हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 212 ☆ कविता – व्यंग्यकार… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक कविता  – व्यंग्यकार…

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 212 ☆  

? कविता – व्यंग्यकार?

परसाई का परचम थामे हुए

जोशी का प्रतिदिन संभाले हुए

स्पिन से गिल्लीयां उड़ाते हुए

विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

 

विसंगतियो पर करते प्रहार

जनहित के, निर्भय कर्णधार

शासन समाज की गतिविधि के

विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

 

गुदगुदाते कभी , हंसाते कभी

छेड़ते दुखती रग , रुलाते वही

आईना दिखाते,जगाते समाज

विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

 

पिटते भी हैं, पर न छोड़े कलम

कबीरा की राहों पे बढ़ते कदम

सत्य के पक्ष में, सत्ता पर करते

कटाक्ष, विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

 

आइरनी , विट, ह्यूमर ,सटायर

लक्षणा,व्यंजना, पंच औजार

नित नए व्यंग्य रचते , धारदार

विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

 

स्तंभ हैं, संपादक के पन्ने के

रखते सीमित शब्दों में विचार

करने समाज को निर्विकार

विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

 

चुभते हैं , कांटो से उसको

जिस पर करते हैं ये प्रहार

रोके न रुके लिखते जाते

विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

 

कविता करते, लिखते निबंध

व्यंग्य बड़े छोटे , या उपन्यास

हंसी हंसी में कह देते हैं बात बड़ी

विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

 

चोरों की दाढ़ी का तिनका

ढूंढ निकालें ये हर मन का

दृष्टि गजब पैनी रखते हैं

विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

 

ख्याति प्राप्त विद्वान हुए हैं

कुछ अनाम ही लिखा करे हैं

प्रस्तुत करते नये सद्विचार

विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #188 ☆ ग्रहण… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 188 ?

लागले सूर्यास येथे ग्रहण आहे ?

चंद्र करतो चक्क त्याचे हरण आहे ?

पांढरे बगळे इथे आले चराया

देश म्हणजे एक मोठे कुरण आहे

साखरेचा रोग आहे अन् तरीही ?

दाबुनी खातो फुकटचे पुरण आहे

लाज वाटावी कशाला वाकण्याची

माय-बापाचेच धरले चरण आहे

भासला नाहीच तोटा अश्रुचाही

दोन भुवयांच्याच खाली धरण आहे

मार्ग भक्तीचाच आहे भावलेला

कृष्णवर्णी शाम त्याला शरण आहे

भरजरी वस्त्रात गेली जिंदगी पण

शेवटाला फक्त मिळते कफण आहे

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – मातीत मुळे रुजताना… – ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– मातीत मुळे रुजताना…– ? ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

मूळास ओटीपोटी धरूनी

माती मजला उठ म्हणाली

फोडून  माझे अस्तर वरचे

पानोपानी हळू फुट म्हणाली

मी न सोडीन मूळास कधीही

तुझ्या कुवतीने वाढ म्हणाली

नभास पाहंन हरकून मीही

पिसार्‍यासम फुलत राहीली

काही दिसानी सर्वांगावरती

इवले इवले कळे लागले

क्षणाक्षणांनी कणाकणांनी

ते ही हळूहळू वाढू लागले

पहाटे अवचित  जागी होता

गंधाने मी पुलकीत झाले

अय्या आपला चाफा फुलला

आनंदाने कुणी ओरडले

भराभरा घरातील सगळे

माझ्या भवती झाले गोळा

फुलवती मी गंधवती मी

मीअनुभवला गंध सोहळा

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 139 – आकर ऐसे चले गये… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – आकर ऐसे चले गये।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 139 – आकर ऐसे चले गये…  ✍

आकर ऐसे चले गये तुम

ज्यों बहार का झोका

मत जाओ प्रिय, रुक जाओ प्रिय

मैंने कितना रोका।

 

मैं बैठा था असुध अकेला

दी आवाज सुनाई,

जैसे गहरे अंधकूप में

किरन उतरती आई।

रोम रोम हो गया तरंगित, लेकिन मन ने टोका।

 

तुम आये तो विहँस उठा मैं

आँख अश्रु से घोई

जैसे कोई पा जाता है

वस्तु पुरानी खोई ।

मिलन बना पर्याय विरह का, मिलन रहा बस धोखा।

 

जाना दिखता पर्वत जैसा

धीरज जैसे राई

इतना ही संतोष शेष है

केवट की उतराई ।

आश्वासन जो दिया गया है, बार बार वह धोखा।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 138 – “नियत तिथी की तैयारी में…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है  आपका एक अभिनव गीत  नियत तिथी की तैयारी में)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 138 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

नियत तिथी की तैयारी में 

आँखों भरे उजास

खीर पूड़ी का स्वप्न नया

पिण्डदान के लिये

रामजस परसों गया, गया

 

लौट बाप की बरसी का

वह पुण्य लाभ लेगा

कुछ ज्यादा होगा कर्जा

पर फर्ज चुका देगा

 

राम रतन ने अपने

दद्दा की तेरहवीं में

मालपुये खिलवाये घी

के खालिश, तसमई में

 

इस विचार को लिये

रामजस बैठा गाड़ी में

नाम कमाना भी आवश्यक

जीवन में कृपया

 

फिर उधेडबुन को

सुलझाता पहुँचा बनियेके

बडी आरजू मिन्नत से

समझा पाया वह, ये –

 

एक एक पैसा चुकता

कर दूँगा मैं तेरा

खडी फसल है गेहूँ की

कर तू यकीन मेरा

 

कर्जे का मिलना भी तो है

एक बड़ी राहत

जब कि फँसा लोगों को

बनिया करता है, मृगया

 

नियत तिथी की तैयारी में

जुटा समूचा घर

क्या , कैसा, होना होगा

अच्छा, इस मौके पर

 

इधर गाँव के लोग कर्ज के

धन पर ध्यान रखे

और कल्पनाओं में सब

डूबे मशगूल दिखे

 

लोगों ने तय किया

रामजस का कर्जे का धन

सारा खर्चा जाये जिसमें

बचे न  इक रुपया

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

11-05-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ माइक्रो व्यंग्य # 188 ☆ बैठे-ठाले — “जेंडर चेंज…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक माइक्रो व्यंग्य  – ——)

☆ माइक्रो व्यंग्य # 188 ☆ बैठे-ठाले — “जेंडर चेंज…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

आंख खोलकर जब दुनिया देखता हूं तो बड़ी विषमता नजर आती है। अमीर है गरीब है, नर है नारी है, युद्ध है शान्ति है। बैठे – ठाले सोचा कि इन दिनों नारी सशक्तिकरण के नाम से खूब योजनाएं चल रहीं हैं।  अगले गणतंत्र दिवस परेड में तो अब सिर्फ महिलाएं ही परेड करेंगी ऐसी बात चल रही है। कहीं एक हजार महीना मिल रहा है, कहीं फ्री सिलेंडर मिल रहे हैं, कहीं आवास बन रहे, कहीं साइकल, तो कहीं लैपटाप, कहीं दहेज का समान और न जाने क्या क्या…! ऐसे अनेक तरह के फायदे का लाभ उठाने के लिए सोचा, बैठे ठाले क्यों न जेंडर चेंज करा लूं।

सुना है यूक्रेन के खिलाफ एक साल से भी लंबे समय से चल रही जंग में बार्डर पर जाने से बचने के लिए रूस के पुरुष जेंडर चेंज कराकर महिला बन रहे हैं। रूस में जेंडर चेंज कराना बड़ा आसान है।  जेंडर चेंज कराने के लिए किसी तरह के आपरेशन की जरूरत नहीं पड़ती।

अपने यहां तो बिना आपरेशन ऐसा हो नहीं सकता, अपने यहां आम आदमी की थथोलने की प्रवृत्ति है। रूस में तो जेंडर चेंज करने के लिए सिर्फ मनोवैज्ञानिक टेस्ट होता है। इस टेस्ट में यह पाए जाने पर कि कोई व्यक्ति खुद को मानसिक तौर पर महिला महसूस करता है तो उसे कानूनन महिला मान लिया जाता है। उन्हें महिलाओं के मिलने वाले हर अधिकार मिल जाते हैं।  अपने यहां ऐसा हो जाए तो नेता लोग तुरंत जेंडर चेंज करवा कर वोट मांगने पहुंच जाएंगे, और महिलाओं को मिलने वाले हर अधिकार पर कब्जा कर लेंगे। रूस में कानून इतने सरल हैं कि कोई पुरुष सुबह उठता है और सोचता है कि अब वह महिला बनना चाहता है तो शाम तक बन जाता है। अपने यहां ऐसे होने लगे तो ये 140 करोड़ का देश एक दिन में ‘महिला राष्ट्र’ बन जाएगा, पर बजरंगबली यहां ऐसा होने नहीं देंगे।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 129 ☆ # हमने साथ साथ… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# हमने साथ साथ… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 129 ☆

☆ # हमने साथ साथ… # ☆ 

हमने गुजारा है

यह वक्त साथ साथ

वक्त के थपेड़ो को

झेला है साथ साथ

 

तूफानों ने कोई

कसर नही छोड़ी

जब भी मौका मिला

कश्ती मेरी तोड़ी

हमने बनाया है

नयी कश्ती को साथ साथ

 

एक वक्त ऐसा आया

अपनों ने साथ छोड़ा

सुनहरे सपनों को

बेरहमी से तोड़ा

हमने नये सपनों को

फिर देखा है साथ साथ

 

जिन पौधों को लगाया था

कि खिलेंगे फूल यहां

वो खुशबू बिखेरेंगे, महकेंगे

गुलशन में वहां

हमें कांटे मिले, जिसे चुना है

हमने साथ साथ

 

खुशियां उधार की

जमाने में बहुत मिली

उनकी उमर छोटी थी

कुछ देर तक चली

खुशियां ढूंढते रहे

हम जीवन भर साथ साथ

 

यह रिश्ते नाते, दिखावे का प्यार

एक खूबसूरत भरम है

बुजुर्ग मां-बाप, एक बोझ है

कहते बेशरम है

पति पत्नी का रिश्ता अटूट है

जो हम निभा रहे हैं साथ साथ/

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 131 ☆ माझी वेदना…! ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 131 ? 

☆ माझी वेदना…! ☆

(विषय – तू अबोल का झाली..!)

तू अबोल का झाली

कुठे उणीव भासली

सौख्य प्रीत बहरतांना

का अशी दूर गेली.!!

 

तू अबोल का झाली

बोल नं मधुर बोली

सखे उक्त कर काही

नको राहू, अबोली.!!

 

तू अबोल का झाली

मज चिंता पडली

विरहात तुझ्या मृग-नयने

तहान भूक हरली.!!

 

तू अबोल का झाली

कर राज, उक्त लवकरी

होईल ते होऊ दे परंतु

बोल नं माझे, सोनपरी.!!

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग 67 – उत्तरार्ध – स्वामी विवेकानंद, एक महान यात्रिक ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग 67 – उत्तरार्ध – स्वामी विवेकानंद, एक महान यात्रिक ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

रामकृष्ण मिशन चे काम सुरू झाले. स्वामीजिंचा प्रवास, भेटीगाठी, काम वाढवण्याच्या दृष्टीने सुरूच होता. भारतात भारतीय शिष्य आणि परदेशी शिष्य काम करत होतेच. पण परदेशातील शिष्य यांच्याशी पण पत्रव्यवहाराने संपर्क होत होता. सतत मार्गदर्शन चालू होते, काश्मीर, पंजाब, खेतडी, नैनिताल, कलकत्ता, आल्मोरा, अमरनाथ, मायावती, पूर्व बंगाल असं सगळीकडे संचार झाला. त्याच प्रमाणे पुन्हा एकदा दीड वर्षे ते पाश्चात्य देशांचा प्रवास करून परतले. बेलूर मठात पोहोचल्यावर मन प्रसन्न झाले. एक दिवस विश्रांती झाल्यानंतर एकेक वृत्तान्त कळू लागला. आपल्या कार्यासाठी ज्यांनी स्वतच्या देशाचा त्याग केला आणी आपल्या हिमालयासारख्या दुर्गम भागात राहून मोठ्या कष्टाने अद्वैत आश्रम उभा केला. आपले एक स्वप्न साकार केले ते सेव्हियर पती पत्नीने. त्यातले स्वत: सेव्हियर कार्य करता करताच निधन पावले, तर गुडविन आधीच गेले होते. या दोन इंग्रज शिष्यांनी भारतमातेच्या चरणी आपली जीवनपुष्पे वाहिली, याचे स्वामीजींना दु:ख झाले. मिसेस सेव्हियर मायावतीला होत्या, त्यांचे ताबडतोब सांत्वन करायला गेले पहिजे आणि तशी तार त्यांनी मिसेस सेव्हियर यांना केली. प्रकृती ठीक नसतानाही स्वामीजी प्रतिकूल हवामान व परिस्थितीत ,गैरसोयीचा प्रवास असतानाही ते शिष्यांबरोबर गेले.   

मदतीशिवाय त्यांना चालणेही कठीण झाले. श्वास घ्यायला त्रास होऊ लागला,  त्यावर बरोबर असलेल्या  विरजानंदाना ते म्हणाले, “पहा मी किती दुबळा आहे जणू वृद्ध होऊन गेलो आहे. हे एव्हढेसे चालायचे आहे तेही मला बिकट वाटते आहे, पूर्वी पर्वत प्रदेशात २५- २५ मैल चालायलाही काही वाटायचे नाही. माझ्या आयुष्याचा शेवट जवळ येत चालला आहे हेच खरं”. ते ऐकून विरजानंद मनातून हादरून गेले. मिसेस सेव्हियरना भेटणे आपले कर्तव्य आहे म्हणून हा खडतर प्रवास ते करत होते.मिसेस सेव्हियर ने आपले दु:ख बाजूला ठेऊन स्वामीजींचे स्वागत केले. पतीच्या निधनाचे दु:ख मोठे असतानाही आपण घेतलेले व्रत चालूच ठेवणार असल्याचे त्यांनी सांगितले, मायावतीला स्वामीजी पंधरा दिवस राहिले. सेव्हियर पती पत्नी ने  इथे अद्वैत आश्रमाचे काम मार्गी लावले होते. इथल्या वास्तव्यात अनेकजण स्वामीजींना भेटायला येऊन गेले. मायावती हून स्वामीजी कलकत्त्याला निघाले, बेलूर मठात आल्यावर आणखी एक धक्कादायक वृत्त समजले ते म्हणजे खेतडीचे राजा अजित सिंग यांचे अपघाती निधन झाले. या अकस्मात दुर्घटनेमुळे स्वामीजीना मोठा धक्का बसला. राजा अजित सिंग हा त्यांचा मोठा आधार होता.

बेलूरला आल्यावर मठाच्या व्यवस्थेतील काही कायदेशीर पूर्तता आणि विश्वस्त मंडळ करून घेतले. ब्रह्मानंद ,शिवानंद, प्रेमानंद, सारदानंद, अखंडानंद, त्रिगुणातीतानंद, रामकृष्णानंद, अद्वैतानंद, सुबोधानंद, अभेदानंद, आणि तुरियानंद यांचे विश्वस्त मंडळ करून त्यांच्यावर कारभार सोपवला, यात त्यांनी एकही पाश्चात्य शिष्य घेतला नाही, ते दुरदृष्टीने कायदेशीर गुंतागुंत होऊ नये म्हणून. ६ फेब्रुवारीला रीतसर नोंदणी करण्यात आली. विवेकानंदांनी कोणतेही अधिकार पद स्वीकारले नाही. स्वत:च्या मालकीच्या जागेत रामकृष्ण संघाचे काम आले. भारताच्या इतिहासात एक नवे पान उघडले गेले होते, स्वामीजींनि पाहिलेले स्वप्न साकार झाले होते. फेब्रुवारीत रामकृष्ण परमहंस यांचं जन्मदिन बेलूर मठात साजरा झाला तेंव्हाही स्वामीजीना खूप समाधान वाटले.

त्यानानंतर त्यांनी पूर्व बंगालचा प्रवास आखला आणि आई भुवनेश्वरी देविंची इच्छा पण पूर्ण करावी असे मनात होते. बंगालच्या या सुपुत्राने एकदा तरी आपल्या गावात यावे अशी तिथल्या लोकांची इच्छा होती. चंद्रनाथ आणि कामाख्यादेवी ही  तीर्थ क्षेत्रे भुवनेश्वरी देविंच्यासह स्वामिजिनी केली आणि आईसाठी काही केल्याचे समाधान त्यांना होते. या यात्रेत तिथल्या भेटी, स्वागत, आपल्या मुलाबद्दल लोकांचे प्रेम आणि आदर पाहून भुवनेश्वरी देविंना मनोमन समाधान वाटले. हाच तो आपला लहान बिले ना ? असे नक्की वाटले असेल.

पूर्व बंगाल आणि आसामचा हा प्रवास दोन महिन्यांचा झाला आणि स्वामीजींची प्रकृती आणखीनच ढासळली ,विश्रांती नाही, सतत कामाचा ताण यामुळे दम्याचा त्रास आणखीन बळावला .आपलं अखेरचा क्षण जवळ आला की के अशी शंका स्वामीजींच्या मनात डोकावली. प्रवासात ते अनेकांना पत्र लिहीत असत. अधून मधून जरा बारे वाटले की लगेच उत्साहाने पुढचे नियोजन करीत. एकदा त्यांचे शिष्य शरदचंद्र चक्रवर्ती भेटले तेंव्हा त्यांनी सहज प्रकृती बद्दल विचारले, तर स्वामीजी म्हणाले, “ अरे बाबा आता प्रकृतीची चौकशी कशाला करायची? प्रत्येक दिवशी शरीराचा व्यापार बिघडत चालला आहे. जे काही आयुष्याचे थोडे दिवस आता राहिले आहेत ते मी तुम्हा सर्वांसाठी काहीना काही करण्यात घालवेन आणि असा कार्यमग्न असतानाच एके दिवशी या जगाचा निरोप घेईन”.

दुर्गापूजा उत्सव बंगाल मधला महत्वाचा उत्सव, आता स्थिरावलेल्या बेलूर मठात दुर्गा पूजा व्हावी असे सगळ्यांच्याच मनात आले. स्वामीजींच्या अंगात बराच ताप होता. श्री दुर्गा प्रतिष्ठापना झाली होती. अष्टमीला मुख्य पूजेला स्वामीजी कसेबसे आले. नवमीला थोडे बरे वाटले तेंव्हा देवीसमोर त्यांनी काही भजने म्हटली. श्रीरामकृष्ण यांची आवडती भजने त्यांनी गायली. हे पाहून भुवनेश्वरी देवींना बरे वाटले. बरोबर केलेल्या  तीर्थयात्रेपासूनच त्यांना माहिती होते की आपल्या मुलाची प्रकृती अलीकडे ठीक नसते. त्याला भेटायला त्या मधून मधून मठात येत असत. आल्यावर बाहेरूनच ‘बिले..’ अशी हाक मारत आणि विश्वविख्यात बिले, संन्यासीपुत्र नरेन आईची हाक आल्यावर भरभर खाली येइ. दोघांच्या गप्पा होत. मग त्या परत जात.  

एकदा नरेंद्र लहान असताना आजारी पडला, तेंव्हा तो बरा व्हावा म्हणून बोललेला देवीचा नवस आपल्याकडून पूर्ण करायचा राहिला हे अनेक वर्षानी लक्षात आले. तेंव्हा आता कालीमातेला जाऊन, विशेष पूजा करून मुलाला तुझ्यासमोर लोळण घ्यायला सांगेन असा तो, आता पूर्ण करायला हवा. आईची इच्छा पूर्ण करायची म्हणून विवेकानंद बरे नसतानाही गंगेत स्नान करून कालिघाटावर ओल्या वस्त्रानिशी मंदिरात गेले. पूजा केली, तीन वेळा  लोळण घेतली, गाभाऱ्याला सात प्रदक्षिणा घातल्या. विधिपूर्वक होम हवन केले. आईला खूप समाधान झाले आणि इतक्या वर्षानी नवस पूर्ण झाल्याचा आनंद पण.

साधारण २८ जून चा दिवस, शुद्धानंदाना विवेकानंद यांनी पंचांग घेऊन बोलावले आणि ते चालून तिथी पाहून ठेऊन घेतले. नंतर ची ४,५, दिवस रोज ते पंचांग चालायचे आणि स्वतशीच काही विचार करायचे ,बाकी सर्व रोजचे व्यवहार नेहमीप्रमाणे चालू होते. १ जुलैला विवेकानंद, मठाच्या बाहेर हिरवळीवर फेऱ्या मारत होते. त्यावेळी प्रेमानंदाना एका  जागेकडे बोट दाखवून म्हणाले, “माझ्या मृत्यूनंतर या ठिकाणी माझे दहन करा”. अंत्यसंस्काराचा एव्हढा स्पष्ट उल्लेख केलेला कोणाच्याच लक्षात आला नाही.

२ जुलै बुधवार – एकादशी, विवेकानंदांनी शास्त्रोक्त पद्धतीने उपवास केला होता. त्या दिवशी भगिनी निवेदिता बेलूर मठात स्वामीजींना भेटण्यास आल्या होत्या. त्यांच्यासाठी काही पदार्थ विवेकानंदांनी मागवले, हात धुण्यासाठी निवेदिता उठल्या तेंव्हा स्वामीजींनी त्यांच्या हातावर स्वत पाणी घातले, एक पणचं घेऊन हात पुसले. हे पाहून निवेदिता खजील झाल्या. त्या म्हणाल्या स्वामीजी हे मी तुमच्यासाठी करायचे तर तुम्हीच..? स्वामीजी म्हणाले,  का? जिझसने तर आपल्या शिष्यांच्या पायांवर पाणी घातले होते ना? . पण ती त्यांची अखेरची वेळ होती असे निवेदिता म्हणणार पण आवंढा गिळला. कदाचित ही शेवटची वेळ..?ही खरचच दोघांची अखेरची भेट ठरली .

४ जुलैचा दिवस उजाडला. शुक्रवार, नेहमीपेक्षा स्वामीजी लवकर उठले. ध्यानसाठी देवघरात गेले. दारे खिडक्या बंद केल्या. तीन तास एकटे खोलीत होते. त्यानंतर दार उघडून बाहेर येताना कालिमातेचे गीत गुणगुणत बाहेर आले.श्री रामकृष्ण यांच्या प्रतिमेसमोर बसून इतका वेळ ध्यान मग्न झालेले विवेकानंद स्वतच्याच नादात मुग्ध असे बाहेर येऊन फेऱ्या मारू लागले ,इतरत्र कुठेही लक्ष नव्हते. सकाळी पण अतिशय प्रसन्नपणे हसत खेळत सर्वांच्या बरोबर अल्पोपहार घेतला होता . आणि आज आपल्याला उत्साह वाटतोय असेही म्हणाले होते. दुपारच्या जेवणानंतर तीन तास संस्कृत व्याकरणाचा वर्ग त्यांनी घेतला. दुपारनंतर प्रेमानंदांच्या बरोबर बेलूर मध्ये तीन किलोमीटर लांब पर्यन्त फेरफटका मारून आले.आल्यावर संन्यासांशी गप्पा झाल्या.

आल्यावर खोलीत जाऊन आपली जपमाळ मागवून घेतली, तासभर जप झाला. मग अंथरुणावर आडवे झाले उकडते आहे म्हणून थोडा वारा घालण्यास शिष्याला सांगितले.थोडे तळपाय चोळले तर बरे वाटेल म्हणून तेही शिष्याने चोळले. डाव्या कुशीवर वळलेले, हातात जपमाळ तशीच, पाठोपाठ दोन वेळ दीर्घ श्वास घेतला. नंतर काही हालचाल नाही. न्यू वाजले होते, जेवणाची घंटा वाजली होती. जवळचा शिष्य घाबरत घाबरत खाली आला. प्रेमानंद आणि निश्चयानंद वर धावत आले. रामकृष्ण यांचे नाव घेतले तर ही दीर्घ समाधी उतरेल स्वामीजींची असे वाटले पण नाही, डॉक्टर महेंद्रनाथ मजुमदार यांना बोलावले गेले. मध्यरात्री पर्यन्त बरेच प्रयत्न केले. प्राणज्योत मालवली आहे हे डॉक्टरांचे शब्द ऐकून सारा बेलूर मठच दु:खाच्या छायेत गेला.

स्वामीजींचे वय यावेळी ३९ वर्ष, ५ महीने, आणि २४ दिवस इतके होते. सगळीकडे वाऱ्या सारखी बातमी गेली. भारतात, परदेशात तारा  गेल्या. बेलूर मठाकडे चारी दिशांनी दर्शनासाठी लोंढे येऊ लागले. भुवनेश्वरी देवी पण आल्या. त्यांचा अवखळ बिले अवखळपणेच साऱ्या जगात फिरून येऊन आता शांतपणे पहुडला होता. भले जगासाठी तो कीर्तीवंत असला, तरी या जन्मदात्रीचा तो पुत्र होता. पुत्रवियोगाने तिच्या हृदयाला किती घरे पडले असतील? शब्दच नाहीत.   

बिल्व वृक्षाची जागा प्रेमानंदाना विवेकानंद यांनी ४,५ दिवसांपूर्वीच दाखवली होती. तिथेच अंत्यसंस्कार करण्यात आले. भारताच्या या महान, असामान्य, अलौकिक सुपुत्राची ही जीवनयात्रा.

 – मालिका समाप्त –

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #192 ☆ कथा-कहानी – बाकी सफर ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर कहानी  बाकी सफर। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 192 ☆

☆ कथा-कहानी ☆  बाकी सफर

रोज़ सुबह उठ कर उमाशंकर देखते हैं, सामने पटेल की चाय की भठ्ठी चालू हो गयी है। दूकान में काम करने वाले लड़के ऊँघते ऊँघते भट्ठी के आसपास मंडराते दिखते हैं और पटेल चिल्ला चिल्ला कर उनकी नींद भगाता नज़र आता है। तड़के से ही दो चार ग्राहक चाय की तलब में दूकान के सामने पड़ी बेंचों पर डट जाते हैं।

सड़क के इस पार उमाशंकर का मकान है और उस पार पटेल की दूकान है। उमाशंकर ऊपर रहते हैं इसलिए बालकनी से दूकान का दृश्य स्पष्ट दिखता है। उमाशंकर की पत्नी दिवंगत हुईं, बहू नौकरी पर जाती है, इसलिए कभी कोई मिलने वाला आ जाए तो बालकनी में खड़े होकर पटेल को आवाज़ देकर उँगलियाँ दिखा देते हैं और थोड़ी देर में दूकान से कोई लड़का उँगलियों के हिसाब से चाय लेकर आ जाता है।

करीब चालीस साल की सरकारी नौकरी के बाद उमाशंकर रिटायरमेंट को प्राप्त हो फुरसत की ज़िन्दगी बिता रहे हैं। मँझला बेटा रेवाशंकर साथ रहता है। दो बेटे शहर से बाहर हैं।

उमाशंकर भावुक और भले आदमी हैं। देश में गरीब असहाय बच्चों की दुर्दशा देखकर उन्हें बहुत तकलीफ होती है। समाचार-पत्रों में पत्र लिखकर वे अपनी भावनाएँ व्यक्त करते रहते हैं।
सड़क के किनारे कचरे के ढेरों पर झुके, नंगे पाँव, बीमारियों और विपत्तियों को आमंत्रित करते बच्चों को देखकर वे बहुत व्यथित होते हैं। सारे निज़ाम पर वह खूब दाँत पीसते हैं।

एक बार एक दस बारह साल का लड़का उन्हें भर दोपहर, चलती सड़क के किनारे, कचरे का थैला सिर के नीचे रखे, शायद थकान के मारे सोता हुआ दिखा। उस वक्त उन्हें लगा धरती फट जाए और उन जैसे सफेदपोशों का पूरा कुनबा उसमें समा जाए। खयाल आया कि कहाँ है वह संविधान का निर्देश जो चौदह साल तक की उम्र के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की ताकीद करता है?

कोई बच्चों की भलाई या मदद के लिए काम करता है तो जानकर उमाशंकर का मन उस व्यक्ति के प्रति कृतज्ञता से भर जाता है। सवेरे पूजा के लिए बैठते हैं तो भगवान की मूर्ति से अक्सर कहते हैं— ‘तुमने मेरे मन में लौ तो जगायी, लेकिन मद्धी मद्धी। जुनून दिया होता तो मैं भी कुछ कर गुज़रता। जिससे भी कराना हो, कराओ। काम होना चाहिए।’

तीन-चार दिन से उन्हें पटेल की दुकान में एक नया लड़का दिखता है। इस धंधे में वह रँगरूट ही लगता है। सवेरे उठता है तो बड़ी देर तक उकड़ूँ बैठा दूसरों को काम करते देखता रहता है। लगता है सेठ भी उसके ज़्यादा पीछे नहीं पड़ता। माथे पर बाल बिखेरे वह बड़ी देर तक उनींदा बैठा रहता है। काम भी धीरे-धीरे करता दिखता है। पटेल लड़कों का मनोविज्ञान जानता है। उन्हें दूकान के वातावरण में रसने-बसने के लिए चार छः दिन का टाइम देता है।

दो दिन बाद उमाशंकर ने ऊपर से चाय के लिए इशारा किया तो संयोग से वही नया लड़का लेकर आया। धीरे-धीरे लटपट चलता सीढ़ियाँ चढ़कर वह ऊपर पहुँच गया। उमाशंकर ने देखा, लड़के की उम्र दस बारह साल के करीब होगी। चेहरा सलोना और भोला था। अभी शहर की व्यवहारिकता की झाँईं उस पर नहीं उतरी थी। घुँघराले से बालों के बीच उसका चेहरा मोहित करता था। हाथ-पाँव पर भी अभी भट्ठी की तपिश से पैदा हुई सख़्ती और कालिख नहीं दिखती थी।

उमाशंकर ने उसे चार बिस्कुट दिये, कहा, ‘ले, खा लेना।’ उसने ले लिये, फिर पूछने पर अपना नाम बताया, ‘नन्दू’। बिस्कुट जेब में रखकर वह सीढ़ी उतरने लगा। उमाशंकर ने उसकी लटपट चाल देखकर पीछे से आवाज़ दी— ‘सँभलकर उतरना। लुढ़क मत जाना।’ प्यार की आँच लड़के तक पहुँची। वह पीछे देख कर हँसा, फिर धीरे-धीरे उतर गया।

फिर अक्सर नन्दू चाय लेकर आने लगा। लगता था जैसे वह जानबूझकर अपनी ड्यूटी वहाँ चाय लाने के लिए लगवाता हो।

दूसरी बार आया तो उमाशंकर ने उसे थोड़ी देर बैठा लिया, पूछा, ‘कहाँ के हो?’

नन्दू बोला, ‘सिंहपुर के। इलाहाबाद के पास है।’

उमाशंकर ने पूछा, ‘यहाँ कैसे पहुँच गया?’

नन्दू आँखें झुका कर बोला, ‘पापा अम्माँ को बहुत मारता था। मुझे और मेरी छोटी बहन गुड़िया को भी मारता था। जब वह दारू पी कर आता था तब हम लोगों को बहुत डर लगता था। उस दिन उसने अम्माँ को मारा तो मुझे बहुत गुस्सा आ गया। मैंने उसे हाथ में जोर से काट लिया। फिर डर के मारे जो भागा तो सीधा स्टेसन पहुँचा। वहाँ जो गाड़ी खड़ी थी उसी में छिप कर बैठ गया। यहाँ उतर गया।’

उमाशंकर ने पूछा, ‘इस तरह यहाँ कब तक रहेगा? घर वापस नहीं जाएगा?’

नन्दू बोला, ‘अभी तो सोच कर बहुत डर लगता है। पापा बहुत मारेगा। बाद में सोचेंगे।’

उमाशंकर ने पूछा, ‘घर की याद नहीं आती?’

नन्दू का मुँह लटक गया, आँखों में पानी की रेख खिंच गयी, बोला, ‘अम्माँ और गुड़िया की बहुत याद आती है।’

फिर उसने गिलास उठाये, बोला, ‘देर हो गयी तो सेठ ऊटपटाँग बोलेगा। फिर आऊँगा।’

फिर जब उसकी मर्जी होती आ जाता। हफ्ते में एक दिन की उसे छुट्टी मिलती थी, उस दिन आकर उमाशंकर के साथ खूब बतयाता था। एक दिन उमाशंकर ने पूछा, ‘पढ़ा लिखा नहीं?’

नन्दू बोला, ‘तीसरी तक पढ़ा था, फिर मन नहीं लगा। मास्टर जी साँटी से बहुत मारते थे। थोड़ा सा हल्ला किया नहीं कि सटासट पड़ती थी।’

फिर उसे कुछ याद आ गया। हँसते हुए बोला, ‘एक बार हमारी क्लास के पवन को जोर से साँटी मारी तो वह ऐसे पड़ गया जैसे बेहोस हो गया हो। बड़ा नाटकबाज था। मुँह से फसूकर छोड़ दिया। मास्टर जी की हालत तो डर के मारे खराब हो गयी। जल्दी-जल्दी उसके मुँह पर पानी छोड़ा तब उसने आँखेंं खोलीं। फिर हलवाई की दुकान से एक पाव जलेबी मँगा कर उसे खिलायी। बाद में पवन खूब हँसा।’

उमाशंकर को भी खूब मज़ा आया। नन्दू अब मौका मिलते ही उनके पास बैठक जमा लेता था। उसकी छठी इन्द्रिय ने जान लिया था कि अटक-बूझ में यह भला आदमी उसे अपनी छाया दे सकता है।

लेकिन नन्दू की यह बार-बार की उपस्थिति उमाशंकर के परिचितों के कान खड़े कर रही थी। जब वह आता-जाता तो आसपास के लोग उसे घूर कर देखते। यह चायवाला आवारा लड़का उमाशंकर से क्यों चिपका रहता है?

एक दिन रेवाशंकर ने उनसे कह ही दिया, ‘पापाजी, यह चायवाला लड़का क्यों हमेशा आपके पास घुसा रहता है?’

उमाशंकर हँसकर बोले, ‘कौन? नन्दू? वह बहुत अच्छा लड़का है। मुझे उसकी बातें सुनकर बड़ा आनन्द आता है।’

रेवाशंकर बोला, ‘लेकिन ऐसे लड़कों को मुँह लगाना ठीक नहीं। ये अच्छे लड़के नहीं होते।’

उमाशंकर ने जवाब दिया, ‘अच्छा बुरा कोई जन्म से नहीं होता। परिस्थितियाँ उसे अच्छा बुरा बनाती हैं। मुझे तो यह अपराध-बोध रहता है कि हमारे देश की भावी पीढ़ी इस तरह नष्ट हो रही है और हम पढ़े लिखे लोग आँख मूँद कर अपने स्वार्थ-साधन में लगे हैं। कभी न कभी हमें इन कर्मों का फल भोगना पड़ेगा। तब यही लड़के पत्थर मार मार कर हमारा जीना हराम कर देंगे। लेकिन शायद तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।’ 

रेवाशंकर बोला, ‘प्रारब्ध की बात है। सब अपना प्रारब्ध भोगते हैं।’

उमाशंकर उत्तेजित होकर बोले, ‘यह पलायनवाद है। जिनका भाग्य जन्म से पहले ही निश्चित हो जाता हो उनका प्रारब्ध क्या होगा? जिस घर में गरीबी है, पढ़ाई-लिखाई का वातावरण नहीं है, कलह है, वहाँ बच्चे का प्रारब्ध तो पूर्वज्ञात है। कोई विरला अपवाद निकल सकता है।’

रेवाशंकर अप्रसन्न होकर बोला, ‘मैं आप से बहस करने लायक नहीं हूं, लेकिन इतना ही कह सकता हूँ कि ऐसे लड़कों की संगत आपको शोभा नहीं देती।’

उमाशंकर हँसकर बोले, ‘भैया, मैंने तुम सभी भाइयों को पढ़ा लिखा कर अपने पैरों पर खड़े होने लायक बना दिया। अब मेरा कार्यक्रम सिर्फ खाने, पीने और सोने का है या इधर-उधर गपबाज़ी करने का, जो एक तरह से निरर्थक है। मैं सोचता हूँ ऐसा कुछ करूँ जिससे जीवन में कुछ दूर तक ऐसा लगे कि मेरा जीवन उपयोगी है। मैं अपनी पेंशन से एक दो लड़कों की ज़िन्दगी सुधारने की कोशिश कर सकता हूँ। परिणाम ऊपर वाले के हाथ में है।’

रेवाशंकर कुछ नाराज़ी के स्वर में  ‘जैसा आप ठीक समझें। मैं क्या कह सकता हूँ?’ कहकर चला गया।’

नन्दू आसपास वालों का रुख भाँप कर उमाशंकर के पास आने में झिझकने लगा था। एक दिन उमाशंकर से बोला, ‘बाबूजी, यहाँ के लोगों को मेरा आपके पास आना अच्छा नहीं लगता। गुस्से से मेरी तरफ देखते हैं। मैं आपके पास नहीं आया करूँगा।’ फिर करुण चेहरा बनाकर बोला, ‘आपके पास आकर बहुत अच्छा लगता है, इसलिए आता हूँ।’

उमाशंकर उसकी पीठ पर हाथ रख कर बोले, ‘तुम इन बातों की फिक्र मत करो। जो जैसे देखता है, देखने दो। यह महीना सेठ के यहाँ पूरा करो, फिर तुम्हें स्कूल में भर्ती कराना है। घर में डंडा लेकर मैं तुम्हें पढ़ाऊँगा। तुम्हें आदमी बनाना है।’

सुनकर नन्दू हँसते-हँसते लोटपोट हो गया। बोला, ‘तो क्या मैं अभी जानवर हूँ? मेरे पूँछ कहाँ है?’

उमाशंकर भी हँसे,बोले, ‘हाँ, तू बिना पूँछ का जानवर है। तुझे पूरा इंसान बनाऊँगा। पढ़ाई से आदमी पूरा इंसान बनता है।’

उस दिन नन्दू सोया तो बड़ी मीठी नींद आयी। सपने में दिखी उसकी तरफ बाँहें फैलाती अम्माँ और हाथ बढ़ा कर पुकारती उसकी नन्हीं बहन गुड़िया, लेकिन आज उन्हें देखकर उसका मन भारी नहीं हुआ।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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