हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # ९२ – जीभ का रस ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #92 🌻 जीभ का रस  🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक बूढ़ा राहगीर थक कर कहीं टिकने का स्थान खोजने लगा। एक महिला ने उसे अपने बाड़े में ठहरने का स्थान बता दिया। बूढ़ा वहीं चैन से सो गया। सुबह उठने पर उसने आगे चलने से पूर्व सोचा कि यह अच्छी जगह है, यहीं पर खिचड़ी पका ली जाए और फिर उसे खाकर आगे का सफर किया जाए। बूढ़े ने वहीं पड़ी सूखी लकड़ियां इकठ्ठा कीं और ईंटों का चूल्हा बनाकर खिचड़ी पकाने लगा। बटलोई उसने उसी महिला से मांग ली।

बूढ़े राहगीर ने महिला का ध्यान बंटाते हुए कहा, ‘एक बात कहूं.? बाड़े का दरवाजा कम चौड़ा है। अगर सामने वाली मोटी भैंस मर जाए तो फिर उसे उठाकर बाहर कैसे ले जाया जाएगा.?’ महिला को इस व्यर्थ की कड़वी बात का बुरा तो लगा, पर वह यह सोचकर चुप रह गई कि बुजुर्ग है और फिर कुछ देर बाद जाने ही वाला है, इसके मुंह क्यों लगा जाए।

उधर चूल्हे पर चढ़ी खिचड़ी आधी ही पक पाई थी कि वह महिला किसी काम से बाड़े से होकर गुजरी। इस बार बूढ़ा फिर उससे बोला: ‘तुम्हारे हाथों का चूड़ा बहुत कीमती लगता है। यदि तुम विधवा हो गईं तो इसे तोड़ना पड़ेगा। ऐसे तो बहुत नुकसान हो जाएगा.?’

इस बार महिला से सहा न गया। वह भागती हुई आई और उसने बुड्ढे के गमछे में अधपकी खिचड़ी उलट दी। चूल्हे की आग पर पानी डाल दिया। अपनी बटलोई छीन ली और बुड्ढे को धक्के देकर निकाल दिया।

तब बुड्ढे को अपनी भूल का एहसास हुआ। उसने माफी मांगी और आगे बढ़ गया। उसके गमछे से अधपकी खिचड़ी का पानी टपकता रहा और सारे कपड़े उससे खराब होते रहे। रास्ते में लोगों ने पूछा, ‘यह सब क्या है.?’ बूढ़े ने कहा, ‘यह मेरी जीभ का रस टपका है, जिसने पहले तिरस्कार कराया और अब हंसी उड़वा रहा है।’

शिक्षा:- तात्पर्य यह है के पहले तोलें फिर बोलें। चाहे कम बोलें मगर जितना भी बोलें, मधुर बोलें और सोच समझ कर बोलें।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “विश्व विवशता दिवस” # [1] सिलेक्शन [2] औरत का गहना ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है आपकीअत्यंत विचारणीय  दो लघुकथाएं – “विश्व विवशता दिवस” – [1] सिलेक्शन [2] औरत का गहना)

☆ कथा-कहानी ☆ लघुकथाएं – “विश्व विवशता दिवस” – [1] सिलेक्शन [2] औरत का गहना ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆ 

आज विश्व विवशता दिवस है? मुझे पता नहीं। होता भी है या नहीं, में नहीं जानता। हाँ, इतना अवश्य जानता हूँ कि जब विश्व में  ऐसी विवशताएँ हैं, तो हम सभ्य हैं, विकसित हैं, आदमी हैं, ये भ्रम टूट जाता है।

तो फिर पढ़िए,  ऐसी ही दो विवश लघुकथाएं:-

[1] सिलेक्शन

वह हर सवाल का जबाव देता था सिर्फ एक सवाल को छोड़कर, और वह सवाल होता था, “यदि तुम्हारा सिलेक्शन होता है तो बदले में तुम हमें क्या दोगे ? “इस सवाल पर वह  हमेशा चुप रह जाता। खाली पेट और खाली जेब लिए लौट आता।

आज भी वह थका-हारा, निराश, बोझिल कदमों से अपने ख्यालों में खोया चला जा रहा था। उसे अपनी बीमार माँ और ब्याह लायक बहन याद आ रही थी। वह खुद भी दो दिन से भूखा था। सूर्य अभी अस्त नहीं हुआ था, लेकिन उसकी आँखों के आगे अँधेरा-सा छाने लगा। तेजी से आती हुई एक कार से वह अचानक टकरा गया। उसके मुँह से एक चीख निकल पड़ी। लोग जमा हो गए। असहनीय वेदना और नीम बेहोशी में उसने देखा, उसकी एक टाँग बुरी तरह टूट गई थी।

“अरे, इसे अस्पताल ले चलो,” भीड़ मे से कोई बोला।

“नहीं-नहीं, मुझे अस्पताल मत ले चलिए”, कराहते हुए उसने कहा।

“देखो, तुम्हारी टाँग टूट चुकी है। हम अस्पताल ले चलते हैं। घबराओ मत, अस्पताल का सारा खर्च मैं दूँगा।” कारवाले ने कार का दरवाजा खोलते हुए कहा।

“प्लीज़, मुझे अस्पताल मत ले चलिए।” कुछ संयत हो हाथ जोड़ते हुए वह पुनः बोला- “मैं सात साल से बेकार हूँ। मुझे नौकरी तो नहीं मिलेगी। पर हाँ, टाँग टूटने से भीख तो मिल सकती है। ” कहते हुए उसने जेब से अपनी डिग्री निकाली। उसके टुकड़े-टुकड़े कर हवा में उछालते हुए, अपनी हथेली लोगों के सामने फैला दी। हथेली पर कुछ सिक्के जमा हो गए। उसने एक क्षण अपनी हथेली को और दूसरे क्षण अपनी कटी हुई टाँग को देखा। उसे लगा यह उसका एक सौ छत्तीसवाँ इंटरव्यू है, जिसमें उसने उस सवाल का भी जवाब दे दिया है : ” अगर तुम्हारा सिलेक्शन होता है तो बदले में तुम हमें क्या दोगे?”

“अपनी टाँग।” एक दर्दभरी मुस्कान के साथ वह बुदबुदा उठा।

और इस बार उसका सिलेक्शन हो गया, एक भिखारी की पोस्ट के लिए।

[2]  औरत का गहना 

इदरिस बहुत बीमार था। पाँच बच्चों का बोझ ढोते-ढोते उसे पता ही नहीं चला,  कब मामूली खाँसी धीरे-धीरे उसकी साँसों में समा गई।

अबकि बार खाँसी का दौरा उठा तो नूरा काँप गई। उसे प्राइवेट डाक्टर को बुलाना ही होगा, मगर उसकी फीस ? अचानक उसकी निगाह उँगली में पड़े पुराने चाँदी के छल्लों पर गई। ये छल्ले इदरिस ने उसे सुहागरात को दिए थे। कहा था- “नूरा, ये मेरे प्यार की निशानी है, इन्हें कभी जुदा मत करना।” जब देनेवाला ही जुदा हो जाए तो ये किस काम के।

थोड़ी देर बाद नूरा की उँगली में छल्लों की जगह सौ-सो के दो नोट थे। एक घंटे बाद डाक्टर ने ये नोट लेते हुए कहा- “तुमने बहुत देर दी,  खुदा पर भरोसा रखो।”

डाक्टर के जाते ही नूरा इदरिस के पास आकर उसकी छाती सहलाने लगी। इदरिस का ध्यान उसकी उँगली पर गया। वह बोला-” अरे, तुम्हारे छल्लों का क्या हुआ,? लगता है, तुमने बेच दिए। ले-दे के यही तो एक गहना था तुम्हारे पास।”

“ये क्या कहते हैं आप?  हया औरत का सबसे बड़ा गहना होता है, और फिर गहने मुसीबत के वक्त ही तो बेचे जाते हैं, अच्छे हो जाना, फिर आ जाएँगे।”

इदरिस न अच्छा हो सकता था और न हुआ।

इदरिस के चले जाने के बाद नूरा टूट गई। जब घर के  डिब्बे खाली हों तो पेट कैसे भर सकता है! नूरा सोचती ही रही, न जाने कब हारून बड़ा होगा, अभी तो बारह बरस का ही है। जमीला भी तो सयानी हो गई। जवानी गरीबी-अमीरी कुछ नहीं  देखती, बस चढ़ी ही चली जाती है। इदरिस था तो आधा पेट तो भर जाता था, अब उसके भी लाले पड़ गए। इदरिस का खयाल आते ही उसे हारून  याद आया।

एक दिन हारून को हल्का-सा बुखार हो आया, साथ ही कुछ खाँसी भी। नूरा ने गौर से देखा, न केवल हारून का चेहरा, बल्कि उसकी खाँसी भी इदरिस से मिलती-जुलती है। उसके कानों में प्राइवेट डाक्टर के शब्द गूँज उठे- “तुमने बहुत देर कर दी।”

“या अल्लाह, रहम कर मेरे हारून पर। ”  नूरा बुदबुदा उठी। अपनी उँगलियों को देखकर बोली-”  अब तो छल्ले भी नहीं  है, समझ में  नहीं आता,  क्या करूँ?”

“तू फिक्र मत कर अम्मा, अब देर नहीं होगी।प्राइवेट डाक्टर जरूर आयेगा।” जमीला  ने अम्मा को हिम्मत दी।

शाम को डाक्टर आया। सूई लगाते बोला- “घबराने की कोई बात नहीं। मै ठीक वक्त पर आ गया। ये जल्दी ठीक हो जायेगा। “जमीला ने डाक्टर को फीस दी। हारून के लिए  फल भी लायी। डाक्टर के जाते ही नूरा ने पूछा – “अरी जमीला, मैं पूछती हूँ, ये फीस, ये दवा, ये फल, तू पैसे कहाँ से लायी?”

“अम्मा,  मुझे कुछ काम मिल गया था।” यह कह जमीला औंधी पड़ सुबकने लगी। उसे नूरा के शब्द याद आए -” हया औरत का सबसे बड़ा गहना होता है, और फिर गहने मुसीबत के वक्त ही तो बेचे जाते  हैं।”

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆☆ लघुकथा – दो पैग रोज ☆☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका) ☆

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की एक विचारणीय लघुकथा  “दो पैग रोज)

☆ लघुकथा – दो पैग रोज ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका) ☆

“यार, तू सारा दिन रोबोट की तरह काम करता रहता है, थकता नहीं क्या? कभी तेरे चेहरे पर थकावट नहीं देखी, चिड़चिड़ाहट नहीं देखी, घबराहट भी नहीं देखी, बस मुस्कुराहट ही मुस्कुराहट देखी है। ओए, इसका राज तो बता यार?” संदीप ने सुरेश के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।

“बस यही राज है- मुस्कुराहट”, सुरेश ने मुस्कुराते हुए कहा, “मैं किसी भी काम को बोझ मानकर नहीं करता। अपना उसूल है- काम तो करना ही है, चाहे रो कर करो या हंस कर, तो हंस कर क्यों ना किया जाए। जैसे दूसरे लोग मोबाइल पर या कंप्यूटर पर गेम खेलते हैं, वैसे ही मैं अपने हर काम को एक खेल की तरह लेता हूं, और उसे पूरे मनोयोग से करने की कोशिश करता हूं। तुम्हें सुनकर हैरानी होगी कि सौ प्रतिशत नहीं, तो नब्बे-पचानवे प्रतिशत कार्यों में मैं सफल रहता हूं। तो खुश तो रहूंगा ही, और खुश रहूंगा तो मुस्कुराहट भी अपने आप आएगी चेहरे पर…।”

“फिर भी यार, कभी तो बंदा थकता ही है। पर तुम तो हमेशा ऊर्जावान ही रहते हो। कुछ तो गड़बड़ है?” संदीप ने तह तक जाने की कोशिश की।

सुरेश फिर मुस्कुरा दिया, ‘हां है- दो पैग रोज।”

“हां, अब आए न लाइन पर…”, संदीप को जैसे मनचाहा उत्तर मिल गया हो, “मैं कह रहा था न कि कुछ तो है।”

“वह वाले पैग नहीं मियां, जो तुम सोच रहे हो”, सुरेश ने हंसते हुए कहा, “वह तो तुम भी लेते हो, फिर एनर्जी क्यों नहीं आती?”

“फिर? फिर कौन से पैग?” संदीप चकरा गया।

“देखो, तुम दो पैग रोज रात को लगाते हो, मैं एक सुबह और एक शाम को पीता हूं। पर जितने में तुम्हारा एक पैग बनता है, उसके आधे में मेरे दो पैग बन जाते हैं। फिर भी एनर्जी तुमसे दोगुनी।” सुरेश ने कहा।

इस पर संदीप और उलझ गया, ‘ऐसे कौन से पैग हैं भई? कहीं देसी ठर्रा तो नहीं? पर तुम्हें तो कभी पीते हुए भी नहीं देखा, न किसी से सुना है कभी?”

“हां, मैं दारू नहीं पीता, बल्कि वैद्य की सलाह से आयुर्वेदिक टॉनिक लेता हूं, जिससे इतना उर्जावान, चुस्त और जवान रहता हूं। मेरी अपनी सोच है- बीमार होकर दवाइयां खाने से अच्छा है, अच्छी खुराक खा कर और स्वास्थ्यवर्धक टॉनिक पीकर स्वस्थ रहना। क्यों सही है न…।”

संदीप उसकी बात का अवलोकन कर रहा था…।

***

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – # 103-सी, अशोक नगर, नज़दीक शिव मंदिर, अम्बाला छावनी- 133001 (हरियाणा)
ई मेल- [email protected] मोबाइल : 9813130512

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – प्रवाह ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – प्रवाह ??

वह बहती रही, वह कहता रहा।

…जानता हूँ, सारा दोष मेरा है। तुम तो समाहित होना चाहती थी मुझमें पर अहंकार ने चारों ओर से घेर रखा था मुझे।

…तुम प्रतीक्षा करती रही, मैं प्रतीक्षा कराता रहा।

… समय बीत चला। फिर कंठ सूखने लगे। रार बढ़ने लगी, धरती में दरार पड़ने लगी।

… मेरा अहंकार अड़ा रहा। तुम्हारी ममता, धैर्य पर भारी पड़ी।

…अंततः तुम चल पड़ी। चलते-चलते कुछ दौड़ने लगी। फिर बहने लगी। तुम्हारा अस्तित्व विस्तार पाता गया।

… अब तृप्ति आकंठ डूबने लगी है। रार ने प्यार के हाथ बढ़ाए हैं। दरारों में अंकुर उग आए हैं।

… अब तुम हो, तुम्हारा प्रवाह है। तुम्हारे तट हैं, तट पर बस्तियाँ हैं।

… लौट आओ, मैं फिर जीना चाहता हूँ पुराने दिन।

… अब तुम बह रही हो, मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ।

…और प्रतीक्षा नहीं होती मुझसे। लौट आओ।

… सुनो, नदी को दो में से एक चुनना होता है, बहना या सूखना। लौटना उसकी नियति नहीं।

वह बहती रही।

© संजय भारद्वाज

प्रातः 8:35, 21 मई 2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – गरीबी ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है आपकी एक अत्यंत विचारणीय लघुकथा  – गरीबी। )

☆ कथा-कहानी ☆ लघुकथा – गरीबी ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆ 

एक पुरानी कहानी है। एक युवक आत्महत्या करने जा रहा था। राह में उसे एक साधु मिला। उसने आत्महत्या करने का कारण पूछा तो युवक ने बताया कि मैं बहुत दुखी व परेशान हूँ। जीवन से ऊब चुका हूँ, मेरे पास फूटी कौड़ी नहीं है और गरीबी से तंग आकर मैं आत्महत्या करने जा रहा हूँ।

इस पर वह साधु कुछ देर युवक से इधर-उधर की बातें करने लगा। फिर बोला-” मैं एक ऐसे आदमी को जानता हूँ, जिसके हाथ नहीं हैं। वह तुम्हारे हाथ के बदले एक लाख रु.दे सकता है। ” 

” वाह, मैं भला उसको अपने हाथ कैसे दे सकता हूँ ? ” युवक ने अपने हाथों को देखते हुए कहा।”

” मैं एक और आदमी को जानता हूँ, जिसके पाँव नहीं है। वह तुम्हारे पावों के बदले तुम्हें दो लाख दे सकता है। “

“दो लाख रु. के बदले क्या मैं अपने कीमती पाँव गिरवी रख दूँ ? ” इस बार युवक ने तैश में आकर कहा।

“मैं एक ऐसे आदमी को भी जानता हूँ, जो तुम्हारी आँखों के बदले तुम्हें पाँच लाख रु. दे सकता है। “

साधु के कहने पर युवक इस बार गुस्से से बोला-” मेरी आँख को हाथ लगातेवालों की मैं आँखें फोड़ दूँगा। तुम कैसे साधु हो ? मुझ गरीब को अपाहिज बनाने पर तुले हो। “

इस पर साधु ने हँसते हुए कहा-” यही तो मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ। ईश्वर ने तुम्हें इतना स्वस्थ शरीर दिया है, तुम्हारे हाथ-पांँव और आँखें मिलाकर ही लाखों होते हैं। फिर तुम दुखी क्यों ? तुम गरीब कैसे ? ” युवक को बोध हुआ। उसने साधु से क्षमा माँगी और आत्महत्या का विचार छोड़कर एक नये उत्साह से वापस मुड़ गया।

उसके बाद दूसरे दिन वह युवक कहीं बाहर जा रहा था। उसे रास्ते में बाल बिखराए और मुँह लटकाए उसका मित्र मिला। उसने मित्र से कहा- “यार, ये क्या हाल बना रखा है ?”

” क्या बताऊँ यार, बहुत दुखी और परेशान हूँ। माँ-बप बीमार चल रहे हैं। बहन ब्याह लायक हो गई । बीबी और बच्चे भूख से बिलख रहे हैं। मेरे पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं है। इस गरीबी से अच्छा है मौत आ जाए। “

मित्र ने कहा – ‘ ऐसा नहीं कहते मित्र, मैं भी कल तुम्हारी तरह मरने की सोच रहा था। कल मुझे एक साधु मिला-” यह कहकर युवक ने उसे सारा किस्सा सुनाते हुए कहा-” ईश्वर ने तुम्हें इतना स्वस्थ शरीर दिया है, फिर तुम दुखी क्यों ? तुम गरीब कैसे ? “

मित्र चुपचाप उसकी बातें सुनता रहा, फिर बोला- “क्या वह साधु सच कह रहा था ? क्या वह ऐसे लोगों को जानता है जो हाथ-पाँव खरीदते हैं?”

“सच ही कहा होगा-साधु लोग झूठ नहीं बोलते, मगर क्यों?”

” कुछ नहीं, यूँ ही।” मित्र ने अपने परिवार को याद करते हुए कहा- “मुझे उस साधु का पता बताना।”

(जहाँ ऐसी गरीबी हो, ऐसी विवशता हो, वहाँ, इसे मिटाने के अतिरिक्त कुछ और सोचना भी, राजद्रोह है, नैतिक अपराध है और जघन्य पाप भी। यह मेरा अपना निजी मत है। )

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 91 – दुःख और सुख ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #91 🌻 दुःख और सुख 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

पाप से मन को बचाये रहना और उसे पुण्य में प्रवृत्त रखना यही मानव जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ है।

एक बहुत अमीर सेठ थे। एक दिन वे बैठे थे कि भागती-भागती नौकरानी उनके पास आई और कहने लगी : “सेठ जी! वह नौ लाख रूपयेवाला हार गुम हो गया।”

सेठ जी बोलेः “अच्छा हुआ….. भला हुआ।” उस समय सेठ जी के पास उनका रिश्तेदार बैठा था। उसने सोचाः बड़ा बेपरवाह है! आधा घंटा बीता होगा कि नौकरानी फिर आईः “सेठ जी! सेठ जी! वह हार मिल गया।” सेठ जी कहते हैं- “अच्छा हुआ…. भला हुआ।”

वह रिश्तेदार प्रश्न करता हैः “सेठजी! जब नौ लाख का हार चला गया तब भी आपने कहा कि ‘अच्छा हुआ…. भला हुआ’ और जब मिल गया तब भी आप कह रहे हैं ‘अच्छा हुआ…. भला हुआ।’ ऐसा क्यों?”

सेठ जीः “एक तो हार चला गया और ऊपर से क्या अपनी शांति भी चली जानी चाहिए? नहीं। जो हुआ अच्छा हुआ, भला हुआ। एक दिन सब कुछ तो छोड़ना पड़ेगा इसलिए अभी से थोड़ा-थोड़ा छूट रहा है तो आखिर में आसानी रहेगी।”

अंत समय में एकदम में छोड़ना पड़ेगा तो बड़ी मुसीबत होगी इसलिए दान-पुण्य करो ताकि छोड़ने की आदत पड़े तो मरने के बाद इन चीजों का आकर्षण न रहे और भगवान की प्रीति मिल जाय।

दान से अनेकों लाभ होते हैं। धन तो शुद्ध होता ही है। पुण्यवृद्धि भी होती है और छोड़ने की भी आदत बन जाती है। छोड़ते-छोड़ते ऐसी आदत हो जाती है कि एक दिन जब सब कुछ छोड़ना है तो उसमें अधिक परेशानी न हो ऐसा ज्ञान मिल जाता है जो दुःखों से रक्षा करता है।

रिश्तेदार फिर पूछता हैः “लेकिन जब हार मिल गया तब आपने ‘अच्छा हुआ…. भला हुआ’ क्यों कहा?”

सेठ जीः “नौकरानी खुश थी, सेठानी खुश थी, उसकी सहेलियाँ खुश थीं, इतने सारे लोग खुश हो रहे थे तो अच्छा है,….. भला है….. मैं क्यों दुःखी होऊँ? वस्तुएँ आ जाएँ या चली जाएँ लेकिन मैं अपने दिल को क्यों दुःखी करूँ ? मैं तो यह जानता हूँ कि जो भी होता है अच्छे के लिए, भले के लिए होता है।

जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा अच्छा ही है। होगा जो अच्छा ही होगा, यह नियम सच्चा ही है। मेरे पास मेरे सदगुरू का ऐसा ज्ञान है, इसलिए मैं बाहर का सेठ नहीं, हृदय का भी सेठ हूँ।”

हृदय का सेठ वह आदमी माना जाता है, जो दुःख न दुःखी न हो तथा सुख में अहंकारी और लम्पट न हो। मौत आ जाए तब भी उसको अनुभव होता है कि मेरी मृत्यु नहीं। जो मरता है वह मैं नहीं और जो मैं हूँ उसकी कभी मौत नहीं होती।

मान-अपमान आ जाए तो भी वह समझता है कि ये आने जाने वाली चीजें हैं, माया की हैं, दिखावटी हैं, अस्थाई हैं। स्थाई तो केवल परमात्मा है, जो एकमात्र सत्य है, और वही मेरा आत्मा है। जिसकी समझ ऐसी है वह बड़ा सेठ है, महात्मा है, योगी है। वही बड़ा बुद्धिमान है क्योंकि उसमें ज्ञान का दीपक जगमगा रहा है।

संसार में जितने भी दुःख और जितनी परेशानियाँ हैं उन सबके मूल में बेवकूफी भरी हुई है। सत्संग से वह बेवकूफी कटती एवं हटती जाती है। एक दिन वह आदमी पूरा ज्ञानी हो जाता है। अर्जुन को जब पूर्ण ज्ञान मिला तब ही वह पूर्ण संतुष्ट हुआ। अपने जीवन में भी वही लक्ष्य होना चाहिए।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – कथासरित्सागर ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – कथासरित्सागर ??

बचपन में पिता ने उसे ‘कथासरित्सागर’ की सजिल्द प्रति लाकर दी थी। छोटी उम्र, मोटी किताब। हर कहानी उत्कंठा बढ़ाती पर बालमन के किसी कोने में एक भय भी होता कि एक दिन इस किताब के सारे पृष्ठ पढ़ लिये जाएँगे, कहानियाँ भी समाप्त हो जाएँगी…, तब कैसे पढ़ेगा कोई नयी कहानी?

बीतते समय ने उसके हिस्से की कहानी भी लिखनी शुरू कर दी। भीतर जाने क्या जगा कि वह भी लिखने लगा कहानियाँ। सरित्सागर के खंड पर खंड समाप्त होते रहे पर कहानियाँ बनी रहीं।

अब तो उसकी कहानी भी पटाक्षेप तक आ पहुँची है। यहाँ तक आते-आते उसने एक बात और जानी कि मूल कहानियाँ तो गिनी-चुनी ही हैं। वे ही दोहराई जाती हैं, बस उनके पात्र बदलते रहते हैं। जादू यह कि हर पात्र को अपनी कहानी नयी लगती है।

कथासरित्सागर के पृष्ठ समाप्त होने का भय अब उसके मन से जाता रहा।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – प्रार्थना ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – प्रार्थना।)

☆ लघुकथा – प्रार्थना ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

“तुम रोज़ सुबह क्या प्रार्थनाएँ बुदबुदाती हो।”

“मैं अपने देवताओं से प्रार्थना करती हूँ।”

“क्या माँगती हो इनसे?”

“कुछ नहीं।”

“ऐसा कैसे हो सकता है? कुछ न कुछ तो माँगती ही होगी। मुझे लगता है अपने और अपने देश के लिए बेहतर भविष्य माँगती हो।”

“भविष्य तो वे लोग तय करते हैं जिनके हाथ में वर्तमान का नियंत्रण होता है। उन्हीं के आज के कार्यकलाप में भविष्य देखा जा सकता है।”

“तो फिर भविष्य में क्या देख रही हो तुम?”

“गुंडों की दनदनाती टोलियाँ! सब के एक जैसे कपड़े, एक जैसे नारे, एक जैसी गालियाँ। सबके हाथ में चाक़ू, तलवार, फरसे, पिस्टल। सबके चेहरों पर नृशंसता… सब तरफ़नफ़रत की आग जिसमें प्यार लकड़ी की तरह जल रहा है… सब तरफ़ धर्म का शोर है पर धर्म कहीं नहीं… मौत का जश्न मनाते वीभत्स चेहरे… और… और…”

“इतना भयानक भविष्य अगर तुम देख रही हो तो फिर यह प्रार्थना किसके लिए?”

“इस नृशंसता के बावजूद मुझे यक़ीन है कि कुछ लोग इन्सानियत को बचाने में जुटे रहेंगे। मैं चाहती हूँ कि सूर्य, पृथ्वी, जल और वायु देवता कभी कुपित न हों। ये हमेशा ऐसेलोगों के साथ बने रहें। बस यही प्रार्थना मैं रोज़ इन देवताओं से करती हूं।”

“मैं तुम्हारी प्रार्थनाओं में इन देवताओं की सलामती की दुआ शामिल करता हूँ। वर्तमान जिनके नियंत्रण में है, वे इन्सान और इन्सानियत के ही नहीं, देवताओं के भी शत्रु हैं।”

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 90 – स्वधर्म ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #90 🌻 स्वधर्म 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक साधु गंगा में स्नान कर रहे थे. गंगा की धारा में बहता हुआ एक बिच्छू चला जा रहा था. वह पानी की तेज धारा से बच निकलने की जद्दोजहद में था. साधु ने उसे पकड़ कर बाहर करने की कोशिश की, मगर बिच्छू ने साधु की उँगली पर डंक मार दिया. ऐसा कई बार हुआ.

पास ही एक व्यक्ति यह सब देख रहा था. उससे रहा नहीं गया तो उसने साधु से कहा “महाराज, हर बार आप इसे बचाने के लिए पकड़ते हैं और हर बार यह आपको डंक मारता है. फिर भी आप इसे बचाने की कोशिश कर रहे हैं. इसे बह जाने क्यों नहीं देते”

साधु ने जवाब दिया “ डंक मारना बिच्छू की प्रकृति और उसका स्वधर्म है. यदि यह अपनी प्रकृति नहीं बदल सकता तो मैं अपनी प्रकृति क्यों बदलूं?  दरअसल इसने आज मुझे अपने स्वधर्म को और अधिक दृढ़ निश्चय से निभाने को सिखाया है”

“आपके आसपास के लोग आप पर डंक मारें, तब भी आप अपनी सहृदयता न छोड़ें “

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 92 ☆ अनहोनी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक संवेदनशील लघुकथा ‘अनहोनी’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 92 ☆

☆ लघुकथा – अनहोनी ☆ 

कई बार दरवाजा खटखटाने पर भी जब रोमा ने दरवाजा नहीं खोला तो उसका मन किसी अनहोनी की आशंका से बेचैन होने लगा। ऐसा तो कभी नहीं हुआ। इतनी देर तो कभी नहीं होती उसे दरवाजा खोलने में। आज क्या हो गया ?  आज सुबह जाते समय वह बाथरूम से उससे कुछ कह रही थी लेकिन काम पर जाने की जल्दी में उसने  जानबूझकर उसकी आवाज अनसुनी कर दी। कहीं बेहोश तो नहीं हो गई ? दिल घबराने लगा, आस – पड़ोसवाले भी इकठ्ठे होने शुरू हो गए थे।

वह रोज सुबह अपने काम से निकल जाता और रोमा घर में सारा दिन अकेली  रहा करती थी। बेटी की शादी हो गई और बेटा विदेश में था। उसने कई बार पति को समझाने की कोशिश भी की कि अब उसे काम करने की कोई जरूरत नहीं है, उम्र के इस दौर में आराम से रहेंगे दोनों पति-पत्नी लेकिन पुरुषों को घर में बैठना कब रास आता है।  किसी तरह से घर का दरवाजा खोला गया। रोमा बाथरूम में बेहोश पड़ी थी उसे शायद हार्ट अटैक आया था। पड़ोसियों की मदद से वह रोमा को अस्पताल ले गया। रोमा को अभी तक होश नहीं आया था। वह उसका हाथ पकड़े बैठा था और सोच रहा था कि अगर आज भी रोज की तरह देर रात घर आता तो ?

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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