हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 78 – लघुकथा – हैप्पी वेलेंटाइन डे ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत एक भावुक एवं सार्थक लघुकथा  “हैप्पी वेलेंटाइन डे। इस लघुकथा के माध्यम से  आदरणीया श्रीमती सिद्धेश्वरी जी ने कई सन्देश देने का सफल प्रयास किया है । एक ऐसी ही अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 78 ☆

? लघुकथा – हैप्पी वेलेंटाइन डे ❤️

 “हैप्पी वैलेंटाइन डे!” फोन पर आवाज सुनकर हर्षा चहक उठी। शहर के हॉस्टल में थी। इस दिन को वह कैसे भूल सकती है।

आज ही के दिन तो वह मम्मी के साथ गांव के हर कुआं (well) पर जाकर (rose) गुलाब का फूल चढ़ाती है। क्योंकि इसी दिन तो उसका वैलेंटाइन डे हुआ था। उसके अपने बापू ने तो फिर से छोरी आ गई कहकर कुएं में गेरने (गिराने) ले गए थे।

वह तो भला हो उस सिस्टर दीदी का जिन्होंने रात के अंधेरे में ही समय रहते, हर्षा को गिराने से बचा ही नहीं लिया, अपितु अपना घर, पूरा जीवन बेटी बनाकर रख, अपना नाम और पहचान दी।

सिस्टर दीदी यानी मम्मी फोन पर!!!! और हॉस्टल में हर्षा अपनी पढ़ाई पूरी कर रही थी।

दोनो की आंँखों से शायद आँसू बह रहे थे। पर खुशी के थे। हर्षा ने फोन पर “हैप्पी वैलेंटाइन डे मम्मी” कहकर अपनी विश पूरी की। वैसे मम्मी और हर्षा का तो रोज वैलेंटाइन डे होता है। पर आज कुछ खास है।

विश यू आल ए वेरी हैप्पी वैलेंटाइन डे!!!

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ हॉर्न (अनुवादीत कथा) ☆ मूळ कथा – हॉर्न – श्री विजय कुमार ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ जीवनरंग ☆ ☆ हॉर्न (अनुवादीत कथा) ☆ मूळ कथा – हॉर्न – श्री विजय कुमार ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

विनोद आणि राजन दोघेही गडबडीत होते. त्यांना हॉस्पिटलमध्ये पोचायची घाई होती. तिथे त्यांचा एक मित्र जीवन-मरणाच्या सीमारेषेवर होता. रस्त्याच्या दुर्घटनेत तो जखमी झाला होता. त्याच्याजवळ कुणीच नव्हते.. कुणा अज्ञात इसमाने याला तिथे पोचवले होते. त्यामुळे पैशाची जुळणी करणं, रक्त देण्याची व्यवस्था करणं यासाठी त्या दोघांची उपस्थिती तिथे आवश्यक होती.त्यामुळे गर्दीच्या रस्त्यावरही त्यांची गाडी वेगाने चालली होती.

अचानक रस्त्यावर त्यांच्यापुढे त्यांना एक वरात जात असलेली दिसली.वरातीत खूप लोक होते. त्यांनी जवळ जवळ सगळा रसताच काबीज केला होता. दोन चाकी, तीन चाकी वहानं काशी-बशी जागा काढत जात होती. परंतु कार कोणतीही मोठी वाहाने जाणं शक्यच नव्हतं॰

राजनने जोरजोरात अनेकदा हॉर्न वाजवला. पण बेंड-बाजाचा मोठा आवाज आणि वरातीत सामील झाल्याची एक प्रकारची नशा, वरातीततल्या ओकांना काही म्हणता काही ऐकू येत नव्हतं. राजन रागारागाने म्हणाला, ‘वाटते, या लोकांच्या अंगावर सरळ गाडी घालावी. तिकडे इकडे आमचा मित्र मरणाच्या दारात उभा आहे आणि इकडेया लोकांचं नाच-गाणं चालू आहे, जसा काही यांच्या बापाचाच रास्ता आहे. राजनच्या रागाचा पारा चढत असलेला पाहून विनोद खाली उतरला. तो म्हणाला, ‘हॉर्न वाजवण्याचा काही फायदा होणार नाही.विनाकारण भांडण मात्र होईल. तू थांब. मी बघून येतो.वरातीजवळ पोचताच तो जोशात नृत्य करत वरातीमध्ये सामील झाला. बाकीचे सगळे आपापला नाच थांबवून त्याच्याकडे आश्चर्याने बघत राहिले. विनोद म्हणाला, ‘अरे थांबलात का? नाचा… नाचा… भरपूर नाचा… अशी संधी वारंवार थोडीच मिळते. आता माझ्याकडेच बघा ना, माझा मित्र हॉस्पिटलमध्ये पडलाय. मृत्यूशी झूंज देतोय., तरीही मी नाचतोय. खुशीच्या वेळी खूश आणि दु:खाच्या वेळी दु:खी व्हायला हवं॰

गर्दीत एकदम शांतता पसरली. विनोद हात जोडून पुढे म्हणाला, ‘माझ्या बंधुंनो आणि भगिनींनो, माझी एक विनंती आहे. थोडासा रास्ता येणार्‍या- जाणार्‍यासाथी मोकळा ठेवा. आपल्यामुळे तिकडे कुणी जीव गमावून बसू नये. धन्यवाड’ एवढा बोलून तो कारकडे गेला. आता त्यांची गाडी त्वरेने हॉस्पिटलकडे जाऊ लागली.

 

मूळ कथा – ‘हॉर्न ’ –   मूळ  लेखक – श्री विजय कुमार, 

सह संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका), अंबाला छावनी 133001, मोबाइल 9813130512

अनुवाद – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#1 – प्राथमिकता मुख्य उत्तरदायित्व को दें! ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ। )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#1 – प्राथमिकता मुख्य उत्तरदायित्व को दें! ☆ श्री आशीष कुमार☆

प्राथमिकता मुख्य उत्तरदायित्व को दें!

जंगल में एक गर्भवती हिरनी बच्चे को जन्म देने को थी वो एकांत जगह की तलाश में घूम रही थी कि उसे नदी किनारे ऊँची और घनी घास दिखी। उसे वो उपयुक्त स्थान लगा शिशु को जन्म देने के लिये वहां पहुँचते ही उसे प्रसव पीडा शुरू हो गयी।

उसी समय आसमान में घनघोर बादल वर्षा को आतुर हो उठे और बिजली कडकने लगी।

उसने बायें देखा तो एक शिकारी तीर का निशाना उस की तरफ साध रहा था। घबराकर वह दाहिने मुड़ी तो वहां एक भूखा शेर, झपटने को तैयार बैठा था। सामने सूखी घास आग पकड चुकी थी और पीछे मुड़ी तो नदी में जल बहुत था।

मादा हिरनी क्या करती? वह प्रसव पीडा से व्याकुल थी। अब क्या होगा? क्या हिरनी जीवित बचेगी? क्या वो अपने शावक को जन्म दे पायेगी? क्या शावक जीवित रहेगा?

क्या जंगल की आग सब कुछ जला देगी? क्या मादा हिरनी शिकारी के तीर से बच पायेगी? क्या मादा हिरनी भूखे शेर का भोजन बनेगी?

वो एक तरफ आग से घिरी है और पीछे नदी है। क्या करेगी वो?

हिरनी अपने आप को शून्य में छोड़,अपने प्राथमिक उत्तरदायित्व अपने बच्चे को जन्म देने में लग गयी।  कुदरत का करिश्मा देखिये बिजली चमकी और तीर छोडते हुए , शिकारी की आँखे चौंधिया गयी उसका तीर हिरनी के पास से गुजरते शेर की आँख में जा लगा, शेर दहाडता हुआ इधर उधर भागने लगा और शिकारी शेर को घायल ज़ानकर भाग गया घनघोर बारिश शुरू हो गयी और जंगल की आग बुझ गयी हिरनी ने शावक को जन्म दिया।

हमारे जीवन में भी कभी कभी कुछ क्षण ऐसे आते है, जब हम चारो तरफ से समस्याओं से घिरे होते हैं और कोई निर्णय नहीं ले पाते तब सब कुछ नियति के हाथों सौंपकर अपने उत्तरदायित्व व प्राथमिकता पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। अन्तत: यश- अपयश, हार-जीत, जीवन-मृत्यु का अन्तिम निर्णय ईश्वर करता है। हमें उस पर विश्वास कर उसके निर्णय का सम्मान करना चाहिए।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ गानसमाधि ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ लघुकथा ☆ गानसमाधि ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ 

मंचपर से वह युवा गायक गा रहा था। अभी अभी एक अच्छे गायक के रूप में उसकी पहचान होने लगी थी । महफिल में अब वह बागेश्री का आवाहन कर रहा था। बागेश्री ने धीरे धीरे आँखे खोली। विलंबित गत में आलाप के साथ साथ अलसाई बागेश्री, अंगडाई लेने लागी। धीरे धीरे उठ खड़ी हुई। हर लम्हे, जर्रा जर्रा खिलने लगी। हर आलाप के साथ विकसित होने लगी। पदन्यास करने लगी। थिरकने लगी। आलाप, सरगम, मींड, नज़ाकती ठहराव, बागेश्री का रूप निखरने लगा। द्रुत बंदिश … नभ निकस गायो चंद्रमा… बागेश्री की मनमोहक अदा, उसका तेज नर्तन, और सम के साथ साथ उस का खूबसूरत ठहराव… अब तानों की बौछारें होने लगी। वह चक्राकार फेरे लेने लगी। सुननेवाले संगीत का लुफ्त उठा रहे थे। गायक तल्लीन हो कर गा रहा था। रसिक गाने में समरस हो रहे थे।

सभागृह में पहली पंक्ती में एक अधेड उम्र का व्यक्ति बैठा था। उसने अपनी आँखें मूँद ली थी। गायक का ध्यान जब जब उस की तरफ जाता, गायक विचलित हो जाता। राग के बढत के साथ साथ, उस के दिमाग में गुस्सा और विषाद भर जाता। सोचने लगता, ‘अरे, सोना है जनाब को तो घर में ही आराम से सोते। यहां आने की परेशानी क्यौं उठायी? वैसे रियाज और अभ्यास के कारण, आदतानुसार गायक गाए जा रहा था, किन्तु मन में कुंठा जरूर पली हुई थी।

तालियों की बौछार के साथ बागेश्री का समापन हुआ। उस अधेड व्यक्ति ने अपनी आँखे खोली। गायक ने उसे अपने पास बुलाया और उन्हें पूछने लगा,

“महाशय, क्या आप को मेरे गाने में कोई कमी महसूस हुई?”

“नहीं तो…”

“फिर क्या आप की नींद पूरी नहीं हुई थी?”

“नहीं… नहीं… ऐसा भी नहीं…”

“तो फिर सारा समय आप नें अपनी आँखे क्यों मूँद ली थी?”

“उस का क्या है बेटा, जब हम आँखे मूँद लेते है, तब पंचेंद्रियों की सारी शक्ति कानों में समाई जाती है। फिर एक एक सुर अंतस तक उतरता जाता है। जब आँखे खुली होती है, तब वह यहां-वहां दौड़ती है। जिस की जरूरत हो, वह देखती है, ना हो उसे भी देखती है। मन को विचलित करती है। स्वर परिपूर्णता से अंतस में समाए नहीं जाते।”

बाते करते करते, अभी थोडी ही देर पूर्व गायक ने लिया हुआ एक कठिन आलाप, वह आदमी उसी नज़ाकती मींड के साथ गुनगुनाने लगा। गायक आलाप सुनते ही विस्मित हुआ।

वह अधेड व्यक्ति आगे कहने लगा, “तुम बहुत अच्छा गाते हो, लेकिन गायक की गाने में इतनी समरसता होनी चाहिये की सामने बैठे श्रोता क्या कर रहे हैं, दाद दे रहे है, या नहीं, आपस में बोल रहे है, या सो रहे है, इससे उसे बेखबर होना चाहिये। इसे गानसमाधि कहते है।  तुम्हारा गायन इस अवस्था तक पहुँचे, यह मेरी कामना है।” अधेड व्यक्ति नें गायक के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा। गायक नें उन का चरणस्पर्श किया।

आज उस अधेड व्यक्ति नें, उस के मन में रियाज के लिए एक नया बीज डाला था।

© श्रीमती उज्ज्वला केळकर

सम्पादिका ( ई- अभिव्यक्ति मराठी)

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन के पास, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 80 ☆ लघुकथा – सही मार्ग ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  किशोर मनोविज्ञान पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा  “सही रास्ता। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 80 – साहित्य निकुंज ☆

 लघुकथा – सही रास्ता

उषा का आज कॉलेज में पहला दिन था। उसे कुछ अजीब सा लग रहा था और नौकरी लगने की खुशी भी बहुत थी ।

स्टाफ रूम पहुंची सभी ने उसका स्वागत किया।

विभागाध्यक्ष ने उसे टाइम टेबिल दिया । इस वर्ष उसे फाइनल की ही क्लास मिली थी।

आज जब वह क्लास लेने गई तब बच्चों ने उसका स्वागत किया। और एक छात्र सुनील ने तो उसे गुलाब का फूल लाकर दिया और बोला “हार्दिक स्वागत है मेम ।”

उषा ने …”प्यार से थैंक्स कहा।”

उषा पढ़ाने लगी। उषा कई दिन से महसूस कर रही थी  कि सुनील का पढ़ने में मन नहीं लगता और वह केवल आंखें फाड़ करके देखता ही रहता है उसे।

रोज कॉलेज छूटने पर कॉलेज के बाहर मिलता है न जाने क्या है उसके मन में ?

शायद यह उम्र ही ऐसी है।

उषा ने सोचा .. कि कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा वरना यह बच्चा अपनी पढ़ाई से हाथ धो बैठेगा।

अगले दिन जब कॉलेज के गेट पर सुनील मिला तो उसने सुनील से कहा .. “मेरे साथ घर चलोगे।”

सुनील खुशी खुशी उषा के साथ घर चला गया।

उषा ने सुनील को बैठाया और चाय नाश्ता करवाया। तब तक उषा के बच्चे भी लौट आए स्कूल से।  आपस में मिलवाया। सुनील सभी से मिलकर बहुत खुश हो गया।

बच्चों ने पूछा मम्मी यह “भैया कौन है।”

उषा ने कहा …. “इन्हें तुम मामा कह सकते हो।”

“क्यों सुनील यह रिश्ता तुम्हें मंजूर है?”

सुनील तुरंत मैम के चरणों में झुक गया। बोला.. “आपने मुझे सही मार्ग दिखाया। आपने मेरी आंखें खोल दी।”

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 59 ☆ लघुकथा – पचास पार की औरत ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी स्त्री विमर्श पर आधारित मनोवैज्ञानिक लघुकथा ‘पचास पार की औरत’डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस बेहद सार्थक लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 59 ☆

☆  लघुकथा – पचास पार की औरत ☆

सुनंदा बहुत दिनों से अनमनी सी हो रही थी,  क्यों,  यह उसे भी पता नहीं। बस मन कुछ उचट रहा था। बेटी की शादी के बाद से अक्सर  ऐसा होने लगा था। पति अपनी नौकरी में व्यस्त और  वह सारा दिन घर में अकेली। इतनी फुरसत तो आज तक कभी उसे मिली ही नहीं थी। वैसे तो परिवार में सब ठीक ठाक था, फिर भी रह-रहकर मन में निराशा और अकेलापन महसूस होता। दरअसल वह कभी घर में अकेली रही ही नहीं, अकेले घूमने–फिरने की आदत भी नहीं थी उसे। यही फुरसत और अकेलापन अब उसे खल रहा था, पर कहे किससे।

उसने कहीं पढा था कि 45 की उम्र के बाद स्त्रियों में हारमोनल बदलाव आते हैं और मन पर भी इसका असर पडता है, तो यह मूड स्विंग है क्या? वह सोच रही थी कि मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है क्या?  अपने में ही उलझी हुई सी थी कि फोन की घंटी बजी,  बेटी का फोन था – क्या कर रही हो मम्मां! बर्थडे का क्या प्लान है? कितने साल की हो गईं अब? इस प्रश्न का जबाब ना देकर वह बोली – अरे कुछ नहीं इस उम्र में क्या बर्थडे मनाना। जहाँ उम्र का काँटा 35-40 के पार गया कि फिर शरीर ही उम्र बताने लगता है बेटा। इसी के साथ विचारों का सिलसिला चल पडा, पचास की उम्र की महिलाओं की स्थिति कुछ वैसी ही होती है जैसे पंद्रह – सोलह साल की लडकियों की, जिन्हें ना छोटा समझा जाता है ना बडा। कुछ बडों जैसा बोल दिया तो डांट पडती है कि ज्यादा दादी मत बनो, और कोई काम नहीं किया तो सुनने को मिलता – इतनी बडी हो गई सहूर नहीं है, बिचारी बच्ची करे तो क्या करे? शायद वह भी आज उम्र के ऐसे ही पडाव पर है। अब पति कहते हैं – पहले कहती थी ना आराम के लिए समय  नहीं मिलता,  अब जितना आराम करना है करो। बेटी समझाती है घूमने जाइए, शॉपिंग करिए, मस्ती करिए, बहुत काम कर लिया माँ आपने। वह कैसे समझाए कि उसकी जिंदगी तो इन दोनों के इर्द- गिर्द ही घूमने की आदी है। अपने लिए कभी सोचा ही कहाँ उसने। अब एकदम से कैसे बदल ले अपने आपको? हैलो मम्मां कहाँ खो गईं? बेटी फोन पर फिर बोली। अरे यहीं हूँ, बोल ना। बताया नहीं आपने क्या करेंगी बर्थडे पर। अभी कुछ सोचा नहीं है, अच्छा फोन रखती हूँ बहुत काम हैं। फोन रखकर उसने आँसू पोंछे, ये आँखें भी ज्यादा ही बोलने लगीं हैं अब।

मुँह धोकर वह शीशे के सामने खडी हो गई। लगा बहुत समय बाद फुरसत से अपने चेहरे को देख रही है। आँखों के आसपास काले घेरे बढ गए थे,  चेहरे पर उम्र की लकीरें भी साफ दिखने लगी थीं। चेहरे को देखते – देखते शरीर पर ध्यान गया, थकने लगी है अब। थोडा सा काम बढा,  फिर दो दिन आराम करने को मन करता है। शीशे में देखकर उसने मुस्कुराने की कोशिश की,  सुना था- शीशे के सामने खडे होकर मुस्कुराओ तो मन खुशी से भर जाता है। वह मुस्कुराने लगी – हाँ शायद बदल रहा है मन,  कुछ कह भी रहा है –  इस उम्र तक अपने लिए सोचा ही नहीं, पर अब तो सोचो। आधी जिंदगी परिवार में सिमटे रहो और बाकी उसकी याद में। खुद  मत बदलो और जमाने से शिकायत करते फिरो, यह तो कोई बात नहीं हुई। निकलना ही होगा उसे अपने बनाए इस घेरे से जो उसके आगे के जीवन को अपनी चपेट में ले रहा है। अब भी अपने लिए नहीं जिऊँगी तो कब? उसने कपडे बदले,  रिक्शा बुलाया और निकल पड़ी।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 75 – हाइबन- जैसे का तैसा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “हाइबन- जैसे का तैसा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 75☆

☆ हाइबन- जैसे का तैसा ☆

प्रकृति की हर चीज बदलती है । मगर कुछ चीजें आज भी ज्यों के त्यों बनी हुई है। जी हां, आपने सही सुना । हम कछुए की ही बात कर रहे हैं ।

इस प्रकृति में कछुआ ही ऐसा प्राणी है जो करोड़ों वर्ष से जैसा का तैसा बना हुआ है। इसका जन्म तब हुआ था जब छिपकली, सांप, डायनासोर भी नहीं थे । यानी आज से 20 करोड़ों वर्ष पहले भी कछुआ इसी तरह दिखता था।

प्राकृतिक रूप से बिल्कुल शांत रहने वाले कछुए का खून उसी की तरह बिल्कुल ठंडा होता है। इसके शरीर में कहीं बाल नहीं होते हैं। आमतौर पर कछुए की उम्र 50 से 100 साल तक होती है । मगर 300 प्रजातियों वाले कछुए की उम्र 200 से 400 साल तक पाई गई है ।

इसका कवच बहुत ही कठोर होता है। इसी कारण इसकी पुराने समय में ढाल भी बनाई जाती थी। कठोर कवच वाले कछुए का शेर भी शिकार नहीं कर पाता है।

नदी किनारा~

कछुए पर झपटा

नन्हासा शेर।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

01-02-21

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ बोध कथा – धन्य सेवक ☆ अनुवाद – अरुंधती अजित कुळकर्णी

☆ जीवनरंग ☆ बोध कथा – धन्य सेवक ☆ अनुवाद – अरुंधती अजित कुळकर्णी ☆ 

||कथासरिता||

(मूळ –‘कथाशतकम्’  संस्कृत कथासंग्रह)

? लघु बोध कथा?

कथा १८. धन्य सेवक

अनंतपुर नावाच्या नगरात कुंतिभोज नावाचा राजा राज्य करत होता. एकदा तो आपले मंत्री, पुरोहित व इतर सभाजनांसह सभेत  सिंहासनावर बसला होता. त्यावेळी कोणी एक हातात शस्त्रास्त्रे असलेला क्षत्रिय सभेत येऊन राजाला प्रणाम करून म्हणाला, “महाराज, मी धनुर्विद्येचा खूप अभ्यास केलेला आहे. पण मला कोठेही काम न  मिळाल्याने  दुःखी आहे म्हणून आपणा जवळ आलो आहे.”  राजाने त्याला रोज शंभर रुपये वेतन देण्याचे कबूल  करून स्वतःजवळ ठेवून घेतले.  तेव्हापासून तो रात्रंदिवस राजभवनाजवळ वास्तव्य करत होता.

एकदा राजा रात्रीच्या समयी राजवाड्यात झोपला असताना कोण्या एका स्त्रीचा आक्रोश त्याला ऐकू आला. तेव्हा त्याने त्या क्षत्रिय सेवकाला  बोलावून त्याबद्दल चौकशी करण्यास सांगितले.  त्यावर सेवक म्हणाला, “ महाराज,  गेले दहा दिवस मी हा आक्रोश ऐकतोय. पण काही कळत नाही. जर आपण आदेश दिला तर मी याविषयी माहिती काढून येतो.”  राजाने त्याला त्वरित परवानगी दिली. हा सेवक कुठे जातो हे बघण्याच्या विचाराने राजा वेषांतर करून त्याच्या पाठोपाठ जाऊ लागला.

एका देवीच्या देवळाजवळ जवळ बसून रडणारी एक स्त्री पाहून सेवकाने विचारले, “तू कोण आहेस? का रडतेस?”  तेव्हा ती स्त्री म्हणाली, “मी कुंतिभोज राजाची राजलक्ष्मी आहे. तीन दिवसांनंतर राजा मृत्यू पावणार आहे. त्याच्या निधनानंतर मी कुठे जाऊ?  कोण माझे रक्षण करील?  या विचाराने मी रडत आहे.” “राजाच्या रक्षणार्थ  काही उपाय आहे का?”  तसे सेवकाने पुन्हा पुन्हा विचारल्यावर ती स्त्री सेवकाला म्हणाली, “जर स्वतःचा पुत्र या दुर्गादेवीला बळी दिलास तर राजा चिरकाळ जगेल.” “ठीक आहे.  मी आत्ताच पुत्राला आणून देवीला बळी देतो” असे म्हणून सेवकाने घरी येऊन मुलाला सगळा वृत्तांत सांगितला. पुत्र म्हणाला, “तात, या क्षणीच  मला तिकडे घेऊन चला. माझा बळी देऊन राजाचे रक्षण करा. राजाला जीवदान मिळाले तर त्याच्या आश्रयाला असणारे अनेक लोक सुद्धा जगतील.”

सेवकाने मुलाला देवळात नेऊन त्याचा बळी देण्यासाठी तलवार काढली. तेवढ्यात स्वतः देवी तिथे प्रकट झाली व सेवकाला म्हणाली, “तुझ्या साहसाने मी प्रसन्न झाले आहे. मुलाचा वध करू नकोस.  इच्छित वर माग.”  सेवक म्हणाला, “ हे देवी, कुंतिभोज राजाचा अपमृत्यू  टळून त्याने चिरकाळ प्रजेचे पालन करीत सुखाने जगावे असा मला वर दे.” “ तथास्तु!”  असे म्हणून देवी अंतर्धान पावली.  त्यामुळे खूप आनंदित झालेला सेवक मुलाला घरी ठेवून राजभवनाकडे निघाला. इकडे वेषांतरित राजा घडलेला प्रसंग पाहून सेवकाच्या दृष्टीस न पडता राजभवनात उपस्थित झाला. सेवक राजभवनात येऊन राजाला म्हणाला, “महाराज, कोणी एक स्त्री पतीशी भांडण झाल्याने रडत होती. तिची समजूत काढून तिला घरी सोडून आलो”. राजा त्याच्या ह्या उपकारामुळे खूप खुश झाला व त्याने सेवकाला सेनापतीपद बहाल केले.

तात्पर्य – खरोखरच श्रेष्ठ सेवक आपल्या स्वामीवर ओढवलेल्या संकटाचे निवारण करताना प्राणांची सुद्धा पर्वा करीत नाहीत.

अनुवाद – © अरुंधती अजित कुळकर्णी

≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – ज़हर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – ज़हर

“बिच्छू ज़हरीला प्राणी है। ज़हर की थैली उसके पेट के निचले हिस्से या टेलसन में होती है। बिच्छू का ज़हर आदमी को नचा देता है। आदमी मरता तो नहीं पर जितनी देर ज़हर का असर रहता है, जीना भूल जाता है।…हम सब जानते हैं कि साँप भी ज़हरीला प्राणी है। लेकिन हर साँप में ज़हर नहीं होता। साँप अगर ज़हरीला है तो उसका ज़हर कितनी देर में असर करेगा, यह उसकी प्रजाति पर निर्भर करता है। कई साँप ऐसे हैं जिनके विष से थोड़ी देर में ही मौत हो सकती है। दुनिया के सबसे विषैले प्राणियों में कुछ साँप भी शामिल हैं। साँप की विषग्रंथि उसके दाँतों के बीच होती है”, ग्रामीणों के लिए चल रहे प्रौढ़ शिक्षावर्ग में विज्ञान के अध्यापक ज़हरीले प्राणियों के बारे में पढ़ा रहे थे।

“नहीं माटसाब, सबसे ज़हरीला होता है आदमी। बिच्छू के पेट में होता है, साँप के दाँत में होता है, पर आदमी की ज़ुबान पर होता है ज़हर। ज़ुबान से निकले शब्दों का ज़हर ज़िंदगीभर टीसता है। ..जो ज़िंदगीभर टीसे, वो ज़हर ही तो सबसे ज़्यादा तकलीफदेह होता है माटसाब।”

जीवन के लगभग सात दशक देख चुके विद्यार्थी की बात सुनकर युवा अध्यापक अवाक था।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 77 – लघुकथा – लाइक्स वाली दादी…. ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत एकअतिसुन्दर विनोदपूर्ण लघुकथा  “लाईक वाली दादी….। आज सोशल मीडिया हमारे जीवन में हावी हो गया है।  हम सब  सोशल मीडिया की दुनिया में सीमित होते जा रहे हैं और आपसी मेलजोल की जगह लाइक्स और कमैंट्स लेते जा रहे हैं। इस लघुकथा के माध्यम से  सोशल मीडिया से उपजे विनोद का अत्यंत सुन्दर वर्णन किया है। एक ऐसी ही अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘लाईक वाली दादी’ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 77 ☆

? लघुकथा – लाईक वाली दादी …. ?

सकारात्मक सोच जीवन में नई ऊर्जा भर देती है। ऐसे ही कोरोना काल में पड़ोस में रहने वाली दीप्ति को बिटिया हुई। देखभाल के लिए उसके मम्मी पापा लखनऊ ले गए।

लगभग आठ महीने के बाद बच्ची को लेकर दीप्ति बहू घर आई। क्योंकि, उसकी सासु माँ का अचानक अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ। तब तक आवागमन के साधन नहीं शुरू हुए थे। घर में आना-जाना शुरु हो गया। सासु माँ की सहेलियां, पड़ोस की सभी मिलने आने लगी। बच्ची सभी को देखते ही ज़ोर-ज़ोर से रोने लगती। यहां तक कि उसकी और सगी दादी को भी वह देखकर रोती थी।

मोहल्ले में चर्चा का विषय बन गया। ‘हाय बाई! कैसे देखन जाएं उसकी मोड़ी तो जाते ही रोने लगती है।’ सासू माँ की एक सहेली जिसका आना जाना तो कम होता था परंतु समय के अनुसार वह मोबाइल और फेसबुक के कारण सभी समाचार प्राप्त कर लेती थी।

वे थोड़ी आधुनिक विचार की थी। दीप्ति की शादी से लेकर डिलीवरी तक का हालचाल वह व्हाट्सएप और फेसबुक पर ही शेयर और लाइक करती। दीप्ति भी बच्ची की तस्वीर लगातार दो चार दिनों में डालती रहती। सभी में लाइक और गुड कमेंट लिखा करती थी सहेली आंटी।

वह देखने घर पहुंच गई। दीप्ति बच्ची को उस समय खाना खिला रही थी। सासु माँ बोली – “अभी ये रोना शुरु कर देगी। बात भी नहीं करने देगी।” परंतु यह क्या बच्ची तो सहेली आंटी को देखते ही खिल – खिलाकर हंसने लगी।

सभी आश्चर्य से देखने लगे। लिटाए हुए बेबी को सहेली ने गोद में उठा कर लेना चाहा। सभी ने मना किया। परंतु वह गोद में ले कर हंसते हुए स्वयं खिलखिलाती बच्ची को गोद में उठाकर कहने लगी- “इसको मालूम है मैं फेसबुक में सबसे ज्यादा लाइक करने वाली दादी हूँ। इसको भी पता है लाइक नहीं करुंगी तो???”

सभी का मुँह खुला का खुला ही रह गया। भाई साहब जो अब तक चुप थे कहने लगे- “मैं भी आज फ्रेंड रिक्वेस्ट जल्द ही भेज रहा हूँ। एक बार फिर हंसी फूट पड़ी। ??

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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