर” इसके नए रूप समय और सुविधा के हिसाब से उपलब्ध होने लगे थे। विगत कुछ वर्षों से कैलेंडर प्राय प्राय गायब ही हो गया हैं।

वर्तमान में तो पंचांग के कैलेंडर की ही मांग रह गई है। धन राशि खर्च करके ही इसकी प्राप्ति हो पाती हैं। जबलपुर शहर के पंचांग, प्रसिद्धि की दृष्टि से सर्वोत्तम माने जाते हैं। जब कैलेंडर की बात हो और शिवकाशी का जिक्र भी जरूरी है, अधिकतर कैलेंडर वही पर ही छपा करते थे। धोबी, दूध और ना जाने कितनों के हिसाब कैलेंडर में दर्ज रहते थे।

सरकारी कार्यालयों, बैंक आदि  में सिर्फ तारीख़ का, पीले रंग का ही कैलेंडर लगाया जाता था, जिसमें प्रतिदिन नई तारीख पलट कर लगानी पड़ती थी।  

आज तो मोबाइल में कैलेंडर बीते हुए वर्षो और आने वाले वर्षों की पूरी जानकारी अपने में समा कर रखता हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 116 – लघुकथा – लिहाफ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री शक्ति को समर्पित अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष लघुकथा  “*लिहाफ *”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 116 ☆

? अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – लिहाफ ?

आज महिला दिवस पर सम्मान समारोह चल रहा था। सभी गणमान्य व्यक्ति वहां उपस्थित थे। दहेज प्रथा का विरोध कर अपने जीवन में आगे बढ़ कर एक सशक्त मुकाम पर अपनी जगह बनाने के लिए, जिस महिला को बुलाया गया था। आज उन्हीं का सम्मान होना है।

सभी उन्हीं का इंतजार कर रहे थे। मंच पर बैठे गांव के दीवान साहब भी अपने मूछों पर ताव रखते हुए अपने धर्म पत्नी के साथ सफेद लिहाफ ओढ़े सफेद कपड़ों में चमक रहे थे।

निश्चित समय पर महिला अधिकारी आई और धीरे से कदम बढ़ाते मंच की ओर जाने लगी। तालियों से स्वागत होने लगा। परंतु दीवन की आंखें अब ऊपर की बजाय नीचे गड़ी  जा रही थी क्योंकि उन्हें अंदाज और आभास भी नहीं था कि दहेज प्रथा का इतना बड़ा इनाम  बरसों बाद आज उन्हें मिलेगा।

साथ साथ दोनों पढ़ते थे। सुहानी और दीवान तरंग। विवाह तक जा पहुंचे थे। घर के दबाव और दहेज मांग के कारण सुहानी को छोड़कर कहीं और जहां पर अधिक दान दहेज मिला वहीं पर शादी कर लिया तरंग ने।

सुहानी ने बहुत मेहनत की ठान लिया कि आज से वह उस दिन का ही इंतजार करेगी। जिस दिन गांव के सामने वह बता सके वह भी नारी शक्ति का एक रूप है। दहेज पर न आकां जाए। आज वह दिन था माइक पकड़कर सुहानी ने सभी का अभिवादन स्वीकार किया।

अपना भाषण समाप्त करने के पहले बोली.. आप जो सफेद लिहाफ के दीवान साहब को देख रहे हैं उन्हीं की कृपा दृष्टि से मैं यह मुकाम हासिल कर सकी। समझते देर न लगी नागरिकों को। शुरू हो गए अच्छा तो यह वह सफेद लिहाफ है जिसके कारण हमारी मैडम ने अपनी सारी जिंदगी दहेज विरोध के लिए समर्पित किया है।

मंच पर भी बातें होने लगी। अपना सफेद लिहाफ ओढ़े दीवान उठकर जा भी नहीं सकते थे। नारी शक्ति का सम्मान जो करना था।

परंतु बाजू में बैठी धर्मपत्नी ने अपने पतिदेव को बड़ी बड़ी आंखों से देखा और जोर जोर से ताली बजाने लगी। शायद यह तालियां दीवान साहब के झूठे लिहाफ के लिए थीं।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 128 ☆ लाख दिव्यांचा प्रकाश ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 128 ?

☆ लाख दिव्यांचा प्रकाश ☆

कुठून येते रोज वावटळ मनात माझ्या

गरळ मिसळते रोज रोज ती सुखात माझ्या

 

आज दुधाचा चहा करूनी प्यावा म्हटले

आणि नेमके विरजण पडले दुधात माझ्या

 

शिरा पाहिजे म्हणून रडती घरी लेकरे

कधी न पडली साखर येथे रव्यात माझ्या

 

अंधारावर राज्य करावे मला लागते

कधीच नसते तेल इथे रे दिव्यात माझ्या

 

निसर्ग नाही जरी कोपला शेत आडवे

शेजाऱ्याने गुरे सोडली पिकात माझ्या

 

उघड्यावर मी लाख दिव्यांचा प्रकाश मिळतो

दिडकी नाही आज जरी ह्या खिशात माझ्या

 

रोज लावते फेअर लव्हली मी नेमाने

काही नाही फरक तरीही रुपात माझ्या

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ संगीताचा विकास – भाग-२ ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

 

? सूर संगत ?

☆ संगीताचा विकास – भाग-२ ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ 

३) मध्ययुगीन काल~ इ.स. ८०० ते १८००.

या कालखंडांत रागसंगीताचा उगम व प्रसार झाला.साधारण १५०० ते २००० वर्षापूर्वीचा हा काळ.जयदेवाचे गीतगोविंद याच कालखंडांतील असून त्यांतील अष्टपदींवर मालवी, वराटी,वसंत,बिभास,   भैरव अशी रागांची नावे आढळतात.विलक्षण कल्पनाशक्तीचे व बुद्धीचातूर्याचे लक्षण असणारी ही रागपद्धती नेमकी केव्हा,कोणी,कशी आणली या संबंधीचा कोणताही पुरावा अस्तित्त्वांत नाही. परंतु परकीय स्वार्‍या, राज्यांची उलथापालथ ह्यामुळे समाजजीवन फार अस्थिर स्वरूपाचे होते.अशावेळी अनेक संगीत जाणकारांनी आपल्या बुद्धीचातूर्याने लोकसंगीतांतून रागपद्धतीस जन्म दिला आणि पुढे शेकडो वर्षांच्या कालखंडांत सतत नवनव्या रागांची भर पडत गेली.मुसलमान व इंग्रज यांनी दीर्घकाळ एकछत्री साम्राज्य चालविले,भारतीय मनावर परकीयांचे अनेक संस्कार झाले,मात्र भारतीय रागसंगीत हे पूर्णपणे भारतीयच राहीले.जातिगायन पूर्णपणे लुप्त झाले आणि धृपद गायकी अस्तित्वात आली.अकबराच्या दरबारांतील नवरत्नांपैकी मिया तानसेन(रामतनू)हा धृपदिया म्हणून प्रसिद्ध होता.मियाकी तोडी,मिया मल्हार वगैरे आजचे लोकप्रिय राग हे तानसेनाने निर्माण केले आहेत.ह्या संबंथी अशी कथा सांगतात की,तानसेनाने दीपक राग गावून दीप प्रज्वलन केले पण हा राग गात असताना त्याच्या अंगाचा दाह होऊ लागला तेव्हा तानसेनाच्या बायकोने व मुलीने मल्हार गाऊन होणारा दाह शांत केला.

मुघल साम्राज्यांत त्यांनी आणलेल्या पर्शियन संगीताने भारतीय संगीतावर थोडा परिणाम केला.तेराव्या शतकांत अमीर खुश्रो या संगीतकाराने भारतीय संगीतावर पर्शियन संगीताची कलमे केली आणि त्यातून एक नवीन गायनशैली अस्तित्त्वांत येऊ लागली.हीच ती आजची लोकप्रिय ख्याल गायन पद्धति. ठुमरी,गझल,कव्वाली हे गायनप्रकारही यावनी कालखंडांतच प्रसार पावले.परिणामी धृपद गायकी मागे पडून ख्याल गायकीने पूर्णपणे मैफीली व्यापून टाकल्या.आजही भारतीय संगीताची मैफल ख्याल गायकीनेच व्याप्त आहे.

 

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

प्रस्तावना-

गुरुदेव रवींद्रनाथ टागोर यांना गीतांजली साठी नोबेल पारितोषिक मिळाले. एक तत्त्वज्ञ, महाकवी यांची, गंगेच्या किनारी नीरव शांततेत, निसर्गाची अनेक अद्भुत रुपे पहात फिरताना तरल सर्वव्यापी काव्यनिर्मिती म्हणजे गीतांजली. प्रेम, समता आणि शांती यांचा संदेश देणारी. इंग्रजी भाषेतील गीतांजली मा. ना. कुलकर्णी यांच्या वाचनात आली. इंग्रजी भाषेवर त्यांचे प्रभुत्व होते तसेच त्यांना साहित्याची आवड होती. संत साहित्याचे वाचन, चिंतन, मनन करत असत. टागोरांची गीतांजली त्यांना निसर्गरुपी ईश्वराशी तादात्म्य पावणारी कविता वाटली. त्यांना मिळालेले ज्ञान, तो आनंद, इतरांना मिळावा म्हणून त्याचा मातृभाषेत भावानुवाद केला, जो पुस्तक रुपाने प्रसिद्ध झाला. ई- अभिव्यक्ती – मराठी मध्ये या कविता क्रमशः प्रसिद्ध होत आहेत, ह्यासाठी सर्व संपादक मंडळाला मी कृतज्ञता पूर्वक धन्यवाद देते.

☆  गीतांजली भावार्थ

१.

हे नाजूक भांडे तू पुन्हा पुन्हा रिते करतोस,

आणि नवचैतन्याने पुन्हा पुन्हा भरतोस

 

ही बांबूची छोटी बासरी

दऱ्याखोऱ्यांतून तू घुमवितोस

तिच्यातून उमटणारे नित्यनूतन संगीत

तुझेच श्वास आहेत.

 

तुझ्या चिरंतन हस्त स्पर्शाने

माझा चिमुकला जीव आपोआपच

मर्यादा ओलांडतो

आणि त्यातून चिरंतन बोल उमटतात

 

माझ्या दुबळ्या हातात न संपणारं दान ठेवतोस,

युगं संपली तरी ठेवतच राहतोस,

आणि तरीही ते हात रितेच राहतात

 

तुझी किमया अशी की,

मला तू अंतहीन केलेस !

 

२.

मी गावं अशी आज्ञा करतोस यात

केवढा माझा गौरव

नजर वर करून तुला पाहताना

माझं ह्रदय उचंबळून येतं

बेसूर जीवन मुलायमपणे एका

मधुर संगीतानं फुलून येतं

आणि सागरावर विहार करणाऱ्या

समुद्र पक्ष्याप्रमाणं

माझी प्रार्थना पंख पसरते

 

माझं गाणं ऐकून तू सुखावतोस

तुझ्या सान्निध्यात एक गायक म्हणूनच

मला प्रवेश आहे

 

ज्या तुझ्या अस्पर्श पावलांना

माझ्या दूरवर पसरणाऱ्या गीतांच्या पंखांनी

मी स्पर्श करतो,

गाण्याच्या आनंद तृप्तीने मी स्वतःला विसरतो

 

– मा. ना.कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

फोन नंबर – 7387678883

 

©️ सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 78 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 78 –  दोहे ✍

पाषाणों पर फूल हैं, फूलों में रस गंध।

हमें प्रेरणा दे रहे, रच लो  नेह निबंध।।

 

गिरते पड़ते चढ गए, विजित हुई चट्टान।

वानर नर को दे रहे, अपना संचित ज्ञान।।

 

पाषाणों की गोष्ठी चर्चा में प्रस्ताव ।

क्या मानव अब हो गया, धधका हुआ अलाव।।

 

शीला संतुलन सिखाती, हमको जीवन योग।

अपनाकर तो देखिए ‘सम्यक’ योग प्रयोग।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 80 – “तिस पर बेबस हलवाहा…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “तिस पर बेबस हलवाहा…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 80 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “तिस पर बेबस हलवाहा…”|| ☆

टूट गया बल्ली का मूढ़ा

सिर पर लटक रहा।

तिस पर छप्पर कोने में

नलके सा टपक रहा ।।

 

गीला हुआ नाज पीपे में

है फफूंद उपजी ।

वह भी तो सड़ गई

कटोरे की बासी सब्जी ।

 

तिस पर बेबस हलवाहा

घर आता ही होगा-

जो भूखा बैलों पर गुस्से में

लठ पटक रहा ।।

 

इधर दुधारू गाय

दूध देने से मुकर गई ।

जिसकी भरपाई करने

को लेना पड़े नई।।

 

तो, पैसों के लिये राम-

कलिया जब बैंक गई –

अहसानो का बोझ

बैंक-अधिकारी पटक रहा।

 

है गरीब की बड़ी परिच्छा

कर्जे में जीना ।

सेल्फास खा मरा

अकिंचन अपना रमदीना।

 

हर किसान अब दुखी

दिखाई देता है सबको-

जो कर्जे के निराकरण

को गोली गटक रहा।।

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

07-02-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 127 ☆ “घायल चिड़िया” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है बैंकर्स के जीवन पर आधारित एक अतिसुन्दर कविता  “घायल चिड़िया”।)  

☆ कविता # 127 ☆ “घायल चिड़िया” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

यूक्रेन-रूस की जंग में,

रूसी बम से घायल,

खून से लथपथ, 

बेबस सी चिड़िया , 

सुबह से मुंडेर पर, 

टप टप खून बहाती, 

बैठी सोच रही है, 

घर के मालिक काश! 

तू भी ऐके 47 रखता, 

तो इतनी देर तक, 

ये तेरी टूटी मुंडेर पर, 

 मुझे बैठना न पड़ता, 

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 71 ☆ # बेबस पिता हूँ # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# बेबस पिता हूँ #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 71 ☆

☆ # बेबस पिता हूँ # ☆ 

यह कैसा समय आ गया?

जो रिश्तों को खा गया

संबंध गौण हो गये

हम मौन हो गये

वो कहते रहे

हम सुनते रहे

जीना अभिशाप हो गया

बोलना तो पाप हो गया

किससे करें फरियाद

क्यों मैं होठों को सीता हूँ 

मैं खामोश हूँ

क्योंकि मैं एक बेबस पिता हूँ।

 

बच्चे कहते हैं

आपने अलग क्या किया

जो सब करते हैं

वो ही तो आप ने किया

मैंने कहा-

पढ़ाया लिखाया, काबिल बनाया

वो बोले- वो आपका फ़र्ज़ था

मैंने कहा-

अच्छी परवरिश दी

वो बोले-

बाप बने हो तो

आप पे हमारा यह कर्ज़ था

मैंने कहा-

तुम्हारी शादी ब्याह किया

वो बोले-

आप को खेलने को

नाती पोते चाहिए थे

मैंने कहा-

छोटा सा उपवन सजाया

वो बोले-

ताकि बुढ़ापे को सुरक्षित कर सको

आपने सब कुछ अपने लिए किया

बस हर बार हमारा इस्तेमाल किया

मै कैसे कहूँ कि

मैं कैसे जीता हूँ

क्योंकि मैं एक बेबस पिता हूँ।

 

अब तो ताने, उलाहने

हर रोज सुनता हूँ

बची हुई जिंदगी के

हार मे उसे बुनता हूँ

अब जीवन के

इस पड़ाव पर कहाँ जाऊँगा 

परिवार को छोड़

खुशियाँ कहाँ से लाऊँगा  

बस जीना है,

इसलिए जीता हूँ 

हाँ ! भाई

मैं एक बेबस पिता हूँ  /

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 72 ☆ जगू पुन्हा बालपण… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 72 ? 

☆ जगू पुन्हा बालपण… ☆

जगू पुन्हा बालपण, होऊ लहान लहान

मौज मस्ती करतांना, करू अ,आ,इ मनन.!!

जगू पुन्हा बालपण, आई सोबती असेल

माया तिची अनमोल, सर कशात नसेल..!!

 

जगू पुन्हा बालपण, मना उधाण येईल

रात्री तारे मोजतांना, भान-सुद्धा हरपेल..!!

 

जगू पुन्हा बालपण, शाळा भरेल एकदा

छडी गुरुजी मारता, रड येईल खूपदा..!!

 

जगू पुन्हा बालपण, कैरी आंब्याची पाडूया

बोरे आंबट आंबट, चिंचा लीलया तोडूया..!!

 

जगू पुन्हा बालपण, नौका कागदाची बरी

सोडू पाण्यात सहज, अंगी येई तरतरी..!!

 

जगू पुन्हा बालपण, नसे कुणाचे बंधन

कधी अनवाणी पाय, देव करेल रक्षण..!!

 

जगू पुन्हा बालपण, माय पदर धरेल

ऊन लागणार नाही, छत्र प्रेमाचे असेल..!!

 

जगू पुन्हा बालपण, कवी राज उक्त झाला

नाही होणार हे सर्व, भाव फक्त जागवीला..!!

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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