मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 93 – आक्रंदन पिडीतांचे ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 93 – आक्रंदन पिडीतांचे ☆

गगनांतरी भिडाले

आक्रंदन पिडीतांचे।

झांजावाती निघाले

तांडव महापूराचे।

 

ओठाता स्तब्ध झाल्या

निःशब्द भावना या।

निजधाम सोडूनिया

कित्येक गेले विलया.

अशूंचे गोठ नयनी

आक्रंदतात कोणी।

शून्यात नेत्र दोन्ही

स्वप्नेच गेली विरूनी।

 

देईना साथ कोणी

थारा न देई धरणी।

जावे कुठे जीवांनी

घरट्याविना पिलांनी

भांबावल्या मनांना

समजावूनी कळेना।

सेल्फीत दंग मदती

जगण्याची प्रेरणा ना।

  

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ कोनाडा… भाग 2 ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

 

? जीवनरंग ❤️

☆ कोनाडा… भाग 2 ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

ती जशी प्रेमळ ,तशी त्रासदायकही होती.तिचं कुणी ऐकलं नाही की ती त्या गोष्टीचा इतका पिच्छा पुरवायची की शेवटी कंटाळून तिचं ऐकावच लागायचं.

एकदा आठवतंय् दिवस पावसाळ्याचे होते.

पण म्हणावा तसा पाऊस अजुन कोसळत नव्हता.त्या दिवशी तर चक्क उन पडलं होतं.

आभाळ अगदी मोकळं,निरभ्र होतं..तरीही घरातून निघताना जीजी म्हणाली,

“छत्री घे….”

काय तरी काय? इतक्या कडक उन्हात मी छत्री घेतली तर माझ्या मैत्रीणी मला हंसतील..आणि मी छत्री कुठेतरी विसरेनही..

पण गंमत झाली. संध्याकाळी वातावरण एकदम बदललं.. आकाश काळंकुट्ट झालं.

ढगांचा गडगडाट .विजांचा लखलखाट. वादळी वारा आणि मुसळधार पाऊस. ओली झालेली मी कशीबशी बसमधून टेंभी नाक्यावर उतरले. तर बस स्टाॅपवर जीजी डोक्यावर एक आणि हातात एक छत्री घेऊन उभी..!!

ते चित्र कायम माझ्या डोळ्यासमोर आहे.

त्या दिवसाची तिची ती काळजीभरली प्रेममय नजर मनात कोरली गेली आहे.

“अग!!तू कशाला आलीस इतक्या पावसात?”

“कार्टे तुला सकाळी छत्री घेउन जायला सांगितलं तर ऐकलं नाहीस. हट्टी द्वाड..

किती भिजली आहेस…न्युमोनिया झाला तर? परीक्षा जवळ आली आहे…””

रस्ताभर ती बोलत होती.

घरात शिरल्याबरोबर, स्वत:च्या पदरानेच तिनं माझं डोकं खसाखसा पुसलं.. गरम पाण्यात चमचाभर ब्रांडीही पाजली..

कितीतरी वेळ नुसती अस्वस्थ होती…

लहानपणी  मला वरचेवर सर्दी, खोकला ताप यायचा.. डांग्या खोकल्याने मी दोन महिने आजारी होते. कितीतरी औषधे.. इंजेक्शने झाली.पण खोकला काही थांबायचा नाही. एक दिवस कंटाळून मी जीजीला म्हटलं,

“जीजी आता तूच मला बरं कर..तू दिलेलं

कितीही कडु औषध मी पीईन! पण हा खोकला थांबव.. नाहीतर मी मरुन जाईन..”

तिच्या अंत:करणातला मायेचा झरा, तिच्या डोळ्यातून ठिबकला. एरवी मला सतत ‘कार्टी भामटी’म्हणणारी.. तिनं मला पदरात वेढून घेतलं…

“असं बोलू नकोरे बाबा… संध्याकाळच्या वेळी कसलं हे अभद्र बोलणं..मी कशी मरु देईन तुला?”

अन् तिने माझे मटामट मुके घेतले…

मग ती सकाळीच घराबाहेर पडली.. कुठे गेली कोण जाणे! पण परत आली तेव्हां तिच्या हातात हिरवीगार अढुळशाची पानं होती..

तिनं ती स्वच्छ धुवून पाट्यावर वाटली. आणि त्याचा रस काढला.

आणि तो कडु रस, अच्च्युताय नम:, गोविंदाय नम: असं म्हणत माझ्या घशात उतरवला… लागोपाठ सात दिवस या धन्वंतरीची ट्रीटमेंट याच पद्धतीने घेतली..

आणि खरोखरच माझा तो जीवघेणा खोकला बरा झाला…

तिची श्रद्धा,तिची मेहनत आणि तिच्या ममतेपुढे तो रोग नमला. तिला इतकी आयुर्वेद उपचारपद्धती कशी माहित होती, ते गुपीतच होतं.. पण तिने केलेले लेप, गुट्या चाटणे, काढे यांच्यामुळे आमच्या व्याधी झटकन् बर्‍या व्हायच्या..

जीजी सार्‍यांसाठी झटायची. तिला आमच्यापैकी कुणाचंही काही करताना कधीही कंटाळा आला नाही.तिच्या मनात आमच्याबद्दल अत्यंत माया होती… ओलावा होता..

जीजीची तिसरी नात छुंदा..आमच्या सर्वांपेक्षा ती हुशार. अत्यंत अभ्यासु. जीजीला तिचा फार अभिमान.

“हा माझा अर्जुन हो!..” असं सगळ्यांना सांगायची.

पण जीजीची ही नात फार रडकी आणि खेंगट.. शाळेत जाताना रडायची.म्युनिसीपालिटीची बारा नंबरची शाळा तिला आवडायची नाही. पण घराजवळची शाळा म्हणून आमचे सर्वांचेच प्राथमिक शिक्षण तिथेच झालं. आम्ही कुणीच शाळेत जाताना त्रास दिला नाही. पण छुंदाने खूप त्रास दिला. जीजी रोज तिच्याबरोबर शाळेत जायची. शाळा सुटेपर्यंत पायरीवर बसून रहायची. ना भूक ना तहान… छुंदा वर्गातून बाहेर येउन खात्री करुन घ्यायची, जीजी पायरीवर असल्याची… छुंदा पाचवीत जाईपर्यंत ही जोडगोळी शाळेत जायची. छुंदा वर्गात अन् जीजी पायरीवर.

पुढेपुढे छुंदाच्या वर्गबाईंनाही जीजीची सवय झाली.ही एवढी म्हातारी बाई नातीसाठी ५—६ तास पायरीवर बसून राहते याचं त्यांनाही प्रचंड कुतुहल वाटायचं.. कधी कधी तर बाईंना काही काम असलं तर त्या जीजीलाच वर्ग सांभाळायला सांगायच्या..

वर्गातल्या सार्‍यांचीच ती आजी झाली होती…

पुढे छुंदा ऊच्च श्रेणीत केमीकल इंजीनीअर झाली. आजही ती म्हणते… “जीजी नसती तर मी शिकले असते का…??”

इंजीनीअरींगचं सर्टीफिकेट जीजीच्या हातात देत ती म्हणाली होती..

“खरं म्हणजे हे सर्टीफिकेट तुलाच दिलं पाहिजे….”

त्याक्षणी तिच्या चेहर्‍यावरचा आनंद, डोळ्यातलं पाणी अवर्णनीय होतं…

क्रमश:…

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 123 ☆ बहुत तकलीफ़ होती है ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख बहुत तकलीफ़ होती है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 123 ☆

☆ बहुत तकलीफ़ होती है

‘लोग कहते हैं जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो तकलीफ़ होती है; परंतु जब कोई अपना पास होकर भी दूरियां बना लेता है, तब बहुत ज़्यादा तकलीफ़ होती है।’ प्रश्न उठता है, आखिर संसार में अपना कौन…परिजन, आत्मज या दोस्त? वास्तव में सब संबंध स्वार्थ व अवसरानुकूल उपयोगिता के आधार पर स्थापित किए जाते हैं। कुछ संबंध जन्मजात होते हैं, जो परमात्मा बना कर भेजता है और मानव को उन्हें चाहे-अनचाहे निभाना ही पड़ता है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव अकेला नहीं रह सकता और वह कुछ संबंध बनाता है; जो बनते-बिगड़ते रहते हैं। परंतु बचपन के साथी लंबे समय तक याद आते रहते हैं, जो अपवाद हैं। कुछ संबंध व्यक्ति स्वार्थवश स्थापित करता है और स्वार्थ साधने के पश्चात् छोड़ देता है। यह संबंध रिवाल्विंग चेयर की भांति अस्थायी होते हैं, जो दृष्टि से ओझल होते ही समाप्त हो जाते हैं और लोगों के तेवर भी अक्सर बदल जाते हैं। परंतु माता-पिता व सच्चे दोस्त नि:स्वार्थ भाव से संबंधों को निभाते हैं। उन्हें किसी से कोई संबंध-सरोकार नहीं होता तथा विषम परिस्थितियों में भी वे आप की ढाल बनकर खड़े रहते हैं। इतना ही नहीं, आपकी अनुपस्थिति में भी वे आपके पक्षधर बने रहते हैं। सो! आप उन पर नेत्र मूंदकर विश्वास कर सकते हैं। आपने अंग्रेजी की कहावत सुनी होगी ‘आउट आफ साइट, आउट ऑफ मांइड’ अर्थात् दृष्टि से ओझल होते ही उससे नाता टूट जाता है। आधुनिक युग में लोग आपके सम्मुख अपनत्व भाव दर्शाते हैं; परंतु दूर होते ही वे आपकी जड़ें काटने से तनिक भी ग़ुरेज़ नहीं करते। ऐसे लोग बरसाती मेंढक की तरह होते हैं, जो केवल मौसम बदलने पर ही नज़र आते हैं। वे गिरगिट की भांति रंग बदलने में माहिर होते हैं। इंसान को जीवन में उनसे सदैव सावधान रहना चाहिए, क्योंकि वे अपने बनकर, अपनों को घात लगाते हैं। सो! उनके जाने का इंसान को शोक नहीं मनाना चाहिए, बल्कि प्रसन्न होना चाहिए।

वास्तव में इंसान को सबसे अधिक दु:ख तब होता है, जब अपने पास रहते हुए भी दूरियां बना लेते हैं। दूसरे शब्दों में वे अपने बनकर अपनों से विश्वासघात करते हैं तथा पीठ में छुरा घोंपते हैं। आजकल के संबंध कांच की भांति नाज़ुक होते हैं, जो ज़रा-सी ठोकर लगते ही दरक़ जाते हैं, क्योंकि यह संबंध स्थायी नहीं होते। आधुनिक युग में खून के रिश्तों पर भी विश्वास करना मूर्खता है। अपने आत्मज ही आपको घात लगाते हैं। वे आपको तब तक मान-सम्मान देते हैं, जब तक आपके पास धन-संपत्ति होती है। अक्सर लोग अपना सब कुछ उनके हाथों सौंपने के पश्चात् अपाहिज-सा जीवन जीते हैं या उन्हें वृद्धाश्रम में आश्रय लेना पड़ता है। वे दिन-रात प्रभु से यही प्रश्न करते हैं, आखिर उनका कसूर क्या था? वैसे भी आजकल परिवार के सभी सदस्य अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं, क्योंकि संबंध-सरोकारों की अहमियत रही नहीं। वे सब एकांत की त्रासदी झेलने को विवश होते हैं, जिसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा बच्चों को भुगतना पड़ता है। प्राय: वे ग़लत संगति में पड़ कर अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं।

अक्सर ज़िदंगी के रिश्ते इसलिए नहीं सुलझ पाते, क्योंकि लोगों की बातों में आकर हम अपनों से उलझ जाते हैं। मुझे स्मरण हो रहे हैं कलाम जी के शब्द ‘आप जितना किसी के बारे में जानते हैं; उस पर विश्वास कीजिए और उससे अधिक किसी से सुनकर उसके प्रति धारणा मत बनाइए। कबीरदास भी आंखिन-देखी पर विश्वास करने का संदेश देते हैं; कानों-सुनी पर नहीं। ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।’ इसलिए उनकी बातों पर विश्वास करके किसी के प्रति ग़लतफ़हमी मत पालें। इससे रिश्तों की नमी समाप्त हो जाती है और वे सूखी रेत के कणों की भांति तत्क्षण मुट्ठी से फिसल जाते हैं। ऐसे लोगों को ज़िंदगी से निकाल फेंकना कारग़र है। ‘जीवन में यदि मतभेद हैं, तो सुलझ सकते हैं, परंतु मनभेद आपको एक-दूसरे के क़रीब नहीं आने देते। वास्तव में जो हम सुनते हैं, हमारा मत होता है; तथ्य नहीं। जो हम देखते हैं, सत्य होता है; कल्पना नहीं। ‘सो! जो जैसा है; उसी रूप में स्वीकार कीजिए। दूसरों को प्रसन्न करने के लिए मूल्यों से समझौता मत कीजिए; आत्म-सम्मान बनाए रखिए और चले आइए।’ महात्मा बुद्ध की यह सीख अनुकरणीय है।

‘ठहर! ग़िले-शिक़वे ठीक नहीं/ कभी तो छोड़ दीजिए/ कश्ती को लहरों के सहारे।’ समय बहुत बलवान है, निरंतर बदलता रहता है। जीवन में आत्म-सम्मान बनाए रखें; उसे गिरवी रखकर समझौता ना करें, क्योंकि समय जब निर्णय करता है, तो ग़वाहों की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए किसी विनम्र व सज्जन व्यक्ति को देखते ही यही कहा जाता है, ‘शायद! उसने ज़िंदगी में बहुत अधिक समझौते किए होंगे, क्योंकि संसार में मान-सम्मान उसी को ही प्राप्त होता है।’ किसी को पाने के लिए सारी खूबियां कम पड़ जाती हैं और खोने के लिए एक  ग़लतफ़हमी ही काफी है।’ सो! जिसे आप भुला नहीं सकते, क्षमा कर दीजिए; जिसे आप क्षमा नहीं कर सकते, भूल जाइए। हर क्षण, हर दिन शांत व प्रसन्न रहिए और जीवन से प्यार कीजिए; आप ख़ुद को मज़बूत पाएंगे, क्योंकि लोहा ठंडा होने पर मज़बूत होता है और उसे किसी भी आकार में ढाला नहीं जा सकता है।

यदि मन शांत होगा, तो हम आत्म-स्वरूप परमात्मा को जान सकेंगे। आत्मा-परमात्मा का संबंध शाश्वत् है। परंतु बावरा मन भूल गया है कि वह पृथ्वी पर निवासी नहीं, प्रवासी बनकर आया है। सो! ‘शब्द संभाल कर बोलिए/ शब्द के हाथ ना पांव/ एक शब्द करे औषधि/  एक शब्द करे घाव।’ कबीर जी सदैव मधुर वाणी बोलने का संदेश देते हैं। जब तक इंसान परमात्मा-सत्ता पर विश्वास व नाम-स्मरण करता है; आनंद-मग्न रहता है और एक दिन अपने जीवन के मूल लक्ष्य को अवश्य प्राप्त कर लेता है। सो! परमात्मा आपके अंतर्मन में निवास करता है, उसे खोजने का प्रयास करो। प्रतीक्षा मत करो, क्योंकि तुम्हारे जीवन को रोशन करने कोई नहीं आएगा। आग जलाने के लिए आपके पास दोस्त के रूप में माचिस की तीलियां हैं। दोस्त, जो हमारे दोषों को अस्त कर दे। दो हस्तियों का मिलन दोस्ती है। अब्दुल कलाम जी के शब्दों में ‘जो आपके पास चलकर आए सच्चा दोस्त होता है; जब सारी दुनिया आपको छोड़कर चली जाए।’ इसलिए दुनिया में सबको अपना समझें;  पराया कोई नहीं। न किसी से अपेक्षा ना रखें, न किसी की उपेक्षा करें। परमात्मा सबसे बड़ा हितैषी है, उस पर भरोसा रखें और उसकी शरण में रहें, क्योंकि उसके सिवाय यह संसार मिथ्या है। यदि हम दूसरों पर भरोसा रखते हैं, तो हमें पछताना पड़ता है, क्योंकि जब अपने, अपने बन कर हमें छलते हैं, तो हम ग़मों के सागर में डूब जाते हैं और निराशा रूपी सागर में अवगाहन करते हैं। इस स्थिति में हमें बहुत ज़्यादा तकलीफ़ होती है। इसलिए भरोसा स्वयं पर रखें; किसी अन्य पर नहीं। आपदा के समय इधर-उधर मत झांकें। प्रभु का ध्यान करें और उसके प्रति समर्पित हो जाएं, क्योंकि वह पलक झपकते आपके सभी संशय दूर कर आपदाओं से मुक्त करने की सामर्थ्य रखता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 122 ☆ कविता – स्त्री क्या है ? ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  आपकी एक भावप्रवण कविता स्त्री क्या है ?। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 122– साहित्य निकुंज ☆

☆ कविता – स्त्री क्या है ? ☆

क्या तुम बता सकते हो

एक स्त्री का एकांत

स्त्री

जो है बेचैन

नहीं है उसे चैन

स्वयं की जमीन

तलाशती एक स्त्री

क्या तुम जानते हो

स्त्री का प्रेम

स्त्री का धर्म 

सदियों से

वह स्वयं के बारे में

जानना चाहती है

क्या है तुम्हारी नजर

मन बहुत व्याकुल है

सोचती है

स्त्री को किसी ने नहीं पहचाना 

कभी तुमने

एक स्त्री के मन को है  जाना

पहचाना

कभी तुमने उसे रिश्तो  के उधेड़बुन में

जूझते देखा है..

कभी उसके मन के अंदर झांका है

कभी पढ़ा है

उसके भीतर का अंतर्मन .

उसका दर्पण.

कभी उसके चेहरे को पढ़ा है

चेहरा कहना क्या चाहता है

क्या तुमने कभी महसूस किया है

उसके अंदर निकलते लावा को

क्या तुम जानते हो

एक स्त्री के रिश्ते का समीकरण

क्या बता सकते हो

उसकी स्त्रीत्व की आभा

उसका अस्तित्व

उसका कर्तव्य

क्या जानते हो तुम ?

नहीं जानते तुम कुछ भी..

बस

तुम्हारी दृष्टि में

स्त्री की परिभाषा यही है ..

पुरुष की सेविका ……

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 112 ☆ हर्षित हो गाने लगीं… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “हर्षित हो गाने लगीं….। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 112 ☆

☆ हर्षित हो गाने लगीं…

भँवरे गुँजन कर रहे, कोयल गाये गीत

मन को मोहक लग रही, देखो सरसों पीत

 

दुल्हन सी लगती धरा, लो आ गया बसंत

ज्ञान सभी को बांटते, सांचे साधू संत

 

कुदरत खूब बिखेरती, नित नवरूप अनूप

हरियाली चहुँ ओर है, खिली खिली सी धूप

 

खग अंबर में नाचते, भँवरे गायें गीत

खूब चहकतीं तितलियाँ, दिखा दिखा कर प्रीत

 

प्रियतम को ज्यूँ मिल गया, अपने मन का मीत

हर्षित हो गाने लगीं, ऋतु बसंत के गीत

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ चं म त ग ! भन्नाट ट्रॅकर! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? विविधा ?

? चं म त ग ! ⭐ श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐

💃 भन्नाट ट्रॅकर! 😅

“नमस्कार पंत ! हा तुमचा पेपर !”

“मोऱ्या रोज गपचूप पेपर ठेवून गुल होतोस, आज वेळ आहे वाटत बोलायला ?”

“थोडा वेळ आहे खरा पंत आणि तुमचा सल्ला सुद्धा हवा होता, म्हणून हाक मारली !”

“म्हणजे कामा पुरता पंत आणि चहा पुरती काकू ! काय बरोबर नां ?”

“पंत कसं आहे नां सध्या कामाच्या गडबडीत, बरेच दिवसात काकूंच्या हातचा आल्याचा चहा पोटात गेला नाही त्यामुळे पोट जरा कुरकुर करतच होतं, म्हणून म्हटलं एकात एक दोन कामं उरकून टाकू !”

“बरं, बरं, कसा काय चालला आहे तुझा नवीन लघुउद्योग ?”

“एकदम मस्त ! तुम्हीच तर गेल्या वेळेस बोलणाऱ्या कुकरची आयडिया दिलीत आणि त्याला भरपूर रिस्पॉन्स मिळतोय समस्त भगिनीवर्गाचा !”

“चांगलं आहे ! आज काय कामं काढलं आहेस मोऱ्या, कुठल्या बाबतीत सल्ला हवा आहे तुला ?”

“पंत, आता बोलणाऱ्या कुकरची प्रॉडकशन लाईन सेट झाली आहे माझी ! आता लोकांना आवडणार, उपयोगी पडणार तसंच दुसरं कुठलं तरी नवीन प्रॉडक्ट काढायचा विचार मनांत येतोय, पण काय प्रॉडक्ट काढावं तेच कळत नाही ! म्हणून म्हटलं तुमच्या डोक्यात काही नवीन आयडिया वगैरे आहे का हे विचारावं, म्हणून आलोय !”

“आहे नां, नसायला काय झालंय ? उगाच का डोक्यावरचे गेले ?”

“काय सांगता काय पंत, नवीन प्रॉडक्टची आयडिया….”

“अरे आज सकाळीच माझ्या या सुपीक डोक्यात आली आणि आज तू जर का भेटला नसतास ना, तर मीच तुला बोलावून घेवून सांगणार होतो ती नवीन आयडिया !”

“पंत आता मला धीर धरवत नाहीये, लवकर, लवकर सांगा तुमच्या डोक्यातली नवीन आयडिया !”

“अरे मोऱ्या, आमच्या  सगळ्या सिनियर सिटीझनचा हल्ली एक हक्काचा आजार झालाय, त्यावर एखाद औषधं…..”

“काय पंत ? आजारावर औषधं द्यायला मी डॉक्टर थोडाच आहे ?”

“अरे गाढवा, आधी माझं बोलणं तरी नीट ऐकून घे, मग बोल !”

“सॉरी पंत, बोला !”

“अरे, आजकाल स्मरणशक्ती दगा देते आम्हां सिनियर सिटीझन लोकांना आणि साधा डोळ्यावरचा चष्मा कुठे काढून ठेवलाय तेच वेळेवर आठवत नाही बघ !”

“बरं मग ?”

“मला एक सांग मोऱ्या, तुम्हां हल्लीच्या तरुण पोरांना सुद्धा, तुमचा मोबाईल तुम्हीच तुमच्या हातांनी, कुठे ठेवला आहे ते पण कधी कधी आठवत नाही, काय खरं की नाही ?”

“हॊ पंत, मग आम्ही लगेच…..”

“दुसऱ्या मोबाईल वरून कॉल करतो आणि रिंग वाजली की मोबाईल कुठे आहे ते तुम्हाला बरोब्बर कळतं, होय नां ?”

“बरोबर पंत ! पण त्याचा इथे काय संबंध ?”

“सांगतो नां ! आता तू काय कर, चष्म्याला GPS tracker लावून द्यायचा नवीन उद्योग सुरु कर ! म्हणजे काय होईल अरे माझ्या सारखी सिनियर सिटीझन मंडळी कुठे चष्मा विसरली, तर मग तो शोधायला प्रॉब्लेम यायला नको, काय कशी आहे नवीन उद्योगाची आयडिया ?”

“काय भन्नाट आयडिया दिलीत पंत ! मानलं तुम्हाला ! धन्यवाद !”

© श्री प्रमोद वामन वर्तक

०४-०३-२०२२

(सिंगापूर) +6594708959

मो – 9892561086

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 88 ☆ चिट्ठी लिखना बेटी ! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है माँ की ममता पर आधारित एक मनोवैज्ञानिक लघुकथा ‘चिट्ठी लिखना बेटी !’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 88 ☆

☆ लघुकथा – चिट्ठी लिखना बेटी ! ☆

माँ का फोन आया – बहुत दिन हो गए तुम्हारी चिट्ठी  नहीं आई बेटी! हाँ, जानती हूँ समय नहीं मिलता होगा। गृहस्थी के छोटे –मोटे हजारों काम, बच्चे और तुम्हारी नौकरी, सब समझती हूँ। फोन पर तुमसे बात तो हो जाती है, पर  क्या करें मन नहीं भरता। चिट्ठी आती है तो जब चाहो इत्मीनान से जितनी बार पढ़ लो। मैंने तुम्हारी सब चिट्ठियां संभालकर रखी हैं अभी तक।

तुम कह रहीं थी कि चिट्ठी भेजे बहुत दिन हो गए? किस तारीख को भेजी थी? अच्छा दिन तो याद होगा? आठ –दस दिन हो गए? तब तो आती ही होगी। डाक विभाग का भी कोई ठिकाना नहीं, देर – सबेर आ ही जाती हैं चिट्ठियां। बच्चों की फोटो भेजी है ना साथ में? बहुत दिन हो गए बच्चों को देखे हुए। हमारे पास कब आओगी? स्वर मानों उदास होता चला गया।

ना जाने कितनी बातें, कितनी नसीहतें, माँ की चिट्ठी में हुआ करती थीं। जगह कम पड़ जाती लेकिन माँ की बातें मानों खत्म ही नहीं होती थी। धीरे- धीरे चिट्ठियों की जगह फोन ने ले ली। माँ फोन पर पूछती – कितने बच्चे हैं, बेटा है? नहीं है, बेटियां ही हैं, (माँ की याद्दाश्त खराब होने लगी थी) चलो कोई बात नहीं आजकल लड़की – लड़के में कोई अंतर नहीं है। ये मुए लड़के कौन सा सुख दे देते हैं? अच्छा, तुम चिट्ठी लिखना हमें, साथ में बच्चों की फोटो भी भेजना। तुम्हारे बच्चों को देखा ही नहीं हमने (बार – बार वही बातें दोहराती है)। 

कई बार कोशिश की, लिखने को पेन भी उठाया लेकिन कागज पर अक्षरों की जगह माँ का चेहरा उतर आता। अल्जाइमर पेशंट माँ को अपनी ही सुध नहीं है। क्या पता उसके मन में क्या चल रहा है? उसके चेहरे पर तो सिर्फ कुछ खोजती हुई – सी आँखें हैं और सूनापन। माँ ने फिर कहा – बेटी! चिट्ठी लिखना जरूर और फोन कट गया।

 सबके बीच रहकर भी सबसे अन्जान और खोई हुई – सी माँ को पत्र लिखूँ भी तो कैसे?

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 147 ☆ कविता – शायद होता हो हल युद्ध भी कभी कभी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  आपकी एक समसामयिक विषय पर आधारित कविता  शायद होता हो हल युद्ध भी कभी कभी

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 147 ☆

? कविता – शायद होता हो हल युद्ध भी कभी कभी ?

 

इतिहास है गवाह, होता है हल,

युद्ध भी कभी कभी.

क्योंकि जो बोलता नहीं,

सुनता ही रह जाता है

 

कुछ लोग जो,

मानवता से ज्यादा, मानते हैं धर्म

उन्हें दिखता हो शायद ईसा और मूसा के खून में फर्क

वे बनाना चाहते हैं

कट्टर धर्मांध दुनियां

बस एक ही धर्म की

 

मोहल्ले की सफेद दीवारों पर

रातों – रात उभर आये तल्ख नारे,

देख लगता है,

ये शख्स हमारे बीच भी हैं

 

मैं यह सब अनुभव कर,

हूं छटपटाता हुआ,

उसी पक्षी सा आक्रांत,

जिसे देवदत्त ने

मार गिराया था अपने

तीक्ष्ण बाणों से

 

सिद्धार्थ हो कहां

आओ बचाओ

इस तड़पते विश्व को

जो मिसाइलों

की नोक पर

लगे

परमाणु बमों से भयाक्रांत

है सहमी सी

 

मेरी यह लम्बी कविता,

युद्धोन्मादियों को समझा पाने को,

बहुत छोटी है

काश, होती मेरे पास

प्यार की ऐसी पैट्रियाड मिसाइल,

जो, ध्वस्त कर सकती,

नफरत की स्कड मिसाइलें,

लोगों के दिलों में बनने से पहले ही.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 91 ☆ मुद्दे की बात… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना मुद्दे की बात…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 91 ☆ मुद्दे की बात  

अक्सर उबाऊ बातचीत से बचने के लिए लोग कह देते हैं, सीधे- सीधे मुद्दे पर आइए। बात चाहें कुछ भी हो, जल्दी पूरी हो, ये सभी की इच्छा रहती है। आजकल यही प्रयोग पत्रकारों द्वारा चुनावी चर्चा में किया जा रहा है। विकासवाद, राष्ट्रवाद, बदलाव, महंगाई, बेरोजगारी इन शब्दों का प्रयोग खूब हो रहा है। घोषणा पत्र सुनने , पढ़ने व समझने का समय किसी के पास नहीं है क्योंकि सबको पता है ये चुनावी वादे हैं जो बिना बरसे ही हवा के साथ हवाई हो जाएंगे।

जैसे ही मतदाता दिखा, सबसे पहले यही प्रश्न पूछा जाता है कि आप किस मुद्दे को ध्यान में रखकर दल का चुनाव करेंगे ?

तत्काल ही उत्तर मिल जाता है। हाँ इतना जरूर है कि कुछ लोग इसका अर्थ नहीं समझते हैं और कहने लगते हैं कि हमें क्या हम तो इस निशान पर बटन  दबाएंगे। वहीं कुछ लोग अपने पसंदीदा दल की तारीफ़ में कसीदे पढ़ने लगते हैं तो कुछ लोग नासमझ बनते हुए, घुमाते फिराते हुए, अंत में कह देते हैं वोट किसको देना है, अभी तक सोचा ही नहीं।

इस सोचने समझने के मध्य पत्रकार भी तो किसी न किसी दल की विचारधारा का समर्थक होता है, अनचाहे उत्तरों से  उसका चेहरा बुझा हुआ साफ देखा जा सकता है। कुछ भी कहिए हाथ में माला लेकर भागते हुए लोग जो आगे जाकर माला देते हैं कि  हमारे नेता जी आने वाले हैं उन्हें आप पहना दीजियेगा। इधर नेता जी भी आठ- दस माला तो पहने रहते हैं बाकी उतार- उतार के उसी व्यक्ति को दे देते हैं। ठीक भी  है, ऐसा करने से फूलों व रुपए दोनों की बचत होती है।  साथ में चलती हुई गाड़ियों में बढ़िया धुनों वाले गाने बजते रहतें हैं जिसकी धुन व बोल सभी के मनोमस्तिष्क पर छा जाते हैं। इस बार के चुनावों में मतदाता भी खूब मनोरंजन कर रहे हैं। एक बात तो साफ हो गयी है कि भविष्य में उन्हें भी पाँच वर्ष में एक बार आने वाले इन पर्वों का बेसब्री से इंतजार रहेगा। 

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 100 ☆ गीत – हँसता जीवन ही बचपन ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है आपका एक गीत  “हँसता जीवन ही बचपन”.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 100 ☆

☆ गीत – हँसता जीवन ही बचपन ☆ 

भोला बचपन कोमल मन है

प्यार तुम्हारा सदा अमर है।

मुझको तो बस ऐसा लगता

तू पूरा ही गाँव  – नगर है।।

 

रहें असीमित आशाएँ भी

जो मुझको नवजीवन देतीं।

जीवन का भी अर्थ यही है

मुश्किल में नैया को खेतीं।

 

हँसता जीवन ही बचपन है

दूर सदा पर मन से डर है।

भोला बचपन कोमल मन है

प्यार तुम्हारा सदा अमर है।।

 

पल में रूठा , पल में मनता

घर – आँगन में करे उजारा।

राग, द्वेष, नफरत कब जागे

इससे तो यह तम भी हारा।

 

बचपन तू तो खिला सुमन है

पंछी – सा उड़ता फर – फर है।

भोला बचपन कोमल मन है

प्यार तुम्हारा सदा अमर है।।

 

बचपन का नाती है नाना

खेल करे यह खूब सुहाए।

सदा समर्पित प्यार तुम्हीं पर

तुम ही सबका मिलन कराए।

 

झरने, नदियाँ तुम ही सब हो

जो बहता निर्झर – निर्झर है।

भोला बचपन कोमल मन है

प्यार तुम्हारा सदा अमर है।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares