(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श एवं परिस्थिति जन्य कथानक पर आधारित एक अतिसुन्दर लघुकथा “ठहरी बिदाई… ”। )
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 123 ☆
☆ लघुकथा – ठहरी बिदाई…☆
सुधीर आज अपनी बिटिया का विवाह कर रहा था। सारा परिवार खुश था परंतु रिश्तेदारों में चर्चा का विषय था कि सुधीर इस शुभ अवसर पर अपनी बहन को माफ कर सकेगा कि नहीं।
बहन रुपा ने अपनी मर्जी से शादी कर ली थी। घर परिवार के विरोध के बाद भी। स्वभाव से थोड़ा सख्त और अच्छी कंपनी पर कार्यरत सुधीर के परिवार की जीवन शैली बहुत अच्छी हो चुकी थी।
बहुत सुंदर और खर्चीली शादी लग रही थी। सुधीर की धर्मपत्नी नीरा बहुत ही विचारों से सुलझी और संस्कारों में ढली महिला थी।
द्वारचार का समय और बारात आगमन होने ही वाला था। सुधीर के स्वभाव के कारण कोई भी अपने मन से आगे बढ़कर काम नहीं कर रहा था। परंतु पत्नी की व्यवहारिकता सभी को आकर्षित कर रही थी। द्वारचार पर दरवाजे पर कलश उठाकर स्वागत करने के लिए बुआ का इंतजार किया जा रहा था।
सुधीर मन ही मन अपनी बहन रुपा को याद कर रहा था परंतु बोल किसी से नहीं पा रहा था। अपने स्टेटस और माता-पिता की इच्छा के कारण वह सामान्य बना हुआ था।
धीरे से परेशान हो वह अपनी पत्नी से बोला…. “रूपा होती तो कलश उठाकर द्वार पर स्वागत करती।” बस इतना ही तो कहना था सुधीर को!!!!!
पत्नी ने धीरे से कहीं – “आप चिंता ना करें यह रही आपकी बहन रूपा।” कमरे से सोलह श्रृंगार किए बहन रूपा सिर पर कलश लिए बाहर निकली। और कहने लगी – “चलिए भैया मैं स्वागत करने के लिए आ गई हूं।”
सुधीर की आंखों से अश्रुधार बह निकली परंतु अपने आप को संभालते हुए ‘जल्दी चलो जल्दी चलो’ कहते हुए…. बाहर निकल गया।
विवाह संपन्न हुआ। बिदाई होने के बाद रूपा भी जाने के लिए तैयार होने लगी और बोली… “अच्छा भाभी मैं चलती हूं।”
भाभी अपनी समझ से खाने पीने का सामान और बिदाई दे, गले लगा कर बोली – “आपका आना सभी को अच्छा लगा। कुछ दिन ठहर जातीं।”
परंतु वह भैया को देख सहमी खड़ी रही। समान उठा द्वार के बाहर निकली! परंतु यह क्या चमचमाती कार जो फूलों से सजी हुई थी। गाड़ी के सामने अपने श्रीमान को देख चौंक गई। अंग्रेजी बाजा बजने लगा।
सुधीर ने बहन को गले लगाते हुए कहा…. “जब तुम सरप्राइज़ दे सकती हो, तो हम तो तुम्हारे भैया हैं। तुम्हारी बिदाई आज कर रहे हैं। चलो अपनी गाड़ी से अपने ससुराल जाओ और आते जाते रहना।” विदा हो रुपा चली गई।
अब पत्नी ने धीरे से कहा… “पतिदेव आप समझ से परे हैं। बहन की विदाई नहीं कर सके थे। आज आपने ठहरी विदाई कर सबके मन का बोझ हल्का कर दिया।”
यह कह कर वह चरणों पर झुक गई। माता-पिता भी प्रसन्न हो बिटिया की विदाई देख रहे थे।
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #88 यह संसार क्या है? ☆ श्री आशीष कुमार☆
एक दिन एक शिष्य ने गुरु से पूछा, ‘गुरुदेव, आपकी दृष्टि में यह संसार क्या है?
इस पर गुरु ने एक कथा सुनाई।
‘एक नगर में एक शीशमहल था। महल की हरेक दीवार पर सैकड़ों शीशे जडे़ हुए थे। एक दिन एक गुस्सैल कुत्ता महल में घुस गया। महल के भीतर उसे सैकड़ों कुत्ते दिखे, जो नाराज और दुखी लग रहे थे। उन्हें देखकर वह उन पर भौंकने लगा। उसे सैकड़ों कुत्ते अपने ऊपर भौंकते दिखने लगे। वह डरकर वहां से भाग गया कुछ दूर जाकर उसने मन ही मन सोचा कि इससे बुरी कोई जगह नहीं हो सकती।
कुछ दिनों बाद एक अन्य कुत्ता शीशमहल पहुंचा। वह खुशमिजाज और जिंदादिल था। महल में घुसते ही उसे वहां सैकड़ों कुत्ते दुम हिलाकर स्वागत करते दिखे। उसका आत्मविश्वास बढ़ा और उसने खुश होकर सामने देखा तो उसे सैकड़ों कुत्ते खुशी जताते हुए नजर आए।
उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। जब वह महल से बाहर आया तो उसने महल को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ स्थान और वहां के अनुभव को अपने जीवन का सबसे बढ़िया अनुभव माना। वहां फिर से आने के संकल्प के साथ वह वहां से रवाना हुआ।’
कथा समाप्त कर गुरु ने शिष्य से कहा..
‘संसार भी ऐसा ही शीशमहल है जिसमें व्यक्ति अपने विचारों के अनुरूप ही प्रतिक्रिया पाता है। जो लोग संसार को आनंद का बाजार मानते हैं, वे यहां से हर प्रकार के सुख और आनंद के अनुभव लेकर जाते हैं।
जो लोग इसे दुखों का कारागार समझते हैं उनकी झोली में दुख और कटुता के सिवाय कुछ नहीं बचता…..।’
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.
श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ कथा-कहानी # 106 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 17 – झाँसी गरे की फाँसी, दतिया गरे को हार… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆
(कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए)
अथ श्री पाण्डे कथा (17)
झाँसी गरे की फाँसी, दतिया गरे को हार।
ललितपुर कबहूँ न छोडिये जब लौ मिले उधार।।
इस बुन्देली लोकोक्ति के शाब्दिक अर्थ का अंदाज तो पढने से ही लग जाता है। आप यह भी कह सकते हैं कि झांसी गले की फाँसी इसलिए है क्योंकि वहाँ के लोगो का स्वभाव गड़बड़ है और दतिया के लोग प्रेमी और मिलनसार है इसलिए यह कस्बा लोगों को उसी प्रकार प्रिय है जैसे गले में हार। हार का तात्पर्य नौलखा से ही है यह न मानियेगा कि शिव के गले का हार है। और ललितपुर के व्यापारियों के क्या कहने वे तो ग्राहकों को मनचाहा सामान उधार थमा देते हैं. इस लोकोक्ति से एक बात तो साफ़ है प्रेमी जनों और मिलनसारिता की प्रसंशा युगों युगों से होतो आई है और अगर उधार सामान मिलता रहे तो ऐसे शहर में लोग न केवल बसना पसंद करते हैं वरन उसे छोड़कर जाना भी नहीं चाहते. दूसरी बात चार्वाक का सिद्धांत माननेवाले भले चाहे कम हों लेकिन कहावतों और लोकोक्तियों में भी “यावज्जीवेत सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत” ने यथोचित स्थान बुंदेलखंड के पथरीले प्रदेश में बना ही लिया था। एक बात और बैंकिंग प्रणाली के तहत भारत में वैयक्तिक उद्देश्य जैसे ग्रह निर्माण ऋण, पर्सनल लोन आदि का चलन तो तो पिछले 20 वर्षों से बढ़ा है पर बुंदेलखंड में शायद यह सदियों पुराना है ।
इस बुन्देली लोकोक्ति को मैंने असंख्य बार असंख्य लोगों से सुना होगा। यह इतनी प्रसिद्ध व व्यापक है कि हिंदी के विख्यात कवि हरिवंश राय बच्चन ने अपनी आत्मकथा के प्रथम खंड क्या भूलू क्या याद करूँ में इसका न केवल उल्लेख किया है वरन झांसी गले की फाँसी है इसे सिद्ध करने आप बीती दो चार अप्रिय घटनाओं का वर्णन भी खूब किया है, बच्चन जी दतिया गए नहीं, सो उन्होंने यह तो नहीं बताया कि दतिया गले का हार क्यों है पर ललितपुर में उधार खूब मिलता था इसका जिक्र उन्होंने अपनी इस आत्मकथा में पितामह की ललितपुर से प्रयाग वापिसी को याद कर जरूर किया है ।
यह लोकोक्ति अपने आप में ऐतिहासिक सन्दर्भों को समेटे हुए हैं। बुंदेलखंड का बड़ा भूभाग बुन्देला शासकों के आधीन रहा हैं। मुगलकालीन भारत में दतिया के बुंदेला राजा मुग़ल बादशाह के मनसबदार रहे हैं । दतिया के राजाओं की मुगल बादशाह के प्रति निष्ठा थी अतः दतिया पर बाहरी आक्रमण नहीं होते थे । दतिया के राजा मुग़ल सेना के साथ युद्ध में जाते और विजयी होने पर इनाम इकराम से नवाजे जाते। युद्ध में वे अपने साथ क्षेत्रीय निवासियों को भी सैनिक के रूप में ले जाते, यह सैन्य बल प्राय निम्न वर्ग से आता और इस प्रकार निम्न वर्ग को अतिरिक्त आमदनी होती। राजा महाराजा अपने सैनिकों को लेकर मुग़ल सेना के साथ युद्ध में जाते और विजयी होने पर इनाम इकराम से नवाजे जाते ।युद्ध में कमाए इसी धन से वे अपनी रियासतों में महलों, मंदिरों, बावडियों, तालाबों आदि का निर्माण कराते । इसके फलस्वरूप दतिया जैसे छोटे कस्बेनुमा स्थानों में लुहार, बढई, कारीगार आदि आ बसे होंगे और उनकी आमदनी से व्यापार आदि फैला होगा और यही दतिया की खुशहाली का कारण बन दतिया गरे का हार लोकोक्ति की उत्पति का कारण बन गया होगा।
दतिया के उलट ललितपुर तो पथरीला क्षेत्र है फिर वह नगर आकर्षक व प्रिय क्यों है ।शायद बंजर जमीन जहाँ साल में एक फसल हो और वनाच्छादित होने के कारण स्थानीय निवासियों की आमदनी साल में एक बार ही होने के कारण व्यापारियों ने अपना माल बेचने की गरज से उधार लेनदेन की परम्परा को पुष्ट किया होगा। उधार देने और उसकी वसूली में निपुण जैन समाज के लोग बुंदेलखंड में खूब बसे और फले फूले और इस प्रकार “ललितपुर कबहूँ न छोडिये जब लौ मिले उधार” लोकोक्ती बन गई।
पर झाँसी गरे की फाँसी कैसे हो गई और अगर सचमुच झाँसी के लोग इतने बिगडैल स्वभाव के हैं तो इस शहर का तो नाम ही ख़त्म हो जाना था। शायद 1732 के आसपास मराठों का बुंदेलखंड में प्रवेश हुआ और झाँसी का क्षेत्र पन्ना नरेश छत्रसाल के द्वारा बाजीराव पेशवा को दे दिया गया । मराठे चौथ वसूली में बड़ी कड़ाई करते थे और झांसी के आसपास के रजवाड़ों में भी आम जनता को परेशान करते तो शायद इसी से झांसी गरे की फाँसी लोकोक्ती निकली होगी।प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की समाप्ति के बाद अंग्रेजों ने झाँसी में अपना अधिकारी नियुक्त किया। उस समय झाँसी एक लुटा पिटा वेचिराग शहर था। जनरल रोज ने जो क़त्ल-ए-आम किया था, उसमें हजारों लोग मारे गए थे। जो लोग किसी तरह बच गए, उन्होंने दतिया में शरण ले ली थी। वो इतने डरे हुए थे कि झांसी का नाम सुनते ही काँप जाते थे। जब कभी उनके सामने झांसी का जिक्र आता तो वे बस यही कहते “झांसी गले की फांसी, दतिया गले का हार”। जब अंग्रेजों से झांसी का राज्य नहीं सम्भला तो उन्होंने उसे सिंधिया को सौंप दिया। सिंधिया ने झांसी को फिर से बसाने में बड़ी मेहनत की। उसने लोगों का विश्वास जीतने के लिए अनेकों जनहित के कार्य किये, तब कहीं धीरे-धीरे लोगों का विश्वास सिंधिया पर हुआ और वे झांसी में बसने लगे और झासी में रौनक लौटने लगी। स्थिति के सामान्य होते ही अंग्रेजों की नियत पलट गई और उन्होंने सिंधिया पर झांसी को वापिस करने का दबाव डालना शुरू कर दिया। अंत में अंग्रेजों की दोस्ती और सद्भावना के नाम पर सिंधिया ने झांसी का राज्य अंग्रेजों को दे दिया, इसके बदले सिंधिया को ग्वालियर का किला वापिस मिला।
इन सब घटनाओं ने इस लोकोक्ति को जन्म दिया। जो कुछ भी कहानी हो बुंदेलखंड के लोग अपने अपने क्षेत्र गाँव कस्बे की तारीफ़ ऐसी ही कहावतों से करते हैं और अन्य कस्बों के लोगों का मजा लेते हैं।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है।)
☆ कथा कहानी # 29 – स्वर्ण पदक – भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
स्वर्ण कांत के सफलता के इन सोपानों के बीच जहां उनकी राजधानी एक्सप्रेस अपने नाम के अनुसार आगे बढ़ रही थी, वहीं रजतकांत की शताब्दी सुपरफॉस्ट ट्रेन अलग रूट पर दौड़ रही थी, यहाँ आगे आगे भागतीे हॉकी की बाल पर कब्जा कर अपनी कुशल ड्रिबलिंग से आगे बढ़ते हुये रजतकांत स्नातक की डिग्री के बल पर नहीं बल्कि हॉकी पर अपनी मजबूत पकड़ के चलते इंडियन रेल्वे में स्पोर्ट्स कोटे में सिलेक्ट हो गये थे और फिर बहुत जल्दी रेल्वे की हॉकी टीम के कैप्टन बन चुके थे.
जैसे जैसे उनके खेल और कप्तानी में तरक्की होती गई, रेल्वे से मिलने वाली सुविधा और प्रमोशन में भी वृद्धि होती गई.हॉकी की टीम इंडिया में भी वे स्थायी सदस्य बन गये और हॉकी ने क्रिकेट के मुकाबले लोकप्रियता कम होने के बावजूद उन्हें राष्ट्रीय स्तर का सितारा बना दिया.
हाकी इंडिया नेशनल चैम्पियनशिप का आयोजन इस बार संयोग से विशालनगर में ही आयोजित होना निश्चित हुआ जहां स्वर्णकांत पदस्थ थे. रजत जहां भाई से मिलने का अवसर पाकर खुश थे वहीं स्वर्ण कांत न केवल बैंक की समस्याओं में उलझे थे बल्कि शाखा स्टॉफ से तालमेल न होने से भी परेशान थे. स्टॉफ उन्हें “स्वयंकांत” के नाम से जानने लगा था क्योंकि हर उपलब्धि सिर्फ स्वयं के कारण हुई मानकर वे इसे अपने नाम करने की प्रवृति से पूर्णतः संक्रमित हो चुके थे और non achievements के कई कारण, उन्होंने अपनी समझ से अपने नियंत्रक को समझाना चाहा जिसमें lack of sincerity and devotion by staff भी एक कारण था. पर नियंत्रक समझदार, परिपक्व और शाखा की उपलब्धियों के इतिहास से वाकिफ थे. उन्होंने स्वर्णकांत को कुशल प्रबंधकीय शैली में अच्छी तरह से समझा दिया था कि जो और जैसा स्टॉफ ब्रांच में मौजूद है, वही पिछले टीमलीडर के साथ मिलकर, झंडे गाड़ रहा था. Previous incumbent has tuned this branch so smoothly to attain the goal that industrial relations of this branch have become an example to tell others. पर ये सारी टर्मिनालॉजी और प्रवचन, स्वयंकांत प्रशिक्षण के दौरान सुनने के बाद विस्मृत कर चुके थे और संयोगवश अभी तक इनकी जरूरत भी नहीं पड़ी थी.
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ कथा-कहानी ☆ स्साला ये कौन मर गया…? ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
(आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी की यह कहानी कथा मित्र पत्रिका के 1978 के अंक में संवेदनशून्य शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। इस कथा को श्री कमलेश भारतीय जी ने अपने पाठकों के लिए पुनर्सृजित कर प्रस्तुत की है। कृपया आत्मसात करें।)
मैं खासा बोर हो रहा था और बैठे बैठे अपने ही बोझ तले दबा जा रहा था।
वे दोनों मेरी इस बेचैनी और ऊब से परे, बिल्कुल अनजान बड़े मजे में खिलखिला रहे थे, ठहाके लगा रहे थे। सिगरेट बुझ जाने पर तुरंत दूसरी सिगरेट सुलगा लेते थे। न बातों का सिलसिला खत्म हो रहा था और न ही सिगरेट पीने का। वे एक सिगरेट खत्म होने पर उसे बुझा कर दूसरी सिगरेट जला कर फिर बातों का सिरा पकड़ लेते और खिलखिलाने लगते। मेरा वहां होना ही वे लगभग भूल चुके थे। उन्हें अपने किस्से कहानियों से ही फुर्सत नहीं थी। मैं उन्हें अपनी मौजूदगी याद दिलाने के लिए बीच बीच में खांसता भी रहा और बरामदे के चक्कर भी लगा आया, कुर्सी बदल बदल कर भी देख ली लेकिन वे मेरी ओर से उतने ही बेफिक्र होते गये, होते चले गये। उतने ही अपने में मग्न होते चले गये।
उनकी बातों में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं थी। बल्कि उनकी हंसी में साथ देना भी मैं मूर्खता ही समझता था। यह भी नहीं कि उनकी बातें गूढ़ रहस्यों से भरी थीं या मेरी समझ से परे थीं। ये एकदम बेकार बातें थीं। मुझे लगा कि उनकी बातों का एक ही सार और एक ही केंद्र है, इतना ही ज्ञान है और एक ही विषय है -शराब। वे लगातार शराब के बारे में जुगाली कर रहे थे। एकदम पुरानी बातें। मुझे उनकी हंसी पर शर्म आ रही थी कि भला इन बातों को भी इतना खींचा जा सकता है? यह भी कोई इतनी दूर तक हंसने की बात है? वे चाहते तो शराब के बारे में अच्छा खासा शोध प्रस्तुत कर सकते थे। वे कुरेद कुरेद कर ऐसी ऐसी बातें, दुहरा रहे थे कि मुझे उनके सुख से दुख हो रहा था। मैं हैरान हो रहा था कि मेरा साथी जिस काम के लिए अपने इस पुराने दोस्त से मिलने आया है, उस काम को तो एकदम भूल ही गया है। अब इनके व्यवहार से लग रहा था, जिस काम के लिए आये हैं, उसके लिए इतना बखेड़ा करने की जरूरत ही क्या थी? शादी के लिए एक बस करनी थी और उनका दोस्त बस कम्पनी में काम करता था। बस। इतना सा काम और इतना बखेड़ा जैसे ब्रह्मांड का कोई बड़ा मसला हल करने में लगे हों। ऐसे जिंदगी कैसे चलेगा मेरी? वाह रे गोबर गणेश। चार दिनों में शादी हो जायेगी तो भी इसी तरह ढुलमुल किस्म के फैसले लेते रहे तो हो चुका गुजारा। कैसे निभेगी? घरवाली जान को रोयेगी और जीने का कोई मजा नहीं आयेगा।
मात्र इतना ही काम था -ब्याह शादी के लिए हम बस बुक करवाने घर से चले थे। वैसे तो किराया इधर उधर से पूछ कर पता लगा लिया था। लगभग एक समान था। किसी प्रकार की रियायत की गुंजाइश नहीं दिखती थी। फिर भी एक भोली उम्मीद लेकर मैं अपने साथी के साथ आया था तो इस कारण कि इनकी आढ़त की दुकान का हिस्सेदार मोटर कम्पनी में भी हिस्सेदार था। कम्पनी का डायरेक्टर उनका रिश्तेदार है। आपस में गहरा प्यार है। शायद कह सुन कर चिट्ठी से सिफारिश मान कर कुछ सौ रुपये की छूट हो जाये। आने जाने का खर्च निकाल कर भी कुछ बचत हो जाये। बस। यही एक भोली उम्मीद थी। आखिर कुछ तो बचेगा ही। मुफ्त की सैर ही समझ लो और अपने पुराने दोस्त से मिल लेने की खुशी। इसी के चलते मेरे दूर के चाचा किरोड़ी मान गये थे।
हम सुबह नहा धोकर ; थोड़ा नाश्ता कर चल पड़े थे। मैंने सोचा था कि हम सीधे शहर पहुंच कर मोटर कम्पनी के ऑफिस जायेंगे। बात पक्की करके रसीद लेकर बाद में घूमते फिरते रहेंगे। सारा दिन हमारे हाथ में होगा और कुछ दूसरे काम भी निपटा लेंगे। इस तरह काम का काम हो जायेगा और मजे का मजा। पर क्या मालूम था कि सब कुछ उल्टा होगा।
छावनी निकट आते ही मेरे चाचा किरोड़ी को अपने इस दोस्त की बेतरह याद सताने लगी और चंद मिनट मिलने की बात कह कर आगे चलने की पेशकश से मुझे बीच रास्ते उतार कर यहां घसीट कर ले आए थे। इस तरह एक गलत शुरूआत हुई थी जो ठीक होने की बजाय गलत दर गलत होती चली गयी।
महीने का आखिरी दिन था और कम्पनी में अकाउंटेंट होने के चलते वह महाशय बहुत व्यस्त दीख रहे थे। पे बिलों से घिरे पड़े थे। ऐश ट्रे पर बेकार सुलगती, धुआं उड़ाती उनकी सिगरेट उनकी व्यस्तता की सूचना देने के लिए काफी थी। पर मेरे किरोड़ी चाचा की पुकार सुन कर वे सारा हिसाब किताब भूल कर, बीच में ही सारा कामकाज छोड़कर स्वागत् के लिए कुर्सी से भागकर दरवाजे तक चले आए थे। बड़े रौब से चपरासी को आवाज लगाई थी और चाय लाने का हुक्म सुना दिया था। यहीं तक मुझे सब बहुत अच्छा लगा था और किरोड़ी चाचा की दोस्ती पर गर्व हुआ था। एक प्रकार से मैं ताजगी अनुभव कर रहा था। इस तरह चाय की चुस्कियों में भी पूरा शराब जैसा मजा आ रहा था। लेकिन चाय खत्म हो जाने के बाद भी उनकी बातों का सिलसिला खत्म होता दिखाई न दिया तब मैं बेचैन हो उठा। किरोड़ी चाचा को याद दिलाने के बाद भी वे कहने लगे’चलते हैं यार’ और वे फिर अपनी बातों के रौ में बह निकलते। उनकी बातों का सिलसिला टूटता दिखाई न देने पर मैं बेचैन हो उठा। इस तरह कि मेरी मौजूदगी का उन्हें ख्याल तक न रहा हो। बीच में झल्ला कर चाचा किरोड़ी के दोस्त ने फोन उठाया और बस कम्पनी के दफ्तर मिला लिया। उनकी किस्मत अच्छी निकली कि डायरेक्टर वहां आया न था अभी। बताया गया कि उनके चार बजे से पहले आने की उम्मीद भी नहीं है। इसके बाद तो जैसे गप्पें मारने का जैसे पूरा हक उन्हें मिल गया हो। वे मुझे नजरअंदाज कर जुट गये थे घर परिवार का हाल चाल जानने और फिर शराब के बारे में अपने अथाह ज्ञान का बखान करने। मैं एक तरफ बैठा अपने ही समय को इस तरह बर्बाद होते चले जाने के अहसास से बुरी तरह खीझ रहा था मन ही मन। और कर भी क्या सकता था?
बीच में एक बार उनका सिलसिला गड़बड़ाया था। वे एक पल के लिए रुके थे। चपरासी आया था और बता गया था कि साहब यहां नहीं हैं और कि कई दिनों से बीमार चला आ रहा दफ्तर का कोई चपरासी दम तोड़ गया है।
चपरासी के जाने के बाद उन्होंने बातों का सिलसिला अपनी अपनी तरफ थाम लिया था। जैसे उस बिछुड़ गयी आत्मा की शांति के लिए भगवान् से प्रार्थना कर रहे हों। मूक,,,दो मिनट का मौन और फिर वहीं से इस तरह चालू हो गये मानो कुछ हुआ ही न हो। मानो अखबार के किसी कोने में किसी दूर के आदमी के मरने की मामूली सी खबर आई हो और अखबार को बासी समझकर फेंक दिया हो। बिल्कुल ऐसे ही वे दोबारा अपनी बातों में खो गये।
मैं बरामदे में से होता हुआ सामने जहां कुछ लोग बैठे थे वहां तक चला आया। वे बाबू उसी दफ्तर के थे और उस अनाम चपरासी की मौत पर दुख व्यक्त कर रहे थे। बड़े साहब नही थे तो क्या अकाउंटेंट को शोक सभा नहीं रखनी चाहिए। इस पर बात हो रही थी। अनाम चपरासी के सम्मान मे इतना तो होना ही चाहिए था। यदि साहब के बिना दफ्तर नहीं चलता तो क्या चपरासी के बिना चलता है? सारे कर्मचारी लाॅन के पेड़ की छाया में इकट्ठे हो गये। सबके सब रोनी सूरत बनाये खड़े थे। सबके सब उसके न होने के दुख को कंधों पर उठाये हुए थे। इसलिए सबके कंधे झुके हुए थे। मुर्दा चेहरे उनके भावों को बयान कर रहे थे।
मैं जब तक इस तरह के माहौल के बीच समय काट कर लौटा तब तक वे शाम को रंगीन बनाने का प्रोग्राम बना चुके थे। अकाउंटेंट मेरे किरोड़ी चाचा को बता रहा था कि छावनी की कैंटीन है और सब तरह की चीज मिल जाती है और वह भी कम रेट पर। यही तो सुख है। अव्वल तो दफ्तर के ही किसी आदमी से मिल जायेगी न भी मिली तो कैंटीन से कंट्रोल रेट पर काफी सस्ते में मिल जायेगी। मैं बंदोबस्त कर लूंगा। तुम बैठो तो सही। मैं अभी गया, अभी आया।
इस तरह वह बंदोबस्त करने एक कमरे से दूसरे कमरे तक, दूसरे से तीसरे कमरे तक चल कर सारा दफ्तर छान आया पर उसकी बदकिस्मती कि किसी ने माल तो दिया ही नहीं ऊपर से लानतें भी खूब मारीं कि हम तो चपरासी की मौत और उसके छोटे छोटे बच्चों और अधखड़ बीबी के भविष्य को लेकर परेशान हैं और तुम हो कि सस्ती शराब खोज रहे हो। शर्म आनी चाहिए। यही बात आकर अकाउंटेंट ने किरोड़ी चाचा को बताई और गुस्से में आकर कहा और फिर पे बिलों को परे हटाते हुए जी भर कर सबको गालियां दीं। एक एक को देख लूंगा। अब लो स्सालो चैक…कहां से लोगे? इतना अफसोस कर रहे हैं जैसे साला इनका कोई सगा मर गया हो।
चाचा किरोड़ी ने कहा कि कोई बात नहीं। रहने दो यार। किसी दूसरे वक्त पिला देना। फिर आ जाऊंगा किसी दिन प्रोग्राम बना कर।
इससे अकाउंटेंट और भी बिफर गया और बोला कि नहीं, तुम रोज़ रोज़ थोड़े आओगे यार। कहां तुम आओगे? आज पता नहीं किधर से मेरा ख्याल आ गया और चले आए। इस तरह खाली नहीं जाने दूंगा दोस्त। सब की ऐसी की तैसी। मैं अभी मरा नहीं।
फिर मेरी ओर देखा और कहने लगे कि दोस्त, तुम्हारा काम जरूर होगा। हर हाल में होगा। आज न भी हुआ तो क्या। मुझे पैसे दे जाना। मैं कल सुबह रसीद बनवा दूंगा। मैं बड़े काम का आदमी हूं। क्या करूं? अपने मुंह से अपनी तारीफ करनी पड़ रही है।
मुझे अपने तौर पर शांत समझ कर उसने गला फाड़कर चपरासी को आवाज लगाई। उसके आते ही कुछ रुपये उसके हाथ में देकर हुक्म दिया कि कहीं से भी लेकर हाजिर हो जाओ, पूरी दो बोतल। न लेकर आया तो तेरी खैर नहीं।
चपरासी ने इंकार की सूरत बनाई ही थी कि डांट दिया-न सुनने के मूड में नहीं हूं बिल्कुल भी। भागो स्साले। अभी पिछला बिल निकाल कर फाड़ दूंगा।
चपरासी ने अकाउंटेंट के हुकुम की तामील तब की जब दफ्तर बंद होने का समय हो गया था और सभी चौथे दर्जे के कर्मचारी उसी एक की राह देख रहे थे। वह आया और माल अकाउंटेंट को सुपुर्द कर जैसे ही चलने को हुआ वैसे ही आवाज आई कि हमें छोड़कर नहीं आएगा?
-कहां साहब?
-अड्डे पे और कहां?
-इतनी दूर?
-क्यों कोई तकलीफ है?
-नहीं तो पर हम सब उस चपरासी के घर जा रहे हैं एकसाथ शोक जताने। सब मेरी राह देख रहे थे।
-मेरे दोस्त आए हैं और तुझे मातमपुर्सी की पड़ी है? आज तो जश्न का दिन है। यार, बाल बार थोड़े मिलते हैं?
-साहब…
-मैं कुछ नहीं सुनूंगा। चल फूट। जल्दी से साइकिल निकाल कर ला और साहब को बिठा पीछे। फिर चलें। आहा ! आज तो मज़ा आ जायेगा। कसम से !
वह साइकिल लेकर आया तो बाकी साथी हाथ जोड़ने आए -इसे छुट्टी दे देते सरकार…
-भागो स्साले ! मजा खराब करने आ जाते हैं। कोई जरूरी है इतनी शाम अफसोस करने जाना? और आप लोग जा तो रहे हो। फिर इसकी क्या जरूरत? चल बे, बिठा इस साहब को पीछे और मार पैडल…
इस तरह हम अड्डे पहुंच गये। वैसा ही अड्डा जैसा शराब पीने वालों का होता है। जगह जगह अंडे के छिलके, निचोड़ी हुई हड्डियां, मछली की सीखें और तरह तरह की बदबू। एक अजीब सा माहौल जैसे कोई आदमगुफा,,,हल्की हल्की रोशनी और शराब के पैग,,
-मालिक मैं जाऊं क्या?
शायद यह उसकी आखिरी कोशिश थी। कहते हैं बड़ा पुण्य होता है किसी की अर्थी के साथ श्मशान तक जाना…
-अबे क्या बकबक लगा रखी है? तेरी किस्मत में दो बूंद पीनी लिखी है तो पीता जा। इतनी मेहनत की है तूने। पी ले। ला प्याला ले आ अपना। इससे बड़ा कोई पुण्य है क्या? मजे करो। ऐश करो। और है ही क्या इस दुनिया में। क्या ले जाना है?
खींच के उसे भी गिलास थमा दिया।
फिर जाम से जाम टकराते रहे और खाली होते रहे…भरे जाते रहे…
अंधेरा गहरा होता गया। नशा भी चढ़ा और चढ़ता गया। वहां बैठे बैठे मुझे लगा कि ऐसे अंधेरे में, ऐसे नशे में,,,किसको खबर है कि कौन मर गया है…सचमुच किसे पता चलता है कि कौन मर गया है…?
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा हम।)
☆ लघुकथा – हम ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
बचपन में मैं इस जंगल में कई बार आया था। तब यह जंगल सघन था, इतना कि धूप की पहुँच धरती तक बमुश्किल ही हो पाती थी; और आज पेड़ इतने विरल कि जंगल को जंगल कहते डर लगता है। मैंने एक पेड़ से पूछा, “जंगल का यह हश्र कैसे हुआ?”
“पेड़ों का क़त्ल कौन कर सकता है- बारिश, बिजली, तूफ़ान, बाढ़, भूकंप या तुम?” पेड़ के पत्ते ज़ोर-ज़ोर से हिलने लगे थे। लगा, जैसे तमाम गुज़रे हादसों को याद कर उनकी चेतना काँप रही हो।
“तुमने बताया नहीं?” पेड़ ने मेरी ख़ामोशी को झिंझोड़ा।
“पेड़ों का क़त्ल हम ही कर सकते हैं।” मैंने कहा।
“और पेड़ों को बचा कौन सकता है?”
“हम।” अचानक पेड़ की छाल में मेरे हाथों ने गीलापन महसूस किया और फिर वह गीलापन मेरे वजूद में उतरने लगा। तभी काँपती पत्तियों में से एक बहुत ताज़ा पत्ती मेरे कंधे पर आ गिरी।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श एवं परिस्थिति जन्य कथानक पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “गहराई… ”। )
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 122 ☆
☆ लघुकथा – गहराई…☆
कुएं रहट से लगी रस्सी से बंधी बाल्टी पर गहराई से पानी निकालते अहिल्या नीचे देख सोचने लगी??? कब तक जिंदगी इन गहराई से निकलती जल की बाल्टी की तरह बनी रहेगी। ऐसा क्या हुआ जो उसका जीवन उसके लिए अभिशाप बन चुका था।
गांव में शादी होकर अहिल्या आई बहुत ही सुखद जीवन था पतिदेव और देवर। दोनों साथ साथ खेती का कार्य करते थे। साधारण परिवार में सभी कुशल मंगल था। परिवार के नाम में और कोई नहीं था कुछ दिनों बाद नन्हा बालक आया और सभी कुछ बहुत अच्छा था।
खेत में काम करते करते दोनों भाई खुशी से रहते। देवर के हसीन सपने दिनों दिन बढ़ते जा रहे और होता भी क्यों नहीं इतना प्यार करने वाले भैया भाभी और भतीजे को देख उसका मन तो अपनी जीवनसंगिनी को ढूंढ रहा था। उसी के सपने देखता और हंसता मुस्कुराता रहता।
एक सुबह जब वह भाई के लिए रोटी लेकर खेत पहुंचा देखा भैया बेसुध पड़े हैं। घर लाया गया तब तक बहुत देर हो चुकी थी। अहिल्या की तो जैसे दुनिया ही उजड़ चुकी।
पत्थर सी बन गई। दिन बीतने पर गांव में तरह-तरह की बातें बनने लगी। देवर भी परेशान रहने लगा भाभी के दर्द को और नन्हे बच्चे की परवरिश को लेकर वह सोचने लगा।
इस आग उगलती दुनिया में भाभी का अपना कोई नहीं है। क्या ऐसे में वह भाभी को अपनाकर अपने घर को फिर से बचा सकता है?
एक समझौता कर उसने अपने सपनों की दुनिया को खो दिया और ठान चुका कि किसी भी प्रकार से वह अपने भाभी को कष्ट नहीं होने देगा। चाहे उसे जमाना कुछ भी कहे।
खेत से काम करते हुए घर की तरफ आ रहा था। भाभी मटके से पानी भरकर अपने रास्ते आ रही थी। दो रास्ते जहां पर एक होते हैं वहां पर देवर ने गिरने का बहाना किया और बेसुध होकर लेट गया।
आसपास के लोगों ने चिल्लाना शुरु कर दिए… अहिल्या ने घबराकर मटके का पानी देवर के ऊपर डाल मटका फेंका और लिपट कर रोने लगी… मैं आपको खोना नहीं चाहती.. रोते-रोते वह शुन्य हो गई।
देवर भी तो यही चाहता था कि भाभी के मन की गहरी बात को सबके सामने रख सके और बाहर निकाल सके। किसी तरह रिश्तो में जकड़ी भाभी अपने मन से सबके सामने रिश्तो को अपना सके। रिश्तो को मान सके और नई जीवन शुरू कर सके। यही तो वह चाहता था जो वह कभी भी बोल नहीं पा रही थी।
☆ कथा-कहानी ☆ कोहरा – भाग -2 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆
(यह कहानी ‘साहित्य अकादमी’ द्वारा ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ में पूर्व प्रकाशित हुई थी।)
विजयेंद्र ने पोर्ट्रेट के लिए मोहना की अनुमति लेने की ज़िम्मेदारी स्वीकार की, फिर भी प्रतिनिधि मंडल बैठा रहा। सुगबुगाहट चल रही थी। जो कहना था, वह अब भी पूरा नहीं हुआ था। कोहरे से लिपटे पेड़-पौधों का अस्तित्व महसूस हो रहा था, लेकिन उनका रंगरूप समझ में नहीं आ रहा था!
‘‘मोहना देवी का पोर्ट्रेट उनका नाम और महाराज के चित्र के कलाकक्ष की शान के अनुरूप ही होना चाहिए।”
देसाई जी ने नज़रे झुकाकर कह, ‘‘हम चाहते हैं, यह ज़िम्मेदारी अगर आप लें तो… मतलब यह विनती है। इस पोर्ट्रेट के लिए सांस्कृतिक कला संचालनालय ने उचित मानदेय देना स्वीकार किया है।”
विजयेंद्र ने कल्पना भी नहीं की थी कि एस प्रकार का प्रस्ताव रखा जाएगा।
विजयेंद्र एक चित्रकार थे। अच्छे चित्रकार! उनके इलाक़े में लोक उन्हें अच्छा कलाकार मानते थे। उनके दादाजी, महेंद्रनाथ भी चित्रकला के शौक़ीन थे। लेकिन केवल शौक़ के लिए अपने दादाजी-जैसी कला-साधना करना उनके लिए मुमकिन नहीं था। चित्रकला उनकी रोज़ी-रोटी का साधन बन गई थी। वे अपनी चित्रकारिता का उपयोग लोगों की माँग के अनुसार और विज्ञापन के लिए चित्र बनाने में करते थे। फिर भी ख़ालिस चित्रकारिता का छोटा सा झरना उन्होंने अपने दिल में धीरे-धीरे बहा रखा था। व्यवस्थापकीय मंडल के सदस्यों में विजयेंद्र और उनकी कला के बारे में आदर था। उनका मानना था कि किसी अन्य कलाकार की अपेक्षा विजयेंद्र इस काम के लिए अधिक योग्य हैं। लेकिन क्या वे स्वीकार करेंगे?
‘‘मैं सोचकर बताऊँगा”, विजयेंद्र ने कहा था।
विजयेंद्र के कलाजीवन की शुरुआत ही मोहना के चित्र से हुई थी। उस समय उन्होंने मोहना के रेखाचित्र निकाले थे। महेंद्रनाथ जी की नजर अचानक उन रेखाचित्रों पर पड़ी थी। अपने पोते ने वह बनाए हैं, यह जानकर वे अति प्रसन्न हुए थे।
‘‘हम ब्रश का चमत्कार नहीं दिखा सके। आप करके दिखाइए। साधना कीजिए। चित्रकारी सीखो!” महेंद्रनाथ जी ने कहा था। वे केवल कहकर रुके नहीं। उन्होंने अपने पोते का चित्रकारी सीखने का इंतजाम भी किया था। चित्रकारी सिखाने के लिए एके ब्रिटिश और एक फ्रेंच चित्रकार नियुक्त किया गया था।
विजयेंद्र हमेशा सोचते, अण्णा साहब ने उस वक्त कितनी दूरदर्शिता दिखाई थी। रियासत विलीन होने के बाद, छोटे-मोटे रियासतकारों के वारिसों की जो दयनीय स्थिती हो गई थी, वैसी अपनी नहीं हुई। कला के बलबूते पर ही शान से गुज़ारा कर रहे हैं। अण्णा साहब की पीढ़ी रियासत के विलीन होने का दर्द सीने में लिए चली गई। राजमहल में पलनेवाले चंपत हो गए। पिताजी, चाचा, चचेरे भाई-बहन, उनके पास कुछ ज्यादा बचा नहीं था। फिर भी उनका दिल राजमहल के बाहर कभी निकला नहीं था। थोड़ी-बहुत जो भी चीज़ें बची थीं, वह बेचकर उन्होंने जीवन बिताया था। लेकिन अपने ऐशोआराम और शान-बान में कोई कमी नहीं आने दी थी।
विजयेंद्र अलग हुए, क्योंकि वे पढ़ाई के लिए बाहर गए थे। देश-विदेश घूमकर आए थे। उन्होंने अपने आपको बदल दिया, लेकिन उनका दिल अब भी रतनगढ़ में ही रहता है! अपने बच्चों की ऐसी दोहरी मानसिकता नहीं है क्योंकि उन्होंने वह ऐश्वर्य, वैभव देखा ही नहीं, उपभोग किया ही नहीं। इसलिए उसके जाने का उन्हें गम नहीं हैं। रतनगढ़ रियासत विलीन हो गई और रतनगढ़ की शान ही चली गई। अब केवल रजतमहल के रूप में उसकी गौरव गाथा का ध्वज फहराता है।
‘‘जहाँ तक मुझे याद है, मोहना का पहला कार्यक्रम रजतमहल में ही हुआ था। आपको याद होगा?” देशमुख जी ने कहा।
चालीस साल पुरानी घटना विजयेंद्र की आँखों के सामने चलचित्र की तरह दिखाई देने लगी।
विजयेंद्र। रियासत के युवराज, भावी राजा! उनकी परवरिश युवराज की हैसियत से ही की गई थी। उनकी चौदहवीं सालगिरह बड़े धूमधाम से मनाई गई थी। उनका ठाठ-वाट तो उनकी शादी में भी नहीं हुआ था।
जन्मदिन के उपलक्ष में रियासत में रोशनी की गई थी। दावतें दी गई थीं। प्रतियोगिताएँ रखी गई थीं। विजेताओं को पुरस्कार दिए गए थे। तोहफ़े लिए-दिए गए थे। दूसरे दिन महल में नयनतारा के गाने के कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। पहले दिन के कार्यक्रम से विजयेंद्र थकान महसूस कर रहे थें। लेकिन उनका वहाँ रुकना जरूरी था। जन्मदिन के उपलक्ष में कार्यक्रम रखा गया था और जन्मदिन उनका था!
कक्ष सजाया गया था। कलात्मक क़ालीन बिछाए गए थे। सुंदर दीपदान जगमगा रहे थे। गाने की समझ रखनेवाले जानकार श्रोता उपस्थित थे। नयनतारा ने महेंद्रनाथ जी और श्रोताओं को प्रणाम किया। और कहा, ‘‘आज युवराज के जन्मदिन के अवसर पर, उनके सम्मान में मेरी बेटी मोहना गाना सुनाएगी। युवराज इसे हम ग़रीब का तोहफ़ा समझें।”
महेंद्रनाथ जी ने सर हिलाकर अनुमति दी। तानपुरे से सुर निकलने लगे। उस बारह साल की लड़की ने आँखें मूँदकर षड्ज लगाया, गाना शुरू किया। कितनी सुरीली आवाज़! उस मासूम लड़की की गाने की कुशलता, तैयारी और मधुर आवाज़ से श्रोता मंत्रमुग्ध हो गए थे। स्वर ऐसे स्पर्श कर रहे थे, मानो शरीर पर कोई मोरपंख डुला रहा हो। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो गाने को दैवी स्पर्श है। आवाज़ में अद्भुत जादू था। विजयेंद्र की सारी थकान, ऊब ग़ायब हो गई थी। गाना सुनते हुए उनको समझ में आया कि घुड़सवारी करके लौटते समय यही स्वर उन्हें मिलते हैं और घर तक साथ देते हैं। उन स्वरों का स्रोत आज मूर्त रूप से सामने आया था। जैसे उसका संगीत स्वर्गीय है, वैसा ही रूप। उसकी ख़ूबसूरती भी मंत्रमुग्ध करनेवाली थी। उसके स्वर दिल में और रूप आँखो में भरा है।
युवराज के मन में विचारों को लहरें उठ रही थीं। मोहना आत्ममग्न होकर गा रही थी। मानो उसे सुरों का साक्षात्कार हो रहा हो और वह उसे गले से साकार कर रही हो!
मोहना ने डेढ़ घंटा गायन किया। ‘‘क्या जादू है लड़की की आवाज़ में! यह लड़की तरक़्क़ी करेगी।” महेंद्रनाथ जी ने सराहना करते हुए कहा था। उसके बाद नयनतारा का गाना हुआ ही नहीं। महाराज ने दीवान जी को बुलाकर कुछ कहा। थोड़ी देर में मोतियों से भरा स्वर्ण थाल विजयेंद्र के हाथ में दिया गया। विजयेंद्र के हाथों वह थाल मोहना को दिया गया। पल भर को नज़रें मिलीं! मोहना ने नज़रें झुका लीं, और प्रणाम करने के लिए झुक गईं।
महेंद्रनाथ जी ने नयनतारा से कहा, ‘‘तुम्हारी बेटी की आवाज़ सोना है। हमारी इस सौगात से उसके गाने का मोल नहीं हो सकता।”
माँ-बेटी दोनों कृतार्थ हुई थीं। सौगात से? नहीं-नहीं। महेंद्रनाथ जी की प्रशस्ति से!
मोहना के गले में मोतियों की तीन लड़ीवाली माला हमेशा रहती है। विजयेंद्र को किसी ने बताया था कि रतनगढ़ मे उसका पहला कार्यक्रम हुआ था। उसकी विदाई के रूप में महेंद्रनाथ जी की दी हुई मोतियों की माला है।
जन्मदिन के कार्यक्रम के बाद विजयेंद्र कई दिनों तक परेशान रहे थे। परेशानी की वजह समझ नहीं पा रहे थे। मोहना के स्वर कानों में गुँजते रहते थे। उसकी कई भावमुद्राएँ याद आतीं। कभी आँखे मूँदकर तानपुरे के तारों को छूतीं, जहाँ लय की समाप्ति और ताल का आरंभ होता है, वहाँ हाथ आगे आया हुआ, और वह पलभर की नज़रानज़र!
विजयेंद्र ने कागज़ लिए और उसको सारी भाव मुद्राएँ अंकित कर डालीं। इन रेखाचित्रों ने उन्हें और महेंद्रनाथ जी को उनके कलाकार होने का एहसास दिलाया। महेंद्रनाथ जी की नज़रों में अचानक वे रेखाचित्र आए थे। वे जान गए थे कि उनके पोते की उँगलियों में कला है। उन्होंने विजयेंद्र की चित्रकला शिक्षा का ख़ास इंतजाम किया था। उसके बाद उनमें छिपा कलाकार उभरता गया था। समझदारी से बढ़ता हुआ बड़ा हुआ था!
आगे चलकर वे पढ़ाई के लिए मुंबई आए। फिर पेरिस गए। वे जब पेरिस में थे, तब इधर रियासत विलीन हो गई थी। वे पेरिस लौटे, तब हवेलीं में बहुत कुछ बदल गया था। हड़बड़ी मची थी। उनके रेखाचित्र उनके पास थे, इसलिए सुरक्षित रह गए थे। चालीस साल पहले, विजयेंद्र में छिपे अपरिपक्व कलाकार ने मोहना-जैसी एक कलावती के कलात्मक पलों के बनाए रेखाचित्र! वह पल मोहना के कला-निर्माण का था; वैसा ही विजयेंद्र में छिपे कलाकार को जगानेवाला था। उन रेखाचित्रों के रूप में, वह आज भी उनके पास मूर्त रूप में है। विजयेंद्र के सबसे पहले रेखाचित्र, जो किसी ने देखे तक नहीं थे। शायद विद्यागौरी और बच्चों ने भीं नहीं!
मोहना आज दुनिया की मशहूर गायिका है। ट्रस्टी चाहते हैं कि रजतमहल के कलाकक्ष में उसका चित्र हो। उसके लिए विजयेंद्र उसे राज़ी करें। इतना ही नहीं, उसका चित्र भी विजयेंद्र ही बनाए। उसके लिए उचित मानदेय देने का प्रस्ताव भी रखा है।
क्या करें? अगर उसने ऐसा सोच लिया कि मुझे पैसे मिलनेवाले हैं, इसलिए मैं उसे चित्र बनाने के लिए राजी कर रहा हूँ, तो?
विजयेंद्र को लगा, कोहरा उन्हें घेर रहा है। इस कोहरे में उन्हें राह ढूँढ़नी है। किसी निश्चित दिशा में ले जानेवाली राह…
जो कभी उनकी आश्रित थी। उसका चित्र, किसी ज़माने में जो युवराज था, वह बनाए… विदाई के बावजूद, कोहरा और भी घना होने लगा।… और फिर अचानक कोहरे के उस पार से सुनहरी किरणें फैल गईं। उनके दिल से भानवाओं की लहरें उठने लगीं…
नहीं नहीं! अब इस जमाने में भी… ये कैसे सामंतशाही विचार उभरकर आ रहे हैं। आश्रित और युवराज… भला हम ऐसा सोच भी कैसे सकते हैं? एक कलाकार को यह काम स्वीकार करना चाहिए।… काम नहीं… कला निर्माण!
दूसरे कलाकार के प्रति आत्मिकता, सौहार्द, उसके कला के प्रति महसूस होनेवाला सम्मान, सराहना प्रकट करने के लिए किया गया निर्माण!
मोहना का सम्मान करना है। बस! निर्णय हो गया था। विजयेंद्र को लगा, सूरज की किरणों से कोहरा छटने लगा है। राह साफ़-साफ़ नज़र आ रही है।
विजयेंद्र का मुस्कुराता हुआ चेहरा ट्रस्टी लोगों को बता रहा था कि उनका काम होनेवाला है। रजतमहल में स्वर शारदा का चित्र लगेगा और वह भी विजयेंद्र का बनाया हुआ!
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #87 समय का सदुपयोग ☆ श्री आशीष कुमार☆
किसी गांव में एक व्यक्ति रहता था। वह बहुत ही भला था लेकिन उसमें एक दुर्गुण था। वह हर काम को टाला करता था। वह मानता था कि जो कुछ होता है भाग्य से होता है।
एक दिन एक साधु उसके पास आया। उस व्यक्ति ने साधु की बहुत सेवा की। उसकी सेवा से खुश होकर साधु ने पारस पत्थर देते हुए कहा- मैं तुम्हारी सेवा से बहुत प्रसन्न हूं। इसलिय मैं तुम्हे यह पारस पत्थर दे रहा हूं। सात दिन बाद मै इसे तुम्हारे पास से ले जाऊंगा। इस बीच तुम जितना चाहो, उतना सोना बना लेना।
उस व्यक्ति को लोहा नही मिल रहा था। अपने घर में लोहा तलाश किया। थोड़ा सा लोहा मिला तो उसने उसी का सोना बनाकर बाजार में बेच दिया और कुछ सामान ले आया।
अगले दिन वह लोहा खरीदने के लिए बाजार गया, तो उस समय मंहगा मिल रहा था यह देख कर वह व्यक्ति घर लौट आया।
तीन दिन बाद वह फिर बाजार गया तो उसे पता चला कि इस बार और भी महंगा हो गया है। इसलिए वह लोहा बिना खरीदे ही वापस लौट गया।
उसने सोचा-एक दिन तो जरुर लोहा सस्ता होगा। जब सस्ता हो जाएगा तभी खरीदेंगे। यह सोचकर उसने लोहा खरीदा ही नहीं।
आठवे दिन साधु पारस लेने के लिए उसके पास आ गए। व्यक्ति ने कहा- मेरा तो सारा समय ऐसे ही निकल गया। अभी तो मैं कुछ भी सोना नहीं बना पाया। आप कृपया इस पत्थर को कुछ दिन और मेरे पास रहने दीजिए। लेकिन साधु राजी नहीं हुए।
साधु ने कहा-तुम्हारे जैसा आदमी जीवन में कुछ नहीं कर सकता। तुम्हारी जगह कोई और होता तो अब तक पता नहीं क्या-क्या कर चुका होता। जो आदमी समय का उपयोग करना नहीं जानता, वह हमेशा दु:खी रहता है। इतना कहते हुए साधु महाराज पत्थर लेकर चले गए।
☆ कथा-कहानी ☆ कोहरा – भाग -1 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆
(यह कहानी ‘साहित्य अकादमी’ द्वारा ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ में पूर्व प्रकाशित हुई थी।)
विजयेंद्र सुबह की सैर से लौटे, तब साढ़े सात बज चुके थे। आज लौटने में देर हो गई थी। सुबह, जब वे घूमने निकले थे, तब घना कोहरा था। देह पर लिपटे वस्त्रों-सा लिपटकर शरीर से एक रूप हो रहा था। उन्हें लगा, शरीर के छिद्रों से कोहरा अंदर रिस रहा है। वे उनकी हमेशा की राह से ही जा रहे थे। हमेशा की तरह टीले पर चढ़कर लौटनेवाले थे। लेकिन आज उन्हें महसूस हो रहा था, मानो किसी अज्ञात मार्गसे किसी रहस्य की ओर जा रहे हैं। पीछे छूट गए परिचित निशान कोहरे की वजह से मिट गए थे। क़रीब के निशान धुँधले हो रहे थे। अनजाने-से लग रहे थे। पहाड़ी चढ़ते हुए उन्हें लगा, कोहरा आक्रामक होकर उन पर हावी हो रहा है।
विजयेंद्र को बचपन याद आया, जब वे रतनगढ़ रियासत में थे! कोहरे में घोड़ा दौड़ाते हुए तेज़ रफ़्तार से जाना उन्हें पसंद था। जब वे थके-हारे लौटते, तब मार्ग में मोहना के सुर सुनाई देते, बड़ी दूर से आते प्रतीत होते। ऐसा लगता, मानो सुरों का आवरण बुना जा रहा है। जैसे-जैसे वे आगे बढ़ते जा रहे हैं, आवरण का एक-एक रेशमी रेशा खुलता जा रहा है!
कोहरा झीना होता जा रहा है। वह पारदर्शी पटल मानो सूरज की कोमल किरणों से उजास ले रहा है। नज़ाकत से झीने होते कोहरे से पेड़ों की फुनगियाँ, घरों की छत, दूर की पहाड़ी ऐसे खिलते जा रहे हैं, जैसे पौधे पर कली खिलती है। सूरज में यदि चाँद की शीतलता का अनुभव करना हो तो ऐसे घने कोहरे में सूरज को देखना चाहिए।
अपने दिल की चौखट में अंकित प्रकृति का यह रूप काग़ज़ पर साकार करना चाहिए। दिल में बहुत कुछ छलक रहा है। हाथ सुरसुरा रहे हैं। ब्रश हाथ में लेकर मन में उभरकर आई तसवीर चित्रित करने के लिए बेताब हुए।
विजयेंद्र जल्दी लौटे थे, फिर भी देर हो ही हुई थी। साढ़े-सात बज चुके थे। अब समाचार-पत्र पढ़ना, फिर स्नान, नाश्ता करके एक बार ऊपर की मंज़िल पर अपने स्टुडियो में गए कि उन्हें आवाज़ देने की हिम्मत किसी में नहीं होती थी। वे अपने साम्राज्य में गए कि उनकी मर्ज़ी से ही लौटेंगे। खाने-पीने के लिए भी बुलाना उन्हें पसंद नहीं था।
विजयेंद्र ने समाचार-पत्र पर नज़र डाली, लेकिन उन्हें न समाचार दिखाई दे रहे थे, न शब्द! सुबह का नज़ारा ही बार-बार नज़रों के सामने आ रहा था। मानो पूरा अख़बार कोहरे से ढक गया था। पीछे की ओर सुनहरी झलक, पेड़-पौधे कोहरे में छिपे हुए थे। यह सब चित्रित करने की उन्हें जल्दी थी।
विजयेंद्र अपने स्टुडियो में आए। उन्होंने स्टेंड पर फलक लगाया और वे रंग घोलने लगे। आज उन्हें चित्रित करना हैं छोटे-बड़े पेड़, नज़दीक से, दूर से, घर की छत, दूर की पहाड़ी के शिखर, जिनका अस्तित्व महसूस हो रहा है लेकिन रंग रूप का सुडौल एहसास कहीं खो गया है। इन सबके अस्तित्व को घेरकर बैठा हुआ कोहरा… घना कोहरा! विनाशी… फिर भी इस पल वही एक चिरंतन सत्य है, इस बात का एहसास दिलानेवाला कोहरा… उस कोहरे से दूर से भरकर आनेवाली हलकी पीली किरण… वैसी ही, जैसे मोहना के सुर दूर से आनेवाले कोहरे की तरह लिपटनेवाले… वो सामने नहीं आते, फिर भी उस पल चिरंतन सत्य प्रतीत होनेवाले सुर!
कोहरा देखकर विजयेंद्र की रतनगढ़ की यादें जाग उठीं! वे जब भी कोहरा देखते हैं, उन्हें रतनगढ़ याद आता है। रतनगढ़ जंगल से घिरा था। वहाँ कोहरा घना होता था। कोहरे से गुज़रते हुए पीछे मुड़कर देखते। कोहरे का परदा फिर से जुड़ जाता। घुड़सवारी करके लौटते समय मोहना के सुर सुनाई देते। दूर तक चले आते। हवेली तक साथ देते। वैसे तो उसके सुर आज भी, यहाँ भी, आसपास मौजूद हैं। अपनी ही नहीं, औरों की ज़िंदगी में भी इन सुरों ने ख़ुशियाँ भर दी है। आज यह दुनिया की मशहूर गायिका बन गई है। उसके हज़ारो, नहीं लाखों रिकॉर्ड्स बने हैं। अपने संग्रह में भी उसके कई रिकॉर्ड्स हैं। लेकिन अपने दिल में उसकी वह बचपन की आवाज़ ही बसी है। और उसकी वह मासूम ख़ूबसूरती!
काग़ज़ पर चित्र उभर रहा था। दूर की पहाड़ी, घर, पेड़ मानो हाथ में आ गए थे! इन सबको घेरकर बैठा हुआ कोहरा, बूँद-बूँद से काग़ज़ पर उतर रहा था।
स्टुडियो की कॉलबेल बज उठी। विजयेंद्र नाराज़ हुए। चित्र पूरा करके ही, वे नीचे जाना चाहते थे। लेकिन मिलने आनेवाले आदमी का काम भी उतना ही महत्त्वपूर्ण होगा, वरना विद्यागौरी बेल ना बजाती। उन्होंने ब्रश धोकर रखे और नीचे आ गए।
विजयेंद्र की आते देख, हॉल में बैठे हुए लोग उठकर खड़े हो गए। ‘‘बैठिए बैठिए! हमारे आते ही आप बुज़ुर्ग खड़े हो जाएँ ऐसे अब हम कौन रह गए हैं भई!” विजयेंद्र ने कहा। चित्रकारिता में गतिरोध आने से विजयेंद्र नाराज़ हुए थे, लेकिन जो लोग मिलने आए थे, उन्हें देककर उनकी नाराजगी दूर हो गई। आज सुबह सैर करते हुए उन्हें रतनगढ़ की याद आई थी, और अब रतनगढ़ के लोग सामने खड़े हैं।
‘‘हाँ, कहिए, कैसे आना हुआ? कोई खास बात?” विजयेंद्र ने पूछा।
‘‘इस वर्ष, बड़े महाराज महेंद्रनाथ जी की पुण्यतिथि के मौक़े पर मोहना देवी के गाने के कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा है।”
‘‘यह अच्छी बात है। बड़े महाराज उनकी सराहना करते थे।”
‘‘कार्यक्रम भारत सांस्कृतिक संचनालय की ओर से किया जाएगा। उनसे बात हो चुकी है।” देसाई जी ने कहा।
‘‘इसी बहाने मोहना देवी का सम्मान करने का इरादा है। भारत सरकार ने उन्हें ‘स्वर शारदा’ उपाधि प्रदान की है। कल ही घोषणा हुई है।”
‘‘हाँ!”
कल टी.वी. पर समाचार सुनने के बाद, मोहना को बधाई देने के लिए विजयेंद्र ने पाँच-छह बार फ़ोन किया था, लेकिन फ़ोन व्यस्त लग रहा था। वो तो लगना ही था। हर कोई फ़ोन पर बधाई देने का प्रयास जो कर रहा होगा! आज किसी को पोस्ट ऑफ़िस भेजकर बधाई का तार भिजवा देंगे। विजयेंद्र मन-ही-मन सोच रहे थे, लेकिन अगर फ़ोन पर बात होती है, तो उसकी सुरीली आवाज़ सुनाई देगी! अब तक तो उसने फ़ोन पर स्वयं बात की है। सचिव से संदेश देना-लेना नहीं किया है। देखते हैं, आज रात फ़िर से फ़ोन करेंगे!
‘‘आप उस समय रतनगढ़ में होंगे ना?” जेधेजी ने पूछा।
‘‘हाँ, बिल्कुल रहूँगा।”
इतना कहने-सुनने के बावजूद बात आगे नहीं बढ़ रही थी। विजयेंद्र समझ गए, ये लोग और कुछ कहना चाहते हैं। जो कहने के लिए आए हैं, अब तक वह कह नहीं पाए हैं। समझ में नहीं आ रहा था किन शब्दों में कहा जाए। मानो कोहरे में छिपा रास्ता ढूँढ़ रहे हों। मंज़िल का पता है, लेकिन जाएँ कैसे? उनकी चुलबुलाहट देखकर विजयेंद्र ने पूछा, ‘‘इस कार्यक्रम के संबंध में आपको क्या मुझसे कोई अपेक्षा है? आप खुलकर बताइए।”
‘‘हम रजतमहल के सारे ट्रस्टी चाहते हैं कि रजतमहल के कला कक्ष में मोहना देवी का पोर्ट्रेट लगाया जाए!” देसाई जी ने कहा।
‘‘दुनिया की सबसे मशहूर गायिका अपने रतनगढ़ की है, यह हमारे लिए गर्व की बात है।”
‘‘सही कहा आपने। उनके संगीत ने हम सबकी ज़िंदगी में खुशियाँ भर दी हैं। आपकी पोर्टेट की कल्पना बहुत अच्छी है।” विजयेंद्र ने कहा।
‘‘लेकिन मोहना देवी ने मना कर दिया है। अगर आप उन्हें मना लें तो… वो आपको न नहीं कहेंगी।”
‘‘में कोशिश करूँगा।”
रजतमहल में महेंद्रनाथ जी ने चुनिंदा चित्र-शिल्प कृतियों का बहुत ख़ूबसूरत संग्रह जमा किया था। महेंद्रनाथ जी रतनग़ढ रियासत के आख़िरी राज थे। उनकी ढलती उम्र में रियासत विलीन हो गई थी। वे बड़े रसिक और दिलदार थे। कलाकारों के क़द्रदान थे। उन्होंने कई कलाकारों को आश्रय दिया था। चित्रकला में उन्हें ख़ास रुचि थी। फ़ुरसत के समय में वे चित्र बनाते थे। कई जाने-माने, देशी-विदेशी चित्रकारों की चित्र-कृतियाँ उन्होंने ख़रीदी थीं। जब वे राजा थे, तब ब्रिटिश गवर्नर से और अन्य लोगों से भी कुछ चित्र उन्हें भेंटस्वरूप मिले थे। उन्होंने जाने-माने चित्रकारों से अपने दादा, परदादा, माँ, दादी, चाची आदि के पोर्ट्रेट बनवा लिए थे। एक इतालवी चित्रकार ने विजयेंद्र का भी चित्र बनाया था। उड़नेवाली तितली, उसे पकड़ने के लिए लपकते दो नन्हे हाथ! आँखों में उत्सुकता! विजयेंद्र को वह चित्र बहुत पसंद था। इसलिए नहीं की वह उनका था, बल्कि इसलिए कि वह एक सुंदर कलाकृति थी। रजतमहल के चित्र देखते-देखते और महेंद्रनाथ जी ने जिन कलाकारों को आश्रय दिया था, उनकी कलाकृतियों का कैसे निर्माण होता है, यह देखते-देखते वे बड़े हुए थे। स्वतंत्रता के बाद रतनगढ़ रियासत भारतीय प्रजातंत्र में विलीन हुई थी। रजतमहल, उसमें रखी चित्र-शिल्प कृतियाँ सैलानियों के आनंद का और चित्रकारों के अभ्यास का केंद्र बन गया था।
रजतमहल महेंद्रनाथ जी के पिताजी विश्वनाथ जी ने अपनी पत्नी माधवी देवी को उनके पच्चीसवें जन्मदिन पर बतौर तोहफ़ा देने के लिए बनवाया था। रतनगढ़ रियासत के दक्षिण में नील सरोवर नाम का विशाल सरोवर है। इस सरोवर का आकार कमल के पत्ते की तरह है। सरोवर का पानी साफ़ और मीठा है। सरोवर के किनारे रजतमहल ऐसा खड़ा है, मानो कमल के पत्तों के बीच खिला श्वेत कमल हो! महल संगमरमर का बना है। उसमें चाँदी जड़े खंबे हैं! उस पर नक़्क़ाशी की गई है।
सामने भव्य कक्ष है। उसके चारों तरफ़ छोटे-छोटे आठ कक्ष हैं। महल के दक्षिण की ओर नील सरोवर है, बाक़ी तीनों तरफ़ बग़ीचा है।
पहले रजतमहल में चुनिंदा कलाकारों के नृत्य संगीत के कार्यक्रम हुआ करते थे। राज परिवार के लोगों के साथ दरबार और रियासत के गिने-चुने प्रतिष्ठित लोगों को भी आमंत्रित किया जाता था। बसंत पंचमी, शरद पूर्णिमा को यहाँ बड़ा उत्सव मनाया जाता था। इस उत्सव में प्रजा भी शामिल हो सकती थी।
रियासत विलीन होने के बाद, रियासत के आश्रय में रहनेवाले लोग, अपना आबोदाना ढूँढ़ने के लिए चारों दिशाओं में चल पड़े। बग़ीचे वीरान हुए। फूल पौधों की जगह कँटीले पेड़-पौधों से बग़ीचा भर गया।
रजतमहल महेंद्रनाथ जी की पसंदीदा जगह थी। अपने अंतिम समय में वे वहीं पर थे। अपना चित्र-संग्रह उन्होंने वहीं पर मँगवाया था। उनकी मृत्यु के बाद महल और चित्र-संग्रह सरकार के क़ब्ज़े में चले गए। आज वह पर्यटन स्थल हो गया है। प्रकृति का ख़ूबसूरत नज़ारा, कला का उत्कृष्ट नमूना? रजतमहल और उसमें रखे गए सुंदर चित्र देखकर सैलानियों की आँखे जुड़ा जाती हैं। मन प्रसन्न हो जाता है। धन्य-धन्य कहते हुए लोग बाहर आते हैं।
रजतमहल के चित्र-संग्रह में और एक चित्र रखने का व्यवस्थापक मंडल ने निर्णय लिया था। मोहना देवी का चित्र। बाक़ी लोगों की सहमति थी। विजयेंद्र विश्वस्त मंडल के सदस्य थे। अगर रियासत विलीन न होती तो आज वे रजतमहल के मालिक होते, इसलिए उनके साथ चर्चा करके उनकी अनुमति लेना आवश्यक था। देसाई जी ने बात शुरू की थी।
रजतमहल में उनका चित्र लगाना उनका बड़ा सम्मान होगा। मोहना देवी आज दुनिया की मशहूर गायिका हैं। रतनगढ़ उनकी साधना भूमि है। रियासत विलीन होने के बाद अन्य कलाकारों की तरह नयनतारा भी अपनी बेटी को लेकर शहर चली गई थी। वहाँ उसने गाने के कार्यक्रम किए थे। बेटी की पढ़ाई का इंतज़ाम किया था। नयनतारा जब अपनी बेटी को लेकर रतनगढ़ आई थी, तब मोहना केवल डेढ़ साल की थी। महेंद्रनाथ जी ने उसे आश्रय दिया था। उसे घर दिया, अन्न-वस्त्र दिए, उसका मारा-मारा फिरना समाप्त हो गया था। महाराज की इच्छानुसार उसे उन्हें गाना सुनाना था। दशहरा, दीपावली, वर्षप्रतिपदा, बसंत पंचमी, जन्माष्टमी, शरद पूर्णिमा आदि ख़ास मौकों पर गिने-चुने आमंत्रित लोगों के सामने उसका गाना होता था। रतनगढ़ में आश्रय मिलने के बाद उसे अपनी बेटी मोहना की संगित शिक्षा की ओर ध्यान देने के लिए भी फ़ुरसत मिली थी। मोहना आज मशहूर गायिका है। उसे मिलनेवाले पैसा, प्रतिष्ठा, सराहना सब कुछ नयनतारा ने अपनी आँखों से देखा था। आज वह इस दुनिया में नहीं रही। दोनो – माँ – बेटी अपने अन्नदाता के प्रति कृतज्ञ थीं। अपनी साधना भूमि रतनगढ़ के लिए उनके मन में आत्मीयता थी। विजयेंद्र महेंद्रनाथ जी के पोते होने से उनके प्रति मोहना के मन में अपनापन था। कभी-कभी कार्यक्रम में वह प्रकट भी होता था। उसके पीछे क्या केवल कृतज्ञता है या और भी कुछ…? जब जब मोहना की याद आती है तो लगता है, मानो दूर से हवा के झोंके के साथ कोई ख़ुशबू आई और दिल पर छा गई। विजयेंद्र कभी-कभी सोचते, मोहना के दिल में उनके लिए कौन सी भावनाएँ होंगी भला!
मोहना देवी आज कला, प्रतिष्ठा, पैसा और लोकप्रियता के जिस शिखर पर है, उसकी तुलना में विजयेंद्र उस शिखर के तीसरे-चौथे पायदान पर भीं नहीं होंगे। लेकिन व्यवस्थापक मंडली का मानना है कि पुराने ऋणानुबंध के कारण एक-दूसरे के लिए जो आत्मीयता, सम्मान उनके दिल में है, यदि विजयेंद्र बात करेंगे तो मोहना देवी पोर्ट्रेट बनवाने के लिए मना नहीं करेंगी।