हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 137 – “उस सफर की धूप छांव” – डा पूजा खरे ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है डा पूजा खरे जी के कथा संग्रह “उस सफर की धूप छांव” पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 137 ☆

☆ “उस सफर की धूप छांव” – डा पूजा खरे ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

कृति : उस सफर की धूप छांव

लेखिका : डा पूजा खरे

प्रकाशक: ज्ञान मुद्रा प्रकाशन, भोपाल

मूल्य: १५० रुपये

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

☆ सेरेंडिपीटी अर्थात मूल्यवान संयोगो की मंगलकामनायें ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

लाकडाउन अप्रत्याशित अभूतपूर्व घटना थी, सब हतप्रभ थे, किंकर्त्व्यविमूढ़ थे, कहते हैं यदि हिम्मत न हारें तो जब एक खिड़की बंद होती है तो कई दरवाजे खुल जाते हैं, लाकडाउन से जहां एक ओर रचनाकारो को समय मिला, वैचारिक स्फूर्ति मिली वहीं उसे अभिव्यक्त करने के लिये नये संसाधनो प्रकाशन सुविधाओ, इंटरनेट के सहारे सारी दुनियां का विशाल कैनवास मिला, मल्टी मीडिया के इस युग में भी किताबों का महत्व यथावत बना हुआ है, नैसर्गिक या दुर्घटना जनित त्रासदियां संवेदना में उबाल लाती हैं, भोपाल तो गैस त्रासदी का गवाह रहा है, कोरोना में राजधानी होने के नाते न केवल भोपाल वरन प्रदेश की घटनाओ की अनुगूंज यहां मुखरता से सुनाई देती रही है, तब की किंकर्त्व्य विमूढ़ता के समय में कला साहित्य ने मनुष्य में पुनः प्राण फूंकने का महत्वपूर्ण कार्य किया, किताब की लम्बी भूमिका में आनंद कृष्ण जी ने त्रासदियों के इतिहास और मानव जीवन पर विस्तार से प्रकाश डाला है, पुस्तक की लेखिका डा पूजा खरे मूलतः भले ही डेंटिस्ट हैं किन्तु उनके संवेदनशील मन में एक नैसर्गिक कहानीकार सदा से जीवंत रहा है, जब कोई ऐसा जन्मजात अनियत कालीन रचनाकार शौक से कुछ अभिव्यक्त करता है तो वह स्थापित पुरोधाओ के क्लिष्ट शब्दजाल से उन्मुक्त अपनी सरलता से पाठक को जीत लेता है, डा पूजा की कहानियां भी ऐसी ही हैं, छोटी, मार्मिक और प्रभावी,

मेरे पिता वरिष्ठ कवि प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव “विदग्ध” जी की पंक्तियां हैं

“सुख दुखो की आकस्मिक रवानी जिंदगी

हार जीतो की बड़ी उलझी कहानी जिंदगी

भाव कई अनुभूतियां कई, सोच कई व्यवहार कई

पर रही नित भावना की राजधानी जिंदगी “

इस संग्रह “उस सफर की धूप छांव ” में कुल दस हमारे आस पास बिखरी घटनाओ पर गढ़ी गई कहानियां संजोई गई हैं, सुख दुख, हार जीत, जीवन की अनुभूतियों और व्यवहार, इन्हीं  भावों की कहानियां बड़ी कसावट और शिल्प सौंदर्य से बुनी गई हैं, ये सारी ही कहानियां पाठक के सम्मुख अपने वर्णन से पाठक के सम्मुख दृश्य उपस्थित करती हैं, संग्रह की अंतिम कहानी ” मन के जीते जीत ” को ही लें,..

यह कहानी संभवतः वर्ष २०४५ में मूर्त हो सकेगी, क्योंकि कोरोना काल में पैदा हुआ रोहित मां की मेहनत और अपने श्रम से तपकर उससे पहले तो आई ए एस की परीक्षा में प्रथम नही आ सकता, अस्तु यह भविष्य की कल्पना के जीवंत दृश्य बुन सकने की क्षमता लेखिका को विशिष्ट बनाती है, सरल संवाद की भाषा कोई बनावटीपन नहीं अच्छी लगी,

कोरोना काल का इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, समाज शास्त्र, राजनीति सब कुछ मिलता है इन कहानियों में, सचमुच साहित्य समाज का दर्पण है, निशान, जागा हुआ सपना, कब तक, घंटी, कुछ ख्वाब चंद उम्मीदें, चातक की प्यास, प्राण वायु, एक्स फैक्टर, लत और मन के जीते जीत ये कुल दस कहानियां हैं,

जागा हुआ सपना कहानी से ही उधृत करता हूं,..” १४ दिन मुझे अस्पताल के कोरोना वार्ड में ही गुजारने थे,,.. न कोई घर का व्यक्ति न दोस्त, हर तरफ सिर्फ मेरी तरह मरीज, चिकित्सक, नर्स और सफाई कर्मचारी ही दिखते थे,..उस हमउम्र नर्स को मैंने किसी पर खीजते नहीं देखा,. पी पी ई किट के भीतर से आती उसकी दबी दबी सी आवाज से ही उसे पहचानता था… जिस तरह मैंने सिंद्रेला, रँपन्जेल, स्नो व्हाईट, स्लीपिंग ब्यूटी को कभी नहीं देखा उसी तरह उसे भी कभी नही देखा,.. किंचित कवित्व और नाटकीयता भी इस कहानी की अभिव्यक्ति में मिली, यह भी पता चलता है कि लेखिका विश्व साहित्य की पाठिका है, अस्तु मैं ये छोटी छोटी कहानियां एक एक सिटिंग में मजे से पढ़ गया, आपको भी खरीद कर पढ़ने की सलाह दे रहा हूं, इधर ज्ञान मुद्रा प्रकाशन ने भोपाल में सद साहित्य को सामने लाने का जो महत्वपूर्ण बीड़ा उठाया है, उसके लिये उन्हें भी बधाई बनती है, डा पूजा खरे से हिन्दी कहानी जगत को और उम्मीदें हैं, उन्हें उनके ही शब्दों में सेरेंडिपीटी अर्थात मूल्यवान संयोगो की मंगलकामनायें,

एक कमी का उल्लेख जरूरी लगता है किताब में लेखकीय फीड बैक के लिये क से कम एक मेल आईडी दी जानी चाहिये थी, डा पूजा जैसी लेखिका एक किताब लिखकर गुम होने के लिये नहीं हैं,

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 157 – परछाई ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा परछाई”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 15 ☆

☆ लघुकथा 🌹 परछाई 🌹

कमला रोज सिर पर लकड़ी का बोझ लिए चलती जाती। कड़क तेज धूप पसीना पोंछती अक्सर अपनी परछाई को देखती।

उसे लगता क्या?? सारी जिंदगी सिर्फ बोझ ही उठाती रहूंगी। थकी हारी शाम को अपने घर भोजन बनाकर सभी परिवार का रुखा सुखा इंतजाम करती और थकान से चूर बिस्तर पर सोते ही नींद लग जाती।

कभी उसने रात में चांदनी की सुंदरता नहीं देखी थी।

आज पूनम की रात अचानक नींद खुली। बाहर आंगन में निकलकर वह बैठी थी। साड़ी का पल्लू सिर पर डाल रही थी कि पीछे से आज उसकी परछाई किसी खूबसूरत रानी की तरह बनी। ऐसा लगा मानो सिर पर ताज लगा रखी हो।

अपनी परछाई को घंटों निहारते वह बैठी रही। उसने सोचा सही कहा करती थी अम्मा.. पूनम की रात सभी के सपने पूरे होते हैं। खुशी से आंखों से आंसू बहने लगे। दूर से दूधिया रोशनी से नहाती आज वह अत्यधिक प्रसन्न हो रही थी।

परछाई ही सही, मेरी अपनी परछाई ही तो है। तभी पति देव ने आवाज लगाई… आ जा कमला सो जा पूनम का चांद सिर्फ हम सुनते हैं और देखते हैं, हमारे लिए नहीं है हमारे लिए तो सिर्फ तपती दोपहरी की परछाई ही हकीकत है। जो हमें सुख से रात को चैन की नींद सुलाती है।

पति देव की बात को शायद समझ नहीं सकी। परन्तु सोकर जल्दी उठ काम पर जाना है सोच वह सोने चली गई।  

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 33 – देश-परदेश – हमारा गुरुद्वारा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 33 ☆ देश-परदेश – हमारा गुरुद्वारा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज विदेश में प्रातः भ्रमण के समय एक गुरुद्वारे के दर्शन हो गए। हमारी खुशी का ठिकाना ना रहा, मानो कोई साक्षात भगवान के दर्शन हो गए।

करीब बीस एकड़ भूमि में बने गुरुद्वारे में प्रवेश किया, तो वहां एकदम शांति थी। छोटे से कस्बे मिलिस जिला मैसाचुसेट्स जो कि अमेरिका के पूर्वी भाग में स्थित हैं। आस पास लोगों के घर हैं, कोई भारतीय निवासी भी नहीं दिख रहा था।

एक अंग्रेज़ सी दिखने वाली महिला ने अपना भारतीय मूल का नाम जिसमें कौर भी शामिल था, परिचय दिया। वो मूलतः फ्रांस देश से हैं।

गुरुग्रंथ साहब को सम्मान पूर्वक माथा टेकने के पश्चात, महिला से थोड़ी देर गुरुद्वारे की जानकारी ली।

गुरुद्वारे का संबंध “मेरिकन सिख” से हैं। इस देश में करीब सौ वर्ष पूर्व कुछ सिख परिवार इस देश में रच बस गए हैं। हमारी जानकारी में तो इंग्लैंड, कनाडा और अफगानिस्तान में ही सिख समुदाय के लोग बहुतायत से रहते है। अमेरिका में भी सात लाख के करीब सिख बंधु रहते हैं।

ये लोग योग और कुंडलिनी से संबंधित ऑनलाइन शिक्षा देते हैं। वो बात अलग है, कुछ फर्जी प्रकार के कुंडलिनी योग भी अमेरिका में पैसा कमाने का साधन बने हुए हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #187 ☆ ओठ कोरडे… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 187 ?

☆ ओठ कोरडे…

दुष्काळाच्या सोबत मी तर नांदत होते

ओठ कोरडे घामासोबत खेळत होते

किती मारले काळाने या जरी कोरडे

काळासोबत तरी गोड मी बोलत होते

जरी फाटक्या गोणपटावर माझी शय्या

सवत लाडकी तिला दागिने टोचत होते

शिकार दिसता रस्त्यावरती डंख मारण्या

साप विषारी अबलेमागे धावत होते

उंबरठ्याची नाही आता भिती राहिली

नवी संस्कृती तिरकट दारा लावत होते

रक्त गोठले भांगेमधले कुंकू नाही

जखमा काही केसामागे झाकत होते

सरणावरती अता कशाला हवेय चंदन

दुर्भाग्याचा रोजच कचरा जाळत होते

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 138 – कैसा होता प्यार बताओ… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – कैसा होता प्यार बताओ।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 138 – कैसा होता प्यार बताओ…  ✍

कैसा होता प्यार बताओ

बोल उठा मैं

कहती जाओ, कहती जाओ।

गंध घुली लगती है आहट

ओस घुली सी आँखें मेरी

चपल चाँदनी में पाता हूँ

अपने मन की चाह घनेरी

जानो बूझो भेद बताओ

तुम कहती हो

कैसा होता प्यार बताओ।

शब्द उच्चरित करती हो जब

रेशम रूप दिखाई देता

करती हो संधान स्वरों का

अनहद नाद सुनाई देता

कैसी यह अनुभूति बताओ

तुम कहती हो

कैसा होता प्यार बताओ।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 137 – “क्षोभदग्धा थी संरचना…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है  आपका एक अभिनव गीत  “क्षोभदग्धा थी संरचना)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 137 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

क्षोभदग्धा थी संरचना ☆

गंध गई पहचानी बस

मौलिक सम्बंधों पर

तुम करते सम्वाद रहे

अनगिनत प्रबन्धों पर

 

टीका टिप्पणियों की

जो थी वर्ग सिद्ध उपमा

कभी काम आयेगी

अपने फैली हरीतिमा-

 

की समर्थ कमियों की

बनपायी क्या अनुसूची

किसी नये व्यवहारशील

पौरुष के कन्धों पर

 

प्रकृति पगा वात्सल्य

क्षोभदग्धा थी संरचना

सहज हुई जाती है जिसकी

क्षीण, स्वर्ण वसना-

 

आभा, जिसके नभ

कोटर में छिपी नाद-संध्या-

से झरती स्वर लहरी दिखती

चंचल छन्दों पर

 

भव्य परावर्तन के किंचित

स्नेह जनित सत्रों

का जिन पर उत्सर्ग रहा

है सभी भोजपत्रों-

 

कोई नहीं समझ पाया

वरदानी परम्परा

और वार्ता लगे समझने

इन उपबन्धों पर

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

07-05-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ माइक्रो व्यंग्य # 187 ☆ “बैरन नींद न आय…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक माइक्रो व्यंग्य  – “बैरन नींद न आय…”।)

☆ माइक्रो व्यंग्य # 187 ☆ “बैरन नींद न आय…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

बहुत दिनों से एक नेता परेशान हैं, रात को सो नहीं पाता। राजधानी से जब अपने गांव आता है तो रास्ते भर कुत्ते उसको देखकर भौंकने लगते हैं। एक बार तो बड़ा गजब हो गया, रास्ते में जब वह लघुशंका के लिए कार से उतरा तो पीछे से एक कुत्ता आया और खम्भा समझकर उसके खम्भे जैसे पैर पर अपनी लघुशंका दूर कर दी। देखकर ड्राईवर मंद मंद मुस्कराया। और गीला पजामा से नेता परेशान हो गया। उसने पिस्तौल निकाली तब तक कुत्ता कईं केईं करता भाग गया, एनकाउंटर से बच गया।

जब घर पहुंचा तो रात हो गई थी, अपनी पत्नी के साथ जब वो सो रहा था तो खिड़की के पास लड़ैया ‘हुआ हुआ’… करने लगे। कई दिन ऐसा चलता रहा।  रात को उसकी नींद हराम होती थी और दिन में कुत्ते तंग करने लगे थे।

हारकर उसने अपनी कुंडली एक ज्योतिषी को दिखाई तो ज्योतिषी ने बताया कि नेताजी आपने अपने क्षेत्र के विकास में ध्यान नहीं दिया, सरकारी फायदे उठाते रहे और राजधानी में जाकर सोते रहे। अकूत संपत्ति बनाने और पैसा खाने के चक्कर में रहे आये और जनता के दुख दर्द और परेशानियों भरे आवेदन पत्र जलाकर मुस्कराते रहे।

नेता – कोई इलाज , इनसे बचने के लिए क्या करना चाहिए  ?

ज्योतिषी – सड़क किनारे की दस बारह एकड़ जमीन हमारे नाम से कर दो, जो हमारे पिताजी से छुड़ायी थी। शान्ति भी रहेगी और नींद भी आयेगी। क्या पता, पिताजी कुत्ता बन कर आपको काट लें तो ?

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 128 ☆ # तुमने मेरा साथ दिया… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# तुमने मेरा साथ दिया… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 128 ☆

☆ # तुमने मेरा साथ दिया… # ☆ 

(श्री श्याम खापर्डे द्वारा उनके विवाह की स्वर्ण जयंती पर रचित भावप्रवण रचना। हार्दिक बधाई।)

तुमने हर पल, हर मोड़ पर

मेरा साथ दिया

तुमने दुःख भी बांटे

सुख में भी मेरा साथ दिया

 

तुमने हाथ थामा तो

कभी छोड़ा नहीं

वादा निभाने की कसम को

कभी तोड़ा नहीं

संग चलती रही, बस चलती रही

राह में हर कदम पर

मेरा साथ दिया

 

कभी कभी अंबर पर

बादल खूब गरजते रहे

कभी कभी घनघोर घटा बन

बरसते रहे

तुम आंचल में मुझको

छुपाती रही

हर बारिश में आंचल बन

मेरा साथ दिया

 

जब उम्मीदें नाउम्मीद

बन कर सो गई

मुझे तो लगा जैसे

जिंदगी खत्म हो गई

तब तुम सुबह की नई

किरण बन कर आई

अंधेरे में रोशनी बन

तुमने मेरा साथ दिया

 

जब भी मैं लड़खड़ाया

तुमने संभाला मुझको

जब भी डूबने लगा

तुमने बाहर निकाला मुझको

बिना तुम्हारे मेरा कोई

वजूद नहीं

मै एहसानमंद हूँ

जो तुमने मेरा साथ दिया /

 

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 130 ☆ महाराष्ट्राची यशोगाथा- भव्य राष्ट्र माझा…☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 130 ? 

☆ महाराष्ट्राची यशोगाथा- भव्य राष्ट्र माझा… ☆

महाराष्ट्राची यशोगाथा

शब्दांत कैसी मांडावी

शूर विरांच्या, विरगाथा

लेखणीतून व्यक्त करावी.!!

 

महाराष्ट्राची यशोगाथा

शब्द हे, अपुरे पडती

संत महंतांच्या भूमीत

देव ही, इथे अवतरती.!!

 

महाराष्ट्राची यशोगाथा

संत परंपरा,  थोर लाभली

वीर शिवबा, इथेच जन्मले

मराठ्यांची, सरशी झाली.!!

 

महाराष्ट्राची यशोगाथा

सत्पुरुषांची, मांदियाळी

महात्मा फुले, आंबेडकर-शाहू

अनेक थोर, भव्य मंडळी.!!

 

महाराष्ट्राची यशोगाथा

कणखर ह्या, पर्वत-रांगा

राज-भाषा, मराठी बोली

जैसी पवित्र, गोदा- गंगा

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग 66 – उत्तरार्ध – रामकृष्ण संघाची स्थापना ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग 66 – उत्तरार्ध – रामकृष्ण संघाची स्थापना ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

स्वामी विवेकानंद कलकत्त्यात होते, बंगालमध्ये उत्साहाचे वातावरण होते, योगायोगाने श्रीरामकृष्णांचा जन्मदिवस ७ मार्च ला होता. पश्चिमेकडून विवेकानंद नुकतेच आल्यामुळे हा दिवस मोठ्या प्रमाणात दक्षिणेश्वरच्या कालीमंदिरात साजरा करण्यात आला, प्रचंड गर्दी. गुरुबंधु बरोबर विवेकानंद कालीमातेचे दर्शन घेऊन  श्रीरामकृष्णांच्या खोलीकडे वळले, ते ११ वर्षानी या खोलीत पाऊल ठेवत होते. मनात विचारांचा कल्लोळ होता. १६ वर्षांपूर्वी येथे प्रथम आल्यापासून ते आज पर्यन्त गुरु श्रीरामकृष्णांबरोबर चे दिवस, घडलेल्या अनेक घटना, प्रसंग आणि मिळालेली प्रेरणा- ते, हिंदू धर्माची पताका जगात फडकवून मायदेशी परतलेला नरेंद्र आज त्याच खोलीत उभा होता. त्यांच्या डोळ्यांसमोरून या कालावधीचा चित्रपटच सरकून गेला.

या वास्तव्यात विवेकानंद यांना अनेकजण भेटायला येत होते. काही जण फक्त दर्शन घ्यायला येत. काहीजण प्रश्न विचारात, काही संवाद साधत. तर कोणी त्यांचा तत्वज्ञानावरचा अधिकार पारखून घ्यायला येत. एव्हढे सगळे घडत होते मात्र स्वामी विवेकानंद यांना आता खूप शीण झाला होता. थकले होते ते.परदेशातील अखंडपणे चाललेले काम आणि प्रवास ,धावपळ, तर भारतात आल्यावरही आगमनाचे सोहळे, भेटी, आनंद लोकांशी सतत बोलणे यामुळे स्वामीजींची प्रकृती थोडी ढासळली . त्याचा परिणाम म्हणजे मधुमेय विकार जडला. आता त्यांचे सर्व पुढचे कार्यक्रम रद्द केले. आणि केवळ विश्रांति साठी दार्जिलिंग येथे वास्तव्य झाले.   

त्यांना खरे तर विश्रांतीची गरज होती पण डोळ्यासमोरचे ध्येय गप्प बसू देत नव्हते. कडक पथ्यपाणी सांभाळले, शारीरिक विश्रांति मिळाली, पण मेंदूला विश्रांति नव्हतीच, त्यांच्या डोळ्यासमोर ठरवलेले नव्या स्वरूपाचे प्रचंड काम कोणावर सोपवून देणे शक्य नव्हते.

मात्र हिमालयाच्या निसर्गरम्य परिसरात साग, देवदारचे सुमारे दीडशे फुट उंचीचे वृक्ष, खोल दर्‍या, समोर दिसणारी बर्फाच्छादित २५ हजारांहून अधिक उंचीच्या डोंगरांची रांग, २८ हजार फुटांपेक्षा जास्त ऊंच असलेले कांचनगंगा शिखर, वातावरणातील नीरव शांतता, क्षणाक्षणाला बदलणारी आकाशातली लाल निळ्या जांभळ्या रंगांची उधळण, अशा मन उल्हसित आणि प्रसन्न करणार्‍या निसर्गाच्या सान्निध्यात स्वामीजी राहिल्यामुळे त्यांना मन:शान्ती मिळाली, आनंद मिळाला, बदल ही पण एक विश्रांतीच होती. एरव्ही पण आपण सामान्यपणे, “फार विचार करू नकोस, शांत रहा”, असे वाक्य एखाद्या त्रासलेल्याला समजवताना नेहमी म्हणतो. पण ही मनातल्या विचारांची प्रक्रिया थांबवणे शक्य नसते. शिवाय स्वामीजींसारख्या एखाद्या ध्येयाने झपाटलेल्या व्यक्तिला कुणीही थांबवू शकत नाही. त्यात स्वामीजींचे कार्य अजून कार्यान्वित व्हायचे होते. त्याचे चिंतन करण्यात त्यांनी मागची अनेक वर्षे घालवली होती. आता ते काम उभे करण्याची वेळ आली होती.

संस्था! एक नवी संस्था, ब्रम्हानंद आणि इतर दोन गुरुबंधु यांच्या बरोबर स्वामीजी संबंधीत विचार करून तपशील ठरवण्याच्या कामी लागले होते. येथे दार्जिलिंगच्या वास्तव्यात आपल्या संस्थेचे स्वरूप कसे असावे याचा आराखडा केला गेला. युगप्रवर्तक विवेकानंदांना आजच्या काळाला सुसंगत ठरणारी सेवाभावी, ज्ञानतत्पर, समाजहित वर्धक, शिस्त आणि अनुशासन असणारी अशी संन्याशांची संस्था नव्हे, ऑर्गनायझेशन बांधायची होती. त्याची योजना व विचार सतत त्यांच्या डोक्यात होते. ही एक क्रांतीच होती, कारण भारताला संन्यासाची हजारो वर्षांची परंपरा होती. आध्यात्मिक जीवनाचे आणि सर्वसंगपरित्याग करणार्‍या संन्याशाचे स्वरूप विवेकानंद यांना बदलून टाकायचे होते.

दार्जिलिंगहून १ मे १८९७ रोजी स्वामीजी कलकत्त्याला आले. तेथे त्यांनी श्रीरामकृष्णांचे संन्यासी शिष्य आणि गृहस्थाश्रमी भक्त यांची बैठक बोलवून संस्था उभी करण्याचा विचार सांगितला. पाश्चात्य देशातील संस्थांची माहिती व रचना सांगितली. आपण सर्व ज्यांच्या प्रेरणेने हे काम करीत आहोत त्या श्रीरामकृष्णांचे नाव संस्थेला असावे असा विचार मांडला. श्रीरामकृष्ण यांच्या महासमाधीला दहा वर्षे होऊन गेली होती. या काम करणार्‍या संस्थेचे नाव रामकृष्ण मिशन असे ठेवावे, आपण सारे याचे अनुयायी आहोत. हा त्यांचा विचार एकमताने सर्वांनी संमत केला.

पुढे संस्थेचे उद्दिष्ट्य, ध्येयधोरण ठरविण्यात आले.आवश्यक ते ठराव करण्यात आले, श्री रामकृष्णांनी आपल्या जीवनात ज्या मूल्यांचे आचरण केले, आणि मानव जातीच्या भौतिक आणि आध्यात्मिक कल्याणचा जो मार्ग दाखविला त्याचा प्रसार करणे हे संस्थेचे मुख्य ध्येय निश्चित करण्यात आले. संस्थेचे ध्येय व कार्यपद्धती आणि व्याप्ती निश्चित केल्यावर पदाधिकारी निवडण्यात आले. विवेकानंद,रामकृष्ण संघाचे पहिले अध्यक्ष निवडले गेले.आध्यात्मिक पायावर उभी असलेली एवभावी आणस्था म्हणून १९०९ मध्ये रीतसर कायद्याने नोंदणी केली गेली. विश्वस्त मंडळ स्थापन झाले. खूप काम वाढले, शाखा वाढल्या, शिक्षण, रुग्णसेवा ही कामे वाढली, १२ वर्षे काळ लोटला. आता थोडी रचना बदलण्यात आली. धार्मिक आणि आध्यात्मिक क्षेत्रात काम करणारी ती ‘रामकृष्ण मठ’ आणि सेवाकार्य करणारी ती संस्था ‘रामकृष्ण मिशन’ अशी विभागणी झाली. या कामात तरुण संन्याशी बघून अनेक तरुण या कामाकडे आकर्षित होत होते, पण अजूनही तरुण कार्यकर्ते संन्यासी कामात येणे आवश्यक होते. नवे तरुण स्वामीजी घडवत होते. या संस्थेतील संन्याशाचा धर्म, आचरण, दिनचर्या, नियम, ध्यान धारणा, व्यायाम,शास्त्र ग्रंथाचे वाचन, त्या ग्रंथाचे रोज परीक्षण समाजवून सांगणे, तंबाखू किंवा कुठलाही मादक पदार्थ मठात आणू नये. अशा नियमांची सूची व बंधने घालण्यात आली. त्या शिवाय प्रार्थना, वर्षिक उत्सव, विविध कार्यक्रमांची योजना ,अशा सर्व नियमांची आजही काटेकोरपणे अंमलबजावणी केली जाते.     

स्वामी विवेकानंद यांच्या या संस्थेचे बोधवाक्य होते

|| ‘आत्मनो मोक्षार्थ जगद्धिताय च’ ||

आज शंभर वर्षे  आणि वर १४ वर्षे अशी ११४ वर्षे हे काम अखंडपणे सुरू आहे.  

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares