श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है आपकीअत्यंत विचारणीय  दो लघुकथाएं – “विश्व विवशता दिवस” – [1] सिलेक्शन [2] औरत का गहना)

☆ कथा-कहानी ☆ लघुकथाएं – “विश्व विवशता दिवस” – [1] सिलेक्शन [2] औरत का गहना ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆ 

आज विश्व विवशता दिवस है? मुझे पता नहीं। होता भी है या नहीं, में नहीं जानता। हाँ, इतना अवश्य जानता हूँ कि जब विश्व में  ऐसी विवशताएँ हैं, तो हम सभ्य हैं, विकसित हैं, आदमी हैं, ये भ्रम टूट जाता है।

तो फिर पढ़िए,  ऐसी ही दो विवश लघुकथाएं:-

[1] सिलेक्शन

वह हर सवाल का जबाव देता था सिर्फ एक सवाल को छोड़कर, और वह सवाल होता था, “यदि तुम्हारा सिलेक्शन होता है तो बदले में तुम हमें क्या दोगे ? “इस सवाल पर वह  हमेशा चुप रह जाता। खाली पेट और खाली जेब लिए लौट आता।

आज भी वह थका-हारा, निराश, बोझिल कदमों से अपने ख्यालों में खोया चला जा रहा था। उसे अपनी बीमार माँ और ब्याह लायक बहन याद आ रही थी। वह खुद भी दो दिन से भूखा था। सूर्य अभी अस्त नहीं हुआ था, लेकिन उसकी आँखों के आगे अँधेरा-सा छाने लगा। तेजी से आती हुई एक कार से वह अचानक टकरा गया। उसके मुँह से एक चीख निकल पड़ी। लोग जमा हो गए। असहनीय वेदना और नीम बेहोशी में उसने देखा, उसकी एक टाँग बुरी तरह टूट गई थी।

“अरे, इसे अस्पताल ले चलो,” भीड़ मे से कोई बोला।

“नहीं-नहीं, मुझे अस्पताल मत ले चलिए”, कराहते हुए उसने कहा।

“देखो, तुम्हारी टाँग टूट चुकी है। हम अस्पताल ले चलते हैं। घबराओ मत, अस्पताल का सारा खर्च मैं दूँगा।” कारवाले ने कार का दरवाजा खोलते हुए कहा।

“प्लीज़, मुझे अस्पताल मत ले चलिए।” कुछ संयत हो हाथ जोड़ते हुए वह पुनः बोला- “मैं सात साल से बेकार हूँ। मुझे नौकरी तो नहीं मिलेगी। पर हाँ, टाँग टूटने से भीख तो मिल सकती है। ” कहते हुए उसने जेब से अपनी डिग्री निकाली। उसके टुकड़े-टुकड़े कर हवा में उछालते हुए, अपनी हथेली लोगों के सामने फैला दी। हथेली पर कुछ सिक्के जमा हो गए। उसने एक क्षण अपनी हथेली को और दूसरे क्षण अपनी कटी हुई टाँग को देखा। उसे लगा यह उसका एक सौ छत्तीसवाँ इंटरव्यू है, जिसमें उसने उस सवाल का भी जवाब दे दिया है : ” अगर तुम्हारा सिलेक्शन होता है तो बदले में तुम हमें क्या दोगे?”

“अपनी टाँग।” एक दर्दभरी मुस्कान के साथ वह बुदबुदा उठा।

और इस बार उसका सिलेक्शन हो गया, एक भिखारी की पोस्ट के लिए।

[2]  औरत का गहना 

इदरिस बहुत बीमार था। पाँच बच्चों का बोझ ढोते-ढोते उसे पता ही नहीं चला,  कब मामूली खाँसी धीरे-धीरे उसकी साँसों में समा गई।

अबकि बार खाँसी का दौरा उठा तो नूरा काँप गई। उसे प्राइवेट डाक्टर को बुलाना ही होगा, मगर उसकी फीस ? अचानक उसकी निगाह उँगली में पड़े पुराने चाँदी के छल्लों पर गई। ये छल्ले इदरिस ने उसे सुहागरात को दिए थे। कहा था- “नूरा, ये मेरे प्यार की निशानी है, इन्हें कभी जुदा मत करना।” जब देनेवाला ही जुदा हो जाए तो ये किस काम के।

थोड़ी देर बाद नूरा की उँगली में छल्लों की जगह सौ-सो के दो नोट थे। एक घंटे बाद डाक्टर ने ये नोट लेते हुए कहा- “तुमने बहुत देर दी,  खुदा पर भरोसा रखो।”

डाक्टर के जाते ही नूरा इदरिस के पास आकर उसकी छाती सहलाने लगी। इदरिस का ध्यान उसकी उँगली पर गया। वह बोला-” अरे, तुम्हारे छल्लों का क्या हुआ,? लगता है, तुमने बेच दिए। ले-दे के यही तो एक गहना था तुम्हारे पास।”

“ये क्या कहते हैं आप?  हया औरत का सबसे बड़ा गहना होता है, और फिर गहने मुसीबत के वक्त ही तो बेचे जाते हैं, अच्छे हो जाना, फिर आ जाएँगे।”

इदरिस न अच्छा हो सकता था और न हुआ।

इदरिस के चले जाने के बाद नूरा टूट गई। जब घर के  डिब्बे खाली हों तो पेट कैसे भर सकता है! नूरा सोचती ही रही, न जाने कब हारून बड़ा होगा, अभी तो बारह बरस का ही है। जमीला भी तो सयानी हो गई। जवानी गरीबी-अमीरी कुछ नहीं  देखती, बस चढ़ी ही चली जाती है। इदरिस था तो आधा पेट तो भर जाता था, अब उसके भी लाले पड़ गए। इदरिस का खयाल आते ही उसे हारून  याद आया।

एक दिन हारून को हल्का-सा बुखार हो आया, साथ ही कुछ खाँसी भी। नूरा ने गौर से देखा, न केवल हारून का चेहरा, बल्कि उसकी खाँसी भी इदरिस से मिलती-जुलती है। उसके कानों में प्राइवेट डाक्टर के शब्द गूँज उठे- “तुमने बहुत देर कर दी।”

“या अल्लाह, रहम कर मेरे हारून पर। ”  नूरा बुदबुदा उठी। अपनी उँगलियों को देखकर बोली-”  अब तो छल्ले भी नहीं  है, समझ में  नहीं आता,  क्या करूँ?”

“तू फिक्र मत कर अम्मा, अब देर नहीं होगी।प्राइवेट डाक्टर जरूर आयेगा।” जमीला  ने अम्मा को हिम्मत दी।

शाम को डाक्टर आया। सूई लगाते बोला- “घबराने की कोई बात नहीं। मै ठीक वक्त पर आ गया। ये जल्दी ठीक हो जायेगा। “जमीला ने डाक्टर को फीस दी। हारून के लिए  फल भी लायी। डाक्टर के जाते ही नूरा ने पूछा – “अरी जमीला, मैं पूछती हूँ, ये फीस, ये दवा, ये फल, तू पैसे कहाँ से लायी?”

“अम्मा,  मुझे कुछ काम मिल गया था।” यह कह जमीला औंधी पड़ सुबकने लगी। उसे नूरा के शब्द याद आए -” हया औरत का सबसे बड़ा गहना होता है, और फिर गहने मुसीबत के वक्त ही तो बेचे जाते  हैं।”

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सुरेश तन्मय

दोनों लघुकथाएँ ह्रदयस्पर्शी, सुंदर,
बधाई कथाकार श्री अग्रवाल जी को