मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ हसताय ना! ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ हसताय ना! ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

…. काय मंडळी हसताय ना? हसलेच पाहिजे. तुमच्या टेन्शन वरची मात्रा,  ईनोदाचे चारवार हास्याचा चौकार. चमत्कृतीचा ईनोद नि शाब्दिक कसरतीवर शारीरिक चमत्कारिक अंगविक्षेप अश्या अनेक क्लुप्त्या दाखवून हसायला लावणारे अनेक टि. व्ही. कार्यक्रम सतत चौवीस तास डोळ्याना सुखवत मुखाला हसवत असतात… दुसऱ्याच्या व्यंगावर (वर्मावर टिप्पणी करून) केलेला विनोदाला हसणे हा मनुष्याचा नैसर्गिक स्वभावच असतो नाही का? रस्त्यावरुन चालणारा अचानक पाय घसरुन पडला तर सगळया पहिले हासतो ते आपण… फजिती, विचका झाल्याचा विकृत आनंदच तो असतो आपल्या हास्यातून बाहेर पडतो.. पण ते का खरे निखळ हसणे असते..पू्र्वी सर्कस येत असत त्यात विविध जोकर उलट्या सुलट्या उड्या आणि कसरती द्वारे प्रेक्षकांना हसवत असत… मेरा नाम जोकर सिनेमा पाहिलेला तुम्हाला आठवत असेलच.. जो माणूस आतून खरोखर दुःखात बुडालेला असतो तोच चेहऱ्यावर आपलं दुख लपवून दुसऱ्याला जास्त हसवत असतो हे ही आपल्याला ठाऊक आहेच की… पण खरी गोष्ट अशी आहे की तो आपल्याला हसवत नसून तो आपल्या आतल्या दु:खावरच हसण्याचा उपाय करत असतो.. हसण्यासाठी जन्म आपुला हे वाक्य जो सतत जपत राहतो त्याच्या पुढे सगळी संकटे दु:ख चार हात लांबच राहू पाहतात. साहित्यिक हलके फुलके नर्म विनोद सगळ्या वाचकांना हसवत असतात, व्यंग चित्र, अभिनयातून साधलेले विनोद, ही सारी उदाहरणे निखळ हास्य निर्माण करतात.. ती अक्षर कलाकृती अक्षय आनंदाचं हास्य फुलवित असते. म्हणून आजही भाईंची सगळी पुस्तकं तेच हास्य देत असतात.. धीरगंभीर प्रवृत्तीच्या लोकांना  विनोदाचं वावडे असल्याने ते तर कधीच हासत नाहीत नि दुसऱ्यालाही हसवत नाहीत.. पण काही काही वेळा तीच माणसं हसण्याचा विषय होउन बसतात… मग हिच माणसं टवाळा आवडे विनोद म्हणून हाकाटी पिटत बसतात…दैनंदिन जीवनातील कंटाळवाणे, नीरस धबगडयात मनोरंजनासाठी चार हास्याचे कण मिळावेत म्हणून तर सिनेमा,नाटक, टि. व्ही. वरील कार्यक्रम  पाहिले जातात..तसं पाहिलं तर विनोदाला कुठलाच विषय वर्ज्य नाही..आदी नाही अंतही नाही… पण ताळतंत्र सुटलेला विनोद हास्य निर्माण करत नाही तर त्या विनोदाची कीव करायला लावतो… हसणं हा जन्मजात गुण मानवाला मिळालेला असून तो आबालवृद्धा़ना  तितकाच हवाहवासा असतो..स्त्रियांवर तर विनोदाला कळस गाठला जातो.तसा नवरोजीही यातून सुटलेला नसतो बरं… थोडक्यात काय विनोदाला जळी स्थळी काष्ठी पाषाणी सर्व स्पर्शी असल्याने ते ज्याला लुभावते तोच त्यातून हासू निर्माण करतो… स्वता हसतो नि दुसऱ्याला हसवतो..

… आताच्या काळात तो जूना शब्द प्रयोग ‘हसावे कि रडावे’ आता कुचकामी ठरला आहे.. आता फक्त हसतच राहावे असे वाटते…हल्लीचे राजकारण त्यात अग्रेसर आहे.. त्यामुळे सर्कस, सिनेमा, नाटक बंद पडली आहेत… एकापेक्षा एक धुरंधर विदूषक आपली विनामूल्य मनोरंजनातून हसवत असतात.. मेडिया त्याचं विस्ताराने प्रसिद्धी करण करत असतो, पेपर तर पहिल्या पानापासून ते शेवटच्या पाना पर्यंत विनोदाची विविधता पेरूनच असतो..

… एव्हढी सगळी साधने तुम्हा आम्हाला सतत हसत राहा म्हणून कानीकपाळी ओरडून सांगत असताना आपण हसयाचं नाही?…टिआरपी वाढण्यासाठी तरी आपल्याला हसायला हवं ना?… मग

…. काय मंडळी हसताय ना? हसलेच पाहिजे. तुमच्या टेन्शन वरची मात्रा,  ईनोदाचे चारवार हास्याचा चौकार…

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470.

ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 131 ☆ गीत – संगीत में बसी दुनिया ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “गीत – संगीत में बसी दुनिया। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 131 ☆

☆ गीत – संगीत में बसी दुनिया ☆ 

भाषा के महत्व को सभी पहचानते हैं। जब हम किसी ऐसे प्रदेश में हों जो अहिन्दी भाषी हो तो वहाँ अपनी बात चेहरे के भावों से या धुन के द्वारा बतानी होती है। आज भी हम बड़े शान से अंग्रेजी बोलते हुए स्वयं को इंटरनेशनल घोषित करना नहीं भूलते हैं। सोचिए जब कोई अन्य भाषा वाला हिंदी प्रदेशों में आता है तो उसे कैसे संवाद का हिस्सा बनाया जाए। इस सम्बंध में एक वाकया याद आ रहा है, उच्चवर्गीय पार्टी में सभी प्रदेशो से लोग आमंत्रित थे। सब तो भारतीय होने के नाते हिंदी को समझ रहे थे किंतु दक्षिण भारतीय लोग थोड़ा कम घुल मिल पा रहे थे, भाषा की समस्या उनसे जुड़ने में बाधक हो रही थी। इस बात को आर्केस्ट्रा वालों ने बहुत जल्दी भाँप लिया , बस फिर क्या था उन्होंने दक्षिण भारतीय फिल्मों का हिट संगीत  बजाना शुरू कर दिया। अब तो वो परिवार भी मुस्कुराने लगा, चेहरे पर संतृप्ति का भाव देखते ही उनको बुलाया गया कि वे इस गीत को स्वर दें, देखते ही देखते पूरी पार्टी थिरक उठी अब तो वहाँ ऐसा कोई नहीं बचा जो झूम न रहा हो।

इस सबसे एक बात तो तय है कि वास्तव में गीत- संगीत अपनी लय से हमें जोड़े रखता है। अर्थ समझ में भले न आये किन्तु ताल से ताल मिलाते हुए कदम थिरकने ही लगते हैं। पूरे विश्व को भारतीय फिल्में जोड़ रहीं हैं अपनी सम्प्रेषण क्षमता के कारण। हमें अपने कथ्यों पर भी नजर रखनी चाहिए क्योंकि पूरी दुनिया हमें उम्मीद भरी निगाहों से देख रही है।

अन्ततः यही कहा जा सकता है कि सकारात्मकता से सब कुछ सम्भव है बस जुड़े रहिए कुछ सीखने के लिए। मन को पढ़ने की कला जिसको आ गयी उसे सफल होने से कोई नहीं रोक सकता है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 188 ☆ व्यंग्य  – व्यंग्य लेखन में बदलते व्यवहार  ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  व्यंग्य  – व्यंग्य लेखन में बदलते व्यवहार 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 188 ☆  

? व्यंग्य  – व्यंग्य लेखन में बदलते व्यवहार ?

व्यंग्यकार भी आखिरकार समाज का ही हिस्सा होता है, वह रोबोट की तरह नियमो में बंधा आदर्श लेखन मात्र नही कर सकता। वह पूर्वाग्रहों से मुक्त कैसे हो? स्त्री, विद्रूप शरीर, अपनी आदतों के चलते जातियां विशेष जैसे सरदार जी या सिंधी, कंजूसी के चलते महाराष्ट्रीयन आदि पर व्यंग्य किए जाते थे, किंतु समय ने परिवर्तन किए हैं, इन इंगित लोगों में भी और व्यंग्यकार की मानसिकता पर भी, अब इन पर हास्य कम हो रहे हैं, होने भी नहीं चाहिए। अब अष्टाव्रक को देख सभा मखौल उड़ाने की जगह संवेदना के भाव रखने लगी है, जो सर्वथा सही है।

किंतु आतंक के लिए पाकिस्तान या सामान की कम गुणवत्ता के लिए चीन जैसे नए समीकरण नई विसंगतियां उठ खड़ी हुई हैं। इन पर चोट करने से शायद व्यंग्यकार को आनंद मिलता है। तो वह इन जैसे विषयों पर स्वान्तः सुख के साथ साथ पाठको के लिए लिख रहा है।

इसे हम सामाजिक समरसता के विरुद्ध कह जरूर सकते हैं किंतु व्यंग्यकार का काम ही उन मुद्दों को कुरेदना  है जो आम आदमी को चोट करते हैं।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #131 – लघुकथा – “पहल” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा  “पहल।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 131 ☆

☆ लघुकथा – “पहल” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

दोनों शिक्षिका रोज देर से शाला आती थी. उन्हें बार-बार आगाह किया मगर कोई सुधार नहीं हुआ. एक बार इसी बात को लेकर शाला निरीक्षक ने प्रधान शिक्षिका को फटकार दिया. तब उसने सोचा लिया कि दोनों शिक्षिका की देर से आने की आदत सुधार कर रहेगी.

” ऐसा कब तक चलेगा?”  प्रधान शिक्षिका ने अपने शिक्षक पति से कहा,” आज के बाद इनके उपस्थिति रजिस्टर में सही समय अंकित करवाइएगा.”

” अरे! रहने दो. उनके पति नेतागिरी करते हैं.”

” नहींनहीं, यह नहीं चलेगा. वे रोज देर से आती हैं और उपस्थिति रजिस्टर में एक ही समय लिखती हैं. क्या वे उसी समय शाला आती हैं?”

” अरे! जाने भी दो.”

” क्या जाने भी दो ?”  प्रधान शिक्षिका ने कहा,” आप उनको नोटिस बनाते हो या मैं बनाऊं?”

” ऐसी बात नहीं है.”

” फिर क्या बात है स्पष्ट बताओ?”

” पहले तुम तो समय पर आया करो, ताकि मैं भी समय पर शाला आ पाऊं,”  शिक्षक पति ने कहा,” तभी हमारे नोटिस का कुछ महत्व होगा, अन्यथा…” कह कर शिक्षक पति चुप हो गया.

वाचाल प्रधान शिक्षिका ने इसके आगे कुछ कहना ठीक नहीं समझा.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

13-10-2021 

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 142 ☆ बाल गीत – धूप गुनगुनी ऊर्जा देती… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 142 ☆

☆ बाल गीत – धूप गुनगुनी ऊर्जा देती… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

दिन छोटे हैं , सर्दी आई

मौसम हमें सँवारे।

धूप गुनगुनी ऊर्जा देती

शीतल चाँद सितारे।।

 

सूरज जी प्राची में लिखते

स्वर्णिम – स्वर्णिम पाती।

गौरैया , बुलबुल भी मिलकर

मीठे गीत सुनाती।

 

काँव – काँव कौए जी गाएँ

साथी सदा पुकारे।

धूप गुनगुनी ऊर्जा देती

शीतल चाँद सितारे।।

 

सर्दी जी वर्दी – सी पहने

कोहरे की चादर में।

किरणों ने कोहरे को खाया

लगा सिसकने घर में।

 

खेल खेलता मौसम नित ही

दीखें नए नजारे।

धूप गुनगुनी ऊर्जा देती

शीतल चाँद सितारे।।

 

सदा मौसमी फल , सब्जी ही

सेहत रखती अच्छा।

आलस त्यागें, करें योग जो

तन की होती रक्षा।

 

जल्दी जगकर पढ़ें भोर में

वे बच्चे हैं प्यारे।

धूप गुनगुनी ऊर्जा देती

शीतल चाँद सितारे।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #143 ☆ संत  एकनाथ… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 143 ☆ संत  एकनाथ… ☆ श्री सुजित कदम ☆

भानुदासी कुळामध्ये

जन्मा आले एकनाथ

जनार्दन स्वामी गुरु

शिरी गुरुकृपा हात.! १

 

दत्त दर्शनाचा योग

देवगिरी सर्व साक्षी

तीर्थाटन करूनीया

आले पैठणच्या क्षेत्री..!२

 

अध्यात्माची कीर्तंनाची

एकनाथा होती ओढ

अध्ययन पुराणांचे

शास्त्र अध्यात्माची जोड…! ३

 

नाथ आणि गिरिजेचा

सुरू जाहला संसार

गोदा,गंगा, आणि हरी

समाधानी परीवार…. ! ४

 

साडेचार चरणात

एकनाथी ओवी साज

स्फुट काव्य गवळण

दिला आख्यानाचा बाज…! ५

 

गेय पद रचनेत

एकनाथी काव्य कला

सुबोधसा भाष्यग्रंथ

भागवती वानवळा..! ६

 

शब्द चित्रे कल्पकता

एकनाथी व्यापकता

धृपदांची वेधकता

लोककाव्य विपुलता..! ७

 

एकनाथी साहित्याने

दिलें विचारांचे धन

गुरूभक्ती लोकसेवा

समर्पिले तन मन…! ८

 

नाट्यपुर्ण कथा काव्य

वीररस विविधता

भारुडाच्या रचनेत

सर्व कष वास्तवता…! ९

 

बोली भाषेतून केले

भारूडाचे प्रयोजन.

लोकोद्धारासाठी केला

अपमान  ही सहन…! १०

 

ईश्वराचे नाम घेण्या

नको होता भेदभाव

एकनाथी रूजविले

शांती, भक्ती, हरिनाम. ..! ११

 

नाना ग्रंथ निर्मियले

लाभे हरी सहवास.

विठू, केशव, श्रीखंड्या

नाथाघरी झाला दास. .! १२

 

भागवत भक्ती पंथ

बहुजन संघटित

शास्त्र आणि समाजाची

केली घडी विकसित…! १३

 

दत्तगुरू द्वारपाल

नाथवाडी प्रवचन

देव आले नाथाघरी

नाथ देई सेवामन…! १४

 

केले लोक प्रबोधन

प्रपंचाचे निरूपण.

सेवाभावी एकनाथ

भक्ती, शक्ती समर्पण. ! १५

 

शैली रूपक प्रचुर

मराठीचा पुरस्कार

कृष्ण लिला नी चरीत्र

भावस्पर्शी आविष्कार…! १६

 

रामचरीत्राचा ग्रंथ

महाकाव्य रामायण

पौराणिक आख्यायिका

जनलोकी पारायण…! १७

 

एकनाथी भागवत

नाथ करूणा सागर

एकनाथी साहित्यात

लोक कलेचे आगर…! १८

 

राग लोभ मोह माया

नाही मनी लवलेश

खरे अध्यात्म जाणून

अभ्यासला परमेश…! १९

 

नाथ कीर्तनी रंगल्या

गवळणी लोकमाता.

समाधीस्त एकनाथ

कृष्ण कमलात गाथा. ..! २०

 

वद्य षष्ठी फाल्गुनाची

नाथ षष्ठी पैठणची

सुख,शांती,धनसौख्य

नाथ कृपा सौभाग्याची..! २१

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – चिरयौवन – कवी अज्ञात ☆ प्रस्तुती सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते ☆

सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते

 

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– चिरयौवन – कवी अज्ञात ? ☆ प्रस्तुती – सौ. वंदना अशोक हुळबत्ते

भल्या पहाटे दारावरती

कुणी न कळे केली टकटक

 उत्सुकतेने दार उघडले

कुणी पाहुणा येई अचानक

निमिषातच मज कळून चुकले

 वार्धक्यच ते होते माझे

वेळेवरती येणे त्याचे

पण मी तर बेसावध होते.

घरात घुसण्या पुढे सरकले

जेव्हा त्याचे अधीर पाऊल

वाट अडवूनी उभी राहिले

विनवीत त्याला होऊन व्याकूळ

‘अजून आहे बराच अवधी

उगा अशी का करीशी घाई?

हसून म्हणाले, पुरेत गमजा’

ओळखतो मी तव चतुराई !’

‘अरे, पण मी अजून नाही

जगले क्षणही माझ्यासाठी

व्याप ताप हे संसाराचे

होते सदैव माझ्यापाठी

एवढ्यात तर मिळे मोकळिक

मित्रमंडळी जमली भवती

ज्यांच्यासाठी ज्यांच्यामध्ये

सदा रहावे असे सोबती!

मित्रांचे अन् नाव ऐकता

दोन पावले मागे सरले

हर्ष नावरे वार्धक्याला

जाता जाता हसून म्हणाले,

‘मित्रांसाठी जगणार्‍याला

मी कधीही भेटत नाही.

वय वाढले जरी कितीही

अंतरी त्याच्या चिरयौवन राही.!!

कवी – अज्ञात

प्रस्तुती – सौ.वंदना अशोक हुळबत्ते

संपर्क – इंदिरा अपार्टमेंट बी-१३, हिराबाग काॅनर्र, रिसाला रोड, खणभाग, जि.सांगली, पिन-४१६  ४१६

मो.९६५७४९०८९२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #164 – सूरज को हो गया निमोनिया…… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज नव वर्ष पर प्रस्तुत हैं आपकी एक अतिसुन्दर, भावप्रवण एवं विचारणीय कविता  “सूरज को हो गया निमोनिया…”। )

☆  तन्मय साहित्य  #164 ☆

सूरज को हो गया निमोनिया…

सूरज को हो गया निमोनिया

जाड़े की बढ़ गई तपन

शीत से सिहरते साये

धूप पर चढ़ी है ठिठुरन।

 

शीत लहर का छाया है कहर

सन्नाटे में खोया है शहर

अंबर के अश्रु ओस बूँद बने

बहक रहे शब्द और लय बहर,

 

थकी थकी रक्त शिराएँ बेकल

पोर-पोर मची है चुभन

धूप पर चढ़ी है ठिठुरन।

 

सिकुड़े-सिमटे तुलसी के पत्ते

अलसाये मधुमक्खी के छत्ते

हाड़ कँपाऊ ठंडी के डर से

पहन लिए ऊनी कपड़े-लत्ते,

 

कौन कब हवाओं को रोके सका

चाहे कितने करें जतन

धूप पर चढ़ी है ठिठुरन।

 

अहंकार बढ़ गया अंधेरे का

मंद तापमान सूर्य घेरे का

दुबके हैं देर तक रजाई में

नहीं रहा मान शुभ-सबेरे का,

 

मौसम के मन्सूबों को समझें

दिखा रहा तेवर अगहन

धूप पर चढ़ी है ठिठुरन।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 64 – राजनीति… भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय  आलेख  “राजनीति…“।)   

☆ आलेख # 64 – राजनीति  – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

राजनीति का ये तीसरा दौर, अधिनायकवादी सोच याने, तानाशाही जिसका परिष्कृत नाम “तंत्र को लोक और प्रजा से दूर करना है” के नाम हो जाता है. अगर राजनीति के दूसरे दौर को हम सिद्धांतों से जुड़े “वाद” याने पूंजीवाद, साम्यवाद, समाजवाद के अनुसार परिभाषित करें तो ये तीसरा दौर तंत्र और यंत्र से प्रभावित और प्रदूषित होता है. ये यंत्र अर्थात षडयंत्रों, और तंत्र याने खुद सब कुछ पाने के नाम पर तकनीक  दुरुपयोग का दौर है जो अक्सर इसलिए काम में आता है कि सत्ताभिलाषी और सत्तापरस्त अपने अपने प्रतिद्वंद्वियों की मिट्टीपलीद कर सके और उनको वो बना दे जो वे होते नहीं हैं. ये भी राजनीति की एक विधा है जो मेकअप, मेकओवर, इमेज बिल्डिंग और नेगेटिव इमेजिंग के आधार पर अपने आका की बुलंद इमारत खड़ी करती है. ये रावणों का वह दौर होता है जब सामान्य से दस गुनी बुद्धि और दसों दिशा के बराबर विज़न होने की क्षमता होने के बावजूद, व्यक्ति आत्मकेंद्रित होने की पराकाष्ठा प्राप्त करता है. इस तीसरे दौर में जब त्याग, सामाजिक सरोकार और बहुजन हिताय जैसे गुण सिर्फ शब्द बन जाते हैं तो व्यक्तित्व से आकर्षण, विश्वसनीयता और प्रबल आत्मविश्वास गायब हो जाते हैं. निस्वार्थ जनसेवा के नायक कब कुर्सीपरस्त खलनायक बन जाते हैं, पता नहीं चलता. जनता जो अब उनके वोट बैंक बन जाते हैं, हमेशा सपनों का झूला झुलाकर भ्रमित किये जाते हैं.

राजनीति का ये तीसरा दौर बहुत घातक होता है जब विकल्पहीनता के कारण सत्ताभिलाषी वंशवाद, तुष्टिकरण, सांप्रदायिकता और विभाजनकारी सोच प्रश्रय पाते हैं, फलते फूलते हैं. ये अपने अपने वोटबैंक को “मीरा की भक्ति से परे पर फिर भी मेरो तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई” के भाव में उलझा कर रखते हैं. सवाल हर बार यही होता है कि एक सौ तीस प्लस करोड़ के जम्बो जनसंख्या के इस देश में क्या 13000+ लोग ऐसे नहीं आ सकते जो राजनीति को गरिमामय बना सकें. हमें अवतारों की जरूरत न पहले कभी थी, न है और न ही आगे रहेगी, हम तो ऐसे लोग खोजते हैं. जो हमारे सपनों को नहीं बल्कि हमारी हकीकतों को ऐड्रेस कर सकें.

हम याने हम भारत के लोग, अपने में से ही हमेशा ऐसा विश्वस्त नेतृत्व चाहते हैं जो हमें निश्चिंत नहीं बल्कि हमेशा जागरूक करे. हमें रॉबिनहुड नहीं चाहिए, हमें धर्मात्मा या महात्मा नहीं चाहिए. शायद ये हममें से बहुत लोगों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता हो. राजनीति के इस विश्लेषणात्मक समीक्षा के दौरान मैं अपने उन अश्रुमय पलों को कैसे भूल सकता हूँ जो वर्ष 2011 में सेल्युलर जेल, (पोर्टब्लेयर) के भ्रमण के दौरान आये. न जाने कैसे लोग थे वे, जो अपने वतन की आज़ादी के सपनों पर, अपने जीवन को कुर्बान कर बैठे. क्या वो प्रेक्टिकल नहीं थे, बेशक वो देशभक्त थे पर इस देशभक्ति की जो कीमत उन्होंने अदा की, हमारे आज के कितने राजनेता उस आज़ादी के बाद, जिसका सपना उन क्रांतिकारियों ने देखा था, कर पाये.वक्त के साथ बहुत कुछ बदलता है पर उच्च मापदंडों का बदलना कभी भी सही नहीं होता.

वैसे तो ये इस श्रंखला का समापन भाग है पर कहानी का और अपेक्षाओं का अंत नहीं.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक 34 – भाग 3 – ट्युलिप्सचे ताटवे – श्रीनगरचे ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक 34 – भाग 3 ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ट्युलिप्सचे ताटवे – श्रीनगरचे ✈️

अमरनाथला जाणाऱ्या यात्रेकरूंसाठी पहलगाम इथे खूप मोठी छावणी उभारलेली आहे. यात्रेकरूंची वाहने इथपर्यंत येतात व मुक्काम करून छोट्या गाड्यांनी चंदनवाडीपर्यंत जातात. तिथून पुढे अतिशय खडतर, एकेरी वाटेने श्रावण पौर्णिमेच्या यात्रेसाठी लक्षावधी भाविक सश्रद्ध अंतकरणाने पदयात्रा करतात. हिमालयाच्या गूढरम्य पर्वतरांगांमध्ये उत्पत्ती, स्थिती आणि लय या आदिशक्तींची अनेक श्रध्दास्थाने आपल्या प्रज्ञावंत पूर्वजांनी फार दूरदृष्टीने उभारलेली आहेत.(चार धाम यात्रा, अमरनाथ, हेमकुंड वगैरे ). हे अनाघ्रात सौंदर्य, ही निसर्गाची अद्भुत शक्ती सर्वसामान्य जनांनी पहावी आणि यातच लपलेले देवत्व अनुभवावे असा त्यांचा उद्देश असेल का? श्रद्धायुक्त पण निर्भय अंतःकरणाने, मिलिटरीच्या मदतीने, अनेक उदार दात्यांच्या भोजन- निवासाचा लाभ घेऊन वर्षानुवर्षे ही वाट भाविक चालत असतात.

सकाळी उठल्यावर पहलगामच्या हॉटेलच्या काचेच्या खिडकीतून बर्फाच्छादित हिमशिखरांचे दर्शन झाले. नुकत्याच उगवलेल्या सूर्यकिरणांनी ती शिखरे सोन्यासारखी चमचमत होती. पहलगाम येथील अरु व्हॅली, बेताब व्हॅली, चंदनवाडी, बैसरन म्हणजे चिरंजीवी सौंदर्याचा निस्तब्ध, शांत, देखणा आविष्कार! बर्फाच्छादित पर्वतरांगांमधील सुरू, पाईन, देवदार, फर, चिनार असे सूचीपर्ण, प्रचंड घेरांचे वृक्ष गारठवणाऱ्या थंडीत, बर्फात आपला हिरवा पर्णपिसारा सांभाळून तपस्वी ऋषींप्रमाणे शेकडो वर्षे ताठ उभी आहेत. दाट जंगले,  कोसळणारे, थंडगार पांढरे शुभ्र धबधबे आणि उतारावर येऊन थबकलेले बर्फाचे प्रवाह. या देवभूमीतले  सौंदर्य हे केवळ मनाने अनुभवण्याचे आनंदनिधान आहे.

पहलगामला एका छोट्या बागेत ममलेश्वराचे (शंकराचे) छोटे देवालय आहे. परिसर बर्फाच्छादित शिखरांनी वेढलेला होता. शंकराची पिंडी नवीन केली असावी. त्यापुढील नंदी हा दोन तोंडे असलेला होता. आम्ही साधारण १९८० च्या सुमारास काश्मीरला प्रथम आलो होतो. त्या वेळेचे काश्मीर आणि आजचे काश्मीर यात जमीन- अस्मानाचा फरक जाणवला. सर्वत्र शांतता होती पण ही शांतता निवांत नव्हती. खूप काही हरवल्याचं, गमावल्याचं  दुःख अबोलपणे व्यक्त करणारी, अविश्वास दर्शविणारी ,  संगिनींच्या धाकातली, अबोलपणे काही सांगू बघणारी ही कोंदटलेली उदास  शांतता होती.

श्रीनगर भाग ३ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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