हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 95 – अभागा राजा और भाग्यशाली दास ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #95 🌻 अभागा राजा और भाग्यशाली दास 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक बार एक गुरुदेव अपने शिष्य को अहंकार के ऊपर एक शिक्षाप्रद कहानी सुना रहे थे।

एक विशाल नदी जो कि सदाबहार थी उसके दोनो तरफ दो सुन्दर नगर बसे हुये थे! नदी के उस पार महान और विशाल देव मन्दिर बना हुआ था! नदी के इधर एक राजा था। राजा को बड़ा अहंकार था । वह कुछ भी करता तो अहंकार का प्रदर्शन करता। वहाँ एक दास भी था, बहुत ही विनम्र और सज्जन!

एक बार राजा और दास दोनो नदी के वहाँ गये राजा ने उस पार बने देव मंदिर को देखने की इच्छा व्यक्त की दो नावें थी रात का समय था एक नाव मे राजा सवार हुआ और दूजे मे दास सवार हुआ। दोनो नाव के बीच मे बड़ी दूरी थी!

राजा रात भर चप्पू चलाता रहा पर नदी के उस पार न पहुँच पाया सूर्योदय हो गया तो राजा ने देखा की दास नदी के उसपार से इधर आ रहा है! दास आया और देव मन्दिर का गुणगान करने लगा तो राजा ने कहा की तुम रात भर मन्दिर मे थे! दास ने कहा की हाँ और राजाजी क्या मनोहर देव प्रतिमा थी पर आप क्यों नही आये!

अरे मैंने तो रात भर चप्पू चलाया पर …..

गुरुदेव ने शिष्य से पुछा वत्स बताओ की राजा रातभर चप्पू चलाता रहा पर फिर भी उस पार न पहुँचा? ऐसा क्यों हुआ? जब की उस पार पहुँचने मे एक घंटे का समय ही बहुत है!

शिष्य – हॆ नाथ मैं तो आपका अबोध सेवक हुं मैं क्या जानु आप ही बताने की कृपा करे देव!

ऋषिवर – हॆ वत्स राजा ने चप्पू तो रातभर चलाया पर उसने खूंटे से बँधी रस्सी को नही खोला!

और इसी तरह लोग जिन्दगी भर चप्पू चलाते रहते है पर जब तक अहंकार के खूंटे को उखाड़कर नही फेकेंगे आसक्ति की रस्सी को नही काटेंगे तब तक नाव देव मंदिर तक नही पहुंचेगी!

हॆ वत्स जब तक जीव स्वयं को सामने रखेगा तब तक उसका भला नही हो पायेगा! ये न कहो की ये मैने किया ये न कहो की ये मेरा है ये कहो की जो कुछ भी है वो सद्गुरु और समर्थ सत्ता का है मेरा कुछ भी नही है जो कुछ भी है सब उसी का है!

स्वयं को सामने मत रखो समर्थ सत्ता को सामने रखो! और समर्थ सत्ता या तो सद्गुरु है या फिर इष्टदेव है , यदि नारायण के दरबार मे राजा बनकर रहोगे तो काम नही चलेगा वहाँ तो दास बनकर रहोगे तभी कोई मतलब है!

जो अहंकार से ग्रसित है वो राजा बनकर चलता है और जो दास बनकर चलता है वो सदा लाभ मे ही रहता है!

इसलिये नारायण के दरबार मे राजा नही दास बनकर चलना!

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 108 – मोहात दंगतो हा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 108 – मोहात दंगतो हा ☆

 

मोहात दंगतो हा

प्रेमास साहतो हा

 

घेऊन आस खोटी

सत्यास जाळतो हा

 

खोटीच स्वप्न सारी

नित्यास पाहतो हा

 

तोडून प्रेम धागे

रूपास भाळतो हा

 

शोधात त्या परीच्या

राणीस टाळतो हा

 

गेली परी निघोनी

भोगास भोगतो हा

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #138 ☆ सब्र और ग़ुरूर ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख सब्र और ग़ुरूरयह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 138 ☆

☆ सब्र और ग़ुरूर

‘ज़िंदगी दो दिन की है।  एक दिन आपके हक़ में और एक दिन आप के खिलाफ़ होती है। जिस दिन आपके हक़ में हो, ग़ुरूर मत करना और जिस दिन खिलाफ़ हो, थोड़ा-सा सब्र ज़रूर करना।’ सब दिन होत समान अर्थात् समय परिवर्तनशील है; पल-पल रंग बदलता है। इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति सुख में कभी फूलता नहीं; अपनी मर्यादा व सीमाओं का उल्लंघन नहीं करता तथा अभिमान रूपी शत्रु को अपने निकट नहीं फटकने देता, क्योंकि अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। वह दीमक की तरह बड़ी से बड़ी इमारत की जड़ों को खोखला कर देता है। उसी प्रकार अहंनिष्ठ मानव का विनाश अवश्यंभावी होता है। वह दुनिया की नज़रों में थोड़े समय के लिए तो अपना दबदबा क़ायम कर सकता है, परंतु एक अंतराल के पश्चात् वह अपनी मौत स्वयं मर जाता है। लोग उसके निकट जाने से भी गुरेज़ करने लगते हैं। इसलिए मानव को इस तथ्य को सदैव अपने ध्यान में रखना चाहिए कि ‘सुख के सब साथी दु:ख में न कोय।’ सो! मानव को सुख में अपनी औक़ात को सदैव स्मरण में रखना चाहिए, क्योंकि सुख सदैव रहने वाला नहीं। वह तो बिजली की कौंध की मानिंद अपनी चकाचौंध प्रदर्शित कर चल देता है

इंसान का सर्वश्रेष्ठ साथी उसका ज़मीर होता है; जो अच्छी बातों पर शाबाशी देता है और बुरी बातों पर अंतर्मन को झकझोरता है। किसी ने सत्य ही कहा है कि ‘हां! बीत जाती है सदियां/ यह समझने में/ कि हासिल करना क्या है? 

जबकि मालूम यह भी नहीं/ इतना जो मिला है/ उसका करना क्या है?’ यही है हमारे जीवन का कटु यथार्थ। हम यह नहीं जान पाते कि हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है; हम संसार में आए क्यों हैं और हमारे जीवन का प्रयोजन क्या है? इसलिए कहा जाता है कि अच्छे दिनों में आप दूसरों की उपेक्षा मत करें; सबसे अच्छा व्यवहार करें तथा इस बात पर ध्यान केंद्रित करें कि सीढ़ियां चढ़ते हुए बीच राह चलते लोगों की उपेक्षा न करें, क्योंकि लौटते समय वे सब आपको दोबारा अवश्य मिलेंगे। सो! अच्छे दिनों में ग़ुरूर से दूर रहने का संदेश दिया गया है।

जब समय विपरीत दिशा में चल रहा हो, तो मानव को थोड़ा-सा सब्र अथवा संतोष अवश्य रखना चाहिए, क्योंकि यह सुख वह आत्म-धन है; जो हमारी सकारात्मक सोच को दर्शाता है। इसलिए दु:ख को कभी अपना साथी मत समझिए, क्योंकि सुख-दु:ख दोनों मेहमान हैं। एक के जाने के पश्चात्  ही दूसरा दस्तक देता है। इसलिए कहा जाता है कि जो सुख में साथ दें, रिश्ते होते हैं/ जो दु:ख में साथ दें, फरिश्ते होते हैं।’ विषम परिस्थितियों में कोई कितना ही क्यों न बोल; स्वयं को शांत रखें, क्योंकि धूप कितनी तेज़ हो; समुद्र को नहीं सुखा सकती।  सो! अपने मन को शांत रखें; समय जैसा भी है– अच्छा या बुरा, गुज़र जाएगा।

विनोबा भावे के अनुसार ‘जब तक मन नहीं जीता जाता और राग-द्वेष शांत नहीं होते; तब तक मनुष्य इंद्रियों का गुलाम बना रहता है।’ सो! मानव को स्व-पर व राग-द्वेष से ऊपर उठना होगा। इसके लिए वाशिंगटन उत्तम सुझाव देते हैं कि ‘अपने कर्त्तव्य में लगे रहना और चुप रहना बदनामी का सबसे अच्छा जवाब है।’ हमें लोगों की बातों की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए, क्योंकि लोगों का काम तो दूसरों के मार्ग में कांटे बिछा कर पथ-विचलित करना है। यदि आप कुछ समय के लिए ख़ुद को नियंत्रित कर मौन का दामन थाम लेते हैं और तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देते, तो उसका परिणाम घातक नहीं होता। क्रोध तो दूध के उफ़ान की भांति आता है; जो पल भर में शांत हो जाता है। सो! मौन रह कर अपने कार्य को सदैव निष्ठा से करें और व्यस्त रहें– यही सबसे कारगर उपाय है। इस प्रकार आप निंदा व बदनामी से बच सकते हैं। वैसे भी बोलना एक सज़ा है। इसलिए मानव को यथा-समय, यथा-स्थान उचित बात कहनी चाहिए, ताकि हमारी प्रतिष्ठा व मान-सम्मान सुरक्षित रह सके। सच्ची बात यदि मर्यादा में रहकर व मधुर भाषा में बोल कर कहें, तो सम्मान दिलाती है; वरना कलह का कारण बन जाती है। ग़लत बोलने से मौन रहना श्रेयस्कर है और यही समय की मांग है। दूसरे शब्दों में वाणी पर नियंत्रण व मर्यादापूर्वक वाणी का प्रयोग मानव को सम्मान दिलाता है तथा इसके विपरीत आचरण निरादर का कारण बनता है। 

कबीरदास के मतानुसार ‘सबद सहारे बोलि/ सबद के हाथ न पांव/ एक सबद करि औषधि/ एक सबद करि घाव’ अर्थात् वाणी से निकला एक कठोर शब्द घाव करके महाभारत करा सकता है तथा वाणी की मर्यादा में रहकर बड़े-बड़े युद्धों पर नियंत्रण किया जा सकता है। आगे चलकर वे कहते हैं कि ‘जिभ्या जिन बस में करी/ तिन बस किये जहान/ नहीं तो औगुन उपजै/ कहें सब संत सुजान।’ इस प्रकार मानव अपने अच्छे स्वभावानुसार बुरे समय को टाल सकता है। दूसरी ओर ‘जे आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान।’ रहीम जी का यह दोहा भी मानव को आत्म-संतुष्ट रहने की सीख देता है। मानव को किसी से अपेक्षा नहीं करनी चाहिए, बल्कि जो मिला है अर्थात् प्रभु प्रदत्त कांटों को भी पुष्प-सम मस्तक से लगाना चाहिए और प्रसाद समझ कर ग्रहण करना चाहिए। 

भगवद्गीता का यह संदेश अत्यंत सार्थक है कि ‘जो हुआ है, जो हो रहा है और जो होगा निश्चित है।’ इसमें मानव कुछ नहीं कर सकता। इसलिए उसे नतमस्तक हो स्वीकारना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि ‘होता वही है जो मंज़ूरे ख़ुदा होता है।’ सो! उस परम सत्ता की रज़ा को स्वीकारने के अतिरिक्त मानव के पास कोई विकल्प नहीं है।

मीठी बातों से मानव को सर्वत्र सुख प्राप्त होता है और कठोर वचन का त्याग वशीकरण मंत्र है। तुलसी का यह कथन अत्यंत सार्थक है। मानव को अपनी प्रशंसा सुन कर कभी गर्व नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह आपकी उन्नति के मार्ग में बाधक है। इसलिए कठोर वचनों का त्याग वह  वशीकरण मंत्र है; जिसके द्वारा आप दूसरों के हृदय पर आधिपत्य स्थापित कर सकते हैं। सो! जीवन में मानव को कभी अहम् नहीं करना चाहिए तथा जो मिला है ; उसी में संतोष कर अधिक की कामना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह मार्ग हमें पतन की ओर ले जाता है। दूसरे शब्दों में वह हमारे हृदय में राग-द्वेष के भाव को जन्म देता है और हम दूसरों को सुख-सुविधाओं से संपन्न देख उनसे ईर्ष्या करने लग जाते हैं तथा उन्हें नीचा दिखाने के अवसर तलाशने में लिप्त हो जाते हैं। दूसरी ओर हम अपने भाग्य को ही नहीं, प्रभु को भी  कोसने लगते हैं कि उसने हमारे साथ वह अन्याय क्यों किया है? दोनों स्थितियों में इंसान ऊपर उठ जाता है और उसे वही मनोवांछित फल प्राप्त होता है और वह जीते जी आनंद से रहता है। ग़मों की गर्म हवा का झोंका उसका स्पर्श नहीं कर पाता।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #137 ☆ ख्वाब में कितना मीठापन… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  आपकी एक भावप्रवण रचना “ख्वाब में कितना मीठापन…।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 137 – साहित्य निकुंज ☆

☆ ख्वाब में कितना मीठापन… 

वादा करके किधर गये

उससे क्या तुम मुकर गये।

 

बीत गई है सदिया सारी

दिन इंतजार में गुजर गए ।

 

ख्वाब में कितना मीठापन

आँख खुली तो बिखर गये।

 

जिनके चेहरे पर मुखौटा

वे सारे ही चेहरे उतर गये।

 

तुमसे सारी ही है उम्मीदे

उनके सब चेहरे सवंर गये।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : bhavanasharma30@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #126 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत हैं   “संतोष के दोहे… । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 126 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

एक रँग एक रूप हैं, पर हैं नाम अनेक

इश्क़, मुहब्बत, प्यार, वफ़ा, लगे प्रेम पर नेक

 

बहता दरिया प्रेम का, जिसका ओर न छोर

शीतल करता दिल वही, किये बिना कुछ शोर

 

चढ़िए मंज़िल इश्क़ की, पहली सीढ़ी नैन

कदम कभी रुकते नहीं, कभी न आता  चैन

 

व्हाट्सऐप पर कहें, अपने दिल की बात

फेसबुक पर दिखा रहे, झूठे सब जज्बात

 

दिखतीं इंस्टाग्राम पर, मन मोहक तसवीर

कितनी सच्ची-झूठ हैं, खींचें कौन लकीर

 

जाने कैसे पनपता, यह मायाबी प्यार

आया सोशल मीडिया, ले कर नव उपहार

 

लिवरिलेशन प्यार बढ़ा, रहा न नीति विचार

मात-पिता दर्शक बने, खूब हुए लाचार

 

बदल गए अब मायने, प्यार हुआ बदनाम

मर्यादाएं भंग हुईं, करते खोटे काम

 

मुख से जो बोले नहीं, करे नैन से बात

समझें बस प्रेमी सभी, कहे बिना जज्बात

 

सच्चे प्रेमी यूँ रहें, जैसे जल में मीन

बिछुरत ही तडफें सदा, प्राण गए ज्यूँ छीन

 

प्रेमी ऐसे मिल रहे, जैसे हल्दी चून

इक दूजे में खो गए, ख़ुशियाँ होती दून

 

मीठा लगता शहद सा, पहला पहला प्यार

खुशी मिले “संतोष” सँग, हर्षित हों सब यार

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #130 – ☆ संत तुकडोजी ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 130 – विजय साहित्य ?

☆ संत तुकडोजी ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

इंगळे कुलात | संत तुकडोजी |

माणिक बंडोजी | महाराज ||. १

 

माऊली मंजुळा | वडील बंडोजी |

गुरू आडकोजी | यावलीत || २

 

ग्राम विकासाचा| घेऊनीया ध्यास |

विवेकाची कास | पदोपदी || ३

 

स्वयंपूर्ण खेडे | सुशिक्षित ग्राम |

ग्रामोद्योग धाम | आरंभीलें || ४

 

सार्थ समन्वय | ऐहिक तत्त्वांचा |

पारलौकीकाचा | उपदेश || ५

 

खंजिरी भजन | राष्ट्रसंत मान |

संस्कारांचे वाण | तुकडोजी || ६

 

व्यसना धीनता | काढलीं मोडून |

घेतली जोडून | तरुणाई || ७

 

शाखोपशाखांचे | गुरू कुंज धाम |

सुशिक्षित ग्राम | सेवाव्रत || ८

 

नको रे दास्यात | नको अज्ञानात |

नारी प्रपंचात | पायाभूत || ९

 

कुटुंब व्यवस्था | समाज व्यवस्था  |

राष्ट्रीय व्यवस्था | शब्दांकित || १०

 

नको अंधश्रद्धा | सर्व धर्म एक |

विचार हा नेक | रूजविला || ११

 

कालबाह्य प्रथा | केलासे प्रहार |

विवेकी विचार | अभंगात || १२

 

एकात्मता ध्यास | केले प्रबोधन |

दिलें तन मन | अनुभवी || १३

 

लेखन विपुल | कार्य केले थोर |

राष्ट्र भक्ती दोर | तुकडोजी || १४

 

कार्य अध्यात्मिक | आणि सामाजिक |

साहित्य वैश्विक | ग्रामगीता || १५

 

कविराज लीन | टेकविला माथा |

तुकडोजी गाथा | वर्णियेली || १६

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 105 ☆ कोशिशों की कशिश ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “कोशिशों की कशिश”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 105 ☆

☆ कोशिशों की कशिश ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

संवेदना की वेदना को सहकर सफ़लता का शीर्ष तो मिलता है पर सुकून चला जाता है  लेकिन फिर भी हम दौड़े  जा रहे हैं एक ऐसे पथ पर जहाँ के आदि अंत का पता नहीं। अपनी फोटो को अखबारों में देखकर जो सुकून मिलता है क्या उसे किसी पैरामीटर में नापा जा सकता है। अखबारों की कटिंग इकठ्ठा करते हुए पूरी उम्र बीत गयी किन्तु आज तक मोटिवेशनल कॉलम लिखने को नहीं मिला  और मिलेगा भी नहीं क्योंकि जब तक विजेता का टैग आपके पास नहीं होगा तब तक कोई पाठक वर्ग आपको भाव नहीं देगा।

माना अच्छा लिखना और पढ़ना जरूरी होता किन्तु प्रचार- प्रसार की भी अपनी उपयोगिता होती है। कड़वा बोलकर जो आपकी उन्नति का मार्ग बनाता  वो सच्चा गुरु होता है, बिना दक्षिणा लिए आपको जीवन का पाठ पढ़ा देते हैं। ऐसे कर्मयोगी समय- समय पर राह में शूल  की तरह चुभते हैं  , ये आप पर है कि आप उसे फूल के रक्षक के रूप में देखते हैं या काँटे की चुभन को ज्यादा प्राथमिकता देकर विकास का मार्ग अवरुद्ध कर लेते हैं।

बातों ही बातों में रवि , कवि,  अनुभवी से भी बलवान मतलबी निकला  जो अपने स्वार्थ पूर्ति हेतु कुछ भी कर सकता है,  कुछ भी सह सकता है  पर सफलता का स्वाद नहीं भूल सकता।

बहुत ही  सच्ची और अच्छी बात जिसने भी ये लिखा अवश्य ही वो ज्ञानी विज्ञानी है। ध्यान से चिन्तन करें तो पायेंगे कि जैसी हमारी मनोदशा होती है वैसे ही शब्दों के भाव हमें दिखने लगते हैं यदि मन प्रसन्न है तो सामने वाला जो भी बोलेगा हमें मीठा ही लगेगा किन्तु यदि मन अप्रसन्न है तो सीधी बात भी उल्टी लगती है और बात का बतंगड़ बन झगड़ा शुरू हो  जाता है।मजे की बात जब जेब में पैसे की गर्मी हो तो वाणी अंगारे उगलने से नहीं चूकती है। बस सारी हकीकत सामने आते हुए समझौते को नकार कर केवल अपने सिक्के को चलाने का जुनून सिर पर सवार हो जाता है। लगातार कार्य करते रहें तो अवश्य ही मील का पत्थर बना जा सकता है। केवल थोड़े दिनों की चमक में गुम होने से आशानुरूप परिणाम नहीं मिलते। जो भी करें करते रहें। जब समाज के हितों की बात होगी तो राह और राही दोनों मिलने लगेंगे। बस सबको साथ लेकर आगे चलें, लीडर का गुण आगे बढ़ते हुए सारी जिम्मेदारी को अपने ऊपर लेकर महत्वपूर्ण निर्णयों पर एक सुर से आवाज उठाना होता है।

अंततः यही कहा जा सकता है कि धैर्य रखें, हमेशा सकारात्मक चिन्तन करें। सफ़लता स्थायी नहीं होती अतः कर्म करते रहें  और  तन मन धन से समर्पित हो  सबके  मार्ग को सहज बनावे। आप कर्ता नहीं हैं केवल कर्मयोगी हैं कर्ता मानने की भूल ही आपको अवसाद के  मार्ग तक पहुँचा देने में सक्षम है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, chhayasaxena2508@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ ‘अनहद नाद’ – सुश्री भावना शर्मा ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है सुश्री भावना शर्मा जी  की पुस्तक  अनहद नाद” की पुस्तक समीक्षा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘अनहद नाद’ – सुश्री भावना शर्मा ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

पुस्तक- अनहद नाद

कवियित्री- भावना शर्मा

प्रकाशक- साहित्यागार, धामणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता, जयपुर-302006 मोबाइल नंबर 94689 43311

पृष्ठ संख्या- 130 

मूल्य- ₹250

समीक्षक- ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

☆ काव्य में गूंजता अनहद नाद – ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

भावों का रेचन ही साहित्य की उत्पत्ति का मूल है। साहित्य अपने भावों को व्यक्त करने के लिए मनोगत प्रवाह को ढूंढ लेता है। यदि मनोगत भाव कथा, कहानी, व्यंग्य, हास्य, कविता, मुक्तक, दोहे, सोरठे के अनुरूप होता है उसी में साहित्य सर्जन की लालसा उत्पन्न हो जाती है। तदुनुरूप रचनाकार की लेखनी चल पड़ती है।

इस मायने में भाव का रेचन यदि काव्यानुरूप हो तो काव्य पंक्तियां रचती चली जाती है। इस रूप में भावना शर्मा की प्रस्तुत पुस्तक अनहद नाद की चर्चा अपेक्षित है। पेशे से शिक्षिका भावना शर्मा एक बेहतरीन शिक्षिका होने के साथ-साथ भाव की अभिव्यक्ति को सशक्त ढंग से व्यक्त करने वाली कवियित्री भी है।

कवि हृदय बहुत कोमल कांत और धीरगंभीर होता है। उन्हें भावना, संवेदनहीन शब्द और करारा व्यंग्य अंदर तक सालता रहता है। यही विद्रूपताएं, विसंगतिया और सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक, असंगति उन्हें अंदर तक प्रभावित करती है। तभी अनहद नाद जैसी काव्य पुस्तक सृजित हो पाती है।

प्रस्तुत पुस्तक में 105 कविताओं में कवियित्री ने अपनी पीड़ा को व्यक्त किया है। आपने प्रकृति, जीव-जंतु, मानव, गीत-संगीत, घर-परिवार, मित्र-साथी, दोस्त, लड़का-लड़की, सपने, धुन, भाव-विभाव, चाहत, आशा-निराशा, मौसम, सपने, पशु-पक्षी यानी हर पहलू पर अपनी कलम चलाई है।

ना भूल जाने की कैफियत हूं

ना याद आने का जलजला।

कभी बरसों से पड़ी धूल हूं 

कभी रोज का सिलसिला ।।

कवियित्री कहती है-

कभी बात को कभी सवालात को

कभी मुस्कुराहट में छुपे हालात को

समझ जाना मायने रखता है।

भावों की जितनी सरलता, सहजता इन की कविता में है उतनी ही सरलता और सहजता उनकी भाषा में भी है।

उन अधबूनी चाहतों को

मैं यूं आजमाना चाहती हूं।

तेरी अंगुलियों को सहेज कर हाथों में 

मैं मुस्कुराना चाहती हूं।।

जैसी सौंदर्य से परिपूर्ण और काव्य से भरपूर इस पुस्तक के काव्य सौंदर्य की जितनी प्रशंसा की जाए उतनी कम है। 130 पृष्ठों की पुस्तक का मूल्य ₹200 वाजिब है । साफ-सफाई, साज-सज्जा व त्रुटि रहित मुद्रण ने पुस्तक की उपयोगिता में वृद्धि की है।

काव्य साहित्य में कवियित्री अपनी पहचान बनाने में सक्षम होगी। यही आशा है।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

30-03-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – opkshatriya@gmail.com

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 167 ☆ कविता – हरितमा फूल फल लकड़ी और आक्सीजन… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता – हरितमा फूल फल लकड़ी और आक्सीजन… ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 167 ☆

? कविता – हरितमा फूल फल लकड़ी और आक्सीजन… ?

रोप पोस कर पौधे, अनगिन हरे भरे

अपनी जमीं को चूनर, हरी ओढ़ानी है

 

होंगे संकल्प सारे हमारे फलीभूत

हम प्रयास तो करें, सफलता आनी है

 

जब खरीदा, इक सिलेंडर आक्सीजन

तब  वृक्षों की कीमत उसने जानी है

 

जहाँ अंकुरण बीजों का है  संभव

ब्रम्हाण्ड में सारे, धरा यही वरदानी है

 

घाटियां गहराईयां, ऊँचाईयां पाषाण की

वादियां होंगी हरी,  हमने यह ठानी है

 

आसमां से ऊपर, नीले अंतरिक्ष से

दिखेगा हरा जो नक्शा, वो हिंदुस्तानी है

 

वृक्ष झीलें, चूनर में टंके सलमा सितारे

कुदरत की मस्ती  उसकी कारस्तानी है

 

इंद्र ले सतरंगा धनुष, अब जब कभी आये

पाये पहाड़ो पर  हरियाली, ये ही कहानी है

 

बांस के हरे वन और साल के घने जंगल

लगाये होंगे किसने , ये उसकी मनमानी है

 

हरितमा फूल फल लकड़ी और आक्सीजन

हुआ हिसाब तब समझा कि पौधा दानी है

 

वृक्षों से वन हैं वनों से पशु , पशु से प्रकृति 

काट रहे हैं जो जंगल ये उनकी नादानी है

 

अरसे से रहा  जंगल में जंगल के साथ 

जंगल के बारे में आदिवासी ज्यादा ज्ञानी है

 

योग  सिखाता बेहतर जीवन की शैली

वृक्ष बताते वृक्षासन  अपनाना आसानी है

 

पर्यावरण संतुलन, मतलब जलवायु का साथ

याद रखना , वृक्ष हैं पर्यावरण है , तो पानी है

 

नकली पौधे  फूल सजावट वाले कागज के

हर घर पौधे रोपें जाये ऐसी जुगत लगानी है

 

बस फोटो और अखबार में  न हो वृक्षारोपण

बंजर जमीन पर हरी चादर सचमुच बिछानी है

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 115 ☆ गीत – बलिदानी और सेनानी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 115 ☆

☆ गीत – बलिदानी और सेनानी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

होते हैं बलिदान रोज ही

तब यह अपना देश बचा है।

बलिदानी औ’ सेनानी ने

नया सदा इतिहास रचा है।।

 

अनगिन माताओं के आँसू

सागर बनकर पीता हूँ ।

सदा लाड़ले बच्चों को मैं

गोदी लेकर जीता हूँ।

 

छिपे देश के दुश्मन जो हैं

उनको शायद नहीं पता है।।

होते हैं बलिदान रोज ही

तब यह अपना देश बचा है।।

 

नए – नए संग्राम बढ़ रहे

कुर्सी सत्ता की खातिर।

जो भी सत्य सनातन कहता

उनकी नजरों में काफिर।

 

जागो आर्यो बहुत सो लिए

वेदों का अब बिगुल बजा है।

होते हैं बलिदान रोज ही

तब यह अपना देश बचा है।।

 

आपस में जब बँटे देश का

बँटवारा हो जाता है।

जागें जो रणधीर देश हित

दुश्मन भी थर्राता है।

 

स्वाभिमान का रक्त रगों में

कहती हमसे सदा अजा है।

होते हैं बलिदान रोज ही

तब यह अपना देश बचा है।।

 

जाति, क्षेत्र छोटी सोचों में

सदा देश की हानि हुई है।

भेदभाव जब किया सत्य में

कर्तव्यों की बली चढ़ी है।

 

करते हैं कमजोर देश जो

निश्चित मिलती उन्हें सजा है।

होते हैं बलिदान रोज ही

तब यह अपना देश बचा है।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

Rakeshchakra00@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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