हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 240 ☆ गीत – काम अच्छा ही अच्छा करो ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 240 ☆ 

☆ गीत – काम अच्छा ही अच्छा करो…  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

मुश्किलों से कभी मत डरो।

काम अच्छा ही अच्छा करो।।

 *

जिंदगी है बड़े काम की।

श्याम की, बुद्ध की, राम की।

अनगिनत इसमें सदियाँ लगीं।

बोलियाँ प्रेम की भी पगीं।

 *

याद कर लो शहीदों के दिल

देश हित में जिओ और मरो।

मुश्किलों से कभी मत डरो।।

काम अच्छा ही अच्छा करो।।

 *

जाग जाओ बहुत सो लिए।

पाप सिर पर बहुत ढो लिए।

कुछ हँस लो , हँसा लो यहाँ

जन्म से अब तलक रो लिए।

 *

गलतियों से सदा सीख ले

कुछ घड़े पुण्य के भी भरो।

मुश्किलों से कभी मत डरो।

काम अच्छा ही अच्छा करो।।

 *

आदमी देवता और असुर ।

स्वयं ही ये बनता चतुर।

सहज जीवन तो जी ले जरा,

प्रेम फागों से बन ले हरा।

 *

साँस पूरी लिखीं हैं वहाँ पर

पाप की गठरियाँ मत भरो।

मुश्किलों से कभी मत डरो।

काम अच्छा ही अच्छा करो।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #203 – बाल कहानी – नकचढ़ा देवांश –☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक शिक्षाप्रद बाल कहानी- नकचढ़ा देवांश)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 203 ☆

☆ बाल कहानी- नकचढ़ा देवांश ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

देवांश की शैतानियां कम नहीं हो रही थी। वह कभी राजू को लंगड़ा कह कर चढ़ा दिया करता था, कभी गोपी को गेंडा हाथी कह देता था। सभी छात्र व शिक्षक उससे परेशान थे।

तभी योगेश सर को एक तरकीब सुझाई दी। इसलिए उन्होंने को देवांश को एक चुनौती दी।

“सरजी! मुझे देवांश कहते हैं,” उसने कहा, “मुझे हर चुनौती स्वीकार है। इसमें क्या है? मैं इसे करके दिखा दूंगा,”  कहने को तो देवांश ने कह दिया। मगर, उसके लिए यह सब करना मुश्किल हो रहा था।

ऐसा कार्य उसने जीवन में कभी नहीं किया था। बहुत कोशिश करने के बाद भी वह उसे कर नहीं पा रहा था। तब योगेश सर ने उसे सुझाया, “तुम चाहो तो राजू की मदद ले सकते हो।”

मगर देवांश उससे कोई मदद नहीं लेना चाहता था। क्योंकि वह उसे हमेशा लंगड़ा-लंगड़ा कहकर चिढ़ाता था। इसलिए वह जानता था राजू उसकी कोई मदद नहीं करेगा।

कई दिनों तक वह प्रयास करता रहा। मगर वह नहीं कर पाया। तब वह राजू के पास गया। राजू उसका मंतव्य समझ गया था। वह झट से तैयार हो गया। बोला, “अरे दोस्त! यह तो मेरे बाएं हाथ का काम है।” कहते हुए राजू अपने एक पैर से दौड़ता हुआ आया, झट से हाथ के बल उछला। वापस सीधा हुआ। एक पैर पर खड़ा हो गया, “इस तरह तुम भी इसे कर सकते हो।”

देवांश का एक पैर डोरी से बना हुआ था। वह एक लंगड़े छात्र के नाटक का अभिनव कर रहा था। मगर वह एक पैर पर ठीक से खड़ा नहीं हो पा रहा था। अभिनय  करना तो दूर की बात थी।

तभी वहां योगेश सर आ गए। तब राजू ने उनसे कहा, “सरजी, देवांश की जगह यह नाटक मैं भी कर सकता हूं।”

“हां, कर तो सकते हो,” योगेश सर ने कहा, “इससे बेहतर भी कर सकते हो। मगर उसमें वह बात नहीं होगी, जिसे देवांश करेगा। इसके दोनों पैर हैं। यह इस तरह का अभिनय करें तो बात बन सकती है। फिर देवांश ने चुनौती स्वीकार की है। यह करके बताएगा।”

यह कहते हुए योगेश सर ने देवांश की ओर आंख ऊंचका कर पूछा, “क्यों सही है ना?”

“हां सरजी, मैं करके रहूंगा,” देवांश ने कहा और राजू की मदद से अभ्यास करने लगा।

राजू का पूरा नाम राजेंद्र प्रसाद था। सभी उसे राजू कह कर बुलाते थे। बचपन में पोलियो की वजह से उसका एक पैर खराब हो गया था। तब से वह एक पैर से ही चल रहा था।

वह पढ़ाई में बहुत होशियार था। हमेशा कक्षा में प्रथम आता था। सभी मित्रों की मदद करना, उन्हें सवाल हल करवाना और उनकी कॉपी में प्रश्नोत्तर लिखना उसका पसंदीदा शौक था।

उसके इसी स्वभाव की वजह से उसने देवांश की भरपूर मदद की। उसे खूब अभ्यास करवाया। नई-नई तरकीब सिखाई। इस कारण जब वार्षिक उत्सव हुआ तो देवांश का लंगड़े लड़के वाला नाटक सर्वाधिक चर्चित, प्रशंसनीय और उम्दा रहा।

देवांश का नाटक प्रथम आया था। जब उसे पुरस्कार दिया जाने लगा तो उसने मंचन अतिथियों से कहा, “आदरणीय महोदय! मैं आपसे एक निवेदन करना चाहता हूं।”

“क्यों नहीं?” मंच पर पुरस्कार देने के लिए खड़े अतिथियों में से एक ने कहा, “आप जैसे प्रतिभाशाली छात्र की इच्छा पूरी करके हमें बड़ी खुशी होगी। कहिए क्या कहना है?” उन्होंने देवांश से पूछा।

तब देवांश ने कहा, “आपको यह जानकर खुशी होगी कि मैं इस नाटक में जो जीवंत अभिनव कर पाया हूं वह मेरे मित्र राजू की वजह से ही संभव हुआ है।”

यह कहते ही हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। देवांश ने कहना जारी रखा, “महोदय, मैं चाहता हूं कि आपके साथ-साथ मैं इस पुरस्कार को राजू के हाथों से प्राप्त करुं। यही मेरी इच्छा है।”

इसमें मुख्य अतिथि को भला क्या आपत्ति हो सकती थी। यह सुनकर वह भावविभोर हो गए, “क्यों नहीं। जिसका मित्र इतना हुनरबंद हो उसके हाथों दिया गया पुरस्कार किसी परितोषिक से कम नहीं होता है,” यह कहते हुए अतिथियों ने ताली बजा दी।

“कौन कहता है प्रतिभा पैदा नहीं होती। उन्हें तराशने वाला चाहिए,” भाव विह्वल होते हुए अतिथियों ने कहा, “हमें गर्व है कि हम आज ऐसे विद्यालय और छात्रों के बीच खड़े हैं जिनमें परस्पर सौहार्द, सहिष्णुता, सहृदयता,सहयोग और समन्वय का संचार एक नदी की तरह बहता है।”

तभी राजू अपने लकड़ी के सहारे के साथ चलता हुआ मंच पर उपस्थित हो गया।

अतिथियों ने राजू के हाथों देवांश को पुरस्कार दिया तो देवांश की आंख में आंसू आ गए। उसने राजू को गले लगा कर कहा, “दोस्त! मुझे माफ कर देना।”

“अरे! दोस्ती में कैसी माफी,” कहते हुए राजू ने देवांश के आंसू पूछते हुए कहा, “दोस्ती में तो सब चलता है।”

तभी मंच पर प्राचार्य महोदय आ गए। उन्होंने माइक संभालते हुए कहा, “आज हमारे विद्यालय के लिए गर्व का दिन है। इस दिन हमारे विद्यालय के छात्रों में एक से एक शानदार प्रस्तुति दी है। यह सब आप सभी छात्रों की मेहनत और शिक्षकों परिश्रम का परिणाम है कि हम इतना बेहतरीन कार्यक्रम दे पाए।”

प्राचार्य महोदय ने यह कहते हुए बताया, “और सबसे बड़ी खुशी की बात यह है कि राजू के लिए जयपुर पैर की व्यवस्था हमारे एक अतिथि महोदय द्वारा गुप्त रूप से की गई है। अब राजू भी उस पैर के सहारे आप लोगों की तरह समान्य रूप से चल पाएगा।” यह कहते हुए प्राचार्य महोदय ने जोरदार ताली बजा दी।

पूरा हाल भी तालियों की हर्ष ध्वनि से गूंज उठा। जिसमें राजू का हर्ष-उल्लास दूना हो गया। आज उसका एक अनजाना सपना पूरा हो चुका था।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

02-02-2022

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ शब्द पक्षी…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ शब्द पक्षी…! ☆ 

☆ 

मेंदूतल्या घरट्यात जन्मलेली

शब्दांची पिल्ल

मला जराही स्वस्थ बसू देत नाही

चालू असतो सतत चिवचिवाट

कागदावर उतरण्याची त्यांची धडपड

मला सहन करावी लागते

जोपर्यंत घरट सोडून

शब्द अन् शब्द

पानावर मुक्त विहार करत नाहीत

तोपर्यंत

आणि

तेच शब्द कागदावर मोकळा श्वास

घेत असतानाच पुन्हा

एखादा नवा शब्द पक्षी

माझ्या मेंदूतल्या घरट्यात

आपल्या शब्द पिल्लांना सोडुन

उडून जातो माझी

अस्वस्थता

चलबिचल

हुरहुर

अशीच कायम

टिकवून ठेवण्या साठी…!

© श्री सुजित कदम

मो.7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग ४४ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग ४४ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र- हॉस्पिटल येताच मी पटकन् उतरून निघालो. सोबत घोरपडेसाहेबही होतेच. आम्ही आत गेलो तेव्हा आरती, माझी आई आणि भाऊ केबिनच्या बाहेर बसलेले दिसले. मी आरती जवळ गेलो. मला पहाताच तिचे डोळे भरून आले.

“समीर सिरीयस आहे. डॉक्टर तुझीच वाट बघतायत. जा लगेच. बोल त्यांच्याशी. ” आईचाही आवाज बोलताना भरून येत होताच.

आज माझ्यापुढे काय वाढून ठेवलं असेल या आशंकेनेच मी कसंबसं स्वतःला सावरत डॉक्टरांच्या केबिनकडे धाव घेतली… !!)

पाठोपाठ घोरपडे साहेब होतेच.

भूतकाळातला चटका लावून गेलेला इथवरचा प्रसंग आरतीला सांगण्याची आवश्यकता नव्हती आणि पुढचं सगळं सांगायचं मला धाडस होत नव्हतं.

” मी शांतपणे ऐकून घेईन.. त्रास करुन घेणार नाही.. पण सांगा लवकर.. काय सांगणार होतात?… “

” त्यादिवशी डॉक्टरांच्या केबिनमधून आम्ही बाहेर आलो तेव्हाच डॉक्टर काय म्हणाले ते तुला जाणून घ्यायचं होतं. पण मोघम कांहीतरी तुला दिलासा देणारं सांगून मी वेळ मारून नेली होती. खरी परिस्थिती वेगळीच होती….. “

“वेगळीच म्हणजे.. ?”

” ऍलोपॅथिक औषधांच्या सततच्या टाळता न येणाऱ्या उपचारांमुळेच त्यादिवशी त्याला मॅनेन्जायटीसचा अॅटॅक आला होता. म्हणूनच त्याची घुसमट होऊन त्या दिवशी संध्याकाळी त्याच्या तोंडाला फेस आला होता आणि तो काळा निळा पडत चालला होता. मला हे सगळं सांगून शांतपणे डॉक्टरांनी मला समजावलं होतं आणि मी कधी कल्पनाही केली नव्हती असा एक प्रस्ताव माझ्यापुढे ठेवला होता… “

” कसला प्रस्ताव.. ?”

मी धीर गोळा करून तिच्या नजरेला नजर देत अंदाज घेत असतानाच माझ्याही नकळत माझ्याच तोंडून स्वतःशीच बोलावं तसे शब्द निसटलेच…..

“समीरला या यातनांतून सोडवण्याचा… “

ती अविश्वासाने माझ्याकडे पहात राहिली. आता सगळं सांगण्याशिवाय माझ्याकडे पर्यायच नव्हता.

” डाॅक्टर म्हणाले होते,

‘मॅनेन्जायटीसच्या अटॅकमुळे तो यापुढचं त्याचं संपूर्ण आयुष्य अंथरुणाला खिळून रहात मतिमंद म्हणूनच जगणार आहे. ते आयुष्य त्याच्यासाठी फक्त यातनामय असं असह्य दु:खच असेल. या अवस्थेतून त्याच्या अशा दयनीय अवस्थेमुळे तो कधीच बाहेर पडू शकणार नाही. जितकी वर्षं तो जगेल तोपर्यंत अंथरुणावर पडल्या अवस्थेत पूर्णत: परावलंबी आयुष्य ओढत राहील. किती दिवस, किती वर्षं हे सांगता येणार नाही. आणि तोवर त्याची देखभाल आणि सर्व प्रकारची सेवा त्याच्या आयुष्यभर तुम्हाला करावी लागेल. त्याला या सगळ्या यातनांमधून मुक्त करायची हीच वेळ आहे. पण त्यासाठी जन्मदाते पालक म्हणून तुमची संमती गरजेची असणार आहे. “

असं म्हणून त्यांनी माझ्यापुढे सहीसाठी एक फाॅर्म ठेवला. त्याकडे नजर जाण्यापूर्वीच हे सगळं ऐकून मी गोठून गेलो होतो. शून्यात पहात क्षणभरच तसाच उभा असेन तेवढ्यात घोरपडे साहेबांनी मला थोपटलं.. आणि मी भानावर आलो…

“आजपर्यंत खूप सोसलंय बाळानं आणि तुम्ही सगळ्यांनीही. जे जे करायचंय ते ते सगळं केलंयत. आता जे करायचं ते त्या बाळाच्या हितासाठी, डाॅक्टर म्हणाले तसं करणं गरजेचं आणि योग्यही आहे. ऐक माझं… ” असं म्हणून घोरपडे साहेबांनी स्वतःच्या खिशातलं पेन माझ्या हातात दिलं. त्यांचे सगळे शब्द माझ्या कानाला स्पर्शून विरून गेले. कारण मी काय करायला हवं ते मी डॉक्टरांचं बोलणं ऐकलं तेव्हाच मनोमन ठरवलंच होतं जसंकांही. मी ते पेन घेतलं. शांतपणे डॉक्टरांकडे पाहिलं. त्यांनी जे सुचवलं होतं त्यात त्यांचा कणभरही स्वार्थ नाहीय हे मला समजत होतं, पण तरीही.. ?

“डॉक्टर, तुम्ही म्हणताय त्यातलं तथ्य मी नाकारत नाही. पण निर्णय घेण्यापूर्वी एकच प्रश्न विचारायचाय. “

“कोणता प्रश्न?”

“विज्ञानाने लावलेल्या शोधांमुळे हे आपण सहज सुलभ पद्धतीने करू शकतो हे खरं आहे, पण समजा आत्ता मी बाळाला या पद्धतीने यातनामुक्त करायला परवानगी दिली, तर आमच्या संसारात पुढे येणारं आमचं अपत्य त्याच्या आयुष्यभर पूर्णतः निरोगी राहील याची खात्री हेच विज्ञान देऊ शकणाराय कां?”

डॉक्टर माझ्याकडे थक्क होऊन पहात राहीले.

“हे कसं शक्य आहे?अशी खात्री कुणीच देऊ शकणार नाही. ” ते म्हणाले.

“असं असेल तर बाळाचे जे कांही भोग असतील ते तो पूर्णपणे भोगूनच संपवू दे. मी अखेरच्या क्षणापर्यंत त्याची सोबत करेन. जन्म आणि मृत्यू हे देवाचे अधिकार आपण आपल्या हातात नको घ्यायला. तो जिवंत असेल तितके दिवस त्याची सगळी सेवा मनापासून करणं हेच माझं सुख समजेन मी. आपण शक्य असेल ते सगळे उपचार सुरू ठेवूया डॉक्टर… “

माझं बोलणं संपलं तरी आरती त्यातच हरवल्यासारखी क्षणभर गप्प बसलीय असं वाटलं पण ते तसं नव्हतं. आतून येणारे दु:खाचे कढ ती महत्प्रयासाने थोपवू पहातेय हे मला जाणवलं तोवर तिनं स्वतःला कसंबसं सावरलं. आपले भरून येणारे डोळे पुसून कोरडे केले पण ते आतून ओलावतच राहिले.

“आणि.. हे.. हे सगळं आज सांगताय तुम्ही? इतके दिवस स्वतः एकटेच सहन करत राहिलात? मला विश्वासात घेऊन कां नाही सांगितलंत सगळं.. ?”

दोघांनीही दडपणात राहून काय केलं असतं आम्ही? कुणातरी एकाच्या मनातला आशेचा किरण तरी विझून चालणार नव्हता ना? आणि ती हे सगळं सहन नाही करु शकणार असंही वाटत होतं हेही खरं.

“तुला मुद्दाम सांगावं अशी ती वेळ नव्हती. आणि ते तुला सांगायलाच हवं अशी हीच वेळ आहे म्हणून आत्ता सांगितलं. आता मी बोलतो ते नीट समजून घे. माझ्या मनात अनेक प्रश्न गर्दी करतायत. लिलाताईच्या पत्रानं मला सावरलंय, दिलासा दिलाय, म्हणूनच या परिस्थितीतही मी सर्व बाजूंनी या घटनेचा शांतपणे विचार करु शकतोय. समीरचा आजार पृथ्वीवरच्या औषधांनी बरा होण्याच्या पलीकडे गेलाय ही आपल्यापैकी डॉक्टर, मी आणि घोरपडे साहेब याखेरीज बाकी कुणालाच माहित नसलेली गोष्ट लिलाताईपर्यंत पोचणं शक्य तरी आहे कां?आणि तरीही… ? तरीही ते तसं ती तिच्या पत्रात अगदी सहजपणे लिहितेय. हो ना? शिवाय समीर बरा होण्यासाठी देवाघरी गेलाय आणि पूर्ण बरा होऊन तो परत येणार आहे हेही आपल्याला सांगतेय. यावर आपला विश्वास बसावा, आपण सावरावं म्हणूनच जणू मला आज तिच्या आईना भेटायला जायची बुद्धी होते, तिथे जाण्यापूर्वीचं तुझ्या अस्वस्थतेमुळं मनात निर्माण झालेलं त्यांच्याबद्दलचं अनाठायी किल्मिष त्यांना अंतर्ज्ञानाने समजले असावे इतक्या सहजपणे त्या आपुलकीच्या शब्दांनी अलगद दूर करतात काय आणि आपल्याला निश्चिंत केल्यासाठीच बोलल्यासारखं लिलाताईच्या वाचासिध्दिबद्दल उत्स्फूर्तपणे सांगतात काय… सगळंच अतर्क्य आहे असं नाही तुला वाटत?”

सगळं ऐकलं आणि खऱ्याखोट्याच्या सीमारेषेवर घुटमळत असावी तशी ती विचारात पडली. पण क्षणार्धात तिने स्वत:ला सावरलं आणि ठामपणे म्हणाली, ” तुम्ही समजता आहात तसं सगळं घडलं तरी तेवढ्याने माझं समाधान होणार नाहीs….. “

“म्हणजे.. ?”

“म्हणजे आपल्याला पुन्हा मुलगाच झाला तर आपला समीरच परत आलाय असं तुम्ही म्हणालही, पण मी…. ? तुम्हाला कसं सांगू… ? रात्री अंथरुणाला पाठ टेकली, अलगद डोळे मिटले की केविलवाण्या नजरेने माझ्याकडे पहात दोन्ही हात पुढे पसरत झेपावत असतो हो तो मी जवळ घ्यावं म्हणून, आहे माहित?आणि मग मनात रुतून बसलेल्या त्याच्या सगळ्या आठवणी खूप त्रास देत रहातात मलाs… तो गेल्यापासून रात्रभर डोळ्याला डोळा लागलेला नाहीय हो माझ्याs. त्याचे टपोरे डोळे,.. गोरा रंग,.. लांबसडक बोटं,.. दाट जावळ.. सगळं सगळं मनात अलगद जपून ठेवलंय मी. मुलगा झालाच तर तो आपला ‘समीर’च आहे की नाही हे फक्त मीच सांगू शकेन… बाकी कुणीही नाहीss.. ” भावनावेगाने स्वतःलाच बजावावं तसं ती बोलली न् उठून आत निघून गेली… !

तिच्या बोलण्यात नाकारण्यासारखं काही नव्हतंच. माझ्यासाठी हा प्रश्न तिच्या भावना आणि माझी श्रद्धा अशा दोन टोकांमधे तरंगत राहिला… ! यातून बाहेर पडायला ‘लिलाताई’ हे एकच उत्तर होतं आणि या महिन्यातली पौर्णिमाही लगेचच तर होती. जावं कां तिच्याकडे?भेटावं तिला?बोलावं तिच्याशी? हो. जायला हवंच. या विचाराच्या स्पर्शाने दडपण निघूनच गेलं सगळं. मन शांत झालं.. !

मी पौर्णिमेची आतुरतेने वाट पहात राहिलो खरा पण? गूढ.. उकलणार.. नव्हतंच. ते अधिकच गहिरं होत जाणार होतं.. !!

त्याक्षणी मला त्याची कल्पना नव्हती एवढंच!

 क्रमश:…  (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #268– कविता – बोझ हमें कम करना होगा… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष—  सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता बोझ हमें कम करना होगा…”।)

☆ तन्मय साहित्य  #268 ☆

☆ बोझ हमें कम करना होगा... ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

बोझ हमें कम करना होगा, ऊँचाई पर गर चढ़ना है

आडम्बर से विमुख रहें, जीवन को यदि सुखमय करना है

*

प्रश्नों पर प्रतिप्रश्न करेंगे, तो फिर इनका अंत नहीं है

अंकुश लगा सके मन पर, ऐसा कोई श्रीमंत नहीं है

जीवन की क्रीड़ाओं के सँग, जुड़ी हुई है पीड़ाएँ भी

पतझड़ भी है शीत-घाम भी, बारह माह बसन्त नहीं है।

ज्ञानप्रभा विकसित करने को ऊँची शुभ उड़ान भरना है

बोझ हमें कम करना होगा, ऊँचाई पर जब चढ़ना है ।।

*

तन से भलें विशिष्ट लगें, मन से भी नहीं शिष्टता छोड़ें

भीतर बाहर रहें एक से, नहीं मुखोटे नकली ओढ़ें

बोध स्वयं का रहे, आत्मचिंतन का चले प्रवाह निरंतर

बिखरे जो मन के मनके हैं, एक सूत्र माला में जोड़ें।

जिनसे शुचिता भाव मिले, ऐसे सम्बन्ध मधुर गढ़ना है

बोझ हमें कम करना होगा, ऊँचाई पर जब चढ़ना है ।।

*

स्मृतियाँ दुखद रही वे भूलें, वर्तमान से हाथ मिलाएँ

छोड़ें पूर्वाग्रह मन के सब, चित्तवृत्ति को शुद्ध बनाएँ

खाली करें भरें फिर मन में, शुचिता पूर्ण विचारों को

पथ में आने वाले  कंटक,  दूर  उन्हें भी  करते  जाऍं,

हल्के-फुल्के मन से फिर विशुद्ध प्रतिमान नये गढ़ना है

बोझ हमें कम करना होगा, ऊँचाई पर जब चढ़ना है ।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 92 ☆ लोग ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “लोग” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 92 ☆  लोग ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

रीति या रिवाजों के

मुहताज हुए लोग

कटे हुए पर वाले

परवाज़ हुए लोग ।

**

गर्भवती माँ की

अनदेखी सी लाज

बूढ़े की लाठी सा

टूटता समाज

*

बटन बिना कुरते के

बस काज हुए लोग ।

**

टेढ़ी पगडंडी पर

गाँवों के ख़्वाब

शहरों ने ओढ़ा है

झूठ का रुआब

*

सच के मुँह तोतले

अल्फ़ाज़ हुए लोग ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 96 ☆ भले जन्नत में तुम सी हूर हो पर… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “भले जन्नत में तुम सी हूर हो पर“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 96 ☆

✍ भले जन्नत में तुम सी हूर हो पर… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

कभी हमने ख़ुशी देखी नहीं है

कहीं ऐसी कमी देखी नहीं है

 *

गुज़रते रात दिन है तीरगी में

अभी तक रोशनी देखी नहीं है

 *

वो क्या समझे है दिल का मारना क्या

कि जिसने मुफ़लिसी देखी नहीं है

 *

उसे मजबूर पर आना न तरस

अगर जो बेबसी देखी नहीं है

 *

किसी विधवा सी लगती है वो उजड़ी

अगर सूखी नदी देखी नहीं है

 *

भले जन्नत में तुम सी हूर हो पर

जमीं पर रूपसी देखी नहीं है

 *

मगन हो कृष्ण में मीरा पिया विष

यूँ दूजी बंदगी देखी नहीं है

 *

अरुण फिरते हो दीवाने बने तुम

कभी यूँ आशिक़ी देखी नहीं है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 9 ☆ कविता – जिज्ञासा… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आaapki एक भावप्रवण एवं विचारणीय कविता  – “जिज्ञासा“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 9 ☆

✍ कविता – जिज्ञासा… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

सवाल पूछने का भी कोई

अधिकार होता है

या जिज्ञासा होती है,

आजकल यह भी

सवाल बन गया है

क्योंकि

सवाल पूछने के लिए

जिम्मेदार लोग

पहले उनका हित देखते हैं

जिनसे सवाल पूछना है

और जिनके लिए

सच में सवाल पूछना है

वे उनकी सोच में

थे या हैं, पता नहीं।

 

सत्य को सब जानना चाहते हैं

पाना चाहते हैं

जीना चाहते हैं

पर सत्य को दबाकर।

सत्य को पाने के लिए

सबसे पहले वरणीय है

जिज्ञासा

आप्त वचन है

ब्रह्म ही सत्य है

इसलिए आवश्यक है

ब्रह्म जिज्ञासा

पर प्रश्न पूछने की जिज्ञासा

मर रही है

ऐसा लगता है ।

 

बिना प्रश्न के

जिज्ञासा का अस्तित्व क्या है

जब प्रश्न करना संकोच बनता है

भय का जन्म करता है

और जिज्ञासा तिरोहित प्रतीत होती है

तब जीवन मरता है

परंतु सजीव हो उठती है

जिज्ञासा

दिलों के अंदर

और विस्फोट बन जाती है

चेहरों पर चिपक जाती है।

 

उत्तर के उत्तरदाई

निष्प्रभ हो जाते हैं

इसलिए जिज्ञासा मर नहीं सकती

न उसे मरने देना चाहिए

जैसे आग को राख दबा सकती है

खत्म नहीं कर सकती

जिज्ञासा को दबा सकते हैं

पर खत्म नहीं कर सकते।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 60 – नजर बदलिए… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – नजर बदलिए।)

☆ लघुकथा # 60 – नजर बदलिए श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जीवन के कई अर्थ हमें पिछली सीट पर बैठ कर ही समझ में आते हैं। कभी-कभी अपनी गाड़ी की स्टेरिंग दूसरे के हवाले कर देनी चाहिए। कभी अपने रोजमर्रा के काम भी हमें छोड़कर कुछ अलग करने की सोचना चाहिए।  इसी उधेड़बुन में शांति खोई हुई थी। तभी अचानक उसके पतिदेव ने कहा कि तुम बहुत ही अच्छा गाना गाती हो एक सुंदर सा मधुर गीत सुनाओ और आज खाना मैंने बाहर से ऑर्डर कर दिया है। आज हम दोनों मिलकर कैंडल लाइट डिनर करेंगे, कुछ ही देर बाद बच्चे भी आ जाएंगे।

बहुत ही अच्छा अभिनव पर इतने दिनों बाद आपके अंदर ऐसा बदलाव कैसे आया?

बस आज मन किया कि जीवन की सारी वस्तुओं को छोड़कर पुराने शौक ही को पूरा किया जाए और स्वयं को अपलोड किया जाए। जीवन की इस नवीनता के अपने को माधुर्य में डुबो देना चाहिए।

शांति ने कहा जनाब आज बदले बदले लग रहे हैं।

हां भाग्यवान नजर बदल के देखो नजरिया बदल जाएगा…..।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 90 – हम फकीरों की दौलत महज प्रेम है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – हम फकीरों की दौलत महज प्रेम है।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 90 – हम फकीरों की दौलत महज प्रेम है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

तो अधरों से जब आचमन कर लिया 

देह का, हमने सुरभित चमन कर लिया

*

तेरे यौवन की बेदी, दहकती मिली 

पुण्यफल लेने, मैंने हवन कर लिया

*

इश्क आगाज था, तृप्ति अंजाम है 

एक संसार का, नव सृजन कर लिया

*

हुस्न, छनकर, नक़ाबों से आता रहा 

लाख पर्दो का, तुमने जतन कर लिया

*

मेरी आराध्य, आराधना तुम ही हो 

मान ईश्वर, तुम्हें ही नमन कर लिया

*

हम फकीरों की दौलत, महज प्रेम है 

इस जहाँ में, यही प्राप्त धन कर लिया

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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