हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #101 – बीत गया हिंदी पखवाड़ा … ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा रात  का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं प्रसंगवश आपकी  हिंदी पर एक  रचना  “बीत गया हिंदी पखवाड़ा….”। )

☆  तन्मय साहित्य  #101 ☆

बीत गया हिंदी पखवाड़ा….

मना लिया मिल पर्व सभी ने

बीत गया हिंदी पखवाड़ा ।

 

बारह महीने कौन करेगा

क्ष त्र ज्ञ से मगज पच्चियाँ

फिर हिंदी की हालत ऐसी

जैसे सहमी-डरी बच्चियाँ,

हिंदी वालों ने ही हिंदी का

जमकर के किया कबाड़ा

बीत गया हिंदी पखवाड़ा।

  

कार्यान्वयन राजभाषा का

पंद्रह दिन तक धूम मची

गीत गजल कविता कहानियाँ

आँख बंद कर खूब रची,

होड़ मची थी संस्थानों में

किसका कितना बड़ा अखाड़ा

बीत गया हिंदी पखवाड़ा।

 

स्वीकृत हुए बजट सरकारी

खुश हिंदी की सभी विधाएँ

बँटी मिठाई काजू- बिस्किट

के सँग हुई विविध स्पर्धाएँ,

पत्र-पत्रिकाओं में छपकर

अपना अपना झंडा गाड़ा

बीत गया हिंदी पखवाड़ा।

 

गणपति बप्पा के सँग में

फिर किया विसर्जन धूमधाम से

श्राद्ध पक्ष में तर्पण- अर्पण

हिंदी का कर, लगे  काम से,

अंग्रेजी ने हँसते-हँसते

फिर हिंदी का पन्ना  फाड़ा

बीत गया हिंदी पखवाड़ा।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कर्मण्येवाधिकारस्ते ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – कर्मण्येवाधिकारस्ते ?

भीड़ का जुड़ना,

भीड़ का छिटकना,

इनकी आलोचनाएँ,

उनकी कुंठाएँ,

विचलित नहीं करतीं

तुम्हें पथिक..?

पथगमन मेरा कर्म,

पथक्रमण मेरा धर्म,

प्रशंसा, निंदा से

अलिप्त रहता हूँ,

अखंडित यात्रा पर

मंत्रमुग्ध रहता हूँ,

पथिक को दिखते हैं

केवल रास्ते,

इसलिए प्रतिपल

कर्मण्येवाधिकारस्ते!

©  संजय भारद्वाज

(प्रातः 4:32 बजे, 22.5.19)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 4 (56-60)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #4 (56-60) ॥ ☆

 

अश्वारोही – कवच की सुन झन झन झंकार

ताल वनो की मृदुल ध्वनि भी गई सहसा हार ॥ 56॥

 

अलिदल थे मदमस्त से नागकेसर के संग

पर उड़ झट सब आ गये पा गजमद की गंध ॥ 57॥

 

परशुराम को सिंधु ने दी थी धरती दान

पर रघु को राजाओं ने कर भी किया प्रदान ॥ 58॥

 

जिस त्रिकूट को उत्खनित करते मस्त गयंद

केरल में रघु ने किया उसे विजय – स्तंभ ॥ 59॥

 

तब कर केरल – विजय रघु पा ज्यों तत्व ज्ञान

करने पारस विजय भू – पथ से किया प्रयाण ॥ 60॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 90 ☆ रास्ता ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “रास्ता। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 90 ☆

☆ रास्ता ☆

वो कौन से निशाँ हैं

जो ढूँढ़ रही है यह जिगर-अफ़गार ज़िंदगी?

वो कौन से जज़्बात हैं

जो महसूस करना चाहती है दिल की लगी?

वो कौन से मंज़र हैं

जो खोज रही हैं यह उचाट आँखें?

वो कौन से एहसास हैं

जो पाने को बेचैन हैं यह उखड़ती साँसें?

वो क्या है जो दिल सोचता है

कि कहूँ या न कहूँ?

वो क्या है जो पाना चाहती है

यह बेकल रूह?

 

न कोई तनहाई है मन के आँगन में

न कोई रुसवाई है जिगर के मौसम में

पर कोई गुल भी तो नहीं खिलता…

जाने क्यूँ सुकून भी नहीं मिलता…

 

यह ज़िंदगी एक सफ़र है और चली जा रही हूँ मैं…

जाने क्या खो रही हूँ और जाने क्या पा रही हूँ मैं?

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 1 – सजल – जीवन हो मंगलमय सबका… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

ई- अभिव्यक्ति में संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी का हार्दिक स्वागत है। हम अपने प्रबुद्ध पाठकों के लिए  आदरणीय श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी का साप्ताहिक स्तम्भ ” मनोज साहित्य “ प्रारम्भ कर रहे हैं। अब आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 1 – सजल – जीवन हो मंगलमय सबका… ☆ 

सजल

सीमांत – इया

पदांत – है

मात्रा भार -16

 

सागर को जब पार किया है।

तब जग ने सम्मान दिया है।।

 

डरे नहीं झंझावातों से,

जीवन को निर्भीक जिया है।

 

जितनी चादर मिली जगत में, 

उसको ओढ़ा और सिया है।

 

स्वाभिमान से जीना सीखा,

प्रेम भाव में गरल पिया है।

 

लक्ष्य साध कर बढ़े सदा तो,

विजयी-भव वरदान लिया है।

 

पास रहें बेटा कितने पर

पीड़ा हरती बस बिटिया है ।

 

जीवन हो मंगलमय सबका,

मानवता ही वह पहिया है ।

 

राम कृष्ण गौतम मसीह ने ,

दुख-दर्दों का हरण किया है।

 

सागर कितना बड़ा रहा पर,

प्यास बुझाने को नदिया है।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल ” मनोज “

17 मई 2021

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – त्रिलोक ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – त्रिलोक ?

सुर, असुर, भूसुर,

एक मूल शब्द, दो उपसर्ग,

मिलकर तीन लोक रचते हैं,

सुर दिखने की चाह,

असुर होने की राह,

भूसुर में तीन लोक बसते हैं।

©  संजय भारद्वाज

(प्रातः 6:24 बजे, 25.5.19)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 4 (51-55)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #4 (51-55) ॥ ☆

 

दर्दुर – मलय उरोज सम चंदन चर्चित शैल

रघु ने उस दिशि भाग में खेल मन के खेल ॥ 51॥

 

सुगिरि सह्य को धरा का उघरा नितंब निहार

वीर रघु ने सहज ही किया लांघ कर पार ॥ 52॥

 

जय हित फैली सेन का था ऐसा अभियान

सागर सेना उर्मियाँ सह्य से मिली समान ॥ 53॥

 

केरल की ललनाओं ने अलंकार -सब त्याग

भय वश सेना धूलि को माना सहज सुहाग ॥ 54॥

 

‘मुरला’  – वायु प्रवाह से उड़ केतकी पराग

सेनिक कवचों में चिपक भरे गंध औं राग ॥ 55॥

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की#57 – दोहे – ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #57 –  दोहे 

विवश विधाता ने किया, बरबस ही कुछ याद।

अश्रु आंख से निकलकर, बना याद अनुवाद।।

 

अश्रु पीर का मित्र है, जब्त किए  जज्बात।

बिना कहे ही कह रहा, किसकी क्या औकात ।

 

अश्रु – अश्रु में फर्क है, करें मौन संवाद।

आंसू देता साक्ष्य है, झलकें  हर्ष -विषाद ।।

 

तेरा हर आंसू मुझे, कर देता बेचैन।

देख देख कर बेबसी, भर आते हैं नैन।।

 

आंसू मां के नयन के, वत्सलता का रूप।

और एक आंसू रचे,   सिंदूरी  प्रारूप।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव-गीत # 57 – लो सिमटने लग गईं…. ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है एक भावप्रवणअभिनवगीत – “लो सिमटने लग गईं….। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 57 ☆।। अभिनव-गीत ।। ☆

☆ लो सिमटने लग गईं…. ☆

बादलों का पलट कर अलबम

निकल आयी गुनगुनी

सी धूप

 

हो उठे रंगीन डैने

पक्षियों के

ज्यों सजग चेहरे हुये आरक्षियों के

 

लौट आयी है पुनः

सेवा- समय पर

पेड़ के, छाया

बना स्तूप

 

लो सिमटने लग गईं

परछाइयाँ

वनस्पतियाँ ले रहीं

अँगड़ाइयाँ

 

राज्य जो छीना

पड़ोसी शत्रु ने

पा गया फिर से

अकिंचन भूप

 

 हो गयीं सम्वाद

करने व्यस्त चिडियाँ

खोल दीं फूलों ने

अपनी चुप पखुड़ियाँ

 

ज्यों कि कालीदास के

अनुपम कथन में

नायिका का दिव्य

सुन्दर रुप

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

10-09-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकाकार ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – एकाकार ?

तुम कहते हो शब्द,

सार्थक समुच्चय

होने लगता है वर्णबद्ध,

तुम कहते हो अर्थ,

दिखने लगता है

शब्दों के पार भावार्थ,

कैसे जगा देते हो विश्वास?

जादू की कौन सी

छड़ी है तुम्हारे पास ?

सरल सूत्र कहता हूँ,

पहले जियो अर्थ

तब रचो शब्द,

न छड़ी, न जादू का भास,

बिम्ब-प्रतिबिम्ब एक-सा विन्यास,

मन के दर्पण का विस्तार है,

भीतर बाहर एक-सा संसार है!

©  संजय भारद्वाज

रात्रि 12.13 बजे, 22.9.19

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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