हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 142 – ग्रहण से मोक्ष ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी सामाजिक समस्या बाल विवाह पर आधारित एक प्रेरक लघुकथा “ग्रहण से मोक्ष”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 142 ☆

🌺लघु कथा 🌗ग्रहण से ोक्ष 🌕

नलिनी के जीवन में उस समय ग्रहण लग गया, जब 5 वर्ष की उम्र में धूमधाम से उसका बाल विवाह हुआ।

12 साल का उसका पति अभय नलिनी से ज्यादा समझदार दूल्हे होने की अकड़ और उम्र का बड़ा फासला, परंतु नलिनी इन सब बातों से अनजान खेलकूद, मौज – मस्ती, अपने मित्रों के साथ धमा-चौकड़ी, मोबाइल में गेम खेलना और समय पर पढ़ाई करना। यही उसकी दिनचर्या थी।

पढ़ाई लिखाई में कमजोर अभय हमेशा उस पर अधिकार जमाता रहता। मोहल्ला पड़ोस आस-पास होने की वजह से हर चीज की खबर रखता था। जो नलिनी को बिल्कुल भी पसंद नहीं आता था।

आज घर परिवार में ग्रहण की बात हो रही थी। इसकी राशि में शुभ और किसकी राशि में अशुभ। शुभ फल चर्चा का विषय बना था। पापा पेपर लिए बड़े ही तल्लीनता से पढ़ रहे थे। मम्मी पास में बैठी सब्जी काट रसोई की तैयारी करने में लगी थी।

अचानक दौड़ती नलिनी आई पापा के कंधे झूलते बोली…. पापा मेरी सखियां मुझे चिढ़ाती हैं कि मुझे तो ग्रहण लग गया है। पापा ग्रहण बहुत खतरनाक और भयानक होता है क्या? अभय भी मेरे साथ यही करेगा। पापा मुझे कब छुटकारा मिलेगा।

बिटिया की बातें सुन मम्मी-पापा हतप्रभ हो देखते रहे, उन्हें अपनी गलती का एहसास हो चुका था।

बहुत गलत फैसला है और तुरंत दूसरे कपड़े पहन, चश्मा लगा कुछ कागज, हाथों में ले बाहर जाने लगे।  मम्मी ने आवाज लगाई…. कहां चल दिए।

पापा ने कहा…. अपनी गलती के कारण अपनी बिटिया पर लगे ग्रहण के समय का मोक्ष निर्धारण करके आता हूँ। शायद यही समय उचित रहेगा।

नलिनी खुशी से झूम उठी…. अब मैं सभी फ्रेंड को बता दूंगी मेरा भी ग्रहण को मोक्ष मिल गया। अब कोई अशुभ प्रभाव नहीं पड़ेगा।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #167 ☆ कथा – कहानी – मर्ज़ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक विचारणीय कथा  ‘मर्ज़ ’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 167 ☆

☆ कथा – कहानी ☆ मर्ज़ 

प्रसाद साहब के घर में सुबह से ही तनाव है, उस वक्त से जब से हार के गायब होने का पता चला है। श्रीमती प्रसाद तब से ही खोज-बीन में लगी हैं। थोड़ी देर बैठती हैं, फिर दुबारा चीज़ों को उलट-पलट करने में लग जाती हैं। जहाँ-जहाँ भी संभावना थी वहाँ की खोज-बीन हो चुकी है, लेकिन हार का पता नहीं चला।

प्रसाद साहब कपार पर हाथ धरे सोफे पर बैठे हैं और, जैसा कि अमूमन होता है, वे सवेरे से कई बार पत्नी की लानत-मलामत कर चुके हैं। यह दीगर बात है कि वे खुद खासे भुलक्कड़ हैं और अक्सर छोटी-मोटी चीज़ें खोते रहते हैं। अभी श्रीमती प्रसाद सिद्धदोष हैं और इसलिए प्रसाद साहब को उन पर हावी होने का भरपूर मौका मिला है। अभी तक किश्तों में जो भाषण प्रसाद साहब दे चुके हैं उसका लब्बोलुआब यह है कि श्रीमती प्रसाद आदतन लापरवाह हैं और पति के इतने साल लगातार समझाने के बावजूद उनकी लापरवाही में कोई सुधार नहीं हुआ है।

श्रीमती प्रसाद पर दुहरी मार है। एक तो डेढ़ दो तोले का ज़ेवर जाने का दुख, दूसरा पतिदेव और परिवार के दूसरे सदस्यों की बातें। वे आश्चर्यचकित भी हैं कि घर से अचानक चीज़ गायब कैसे हो गयी। वे इस्तेमाल में आने वाले ज़ेवरों को अलमारी में एक छोटे बैग में रखती थीं। उसकी चाबी अलबत्ता वे कहीं भी रख देती थीं, क्योंकि घर में कोई ऐसा नहीं था जिस पर भरोसा न हो। बेटा मनोज अठारह साल का है और उस से छोटी बेटियाँ हैं, रिंकी और पिंकी। इनके अलावा बस नौकर बिस्सू है जो अभी तेरह चौदह साल का है और पिछले सात-आठ महीने से घर में है। उसकी आदत घर की किसी चीज़ को बिना पूछे छूने की नहीं है। प्रसाद साहब उसके माँ-बाप को तरह-तरह के सब्ज़बाग दिखाकर उसे ले आये थे।

श्रीमती प्रसाद को वैसे तो चीज़ के खोने का पता ही नहीं चलता। उस दिन संयोग से वे आम का अचार डालने में लग गयीं और उन्होंने हाथ की दोनों अँगूठियों को बैग में डाल देने की सोची। तभी उनका ध्यान गया कि हार अपनी जगह पर नहीं है। जानकारी होने पर उन्होंने पहले अपने वश भर बिना किसी को बताये ढूँढ़-खोज की ताकि पतिदेव को जानकारी होने से पहले चीज़ मिल जाए, लेकिन उनका दुर्भाग्य कि सारी कोशिशों के बावजूद चीज़ मिली नहीं और बात पतिदेव के कान तक पहुँच गयी। तभी से वे पूरे घर को सिर पर उठाये हैं।

हार कर जी हल्का करने के लिए श्रीमती प्रसाद पड़ोसियों को भी इस नुकसान की बात बता चुकी हैं और घंटे भर में ही ज़ुबान पर चढ़कर बात कॉलोनी के ज़्यादातर घरों में पहुँच चुकी है। कॉलोनी के नीरस जीवन में थोड़ा रस-प्रवाहित हुआ है और लोगों को दिन भर चर्चा करने का विषय मिल गया है।

खबर पाकर शहर में प्रसाद साहब के भाई-बंधु कैफियत लेने और हमदर्दी जताने आने लगे हैं। श्रीमती प्रसाद के लिए यह सुविधाजनक है, क्योंकि संबंधियों के लिहाज में वे पतिदेव के शब्द-बाणों से बची रहती हैं।

रिश्तेदारों के बीच यह कयास लगाया जा रहा है कि यह काम कौन कर सकता है। जब अलमारी अक्सर बन्द रहती थी तो चीज़ गायब कैसे हो गयी? क्या घर के ही किसी आदमी का हाथ है? घर में कौन हो सकता है?

प्रसाद साहब का भतीजा बंटी भी आया है। खूब स्मार्ट, नये फैशन के टी-शर्ट और जींस, कलाई में एकदम मॉडर्न ब्रेसलेट, रंगे हुए बाल, नई बाइक्स को दौड़ाने का शौकीन।  उसकी नज़र बार-बार सब की सेवा में लगे बिस्सू का पीछा करती है। प्रसाद साहब से कहता है, ‘चाचा, कहीं इस लौंडे ने तो हाथ नहीं मारा?’

प्रसाद साहब प्रतिवाद करते हैं, ‘अरे नहीं, लड़का सीधा-सादा है। वह ऐसा नहीं कर सकता।’

बंटी जवाब देता है, ‘आपको तो सब सीधे-सादे नज़र आते हैं। चेहरे से क्या पता चलता है। आज सवेरे से यह कहीं बाहर गया था क्या?’

प्रसाद जी जवाब देते हैं, ‘रोज़ ही जाता है। कुछ न कुछ लाना ही पड़ता है।’

बंटी बोला, ‘तब तो माल दूर निकल गया। ऐसे लड़के दूसरों से मिले होते हैं। वे माल मिलते ही लंबे निकल जाते हैं।’

थोड़ी देर में उसे कुछ सूझता है। बाइक से एक रबर का बड़ा छल्ला निकाल कर लाता है जिससे वह ‘स्ट्रैचिंग’ की कसरत करता है। फिर बिस्सू का हाथ पकड़कर उसे कमरे में ले जाकर दरवाज़ा भीतर से बन्द कर लेता है। थोड़ी देर ऊँचे स्वर में बातचीत की आवाज़ सुनायी पड़ती है, फिर  ‘सप’ ‘सप’ की आवाज़ और बिस्सू का आर्तनाद। घर में सब मौन साधे सुनते हैं।

कुछ देर में दरवाज़ा खोल कर बंटी बाहर निकलता है। पीछे थर-थर काँपता, हिचकी लेता बिस्सू है। बंटी के निकलते ही उसके पिता, यानी प्रसाद साहब के छोटे भाई, उस पर बरस पड़ते हैं,  ‘बेवकूफ, यह कहीं एससी एसटी हुआ तो तू सीधे जेल जाएगा। ज़मानत भी नहीं होगी।’

बंटी चेहरे का पसीना पोंछकर कहता है, ‘यह तो दूसरी ही कहानी बताता है।’

सब प्रश्नवाचक नज़रों से उसकी तरफ देखते हैं। बंटी कहता है, ‘यह बताता है कि हार मनोज ने अलमारी से निकालकर अपने दराज़ में रख लिया था। इसने देख लिया तो इसे धमकी दी कि अगर बताया तो बहुत मारेंगे।’

अब घर में फिर सन्नाटा है। लोग घूम कर देखते हैं तो पाते हैं कि मनोज अंतर्ध्यान हो गया है। प्रसाद साहब एक बार फिर पत्नी पर बरसते हैं, ‘यह सब तुम्हारे लाड़ प्यार का नतीजा है। मैंने कहा था कि लड़के पर नज़र रखो।’

पत्नी और बेटियाँ मनोज की खोज में गायब हो गयी हैं। थोड़ी देर में खबर मिलती है कि हार मिल गया है। लेकिन अब घर में शर्म और असमंजस का वातावरण है।

प्रसाद साहब फिर सिर पकड़े बैठे हैं। करुणा-विगलित स्वर में कहते हैं, ‘मेरा बेटा और चोरी करे! हमारे खानदान में ऐसा कभी नहीं हुआ। डूब मरने की बात है।’

सब मौन,उनके चेहरे की तरफ देखते  खड़े हैं।

थोड़ी देर में उनके भाई उनके कंधे पर हाथ रखकर कहते हैं, ‘भाई साहब, हम इज़्जतदार लोग हैं। हमारे बच्चे चोरी नहीं कर सकते। दरअसल यह एक दिमागी बीमारी है जिसे क्लैप्टोमैनिया कहते हैं। हम मनोज को काउंसिलिंग के लिए ले चलेंगे। ठीक हो जाएगा। परेशान मत होइए।’

उनकी बात सुन कर घर में सबका जी हल्का हो जाता है। चोरी की आदत नहीं, क्लैप्टोमैनिया है। प्रसाद साहब के मन से बोझ उतर जाता है। दोनों बेटियाँ ‘क्लैप्टोमैनिया’ ‘क्लैप्टोमैनिया’ बुदबुदाती घर में घूमती हैं। फिर उसे कॉपी में नोट कर लेती हैं। एक नया शब्द मिला है।

श्रीमती प्रसाद बेटे को समझाने चल देती हैं कि वह शर्मिन्दा न हो क्योंकि वह चोर नहीं, एक मर्ज़ का शिकार है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “आज के संजय…” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

श्री कमलेश भारतीय जी की यह लघुकथा आप एएनवी न्यूज चैनल पर सुश्री मिष्ठी राणा की आवाज में इस लिंक पर क्लिक कर देख-सुन सकते हैं 👉  लघुकथा – “आज के संजय…”

☆ कथा – कहानी   ☆ लघुकथा – “आज के संजय…” ☆ श्री कमलेश भारतीय  

सूर्य अस्ताचल की ओर बढ़ रहा है । महाभारत के युद्ध की दोनों सेनायें अपने अपने शिविरों में लौट रही हैं । रथों के घोड़े हिनहिना रहे है । कौन आज युद्ध में वीरगति पा गये और कौन कल तक बचे हुए हैं । संजय यह आंखों देखा हाल धृतराष्ट्र को सुना रहे हैं । महाराज व्यथित होकर दिन भर का हाल सुन रहे हैं । गांधारी भी पास ही बैठी हैं ।

वह एक युग था । तब संजय जन्मांध धृतराष्ट्र को युद्ध का हाल बताने के लिए मिली दिव्य शक्ति से सब वर्णन करते थे । कहा जा सकता है कि उस युग के पत्रकार थे संजय ।
अब युग बदल गया । इन दिनों चुनाव की महाभारत है । महाभारत अठारह दिन चली थी लेकिन यह चुनाव प्रचार की महाभारत पूरे इक्कीस दिन चलती है । यहां किसी एक संजय को दिव्य शक्ति नहीं दी जाती । यहां तो सैंकड़ों संजय हैं जो ‘वीडियो’ नाम की दिव्य शक्ति लेकर आये हैं और कुछ भी वायरल कर देने की शक्ति रखते हैं ! मनचाहा वीडियो बना कर सारा आंखों देखा हाल सुनाने में जुटे हैं । संजय तो एक राष्ट्रीय पत्रकार था और राष्ट्र की सेवा में जुटा था । निष्पक्ष ! निरपेक्ष ! ये आज के युग के संजय तो निष्पक्ष और निरपेक्ष नहीं । इन्हें तो रोटी रोटी कमानी है, अपनी गृहस्थी चलानी है । मनभावन शौक पूरे करने हैं । खाना पीना है और वह दिखाना है जो सामने वाला चाहता है लेकिन इसकी एक निश्चित कीमत है ! जो चुकाये वह पा मनचाहा पा ले ! नहीं चुकाये तो हश्र भुगते !

ये कैसे संजय हैं ?

ये कलियुग के महाभारत के संजय हैं ! जो अंधे लोगों को युद्ध का हाल नहीं सुनाते बल्कि ऐसा हाल सुनाते हैं कि आंखों वालों को ही अंधा बना रहे हैं ! आप इन्हें पहचानते हैं

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – हमें वधू चाहिए ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक लघुकथा ‘हमें वधू चाहिए ’। )

☆ लघुकथा – हमें वधू चाहिए डॉ. कुंवर प्रेमिल 

अखबार में वर वधू  स्तम्भ के अंतर्गत विज्ञप्ति छपी थी।

लिखा था – हमें ऐसी वधू चाहिए जो कार लेकर आए। साथ में नकद भी लाए। अपना एवं अपने पति का खर्च स्वयं चलाए ।

दूसरी विज्ञप्ति – वधूपूरी तरह विश्वसनीय होनी चाहिए।  सास ससुर की देखभाल करें एवं अलग रहने का सपना ना संजोए।

तीसरी विज्ञप्ति – सुंदर सुडौल । मन की साफ हो। पति से चुगली न करे और घर के काम काज में बराबरी से हाथ बटाए।

चौथी विज्ञप्ति – पड़ोसयों से बतियाने की सख्त मुमानियत रहेगी।

– ननद का सम्मान करना जानती हो तथा बार-बार मायके जाने की धमकियाँ न  देती हो।

पाँचवी विज्ञप्ति – हमें विदेश में जॉब करने वाली वधू स्वीकार्य होगी।

अब कोई उनसे जाकर पुछे, क्या ऐसी वधू मिली या उनके लड़के अभी तक कुँवारे ही घूम रहे हैं।

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #125 – “संस्कार” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  लघुकथा – “संस्कार”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 125 ☆

☆ लघुकथा – संस्कार ☆ 

जैसे ही अनाथ आश्रम से वृद्ध को लाकर पति ने बैठक में बिठाया वैसे ही किचन में काम कर रही पत्नी ने चिल्लाकर कहा, “आखिर आप अपनी मनमानी से बाज नहीं आए,” वह ज़ोर से बोली तो पति ने कहा, “अरे भाग्यवान! धीरे बोलो। वह सुन लेंगे।”

“सुन ले तुम मेरी बला से। वे कौन से हमारे रिश्तेदार हैं?” पत्नी ने तुनक कर कहा, “मैंने पहले भी कहा था हम दोनों नौकर पेशा हैं। बेटे को उसके मामा के यहां रहने दो। वहां पढ़ लिखकर होशियार और गुणवान हो जाएगा। पर आप माने नहीं। उसे यहां ले आए।”

“हां तो सही है ना,” पति ने कहा, “बुजुर्गवार के साथ रहेगा तो अच्छी-अच्छी बातें सीखेगा। हमें घर की भी चिंता नहीं रहेगी।”

“अच्छी-अच्छी बातें सीखेगा,” पत्नी ने भौंहे व मुँह मोड़  कर कहा, “ना जाने कौन है? कैसे संस्कार है इस बूढ़े के। ना जाने क्या सिखाएगा?” कहते हुए पत्नी ना चाहते हुए भी बूढ़े को चाय देने चली गई।

“लीजिए! चाय !” तल्ख स्वर में कहते हुए जब उस ने बूढ़े को चाय दी तो उसने कहा, “जीती रहो बेटी!” यह सुनते ही बूढ़े का चेहरा देखते ही उसका चेहरा फक से सफेद पड़ गया।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

13-05-22

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – गीलापन☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई 🌻

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – गीलापन ??

‘उनके शरीर का खून गाढ़ा होगा। मुश्किल से थोड़ा बहुत बह पाएगा। फलत: जीवन बहुत कम दिनों का होगा। स्वेद, पसीना जैसे शब्दों से अपरिचित होंगे वे। देह में बमुश्किल दस प्रतिशत पानी होगा। चमड़ी खुरदरी होगी। चेहरे चिपके और पिचके होंगे। आँखें बटन जैसी और पथरीली होंगी। आँसू आएँगे ही नहीं।

उस समाज में सूखी नदियों की घाटियाँ संरक्षित स्थल होंगे। इन घाटियों के बारे में स्कूलों में पढ़ाया जाएगा ताकि भावी पीढ़ी अपने गौरवशाली अतीत और उन्नत सभ्यता के बारे में जान सके। अशेष बरसात, अवशेष हो जाएगी और ज़िंदा बची नदियों के ऊपर एकाध दशक में कभी-कभार ही बरसेगी। पेड़ का जीवाश्म मिलना शुभ माना जाएगा। ‘हरा’ शब्द की मीमांसा के लिए अनेक टीकाकार ग्रंथ रचेंगे। पानी से स्नान करना किंवदंती होगा। एक समय पृथ्वी पर जल ही जल था, को कपोलकल्पित कहकर अमान्य कर दिया जाएगा।

धनवान दिन में तीन बार एक-एक गिलास पानी पी सकेंगे। निर्धन को तीन दिन में एक बार पानी का एक गिलास मिलेगा। यह समाज रस शब्द से अपरिचित होगा। गला तर नहीं होगा, आकंठ कोई नहीं डूबेगा। डूबकर कभी कोई मृत्यु नहीं होगी।’

…पर हम हमेशा ऐसे नहीं थे। हमारे पूर्वजों की ये तस्वीरें देखो। सुनते हैं उनके समय में हर घर में दो बाल्टी पानी होता था।

..हाँ तभी तो उनकी आँखों में गीलापन दिखता है।

…ये सबसे ज्यादा पनीली आँखोंवाला कौन है?

…यही वह लेखक है जिसने हमारा आज का सच दो हजार साल पहले ही लिख दिया था।

…ओह ! स्कूल की घंटी बजी और 42वीं सदी के बच्चों की बातें रुक गईं।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 55 – कहानियां – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कथा श्रंखला  “ कहानियां…“ की अगली कड़ी ।)   

☆ कथा कहानी  # 55 – कहानियां – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

ये बैंक में प्रमोशन और फिर ट्रांसफर का किस्सा है, हकीकत भी तो यही है. किसी शहर मे रहने के जब आप आदतन मुजरिम बन जाते हैं, आपके अपने टेस्ट के हिसाब से दोस्त बन जाते है, पत्नी की सहेलियां बन जाती हैं और किटी पार्टियां अपने शबाब पर होती हैं, बच्चे उनके स्कूल से और दोस्तों से हिलमिल जाते हैं. आप ये जान जाते हैं कि डाक्टर कौन से अच्छे हैं, रेस्टारेंट कौन सा बढ़िया है, चाट कौन अच्छी बनाता है और आप समझदार हैं कि बाकी चीज़ें कंहा कहां अच्छी मिलती हैं, डिटेल में जाने की जरूरत नहीं है, तब बैंक प्रमोशन टेस्ट की घोषणा कर देता है. मंद मंद गति से बहती, हवा और चलती ट्रेन रुक जाती है. कई तरह की प्रतिक्रियायें होना शुरु हो जाता है.

शायद यह शाश्वत सत्य है कि प्रमोशन का अविष्कार पत्नियों ने किया है. ईमानदारी की बात तो ये भी है कि कोई भी समझदार पर विवाहित पुरुष प्रमोशन चाहता नहीं है क्योंकि बाद में होने वाली  खौफनाक पोस्टिंग से उसको भी डर लगता है पर पत्नी जी का क्या? और अगर आप किसी बैंक कालोनी में रह रहे हैं तो जाहिर है कि कैसे कैसे ताने, उलाहने, चुनोतियों का सामना करना पड़ता है. “देखिये जी ! इस बार अच्छे से तैयारी करना, फेल मत हो जाना हर बार की तरह, वरना आपका क्या आप तो हो ही बेशरम, मुझे तो कालोनी में सबको फेस करना पड़ता है, या तो अच्छे से पढ़कर पास होना वरना फिर मकान बदल लेना. आप करते क्या हो बैंक में. सबसे पहले बैंक जाते हो, सबसे बाद में आते हो फिर आपका क्यों नहीं होता प्रमोशन. वो देखिये, शर्मा जी अभी दो साल पहले तो आये थे और फिर प्रमोट होकर जा रहे हैं. आप भी कुछ सीखो, भोले भंडारी बने बैठे हो. काम करने से कुछ नहीं होता, बॉस को भी खुश रखना पड़ता है. याने बैंक में काम करने वाले पतियों से बेहतर उनकी पत्नियों को मालुम रहता है कि बैंक में प्रमोशन कैसे लिया जाता है. “

प्रमोशन प्रक्रिया में पहले लिखित परीक्षा होती है. पहले तो स्केल 5 तक के लिये written test होते थे. हमारे बैंक में लोग परीक्षा के लिये पढ़ाई करते थे तो दूसरे बैंक इस cooling period में नये बिजनेस एकाउंट कैप्चर कर लेते थे. समझ से बाहर था कि बीस साल की नौकरी के बाद भी साबित करो कि आप बैंकिंग जानते हो. खैर बाद में ये सुधार हुआ और बैंक ने बिज़नेस को priority दी. प्रमोशन होने के बाद और पोस्टिंग के पहले के दिन उसी तरह तनाव मुक्त होते हैं जैसे शादी के बाद और गौने के पहले वाले दिन. ब्रांच में आपको भी काबिल मान लिया जाता है हालांकि पीठ पीछे की कहानी अलग होती है. ” कैसे हो गया यार, आजकल कोई भी हो जाता है, मुकद्दर की बात है वरना अच्छे अच्छे लोग रह गये और इनकी लाटरी निकल गई, कोई बात नहीं, हम तो कहते हैं अच्छा ही हुआ, कम से कम ब्रांच से तो जायेगा. इस सबसे बेखबर खुशी में मिठाई बांटी जाती हैं, दो तीन तरह की पार्टियां दी जाती हैं. फिर आता है पोस्टिंग का टाईम और फिर शुरु होता है जुगाड़ या फरियाद का दौर. यूनियन, ऐसोसियेशन, मैनेजमेंट हर तरफ कोशिश की जाने लगती है. ऐसे नाज़ुक वक्त पर सबसे ज्यादा मजे लेते हैं HR वाले केकयी बनकर. उनके डायलाग, “देखो इंटर माड्यूल की तो पालिसी है, प्रमोटी तो रायपुर ही जाते हैं और फिर वहां से बस्तर रीज़न”, आप निराश होकर और बस्तर को अपना राज्याभिषेक के बाद अपना वनवास मानकर फिर फरियाद जब करते हैं कि आप की तो वहां पहचान है कुछ ठीक ठाक पोस्टिंग करवा दीजिये तो मंथरा की मुस्कान के साथ आश्वस्त करते हैं कि यार 300 किलोमीटर के बाद तो सर्किल ही बदल जाता है, उससे आगे तो चाहेंगे तो भी नहीं कर पायेंगे. फिर तो लगने लगता है कि बैंक में हैं या Border Security Force में. जबलपुर के सदर के इंडियन काफी हाउस में वेज़ कटलेट और फिल्टर काफी का सेवन करने वाला बंदा सुकमा या बीजापुर पोस्टिंग के शुरुआती दौर में वहां भी इंडियन काफी हाउस ढूंढता है, फिर कुछ वहां के स्टाफ के समझाने से ये समझ पाकर कि इंडियन तो हर जगह हैं, काफी बाजार से खरीद कर अपने जनता आवास में खुद बनाकर पीता है और किशोर कुमार का ये गाना बार बार सुनता है “कोई लौटा दे मेरे बीते हुये दिन”.

जारी रहेगा…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लघुकथा # 161 ☆ “उल्टा चोर कोतवाल को डांटे” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय लघुकथा – “उल्टा चोर कोतवाल को डांटे”)  

☆ लघुकथा # 161 ☆ “उल्टा चोर कोतवाल को डांटे” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

 – लोग उनको उच्च क्वालिटी का मंत्री बताते हैं।

-उनके एक खास भक्त ने कालेज की जमीन में कब्जा करके बाउंड्री वॉल बनाना चालू किया तो कालेज के प्रिंसिपल ने आपत्ति जताई।

– भक्त ने प्राचार्य को ट्रांसफर की धमकी दे दी।

– प्रिंसिपल की उचक्के मंत्री के दरबार में पेशी हुई।

– मंत्री ने ऐंठकर कहा- तुमने हमारे अंधमूक प्रिय भक्त के काम में बाधा पहुंचाने की कोशिश की ?

– प्राचार्य ने डरते हुए जबाब दिया -सर वो तो कालेज की जमीन है।

– भक्त ने डांटते हुए कहा-   कालेज तो सरकारी है, मंत्री जी की सरकार है और जमीन तुम्हारे बाप की नहीं है, तो आपत्ति करने वाले तुम कौन होते हो ?

– मंत्री ने पूछा -कहां जाना चाहते हो,या सस्पेंड होकर घर बैठना चाहते हो?

– पीए को बुलाया गया और प्राचार्य का नाम नोट कर राजधानी मंत्रालय के सबसे बड़े अधिकारी को फोन लगाकर तुरंत कार्यवाही करने के आदेश मंत्री ने दे दिए।

– प्रिंसिपल हाथ जोड़े बड़बड़ाता रहा, फिर गार्ड ने घसीटते हुए बंगले के बाहर कर दिया।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – भविष्य निधि – दीप दीपावली के ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆

श्री सदानंद आंबेकर

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। भारतीय स्टेट बैंक से स्व-सेवानिवृत्ति के पश्चात गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार   के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर योगदान के लिए आपका समर्पण स्तुत्य है। आज प्रस्तुत है श्री सदानंद जी  की एक भावप्रवण एवं प्रेरक लघुकथा भविष्य निधि – दीप दीपावली के। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन।

☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – भविष्य निधि – दीप दीपावली के ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆

दिवाली के दिन पूर्वान्ह में गांव के प्राथमिक विद्यालय के प्रांगण में खड़ा एक अधेड़ चुपचाप शाला के भवन को देख रहा था। यह व्यक्ति जिले के हायर सेकेंडरी विद्यालय के सेवानिवृत्त प्राचार्य महेश पाठकजी थे।

शाला के भवन को देखते- देखते वे पुरानी स्मृतियों में खो गये। बचपन में छोटे से गांव की इसी शाला से उन्होंने पढ़ाई का श्रीगणेश किया था। उस समय से देखते देखते इसका भवन पुराना होकर गिरता ही चला गया था। जिले में रहते हुये उन्हें गांव आने पर इसे देखने का अवसर चलते फिरते मिलता रहता था। भवन जर्जर होने के कारण उसमें नियमित कक्षायें लगना भी धीरे धीरे कम होने लगी, स्थानीय शिक्षकों की इसी कारण रुचि भी घटने लगी पर सबसे अधिक हानि हुई उन छोटे-छोटे बच्चों की, जिनके विद्यारंभ का एकमात्र आधार यही शाला थी। बच्चे चाह कर भी पढ़ने नहीं आ सकते थे।

पाठक जी को यह बात बहुत कचोटती थी। इसके जीर्णाेद्धार के लिये पंचायत विभाग से बहुत जुगत भिड़ाई पर सरपंच के रुचि नहीं लेने के कारण काम हो नहीं पाया।

एक वर्ष पूर्व वे सेवानिवृत्त हो गये और अपने मूल निवास वाले गांव में पत्नी सहित लौट आये। एक दिन अचानक उन्हें अपनी समस्या का समाधान मिल गया। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी अतः अब घर में केवल वे दो ही जीव थे सो एक दिन अपने मन की बात पत्नी से कह ही दी। वह भी सीधी-सादी सी थी तो तत्काल स्वीकृति दे दी और अपने भविष्य निधि के संचित धन को उन्होंने इसमें लगा कर शाला में पांच पक्के कमरे बनवा कर ऊपर टिन की छत डलवा दी। एक कोने में शौचालय बनवा दिया। अपने सेवाकाल में परिचित व्यवसायी से उचित दामों में मेज कुर्सी भी बनवा कर लगवा दी।  बच्चों के कक्षा की समस्या एकाएक सुलझ गई थी और अब शाला भी नियमित चल सकती थी।  

आज उसी नये भवन की  पहली दीपावली के लिये बच्चे सजावट कर रहे थे और खुशी से शोर मचाते हुये दौड़ते फिर रहे थे। सुबह की धूप में उन बच्चों की चमकती हुई आंखों को देख कर पाठक जी को ऐसा लगा मानो दीपावली की सांझ के दीपक उनके विद्यालय के आंगन अभी से जगमगा उठे हों।

©  सदानंद आंबेकर

भोपाल, मध्यप्रदेश 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 112 – ये मिट्टी किसी को नहीं छोड़ेगी ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #112 🌻  ये मिट्टी किसी को नहीं छोड़ेगी 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक राजा बहुत ही महत्वाकांक्षी था और उसे महल बनाने की बड़ी महत्वाकांक्षा रहती थी उसने अनेक महलों का निर्माण करवाया!

रानी उनकी इस इच्छा से बड़ी व्यथित रहती थी की पता नहीं क्या करेंगे इतने महल बनवाकर!

एक दिन राजा नदी के उस पार एक महात्मा जी के आश्रम के पास से गुजर रहे थे तो वहाँ एक संत की समाधि थी और सैनिकों से राजा को सूचना मिली की संत के पास कोई अनमोल खजाना था और उसकी सूचना उन्होंने किसी को न दी पर अंतिम समय में उसकी जानकारी एक पत्थर पर खुदवाकर अपने साथ ज़मीन में गड़वा दिया और कहा की जिसे भी वह खजाना चाहिये उसे अपने स्वयं के हाथों से अकेले ही इस समाधि से चौरासी हाथ नीचे सूचना पड़ी है निकाल ले और अनमोल सूचना प्राप्त कर लें और ध्यान रखे कि उसे बिना कुछ खाये पीये खोदना है और बिना किसी की सहायता के खोदना है अन्यथा सारी मेहनत व्यर्थ चली जायेगी !

राजा अगले दिन अकेले ही आया और अपने हाथों से खोदने लगा और बड़ी मेहनत के बाद उसे वह शिलालेख मिला और उन शब्दों को जब राजा ने पढ़ा तो उसके होश उड़ गये और सारी अकल ठिकाने आ गई!

उस पर लिखा था हे राहगीर संसार के सबसे भूखे प्राणी शायद तुम ही हो और आज मुझे तुम्हारी इस दशा पर बड़ी हँसी आ रही है तुम कितने भी महल बना लो पर तुम्हारा अंतिम महल यही है एक दिन तुम्हें इसी मिट्टी मे मिलना है!

सावधान राहगीर, जब तक तुम मिट्टी के ऊपर हो तब तक आगे की यात्रा के लिये तुम कुछ जतन कर लेना क्योंकि जब मिट्टी तुम्हारे ऊपर आयेगी तो फिर तुम कुछ भी न कर पाओगे यदि तुमने आगे की यात्रा के लिये कुछ जतन न किया तो अच्छी तरह से ध्यान रखना की जैसे ये चौरासी हाथ का कुआं तुमने अकेले खोदा है बस वैसे ही आगे की चौरासी लाख योनियों में तुम्हें अकेले ही भटकना है और हे राहगीर! ये कभी न भूलना कि “मुझे भी एक दिन इसी मिट्टी मे मिलना है बस तरीका अलग-अलग है।”

फिर राजा जैसे-तैसे कर के उस कुएँ से बाहर आया और अपने राजमहल गया पर उस शिलालेख के उन शब्दों ने उसे झकझोर कर रख दिया और सारे महल जनता को दे दिये और “अंतिम घर” की तैयारियों मे जुट गया!

हमें एक बात हमेशा याद रखना चाहिए कि इस मिट्टी ने जब रावण जैसे सत्ताधारियों को नहीं बख्शा तो फिर साधारण मानव क्या चीज है? इसलिये ये हमेशा याद रखना कि मुझे भी एक दिन इसी मिट्टी में मिलना है क्योंकि ये मिट्टी किसी को नहीं छोड़ने वाली है!

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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