मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 245 – पाण्याचा परीस… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 245 – विजय साहित्य ?

☆ पाण्याचा परीस…

(अभंग वृत्त.)

नाना बाळलेणी  …

सजविली गेही

बाळकडू देही  … 

पाण्या तुझें….! १

*

आयुष्य प्रवास  … 

खोल उरातून

जलास टाळून …

शक्य नाही….!२

*

भागविते तृष्णा … 

जिवनाची धार

जीवन आधार …

जलस्रोत…!३

*

कोरड्या मनाला  …

माणसांची आस

पावसाळी श्वास  …

पाण्या तुझा ….! ४

*

पाण्यासाठी होई  …

त्रिलोकी संचार

पाणी उपचार   …  

फलदायी…!५

*

पाण्याविना जीव …

जाई आभाळात

येतसे धोक्यात …

लवलाही…!६

*

पाण्याचे आभाळ …

पाण्याची जमीन

सजीवांची नीव  …

पाणी पाणी …!७

*

सजीवांची ‌वृद्धी …

निर्जीवांचा‌ क्षय

नको अपव्यय …

पाण्याचा या..!८

*

पिकल्या फळांची …

कोवळ्या पानांची

पैदास धान्याची …

पाण्यावर….!९

*

पाण्याचीच वाफ …

वाफेतून वीज

सृजनाचे बीज …

शक्ती रूप…!१०

*

येताना जाताना …

क्रिया विधीसाठी

जीवनाच्या गाठी …

आचमनी…!११

*

कुणीच नाही रे …

जगी पाण्याविना

सृष्टी तरलीना …

दिगंतरी…!१२

*

आईचा गाईचा …

पान्हा कसदार

जीवन आधार …

जलबिंदू…!१३

*

पंचमहाभूती …

पाण्यातच शक्ती

पाण्याची आसक्ती …

ठायीं ठायीं…!१४

*

पाण्याचा परीस …

 सौभाग्य कनक

सृजन जनक …

संजीवक…!१५

*

कविराज शब्दी …

साकारे‌ घागर

आकारे सागर …

आशिर्वादी…!१६

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 150 ☆ लघुकथा – चोर ओटी ! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा ‘चोर ओटी। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 150 ☆

☆ लघुकथा – चोर ओटी☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

वह काम के लिए निकल ही रही थी कि स्वयं सेवी संस्थावालों का फोन आया कि वे आज बेटी को ले जाने के लिए आनेवाले हैं। काम से छुट्टी तो नहीं ले सकती, पहले ही बहुत नागा हो चुका है। आँसू पोंछती हुई वह काम पर निकल पड़ी। हमेशा की तरह डॉक्टर मैडम के घर समय से पहुँच गई। उसे देखते ही मैडम बोली- “संगीता जल्दी से झाड़ू-पोंछा कर दो बहू की ‘चोर ओटी’ की रस्म करनी है। “

“चोर ओटी? यह कौन सी रस्म होती है मैडम?”

 मैडम हँसते हुए बोली – “ हमारे यहाँ गर्भधारण के तीन महीने पूरे होने पर घर की औरतें गर्भवती स्त्री की गोद भरती हैं। उसके बाद ही उसके माँ बनने की खबर सबको दी जाती है। इसे ही ‘चोर ओटी’ कहते हैं। अब समझ में आया संगीता?”

संगीता के चेहरे का रंग उतर गया उसने मानों हकलाते हुए कहा- हाँ—हाँ मैडम!। उसके चेहरे पर भाव आँख-मिचौली कर रहे थे। वह सोचने लगी – मेरी बेटी के भी तो तीन महीने पूरे हो गए ——? जो भी हुआ उसमें मेरी बच्ची का क्या दोष है? कितने सपने देखे थे बेटी की शादी के लिए, एक पल में सब चकनाचूर हो गए। रोज की तरह काम करने गई थी, पीछे कौन आकर बेटी के साथ जबरदस्ती कर गया, पता ही नहीं चला।

 संगीता का काम में मन ही नहीं लग रहा था। जल्दी- जल्दी काम निपटाकर वह घर की ओर चल दी। रास्ते में उसने चूड़ियाँ और श्रृंगार का सामान खरीद लिया। घर आकर एक कोने में निर्जीव सी पड़ी बेटी को उठाकर उसको चूड़ियाँ पहनाई, बाल बनाएं। लाल चुनरी उढ़ाकर, माथे पर बिंदी लगाकर अंजुलि में चावल लेकर उसकी गोद भर दी। वह अपनी बेटी को खाली हाथ कैसे जाने देगी? संगीता सितारों से उसकी गोद भर देना चाहती है। वह बेटी को छाती से चिपकाए रो रही है। बलात्कार की शिकार नाबालिग बेटी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। संगीता मन ही मन कलप रही है – काश! वह भी सबको बता सकती कि उसकी बेटी माँ बनने वाली है।

स्वयंसेवी संस्थावाले दरवाजे पर आ गए हैं।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 238 ☆ संस्कारों के मूल्य… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना संस्कारों के मूल्य। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 238 ☆ संस्कारों के मूल्य

अक्सर लोग शिकायती मुद्रा में दिखते हैं; हमेशा असंतुष्ट। किसी भी चीज में बुराई देखना तो मानो जन्मसिद्ध अधिकार है। दस कार्यों में यदि एक कार्य गलत भी होता है तो नौ को भूल कर उस दसवें के पीछे पड़ जाते हैं जो किसी कारणवश बिगड़ गया हो।

अब सोचिए यदि व्यक्ति डर कर कार्य करेगा तो सारे बिगड़ेंगे। जो करेगा उसी से तो गलती होगी। परन्तु नकारात्मक विचार धारा के लोग बस बाल की खाल निकाल कर खुद को श्रेष्ठ मानने का ढोंग करते हुए कब असहाय हो जाते हैं ये उन्हें पता ही नहीं चलता।

संस्कार का अर्थ -सजाना, अपने आस पास के परिवेश को नैतिक मूल्यों द्वारा समृद्ध करना जिससे भावी पीढ़ी संस्कारित हो अपनी संस्कृति पर गौरव कर सके। हमारे संस्कारों का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जाना ठीक वैसा ही है जैसे ये अजर अमर आत्मा एक शरीर को छोड़ दूसरे शरीर में प्रवेश करती है।

भारतीय संस्कृति का ज्ञान वेदों में समाहित है जो हर भारतीय जनमानस में किसी न किसी रूप में देखा जा सकता है। हम अपने पूर्वजों के मूल्यों का अनुकरण करते हुए समाज में मिल जुल कर रहने का कार्य बड़ी निपुणता से करते हैं। ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का मंत्र हमारे जीवन का आधार है। सर्वे भवन्तु सुखिनः… कार्यशैली है। देवों ने भी इस पुण्यधरा पर अवतरित होकर यहाँ की संस्कृति व संस्कार का परिमार्जन किया है। इन्हीं पद चिन्हों पर चलकर भारत का गौरव बढ़ा सकते हैं —

संस्कार की जननी भारत

पुण्य धरा अवतारों की।

स्वर्ण कलश सी सम्मोहक है

गंग जमुन रसधारों की। ।

*

यहीं कृष्ण की सम्मोहक छवि

गीता का वरदान मिला।

मर्यादा श्री रामचन्द्र सी

तुलसी मानस ज्ञान मिला। ।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 46 – आम आदमी की खोज में ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना आम आदमी की खोज में)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 46 – आम आदमी की खोज में ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

सुबह-सुबह दरवाज़े पर दस्तक हुई। आँखें मलते हुए दरवाज़ा खोला, तो सामने एक आदमी खड़ा था। कुर्ता फटा हुआ, बाल बिखरे हुए और चेहरे पर ऐसा भाव, जैसे पूरी दुनिया का बोझ उसी के कंधों पर हो। मैंने पूछा, “कौन हो भाई?”

वह बोला, “मैं आम आदमी हूँ।”

मुझे झटका लगा। आम आदमी? यह तो वही प्राणी है, जिसका ज़िक्र नेता चुनावी भाषणों में करते हैं, लेकिन चुनाव खत्म होते ही उसे भूल जाते हैं। मैं चौंक कर बोला, “अरे वाह! तुम सच में आम आदमी हो? सुना है, अब तुम्हारा अस्तित्व ही नहीं बचा। तुम्हें तो सरकारों ने योजनाओं में उलझा दिया, नीतियों में घुमा दिया, और विकास में दबा दिया। फिर तुम यहाँ कैसे?”

वह लंबी साँस लेकर बोला, “बस, जैसे-तैसे ज़िंदा हूँ। कभी महँगाई मुझे मारती है, कभी बेरोज़गारी। कभी कोई योजना मेरे नाम पर बनती है और फिर फाइलों में गुम हो जाती है। कभी मुझे सब्सिडी का सपना दिखाकर लूट लिया जाता है। पर मैं फिर भी जी रहा हूँ।”

मैंने उसे अंदर बुलाया और कुर्सी पर बैठने को कहा। लेकिन उसने कुर्सी को घूरकर देखा और फर्श पर बैठ गया। मैंने कहा, “अरे भाई, कुर्सी पर बैठो।”

वह कड़वा हँसा और बोला, “कुर्सी मेरी किस्मत में नहीं है। मैं तो हमेशा ज़मीन पर ही बैठता आया हूँ। कुर्सी तो नेताओं और अफसरों के लिए बनी है। मैं जब भी कुर्सी की ओर बढ़ता हूँ, कोई न कोई मुझसे पहले उस पर बैठ जाता है।”

मैं उसकी व्यथा समझने लगा। मैंने पूछा, “खैर, बताओ, कैसे आना हुआ?”

वह बोला, “सुनो, मैं परेशान हूँ। मुझे समझ नहीं आता कि मैं आखिर जाऊँ तो जाऊँ कहाँ? सरकार कहती है कि सबके लिए रोज़गार है, लेकिन जब मैं नौकरी के लिए आवेदन करता हूँ, तो फॉर्म की फीस ही इतनी होती है कि नौकरी से पहले ही कंगाल हो जाता हूँ। इंटरव्यू तक पहुँचता हूँ, तो कोई न कोई मेरा हक़ मार लेता है। कहते हैं, आरक्षण की व्यवस्था है, लेकिन मेरी स्थिति ऐसी हो गई है कि मैं आरक्षित भी नहीं हूँ और सामान्य भी नहीं। मैं एक लावारिस जाति का आदमी हूँ, जिसका कोई माई-बाप नहीं।”

मैंने सिर हिलाया, “बात तो सही है, लेकिन सरकारें तो कहती हैं कि वे आम आदमी के लिए बहुत कुछ कर रही हैं। योजनाएँ बना रही हैं, मुफ्त अनाज बाँट रही हैं, डिजिटल इंडिया बना रही हैं।”

आम आदमी हँसा, “हाँ, यही तो विडंबना है। अनाज बाँटते हैं, लेकिन पहले टैक्स के नाम पर मेरी कमाई काट लेते हैं। कहते हैं, गैस सब्सिडी देंगे, लेकिन पहले दाम इतना बढ़ा देते हैं कि सब्सिडी भी मज़ाक लगती है। डिजिटल इंडिया बना रहे हैं, लेकिन नेटवर्क ऐसा है कि जब ज़रूरत होती है, तब ग़ायब हो जाता है। और फिर, मोबाइल तो खरीद लिया, लेकिन रीचार्ज के पैसे नहीं बचे।”

मैंने चाय बनाई और उसे दी। उसने कप को घूरकर देखा, जैसे उसमें कोई गूढ़ रहस्य छिपा हो। मैंने पूछा, “क्या हुआ?”

वह बोला, “चाय महँगी हो गई है। पहले पाँच रुपए में आती थी, अब बीस की हो गई है। ऐसा लगता है कि सरकार हमें चाय के बहाने आर्थिक सुधारों की चुस्कियाँ पिला रही है।”

मैं हँस पड़ा, “तुम्हारा कटाक्ष बड़ा तीखा है।”

वह गंभीर हो गया, “कटाक्ष ही तो कर सकता हूँ। हक़ की बात करूँ, तो कोई सुनता नहीं। कोर्ट जाऊँ, तो केस सालों तक चलता है। अफसरों के पास जाऊँ, तो फाइलों में उलझ जाता हूँ। और अगर गलती से नेता के पास चला जाऊँ, तो वह मुझे वोट बैंक समझने लगता है। मैं शिकायत नहीं कर सकता, क्योंकि शिकायत करने के लिए भी रिश्वत देनी पड़ती है।”

मैंने उसकी आँखों में देखा। वहाँ एक गहरी थकान थी। यह वही थकान थी, जो किसी भी आम आदमी के चेहरे पर दिखती है, जब वह सुबह ट्रेन में धक्के खाता है, दिनभर काम करता है और शाम को खाली जेब लेकर घर लौटता है।

मैंने कहा, “तो फिर अब क्या करोगे?”

वह उठ खड़ा हुआ और बोला, “फिर से कोशिश करूँगा। यही तो मेरी नियति है। मैं हर बार गिरता हूँ, लेकिन उठकर फिर से चल पड़ता हूँ। मुझे कोई नहीं पूछता, लेकिन पूरा देश मेरे नाम पर चलता है। बजट बनता है, तो कहा जाता है कि आम आदमी के लिए है। योजनाएँ बनती हैं, तो दावा किया जाता है कि आम आदमी को फायदा होगा। और चुनाव आते ही सब मुझे भगवान बना देते हैं, लेकिन जैसे ही चुनाव खत्म होते हैं, मैं फिर से सड़क पर आ जाता हूँ।”

मैंने उसे जाते हुए देखा। वह धीरे-धीरे भीड़ में गुम हो गया। मैंने सोचा, यह आम आदमी किसी एक का नहीं है। यह हम सबका चेहरा है, जो कभी किसी बस में धक्के खाता है, कभी राशन की लाइन में खड़ा होता है, कभी महँगाई से परेशान होता है और कभी अपने ही देश में खुद को बेगाना महसूस करता है। यह देश आम आदमी का नहीं, बल्कि आम आदमी के नाम पर चलने वालों का है।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 344 ☆ आलेख – “आलेख – ए आई : लाभ और हानि…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 344 ☆

?  आलेख – ए आई : लाभ और हानि ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

अपने स्कूल के दिनों की याद आती है, एक निबंध, भाषण या वाद विवाद का विषय बड़ा लोकप्रिय था ” विज्ञान के लाभ और हानि “, विज्ञान ने गुणक के स्वरूप में आम जनता की जिंदगी में हस्तक्षेप बढ़ाया है, और आज ए आई के लाभ और हानि पर चर्चा हो रही है।

कृत्रिम बुद्धिमत्ता अर्थात एआई की दक्षता, व्यक्तिगत अनुभव और नवाचार जैसे कई लाभ स्पष्ट दिख रहे हैं। लेकिन इसके प्रभाव से नौकरी समाप्त होने के खतरे हैं, व्यक्तिगत गोपनीयता भंग होने जैसे नुकसान भी दिखते हैं।

एआई स्वचालन के माध्यम से उत्पादकता बढ़ा सकती है, लेकिन इससे रोजगार में कमी भी हो सकती है, जो एक जटिल और विवादास्पद मुद्दा है। अप्रत्याशित रूप से, एआई के दीर्घकालिक जोखिम, जैसे गलत संरेखण और धोखेबाज व्यवहार, आज भविष्य के लिए महत्वपूर्ण चिंताएं हैं।

एआई मशीनों में मानव बुद्धिमत्ता का अनुकरण करने की तकनीक है, जो सीखने, तर्क करने और समस्या-समाधान जैसे कार्य करने में सक्षम बनाती है। वर्ष 2025 में, वैश्विक एआई बाजार का मूल्य $244.22 बिलियन है और इसे 2031 तक 26.6% की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (CAGR) से बढ़ने का अनुमान है। यह इसके विभिन्न उद्योगों पर परिवर्तनकारी प्रभाव को दर्शाता है। डेटा विश्लेषण जैसे कार्यों के लिए 48% व्यवसायों द्वारा एआई को अपनाने के साथ, इसका प्रभाव व्यापक है। ए आई स्वास्थ्य सेवा, वित्त और विनिर्माण में नवाचार को बढ़ावा देती है, लेकिन नैतिक और आर्थिक चिंताएं भी उठाती है।

एआई के लाभ 

एआई कई क्षेत्रों में लाभ प्रदान करती है, जैसे दक्षता में सुधार (24/7 संचालन), निर्णय लेने में सहायता (बड़ी डेटा सेटों का विश्लेषण), और नवाचार (दवा खोज और आटोमेशन )।

रोजगार विस्थापन (स्वचालन से नौकरी हानि), उच्च लागत (छोटे व्यवसायों के लिए बाधा), और गोपनीयता जोखिम (डेटा उल्लंघन) ए आई के नुकसान नजर आते हैं।

एआई कई क्षेत्रों में क्रांतिकारी प्रभाव डाल रही है, जैसे दक्षता और उत्पादकता, एआई स्वचालित कार्यों को संभाल सकती है, जैसे डेटा प्रविष्टि, और 24/7 काम कर सकती है, जिससे मानव त्रुटि कम होती है और उत्पादकता बढ़ती है। उदाहरण के लिए, विनिर्माण में एआई-चालित रोबोट उत्पादन को सुव्यवस्थित करते हैं, लागत में बचत करते हैं एआई एजेंट, एंथ्रोपिक से, स्वायत्त रूप से शेड्यूलिंग और कार्य संभालते हैं, तथा उत्पाद दक्षता को और बढ़ाते हैं। एआई तकनीक बड़ी डेटा सेटों का विश्लेषण कर पैटर्न और रुझान पहचान लेती है, जो वित्त, स्वास्थ्य और विपणन में निर्णय लेने में मदद करती है। उदाहरण के लिए, यह भविष्य विश्लेषण के माध्यम से सटीक पूर्वानुमान प्रदान करती है, जिससे व्यवसायों को लाभ होता है। एआई ग्राहक व्यवहार का विश्लेषण कर व्यक्तिगत सिफारिशें और बेहतर ग्राहक सहायता प्रदान करती है, जैसे चैटबॉट्स और वर्चुअल सहायक। नेटफ्लिक्स एआईचालित सुझावों से वार्षिक $1 बिलियन कमाता है, जो ए आई की प्रभावशीलता दर्शाता है।

एआई चिकित्सा अनुसंधान, रोबोटिक्स, और ऑटोमेशन जैसे क्षेत्रों में नई तकनीकों को बढ़ावा देती है। उदाहरण के लिए, नवीडिया और फाइजर ने वर्ष 2025 में साइटोरिज़न में $80 मिलियन का निवेश किया है, जो नई दवा की खोज को गति प्रदान करता है।

ऑटोमेशन में ए आई मॉडल सायबर सुरक्षा बढ़ाते है, और हर व्यक्ति की ज्ञान तक पहुंच बनाते हैं।

एआई खतरनाक कार्यों, जैसे खनन, निर्माण, और अंतरिक्ष अन्वेषण में मानव जीवन के जोखिम को कम करती है, जिससे कार्यस्थल सुरक्षा में सुधार होता है।

यह जलवायु मॉडलिंग के माध्यम से वातावरण स्थिरता का भी समर्थन करती है, जैसे गूगल के ए आई गैजेट्स का उदाहरण समझा जा सकता है। एआई का प्रभाव कृषि और औद्योगिक क्रांतियों के समान हो सकता है, और उन्नत प्रशिक्षण के माध्यम से अधिकांश कार्यों में इंसान से बेहतर प्रदर्शन कर सकती है। भविष्य के प्रोजेक्शनों के अनुसार, एआई वर्ष 2059 तक मानव से बेहतर प्रदर्शन कर सकती है, उच्च बैंडविड्थ, समानांतरता, और लागत-प्रभावशीलता बेहतर हो सकता है।

एआई के नुकसान

एआई के कई लाभों के बावजूद, इसके नुकसान भी कम नहीं दिखते।

स्वचालन से पारंपरिक नौकरियों में कमी आ सकती है, जिससे बेरोजगारी बढ़ सकती है। उदाहरण के लिए, डिजिटल सहायक HR कार्यों को बदल सकते हैं, जिससे कर्मचारियों को नई AI-सक्षम कार्यप्रवाह में शामिल करने की आवश्यकता होती है।

वर्ष 2025 में, 34% वित्त संस्थानों ने राजस्व वृद्धि की रिपोर्ट की है। एआई लागू करने में हार्डवेयर, सॉफ्टवेयर, और कुशल कर्मचारियों की उच्च लागत आती है, जो छोटे व्यवसायों के लिए एक बड़ी बाधा हो सकती है। रखरखाव और अपडेट की लागत भी महत्वपूर्ण हो सकती है; 40% छोटे फर्मों ने इसे बाधा के रूप में उद्धृत किया है।

 एआई बड़ी मात्रा में डेटा की आवश्यकता होती है, जिससे पारंपरिक डेटा गोपनीयता और सुरक्षा के मुद्दे उठते हैं। इसके अलावा, एल्गोरिदम में पक्षपात और निगरानी के नैतिक उपयोग की चिंताएं हैं।

 यूरोपीय संघ और यूएस के विनियमन अनुपालन को ए आई जटिल बना रहा है।

 एआई प्रणालियों पर अत्यधिक निर्भरता से सिस्टम कोलैप्स की समस्याएं हो सकती हैं, विशेष रूप से यदि कभी ए आई सिस्टम विफल हो जाएं तो वैकल्पिक व्यवस्था आवश्यक होगी।

 एआई मानव भावनाओं को समझने या संवेदनशील नहीं है, जो ग्राहक संबंधों और संवेदनशील क्षेत्रों जैसे स्वास्थ्य देखभाल में चुनौतियां हैं।

एआई से गलत संरेखण, हैकिंग, और धोखे के व्यवहार जैसे जोखिम हैं, जो मानव नियंत्रण को कमजोर कर मशीन आश्रित बना सकते हैं। हाल के चिंताओं में एआई भ्रम शामिल हैं, जैसे जनरेटिव मॉडल गलत जानकारी उत्पन्न करते हैं, जो उपयोगकर्ताओं को गुमराह कर सकते हैं।

ए आई इंटरनेट अनुभवों का प्रोजेक्टेड विश्लेषण जनित है। अतः अनेक क्षेत्रों में भ्रम पैदा कर रहा है।

 प्रोजेक्शनों के अनुसार, एआई वर्ष 2061 तक मानव से बेहतर प्रदर्शन कर सकती है, जो व्यवहारिक नियंत्रण की समस्या पर उंगली उठाती है। निश्चित ही मानव जीवन को बेहतर, आराम देह, बनाने में ए आई का योगदान अप्रतिम अभूतपूर्व है, इससे घबराए बिना सकारात्मक दृष्टिकोण से इसे अपनाने से हम इसे निरंतर संशोधन करते हुए बेहतर भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं। कला साहित्य संस्कृति आदि क्षेत्रों में मानवीय मौलिकता की कीमत पर सुविधा युक्त अनुभव ए आई प्रदान कर रहा है।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #206 – बाल कथा – दौड़ता भूत – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विनोदपूर्ण बाल कथा दौड़ता भूत)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 206 ☆

☆ बाल कथा – दौड़ता भूत ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

ऊन का गोला यहीं रखा था. कहां गया? काफी ढूंढा. इधर-उधर खुला हुआ था. उसे खींच खींचकर समेटा गया. तब पता चला कि वह ड्रम के पीछे पड़ा था.

पिंकी ने जैसे ही गोले को हाथ लगाना चाहा वह उछल पड़ी. बहुत जोर से चिल्लाई, “भूत!  दौड़ता भूत.”

यह सुनते ही घर में हलचल हो गई. एक चूहा दौड़ता हुआ भागा. वह पिंकी के पैर पर चढ़ा. वह दोबारा चिल्लाई, “भूत !”

दादी पास ही खड़ी थी. उन्होंने कहा, “भूत नहीं चूहा है.”

“मगर वह देखिए. ऊन का गोला दौड़ रहा है.”

तब दादी बोली, “डरती क्यों हो?  मैं पकड़ती हूं उसे, ”  कहते हुए दादी लपकी.

ऊन का गोला तुरंत चल दिया. दादी झूकी थी. डर कर फिसल गई.

पिंकी ने दादी को उठाया. दादी कुछ संभली. तब तक राहुल आ गया था. वह दौड़ कर गोले के पास गया.

राहुल को पास आता देख कर गोला फिर उछला. राहुल डर गया, “लगता है गोले में मेंढक का भूत आ गया है.”

तब तक पापा अंदर आ चुके थे. उन्हों ने गोला पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया. गोला झट से पीछे खिसक गया.

“अरे यह तो खिसकता हुआ भूत है,”  कहते हुए पापा ने गोला पकड़ लिया.

अब उन्होंने काले धागे को पकड़कर बाहर खींचा, “यह देखो गोले में भूत!” कहते हुए पापा ने काला धागा बाहर खींच लिया.

सभी ने देखा कि पापा के हाथ में चूहे का बच्चा उल्टा लटका हुआ था.

“ओह ! यह भूत था,” सभी चहक उठे.

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

21-04-2021

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 245 ☆ बाल गीत – नित मुश्किल आसान बनाएँ… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 245 ☆ 

☆ बाल गीत – नित मुश्किल आसान बनाएँ…  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

झूले का पुल झूल – झूल कर

मुश्किल को आसान बनाएँ।

जाते हम स्कूल हमेशा,

रस्सा से सरिता उतराएँ।।

 *

अपना लक्ष्य रहा है पढ़ना

हँसते – हँसते काम करेंगे।

ज्ञान और विज्ञान समझकर

जग में अपना नाम करेंगे।।

 *

खुशियाँ ही जीवन की कुंजी

सबसे ही हम प्रेम बढ़ाएँ।

 *

सोच – समझ कर काम करें हम

बाधाओं से हम लड़ते हैं।

हम हैं पूरे शाकाहारी,

योग हमेशा हम करते हैं।।

 *

विश्वासों को कभी न तोड़ें

मस्ती करें और हर्षाएँ।।

 *

पावन है सच्चा है मन भी

देते नहीं किसी को गच्चा।

ज्योति ज्ञान की जलती अंतस

मुस्काता हर बच्चा – बच्चा।।

 *

मूल्य समय का हम पहचानें

मिले सफलता वंदन गाएँ।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग ५० ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग ५० ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र- माझ्या आयुष्यांत त्या त्या क्षणी मला अतीव दुःख देऊन गेलेल्या, माझे बाबा आणि समीर यांच्या अतिशय क्लेशकारक मृत्यूंशीच निगडित असणाऱ्या या सगळ्याच पुढील काळांत घडलेल्या घटना माझं उर्वरित जगणं शांत, समाधानी आणि अर्थपूर्ण करणारे ठरलेल्या आहेत. ‘त्या’चा कृपालोभ यापेक्षा वेगळा तो काय असणार?

हे सगळं त्या त्या क्षणी पूर्ण समाधान देणारं वाटलं तरी तो पूर्णविराम नव्हता. पुढील आयुष्यांत असे अनेक कसोटी पहाणारे क्षण माझी वाट पहात आहेत याची मला कल्पना नव्हती एवढंच!)

तीस वर्षांपूर्वीची ही एक घटना त्यापैकीच एक. आजही ती नुकतीच घडून गेलीय असंच वाटतंय मला. कारण ती घटना अतिशय खोलवर ठसे उमटवणारीच होती!

ही घटना आहे माझ्या दोन नंबरच्या बहिणीच्या संदर्भातली. जशी तिची कसोटी पहाणारी तशीच सासर आणि माहेर अशा दोन्हीकडच्या तिच्या कुटुंबियांचीही!

दोन मोठ्या बहिणींच्या पाठचे आम्ही तिघे भाऊ. या दोघींपैकी दोन नंबरच्या बहिणीची ही गोष्ट. ती माझ्यापेक्षा चार वर्षांनी मोठी. पण मला ती तशी कधी वाटायचीच नाही. ताईपणाचा, मोठेपणाचा आब आणि धाक तसाही माझ्या या दोन्ही बहिणींच्या स्वभावात नव्हताच. तरीही या बहिणीचा विशेष हा कीं आमच्याबरोबर खेळताना ती आमच्याच वयाची होऊन जात असे. त्यामुळे ती मला माझी ‘ताई’ कधी वाटायचीच नाही. माझ्या बरोबरीची मैत्रिणच वाटायची. तिने आम्हा तिघा भावांचे खूप लाड केले. माझ्यावर तर तिचा विशेष लोभ असे. म्हणूनच कदाचित माझ्या त्या अजाण, अल्लड वयात मी केलेल्या सगळ्या खोड्याही ती न चिडता, संतापता सहन करायची. जेव्हा अती व्हायचं, तेव्हा आईच मधे पडायची. मला रागवायची. पण तेव्हा आईने माझ्यावर हात उगारला की ही ताईच मला पाठीशी घालत आईच्या तावडीतून माझी सुटका करायची. “राहू दे.. मारु नकोस गं त्याला.. ” म्हणत मला आईपासून दूर खेचायची न् ‘जाs.. पळ.. ‘ म्हणत बाहेर पिटाळायची.

मोठ्या बहिणीच्या पाठोपाठ हिचंही लग्न झालं, तेव्हा मी नुकतंच काॅलेज जॉईन केलं होतं. ती सासरी गेली तेव्हा आपलं हक्काचं, जीवाभावाचं, हवंहवंसं कांहीतरी आपण हरवून बसलोय असंच मला वाटायचं आणि मन उदास व्हायचं!

तुटपुंज्या उत्पन्नातलं काटकसर आणि ओढाताण यात मुरलेलं आमचं बालपण. ओढाताण आणि काटकसर ताईच्या सासरीही थोड्या प्रमाणात कां होईना होतीच. पण तिला ते नवीन नव्हतं. मुख्य म्हणजे तिने ते मनापासून स्वीकारलेलं होतं. ती मुळातच अतिशय शांत स्वभावाची आणि सोशिक होती. केशवराव, माझे मेव्हणे, हे सुद्धा मनानं उमदे आणि समजूतदार होते. अजित आणि सुजितसारखी दोन गोड मुलं. कधीही पहावं, ते घर आनंदानं भरलेलंच असायचं. असं असूनही तिच्या बाबतीत मी खूप पझेसिव्ह असल्यामुळेच असेल तिच्यातली मैत्रीण तिच्या लग्नानंतर मला त्या रूपात पुन्हा आता कधीच भेटणार नाही असं आपलं उगीचच वाटत राहिलेलं. ती अनेक वाटेकर्‍यांत वाटली गेली आहे असंच मला वाटायचं. केशवराव, अजित, सुजित हे तिघेही खरंतर प्राधान्य क्रमानुसार हक्काचेच वाटेकरी. त्याबद्दल तक्रार कसली? पण माझ्या मनाला मात्र ते पटत नसे. तिचा सर्वात जास्त वाटा त्यांनाच मिळतोय अशा चमत्कारिक भावनेने मन उदास असायचं आणि मग व्यक्त न करता येणारी अस्वस्थता मनात भरून रहायची.

ताईचं मॅट्रिकनंतर लगेच लग्न झालं न् तिचं शिक्षण तिथंच थांबलं. लग्नानंतर तिनेही त्या दिशेने पुढे कांही केल्याचं माझ्या ऐकिवात तरी नव्हतंच. केशवराव आर. एम. एस. मधे साॅर्टर होते. आठवड्यातले किमान चार दिवस तरी ते बेळगाव-पुणे रेल्वेच्या पोस्टाच्या टपाल डब्यांतल्या साॅर्टींगसाठी फिरतीवर असायचे. बिऱ्हाड अर्थातच बेळगावला.

मी मोठा झालो. स्वतःच्या पायावर उभा राहिलो. माझं लग्न होऊन माझा संसार सुरू झाला. ती जबाबदारी पेलताना मनात मात्र सतत विचार असायचा तो ताईचाच. केशवरावांच्या एकट्याच्या पगारांत चार माणसांचा संसार वाढत्या महागाईत ताई कसा निभावत असेल या विचाराने घरातला गोड घासही माझ्या घशात उतरत नसे. आम्ही इतर भावंडं परिस्थितीशी झुंजत यश आणि ऐश्वर्याच्या एक एक पायऱ्या वर चढून जात असताना ताई मात्र अजून पहिल्याच पायरीवर ताटकळत उभी आहे अशी एक विचित्र भावना मनात येऊन मला वाईट वाटायचं.

मनातली ती नाराजी मग घरी कधी विषय निघाला की नकळत का होईना बाहेर पडायचीच. पण ती कुणीच समजून घ्यायचं नाही.

“हे बघ, प्रत्येकजण आपापला संसार आपापल्या पद्धतीनेच करणार ना? त्याबद्दल ती कधी बोलते कां कांही? कुणाकडे काही मागते कां? नाही ना? छान आनंदात आहे ती. तू उगीच खंतावतोयस ” आई म्हणायची.

“ताई सतत हे नाही ते नाही असं रडगाणं गात बसणाऱ्या नाहीत” असं म्हणत आरतीही तिचं कौतुकच करायची. “त्या समाधानानंच नाही तर स्वाभिमानानंही जगतायत ” असं ती म्हणायची.

मला मनोमन ते पटायचं पण त्याचाच मला त्रासही व्हायचा. कारण ताईचा ‘स्वाभिमान’ मला कधी कधी अगदी टोकाचा वाटायचा. ती स्वतःहून कुणाकडेच कधीच कांही मागायची नाही. व्यवस्थित नियोजन करून जमेल तशी एक एक वस्तू घेऊन ती तिचा संसार मनासारखा सजवत राहिली. हौसमौजही केली पण जाणीवपूर्वक स्वत:ची चौकट आखून घेऊन त्या मर्यादेतच! इतर सगळ्यांना हे कौतुकास्पद वाटायचं, पण मला मात्र व्यक्त करता न येणारं असं कांहीतरी खटकत रहायचंच. कारण स्वतःहून कधीच कुणाकडे कांही मागितलं नाही तरीही कुणी कारणपरत्वे प्रेमानं कांही दिलं तर ते नाकारायची नाही तसंच स्वीकारायचीही नाही. दिलेलं सगळं हसतमुखाने घ्यायची, कौतुक करायची आणि त्यांत कणभर कां होईना भर घालून अशा पद्धतीने परत करायची की तिने ते परत केलंय हे देणाऱ्याच्या खूप उशीरा लक्षात यायचं. अगदी आम्ही भाऊ दरवर्षी तिला घालत असलेली भाऊबीजही याला अपवाद नसायची!

‘दुसऱ्याला ओझं वाटावं असं देणाऱ्यानं द्यावं कशाला?’ असं म्हणत आरती तिचीच बाजू घ्यायची, आणि ‘हा स्वभाव असतो ज्याचा त्याचा. आपण तो समजून घ्यावा आणि त्याचा मान राखावा’ असं म्हणून आई ताईचंच समर्थन करायची.

त्या दोघींनी माझ्या ताईला छान समजून घेतलेलं होतं. मला मात्र हे जेव्हा हळूहळू समजत गेलं, तसं माझ्या गरीब वाटणाऱ्या ताईच्या घरच्या श्रीमंतीचं मला खरंच खूप अप्रूप वाटू लागलं. माझ्याकडे अमुक एक गोष्ट नाही असं माझ्या ताईच्या तोंडून कधीच ऐकायला मिळायचं नाही. सगळं कांही असूनसुद्धा कांहीतरी नसल्याची खंत अगदी भरलेल्या घरांमधेही अस्तित्वात असलेली अनेक घरं जेव्हा आजूबाजूला माझ्या पहाण्यात येत गेली तसं माझ्या ताईचं घर मला खूप वेगळं वाटू लागलं. लौकिकदृष्ट्या कुणाच्या नजरेत भरावं असं तिथं कांही नसूनसुद्धा सगळं कांही उदंड असल्याचा भाव ताईच्याच नव्हे तर त्या घरातल्या सर्वांच्याच चेहऱ्यावर मला नव्याने लख्ख जाणवू लागला आणि माझ्या ताईचं ते घर मला घर नव्हे तर ‘आनंदाचं झाड’ च वाटू लागलं! त्या झाडाच्या सावलीत क्षणभर कां होईना विसावण्यासाठी माझं मन तिकडं ओढ घेऊ लागलं. पण मुद्दाम सवड काढून तिकडं जावं अशी इच्छा मनात असूनही तेवढी उसंत मात्र मला मिळत नव्हतीच.

पण म्हणूनच दरवर्षी भाऊबीजेला मात्र मी आवर्जून बेळगावला जायचोच. कोल्हापूरला मोठ्या बहिणीकडे आदल्या दिवशी रात्री मुक्कामाला. तिथे पहाटेची अंघोळ आणि फराळ करुन, दुपारचं जेवण बेळगावला ताईकडं, हे ठरूनच गेलं होतं. जेवणानंतर ओवाळून झालं की मला लगेच परतावं लागायचं. पण मनात रूखरूख नसायची. कारण माझ्या धावत्या भेटीतल्या त्या आनंदाच्या झाडाच्या सावलीतली क्षणभर विश्रांतीही मला पुढे खूप दिवस पुरून उरेल एवढी ऊर्जा देत असे.

बेंगलोरजवळच्या बनारगट्टाला आमच्या बँकेचं स्टाफ ट्रेनिंग सेंटर आहे. एक दोन वर्षातून एकदा तरी मला दोन-तीन आठवड्यांच्या वेगवेगळ्या ट्रेनिंग प्रोग्रॅम्ससाठी तिथे जायची संधी मिळायची. एकदा असंच सोमवारपासून माझा दहा दिवसांचा ट्रेनिंग प्रोग्रॅम सुरू होणार होता. कोल्हापूरहून रविवारी रात्री निघूनही मी सोमवारी सकाळी बेंगलोरला सहज पोचू शकलो असतो, पण ताईला सरप्राईज द्यावं असा विचार मनात आला आणि रविवारी पहाटेच मी बेळगावला जाण्यासाठी कोल्हापूर सोडलं. तिथून रात्री बसने पुढं जायचं असं ठरवलं. सकाळी दहाच्या सुमारास बेळगावला गेलो. ताईच्या घराच्या दारांत उभा राहिलो. दार उघडंच होतं. पण मी हाक मारली तरी कुणाचीच चाहूल लागली नाही. केशवराव ड्युटीवर आणि मुलं बहुतेक खेळायला गेलेली असणार असं वाटलं पण मग ताई? तिचं काय?.. मी आत जाऊन बॅग ठेवली. शूज काढले. स्वैपाकघरांत डोकावून पाहिलं तर तिथे छोट्याशा देवघरासमोर ताई पोथी वाचत बसली होती. खुणेनेच मला ‘बैस’ म्हणाली. मी तिच्या घरी असा अनपेक्षित

आल्याचा आनंद तिच्या चेहऱ्यावर पुसटसा दिसला खरा, पण मी हातपाय धुवून आलो तरी ती आपली अजून तिथंच पोथी वाचत बसलेलीच. मला तिचा थोडा रागच आला.

“किती वेळ चालणार आहे गं तुझं पोथीवाचन अजून?” मी त्याच तिरीमिरीत तिला विचारलं आणि बाहेर येऊन धुमसत बसून राहिलो. पाच एक मिनिटांत अतिशय प्रसन्नपणे हसत ताई हातात तांब्याभांडं घेऊन बाहेर आली.

“अचानक कसा रे एकदम? आधी कळवायचंस तरी.. ” पाण्याचं भांडं माझ्यापुढे धरत ती म्हणाली.

“तुला सरप्राईज द्यावं म्हणून न कळवता आलोय. पण तुला काय त्याचं? तुझं आपलं पोथीपुराण सुरूच. “

“ते थोडाच वेळ, पण रोज असतंच. आणि तसंही, मला कुठं माहित होतं तू येणारायस ते? कळवलं असतंस तर आधीच सगळं आवरून तुझी वाट पहात बसले असते. चल आता आत. चहा करते आधी तोवर खाऊन घे थोडं. “

माझा राग कुठल्या कुठे निघून गेला. मी तिच्यापाठोपाठ आत गेलो. भिंतीलगत पाट ठेवून ती ‘बैस’ म्हणाली आणि तिने स्टोव्ह पेटवायला घेतला.

“कुठली पोथी वाचतेय गं?” मी आपलं विचारायचं म्हणून विचारलं. कारण दत्तसेवेचं वातावरण असलेल्या माहेरी लहानाची मोठी झालेली ताई दत्त महाराजांचं महात्म्य सांगणारंच कांहीतरी वाचत असणार हे गृहीत असूनही मी उत्सुकतेपोटी विचारलं.

“आई बोलली असेलच की़ कधीतरी. माहित नसल्यासारखं काय विचारतोस रे? ” ती हसून म्हणाली.

“खरंच माहित नाही. सांग ना, कसली पोथी?”

“गजानन महाराजांची. “

मला आश्चर्यच वाटलं. कारण तेव्हा गजानन महाराजांचं नाव मला फक्त ओझरतं ऐकूनच माहिती होतं. ‘दत्तसेवा सोडून हिचं हे कांहीतरी भलतंच काय.. ?’ हाच विचार तेव्हा मनात आला.

“कोण गं हे गजानन महाराज?” मी तीक्ष्ण स्वरांत विचारलं. माझ्या आवाजाची धार तिलाही जाणवली असावी.

“कोण काय रे?” ती नाराजीने म्हणाली.

“कोण म्हणजे कुठले?कुणाचे अवतार आहेत ते?”

माझ्याही नकळत मला तिचं ते सगळं विचित्रच वाटलं होतं. तिला मात्र मी अधिकारवाणीने तिची उलट तपासणी घेतोय असंच वाटलं असणार. पण चिडणं, तोडून बोलणं तिच्या स्वभावातच नव्हतं. तिने कांहीशा नाराजीने माझ्याकडे रोखून पाहिलं, आणि शक्य तितक्या सौम्य स्वरांत म्हणाली, ” तू स्वतःच एकदा मुद्दाम वेळ काढून ही पोथी वाच. तरच तुला सगळं छान समजेल. ” आणि मग तिनं तो विषयच बदलला.

ही घटना म्हणजे दत्तसेवेबद्दलची नकळत माझ्या मनावर चढू पहाणारी सूक्ष्मशा अहंकाराची पुटं खरवडून काढण्याची सुरुवात होती हे त्याक्षणी मला जाणवलं नव्हतंच. पण आम्हा सगळ्यांचंच भावविश्व उध्वस्त करणाऱ्या पुढच्या सगळ्या घटनाक्रमांची पाळंमुळं माझ्या ताईच्या श्रद्धेची कसोटी पहाणारं ठरणार होतं एवढं खरं! त्या कसोटीला ताई अखेर खरी उतरली, पण त्यासाठीही तिने पणाला लावला होता तो स्वतःचा प्राणपणाने जपलेला स्वाभिमानच!

क्रमश:…  (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #274 – कविता – नव संवत्सर स्वागत-अभिनंदन… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष—  सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता नव संवत्सर स्वागत-अभिनंदन…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #274 ☆

☆ नव संवत्सर स्वागत-अभिनंदन… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

नव संवत्सर वर्ष स्वागतम,करें हृदय से अभिनंदन

है उमंग से भरे हुए, प्रमुदित जन-मन स्वागत वंदन ।

*

मातु अन्नपूर्णा नव दुर्गा, सुख सम्पति धन-धान्य भरे

मंगलमय हो नया वर्ष, जन, मन के सब दुख ताप हरे।

*

नई सोच हो नवल आचरण, स्वच्छ सुखद वातायन हो

नवाचार नव दृष्टि सृष्टि, नव संकल्पित नव जीवन हो।

*

रहे पुनीत भाव मन में, दृढ़ता शुचिता कर्मों में हो

स्वस्थ संतुलित समदृष्टि, जग के सारे धर्मों में हो।

*

नव संवत्सर नए वर्ष में, नये-नये प्रतिमान गढ़े

संस्कृति संस्कारों के सँग में, आत्मोन्नति की ओर बढ़े।

*

भेदभाव नहीं रहे परस्पर, हो न शत्रुता का क्रंदन

प्रेम-प्यार करुणा आपस में, हो अटूट स्नेहिल बंधन।

*

नये वर्ष में नवल चेतना, नव गरिमामय नव चिंतन

पुनः पुनः वंदन अभिनंदन, विमल चित्त नव वर्ष नमन।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 98 ☆ भटक रहे बंजारे ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “भटक रहे बंजारे” ।)       

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 98 ☆ भटक रहे बंजारे ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

आँखों के आगे अँधियारे

भीतर तक फैले कजरारे

सुख की बात करो तो लगता

रूठ गये सारे उजियारे ।

*

अब बातों में बात कहाँ है

कदम-कदम पर घात यहाँ है

सन्नाटों से चीख़ उठी है

मौन हुए सारे गलियारे ।

*

टूटे फूटे रिश्ते नाते

सबके सब केवल धुँधवाते

अपनेपन से खाली-खाली

हुए सभी घर-द्वार हमारे।

*

बेइमानी के दस्तूरों में

जंग लगी है तक़दीरों में

बूझ पहेली उम्र रही है

कहाँ खो गए हैं भिन्सारे।

*

काँधे लिए सफ़र को ढोता

जीवन तो बस राहें बोता

कहाँ मंज़िलों पर पग ठहरें

भटक रहे हैं हम बंजारे।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

२०.३.२५

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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