मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक क्रमांक २१ – भाग ३ – कॅनडा ऽ ऽ राजा सौंदर्याचा ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २१ – भाग ३ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ कॅनडा ऽ ऽ  राजा सौंदर्याचा ✈️

ओटावाहून दोनशे किलोमीटर्सवरील मॉन्ट्रियल इथे पोहोचलो. ही कॅनडाची औद्योगिक नगरी आहे. ब्रेकफास्ट करून बाहेर फेरफटका मारला.एका बागेमध्ये योध्यांचे, गरुडाचे पुतळे आहेत. रस्त्यावर एका कॉर्नरला जगप्रसिद्ध पियानिस्ट ऑस्कर पीटरसन यांचा दगडी बाकावर बसलेला पुतळा आहे. आपण पुतळ्याजवळ गेलो की सेन्सर्सच्या सहायाने पियानोची सुंदर सुरावट ऐकायला येते. जुन्या मॉन्ट्रियलमध्ये व्हिक्टोरियन काळातील, तांबूस दगडांचा वापर करून बांधलेली गॉथिक शैलीतली चर्चेस, म्युझियम्स, राहती घरे आहेत. विद्यार्थी आणि प्रवासी यांनी शहर गजबजले होते.१९१८ साली बांधलेली सन लाइफ बिल्डिंग ही दुसऱ्या महायुद्धामध्ये, अनेक युरोपियन राष्ट्रांनी सोने सुरक्षित ठेवण्यासाठी वापरली होती. रस्त्यांसाठी वापरलेले लांबट चौकोनी दगडी पेव्हरब्लॉक ३६० वर्षांपूर्वीचे पण अगदी सुस्थितीत आहेत.

नेत्रोदाम या भव्य चर्चच्या आत लाकडी कोरीवकाम व त्यावर सोन्याचा मुलामा दिलेले असे  आहे. स्टेन्ड ग्लासच्या खिडक्यांवरील रंगीत चित्रे अप्रतिम आहेत. भव्य घंटा व अजूनही वापरात असलेला पोकळ खांबांचा ऑर्गन तिथे  आहे. बार्बी म्युझियममध्ये सर्व देशातील वेगवेगळे ड्रेस घातलेल्या असंख्य बार्बी डॉल्स सुंदर सजवून मांडल्या आहेत. मॉन्ट्रियल इथे १९७६ मध्ये ऑलिंपिक गेम्स झाले होते. त्यावेळी उभारलेल्या मोठ्या आणि तिरक्या- तिरक्या जाणाऱ्या लिफ्टने जाऊन ऑलंपिक मनोर्‍याचे टोक गाठले. तिथून ऑलिंपिक ज्योत लेसर किरणांच्या साहाय्याने जिथे प्रज्वलित करण्यात आली होती तो उंच प्लॅटफॉर्म, निरनिराळ्या खेळांची स्वच्छ मैदाने दिसत होती. कुठे खेळांची प्रॅक्टीस चालू होती. त्यावेळी आपल्याकडे नुकत्याच सुरू झालेल्या टीव्हीमुळे  ऑलिंपिक गेम्स पाहता आले होते. रुमानीयामधील ‘रबर गर्ल’ नादिया हिची आठवण झाली.

मॉन्ट्रियल इथून क्यूबेक इथे जायला चार तास लागले. कॅनडामधील ही पहिली कायमस्वरूपी वसाहत फ्रेंच प्रवासी, संशोधक सॅम्युएल चॅम्पलेन यांनी १६०५ मध्ये नोवा स्कॉटियाच्या किनाऱ्यावर उभारली. त्यानंतर दोन वर्षांनी ब्रिटिश आले. त्यांनी हडसन बे कंपनीची स्थापना केली. ब्रिटिश व फ्रेंच  यांच्या आपापसात लढाया सुरू झाल्या. सात वर्षांनंतर  ब्रिटिश जनरल जेम्स वुल्फ यांनी फ्रेंचांचा  पराभव केला. तरीही क्यूबेकमध्ये ब्रिटिश व फ्रेंच संस्कृती, दोन्ही भाषा, विविध संस्था यांची हातात हात घालून वाढ झाली. आजही इथे कॅनडातील ८५% फ्रेंच राहतात. इथली अधिकृत भाषा फ्रेंच आहे व फ्रेंच सिव्हिल लॉ वापरण्यात येतो.

क्यूबेक हे ऐतिहासिक शहर सेंट लॉरेन्स या सागरासारख्या नदीकाठी आहे. पोपटी मखमली हिरवळ असलेल्या अवाढव्य बागा, भरदार वृक्ष, अनेक रंगांची फुले, गुलाबांचे ताटवे यांनी सारे शहर भरले आहे .बागांमधून अनेक कुटुंबे समर पिकनिक साठी आली होती. डोंगर उतरणीचा दगडी पायऱ्यांचा रस्ता उतरून खाली आलो.पंचवीस वर्षांपूर्वी तिथल्या चार मजली बिल्डिंगच्या संपूर्ण भिंतीवर जुन्या क्यूबेकचे चित्र रंगविले आहे. ब्रिटिश- फ्रेंच लढाया, चारचाकी घोडागाड्या, खेळणारी मुले, लपलेली मांजरे, प्रेमिकांची कुजबुज, बंदुका, लायब्ररी, मित्रांच्या बारमधील गप्पा असे सारे त्या चार मजली बिल्डिंगच्या पूर्ण भिंतीवर रंगविले आहे.

जुन्या क्यूबेक शहराभोवती संपूर्ण दगडी भिंत होती. त्याचे अवशेष दिसतात. सर्व वास्तुंची ब्रिटिश आणि फ्रेंच शैलीची जपणूक आज चारशे वर्षांनंतरही उठून दिसते. इथल्या थंड, कोरड्या हवेमध्ये सफरचंद, स्ट्रॉबेरी, चेरी अशी फळफळावळ विपुल प्रमाणात होते. उतरत्या छपरांची, लाल,  राखाडी रंगांची  घरे सभोवताली असलेल्या रंगीत फुलांच्या बागेमुळे शोभिवंत दिसतात. चार चाकांच्या घोडागाड्या प्रवाशांना घेऊन फिरत असतात. डोंगराच्या उंच कड्यावरून खाली येणारी फनीक्यूलर रेल्वे मजेशिर दिसते.क्यूबेक पासून मॉन्ट्रियलपर्यंत गेलेला रस्ता हा अठराव्या शतकातील व्यापारी व टपाल मार्ग होता. मॉन्ट्रियलला परत येताना मॉ॑टमोरेन्सी हा नायगाराहूनही अधिक उंचीवरून पडणारा धबधबा पहिला.झुलत्या अरूंद पुलावरून, डोंगराच्या या टोकावरून, धबधब्यावरून, दुसर्‍या डोंगरावर पोहोचण्याचा धाडसी खेळ तरुणाई तिथे खेळत होती. तसेच ट्रेकिंग व फिशिंगही चालू होते.

कॅनडा भाग ३ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 30 – सजल – सौगंध खाई निभाने की खूब मगर… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है दोहाश्रित सजल “सौगंध खाई निभाने की खूब मगर… । आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 30 – सजल – सौगंध खाई निभाने की खूब मगर… 

समांत -आने

पदांत -लगे हैं

मात्रा भार -२२

 

दोस्त देखकर आँखें चुराने लगे हैं ।

मित्रता की तराजू झुकाने लगे हैं।।

 

सौगंध खाई निभाने की खूब मगर,

सीढ़ियांँ जब चढ़ीं तो गिराने लगे हैं।

 

खाए कभी सुदामा ने छिपाकर चने,

गरीब को चुभे दंश रुलाने लगे हैं।

 

कन्हैया सा दोस्त,अब मिलेगा कहाँ,

प्रतीकों में बनकर लुभाने लगे हैं।

 

भूल जाने की आदत सदियों से रही ,

आज फिर नेक सपने सुहाने लगे हैं ।

 

स्वार्थ की बेड़ियों में बँथे हैं सभी,

खोटे-सिक्कों को सब भुनाने लगे हैं।

 

तस्वीरें बदली हैं इस तरह देखिए,

चासनी लगा बातें, सुनाने लगे हैं ।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 109 –“कुछ नीति कुछ राजनीति” … स्व.भवानी प्रसाद मिश्र ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है स्व.भवानी प्रसाद मिश्र जी  की पुस्तक “कुछ नीति कुछ राजनीति” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 109 ☆

☆ “कुछ नीति कुछ राजनीति” … स्व.भवानी प्रसाद मिश्र ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

कुछ नीति कुछ राजनीति

लेखक स्व.भवानी प्रसाद मिश्र

प्रति श्रुति प्रकाशन कोलकाता

मूल्य  280/- ,  पृष्ठ 128

भवानी प्रसाद मिश्र के 17 काव्य संग्रह प्रकाशित हुए थे। उनकी  पहचान एक कवि के रूप में ही हिंदी जगत में की जाती है।

वे वर्धा के महिला आश्रम में शिक्षक के रूप में कार्य कर चुके थे और उन्हें गांधी जी का सानिध्य मिला था। वह बहुत अच्छे अध्येता भी थे.. उन्होंने फ्रेडरिक केनियान, जेम्स कजंस, पी सोरोकिन जैसे अंग्रेज विचारकों की संस्कृति समाज को लेकर रची गई किताबें पढ़ी और  भारतीय परिदृश्य में गांधीवाद के विचारों के साथ उनकी विवेचना भी की। अनेक सभ्यताओं जैसे बेबिलोनिया, मेंसेपोटमिया की संस्कृति समय केे साथ मिट गई। कितु, भारत की संस्कृति अनेकों बदलाव के बीच अपनी मूल प्रवृत्ति को संभाले रही और विकसित होती रही। भारतीय दर्शन स्नेह, करुणा, विश्व मैत्री का रहा है जबकि पाश्चात्य दर्शन सुख सुविधाओं का रहा है ..  समाजवाद के दर्शन ने वर्ग विहीन समाज की कल्पना  की व इसके लिए खोजों के आधार पर अपने विचारों को दूसरे पर प्रभुत्व से स्थापित करने के लिए विनाशकारी शस्त्रों का निर्माण किया।

दुनिया के देशों को बाजार बनाया गया। संसार में अपने तथाकथित धर्म इस्लाम या ईसाई धर्म को एकमात्र विचार की तरफ फैलाने के प्रयास हो रहे हैं।  हम आज सारे संसार में सब कुछ भूलकर सुविधाएं जुटाने और उन्हें अपने लिए छीनने की जो दौड़ देख रहे हैं वह इंद्रीय प्रधान पाश्चात्य मूल्यों की देन है। आज की हमारी संस्कृति का मुख्य स्वर पारलौकिक, धार्मिक, नैतिक और सर्व हितकारी ना होकर इह लौकिक कथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक और स्वार्थ परक हो गया है।  कुछ नीति कुछ राजनीति पुस्तक में संग्रहित लेख इस विडंबना का निदान और उपचार प्रस्तुत करने का प्रयत्न करते हैं। इन लेखों को पढ़कर लगता है कि भवानी दादा एक बहुत अच्छे विचारक और दार्शनिक भी थे।

गांधी, टालस्टाय, अहिंसा, सर्वोदय, लोकतंत्र, की विशद एवं सुन्दर  व्याख्या किताब में पढ़ने को मिली।

गाँधी की परिकल्पना का भारत उस से बिल्कुल भिन्न था जिस गांधी का उपयोग आज भारत की राजनीति मे किया जा रहा है। गांधी को समझने के लिए यह किताब पढ़ने की जरुरत है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पनवाड़ी अंतिम भाग) ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है संस्मरणात्मक आलेख – “पनवाड़ी” की अंतिम कड़ी।)

☆ आलेख ☆ पनवाड़ी (अंतिम भाग) ☆ श्री राकेश कुमार ☆

समय के बदलाव के साथ ही साथ पनवाड़ियो ने भी अपने रंग ढंग बदल लिए। पहले इस व्यापार में “चौरसिया” लोग ही कार्यरत थे। पान के शौकीन अधिकतर पूर्वी राज्यों तक ही सीमित थे। धीरे धीरे उत्तर और पश्चिम दिशा में भी इसके सेवन करने वालों की संख्या में वृद्धि होती गई।

हमारा परिवार उत्तर भारत के  होने के कारण पान का सेवन नहीं करता था। सत्तर के दशक में शादी विवाह के समय जरूर इसका एक काउंटर लगता था। कॉलेज समय तक इसका स्वाद हमने नही चखा था। पान खाने वाले को “बिगड़ैल” की श्रेणी में गिना जाता था।                               

आज पनवाड़ी माहौल के अनुसार “बीटल” लिखने लग गए हैं। पान की कीमत भी दस रुपे से हज़ार तक में होती हैं। चांदी के वर्क में लिपटा हुआ “बीड़ा” कहीं कहीं सोने के वर्क में भी उपलब्ध करवाया जाता हैं। “पैसा फैंको और तमाशा देखो” बर्फ, आग के शोलों वाला पान और ना जाने कितने नए तरीकों से पान आपकी जिव्हा के स्वाद के लिए परोसा जाता हैं।               

कुछ पान वाले इसलिए भी मशहूर हो जाते हैं कि उनकी दुकान पर पान खाए हुए बड़े मंत्री पद पर आसीन हो गए हैं। उनकी पान खाते हुए की फोटो लगा कर व्यवसाय वृद्धि करते हैं, और पुरानी उधारी का जिक्र भी कर देते हैं। सही भी है, क्या बिना उधारी चुकाए ही बड़ा आदमी बना जा सकता हैं? 👄

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #134 ☆ सुज्ञ कातळ ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 134 ?

☆ सुज्ञ कातळ ☆

वंचितांसाठीच तळमळ पाहिजे

अंतरीचा बुद्ध प्रेमळ पाहिजे

 

ज्या गळाला लागते ही मासळी

जाहला तो रेशमी गळ पाहिजे

 

माणसांच्या गोठल्या संवेदना

वाटली शस्त्रास हळहळ पाहिजे

 

लष्कराच्या छावण्या येथे नको

साधुसंतांचीच वरदळ पाहिजे

 

चिंतनी एकाग्रता इतकी हवी

साधनेने गाठला तळ पाहिजे

 

कुंपनाने फस्त केले शेत तर

साक्ष देण्या एक बाभळ पाहिजे

 

नम्र हातातून घडतो देवही

त्याचसाठी सुज्ञ कातळ पाहिजे

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 84 – दोहे ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 84 –  दोहे ✍

सब कुछ तुमको मानकर, तोड़े सभी उसूल।

या पर्वत हो जाएंगे, या धरती की धूल।।

 

सांसों में तुम हो रचे, बचे कहां हम शेष।

अहम समर्पित कर दिया, करें और आदेश।।

 

नींद में निगोडी बस गई, जाकर उनके पास ।

धीरे धीरे कह गई, निर्वासन इतिहास ।।

 

जाग रही है आंख या जाग रही है पीर।

जाने कैसे नींद की, बदल गई तासीर।

 

नींद, आंख, आंसू ,सपन, जीवन के आधार ।

संजीवन की शक्ति है, प्यार, प्यार बस प्यार।।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत #87 – “नदी एक दूध की …” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “नदी एक दूध की…”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 87 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ || “नदी एक दूध की…”|| ☆

सजी हुई गहनों में

किंचित

सराफे सी तुम

 

स्वर्ण रेख नभ से

आ  गुजरी  हो

 अप्सरा स्वर्ग से आ

उतरी हो

 

गौरव की मूर्तिमति

किरण कोई

आज के

मुनाफे

सी तुम

 

नीली सन्ध्या के

घिरते -घिरते

सोम -सत्व नभ से

झरते  -झरते

 

जैसे तह खोल

बाँध जूडे पर

श्वेत शुभ्र

साफे सी

तुम

 

तारों से बूंद बूंद

बिखरी हो

नदी एक दूध की

आ संवरी हो

 

अम्बर की डाक से

अभी आये

चाँद के

लिफाफे

सी तुम

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

14-04-2022

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 133 ☆ अच्छा ही हुआ…! ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय संस्मरण “अच्छा ही हुआ…! ”।)  

☆ संस्मरण  # 133 ☆ अच्छा ही हुआ…! ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

मेरे व्यंग्य के पहले गुरु आदरणीय हरिशंकर परसाई रहे हैं, बात उन दिनों की है जब आदरणीय श्री प्रताप सोमवंशी (संप्रति -संपादक, हिन्दुस्तान, दिल्ली) के निर्देश पर मैंने स्व हरिशंकर परसाई जी से लम्बा इंटरव्यू लिया था जो इलाहाबाद की पत्रिका ‘कथ्य रूप’ में सोमवंशी जी के संपादन में छपा था। इलाहाबाद की उस पत्रिका में छपने के कुछ साल बाद परसाई जी का निधन हो गया था। इस प्रकार ये इंटरव्यू परसाई के जीवन का अंतिम इंटरव्यू रहा। बाद में परसाई जी के चले जाने के बाद इस इंटरव्यू को साभार हंस पत्रिका ने छापा था। हालांकि, कुछ मित्रों ने मुझ पर व्यंग्य भी किया था, कि आप अभी उनका इंटरव्यू न लेते तो शायद परसाई जी कुछ साल और जी लेते।

कुछ साल बाद भारतीय स्टेट बैंक, राजभाषा विभाग, मुंबई के महाप्रबंधक एवं “प्रयास” पत्रिका के संपादक डॉ सुरेश कांत के निर्देश पर मैंने ख्यातिप्राप्त व्यंग्यकार हरि जोशी जी का भोपाल में इंटरव्यू लिया, जिसको प्रयास पत्रिका में छपने हेतु भेजा। किन्तु, श्री सुरेश कांत जी के मन में उहापोह की हालत बनी रही और उन्होंने इस इंटरव्यू को पेंडिग में डाल दिया जो ‘प्रयास’ पत्रिका में छपने के लिए आज तक पेंडिग में पड़ा है। न तो स्टेट बैंक की प्रयास पत्रिका ने वापस किया और न ही ये छप पाया ।

मैं भी खुश हूँ कि अच्छा हुआ नहीं छपा… नहीं तो खामोंखा मित्र लोग मेरे ऊपर फिर से व्यंग्य करने लगते …..!

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 77 ☆ # मुक्ति की नई सुबह # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं भावप्रवण कविता “# मुक्ति की नई सुबह #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 77 ☆

☆ # मुक्ति की नई सुबह # ☆ 

इस क्रांति सूर्य  ने

नयी रोशनी लाई है

“बाबा” ने हम सबको

जीने की राह दिखाई है

 

तू तोड़ दें बेड़ियां पावों की

तू मत कर आशा इनसे छावों की

इन्होंने ही तों हमें

सदियों से छला है

हमारा समाज, हर पल

हर दिन जला है

अब हमने इन जंजीरों कों

तोड़ने की कसम खाई है

बाबा ने हम सबको

जीने की राह दिखाई है

 

तू कब से अंधकार में सोया है

तूने सब कुछ इसलिए तो खोया है

तू जाग जा अभी भी वक्त है

माना रास्ते बड़े कठिन

और सख्त हैं

वो पिछड़ गया

जिसने देर लगाई है

बाबा ने हम सबको

जीने की राह दिखाई है

 

तू निर्भीक होकर चला

तो चांद तारे साथ चलेंगे

एक सूर्य क्या पथिक

अनेक सूर्य राह में जलेंगे

रोशनी ही रोशनी होगी

तेरे पथ पर

कांप जायेगी यह कायनात

जब तू सवार होगा रथ पर

तू आवाज बुलंद कर

तेरा रूप देख धरती भी थर्राई है

बाबा ने हम सबको

जीने की राह दिखाई है

 

यह “नीली” रोशनी जब

घर घर में जल जायेगी

आभामंडल में दूर तलक

नयी उमंग, नयी चेतना लायेगी

टुकड़े टुकड़े में बिखरे हुए साथी भी

जब साथ में आ जायेंगे

भटके हुए सभी साथी लोग

जब एक हो हाथ मिलायेगें

तब देखना-

इस नयी सुबह ने,

मुक्ति की नई

ज्योत जलाई है

बाबा ने हम सबको

जीने की राह दिखाई है

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे #78 ☆ गंध मातीचा… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 78 ? 

☆ गंध मातीचा… ☆

गंध मातीचा, हृदयस्पर्शी

गंध मातीचा, मातृस्पर्शी

 

गंध मातीचा, सप्तरंगी

गंध मातीचा, चिरा चौरंगी

 

गंध मातीचा, मनास भुलवी

गंध मातीचा, तेज वाढवी

 

गंध मातीचा, मातृस्पर्श जैसा

गंध मातीचा, मोगरा फुलला तैसा…

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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