हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पर्यायवाची ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना

माधव साधना सम्पन्न हुई। दो दिन समूह को अवकाश रहेगा। बुधवार 31 अगस्त से विनायक साधना आरम्भ होगी।

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि –  पर्यायवाची ??

इसने कहा नेह,

उसने कहा देह,

फिर कहा नेह,

फिर कहा देह,

नेह…देह..,

देह…नेह..,

कालांतर में

नेह और देह

पर्यायवाची हो गए..!

 

© संजय भारद्वाज

प्रात: 8:35, 27.11.2019

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 95 ☆ # पानी… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# पानी… #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 95 ☆

☆ # पानी… # ☆ 

जिंदगी के खेल निराले हैं

यह समझ मे नही आने वाले हैं

कहीं बूंद बूंद को लोग तरसते हैं

कहीं तबाही लाने वाले हैं

 

मेघों पर दीवानगी छाई है

घनघोर घटाएं संग लाई है

बरस रहा है पानी ही पानी

पृथ्वी पर बाढ़ सी आई है

 

तूफान सब कुछ रौंद रहा है

आसमान दामिनी बनकर

कौंध रहा है

बह गये है गांव के गांव

इन्सान डर के मारे

मौन रहा है

 

कहीं पर आशियाने

लुट गए हैं

कहीं पर लाचारी में जीने

पीछे छूट गये है

ना शरीर पर वस्त्र

ना सर पर छत

ईश्वर जैसे उनसे

रूठ गये है

 

यह मेघों की कैसी

दीवानगी है

धरती पर फैली त्रासदी है

बाढ़ प्रलय बन गई है

मानव के हाथ

बस बेचारगी है

 

कहीं वर्षा नहीं तो अकाल है

कहीं खूब वर्षा तो काल है

जग में पानी ही तो जीवन है

कहीं बिना पानी हाल-बेहाल है /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588\

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 107 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

?  Anonymous Litterateur of Social Media # 107 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 107) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 107 ?

☆☆☆☆☆

तुम्हें बहुत गुरूर है कि तुम्हें

चाहने वाले बहुत हैं और…

हमें ये कि हमारी तरह तुम्हें

कोई चाह ही नहीं सकता…!

You feel too proud that you’ve

too many people loving you

And me; that no one can

ever love you like me…!

☆☆☆☆☆ 

 अक्सर वही दिए ,

हाथों को जला देते हैं,

जिन्हें हम हवा से

बचा रहे होते हैं…!

Often the same lamps

burn our hands,

That we keep protecting

from the wind…!

☆☆☆☆☆ 

 चेहरा तो शायद मिल जाएगा

हम से भी खूबसूरत…

पर जब बात दिल की आएगी

तो फिर क्या करोगे…!

Face, probably, you may find

ever better than mine, but…

When it comes to the heart,

tell me, what will you do…!

☆☆☆☆☆ 

कितनी खुदगर्ज़ हैं

ये तेरी यादें भी…

मतलब-बेमतलब कभी

भी चली आती हैं…!

 

How selfish are these

memories of yours…

They just keep visiting

whenever they feel like…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ दर्प ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

(डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के नोबल कॉलेज में प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, स्वर्ण मुक्तावली- कविता संग्रह, स्पर्श – कहानी संग्रह, कशिश-कहानी संग्रह विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज ससम्मान  प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण एवं सार्थक कविता दर्प। )  

☆ कविता – दर्प ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

दर्प करना न्याय कहाँ?

’मैं’ में सिमटकर रहना सही कहाँ?

अपनी परिधि से निकलकर,

असीमित दुनिया में निकलकर,

स्वयं की बनानी एक पहचान,

मत कर अंधविश्वास, ज़रा सोचना

अमन के प्रकाश में मात्र ’हम’,

ताप की आग में तपता मात्र ’मैं’,

कभी किया था जूगनु ने भी दर्प,

लगा मात्र उससे होती रोशनी दुनिया में,

मात्र उससे ही, सोच ज़रा…

गलतफहमी में जी रहा था वह,

प्रकृति के आधार का टूटा गर्व,

चांद ने ली जगह जुगनू की,

चांदनी फैलाकर किया दर्प चांद ने भी,

सूरज ने दिखाई सही जगह चांद की,

संसार है नश्वर, अनुकर्षण,

दुनिया की क्षणभंगुरता को पहचान,

तत्वहीन… भ्रमित संसार में,

स्वमोह से मत कर गर्व,

नीर के बुलबुले पर मत लिख,

सीमित है शब्द ’मैं’, समझ नादां…

मत कर कोशिश नाकाम

मनचाहे शब्दों को….

असीमित बनाने की,

शाश्वत सत्य है ’हम’

जहां में मूल्य है ’हम’

विष्णुअवतार ने तोड़ा दर्प

रावण, हिरण्यकश्यप, कंस का

हुआ जय-जयकार

राम, नरसिंहावतार, कृष्ण का

न दर्प का अंश कृष्ण में

न तेरा न मेरा मात्र हमारा

कर विश्वास मात्र संसार में ’हम’

दर्प नहीं किया ब्रह्मा ने कभी

न अधिकार इन्सान को कभी,

अहंकार करने का …..

बह जाने दो इस शब्द को,

संसार रुपी सागर में

घुल जाने दो …..

शुभस्य शीघ्रम,

मात्र’ ’हम’… मात्र’ ’हम’।

©  डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

संपर्क: प्राध्यापिका, हिन्दी विभाग, नोबल कॉलेज, जेपी नगर, बेंगलूरू।

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 106 ☆ नवगीत – बेला… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित नवगीत – बेला…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 106 ☆ 

☆ नवगीत – बेला… ☆

मगन मन महका

प्रणय के अंकुर उगे

फागुन लगे सावन.

पवन संग पल्लव उड़े

है कहाँ मनभावन?

खिलीं कलियाँ मुस्कुरा

भँवरे करें गायन-

सुमन सुरभित श्वेत

वेणी पहन मन चहका

मगन मन महका

अगिन सपने, निपट अपने

मोतिया गजरा.

चढ़ गया सिर, चीटियों से

लिपटकर निखरा

श्वेत-श्यामल गंग-जमुना

जल-लहर बिखरा.

लालिमामय उषा-संध्या

सँग ‘सलिल’ दहका.

मगन मन महका

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१२-६-२०१६

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता – आत्मानंद साहित्य #138 ☆ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 138 ☆

☆ ‌ कविता ☆ ‌बेटी की अभिलाषा ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

(सृष्टि का जब सृजन हुआ तो विधाता ने जीव जगत की रचना की तो मात्र नर और मादा के रूप में ही की थी। न जाने सृष्टिकर्ता की किस चूक का परिणाम है ये ट्रांसजेंडर (वृहन्नला अथवा किन्नर) जिन्हें आज भी समाज में इज्जत की रोटियां नसीब नहीं। लेकिन सिर्फ ये ही दुखी नहीं है मानव समाज के अत्याचारों से, बल्कि शक्ति स्वरूपा कही जाने वाली नारी समाज भी पीड़ित है समाज के पिछड़ी सोच से। यदि विधाता ने बीज रूप में सृष्टि संरचना के लिए नर का समाज बनाया।  तो नारी के  भीतर कोख की रचना की जिससे जन्म के पूर्व जीव जगत का हर प्राणी मां की कोख में ही पलता रहे, इसीलिए मां यदि जन्म दायिनी है तो पिता जनक है ।

नारी अर्द्धांगिनी है उसके बिना वंश परम्परा के निर्माण तथा निर्वहन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। वह बेटी, बहन, बहू, पत्नी तथा मां के रूप में अपनी सामाजिक जिम्मेदारी तथा दायित्वों ‌का‌ निर्वहन ‌करती‌ है। आज बेटियां डाक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक बन कर अंतरिक्ष की ऊंचाईयां नाप रही है, लेकिन सच्चाई तो यह भी है कि आज भी प्राचीन रूढ़ियों के चलते उसका जीवन एक पहेली ‌बन कर उलझ गया‌ है, वह समझ नहीं पा रही‌ है कि आखिर क्यों यह समाज उसका दुश्मन ‌बन गया है। आज उसका‌ जन्म लेना क्यों समाज के माथे पर कलंक का प्रश्नचिन्ह बन टंकित है। प्रस्तुत  रचना  में पौराणिक काल की घटनाओं के वर्णन का उल्लेख किसी की धार्मिक मान्यताओं को ठेस पहुंचाने के लिए नहीं, बल्कि नारी की विवशता का चित्रांकन करने के लिए किया‌ गया‌ है। ताकि मानव समाज इन समस्या पर सहानुभूति पूर्वक विचार कर सके। –  सूबेदार पाण्डेय)

मैं बेबस लाचार हूं, मैं इस जग की नारी हूं।

सब लोगों ने मुझ पे जुल्म किये, मैं क़िस्मत की मारी हूं।

हमने जन्माया इस जग को‌, लोगों ने अत्याचार किया।

जब जी‌ चाहा‌ दिल से खेला, जब चाहा दुत्कार दिया।

क्यो प्यार की पूजा खातिर मानव, ताज महल बनवाता है।

जब भी नारी प्यार करे, तो जग बैरी हो जाता है।

जिसने अग्नि‌ परीक्षा ली, वे गंभीर ‌पुरूष ही थे।

जो जो मुझको जुए में हारे, वे सब महावीर ही थे।

अग्नि परीक्षा दी हमने, संतुष्ट उन्हें ना कर पाई।

क्यों चीर हरण का दृश्य देख कर, उन सबको शर्म नहीं आई।

अपनी लिप्सा की खातिर ही, बार बार मुझे त्रास दिया।

जब जी चाहा जूये में हारा, जब चाहा बनबास दिया।

क्यों कर्त्तव्यों की बलिवेदी पर, नारी ही चढ़ाई जाती है।

कभी जहर पिलाई जाती है, कभी वन में पठाई‌ जाती है।

मेरा अपराध बताओ लोगों, क्यों घर से ‌मुझे निकाला था।

क्या अपराध किया था मैंने, क्यो हिस्से में विष प्याला था।

इस मानव का दोहरा चरित्र, मुझे कुछ  भी समझ न आता है।

मैं नारी नहीं पहेली हूं, जीवन में गमों से नाता है ।

अब भी दहेज की बलि वेदी पर, मुझे चढ़ाया जाता है।

अग्नि में जलाया जाता है, फांसी पे झुलाया जाता है।

दुर्गा काली का रूप समझ, मेरा पांव पखारा जाता है।

फिर क्यो दहेज दानव के डर से, मुझे कोख में मारा जाता है ।

जब मैं दुर्गा मैं ही काली, मुझमें ही शक्ति बसती है।

फिर क्यो अबला का संबोधन दे, ये दुनिया हम पे हंसती है।

अब तक तो नर ही दुश्मन था, नारी‌ भी उसी की राह चली।

ये बैरी हुआ जमाना अपना, ना ममता की छांव मिली।

सदियों से शोषित पीड़ित थी, पर आज समस्या बदतर है।

अब तो जीवन ही खतरे में, क्या‌ बुरा कहें क्या बेहतर है।

मेरा अस्तित्व मिटा जग से, नर का जीवन नीरस होगा।

फिर कैसे वंश वृद्धि होगी, किस‌ कोख में तू पैदा होगा।

मैं हाथ जोड़ विनती करती हूं, मुझको इस जग में आने दो।

 मेरा वजूद मत खत्म करो, कुछ करके मुझे दिखाने दो।

यदि मैं आई इस दुनिया में, दो कुलों का मान बढ़ाऊंगी।

अपनी मेहनत प्रतिभा के बल पे, ऊंचा पद मैं पाऊंगी।

बेटी पत्नी मइया बन कर, जीवन भर साथ निभाउंगी।

करूंगी सेवा रात दिवस, बेटे का फर्ज निभाउंगी।

सबका जीवन सुखमय होगा, खुशियों के फूल खिलाऊंगी

सारे समाज की सेवा कर, मैं नाम अमर कर जाऊंगी।

मैं इस जग की बेटी हूं, बस मेरी यही कहानी है।

ये दिल है भावों से भरा हुआ, और आंखों में पानी है।

जब कर्मों के पथ चलती हूं, लिप्सा की आग से जलती हूं।

अपने ‌जीवन की आहुति दे, मैं कुंदन बन के निखरती हूं।

 © सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #154 – ग़ज़ल-40 – “जैसी गुजरी अब तक बाक़ी भी…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “जैसी गुजरी अब तक बाक़ी भी…”)

? ग़ज़ल # 40 – “जैसी गुजरी अब तक बाक़ी भी…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

सरेशाम से सुहानी ख़ुशबू आने लगती है

उन्हें ज़िंदगी की हर चीज़ भाने लगती है,

 

जिसे कमाने बचपन ओ जवानी खपी है,

बूढ़ी देह इसीलिए सबको भाने लगती है।

 

चिकनी खोपड़ी पर बचा नहीं एक भी बाल,

नई कंघी बरबस सिर पर आने लगती है।

 

मधुमेह है तो क्या एक गोली और ले लेंगे,

चाशनी में तर गरम जलेबी आने लगती है।

 

सुबह सैर की सख़्त हिदायत देते हैं डॉक्टर,

कमबख़्त नींद तो मगर तभी आने लगती है।

 

दोस्तों के साथ गप्पों का मज़ा अल्हदा है,

गुज़रे ज़माने की यादें ख़ूब मायने लगती है।

 

भूलने लगे थे जवाँ जिस्म के सभी पहाड़े,

तब कायनात फिरसे याद दिलाने लगती है।

 

ख़स्ता हाल हो चुके देह के सभी कल पुर्ज़े,

आशिक़ के सामने माशूका शरमाने लगती है।

 

अब तो तौबा कर लो मयकशी से ए आदम,

साक़ी मगर ज़ाम के फ़ायदे गिनाने लगती है।

 

जैसी गुजरी अब तक बाक़ी भी गुज़र जायेगी,

क़ज़ा की आहट “आतिश” को सताने लगती है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 31 ☆ मुक्तक ।। जिंदगी – जियो कुछ अंदाज़ और कुछ नज़र अंदाज़ से ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष में एक भावप्रवण मुक्तक ।।जिंदगी – जियो कुछ अंदाज़ और कुछ नज़र अंदाज़ से।। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 31 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।। जिंदगी – जियो कुछ अंदाज़ और कुछ नज़र अंदाज़ से।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

[1]

जिन्दगी   रोज़  थोड़ी  सी  व्यतीत  हो   रही  है।

कुछ    जिन्दगी   रोज़   अतीत    हो   रही   है।।

जिन्दगी   जीते  नहीं  हमें   जैसी  जीनी  चाहिये।

कल  आएगी मौत सुनकर भयभीत हो रही है।।

[2]

कांटों   से  करो  दोस्ती  गमों से भी याराना कर लो।

हँसने   बोलने   को    कुछ  तुम  बहाना   कर  लो।।

मायूसी   मान  लो    रास्ता  इक   जिंदा  मौत  का।

हर बात नहीं दिल पर मिज़ाज़ शायराना करलो।।

[3]

जिंदगी जीनी चाहिये कुछ अंदाज़ कुछ नज़रंदाज़ से।

हवा चल रही उल्टी फिर भी खुशनुमा  मिज़ाज़ से।।

मिलती नहीं खुशी बाजार  से किसी  मोल  भाव में।

बस खुश होकर ही  जियो  तुम हर एक लिहाज से।।

[4]

सुख  से  जीना  तो  उलझनों को तुम सहेली बना  लो।

मत     छोटी   बड़ी  बात  को   तुम   पहेली  बना   लो।।

समझो    जिन्दगी    के   हर   बात  और   जज्बात  को।

नाचेगी इशारों पर तुम्हारे जिंदगी अपनी चेली बना लो।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – साथ-साथ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना – माधव साधना (11 दिवसीय यह साधना गुरुवार दि. 18 अगस्त से रविवार 28 अगस्त तक)

इस साधना के लिए मंत्र है – 

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

(आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं )

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

 ? संजय दृष्टि –  साथ-साथ ??

चलो कहीं

साथ मिल बैठें,

न कोई शब्द बुनें,

न कोई शब्द गुनें,

बस खामोशी कहें,

बस खामोशी सुनें..!

© संजय भारद्वाज

सुबह 9:43 बजे, 25.08.22

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 96 ☆ ’’नारी…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता  “नारी…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 97 ☆ नारी” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

 

नव सृजन की संवृद्धि की एक शक्ति है नारी

परमात्मा औ “प्रकृति की अभिव्यक्ति है नारी”

 

परिवार की है प्रेरणा, जीवन का उत्स है

है प्रीति की प्रतिमूर्ति सहन शक्ति है नारी

 

ममता है माँ की साधना, श्रद्धा का रूप है

लक्ष्मी, कभी सरस्वती, दुर्गा अनूप है

 

कोमल है फूल सी, कड़ी चट्टान सी भी है

आवेश, स्नेह, भावना, अनुरक्ति है नारी

 

सहधर्मिणी, सहकर्मिणी सहगामिनी भी है

है कामना भी, कामिनी भी, स्वामिनी भी है

 

संस्कृति का है आधार, हृदय की पुकार है

सावन की सी फुहार है, आसक्ति है नारी

 

नारी से ही संसार ये, संसार बना है

जीवन में रस औ” रंग का आधार बना है

 

नारी है धरा, चाँदनी अभिसार प्यार भी

पर वस्तु नही एक पूर्ण व्यक्ति है नारी

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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