☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २३ – ऋचा १ ते ६ ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆
ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २३ (अप्सूक्त)– सूक्त २२ ऋचा १ ते ६
ऋषी – मेधातिथि कण्व
देवता – १ वायु; २-३ इंद्रवायु; ४-६ मित्रावरुण
ऋग्वेदातील पहिल्या मंडलातील तेविसाव्या सूक्तात मेधातिथि कण्व या ऋषींनी अनेक देवतांना आवाहन केलेली असली तरी हे मुख्यतः जलदेवतेला उद्देशून असल्याने हे अप्सूक्त सूक्त म्हणून ज्ञात आहे. यातील पहिली ऋचा वायूचे, दोन आणि तीन या ऋचा इंद्र-वायूचे, चार आणि सहा या ऋचा मित्रावरुणचे आवाहन करतात.
मराठी भावानुवाद ::
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ती॒व्राः सोमा॑स॒ आ ग॑ह्या॒शीर्व॑न्तः सु॒ता इ॒मे । वायो तान्प्रस्थि॑तान्पिब ॥ १ ॥
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जिकडे पाहावे तिकडे घरभर पुस्तकेच पुस्तकं पसरलेली असतात. अगदी दिवाणखान्यापासून, शयनकक्षापर्यंत, स्वंयपाकघरात टेबलावर इतकचं काय .. जाऊदे.. तुम्ही ओळखलं असालचं.. घरात इनमीन सहा माणसं सगळी मोठी नि पुस्तकाची वेडी.. घरात दूरदर्शन आहे पण सगळेच जण दुरुनच दर्शन घेत असतात. मीच कधी तरी हट्टाने कार्टून लावारे म्हणत असतो.. तेव्हढ्यापुरताच तो लागतो. मोठी छोटी पुस्तकं मात्र प्रत्येकाच्या हातात असतात.. एवढं काय असतं त्यात असं मी विचारलं तर मला म्हणतात, तू अजून लहान आहेस. मोठा झालास की, वाचायला लागलास की तुला कळेलचं काय असतं त्यात.. मलाही पुस्तकं हवयं असा कधी मधी मी पण हट्ट धरला कि मोठ्या मोठ्या चित्राची एक दोन पुस्तके माझ्या समोर ठेवतात.. हत्ती, घोडा, वाघ सिंह, विमान, मोटार, जहाज, पोपट, मैना, चिमणी, सगळे त्यात दिसतं ,मी पाहतो पाच मिनिटांत पुस्तकं वाचून? नव्हे पाहून हाता वेगळे होतं ..मग घरातल्यांचं तसं का होत नाही असा प्रश्न काही सुटत नाही..मग माझ्या पुस्तकाहून काही वेगळं त्यात नक्की काहीतरी असणार.. हळूच ती पुस्तकं हातात घेऊन बघण्याचा मोह अनावर होतो.. कधी कधी ती पुस्तकं इतरांच्या नकळत हाती घेऊन चाळत जातो.. शब्दांच्या ओळीवर ओळीने पानं पानं भरलेले असते.. अक्षर ओळख नुकतीच होत असल्याने एकेक शब्दाचा उच्चार करतो अर्थ आणि समज दोन्ही बाल बुद्धीच्या पलीकडे असल्याने पानं पलटलं जातं… नेमके काय असतं की ते इतकं खिळवून ठेवतं याचा शोध अजून चालूच आहे.. पण एक मात्र मला उमजलयं वेळ मात्र छानच जातो.. त्यातली अक्षरं चित्रं पाहून डोळे खिळतात आणि चेहऱ्यावर हास्य पसरतं.. मग घरातले कसे मौनात वाचता वाचता मंदस्मित करत करत मोठयानं हसू लागले दिसतात अगदी तसेच मी पण हसू लागतो… तो आवाज ऐकून आई धावत येते आणि आधी हातातलं पुस्तकं काढून घेते.. पुन्हा या पुस्तकांना हात लावू नको बरं.. नाहीतर तुला सगळे रागावतील.. मी खट्टू होतो आईवर रुसून बसतो..शहाणा माझा राजा उदया मोठा झालास कि वाचायची आहेतच हि पुस्तकं तुला.. आता जरा तुझी खेळणी घेशील खेळायला…माझं पुस्तक वाचन तिथचं संपतं..
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “चेतना की शक्ति…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 144 ☆
☆ चेतना की शक्ति… ☆
हमको अपनी अप लाइन को मजबूत रखना चाहिए। डाउन लाइन बदलती रहेगी क्योंकि उसके अंदर स्थायित्व का अभाव होता है। थोड़े से मानसिक दबाब को वो आत्मसम्मान का मुद्दा बनाकर कार्य छोड़ देते हैं, जबकि ऊपरी स्तर पर बैठे पदाधिकारी समस्याओं को चैलेंज मानकर उनका हल ढूढ़ते हैं।
चेतना के स्तर को बढ़ाने के लिए अच्छी संगत होनी चाहिए। संगत की रंगत तो जग जाहिर है। सत्संग से अच्छा वातावरण निर्मित होता है। वैचारिक रूप से समृद्ध व्यक्ति निरन्तर अपने कार्यों में जुटे रहते हैं। हमारे आसपास आपको बहुत से ऐसे लोग मिलेंगे जो सुखीराम का मंत्र अपनाते हुए जीवन व्यतीत करते जा रहे हैं। सुखीराम जी का मूलमंत्र यही था कि आराम से कार्य करो। अब समस्या ये थी कि काम कैसे हो…? जहाँ आराम मिला वहाँ आलस आ धमकता बस कार्य में बाधा आती जाती है। एक व्यक्ति जो नियमित रूप से कुछ न कुछ करता रहेगा वो अवश्य ही मंजिल को पा लेगा लेकिन जो शुरुआत जोर – शोर से करेगा फिर राह बदल कर दूसरी दिशा में चल देगा वो कैसे विजेता बन सकता है।
Late और latest में केवल st का ही अंतर होता है किंतु एक देरी को दर्शाता है तो दूसरा नवीनता को दोनों परस्पर विरोधी अर्थ रखते हुए भी words में समानता रखते हैं अर्थात केवल सच्चे मन से कार्य करते रहें अवश्य ही सब कुछ मुट्ठी में होगा। प्राकृतिक परिवेश से जुड़े हुए लोग आसानी से समस्याओं को हल करते जाते हैं, उनके साथ ब्रह्मांड की शक्ति जो जुड़ जाती है। यही कारण है कि हम प्रकृतिमयी वातावरण से जुड़कर प्रसन्न होते हैं।
अभी भी समय है चेत जाइये और कुछ न कुछ सार्थक करें, ठग बंधन से अच्छा ऐसा गठबंधन होना चाहिए जो शिखर पर स्थापित होने का दम खम रखता हो।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – हिन्दू राष्ट्र के पुर्नप्रवर्तक महान देश भक्त छत्रपति शिवाजी…।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 206 ☆
आलेख – हिन्दू राष्ट्र के पुर्नप्रवर्तक महान देश भक्त छत्रपति शिवाजी…
पिन कोड ४६२०१६ मतलब, शिवाजी नगर भोपाल ! इसलिये विशेष रूप से भोपाल वासियों को तो छत्रपति शिवाजी के बारे में संज्ञान होना ही चाहिये. देश के अनेक नगरों में शिवाजी नगर हैं, कई चौराहों, पार्क आदि सार्वजनिक स्थलों पर छत्रपति शिवाजी की मूर्तियां स्थापित हैं. वर्तमान में गुजरात में बनी दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा सरदार वल्लभ भाई पटेल की ‘स्टैचू ऑफ यूनिटी’ है, जो 182 मीटर ऊंची है. मुम्बई में अरब सागर में शिवाजी स्मारक प्रस्तावित है, जहां इससे भी उंची १९० मीटर की सिवाजी महाराज की प्रतिमा प्रस्तावित है. अनेक योजनायें उनके नाम पर हैं, जबकि शिवाजी महाराज को गुजरे हुये लगभग ३४० वर्ष से अधिक हो चुके हैं. उनका देहान्त ३ अप्रैल १६८० को रायगढ़ में हुआ था. उनका जन्म १९ फरवरी १६३० में हुआ था. उनका शासनकाल ६ जून १६७४ से उनके देहान्त तक की स्वल्प अवधि ही रही, पर इतने छोटे समय में भी उन्होंने जो नीतियां अपनाईं उनने उन्हें छत्रपति बना कर भारतीय इतिहास में अविस्मरणीय कर दिया. वे एक कुशल शासक, सैन्य रणनीतिकार, वीर योद्धा, मुगलों का सामना करने वाले, सभी धर्मों का सम्मान करने वाले और देश में हिन्दू राज्य के पुनर्संस्थापक थे. यही कारण है कि महाराष्ट्र की राजनीति में शिवाजी का नाम प्रभावी है. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तथा शिव सेना शिवाजी को प्रमुखता से आईकान के रूप में प्रस्तुत करती हैं.
जब मुगल शासको का हिन्दू दमन पराकाष्ठा पर था तब हिन्दुओं की सुरक्षा के लिए ही उन्होंने 1674 ई. हिन्दू साम्राज्य की स्थापना की थी. उनकी माता जीजाबाई के दिये संस्कार ने बचपन से ही उनके मन में हिन्दुत्व की प्रबल भावना भर दी थी. ऐसे में उनका उद्देश्य हिन्दुओं में आत्म सुरक्षा का भाव जागृत करना, सभी को भारत के सदाशयी मिलनसार हिन्दू चरित्र से परिचित कराना था. मुगल आक्रमणकारियों के शोषण, अन्याय, माताओं, बहनों पर शारीरिक और मानसिक अत्याचार, प्राकृतिक संसाधनों को लूटने और हिंदू धार्मिक व सांस्कृतिक स्थलों को नष्ट करने के परिणामस्वरूप पूरा देश पीड़ित था. जनमानस मानसिक रूप से बेहद टूटा हुआ था. ऐसे समय में भक्तिकालीन साहित्य ने जहां भारत की सांस्कृतिक तथा धार्मिक चेतना में प्राण फूंका वहीं राजनैतिक प्रभुत्व की इच्छा शक्ति जगाने, बिखरते हुये हिन्दू राजाओ को एक जुट कर उनमें नई ताकत का संचार करने का कार्य श्रीमंत छत्रपति शिवाजी ने किया. उन्होंने ‘हिंदवी स्वराज्य अभियान’ नामक आंदोलन शुरू किया. शिवाजी की चतुराई पूर्ण रणनीतियों के अनेक किस्से लोक प्रिय और प्रेरक हैं, ऐसे हिन्दू राष्ट्र के पुर्नप्रवर्तक महान देश भक्त छत्रपति शिवाजी को कोटिशः नमन.
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक कहानी –“बाल कहानी – कुछ मीठा हो जाए”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 135 ☆
☆ “बाल कहानी – कुछ मीठा हो जाए” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
गोलू गधे को आज फिर मीठा खाने की इच्छा हुई। उसने गबरू गधे को ढूँढा। वह अपने घर पर नहीं था। कुछ दिन पहले उसी ने गोलू को मीठी चीज ला कर दी थी। वह उसे बहुत अच्छी लगी थी। मगर वह क्या चीज थी? उसका नाम क्या था? उसे मालूम नहीं था।
आज ज्यादा मिर्ची वाला खाना खाने से उसका मुँह जल रहा था। उसे अपने मुँह की जलन मिटानी थी। इसलिए वह पास के खेत पर गया। यहीं से गबरू गधा वह खाने की चीज लाया था। वहाँ जाकर उसने इधर-उधर देखा। खेत पर कोई नहीं था। तभी उसे मंकी बन्दर ने आवाज दी, “अरे गोलू भाई किसे ढूंढ रहे हो? इस पेड़ के ऊपर देखो।” “ज्यादा मिर्ची वाला खाना खाने से मेरा मुँह जल रहा है। मुझे कुछ मीठा खाना है।” गोलू ने कहा तो मंकी बन्दर कुछ फेंकते हुए बोला, “लो पकड़ो। इसे चूस कर खाओ। यह मीठा है।”
“मगर, इसका नाम क्या है?” गोलू ने पूछा तो मंकी बोला, “इसे आम कहते हैं।”
“जी अच्छा, ” कह कर गोलू ने आम चूसा। मगर, वह खट्टा-मीठा था। उसे आम अच्छा नहीं लगा।
“मुझे तो मीठी चीज़ खानी थी,” यह कहते हुए गोलू आगे बढ़ गया।
कुछ दूर जाने पर उसे हीरू हिरण मिला।
“मुझे कुछ मीठी चीज खाने को मिलेगी ? मेरा मुंह जल रहा है,” गोलू ने उसका अभिवादन करने के बाद कहा तो हीरू ने उसे एक हरी चीज पकड़ा दी, “इसे खाओ। यह मीठा लगेगा।”
गोलू ने वह चीज खाई, “यह तो तुरतुरीऔर मीठी है। मगर मुझे तो केवल मीठा खाना था,” यह कहते हुए गोलू आगे बढ़ गया। उसके दिमाग में गबरू की लाई हुई मीठी चीज़ खाने की इच्छा थी। मगर उसे उस चीज़ का नाम याद नहीं आ रहा था।
वह आगे बढ़ा। उसे चीकू खरगोश मिला। वह लाल-लाल चीज़ छील-छील कर उसके दाने निकाल कर खा रहा था। गोलू ने उससे अपनी मीठा खाने की इच्छा जाहिर की। चीकू ने वह लाल-लाल चीज उसे पकड़ा दी, “इसे खाओ। यह फल मीठा है। इसे अनार कहते हैं।”
गोलू ने अनार खाया, “यह उस जैसा मीठा नहीं है,” कहते हुए वह आगे बढ़ गया।
रास्ते में उसे बौबौ बकरी मिली। उसने बौबौ को भी अपनी इच्छा बताई, “आज मेरा मुँह जल रहा है। मुझे मीठा खाने की इच्छा हो रही है।”
बौबौ ने एक पेड़ से पीली- पोली दो लम्बी चीजें दीं, “इस फल को खा लो। यह मीठा है।”
गोलू ने वह फल खाया, “अरे वाह! इसका स्वाद बहुत बढ़िया है। मगर उस चीज जैसा नहीं है। मुझे वही मीठी चीज खानी है,” कहते हुए गोलू आगे बढ़ गया।
अप्पू हाथी अपने खेत की रखवाली कर रहा था। उसके पास जाकर गोलू ने अपनी इच्छा जाहिर की, “अप्पू भाई! आज मुझे मीठा खाने की इच्छा हो रही है।”
यह सुनकर अप्पू बोला, “तब तो तुम बहुत सही जगह आए हो।”
यह सुनकर गोलू खुश हो गया, “यानी मीठा खाने की मेरी इच्छा पूरी हो सकती है।”
“हाँ हाँ क्यों नहीं,” अप्पू ने कहा, “मीठी शक्कर जिस चीज से बनती है, वह चीज मेरे खेत में उगी है।” कहते हुए अप्पू ने एक गन्ना तोड़ कर गोलू को दे दिया, “इसे खाओ।” गोलू ने कभी गन्ना नहीं चूसा था। उसने झट से गन्ने पर दांत गड़ा दिए। गन्ना मजबूत था। उसके दांत हिल गए।
“अरे भाई अप्पू। तुमने मुझे यह क्या दे दिया। मैंने तुम से मीठा खाने के लिए माँगा था। तुमने मुझे बाँस पकड़ा दिया। कभी बाँस भी मीठा होता है।” यह कहते हुए गोलू ने बुरा-सा मुँह बनाया।
यह देखकर अप्पू हँसा, “अरे भाई गोलू! नाराज क्यों होते हो। इसे ऐसे खाते (चूसते) हैं, ” कहते हुए अप्पू ने पहले गन्ना छीला, फिर उसका थोड़ा-सा टुकड़ा तोड़ कर मुँह में डाला। उसे अच्छे से चबाकर चूसा। कचरे को मुँह से निकाल कर फेंक दिया।
“इसे इस तरह चूसा जाता है। तभी इसके अन्दर का रस मुँह में जाता है।”
यह सुनकर गोलू बोला, “मगर, मुझे तो लम्बी-लम्बी, लाल-लाल और पीछे से मोटी और आगे से पतली यानी मूली जैसी लाल व मीठी चीज़ खानी है। वह मुझे बहुत अच्छी लगती है।”
यह सुन कर अप्पू हँसा, “अरे भाई गोलू। यूँ क्यों नहीं कहते हो कि तुम्हें गाजर खाना है,” यह कहते हुए अप्पू ने अपने खेत में लगे दो चार पौधे जमीन से उखाड़कर उनको पानी से धो कर गोलू को दे दिए।
“यह लो। यह मीठी गाजर खाओ।”
बस! फिर क्या था? गोलू खुश हो गया। उसे उसकी पसन्द की मीठी चीज खाने को मिल गई थी। उसने जी भर कर मीठी गाजर खाई। उसका नाम याद किया और वापस लौट गया।
वह रास्ते भर गाजर, गाजर, गाजर, गाजर रटता जा रहा था। ताकि वह गाजर का नाम याद रख सके। इस तरह उसकी गाजर खाने की इच्छा पूरी हो गई।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’(धनराशि ढाई लाख सहित)। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 155 ☆
☆ बाल कविता – मीन हैं प्यारी-प्यारी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’☆
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है “तन्मय के दोहे – खाली मन का कोष… ”।)
☆ तन्मय साहित्य #177 ☆
☆ तन्मय के दोहे – खाली मन का कोष… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆